न्याय परमेश्वर का प्रेम है

24 जनवरी, 2022

सीन, अमेरिका

परमेश्वर के वचन कहते हैं : "मनुष्य अंततः कैसी गवाही परमेश्वर के बारे में देता है? वह गवाही देता है कि परमेश्वर धार्मिक परमेश्वर है, उसके स्वभाव में धार्मिकता, क्रोध, ताड़ना और न्याय शामिल हैं; मनुष्य परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की गवाही देता है। परमेश्वर अपने न्याय का प्रयोग मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए करता है, वह मनुष्य से प्रेम करता रहा है और उसे बचाता रहा है—परंतु उसके प्रेम में कितना कुछ शामिल है? उसमें न्याय, भव्यता, क्रोध, और शाप है। यद्यपि आतीत में परमेश्वर ने मनुष्य को शाप दिया था, परंतु उसने मनुष्य को अथाह कुण्ड में नहीं फेंका था, बल्कि उसने उस माध्यम का प्रयोग मनुष्य के विश्वास को शुद्ध करने के लिए किया था; उसने मनुष्य को मार नहीं डाला था, बल्कि उसने मनुष्य को पूर्ण बनाने का कार्य किया था। देह का सार वह है जो शैतान का है—परमेश्वर ने इसे बिलकुल सही कहा है—परंतु परमेश्वर द्वारा कार्यान्वित वास्तविकताएँ उसके वचनों के अनुसार पूरी नहीं हुई हैं। वह तुम्हें शाप देता है ताकि तुम उससे प्रेम कर सको, ताकि तुम देह के सार को जान सको; वह तुम्हें इसलिए ताड़ना देता है कि तुम जागृत हो जाओ, तुम अपने भीतर की कमियों को जान सको और मनुष्य की संपूर्ण अयोग्यता को जान लो। इस प्रकार, परमेश्वर के शाप, उसका न्याय, और उसकी भव्यता और क्रोध—ये सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए हैं। वह सब जो परमेश्वर आज करता है, और अपना धार्मिक स्वभाव जिसे वह तुम लोगों के भीतर स्पष्ट करता है—यह सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए है। परमेश्वर का प्रेम ऐसा ही है" ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर का न्याय है प्यार')। जब लोग परमेश्वर के प्रेम का जिक्र करते, तो मैं उसकी दया और अनुकम्पा, उसके अनुग्रह और आशीष का ध्यान आता। मैं उसके न्याय और ताड़ना के प्रेम को नहीं समझती थी। लेकिन खुद अनुभव करने के बाद मैं समझ सकी कि यह कितना जरूरी है, और परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, और बहुत व्यावहारिक हैं। न्याय सच में इंसान के लिए परमेश्वर का प्रेम और सर्वोत्तम उद्धार है।

सिंचन टीम की जिम्मेदारी मुझ पर थी, और पिछले साल सितंबर में, व्यावहारिक काम न करने के लिए मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। कलीसिया की अगुआ ने मेरी जगह बहन वांग को नियुक्त किया। मुझे कैसा महसूस हुआ, ये बयां नहीं कर सकती। पहले मैं बहन वांग के काम का निरीक्षण करती थी, और अब वो मेरे काम का निरीक्षण करेगी। क्या इससे मैं नाकाबिल नहीं दिखती? मैं सिंचन टीम की प्रभारी की जगह एक आम सदस्य बनकर रह गयी थी। मुझे जानने वाले भाई-बहनों को पता चल गया, तो मेरा कितना अपमान होगा? अपना काम अच्छे से न करने का मुझे सच में पछतावा हुआ। बाद में काम के बारे में जब टीम में चर्चा हुई, तो सभी लोग बड़ी देर तक चुप रहे, समय यूँ ही बीतता देख, मैंने सोचा, कि भले ही अब मैं प्रभारी नहीं रही, फिर भी मुझे सिंचन कार्य का थोड़ा अनुभव है, इसलिए मुझे जिम्मेदारी उठाकर अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। इस तरह सभी लोग देखेंगे कि मैं अब भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हूँ, और फिर शायद सभी लोग मेरा आदर करेंगे। इसलिए मैंने अपनी सोच और विचार सामने रखने शुरू कर दिए, और थोड़ी चर्चा के बाद लोग मेरे साथ अधिकतर सहमत हो गए। लगभग हर चर्चा में, सभी मेरी राय मानी जाते, इससे मुझे लगने लगा कि टीम में मेरी काबिलियत अलग ही है। मेरे पास निरीक्षक की भूमिका न हो, फिर भी मैं वैसा काम संभाल सकती थी। मुझे लगा, दूसरे लोग मुझे ऊंची नजर से देखेंगे, और फिर एक दिन शायद मुझे फिर से पदोन्नत कर दिया जाए। इसके बाद से, मैं और अधिक सक्रिय होकर अपनी बात रखने लगी, और हर सभा से पहले, मैं सबका हालचाल पूछती और उनके लिए परमेश्वर के उपयुक्त वचन ढूँढ़ती। इसमें बहुत समय और ताकत लगती, लेकिन मुझे लगा कि काम अच्छा करने से मेरी काबिलियत साबित होगी, इसलिए कीमत चुकाना सच में इसके लायक है।

उस दौरान, मुझे हमारे काम में कुछ समस्याएँ दिखीं, और सभी मेरे द्वारा सुझाए समाधानों और सुझावों से ज्यादातर सहमत थे। मैंने सोचा सभी लोग देख रहे हैं कि मैं कितनी कड़ी मेहनत कर रही हूँ, इसलिए जब अगुआ हमारे काम की समीक्षा करेंगी, और मेरा काम देखेंगी, तो शायद मेरी पदोन्नति हो जाए। लेकिन कुछ समय बाद भी ऐसा नहीं लगा कि अगुआ का मुझे पदोन्नत करने का इरादा है। मैंने देखा कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग कलीसिया में शामिल हो रहे थे, इसलिए पद संभालने के लिए और ज्यादा लोगों की जरूरत थी, लेकिन ऐसा नहीं लगा कि मुझे पदोन्नत किया जाएगा। मैं थोड़ा उदास महसूस करने लगी। मुझे लगा कि मैंने थोड़े बदलाव किए हैं, और अपना काम बढ़िया ढंग से कर रही हूँ। कलीसिया में काम करने वालों की बहुत कमी थी, तो मुझे दूसरा मौक़ा क्यों नहीं मिल रहा? एक बार बर्खास्त होने के बाद, क्या मुझे प्रभारी बनने का मौक़ा कभी नहीं मिलेगा? मुझे इसका कोई अर्थ समझ नहीं आया। मेरी इतनी कड़ी मेहनत का कोई लाभ क्यों नहीं मिल रहा था? मुझमें क्या कमी थी? बाद में, मैंने सोचा, शायद मैं उतनी कड़ी मेहनत या उतना अच्छा काम नहीं कर रही हूँ, या शायद मैं ज्यादा कुछ कर नहीं पा रही हूँ। मुझे लगा कि कड़ी मेहनत करते रहना चाहिए, बस काम की उपलब्धियों पर ही नहीं, बल्कि जीवन प्रवेश और सत्य का अनुसरण करने पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि दूसरे मेरी निजी प्रगति को देख सकें। फिर परमेश्वर मुझ पर कृपा करेगा और मुझे एक मौक़ा देगा। मुझे लगा कि उचित "प्रयास" से एक दिन बदलाव जरूर आएगा, और भले ही मेरी पदोन्नति न हो, मैं अपनी टीम में अलग जरूर दिखूंगी, और भाई-बहनों की सराहना हासिल करूंगी। इसलिए मैंने अपनी टीम के सिंचन के काम में खुद को पूरा झोंक दिया, और जब नए सदस्यों को दिक्कतें आतीं, तो मैं ध्यान से विचार कर, संगति के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़ती। जब मैं कोई चीज नहीं समझ पाती, तो ईमानदारी से प्रार्थना करती और खोजती। फिर, मैं नए सदस्यों के सिंचन के काम में मैं ज्यादा से ज्यादा सफल होती गई। कुछ समय बाद, एक सभा में, टीम की अगुआ ने कहा मैंने काम के लिए जिम्मेदारी उठाई है, और मैं नए विश्वासियों के मसलों को सुलझाने में अच्छी हूँ। मुझे अपने-आप से बहुत खुशी हुई। मुझे लगा कि अब सभी देखेंगे कि मैं कितना अच्छा काम कर रही हूँ, और अगर मैं अपने कामकाज को और बढ़िया कर सकी, तो मुझे सबकी सराहना मिल सकेगी। फिर मुझे पदोन्नति का मौक़ा मिल सकेगा। इसके बाद से, मैं पूरे जोश से काम में लग गई। अपनी खुद की जिम्मेदारियों के अलावा, मैंने टीम का जितना हो सके उतना काम हाथ में ले लिया, और दिक्कतें देखते ही निरीक्षक को सूचना और सहायता देती। मैंने सत्य का अनुसरण करने के अपने काम में भी ढील नहीं दी, हर खाली पल परमेश्वर के वचन पढ़ने लगी। जब कभी मैं उदास होती, परमेश्वर से प्रार्थना करती, खोज करती, और सभाओं में सक्रियता से संगति करती थी।

लेकिन बहुत समय तक कड़ी मेहनत करने के बावजूद मुझे पदोन्नत नहीं किया गया। मुझे लगा कि मैं चाहे जितनी कड़ी मेहनत करूँ या चाहे जितना अच्छा काम करूँ, परमेश्वर मुझे कभी पुरस्कृत नहीं करेगा, न मुझे पदोन्नती मिलेगी। तो फिर इन सबका क्या फ़ायदा? इसके बाद, मैंने काम में उतनी मेहनत करना बंद कर दिया, और जब मैंने देखा कि नए सदस्य नियमित रूप से इकट्ठा नहीं हो रहे हैं, तो भी मैंने ज्यादा पूछताछ करने या मदद करने के बजाय यूं ही पूछ लिया करती। कभी-कभार बहन वांग मुझसे भाई-बहनों की खास मनोदशाओं पर परमेश्वर के वचन ढूँढ़ने को कहती, तो मुझे लगता कि यह मेरा काम नहीं है, मैं कितना भी अच्छा काम करूँ, कोई ध्यान तो देगा नहीं, इसलिए मैं बहाना बनाकर टाल जाती। मेरी हालत भी खराब होने लगी, समझ नहीं आता था प्रार्थना में क्या कहूँ। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मुझे प्रबुद्धता नहीं मिलती, कभी-कभी तो नींद आने लगती। मुझे पवित्र आत्मा का कार्य नहीं बल्कि अपनी आत्मा में घना अंधेरा महसूस होने लगा। जल्दी ही, मैंने देखा कि दूसरे भाई-बहनों की पदोन्नति हो रही है, जबकि मैं अभी भी सिंचन टीम की मामूली सदस्य ही हूँ। मैं और भी ज्यादा निराश हो गई। मुझ जैसे ही विश्वासी कलीसिया और टीम के अगुआ थे, और दूसरों की सराहना पा रही थे, मगर मुझे पदोन्नति नहीं मिली। मतलब क्या मैं एक विश्वासी के रूप में और अपने काम में मैं विफल थी? इतनी कड़ी मेहनत करने के बावजूद, मैं उसी जगह फंसी हुई थी। मुझे लगा कि मेरी पदोन्नति की कोई आशा नहीं है। मैं इतनी ज्यादा नकारात्मक हो गई कि किसी भी काम के लिए उत्साह नहीं जुटा पा रही थी।

उस समय, मैंने सोचा कि मैं इतनी उदास क्यों थी। मैं सिर्फ रुतबे के लिए क्यों जी रही थी? क्या मैं अपनी आस्था में हमेशा रुतबे के पीछे भागती रही हूँ? इस पर सोच-विचार करके मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी बुरी हूँ। एक इंसान के तौर पर, मैं रुतबे से इतनी आसक्त क्यों हूँ? मैं सच में खुद से घृणा करने लगी। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की, और कहा, "हे परमेश्वर, मैं अपनी आस्था में, सत्य का अनुसरण करना, तुम्हारे प्रेम का मूल्य चुकाना और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मैं रुतबे के साथ इतनी आसक्त क्यों हूँ? मैं इस हाल में नहीं जीना चाहती, मगर मैं कुछ नहीं कर पा रही हूँ। रुतबे की मेरी आकांक्षा ने मुझे अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और बचाओ, ताकि मैं अपनी समस्या को समझ कर उसे सुलझा सकूँ।" प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "एक मसीह-विरोधी में मसीह-विरोधी स्वभाव और सार होता है और यही बात उसे एक सामान्य व्यक्ति से अलग करती है। देखने में तो लगता है कि उसने स्वेच्छा से अपनी बर्खास्तगी को स्वीकार कर लिया है, इस वास्तविकता को स्वीकार लिया है, लेकिन वे खुद में एक चीज कभी नहीं बदलते : वह चाहे कहीं भी काम करे, किसी भी समूह के लोगों के साथ घुले-मिले, वह भीड़ से अलग दिखता चाहता है, वह चाहता है कि लोग उसका सम्मान करें और उसे सराहें; भले ही उसके पास कलीसिया अगुआ या टीम अगुआ का वैध पद और रुतबा न हो, फिर भी वह चाहता है कि उसका स्थान और हैसियत दूसरों से ऊपर हो। चाहे वह काम कर पाए या न कर पाए, मानवीयता या जीवन को लेकर उसका अनुभव कैसा भी हो, वह हर तरह के साधन खोजता है और खुद को ऊपर उठाने के लिए, लोगों के दिल में जगह बनाने के लिए, दूसरों का मन जीतने के लिए, उन्हें धोखा और लालच देने के लिए, उनकी सराहना पाने का मौका पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। उसके पास ऐसा क्या है जो लोग उसकी सराहना करें? 'दुबला ऊंट भी घोड़े से तो बड़ा ही होता है'—भले ही उसे बर्खास्त कर दिया गया है, फिर भी वह अपनी टाँग ऊपर ही रखता है। क्या यह मसीह-विरोधी का अहंकार, आत्माभिमान और असाधारणवाद नहीं है? बिना हैसियत के, एक आम विश्वासी के रूप में, सिर्फ एक सामान्य व्यक्ति बनकर रहने के लिए वह खुद को नहीं मना पाता। ऐसे लोग पाँव जमीन पर टिकाए और अपने स्थान पर रहते हुए कर्तव्य निभा ही नहीं पाते, अच्छे से काम नहीं कर पाते, अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होकर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते। उन्हें इन चीजों से जरा-सी भी संतुष्टि नहीं मिल पाती। उनकी महत्वाकांक्षाएँ कहाँ होती हैं? उनकी महत्वाकांक्षा प्रशंसा, सम्मान और सत्ता हासिल करने में होती है। इसलिए, भले ही किसी मसीह-विरोधी के नाम के साथ कोई विशेष खिताब न जुड़ा हो, फिर भी वह अपने लिए प्रयास करता है, अपने लिए बोलता है और स्वयं को न्यायोचित ठहराता है और दिखावा करने के लिए वह सब कुछ करता है, यह दिखाने के लिए कि वह क्या कर सकता है, वह इस बात से भयभीत रहता है कि लोग कहीं उसे अनदेखा न कर दें। ऐसे लोग मौका मिलते ही प्रसिद्ध होने, अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने, अधिक से अधिक लोगों को अपना हुनर और खूबी दिखाने और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं। मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, उसमें वे अपना दिखावा और आत्म-स्तुति करने के लिए, दूसरों को यह एहसास कराने के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं कि भले ही वे अब अगुआ नहीं हैं, उनके पास रुतबा नहीं है, फिर भी वे सामान्य लोगों से श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार, मसीह-विरोधी अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। वे एक आम और सामान्य व्यक्ति बनने को तैयार नहीं होते; वे सत्ता, प्रतिष्ठा और उत्कर्ष चाहते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने सच में मुझे सच्चाई बता दी। लगा जैसे परमेश्वर ठीक वहीं पर है, मुझे उजागर कर रहा है। परमेश्वर कहता है कि मसीह-विरोधी जैसे लोग, चाहे कुछ भी हो जाए, नाम और रुतबा, सत्ता और दूसरों से प्रशंसा पाना चाहते हैं। इस घोर महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए, मसीह-विरोधी, सबके ध्यान में आने, खुद को ऊंचा उठाने और लोगों का दिल जीतने के लिए कोई भी कीमत चुका सकते हैं। मैं समझ सकी कि मेरा प्रयास भी ठीक मसीह-विरोधी जैसा ही था। अपनी आस्था में, मैं रुतबा चाहती थी, अगुआ या निरीक्षक बनना चाहती थी। अपने समूह में बढ़िया काम करके मैं दूसरों की सराहना और समर्थन चाहती थी। बर्खास्तगी के बाद, मैंने निरीक्षक बनने की अपनी आकांक्षा छोड़ने की कोशिश नहीं की। मैंने काम से जुड़ी चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लिया और सुझाव दिए, समस्याओं का पता चलते ही मैंने अगुआओं को उनकी जानकारी दी, ताकि वे जान सकें कि मैं मसलों का पता लगाने के साथ उनका हल भी सुझा सकती हूँ, कि मेरे पास एक तेज दिमाग है। तब मुझे भी पदोन्नति का मौका मिल सकेगा। मैंने अपने काम में कड़ी मेहनत की, ताकि भाई-बहन देख सकें कि मैं व्यावहारिक काम कर सकती हूँ, एक बार उनकी स्वीकृति मिल गई तो मेरे लिए तरक्की का रास्ता खुलेगा। जो काम मेरी प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं होता उसमें भी मैं सक्रिय रहती, पूरे जोश के साथ ढेर सारा समय लगाने को तैयार रहती। यही नहीं, मैंने तो सत्य के अनुसरण में भी ढिलाई नहीं की। सब इसलिए ताकि लोग देख सकें कि मैं कितना बड़ा बोझ उठाती थी, भारी बोझ उठाने के साथ मैं सत्य का अनुसरण भी कर सकती थी, ताकि वे मुझे स्वीकृति दें। मैं खुद को साबित करने, दिखावा करने और लोगों का दिल जीतने का हर मौक़ा ढूँढ़ती। क्या यह वैसा मसीह-विरोधी व्यवहार नहीं है, जिसे परमेश्वर उजागर करता है?

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जो सच में मसीह-विरोधियों के भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से बयान करता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "एक मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसके पीछे उसका लक्ष्य और इरादा हैसियत और प्रतिष्ठा पाना होता है। फिर चाहे उसके बात करने, काम करने का बाहरी तरीका हो, व्यवहार हो या फिर उसकी सोच और दृष्टिकोण हो या खोज का तरीका हो, उसकी हर चीज उसकी प्रतिष्ठा और रुतबे के इर्द-गिर्द घूमती है। एक मसीह-विरोधी के लिए, उसकी प्रतिष्ठा और हैसियत पर हमला करना या उसे नुकसान पहुँचाना उसकी जान लेने की कोशिश करने से भी अधिक गंभीर मामला होता है। मसीह-विरोधी चाहे कितने भी उपदेश सुन ले या परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ ले, उसे इस बात का दुख या पश्चाताप नहीं होता कि उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, और वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा है, कि उसकी प्रकृति और सार एक मसीह विरोधी के हैं। बल्कि उसकी बुद्धि हमेशा इसी काम में लगी रहती है कि कैसे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति जो कुछ भी करता है वह दूसरों के सामने करता है, परमेश्वर के सामने नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे लोग हैसियत से इतना प्यार करते हैं कि वे इसे अपना जीवन समझते हैं, अपने जीवन का लक्ष्य और दिशा समझते हैं। इसके अलावा, चूँकि वे अपनी हैसियत से बहुत प्यार करते हैं, वे सत्य के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते। निहितार्थ यह है कि चूँकि ऐसे लोगों का सार और प्रकृति इस तरह की होती है, वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। इस प्रकार, वे चाहे जैसे गणना करें, लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के लिए चाहे जैसा बनावटी वेश बनाएँ, उनके दिल में न तो कोई अपराध-बोध होता है, न ही जागरूकता की भावना होती है, चिंतित होने की तो बात ही दूर है। इसलिए, वे लगातार और अनैतिक ढंग से हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज में लगे रहकर, परमेश्वर के हर काम का खंडन भी करते हैं। उनके हृदय की गहराई में, उनके अवचेतन मन में, एक निश्चित समझ होती है। उन्हें लगता है, 'किसी व्यक्ति की हैसियत और हर चीज उसके अपने प्रयासों पर निर्भर करती है। लोगों के बीच अपने आपको स्थापित करने, पूर्ण सत्ता और उच्चतम हैसियत प्राप्त करने से ही किसी व्यक्ति के जीवन का कोई मूल्य हो सकता है; तभी कोई इंसान की तरह जी सकता है। इसके विपरीत, अगर परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होंगे, हर चीज में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पित होंगे, स्वेच्छा से सृष्टि के स्थान में खड़े होंगे और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जिएँगे, तो कोई उनकी ओर देखेगा भी नहीं। इंसान को अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और खुशी संघर्ष से अर्जित करनी चाहिए; ये चीजें सकारात्मक और सक्रिय दृष्टिकोण के साथ लड़कर जीती और हासिल की जानी चाहिए। कोई तुम्हें ये चीजें थाली में परोसकर नहीं देगा—निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करना बेकार है।' ... अपनी खोज और अपने ज्ञान के दायरे में, वे मानते हैं कि सृजन की सच्ची वस्तु वही होती है जिसके पास हैसियत होती है, और हैसियत होने का अर्थ है सब-कुछ प्राप्त करने में सक्षम होना और व्यक्ति का मानवीय समानता के साथ जीना। मसीह-विरोधी हैसियत को किस रूप में देखते हैं? वे इसे सत्य के रूप में देखते हैं; वे इसे वो सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं जिसका अनुसरण सामान्य लोगों को करना चाहिए। तो क्या यह कोई समस्या नहीं है? उनका मानना है कि सत्य की खोज करना, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की खोज करना, ईमानदारी की खोज करना अर्थहीन प्रक्रियाएँ हैं—ये काम सिर्फ परमेश्वर को दिखाने के लिए किए जाते हैं, ये इंसान के आचरण के मानक नहीं हैं। यह समझ बेहूदी और हास्यास्पद है। सत्य से प्रेम न करने वाले बेतुके लोग ही ऐसे हास्यास्पद विचारों को जन्म दे सकते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों के इस अंश ने सच में मेरे दिल को छू लिया। लगा, मानो मेरे दिल में छुपी हर बात को परमेश्वर ने रोशन कर दिया था। लगा, मेरे लिए छिपने की कोई जगह नहीं बची। मैंने आत्मचिंतन करना शुरू कर दिया, जितना आत्मचिंतन किया, उतना ही मुझे लगा कि मेरी सोच बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसी है। मेरी सारी कथनी और करनी रुतबे के इर्द-गिर्द ही थी, मेरा किया हर काम सराहना पाने के लिए था। रुतबा मेरे लिए किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण था। आस्था रखने से पहले, मैं हमेशा भीड़ से अलग दिखना चाहती थी, मुझे दूसरों का समर्थन और स्वीकृति पाना पसंद था। आस्था रखने के बाद, मैं अगुआई के पदों के पीछे भागने लगी, ताकि लोग मुझे ऊँची नजर से देखें और कलीसिया में मेरी एक महत्वपूर्ण भूमिका हो। निरीक्षक का पद खो देने के बाद, मैंने दोबारा अहम भूमिका पाने के लिए अपने काम में पूरा जोर लगाकर कड़ी मेहनत की। कुछ समय कड़ी मेहनत करने के बाद भी जब मुझे वह नहीं मिला, तो मैं निराश हो गई। बहुत ज्यादा खपने और बढ़िया काम करने के बाद भी जब मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया, तो काम से मेरा मन उठ गया। जब मुझे रुतबा नहीं मिला, तो बढ़िया काम करने का मेरा जोश हवा हो गया। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष दिया, उससे कुतर्क कर प्रतिरोध किया। मैं नाम और रुतबे के खयालों में बह गई। मैंने सृजित प्राणी के लिए जरूरी जमीर और समझ खो दी थी। व्यावहारिक काम न करने के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया था, मगर मुझे अपनी पुरानी गलतियों का पछतावा नहीं हुआ। मैंने यह नहीं सोचा कि परमेश्वर का ऋण चुकाने के लिए मैं प्रायश्चित करके बढ़िया अपना काम कैसे करूँ। मैंने काम करने के उस मौके का इस्तेमाल, सिर्फ दिखावा करने, दिल से रुतबे के पीछे भागने के लिए किया। टीम की एक आम सदस्य बने रहकर मैं संतुष्ट नहीं थी, बल्कि मैं एक मसीह-विरोधी की तरह दुष्ट और बेशर्म थी, पूरी तरह विवेकहीन। परमेश्वर के इन वचनों ने सच में मेरी मदद की : "उनका मानना है कि सत्य की खोज करना, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की खोज करना, ईमानदारी की खोज करना अर्थहीन प्रक्रियाएँ हैं—ये काम सिर्फ परमेश्वर को दिखाने के लिए किए जाते हैं, ये इंसान के आचरण के मानक नहीं हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। लगा जैसे मेरे चेहरे पर जोर का थप्पड़ जड़ दिया गया हो। सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना एक सकारात्मक चीज है, और इंसान होने के नाते हमारा कर्तव्य है। हमें अपने जीवन में सत्य का अनुसरण करके परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। मगर, मैं सत्य के अनुसरण और अभ्यास का इस्तेमाल निजी रुतबे की सौदेबाजी के लिए कर रही थी। मैं उसके बदले में एक पद चाहती थी। क्या यह सत्य को एक खिलौना मानना नहीं है, जिसे कुचला जा सके? कर्तव्य को लेकर ऐसी घिनौनी मंशा रखने को परमेश्वर कभी स्वीकार नहीं करेगा। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि चीजों के बारे में मेरा नजरिया कितना बेतुका था। मुझे लगता था कि सिर्फ रुतबा और सत्ता हासिल करके, आदर, प्रसिद्धि और प्रशंसा पाकर ही मेरा जीवन मूल्यवान होगा। एक विश्वासी का, रुतबे के बिना सिर्फ एक आम अनुयायी होना दयनीय ढंग से जीना है, असफल होना है। ऐसा नजरिया कितना बेतुका था! यह बिल्कुल शैतानी कुतर्क है। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि हम योग्य सृजित प्राणी बनें, अपने स्थान में रहें, परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करें, ताकि एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियाँ निभा सकें। सृजनकर्ता ने एक अच्छा इंसान बनने की खातिर हमारे लिए जो सिद्धांत निर्धारित किए हैं, उनसे मुँह फेर लिया। मैं अपने स्थान में नहीं रहना चाहती थी, बल्कि महत्वपूर्ण काम करने वाली महान इंसान बनना चाहती थी, ऊंचा पद हासिल कर ज्यादा सराहना पाना चाहती थी। यह शैतानी स्वभाव है। मैं सिंचन के काम को अच्छी तरह जानती थी, इसलिए मैं हमारी चर्चाओं में कुछ विचार और सुझाव पेश कर पाती थी। यह बिल्कुल सामान्य था, मेरे काम का हिस्सा था। लेकिन मेरी यह बावली इच्छा थी कि मैं दिखावा करने के लिए इसका इस्तेमाल कर तरक्की पाऊँ। जब मेरे मन का चाहा पूरा नहीं हुआ, तो मैं बेचैन हो गई, मुझे लगा कि परमेश्वर मेरी कड़ी मेहनत नहीं देख पा रहा। रुतबा नहीं मिला तो लगा कि मैं अपनी आस्था में असफल हो गई थी, काम में मेरी दिलचस्पी भी ख़त्म हो गई। मैंने अपनी महत्वाकांक्षा को परमेश्वर के प्रति निष्ठा मान लिया। यह तथाकथित निष्ठा बहुत मिलावटी थी, बेईमानी और सौदेबाजी थी। यह भला सत्य का अभ्यास करना और कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? यह परमेश्वर का इस्तेमाल कर उसे धोखा देना था, यह पूरी तरह से उसके खिलाफ एक मसीह-विरोधी राह पर चलना था। परमेश्वर हमारे दिल-ओ-दिमाग में झाँकता है, वह धार्मिक और पवित्र है। मैं गलत रास्ते पर चल पड़ी थी। मुझे पवित्र आत्मा का कार्य कैसे मिल सकता था? मेरी हालत बदतर होती जा रही थी और मैं अँधेरे में थी। यह परमेश्वर द्वारा मेरी ताड़ना और मुझे बाहर कर देना था। तब मैं समझी कि नाम और रुतबे के पीछे भागना सच में कितना डरावना है। मैं न खुद को जानती थी, न ही यह कि मैं व्यावहारिक काम कर सकती हूँ या नहीं। मैं बस ऊंचे पद के पीछे भागती जा रही थी। शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया था कि मैंने सामान्य विवेक खो दिया था, खुद को जानती भी नहीं थी। मुझे सच में अपना स्थान मालूम नहीं था। इसीलिए मैं राह में लड़खड़ाते हुए दर्द से जूझ रही थी। मेरी भ्रष्टता मेरे साथ खिलवाड़ करते हुए मुझे दर्द दे रही थी। शैतान हमें भ्रष्ट करता है, हमारे नाम और रुतबे के पीछे भागने के जरिए नुकसान पहुंचाता है। यह चलने के लिए अच्छा रास्ता नहीं है, हमें रुतबा मिल भी जाए, तो भी सत्य का अनुसरण न करने पर हम जरूर हटा दिए जाएंगे। हमें बचाए जाने के लिए सत्य का अनुसरण करके एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना होगा। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों के एक अंश की याद आई : "तुम सभी लोग यह समझ जाओगे कि प्रसिद्धि एवं लाभ ऐसी भयानक बेड़ियाँ हैं जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वो दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियन्त्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का पूरी तरह से विरोध करोगे जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम उन सभी चीज़ों को फेंकने की इच्छा करोगे जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और तुम सच में उन सब से घृणा करोगे जिन्हें शैतान तुम तक लाया है। केवल तभी मानवजाति के पास परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम और लालसा होगी" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। मुझे लगा कि ये वचन बिल्कुल सच हैं। मैं समझ गई कि मेरा सारा दुख शैतान के कारण है। मैं शैतान के खिलवाड़ और यातना के कारण, लगातार रुतबे के पीछे भाग रही थी, मैंने पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन खो दिया था और अँधेरे में जी रही थी। मेरी वह आकांक्षा सच में मुझे डुबा रही थी। अपने बेहद जिद्दी और अड़ियल होने से मुझे नफ़रत हो गई। उस पूरे समय में, मैं मसीह-विरोधी की राह पर थी, परमेश्वर के खिलाफ चल रही थी। मैं दंड पाने और हटाये जाने के काबिल थी। लेकिन परमेश्वर ने मुझसे उद्धार का मौक़ा नहीं छीना। वह अपने वचनों से, बड़े सब्र से मेरा सिंचन और पोषण कर रहा था, मुझे काम करने का मौक़ा दे रहा था, ताकि मैं अपने अनुसरण की समस्या को समझकर वापस लौट आऊँ। मगर मैं समझ नहीं पाई। मैं नकारात्मक बनकर परमेश्वर को दोष देती रही। मैं बड़ी विवेकहीन थी। इसका एहसास होने पर मैं अपराधबोध में डूब गई, और मैंने यह प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, तुम्हारे न्याय और ताड़ना के लिए धन्यवाद, जिससे मैं खुद को जान पाई। मैं नाम और रुतबे के पीछे नहीं भागना चाहती, बल्कि अपनी भ्रष्टता छोड़ने के लिए सत्य खोजना और सच में प्रायश्चित करना चाहती हूँ।"

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग" का अंतिम खंड। "परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा नहीं करता कि उनमें एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने की क्षमता हो या वे कोई महान उपक्रम संपन्न करें, न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का प्रवर्तन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या माननीय बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चहता है कि तुम उसके वचनों को सुनो, और सुन लेने के बाद उन्हें दिल में बसा लो और ज़मीनी तौर पर अभ्यास करते समय उनका पालन करो, ताकि परमेश्वर के वचन तुम्हारी जीवन-शैली और तुम्हारा जीवन बन जाएँ। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, कुलीनता और प्रतिष्ठा ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चाताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। सुनिश्चित करो कि तुम ऐसे व्यक्ति न बनो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? सत्य को व्यावहारिक तरीके से ग्रहण करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए परमेश्वर के वचन पर दृढ़ता से भरोसा करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करके और एक सच्चे की इंसान की तरह जीवन जी कर। इतना काफी है। मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालो या बेकार के सपने न देखो, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागो या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करो। इसके अलावा, ऐसे महान या अलौकिक व्यक्ति बनने की कोशिश न करो, जो लोगों में श्रेष्ठ हो और दूसरों से अपनी पूजा करवाता हो। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; ऐसे सृजित प्राणियों को परमेश्वर नहीं बचाता। इसके बावजूद अगर कुछ लोग प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं और पश्चाताप नहीं करते, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ सकी कि वह हमें प्रसिद्ध, महान या ऊंचा नहीं देखना चाहता। वह चाहता है कि हम जमीन से जुड़े रहें, अपना कर्तव्य निभाएं, और बस उसके सामने समर्पण करें। लेकिन मैं खुद को नहीं समझ सकी, न ही मैंने निष्ठा से अपना काम किया। मैं सराहना और प्रशंसा चाहती थी, दूसरों के दिलों में जगह चाहती थी। यह परमेश्वर की अपेक्षा के ठीक उल्टा था। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट हूँ, मगर मैं एक आम इंसान बने रहने से संतुष्ट नहीं थी। मुझे सिर्फ रुतबा चाहिए था, दूसरों से ऊपर रहना चाहती थी। मैं आत्मबोध के बिना घमंड में चूर थी। परमेश्वर सृजनकर्ता है, और वह बहुत महान और प्रतापी है। वह खुद देहधारी होकर, मनुष्य को बचाने की खातिर सत्य व्यक्त करने के लिए पृथ्वी पर आया है, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता, न ही परमेश्वर होने का रौब दिखाता है। इसके बजाय, वह मनुष्य को बचाने का अपना काम बड़ी शांति से करता है। परमेश्वर बहुत विनम्र और छिपा हुआ है, उसका सार बहुत ही मनोहर है। ऐसा सोचकर मैंने बहुत शर्मिंदगी महसूस की, मैंने देह-सुख को पूरी तरह छोड़कर सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया।

फिर, मैंने खुद को अपने काम में पूरे दिल से झोंक दिया और सच में विचार किया कि नए विश्वासियों का सिंचन कैसे किया जाए। अपने रुतबे के बारे में भूलकर एक आम इंसान बनके, जितना हो सके उतना अच्छा काम करके मुझे बहुत खुशी मिली। जब मैंने इसमें अपना दिल लगा दिया, तो परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध किया, मेरे सिंचन कार्य में मुझे रास्ता दिखाया। पता भी नहीं चला और मैं अपना काम बेहतर ढंग से करने लगी। इस प्रकार के अभ्यास से मैं बहुत बेहतर महसूस करने लगी। मुझे याद है, एक बार हमें नए विश्वासियों के लिए एक सभा का आयोजन करना था। लेकिन सिंचन टीम में नई आई बहन, नए विश्वासियों को ठीक से नहीं जानती थी, उसे मालूम नहीं था कि उनसे कैसे बात शुरू करे। मैं जानती थी कि मुझे स्थिति को संभालकर मदद करनी चाहिए, मगर मुझे लगा कि लोगों से संपर्क करने की तैयारी का काम करना सच में निचले दर्जे का काम था। अगर मैंने यह करने की पेशकश की, तो क्या मेरा कद छोटा नहीं हो जाएगा? तभी मुझे समझ आया कि मैं गलत थी, काम का महत्त्व कम-ज्यादा नहीं होता, और संवाद करना भी एक काम है। तो मैं यह काम क्यों नहीं कर सकती? फिर मैंने भाई-बहनों से संपर्क करने में मदद की पेशकश की। मुझे एहसास हुआ कि काम चाहे जो भी हो, जब तक आपका इरादा सही हो और आप उसे दिल से परमेश्वर के सामने कर सकें, तो आप शांति और सुकून महसूस कर सकेंगे। कभी-कभी जब मैं देखती कि निरीक्षक बहुत व्यस्त हैं, और भाई-बहन सिंचन कार्य की बारीकियों के बारे में पूछ रहे हैं, तो मैं अपने रुतबे के बारे में सोचे बिना, सबके साथ मिलकर बढ़िया काम करना चाहती, और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती। मैंने संगति करके चीजें सुलझाने की भरसक कोशिश की। कुछ समय बाद, जब मैंने अपनी सोच बदल ली, तो मेरे काम में सब-कुछ बदल गया। जिम्मेदारी महसूस करते हुए मैं ज्यादा समस्याएं पकड़ पा रही थी, मेरी हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी।

एक दिन, एक अगुआ ने मुझे ढूँढ़कर कहा कि वे चाहती हैं कि एक दूसरी बहन के साथ मैं भी कलीसिया के एक कार्य की जिम्मेदारी संभालूँ। यह सुनकर मुझे बड़ा अचरज हुआ। समझ नहीं आया अपनी भावनाओं को कैसे बयां करूँ। लगा जैसे परमेश्वर के बारे में मेरी सारी गलतफहमियां और उससे दूरियां पल भर में दूर हो गईं। मेरी सोच हमेशा से संकीर्ण थी, मैं परमेश्वर को गलत समझती थी। मुझे लगा जैसे पहले काम में विफल होने के कारण, मैं कितनी भी कड़ी मेहनत क्यों न करूँ, उसे कोई नहीं देखेगा। परमेश्वर दया नहीं दिखाएगा, न ही मुझे और मौके देगा। लेकिन परमेश्वर इतने समय से मेरे बदलने का इंतजार कर रहा था। वह चीजें सजा रहा था ताकि मैं अपना स्थान पा सकूँ, और सृजनकर्ता की व्यवस्थाओं को स्वीकार सकूँ। मैं हमेशा से अपने रुतबे के लिए लड़ने की कोशिश करती रही, और हर कदम पर असफल होती रही। जब मैंने उसे जाने दिया और पद के बारे में सोचना छोड़ दिया, तो परमेश्वर ने मुझे एक दूसरा काम सौंपा। मैं समझ गई कि परमेश्वर का सार कितना कृपालु और मनोहर है। ऐसी बातों के लिए परमेश्वर कभी किसी को नहीं मारा, हालांकि उसके न्याय और ताड़ना में उसका क्रोध निहित होता है, उसमें उसकी गूढ़ अपेक्षाएं भी भरी होती हैं। उसे आशा रहती है कि उसकी ताड़ना और कष्ट सहने के बाद, लोग जीवन में आगे बढ़ेंगे। यही है परमेश्वर का अनमोल प्रेम! मैं अपने लिए परमेश्वर के उद्धार की खातिर दिल से धन्यवाद करती हूँ।

मैं हमेशा नाम और रुतबे के पीछे भागती रहती थी, जिससे मैं परेशान और थकी रहती थी। परमेश्वर के वचनों के न्याय, परीक्षणों और प्रकाशनों के बिना, मैं कभी नहीं समझती कि शैतान ने मुझे कितना भ्रष्ट कर दिया था या मुझे रुतबे की कितनी परवाह थी। मैं इंसानियत के बिना, उन चीजों के लिए लड़ती रहती, शैतान का खिलौना बनी रहती। मैंने खुद अनुभव किया है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना उसकी सर्वोत्तम रक्षा और उद्धार है, उसका सबसे सच्चा प्रेम है। जैसा कि परमेश्वर कहता है, "अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')

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