न्याय और ताड़ना परमेश्वर का प्रेम है
परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मनुष्य अंततः परमेश्वर के बारे में क्या गवाही देता है? वह गवाही देता है कि परमेश्वर धार्मिक परमेश्वर है, उसके स्वभाव में धार्मिकता, क्रोध, ताड़ना और न्याय शामिल हैं; मनुष्य परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की गवाही देता है। परमेश्वर अपने न्याय का उपयोग मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए करता है, उसने मनुष्य से प्रेम किया है और उसे बचाया है—परंतु उसके प्रेम में क्या निहित है? उसमें न्याय, प्रताप, क्रोध और शाप निहित है। यद्यपि अतीत में परमेश्वर ने मनुष्य को शाप दिया था, परंतु उसने मनुष्य को पूरी तरह से अथाह कुंड में नहीं फेंका, बल्कि उसने यह उपाय मनुष्य के विश्वास के शोधन के लिए किया था; उसने मनुष्य को मार नहीं डाला था, बल्कि उसने मनुष्य को पूर्ण बनाने का कार्य किया था। देह का सार वही है जो शैतान का है—परमेश्वर ने यह बिलकुल सही कहा है—परंतु परमेश्वर द्वारा कार्यान्वित तथ्य उसके वचनों के अनुसार पूरे नहीं होते। वह तुम्हें शाप देता है ताकि तुम उससे प्रेम कर सको, ताकि तुम देह के सार को जान सको; वह तुम्हें ताड़ना देता है ताकि तुम्हें जगाया जा सके, तुम अपने भीतर की कमियाँ और मनुष्य की संपूर्ण अयोग्यता जान सको। इस प्रकार, परमेश्वर के शाप, उसका न्याय, और उसका प्रताप और क्रोध—ये सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए हैं। वह सब जो परमेश्वर आज करता है, और धार्मिक स्वभाव जिसे वह तुम लोगों के भीतर स्पष्ट दिखाता है—यह सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए है। ऐसा है परमेश्वर का प्रेम” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। जब लोग परमेश्वर के प्रेम का जिक्र करते, तो मैं उसकी दया और अनुकम्पा, उसके अनुग्रह और आशीष का ध्यान आता। मैं समझ न सकी कि उसका न्याय और ताड़ना प्रेम हैं। लेकिन व्यावहारिक अनुभव के बाद मुझे कुछ व्यक्तिगत समझ हासिल हुई और मैंने समझा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और पूरी तरह व्यावहारिक हैं और न्याय और ताड़ना, इंसान के लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार हैं।
सिंचन कार्य की जिम्मेदारी मुझ पर थी, और सितंबर 2020 में, व्यावहारिक काम न करने के लिए मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। कलीसिया की अगुआ ने मेरी जगह बहन जॉयस को नियुक्त किया। मुझे कैसा महसूस हुआ, ये बयां नहीं कर सकती। पहले मैं जॉयस के काम का निरीक्षण करती थी, और अब वो मेरे काम का निरीक्षण करेगी। क्या इससे मैं नाकाबिल नहीं दिखती? मैं सिंचन टीम की प्रभारी की जगह एक आम सदस्य बनकर रह गयी थी। मुझे जानने वाले भाई-बहनों को पता चल गया, तो मेरा कितना अपमान होगा? ऐसे सोचा तो मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से न करने का बहुत पछतावा हुआ। बाद में काम के बारे में जब टीम में चर्चा हुई, तो सभी लोग बड़ी देर तक चुप रहे, मैंने सोचा, कि भले ही अब मैं प्रभारी नहीं रही, फिर भी मुझे नवागतों के सिंचन का थोड़ा अनुभव है, इसलिए मुझे जिम्मेदारी उठाकर अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। इस तरह सभी लोग देखेंगे कि मैं अब भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हूँ, और फिर शायद सभी लोग मेरा आदर करेंगे। इसलिए मैंने अपनी सोच और विचार सामने रखने शुरू कर दिए, और थोड़ी चर्चा के बाद लोग मेरे विचार के साथ अधिकतर सहमत हो गए। लगभग हर चर्चा में, सभी मेरी राय मानी जाते, इससे मुझे लगने लगा कि टीम में मेरी काबिलियत अलग ही है। मेरे पास निरीक्षक की भूमिका न हो, फिर भी मैं वैसा काम संभाल सकती थी। मुझे लगा, दूसरे लोग मुझे ऊंची नजर से देखेंगे, और फिर एक दिन शायद मुझे फिर से पदोन्नत कर दिया जाए। इसके बाद से, मैं और अधिक सक्रिय होकर अपनी बात रखने लगी, और हर सभा से पहले, मैं नवागतों का हालचाल जानने की कोशिश करती और उनके लिए परमेश्वर के उपयुक्त वचन ढूँढ़ती। इसमें बहुत समय और ताकत लगती, लेकिन मुझे लगा कि काम अच्छा करने से मेरी काबिलियत साबित होगी, इसलिए कीमत चुकाना सच में इसके लायक है। मैं अपने कर्तव्य में सक्रिय थी, हमारे काम में कुछ समस्याएँ भी देख पाई थी, और सभी मेरे द्वारा सुझाए समाधानों और सुझावों से सहमत थे। मैंने सोचा सभी लोग देख रहे हैं कि मैं कितनी कड़ी मेहनत कर रही हूँ, इसलिए जब अगुआ हमारे काम की समीक्षा करेंगी, और मेरा काम देखेंगी, तो शायद मेरी पदोन्नति हो जाए। लेकिन कुछ समय बाद भी ऐसा नहीं लगा कि अगुआ का मुझे पदोन्नत करने का इरादा है। मैंने देखा कि ज्यादा-से-ज्यादा नए विश्वासी कलीसिया में शामिल हो रहे थे, इसलिए पद संभालने के लिए और ज्यादा लोगों की जरूरत थी, लेकिन ऐसा नहीं लगा कि मुझे पदोन्नत किया जाएगा। इसके कारण मैं मैं थोड़ा निराश महसूस करने लगी। मुझे लगा कि मैंने थोड़े बदलाव किए हैं, और अपना कर्तव्य बढ़िया ढंग से कर रही हूँ। कलीसिया में काम करने वालों की बहुत कमी थी, तो मुझे दूसरा मौक़ा क्यों नहीं मिल रहा? एक बार बर्खास्त होने के बाद, क्या मुझे प्रभारी बनने का मौक़ा कभी नहीं मिलेगा? मुझे इसका कोई अर्थ समझ नहीं आया। मेरी इतनी कड़ी मेहनत का कोई लाभ क्यों नहीं मिल रहा था? मुझमें क्या कमी थी? बाद में, मैंने सोचा, शायद मैं उतनी कड़ी मेहनत या उतना अच्छा काम नहीं कर रही हूँ, या शायद मैं ज्यादा कुछ कर नहीं पा रही हूँ। मुझे लगा कि कड़ी मेहनत करते रहना चाहिए, बस अपने कर्तव्य की उपलब्धियों पर ही नहीं, बल्कि जीवन प्रवेश और सत्य का अनुसरण करने पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि दूसरे मेरी निजी प्रगति को देख सकें। फिर परमेश्वर मुझ पर कृपा करेगा और मुझे एक मौक़ा देगा। मुझे लगा कि “उचित” प्रयास से एक दिन बदलाव जरूर आएगा, और भले ही मेरी पदोन्नति न हो, मैं अपनी टीम में अलग जरूर दिखूंगी, और भाई-बहनों की सराहना हासिल करूंगी। इसलिए मैंने अपनी टीम के सिंचन के काम में खुद को पूरा झोंक दिया, और जब नए सदस्यों को दिक्कतें आतीं, तो मैं ध्यान से विचार कर, संगति के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़ती। जब मैं कोई चीज नहीं समझ पाती, तो ईमानदारी से प्रार्थना करती और खोजती। फिर, मैं नए सदस्यों के सिंचन के काम में मैं ज्यादा से ज्यादा सफल होती गई। कुछ समय बाद, एक सभा में, टीम की अगुआ ने कहा कि मैंने अपने कर्तव्य के लिए जिम्मेदारी उठाई है, और मैं नए विश्वासियों के मसलों को सुलझाने में अच्छी हूँ। मुझे अपने-आप से बहुत खुशी हुई। मुझे लगा कि अब सभी देखेंगे कि मैं कितना अच्छा काम कर रही हूँ, और अगर मैं अपने कामकाज को और बढ़िया कर सकी, तो मुझे सबकी सराहना मिल सकेगी। फिर मुझे पदोन्नति का मौक़ा मिल सकेगा। इसके बाद से, मैं पूरे जोश से अपने कर्तव्य में लग गई। अपनी खुद की जिम्मेदारियों के अलावा, मैंने टीम का जितना हो सके उतना काम हाथ में ले लिया, और दिक्कतें देखते ही निरीक्षक को सूचना और सहायता देती। मैंने सत्य का अनुसरण करने के अपने काम में भी ढील नहीं दी, हर खाली पल परमेश्वर के वचन पढ़ने लगी। जब कभी मैं उदास होती, परमेश्वर से प्रार्थना करती, खोज करती, और सभाओं में सक्रियता से संगति करती थी। लेकिन बहुत समय तक कड़ी मेहनत करने के बावजूद जब मुझे पदोन्नत नहीं किया गया तो मैं काफी निराश हो गई। मुझे लगा कि मैं चाहे जितनी कड़ी मेहनत करूँ या चाहे जितना अच्छा काम करूँ, अगुआ मुझे कभी पदोन्नत नहीं करेगा। तो फिर इन सबका क्या फ़ायदा? इसके बाद, मैंने काम में उतनी मेहनत करना बंद कर दिया, और जब मैंने देखा कि नए सदस्य नियमित रूप से इकट्ठा नहीं हो रहे हैं, तो भी मैंने ज्यादा पूछताछ करने या मदद करने के बजाय यूं ही पूछ लिया करती। कभी-कभार जॉयस सभाओं से पहले मुझसे भाई-बहनों की खास समस्याओं और कमियों पर परमेश्वर के वचन ढूँढ़ने को कहती, तो मुझे लगता कि यह मेरा काम नहीं है, मैं कितना भी अच्छा काम करूँ, कोई ध्यान तो देगा नहीं, इसलिए मैं बहाना बनाकर टाल जाती। मेरी हालत भी खराब होने लगी, समझ नहीं आता था प्रार्थना में क्या कहूँ। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मुझे प्रबुद्धता नहीं मिलती, कभी-कभी तो नींद आने लगती। मुझे पवित्र आत्मा का कार्य नहीं बल्कि अपनी आत्मा में घना अंधेरा महसूस होने लगा। जल्दी ही, मैंने देखा कि दूसरे भाई-बहनों की पदोन्नति हो रही है, जबकि मैं अभी भी सिंचन टीम की मामूली सदस्य ही हूँ। मैं और भी ज्यादा निराश हो गई। मैं इतने लंबे समय से कड़ी मेहनत कर रही थी, लेकिन मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। ऐसा लगा रहा था कि मेरे तरक्की पाने की कोई आशा नहीं है। मुझ जैसे ही विश्वासी सुपरवाइजर और टीम के अगुआ होने में सक्षम थे, और दूसरों की सराहना पा रही थे, मगर मुझे पदोन्नति नहीं मिली। मतलब क्या मैं एक विश्वासी के रूप में मैं विफल थी? मैं इतनी ज्यादा नकारात्मक हो गई कि किसी भी काम के लिए उत्साह नहीं जुटा पा रही थी।
बाद में, मैंने सोचा कि मैं इतनी उदास क्यों थी। मैं सिर्फ रुतबे के लिए क्यों जी रही थी? क्या मैं अपनी आस्था में हमेशा रुतबे के पीछे भागती रही हूँ? मैं इतनी बुरी कैसे हो सकती हूँ? मैं रुतबे से इतनी आसक्त क्यों हूँ? मैं सच में खुद से घृणा करने लगी। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की, और कहा, “हे परमेश्वर, मैं अपनी आस्था में, सत्य का अनुसरण करना, तुम्हारे प्रेम का मूल्य चुकाना और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। लेकिन अभी मैं रुतबे की इच्छा से पीड़ित हूँ, इस कारण मैं बहुत दुखी और निराश हूँ। मैं इस तरह नहीं जीना चाहती, मगर मैं कुछ नहीं कर पा रही हूँ। हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और बचाओ, ताकि मैं अपनी समस्या को समझ कर उसे सुलझा सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी में मसीह-विरोधी का ही स्वभाव और सार होता है, और यही चीज उसे सामान्य व्यक्ति से अलग करती है। हालाँकि हटाए जाने के बाद वह बाहर से कुछ नहीं कहता, लेकिन अपने दिल में वह विरोध करना जारी रखता है। वह अपनी गलतियाँ नहीं स्वीकारता, और कभी वास्तव में खुद को जानने में सक्षम नहीं होता। यह बहुत पहले ही सिद्ध हो चुका है। मसीह-विरोधी के बारे में कुछ और भी है, जो कभी नहीं बदलता : वह चाहे कहीं भी काम करे, वह भीड़ से अलग दिखना चाहता है, दूसरों से अपना सम्मान और अपनी सराहना करवाना चाहते हैं; भले ही उसके पास कलीसिया-अगुआ या टीम-अगुआ का वैध पद और खिताब न हो, फिर भी वह प्रतिष्ठा और हैसियत में दूसरों से कहीं बेहतर होना चाहता है। चाहे वह काम कर पाए या न कर पाए, उसमें कैसी भी मानवता या उसके पास कैसा भी जीवन-अनुभव हो, वह हर तरह के साधन खोजता है और दिखावा करने, लोगों के दिलों में राह बनाने, दूसरों का मन जीतने, उनकी सराहना पाने के लिए उन्हें धोखा देने और ललचाने के मौके पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। मसीह-विरोधी के पास सराहने योग्य क्या होता है? भले ही उसे बर्खास्त कर दिया गया हो, फिर भी ‘दुबला ऊँट भी घोड़े से बड़ा ही होता है,’ और वह मुर्गियों के ऊपर उड़ने वाला बाज बना रहता है। क्या यह मसीह-विरोधी का अहंकार, आत्म-तुष्टि और असाधारणवाद नहीं है? वह बिना हैसियत के, एक आम विश्वासी के रूप में, सिर्फ एक साधारण व्यक्ति बनकर रहने से संतुष्ट नहीं हो पाता। वह पाँव जमीन पर टिकाए रखकर और अपने स्थान पर रहते हुए अपना कर्तव्य निभा ही नहीं पाता, अपने कर्तव्य में अच्छा काम नहीं कर पाता, उसके प्रति समर्पित होकर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाता। उसे इन चीजों से जरा-सी भी संतुष्टि नहीं मिलती। वह इस तरह का व्यक्ति बनने या इस तरह की चीजें करने के लिए तैयार नहीं होता। उसकी भव्य महत्वाकांक्षा क्या होती है? वह है प्रशंसा, सम्मान और सत्ता हासिल करना। इसलिए, भले ही मसीह-विरोधी के नाम के साथ कोई विशेष खिताब न जुड़ा हो, फिर भी वह अपने लिए प्रयास करता है, अपने लिए बोलता है और खुद को सही ठहराता है और इस डर से कि कोई उसकी ओर नहीं देखेगा या उस पर ध्यान नहीं देगा, वह दिखावा करने के लिए सब-कुछ करता है। वह ज्यादा प्रसिद्ध होने, अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने, अधिक से अधिक लोगों को अपना हुनर और खूबी दिखाने और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने का कोई मौका नहीं चूकता। ये चीजें करते हुए, मसीह-विरोधी अपनी शान बघारने और आत्म-स्तुति करने के लिए, और सभी को यह एहसास कराने के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार रहता है कि भले ही वह अब अगुआ नहीं है और उसके पास रुतबा नहीं है, फिर भी वह साधारण लोगों से श्रेष्ठ है। इस प्रकार, मसीह-विरोधी अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है। वह एक साधारण और सामान्य व्यक्ति बनने को तैयार नहीं होता; वह सत्ता, प्रतिष्ठा और उत्कर्ष चाहता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई रुतबा या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे लगा जैसे परमेश्वर ठीक वहीं पर है, मुझे उजागर कर रहा है। परमेश्वर कहता है कि मसीह-विरोधी जैसे लोग, चाहे कुछ भी हो जाए, नाम और रुतबा, सत्ता और दूसरों से प्रशंसा पाना चाहते हैं। इस घोर महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए, मसीह-विरोधी, सबके ध्यान में आने, खुद को ऊंचा उठाने और लोगों का दिल जीतने के लिए कोई भी कीमत चुका सकते हैं। मैं समझ सकी कि मेरा प्रयास भी ठीक मसीह-विरोधी जैसा ही था। अपनी आस्था में, मैं रुतबा चाहती थी, अगुआ या निरीक्षक बनना चाहती थी। अपने समूह में बढ़िया काम करके मैं दूसरों की सराहना और समर्थन चाहती थी। बर्खास्तगी के बाद, मैंने निरीक्षक बनने की अपनी आकांक्षा छोड़ने की कोशिश नहीं की। मैंने काम से जुड़ी चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लिया और सुझाव दिए, समस्याओं का पता चलते ही मैंने निरीक्षक को उनकी जानकारी दी, ताकि वो जान सके कि मैं मसलों का पता लगाने के साथ उनका हल भी सुझा सकती हूँ, कि मेरे पास एक तेज दिमाग है। तब मुझे भी पदोन्नति का मौका मिल सकेगा। मैंने अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत की, ताकि भाई-बहन देख सकें कि मैं व्यावहारिक काम कर सकती हूँ, तब मेरे लिए तरक्की का रास्ता खुलेगा। जो काम मेरी प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं होता उसमें भी मैं सक्रिय रहती, पूरे जोश के साथ ढेर सारा समय लगाने को तैयार रहती, चाहती थी कि सभी देखें कि मैं अपने कर्तव्य में बोझ उठाती हूँ और काफी जिम्मेदारी उठा सकती हूँ। यही नहीं, मैंने तो सत्य के अनुसरण में भी ढिलाई नहीं की, ताकि वे मुझे स्वीकृति दें। मैं खुद को साबित करने और दिखावा करने का हर मौक़ा ढूँढ़ती। क्या यह वैसा मसीह-विरोधी व्यवहार नहीं है, जिसे परमेश्वर उजागर करता है?
मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जो सच में मसीह-विरोधियों के भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से बयान करते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “एक मसीह-विरोधी के लिए, अगर उसकी प्रतिष्ठा और हैसियत पर हमला किया जाता या उन्हें छीन लिया जाता है, तो यह उसकी जान लेने की कोशिश करने से भी अधिक गंभीर मामला होता है। मसीह-विरोधी चाहे कितने भी उपदेश सुन ले या परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ ले, उसे इस बात का दुख या पश्चात्ताप नहीं होगा कि उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, और वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा है, कि उसका प्रकृति सार मसीह-विरोधी का है। बल्कि उसकी बुद्धि हमेशा इसी काम में लगी रहती है कि कैसे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, वह दूसरों के सामने दिखावा करने के लिए करता है, परमेश्वर के सामने नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे लोग हैसियत से इतना प्यार करते हैं कि वे इसे अपना जीवन समझते हैं, अपने जीवनभर का लक्ष्य समझते हैं। इसके अलावा, चूँकि वे अपनी हैसियत से बहुत प्यार करते हैं, वे सत्य के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते, और यह तक कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। इस प्रकार, प्रतिष्ठा और हैसियत हासिल करने के लिए वे चाहे जैसे भी गणना करें, लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के लिए चाहे जैसा बनावटी वेश बनाएँ, उनके दिल में कोई जागरूकता या अपराध-बोध नहीं होता, चिंतित होने की तो बात ही दूर है। प्रतिष्ठा और हैसियत की अपनी निरंतर खोज में वे, परमेश्वर ने जो किया है, उसका भी बेशर्मी से खंडन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अपने हृदय की गहराइयों में मसीह-विरोधी मानते हैं, ‘समस्त प्रतिष्ठा और हैसियत लोगों द्वारा स्वयं अर्जित की जाती है। केवल लोगों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करके और प्रतिष्ठा और हैसियत हासिल करके ही वे परमेश्वर के आशीषों का आनंद ले सकते हैं। जीवन का मूल्य तभी होता है, जब लोग पूर्ण सत्ता और हैसियत हासिल कर लेते हैं। बस यही मनुष्य की तरह जीना है। इसके विपरीत, अगर हर चीज में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होंगे, स्वेच्छा से एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होंगे और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जिएँगे, तो इस तरह जीना बेकार होगा—इस तरह के व्यक्ति का कोई आदर नहीं करेगा। इंसान को अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और खुशी खुद संघर्ष करके अर्जित करनी चाहिए; ये चीजें सकारात्मक और सक्रिय रवैये के साथ लड़कर जीती और हासिल की जानी चाहिए। कोई तुम्हें ये चीजें थाली में परोसकर नहीं देगा—निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करने से केवल विफलता मिलेगी।’ ... मसीह-विरोधी अपने दिलों में दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि सिर्फ प्रतिष्ठा और हैसियत होने से ही उन्हें गरिमा मिलती है और वे सच्चे सृजित प्राणी होते हैं, और सिर्फ हैसियत होने पर ही उन्हें पुरस्कृत किया और ताज पहनाया जाएगा, वे परमेश्वर के अनुमोदन के काबिल होंगे, सब-कुछ हासिल करेंगे, और एक वास्तविक व्यक्ति बनेंगे। मसीह-विरोधी हैसियत को क्या समझते हैं? वे उसे सत्य समझते हैं; वे उसे लोगों द्वारा प्राप्य सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं। क्या यह एक समस्या नहीं है? जो लोग हैसियत के प्रति इस तरह आसक्त हो सकते हैं, वे असली मसीह-विरोधी होते हैं। वे पौलुस जैसे लोग ही होते हैं। वे मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता खोजना और ईमानदारी तलाशना सब वे प्रक्रियाएँ हैं जो व्यक्ति को उच्चतम संभव हैसियत तक ले जाती हैं; वे सिर्फ प्रक्रियाएँ हैं, मानव होने का लक्ष्य और मानक नहीं, और वे पूरी तरह से परमेश्वर को दिखाने के लिए की जाती हैं। यह समझ बेतुकी और हास्यास्पद है! सिर्फ सत्य से घृणा करने वाले बेतुके लोग ही ऐसा हास्यास्पद विचार प्रस्तुत कर सकते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश ने सच में मेरे दिल को छू लिया। लगा, मानो मेरे दिल में छुपी बात को परमेश्वर ने रोशन कर दिया था। लगा, मेरे लिए छिपने की कोई जगह नहीं बची। मैंने आत्मचिंतन करना शुरू कर दिया, जितना आत्मचिंतन किया, उतना ही मुझे लगा कि मेरी सोच बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसी है। मेरी सारी कथनी और करनी रुतबे के इर्द-गिर्द ही थी, मेरा किया हर काम सराहना पाने के लिए था। रुतबा मेरे लिए किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण था। आस्था रखने से पहले, मैं हमेशा भीड़ से अलग दिखना चाहती थी, मुझे दूसरों का समर्थन और स्वीकृति पाना पसंद था। आस्था रखने के बाद, मैं अगुआई के पदों के पीछे भागने लगी, ताकि लोग मुझे ऊँची नजर से देखें और कलीसिया में मेरी एक महत्वपूर्ण भूमिका हो। बर्खास्तगी के बाद, मुझे अपने पिछले अपराधों को लेकर कोई पछतावा नहीं था, मैं यह नहीं सोच रही थी कि दिल से पश्चात्ताप कैसे करूँ और परमेश्वर का कर्ज़ चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाऊँ। बल्कि मैंने कर्तव्य निर्वहन के इस मौके का इस्तेमाल दिखावा करने के लिए किया। मैंने दोबारा अहम भूमिका पाने के लिए अपने कर्तव्य में पूरा जोर लगाकर कड़ी मेहनत की। कुछ समय कड़ी मेहनत करने के बाद भी जब मुझे वह नहीं मिला, तो मैं निराश हो गई। मुझे लगा कि मैं अपने कर्तव्य में कितना भी प्रयास क्यों न करूँ, उसमें कितना भी अच्छा क्यों न करूँ, कोई ध्यान देने वाला नहीं है। मुझे लगा मेरे प्रयास निरर्थक हैं। जब मुझे रुतबा नहीं मिला, तो अपने कर्तव्य में बढ़िया करने का मेरा जोश हवा हो गया। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष दिया, उससे कुतर्क कर प्रतिरोध किया। मैं नाम और रुतबे के खयालों में बह गई। मैंने सृजित प्राणी के लिए जरूरी जमीर और समझ खो दी थी। मैं दिल से रुतबे के पीछे भागती थी और टीम की एक आम सदस्य बने रहकर संतुष्ट नहीं थी। मैं एक मसीह-विरोधी की तरह दुष्ट और बेशर्म थी, पूरी तरह विवेकहीन। परमेश्वर के इन वचनों ने सच में मेरी मदद की : “वे मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता खोजना और ईमानदारी तलाशना सब वे प्रक्रियाएँ हैं जो व्यक्ति को उच्चतम संभव हैसियत तक ले जाती हैं; वे सिर्फ प्रक्रियाएँ हैं, मानव होने का लक्ष्य और मानक नहीं, और वे पूरी तरह से परमेश्वर को दिखाने के लिए की जाती हैं।” लगा जैसे मेरे चेहरे पर जोर का थप्पड़ जड़ दिया गया हो। सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना एक सकारात्मक चीज है, और इंसान होने के नाते हमारा कर्तव्य है। हमें अपने जीवन में सत्य का अनुसरण करके परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। मगर, मैं सत्य के अनुसरण और अभ्यास का इस्तेमाल निजी रुतबे की सौदेबाजी के लिए कर रही थी। कर्तव्य को लेकर ऐसी घिनौनी मंशा रखने को परमेश्वर कभी स्वीकार नहीं करेगा। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि चीजों के बारे में मेरा नजरिया कितना गलत था। मुझे लगता था कि सिर्फ रुतबा और सत्ता हासिल करके, आदर, प्रसिद्धि और प्रशंसा पाकर ही मेरा जीवन मूल्यवान होगा। एक विश्वासी का, रुतबे के बिना सिर्फ एक आम अनुयायी होना दयनीय ढंग से जीना है, असफल होना है। ऐसा नजरिया कितना बेतुका था! परमेश्वर अपेक्षा करता है कि हम योग्य सृजित प्राणी बनें, अपने स्थान में रहें, परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करें, ताकि एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियाँ निभा सकें। पर मैं अपने स्थान में नहीं रहना चाहती थी, बल्कि महत्वपूर्ण काम करने वाली महान इंसान बनना चाहती थी, ऊंचा पद हासिल कर ज्यादा सराहना पाना चाहती थी। यह शैतानी स्वभाव है। वास्तव में, सिंचन के काम में मैं कितनी भी बड़ी कीमत चुकाऊँ या कितनी भी जरूरी भूमिका निभाऊँ, यह केवल एक कर्तव्य था जो मुझे करना चाहिए। यह मेरी जिम्मेदारी थी, लेकिन खुद का दिखावा करने के लिए रुतबा चाहती थी। जब मेरी बावली महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं हुईं, तो कर्तव्य निभाने में मेरी दिलचस्पी भी ख़त्म हो गई। मैंने अपनी महत्वाकांक्षा को परमेश्वर के प्रति निष्ठा मान लिया। यह तथाकथित निष्ठा बेईमानी और सौदेबाजी थी। यह भला सत्य का अभ्यास करना और कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? यह परमेश्वर का इस्तेमाल कर उसे धोखा देना था, और मैं पूरी तरह से मसीह-विरोधी राह पर थी। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, वह हमारे दिल-ओ-दिमाग में झाँकता है। मैं गलत रास्ते पर चल पड़ी थी। मुझे पवित्र आत्मा का कार्य कैसे मिल सकता था? मेरी हालत बदतर होती जा रही थी और मैं अँधेरे में थी। यह परमेश्वर का मुझे किनारे करना और ताड़ना देना था। तब मैं समझी कि नाम और रुतबे के पीछे भागना सच में कितना डरावना है। मैं न खुद को जानती थी, न ही यह कि मैं व्यावहारिक काम कर सकती हूँ या नहीं। तरक्की की आशा में मैं बस रुतबे के पीछे भागती रही। मैंने उचित मानवता और विवेक खो दिया था, मैं खुद को बिलकुल नहीं जानती थी। मुझे परमेश्वर के वचनों के एक अंश की याद आई : “तुम लोग समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ वे विकट बेड़ियाँ हैं, जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का विरोध करोगे, जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम वे सभी चीजें निकाल फेंकना चाहोगे, जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे सच में घृणा करोगे, जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी मानवजाति को परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प होगी” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सच हैं। मैं शैतान के खिलवाड़ और यातना के कारण, लगातार रुतबे के पीछे भाग रही थी, मैंने पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन खो दिया था और अँधेरे में जी रही थी। मेरी वह आकांक्षा सच में मुझे बहुत नुकसान पहुँचा रही थी। मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई और अपने बेहद जिद्दी और अड़ियल होने से मुझे नफ़रत हो गई। उस पूरे समय में, मैं नाम और रुतबे के पीछे भाग रही थी, मसीह-विरोधी की राह पर थी। लेकिन परमेश्वर ने अभी भी मुझे चेतावनी देने और उजागर करने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल किया, ताकि मैं अपने अनुसरण की समस्या को समझकर वापस लौट आऊँ। मगर मैं समझ नहीं पाई। मैं परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष देती रही, नकारात्मक होकर परमेश्वर के खिलाफ चली गई। मैं बड़ी विवेकहीन थी। इसका एहसास होने पर मैं अपराधबोध में डूब गई, और मैंने यह प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब नाम और रुतबे के पीछे नहीं भागना चाहती, बल्कि अपनी भ्रष्टता छोड़ने के लिए सत्य खोजना और सच में प्रायश्चित करना चाहती हूँ। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे रास्ता दिखाओ।”
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, उत्कृष्टता और हैसियत ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, ईमानदार इंसान बनके और मानव के सदृश जीवन जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : त्याग दिया जाना” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ सकी कि वह हमें प्रसिद्ध, महान या ऊंचा नहीं देखना चाहता। वह आशा करता है कि हम जमीन से जुड़े रहें, अपना कर्तव्य निभाएं, और बस उसकी व्यवस्थाओं के सामने समर्पण करें। लेकिन मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य नहीं किया। मैं एक आम इंसान बने रहने से संतुष्ट नहीं थी। मुझे सिर्फ ऊँचा पद चाहिए था, दूसरों से ऊपर रहना चाहती थी। मैं घमंड में चूर थी। परमेश्वर सृजनकर्ता है, और वह बहुत महान और सम्मान के योग्य है। वह खुद देहधारी होकर, सत्य व्यक्त करने के लिए पृथ्वी पर आया है, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। इसके बजाय, वह मनुष्य को बचाने का अपना काम बड़ी शांति से करता है। परमेश्वर बहुत विनम्र और छिपा हुआ है, वह बहुत ही मनोहर है। ऐसा सोचकर मैंने बहुत शर्मिंदगी महसूस की, मैंने देह-सुख को पूरी तरह छोड़कर सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया।
फिर, मैंने खुद को अपने कर्तव्य में पूरे दिल से झोंक दिया और सच में विचार किया कि नए विश्वासियों का सिंचन कैसे किया जाए। अपने रुतबे के बारे में भूलकर एक आम इंसान बनके, जितना हो सके उतना अच्छा कर्तव्य करके मुझे बहुत खुशी मिली। इसे अभ्यास में लाने से मुझे बहुत सुकून मिला। जब मैंने इसमें अपना दिल लगा दिया, तो परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध किया, मेरे सिंचन कार्य में मुझे रास्ता दिखाया। पता भी नहीं चला और मैं अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से करने लगी। मुझे याद है, एक बार हमने नए विश्वासियों के लिए एक सभा रखी, सिंचन टीम में नई आई बहन, नए विश्वासियों को परिचित नहीं थी, उसे मालूम नहीं था कि उनसे कैसे बात शुरू करे। मैं जानती थी कि मुझे मदद करनी चाहिए, मगर मुझे लगा कि लोगों से संपर्क करने की तैयारी का काम करना सच में निचले दर्जे का काम था। अगर मैंने यह करने की पेशकश की, तो क्या मेरा कद छोटा नहीं हो जाएगा? तभी मुझे समझ आया कि मैं गलत थी, काम का महत्त्व कम-ज्यादा नहीं होता, और संवाद करना भी एक कर्तव्य है। तो मैं यह काम क्यों नहीं कर सकती? फिर मैंने भाई-बहनों से संपर्क करने में मदद की पेशकश की। ऐसा करते ही, मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य चाहे जो भी हो, जब तक आप परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार सकें, आपका इरादा सही हो, और आप उसे दिल से करें, तो आप शांति और सुकून महसूस कर सकेंगे। कभी-कभी जब भाई-बहन सिंचन कार्य की बारीकियों के बारे में पूछते, और निरीक्षक के पास उन्हें जवाब देने का समय न होता, तो मैं उनके साथ संगति करने और उनके समस्या सुलझाने की भरसक कोशिश करती। मैं यह नहीं सोचती कि क्या वे मेरा आदर करेंगे या इससे मेरे रुतबे में सुधार होगा, मैं तो बस सबके साथ मिलकर बढ़िया काम करना चाहती, और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती। जब मैंने अपनी बेकाबू महत्वाकांक्षाओं को किनारे करके परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया, तो मेरे कर्तव्य में सब-कुछ बदल गया। जिम्मेदारी महसूस करते हुए मैं ज्यादा समस्याएं पकड़ पा रही थी, मेरी हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी। मुझे मन में उजाला और सुकून भी महसूस हुआ, और लगा कि इस तरह से आचरण करना वाकई अच्छा है। मैं समझ गई कि परमेश्वर के वचन वाकई सत्य हैं और वे लोगों को बदलने और शुद्ध करने में सक्षम हैं। केवल परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार आचरण करना और काम करना और सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का पालन करना ही सृजित प्राणी के रूप में मेरे जीवन की नींव है। अब से, चाहे मेरे पास रुतबा हो या न हो, और चाहे परमेश्वर मुझे जहाँ कहीं भी रखे, मैं खुद को परमेश्वर की दया पर रखने और एक सृजित प्राणी के रूप में ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ।
मैं हमेशा नाम और रुतबे के पीछे भागती रहती थी, जिससे मैं परेशान और थकी रहती थी। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशनों के बिना, मैं कभी नहीं समझती कि शैतान ने मुझे कितना भ्रष्ट कर दिया था या मुझे रुतबे की कितनी परवाह थी। मैं इंसानियत के बिना, उन चीजों के लिए लड़ती रहती, शैतान का खिलौना बनी रहती। इसके द्वारा, मैंने सचमुच यह अनुभव किया है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना उसकी सर्वोत्तम रक्षा और उद्धार है, यह उसका प्रेम है। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)।
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