रुतबे की चाह छोड़कर मैं आज़ाद हो गई

04 फ़रवरी, 2022

हाओ ली, चीन

मैंने अगस्त 2019 में कलीसिया में अगुआ का पद संभाला। एक बार की बात है, एक सभा में अपनी सहभागिता पूरी करने के तुरंत बाद, बहन ही ने मुझसे कहा, "आपकी सहभागिता वाकई प्रबुद्ध करने वाली थी, इससे मुझे अपनी समस्या हल करने में ज़रूर मदद मिलेगी।" बहन ली भी उनकी हाँ में हाँ मिलाने लगी। उनकी आँखों में मेरे लिए इतना आदर और सम्मान देखकर, मैं रोमांचित हो गई, मैंने सोचा, "कलीसिया में इतने सारे सदस्यों के होने के बावजूद मैं अगुआ इसलिए बनी क्योंकि शायद मैं अन्य भाई-बहनों से बेहतर हूँ। वरना, वो मुझे ही क्यों चुनते?" और क्योंकि, मैंने सभाओं में कुछ समस्याओं को काफ़ी अच्छे से हल किया था, इसलिए अन्य लोग मेरे साथ रहना पसंद करने लगे, वे जब भी मुसीबतों में पड़ते, तो सहभागिता के लिए मेरे पास ही आते। मुझे लगा कि मैं अगुआ बनने के लिए काफ़ी योग्य हूँ। मैं ना चाहते हुए भी खुद को बड़ा और महान समझने लगी, मुझे दूसरों की नज़र में ख़ास दिखना और उनकी प्रशंसा पाना अच्छा लगता था।

एक दिन जब मैं हमेशा की तरह एक डीकन की सभा में गई, तो बहन वू ने मुझे बताया कि वो इन दिनों अहंकारी स्वभाव की बन गई थीं और अपने साथ काम करने वालों के बीच हमेशा सभी फैसले खुद लेना चाहती थीं। उन्हें पता था कि उनका यह बर्ताव सही नहीं है, मगर वो कुछ नहीं कर पा रही थीं। उन्होंने हमसे कुछ सहभागिता साझा करने के लिए कहा, ताकि उन्हें थोड़ी मदद मिल सके। मैं सहभागिता शुरू करने ही वाली थी, तभी सुसमाचार की उपयाजक बहन हान अपनी बात कहने लगी, और परमेश्वर के वचनों से संबंधित अपने कुछ अनुभव साझा किए। मैंने देखा कि बहन वू ध्यान से उनकी बात सुन रही थीं, मुस्कुरा रही थीं और उनकी बातों पर सिर हिलाकर अपनी सहमति भी दिखा रही थी। ये देखकर मैं काफ़ी परेशान हो गई, मैंने सोचा, "अगुआ तो मैं हूँ, इस समस्या को मुझे हल करना चाहिए। आप क्यों बीच में अपनी टांग अड़ा रही हैं? आपको क्या लगता है कि मैं ये सब खुद नहीं संभाल सकती? अब सबका ध्यान मेरे बजाय आपके ऊपर रहेगा। नहीं, मैं आपको किसी हाल में अपनी जगह नहीं लेने दूँगी, नहीं तो सबको लगेगा कि अगुआ होकर, मैं एक मामूली उपयाजक से हार गई। मुझे कुछ भी करके फ़ौरन विषय बदलना होगा।" इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे कि बहन वू की समस्या अच्छी तरह हल हुई या नहीं, बहन हान के रुकते ही मैं अपनी बात कहने लगी: "फ़िलहाल परमेश्वर के घर में सबसे ज़रूरी काम सुसमाचार साझा करना और परमेश्वर के लिए गवाही देना है। आइये, हमारे सुसमाचार के काम पर चर्चा करते हैं। अभी हमारा ध्यान सबको सुसमाचार फ़ैलाने का महत्व समझाने के साथ-साथ इससे जुड़ी जिम्मेदारी उठाने पर भी है ..." अपनी बात कहते हुए, मेरी नज़र बहन वू के हाव-भाव पर टिकी थी, और जब तक मैंने उन्हें मेरी बातों पर ध्यान देते नहीं देखा, तब तक मेरा मन शांत नहीं हुआ। मुझे हैरानी हुई कि मेरी बात पूरी होते ही, बहन हान सुसमाचार साझा करने को लेकर अपने कुछ विचार रखने लगी। दरअसल उनकी बातें बिलकुल स्पष्ट थीं और मुझे उनका ख़याल तक नहीं आया। लेकिन जब मैंने देखा कि सभी भाई-बहन ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे और उनकी बातों से सहमत भी थे, तो मुझे काफ़ी गुस्सा आने लगा, जैसे कि ये मेरे लिए कोई शर्म की बात हो। गुस्से में, मैंने सोचा, "मैं एक अगुआ हूँ और आप मामूली उपयाजक। अगर आप इसी तरह सबकी सहमति पाने लगीं, तो मैं अपना काम कैसे करूँगी? अगर सब आपकी ही बात सुनने लगें, तो मुझे कौन पूछेगा?" यह विचार मन में आते ही, मैं उनकी बात बीच में ही काटते हुए, अपनी सहभागिता साझा करने लगी। वो मेरे लिए वाकई बेवकूफ़ी भरा पल था। उस दिन दोपहर को बहन वू ने बताया कि सिंचन के कार्य पर बहुत कम लोग काम कर रहे हैं। मैं जवाब देने ही वाली थी, मगर मेरे मुँह खोलने से पहले ही, बहन हान लोगों की कमियों से निपटने के अपने अनुभव के बारे में बात करने लगीं और उन्होंने कुछ तरकीबें भी सुझाईं। तभी मैंने बहन वू को बार-बार उनकी हाँ में हाँ मिलाते देखा, इससे मुझे बहुत ईर्ष्या हुई। मैंने सोचा, "अगुआ मैं हूँ। सहभागिता मुझे साझा करनी चाहिए और इस काम का आयोजन मुझे करना चाहिए। आपको ये सब करने की कोई ज़रूरत नहीं। आपको क्या लगता है, मैं उनके साथ सहभागिता नहीं कर सकती? आपको लगता है कि आप बहुत काबिल हैं, और इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे दिखावा कर रही हैं।" मैं बहन हान से बहुत नाराज़ हो गई और सोचने लगी, "मुझे उनके काम की आलोचना करनी चाहिए, तभी उन्हें एहसास होगा कि वो इतनी भी अच्छी नहीं हैं। फिर उनका सारा दिखावा बंद हो जाएगा।" फिर मैंने उनसे पूछा, "बहन हान, आप जिन समूहों के सुसमाचार के काम का प्रबंधन कर रही हैं वे ज़्यादा सफल नहीं रहे हैं। क्या ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उसमें आपका मन नहीं लगता?" इस सवाल पर, बहन हान थोड़ी परेशान दिखने लगीं, फिर उन्होंने जवाब दिया, "बहन, मैं आपकी बात से सहमत हूँ। मैं इस पर विचार करके समझने की कोशिश करूँगी कि ये काम सफल क्यों नहीं हो सका, और खुद पर भी विचार करूँगी।" उन्हें परेशान देखकर, मुझे बहुत खुशी महसूस हुई, मैंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, "ठीक है, फिर हमारी सहभागिता पूरी होने के बाद हम साथ मिलकर एक ब्यौरा तैयार करेंगे कि यह काम ठीक से क्यों नहीं हो रहा और कुछ बदलाव भी करेंगे। एक सहकर्मी होने के नाते, आपको एक अच्छी मिसाल कायम करनी होगी और सक्रियता से सहयोग करना होगा। वरना, भाई-बहनों को प्रेरणा कैसे मिलेगी?" जवाब में, बहन हान ने थोड़ी बेरुखी से अपना सिर हिलाया। उन्हें चुपचाप अपना सिर नीचा किए देखकर मेरे मन को बहुत शांति मिली, मैंने सोचा, "अभी तो आप बहुत घमंड दिखा रही थीं जैसे मेरा आपसे कोई मुकाबला ही नहीं, अब क्या हो गया? अब आप इतनी अच्छी नहीं दिख रहीं। खुश हो अब?" इस तरह मैंने अपना आत्मसम्मान वापस पा लिया, एक बार फिर अधिकार के साथ बात करने लगी और दूसरे काम के लिए व्यवस्थाएं करने लगी। अब तक काफ़ी अँधेरा हो चुका था, और उस दिन बहन वू और मेरे पास चर्चा के लिए दूसरे काम पड़े थे। वैसे तो मैं चाहती थी कि बहन हान रुककर मेरी बात सुनें, मगर मुझे डर था कि कहीं वो दोबारा सबका ध्यान अपनी ओर ना खींच लें। इससे तो मैं अनाड़ी ही लगूँगी? इसलिए मैंने सोचा कि उनका घर जाना ही बेहतर रहेगा। मैंने बहन हान से कहा कि वो चाहे तो यहाँ से जा सकती हैं। उन्होंने बेमन से अपना सिर हिलाया, अपना सारा सामान उठाया और वहाँ से चली गईं। जब मैंने उन्हें उदास होकर जाते हुए देखा तो मुझे बुरा लगा। अगली सुबह सभा में जाते वक्त, मैंने पिछले कुछ दिनों की अपनी स्थिति पर विचार किया। मुझे लगा कि पिछले दिन बहन हान को लेकर मेरा बर्ताव काफ़ी अनुचित था। सत्य पर उनकी सहभागिता वाकई अच्छी थी। जब सबका ध्यान उनकी तरफ़ गया, तो मैं बेचैन हो गई, इसलिए उन्हें रोकने के लिए मुझसे जो हो सका मैंने वो किया। मुझे लगा कि पिछले दिन हमारे बीच से जाते वक्त वो परेशान थीं क्योंकि मेरे कारण उनका दम घुट रहा था। लेकिन उस वक्त मैंने इस बात को ऐसे ही जाने दिया और ज़्यादा सोच-विचार नहीं किया। मैंने यह ख़याल अपने दिमाग से हटा दिया।

कुछ दिन और बीतने के बाद, मैंने अपने साथ काम करने वाली बहन ली को बहन हान के प्रति अपने बर्ताव के बारे में बताया, उन्होंने यह कहते हुए मेरा निपटारा किया कि "यह एक मसीह विरोधी स्वभाव है और आपको इसे हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों को पढ़ना होगा। जब आप, एक अगुआ होने के नाते, किसी ऐसे इंसान पर दबाव बनाती और उसे तंग करती हैं जो आपसे बेहतर है, तो इसे स्वीकार नहीं किया जाएगा! क्या परमेश्वर के घर के अन्य प्रतिभाशाली सदस्य आपकी अगुआई में बर्बाद नहीं हो जाएँगे?" ये सुनकर मुझे काफ़ी निराशा हुई, और तब जाकर मुझे अपनी समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ। घर लौटते वक्त, मैं बहन ली की बातों पर सोचती रही, मैंने बहन हान के साथ अपने संवादों और अपने बर्ताव पर फिर से विचार किया। मैंने बहन ली को मुझसे आगे बढ़ने से रोकने के लिए उनका बहिष्कार करने की कोशिश की। क्या मैं उनके रास्ते में रुकावट नहीं डाल रही थी? मैंने बहुत बुरा किया! अपने बर्ताव के बारे में जितना ज़्यादा सोचती, मुझे उतना ही डर लगने लगता, इसलिए मैं फ़ौरन परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करने लगी: "हे परमेश्वर! जब बहन ली ने मेरे साथ निपटारा किया, तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि बहन हान पर दबाव बनाकर और उनका बहिष्कार करके मैं मसीह विरोधी स्वभाव का प्रदर्शन कर रही थी! इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लेकर, अगर मैंने इस स्वभाव का समाधान नहीं किया, तो न जाने मैं और कितने बुरे काम करूँगी! परमेश्वर, यह बहुत ही भयानक स्वभाव है। मैं इसे बदलना चाहती हूँ—कृपा करके मेरा मार्गदर्शन कीजिये।"

उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा: "एक मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी तानाशाही चलाने वाले किसी तानाशाह की तरह होते हैं : वे किसी की नहीं सुनते, वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं, और अन्य कोई भी जो कुछ कहता है, करता है, उनके पास जो अंतर्दृष्टियाँ होती हैं, उनकी ताकतें—उनकी नजरों में वे सब उनसे तुच्छ होते हैं। उन्हें लगता है कि कोई भी उसमें भाग लेने के योग्य नहीं हैं जो वे करना चाहते हैं, न ही वे परामर्श लिए जाने या सुझाव देने के योग्य हैं—यह एक मसीह-विरोधी की तरह का स्वभाव है। कुछ लोग कहते हैं कि यह खराब मानवता वाला होना है—यह सिर्फ सामान्य खराब मानवता कैसे हो सकती है? यह पूर्णत: एक शैतानी स्वभाव है; इस तरह का स्वभाव अत्यंत उग्र होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत उग्र होता है? मसीह-विरोधी कलीसिया के हितों सहित परमेश्वर के घर के काम को पूरी तरह से अपना मानते हैं, अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह, जिसका प्रबंधन पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा किया जाना चाहिए, उसमें किसी और का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। और इसलिए परमेश्वर के घर का काम करते समय वे केवल अपने ही हितों, अपनी ही हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में सोचते हैं। वे हर उस व्यक्ति को अस्वीकार कर देते हैं, जो उनकी नजरों में उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए खतरा हो। वे उनका दमन और बहिष्कार करते हैं। वे उन लोगों का भी निष्कासन और दमन करते हैं, जो कुछ विशेष कर्तव्य निभाने के लिए उपयोगी और उपयुक्त होते हैं। वे न तो परमेश्वर के घर के काम को जरा भी तवज्जो देते हैं, न ही परमेश्वर के घर के हितों को। यदि कोई उनकी हैसियत के लिए खतरा हो सकता है, उन्हें समर्पित नहीं होता, उन पर ध्यान नहीं देता, तो वे उसे निष्कासित कर देते हैं और उसे दूर रखते हैं। वे उसे अपने साथ सहयोग नहीं करने देते, और विशेष रूप से उसे अपनी शक्ति के दायरे में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाने देते या किसी भी महत्वपूर्ण उपयोग का नहीं होने देते। चाहे उन लोगों के कर्म कितने भी श्रेष्ठ हों या चाहे उन्होंने परमेश्वर के घर के लिए कितना भी अच्छा काम किया हो, मसीह-विरोधी उसे छिपा देते हैं, उसकी बेकद्री करते हैं, उसे भाइयों और बहनों को नहीं दिखाते, और उन्हें अँधेरे में रखते हैं। इसके अलावा, मसीह-विरोधी झूठ भी गढ़ते हैं और भाई-बहनों के बीच तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, लोगों को नीचा दिखाने के लिए उनके बारे में बुरा बोलते हैं, उन्हें अलग-थलग करने और उनका दमन करने के बहाने ढूँढ़ते हैं, चाहे वे लोग कुछ भी काम करें; इसलिए वे यह कहते हुए उनकी आलोचना भी करते हैं कि वे घमंडी और दंभी हैं, कि वे दिखावा करना पसंद करते हैं, कि वे महत्वाकांक्षाएँ पालते हैं। वास्तव में, उन सभी लोगों में खूबियाँ होती हैं, वे सभी लोग सत्य से प्रेम करने वाले और विकसित किए जाने योग्य होते हैं। उनमें केवल मामूली दोष, कभी-कभी भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ पाई जाती हैं; उन सभी में अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है। कुल मिलाकर वे कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं, वे कर्तव्य निभाने वाले व्यक्ति के सिद्धांतों के साथ मेल खाते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों की नजरों में, वे सोचते हैं : 'मेरा इसे सहना संभव नहीं है। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र के भीतर एक भूमिका चाहते हो। यह असंभव है, इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक सक्षम हो, मुझसे अधिक मुखर हो, मुझसे अधिक शिक्षित हो और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो। यदि तुमने मेरी सफलता चुरा ली, तो मैं क्या करूँगा? तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ काम करूँ? इसके बारे में सोचना भी मत!' क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कर रहे हैं? नहीं। वे बस इस बारे में सोच रहे हैं कि अपनी हैसियत कैसे सुरक्षित करें, इसलिए वे इन लोगों का उपयोग करने के बजाय परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा देंगे। यह बहिष्कार है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों से मुझे पता चला कि मसीह विरोधी स्वभाव की ख़ास बात यह है कि हम सत्ता को ही अपना जीवन समझ बैठते हैं, अपने कार्य में हमेशा अधिकार जमाना और दूसरों को आदेश देना चाहते हैं। जैसे ही कोई हमारे रुतबे और सत्ता के लिए खतरा बनता है या कोई हमसे आगे निकल जाता है, तो हम ऐसे लोगों को निष्काषित करने और उनके रास्ते में रुकावट डालने के लिए परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाने में संकोच नहीं करते। खुद पर विचार करके मुझे एहसास हुआ कि जब से मैं अगुआ बनी हूँ, मैंने अपने काम में अपनी जिम्मेदारियों और व्यावहारिक कार्य करने के तरीकों पर ध्यान देने के बजाय, अपने रुतबे से मिलने वाली इज्ज़त पर ध्यान देती रही। मैं नहीं चाहती थी कोई मुझसे आगे निकले। सत्य पर की गई बहन हान की सहभागिता से बहन वू की समस्या हल हो गई थी। इससे पता चलता है कि उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई, यह वाकई एक अच्छी बात है, मगर मुझे बहन वू की बेहतर हालत देखकर कोई ख़ुशी नहीं हुई। बल्कि मुझे डर था कि कहीं बहन हान मुझसे बेहतर ना दिखने लगें, और अगर ऐसा हुआ तो वह दूसरों के दिलों में मेरी जगह ले लेंगी और फिर कोई मुझ पर ध्यान नहीं देगा। मैंने बहन हान को नीचा दिखाने की बहुत कोशिश की, जब दूसरे लोग उनकी सहभागिता से सहमत होते, तो मैं जान-बूझकर विषय बदल देती थी, बहन हान के काम पर सवाल खड़े करने के लिए मैं अपने रुतबे और अधिकार का गलत इस्तेमाल करती थी। मैं जान-बूझकर उनके लिए परेशानियाँ खड़ी करके उन्हें तब तक बुरा दिखाने की कोशिश करती थी, जब तक लोगों का ध्यान उन पर से हट नहीं जाता था। मुझे एहसास हुआ कि अपने पद को बनाए रखने के लिए, मैंने सत्य का अनुसरण करने वाली एक इंसान पर दबाव बनाया और उनकी निंदा तक की। क्या ऐसी दुष्ट और नीच तरकीब का इस्तेमाल करना एक मसीह विरोधी स्वभाव को प्रदर्शित नहीं करता? फिर, मैंने उस मसीह विरोधी के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया ने कुछ दिन पहले ही निकाल बाहर किया था। वे अपनी अभिव्यक्तियों से, अलग-अलग विचार रखने वाले या बेहतर काम करने वालों पर लगातार दबाव बनाने और उन्हें रोकने की कोशिश करते थे, उन्होंने परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा। अंत में उन्हें इतने सारे बुरे कर्मों के कारण निष्काषित कर दिया गया। मैंने बहन हान के साथ जो कुछ भी किया उसके बारे में सोचकर, मुझे एहसास हुआ कि कहीं मैं भी तो उसी मसीह विरोधी की राह पर नहीं चल रही? आखिरकार मुझे अपने अत्यंत दुष्ट मसीह विरोधी स्वभाव का पता चल ही गया।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा: "तुम चाहे जो करो, वह महत्वपूर्ण हो या न हो, वहां हमेशा तुम्हारी मदद करने वाले लोग होने चाहिए, तुम्हें सुझाव और सलाह देनेवाले, काम में तुम्हारी सहायता करने वाले लोग होने चाहिए। इस प्रकार तुम काम को ज़्यादा सही ढंग से कर पाओगे, ग़लतियाँ करना मुश्किल होगा, और तुम कम भटकोगे—जो सब अच्छे के लिए होता है। विशेष रूप से आज, परमेश्वर की सेवा करना कोई छोटी बात नहीं है—इसमें तुम्हारी जान भी जा सकती है! मसीह-विरोधी मूर्ख हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं है, वे सोचते हैं, 'मुझे अपना अधिकार कायम करने में काफी परेशानी हुई, तो मैं इसे किसी और के साथ क्यों साझा करूँ? अगर मैंने ऐसा किया तो क्या मेरा अधिकार कम नहीं हो जाएगा? इतने बड़े अधिकार के बगैर, मैं अलग कैसे दिखूँगा?' तुम यह समझ नहीं पाते कि परमेश्वर ने तुम्हें जो दिया है, वह अधिकार नहीं है—उसे सामर्थ्य मानना मुसीबत मोल लेना है। आज, तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो; परमेश्वर के घर में काम करने का मतलब है कि तुम किसी इंसान की सेवा नहीं कर रहे। जब तुम लोगों के लिए काम करते हो तो तुम्हें पारिश्रमिक मिलता, वेतन मिलता, पैसा मिलता है। लेकिन परमेश्वर के घर में काम करने से क्या मिलता है? बेशक, यह कहना कि तुम परमेश्वर के लिए कार्य कर रहे हो, थोड़ा गलत है; यह तो कुछ ज्यादा ही हो जाता है, यह थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण है। परमेश्वर के घर में कार्य करने का अर्थ है आदेश स्वीकार करना, एक पवित्र जिम्मेदारी स्वीकार करना—वह जिम्मेदारी चाहे बड़ी हो या छोटी, एक गंभीर दायित्व होती है। यह आखिर कितनी गंभीर होती है? सीमित अर्थों में, इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने जीवनकाल में सत्य प्राप्त कर पाते हो या नहीं, और तुम्हारे काम के आधार पर परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। व्यापक अर्थों में, इसका संबंध अगले जन्म में तुम्हारी नियति और प्रारब्ध से है; इस जीवनकाल में तुम जो कुछ भी करते हो, परमेश्वर उसे जोड़ता है, फिर वह तुम्हें वर्गीकृत करता है, उसका अभिलेख रखता है, उसका आकलन करके तुम्हें बताता है—और तुम्हारा आकलन करने के बाद, तुमने जीवनकाल में जो कुछ भी किया होता है, उसके आधार पर परमेश्वर तुम्हारे अंत का निर्णय करता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेशवर के वचनों से मुझे पता चला कि उसकी इच्छा को पूरा करने के लिए मुझे भाई-बहनों के साथ मिल-जुलकर काम करना होगा और उनकी राय भी सुननी होगी। तभी मैं अपना रास्ता भटकने से बच सकती हूँ। परमेश्वर हर किसी को एक अलग हुनर देता है और हर शख्स की अपनी एक अलग समझ होती है। एक अकेले इंसान के पास सीमित अनुभव होता है और वह चीज़ों को एक ही नज़रिये से देख सकता है। अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे पाने के लिए हमें हर किसी के सहयोग की ज़रूरत होगी और हम सबको पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी बाँटनी होगी। इस तरह हम एक दूसरे की कमियों की भरपाई कर सकेंगे। बहन हान ने कुछ ऐसी अच्छी तरकीबें सुझाई थीं जिनका मुझे ख़याल तक नहीं आया। ये अच्छी बात थी! मगर मेरे लिए मेरा रुतबा सबसे महत्वपूर्ण था, इसलिए मैं बस दिखावा करना चाहती थी, ताकि लोग मुझ पर ध्यान दें, मेरी ही प्रशंसा करें। किसी को मुझसे अलग राय रखते देख या मुझसे आगे बढ़ते देख, मैं तब तक उनके रास्ते में रुकावट डालती रहती थी जब तक हर कोई मेरे अधिकार के नीचे दब नहीं जाता था। मैंने देखा कि ऐसा बर्ताव करके, मैं इन शैतानी विषों के अनुसार जीवन जी रही थी, जैसे कि "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," और "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है।" मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि सभा अच्छी तरह हुई या नहीं, भाई-बहनों की समस्याओं का समाधान हुआ या नहीं। मैंने यह भी नहीं सोचा कि कहीं मेरी वजह से परमेश्वर के घर के कार्य को कोई नुकसान तो नहीं पहुँच रहा, या कहीं बहन हान मुझसे मजबूर या दुखी तो नहीं हैं। मैंने जाना कि इन शैतानी विषों के अनुसार जीवन जीने का मेरा तरीका कितना दुष्ट और नीच था। मैं कलीसिया की अगुआ थी, मगर भाई-बहनों को परमेश्वर के सामने लाने में विफ़ल रही, परमेश्वर को गहराई से समझने में उनकी कोई मदद नहीं कर सकी। इसके बजाय, मैं अपने कर्तव्य का फायदा उठाकर उन्हें काबू में करना चाहती थी। क्या यह परमेश्वर के लोगों को उससे छीनने की कोशिश करना नहीं हुआ? परमेश्वर का स्वभाव कोई अपमान नहीं सहेगा। मैं जानती थी कि अगर मैं मसीह विरोधियों के मार्ग पर चलती रही और पश्चाताप नहीं किया, तो अंत में बेशक परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठूँगी और मुझे हटा दिया जाएगा। बहन हान के साथ अपने बर्ताव के बारे में दोबारा सोचने पर, मुझे पता चला कि मैंने उनके साथ कितना शर्मनाक व्यवहार किया था। मैंने जाना कि मेरा स्वभाव कितना अधिक दुर्भावनापूर्ण है, मुझमें ज़रा सी भी इंसानियत नहीं है। यह सोचकर, मुझे खुद से घृणा और नफ़रत महसूस होने लगी। मैं अपने शैतानी स्वभाव का जल्द-से-जल्द समाधान करने के लिए अभ्यास का मार्ग खोजना चाहती थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के कार्यों में एक सिद्धांत होता है। वह लोगों की रक्षा करता है, उनका ख्याल रखता है, वह उनसे प्रेम करता है और उनका भला चाहता है; परमेश्वर जो कुछ करता है उसके पीछे यही स्रोत और मूल आशय है। जबकि शैतान खुद का दिखावा करता है, वह लोगों पर चीजें जबर्दस्ती थोपता है, फिर उनसे अपनी पूजा करवाता है, वह लोगों को ठगता है और अपमानित करता है, और धीरे-धीरे वे लोग जीते-जागते शैतान बन जाते हैं। शैतान लोगों का भला नहीं चाहता, उसे लोगों के जीने-मरने की कोई परवाह नहीं होती, वह केवल अपने बारे में सोचता है, केवल अपने लाभ और संतुष्टि के बारे में सोचता है, उसमें न तो प्रेम होता है और न ही करुणा, उसमें सहनशीलता और समझदारी तो बिल्कुल नहीं होती। ये चीजें केवल परमेश्वर में होती हैं। परमेश्वर ने मनुष्य में कितना कार्य किया है—क्या उसने कभी इस बात का ढिंढोरा पीटा है? नहीं। ... परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, जबकि शैतान खुद का दिखावा करता है। क्या कोई अंतर है? क्या शैतान को विनम्र कहा जा सकता है? (नहीं।) उसके दुष्ट स्वभाव और सार को देखते हुए, वह एकदम तुच्छ और निकृष्ट है; शैतान के लिए दिखावा न करना एक असाधारण बात है। शैतान को 'विनम्र' कैसे कहा जा सकता है? 'विनम्रता' परमेश्वर का अंग है। परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, वह लोगों को यह नहीं देखने देता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह गुप्त रूप से कार्य करता है, तब निरंतर लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और उन्हें पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर द्वारा की जाती है। क्या यह गोपनीयता और विनम्रता है कि परमेश्वर इन बातों को कभी प्रकट नहीं करता, कभी उनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र है क्योंकि वह यह सब काम करने में सक्षम है, लेकिन कभी उनका उल्लेख या कभी उन्हें प्रकट नहीं करता, लोगों के साथ उन बातों की चर्चा नहीं करता। जब तुम ऐसा करने के योग्य ही नहीं हो तो तुम्हें विनम्रता की बात करने का क्या अधिकार है? तुमने इनमें से कोई भी काम नहीं किया, फिर भी उनका श्रेय लेने की जिद पर अड़े रहते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो)')। परमेश्वर के वचनों के इस अंश ने मुझे दिखाया कि परमेश्वर कितना विनम्र और गूढ़ है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, वह लगातार अपना कार्य करता है, मानवजाति का मार्गदर्शन करता है और हमें वो सब कुछ देता है जो हमारे जीवन के लिए ज़रूरी है, मगर वह कभी परमेश्वर होने का फायदा नहीं उठाता और ना ही कभी कोई दिखावा करता है। ख़ास तौर पर वह ऐसी अपेक्षा नहीं रखता कि हर कोई उसके बारे में ऊँचा सोचे और उसकी प्रशंसा करे। वह बस चुपचाप, बिना दिखावा किये सत्य व्यक्त करता है और मानवजाति को बचाने का काम करता है। परमेश्वर का सार कितना प्रेम भरा और कितना अच्छा है! लेकिन मैं तो जहाँ भी जाती वहां दिखावा करना चाहती थी। अगुआ बनने के बाद, मैंने खुद को ऐसे आसन पर बिठा दिया था जहाँ से नीचे बिल्कुल नहीं उतरना चाहती थी। मैं न तो दूसरों के विचारों को सुनती थी और ना ही किसी को खुद से आगे बढ़ने देती थी। मैं बेहद अहंकारी थी! एक अगुआ होने के बावजूद मैंने दूसरों की समस्याओं को हल करने में उनकी मदद नहीं की, बजाय इसके मैं सत्य का अनुसरण करने वालों का बहिष्कार करती रही और उनका दम घोंटती रही। मैंने न केवल उनसे मेरा सम्मान करने की अपेक्षा रखी, बल्कि उन्हें किसी भी तरह के उपदेश या फायदे से भी पूरी तरह वंचित कर दिया। फिर मुझे मेरी बेशर्मी का एहसास हुआ, मुझमें विवेक और समझ नाम की कोई चीज़ नहीं थी और मेरा चरित्र वाकई घिनौना था। इस बात का एहसास होने पर, मैं प्रार्थना के लिए भागकर परमेश्वर के सामने आई: "हे परमेश्वर! तुम्हारा धन्यवाद जो तुमने समय रहते मेरे सामने ऐसे हालात खड़े किए जिससे मेरा मसीह विरोधी स्वभाव उजागर हो गया, जिससे मैं खुद को पहचान सकी, अपनी असलियत और उस गलत मार्ग को समझ सकी जिस पर मैं इतने समय से चल रही थी। परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ, मैं अपनी जगह पर आकर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मैं तुमसे और अधिक न्याय और ताड़ना की उम्मीद करती हूँ, ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो सकूँ।" फिर मैं बहन हान के विचारों को सबके साथ साझा करने के लिए हर एक समूह से जाकर मिली, फिर मैंने बहन हान के साथ रुतबे की होड़ में अपनी भ्रष्टता की अभिव्यक्ति और अपने मसीह विरोधी स्वभाव को उजागर करके उसका विश्लेषण किया। इसे अभ्यास में लाकर मुझे बहुत शांति और सुकून महसूस हुआ।

जल्द ही, परमेश्वर ने मेरी परीक्षा लेने के लिए मेरे सामने नए हालात खड़े कर दिए। एक दिन मैं समूह के कुछ अगुआओं के साथ एक मीटिंग में थी, जिसमें काफ़ी सक्रिय रहनेवाली बहन यांग भी शामिल थीं। वह शुरुआत से ही मुझे बहुत उत्साही नज़र आयीं, वे दूसरों के सवालों का तत्परता से जवाब भी दे रही थीं। पूरे समय सबका ध्यान उन पर ही बना रहा। एक बार जब बहन लियु और मैं यह बात कर रहे थे कि नए विश्वासियों के लिए सभाओं को अलग-अलग कैसे बाँटा जाए, तो मेरे चुप होते ही बहन यांग ने अपना अलग सुझाव प्रस्तुत किया। भले ही उस वक्त मुझे लगा कि उनकी बात सही है, लेकिन सभी भाई-बहनों को उनसे सहमत होते और सबका ध्यान उनकी ओर आकर्षित होते देख, मैं हारा हुआ महसूस करने लगी। मैंने सोचा, "वे इस पूरी सभा में कितनी जोशीली रही हैं, हर किसी के सवालों का तत्परता से जवाब दिया, सबसे आगे रहकर लोगों का ध्यान खींचा। मैं तो जैसे एक सहयोगी बन गई हूँ। अगुआ होने के बावजूद, क्या मैं किसी सहायिका जैसी नहीं लग रही?" जैसे ही मेरे मन में यह ख़याल आया, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से रुतबे के चक्कर में पड़ रही थी, लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहती थी। मैं जल्द-से-जल्द परमेश्वर के सामने आकर मन ही मन प्रार्थना करने लगी: "परमेश्वर, मैं समझ सकती हूँ कि तुमने आज मेरे सामने ऐसे हालात खड़े किये। मैं अपने घमंड को छोड़कर, बहन यांग के साथ मिलकर काम करना चाहती हूँ। मेरी इस गलत मनोस्थिति को बदलने के लिए मेरा मार्गदर्शन कीजिये।" तभी, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया: "अपने को दूसरों से बेहतर समझना बंद करो और अपना खिताब एक तरफ रख दो। इन चीजों पर ध्यान मत दो, इन्हें जरा भी महत्वपूर्ण मत समझो, और इन्हें हैसियत के निशान के रूप में, प्रतिष्ठा के रूप में मत देखो। अपने दिल में विश्वास करो कि तुम और अन्य समान हैं; अपने आप को दूसरों के साथ बराबरी पर रखना सीखो, यहाँ तक कि दूसरों से उनकी राय माँगने के लिए झुकने में भी सक्षम हो जाओ। दूसरों की बातें गंभीरता से, सावधानी से और ध्यानपूर्वक सुनने में सक्षम हो जाओ। इस तरह तुम अपने और दूसरों के बीच शांतिपूर्ण सहयोग उत्पन्न कर लोगे" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। इस अंश से मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। मैंने मन-ही-मन सोचा कि अब मैं अपनी इज्ज़त और रुतबे के लिए या अपनी पहचान बनाने के लिए दूसरों से होड़ नहीं कर सकती। बहन यांग सही कह रही थीं, इसलिए उनका सुझाव मान लेना ही ठीक रहेगा। यह परमेश्वर के घर के कार्य के लिए सबसे सही रहेगा। उनकी बात पूरी होते ही, मैंने अपनी सहमति दिखाई और अन्य भाई-बहनों को उनके सुझाव के अनुसार काम करने के लिए कह दिया। मैंने उनके प्रति अपनी नाराजगी को भी भुला दिया। उस सभा में, सभी ने खुले मन से अपने विचार साझा किए और सच कहूँ तो वह एक बहुत कामयाब मीटिंग थी। मुझे यह देखकर बहुत ख़ुशी हुई, मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन की बहुत आभारी थी। मुझे एहसास हुआ कि रुतबे की बेड़ियों में न बंधकर और सबके साथ मिल-जुलकर काम करने से, वाकई मुक्ति का एहसास होता है।

उसके बाद, मैंने जाना कि अपने रुतबे को बचाने की खातिर दूसरों को निष्काषित करके और उन पर दबाव बनाकर, कैसे मैं एक मसीह विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। मैंने देखा कि कैसे मैं अपने शैतानी स्वभाव के काबू में आकर जी रही थी, बुरे काम और परमेश्वर का विरोध करते हुए मैं कभी भी अपना रास्ता भटक सकती थी। सत्य की खोज न करना बेहद खतरनाक है! परमेश्वर के वचनों के न्याय और तथ्यों के प्रकाशन से, मुझे साफ़ तौर पर समझ आ गया कि मैं गलत मार्ग पर चल रही थी और फिर खुद को थोड़ा-बहुत बदलने में सफ़ल रही। मैंने वास्तव में यह अनुभव किया कि कैसे परमेश्वर हमेशा हमारे साथ खड़ा है, और अगर हम सच्चे दिल से सत्य की खोज और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए काम करते रहेंगे, परमेश्वर हमें मार्ग दिखाता रहेगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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