एक खुशामदी इंसान की धोखेबाजी
महामारी के कारण 2020 में, मैं स्कूल नहीं जा सकी, इसलिए कलीसिया ने परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने में मेरी मदद के लिए बहन लियु को मेरे पास भेजा। बहन लियु हमारी कलीसिया में सुसमाचार की पादरी हैं। कुछ महीनों बाद ही, मुझे पता चला कि वे अपने कर्तव्य को लेकर काफ़ी ज़िम्मेदार और स्नेही हैं। जब भी किसी भाई या बहन को कोई दिक्कत या परेशानी होती, तो वह हमेशा परमेश्वर के वचनों की सहभागिता से उन्हें हल करती और धैर्य के साथ उनका सहारा बनकर उनकी मदद भी करती। वे गवाही वाले बहुत से लेख भी लिखती थीं। मुझे लगा वे अपने कर्तव्य में बहुत अच्छी हैं। जबकि, मेरी हालत ज़्यादा अच्छी नहीं थी, मगर बहन लियु ने मेरी बहुत मदद की और मेरे साथ अच्छे से बर्ताव किया। उन्होंने मुझ पर एक अच्छी छाप छोड़ी।
उनके साथ कुछ समय बिताने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि उनके साथ कोई घटना होने पर, वे सभाओं में सिर्फ सकारात्मक प्रवेश पर अपनी कामयाबी के बारे में बातें करना पसंद करती हैं, लगता था कि वे हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव और उसके परिणामों को छिपाने की कोशिश करती हैं, वे यह नहीं बताती थीं कि उन्होंने कैसे आत्मचिंतन किया, कैसे खुद को जाना और कैसे परमेश्वर के वचनों को पढ़कर अपनी भ्रष्टता का समाधान किया। उनकी बातें सुनकर लगता था कि उनके पास आध्यात्मिक कद है, वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हैं, उनमें कोई भ्रष्टता या खामियां नहीं हैं। मुझे हमेशा लगता था कि बहन लियु के व्यवहार में कोई ना कोई गड़बड़ तो ज़रूर है। उस तरह की सहभागिता सच्चा आत्मज्ञान देने वाली नहीं है, उससे दूसरों को न तो कोई फायदा होगा और न ही कोई शिक्षा मिलती। यह देखते हुए कि वे कई जगह सभाओं के आयोजन के लिए जिम्मेदार थीं, मुझे पता था कि भाई-बहन बिना कुछ सोचे-समझे उनको ऊँचा समझेंगे। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो वे हमेशा उनके पास ही जायेंगे। सबसे बड़ी बात कि सभाएं परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और अपने निजी अनुभवों के बारे में सहभागिता करने के लिए होती हैं, ताकि हम जीवन-प्रवेश में एक-दूसरे की मदद कर सकें ... मगर बहन लियु सभाओं में सहभागिता का ज़्यादातर वक्त खुद ही लेती थीं, जिससे भाई-बहनों के कलीसिया जीवन पर काफ़ी बुरा असर पड़ा। मैंने सोचा, मुझे उन्हें यह बताना चाहिए कि इस तरह की सहभागिता की कुछ सीमाएं होती हैं। मगर फिर मैंने सोचा, बहन लियु मुझसे ज़्यादा समय से विश्वासी रही हैं, ऐसे में अगर मैंने बिना सोचे-समझे उनकी आलोचना की, तो कहीं वो ये न कहने लगें कि मैं अपनी जगह भूल गई हूँ और जान-बूझकर उनके साथ बहस कर रही हूँ? क्या यह उनके लिए अपमानजनक नहीं होगा? अगर ऐसा हुआ तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगी? इसलिए, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।
एक दिन, बहन लियु ने हमारे साथ एक सभा रखी, जिसमें हमने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े कि कैसे सत्य का अभ्यास नहीं करने या अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं बदलने पर परमेश्वर हमारा त्याग कर हमें हटा देगा। यह बात हम सभी को अच्छी तरह समझ आ गई। इन अंशों को पढ़ने के बाद, बहन लियु फिर से अपने विभिन्न अनुभवों के बारे में बताने लगीं, वे एक के बाद एक करके अपने अनुभवों के बारे में हमें बताती रहीं, मगर उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि उन्होंने अपनी भ्रष्टता के किन पहलुओं को प्रकट किया था या उन्होंने कैसे आत्मचिंतन किया और उससे क्या सीखा। मैं वाकई उनकी समस्या सीधे उन्हें बताना चाहती थी, लेकिन मैंने देखा कि मेरे बगल में बैठी बहन ली चुप थीं, और बहन लिन भी उत्साहित होकर अपनी सहमति दिखा रही थीं। मुझे डर था कि अगर मैंने बिना सीधे-सीधे बहन लियु के बारे में कुछ कह दिया, तो उन्हें लगेगा कि मैं बस उन्हें बुरा दिखाने की कोशिश कर रही हूँ। अगर वहाँ पर अन्य दो बहनें नहीं होतीं, तो मैं बहन लियु को आराम से उनकी गलती बता सकती थी। मैंने सोचा, "अगर मैंने अभी कुछ कहा, तो क्या इससे बहन लियु का अपमान होगा? क्या इससे हमारा रिश्ता ख़त्म हो जाएगा? क्या मुझे लेकर उनकी राय बदल जाएगी? मगर परमेश्वर न्याय की समझ रखने वाले ईमानदार लोगों को पसंद करता है, इसलिए अगर मैंने समस्या को देखकर भी कुछ नहीं बोला, तो यह परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध होगा!" ज़ाहिर है कि मैं बहुत असमंजस में थी और मेरा उस सभा में रह पाना नामुमकिन लग रहा था। तभी, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुमको इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टाचार को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुमको जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुमको परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्क हीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों के अनुसार सच्चा अनुभव और गवाही वही है जो परमेश्वर के वचनों के आधार पर हमें यह दिखाता है कि हमने कौन सा भ्रष्ट भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, परमेश्वर के कार्य को हमने कितना समझा, और परमेश्वर के वचनों में हमें अभ्यास का मार्ग कहां मिला। यह अंश सीधे तौर पर बहन लियु की स्थिति बता रहा था। इसलिए, मैंने कंप्यूटर पर इस अंश को हाइलाइट किया, इस उम्मीद में कि मैं इस पर बहन लियु का ध्यान खींच सकूँ, जिससे उन्हें अपने अनुभव के बारे में की गई सहभागिता में अपनी गलती का एहसास हो सके। इस तरह, मुझे सीधे तौर पर उनकी आलोचना नहीं करनी पड़ेगी और मैं उन्हें नाराज़ करने से बच जाऊँगी। लेकिन बहन लियु को मेरी बात का मतलब बिलकुल समझ नहीं आया। मैं अपनी बात सामने रखना चाहती थी, मगर मुझे डर था कि वे अपनी गलती नहीं मानेंगी, इसलिए मैंने चतुराई से कहा, "हम अब भी परमेश्वर के वचनों की मदद से खुद को जानने में सक्षम नहीं हुए हैं, और ना ही हम इस बात पर चर्चा कर सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों के किन अंशों में हमें अभ्यास का मार्ग मिलता है ..." लेकिन फिर भी, वे मेरी बात का मतलब नहीं समझ सकीं। मुझे लगा, "शायद मैंने उन्हें उनकी समस्या बता दी है। अगर वह अब भी अपनी समस्या को नहीं पहचान पाती हैं, तो इसमें मेरी कोई गलती नहीं है।"
उसके बाद, कलीसिया के अगुआओं ने सभी भाई-बहनों को कलीसिया के पादरियों के बारे में अपने विचार लिखने के लिए कहा और उन्हें जमा करने की ज़िम्मेदारी मुझे दी। मैं बहन लियु के बारे में एक ईमानदार टिप्पणी देनी चाहती थी, मगर मैंने देखा कि ज़्यादातर भाई-बहनें विभिन्न पहलूओं से उनके बारे में अच्छी बातें ही लिख रहे हैं। बहुत कम लोगों को ही उनसे कोई दिक्कत थी। वहां एक ऐसी बहन भी थीं जो उनसे हाल ही में मिली थीं, मगर उन्होंने बहन लियु की अच्छाइयों के बारे में ही लिखा। मैंने सोचा, "अगर सिर्फ़ मैंने उन पर सवाल उठाए, तो कहीं अगुआओं को ये तो नहीं लगेगा कि हमारे बीच कोई नाराज़गी है, इसलिए मैं जान-बूझकर उनको निशाना बना रही हूँ? अगर कलीसिया के अगुआ उनके बारे में और जानने के लिए हमसे मिलें और बहन लियु को पता चल जाए कि उनके बारे में ये सब मैंने कहा, तो क्या होगा? क्या वो मुझसे नफ़रत करने लगेंगी? ऐसा हुआ तो, क्या हम दोनों के बीच एक गतिरोध पैदा नहीं हो जाएगा?" उसके बाद, हालांकि मैंने बहन लियु के कुछ व्यवहारों के बारे में लिखा, मैंने साफ़ तौर पर यह भी लिखा कि मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मेरी समझ गलत भी हो सकती है।
एक सभा में, मैंने अपने पिछले कुछ समय के अनुभवों के बारे में सबको बताया। वहाँ मौजूद एक बहन ने कहा कि यह एक खुशामदी इंसान का व्यवहार है, और "खुशामदी लोग दुर्भावना से भरे होते हैं!" उनके मुँह से "दुर्भावना" शब्द सुनकर मुझे बुरा लगा और निराशा भी हुई, लेकिन मैंने सोचा कि मुझे बहन लियु की समस्या के बारे में काफ़ी समय से पता है, फिर भी मैंने केवल अपना रिश्ता बचाये रखने की खातिर उनसे कुछ नहीं कहा। मैंने अपनी बहन की भ्रष्टता को पहचानने और उस समस्या को हल करने में उनकी मदद नहीं की, जबकि मेरे भाई-बहनों में विवेक की कमी थी और उन्हें भटकाया जा रहा था, इसलिए वे बहन लियु के बारे में ऊँचा सोचते थे और उनकी पूजा तक करते थे। मैंने बेहद नुकसान पहुँचाने वाला काम किया था। क्या मुझे एक दुर्भावना से भरा इंसान नहीं कहा जाएगा? मुझे कुछ पछतावा महसूस हुआ और फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा: "अगर तुम स्पष्ट रूप से देखते हो कि किसी में कोई समस्या है, लेकिन तुम उसे सीधे यह नहीं बताते क्योंकि तुम आमने-सामने आने से बचना चाहते हो, तो इसे क्या कहते हैं? यह जीने के लिए एक दर्शन है। दूसरा दृष्टिकोण है, यह कहना है, "मेरा आध्यात्मिक कद अभी छोटा है और मैं तुम्हारी समस्याओं को पूरी तरह से नहीं समझता हूँ। जब मैं समझ लूँगा, तो मैं तुम्हें बताऊँगा।" क्या यह दूसरों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश नहीं है? क्या तुम वास्तव में कुछ भी पूरी तरह से नहीं समझ सकते हो? क्या तुम्हारे पास इस मुद्दे पर कोई भी विचार नहीं हो सकते थे? तुम्हारे पास विचार तो हैं; बस बुरा न लग जाए इस डर से तुम कुछ नहीं कह रहे हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों को पढ़ना मेरे लिए थोड़ा तकलीफ़देह था और मुझे अपनी गलती का एहसास भी हो रहा था। मुझे बहुत पहले ही पता चल गया था कि बहन लियु हमेशा अपनी ही तारीफ़ करती और सभाओं में दिखावा करती हैं, इस तरह की सहभागिता भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के लिए बिल्कुल भी मददगार नहीं है। इस कारण सभाओं में ज़्यादातर समय बेकार ही निकल जाता था और इससे सही कलीसिया जीवन पर पहले ही बुरा असर पड़ चुका था। इसके बावजूद मैंने केवल अपने रिश्ते को बचाने के लिए अपना मुँह बंद ही रखा। अपनी टिप्पणी लिखते हुए, मैं यह उजागर करना चाहती थी कि बहन लियु कैसे हमेशा अपनी ही तारीफ़ करती रहती हैं, लेकिन जब मैंने देखा कि सभी लोग उनके बारे में अच्छी बातें लिख रहे हैं, तो उन्हें नाराज़ ना करने के डर से मैंने भी यही सब लिख दिया। हालांकि मैंने उनके कुछ गलत व्यवहारों के बारे में ज़रूर लिखा, मगर यह भी लिख दिया कि मेरा अपना आध्यात्मिक कद छोटा है और मुझमें गहरी समझ की कमी है। सच तो ये था कि मुझे शुरुआत से ही सब कुछ पता था और मेरे खुद के विचार भी थे, लेकिन दूसरों को नाराज़ करने के मेरे डर ने मुझे एक भी सही शब्द कहने का मौक़ा नहीं दिया। परमेश्वर के वचन हर मोड़ पर मेरी भ्रष्टता को उजागर करके मेरे सटीक विचारों को प्रकट कर रहे थे। मुझे बहुत बुरा लगा और शर्म भी आई। इस डर से कि बहन लियु को उनकी गलतियां बताने से उन्हें ठेस पहुंचेगी, मैं सीधे तौर पर अपने विचार बताने की हिम्मत नहीं कर पाई। मेरे संवाद एक अविश्वासी के नज़रिये को व्यक्त करते थे। मैं कैसी विश्वासी थी?
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्य स्वार्थी और कृपण स्वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्या लेना-देना है? मैं क्यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्हारे अवचेतन मस्तिष्क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्होंने तुम्हारे हृदय में स्थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्य के भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव हैं। ये भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे विचारों को नियंत्रित करते हैं और तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं, और वे तुम्हारी ज़ुबान को नियंत्रित करते हैं। जब तुम अपने दिल में कोई बात कहना चाहते हो, तो शब्द तो तुम्हारे होठों तक पहुँचते हैं लेकिन तुम उन्हें बोलते नहीं हो, या, अगर तुम बोलते भी हो, तो तुम्हारे शब्द गोलमोल होते हैं, और तुम्हें चालबाज़ी करने की गुंजाइश देते हैं—तुम बिल्कुल साफ़-साफ़ नहीं कहते। दूसरे लोग तुम्हारी बातें सुनने के बाद कुछ भी महसूस नहीं करते, और तुमने जो कुछ भी कहा होता है उससे समस्या हल नहीं होती। तुम मन-ही-मन सोचते हो, 'अच्छा है, मैंने बोल लिया। मेरा अन्त:करण निश्चिंत हुआ। मैंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी।' सच्चाई यह है कि तुम अपने हृदय में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा है जो तुम्हें कहना चाहिए, कि तुमने जो कहा है उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और परमेश्वर के घर के कार्य का अहित ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। तुमने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं की, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी है, या जो कुछ भी हो रहा था वह तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं था। क्या यह सच है? क्या तुम वाकई यही सोचते हो? फिर क्या तुम पूरी तरह अपने शैतानी स्वभावों के काबू में नहीं हो? तुम जो कुछ सोचते और कहते हो, वह कभी-कभी वास्तविकता के करीब हो सकता है, लेकिन महत्वपूर्ण क्षणों में, तुम अब भी झूठ बोलते और धोखा देते हो, यहाँ तक कि अपने बचाव के झूठे तरीके गढ़ते हो—जो साबित करता है कि तुम्हारा मुख शैतानी स्वभावों के नियंत्रण में है। तुम वास्तव में जो सोचते हो, वह कभी नहीं कहते। वह सब तुम्हारे दिलो-दिमाग में पूर्व-संपादित होता है। तुम्हारी हर बात झूठ होती है, तथ्यों के विपरीत होती है, वह सब तुम्हारे झूठे बचाव में, तुम्हारे फायदे के लिए होता है। कुछ लोग झांसे में आ जाते हैं और तुम्हारे लिए यह काफी होता है : तुम्हारे शब्द और कार्य अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। तुम्हारे दिल में यही है, ये तुम्हारे स्वभाव हैं। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभावों के नियंत्रण में हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचन मेरी वास्तविक स्थिति को बयां कर रहे थे। मैंने देखा कि बहन लियु सभाओं में अपनी सहभागिता के नाम पर सिर्फ़ अपनी ही तारीफ़ किया करती थीं, जिससे कलीसिया जीवन को बहुत गहरा नुकसान पहुँच रहा था, मैं बेशक ये सब होने से रोक सकती थी, लेकिन दूसरों को नाराज़ करने के अपने डर ने मुझे जकड़ रखा था, मुझे इसकी बहुत चिंता थी, इसलिए मैं एक भी सही बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। मैं पूरी तरह अपने भ्रष्ट स्वभाव के काबू में थी और इसी कारण मेरा मुँह पूरे समय बंद ही रहा, जिससे मैं एक भी सकारात्मक या सही काम नहीं कर सकी। मैंने अपनी बात को घुमा-फिराकर, उसमें मिलावटी रंग भर कर, उसे कमज़ोर करके अलग ही मोड़ दे दिया, ताकि जब मैं अपनी बहन को यह बात कहूँ, तो इससे कोई फायदा ही न हो। बाहर से, मैंने अपनी छवि एक अच्छी इंसान की बना रखी थी, मगर मन-ही-मन, हर पल यही सोचती रहती थी कि मैं दूसरों के साथ अपने रिश्ते कैसे अच्छे बनाए रखूँ, ताकि वे मेरे बारे में अच्छी बातें करें। अपना रुतबा और पहचान बचाने के लिए मैं भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुँचाने के लिए तैयार थी। मैंने देखा कि मैं स्वार्थी और कपटी तो थी ही, मुझमें इंसानियत और समझ ज़रा सी भी नहीं थी।
उस दौरान के अपने सभी खुशामदी व्यवहारों के बारे में सोचकर मैं खुद को कसूरवार महसूस करने लगी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं अपने हितों की रक्षा के लिए सत्य को पीछे छोड़ दूँगी और इसका अभ्यास करना बंद कर दूँगी। मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को याद किया: "क्या तुम परमेश्वर के लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा: "युवाओं को सत्य से रहित नहीं होना चाहिए, न ही उन्हें ढोंग और अधर्म को छिपाना चाहिए—उन्हें उचित रुख पर दृढ़ रहना चाहिए। उन्हें सिर्फ यूँ ही धारा के साथ बह नहीं जाना चाहिए, बल्कि उनमें न्याय और सत्य के लिए बलिदान और संघर्ष करने की हिम्मत होनी चाहिए। युवा लोगों में अँधेरे की शक्तियों के दमन के सामने समर्पण न करने और अपने अस्तित्व के महत्व को रूपांतरित करने का साहस होना चाहिए। युवा लोगों को प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने नतमस्तक नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि अपने भाइयों और बहनों के लिए माफ़ी की भावना के साथ खुला और स्पष्ट होना चाहिए। बेशक, मेरी ये अपेक्षाएँ सभी से हैं, और सभी को मेरी यह सलाह है। लेकिन इससे भी बढ़कर, ये सभी युवा लोगों के लिए मेरे सुखदायक वचन हैं। तुम लोगों को मेरे वचनों के अनुसार आचरण करना चाहिए। विशेष रूप से, युवा लोगों को मुद्दों में विवेक का उपयोग करने और न्याय और सत्य की तलाश करने के संकल्प से रहित नहीं होना चाहिए। तुम लोगों को सभी सुंदर और अच्छी चीज़ों का अनुसरण करना चाहिए, और तुम्हें सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, युवा और वृद्ध लोगों के लिए वचन)। परमेश्वर चाहता है कि हम सही और गलत में अंतर कर सकें, सच के लिए आवाज़ उठाएं और बिना सोचे-विचारे भीड़ के साथ ना चलें, बल्कि न्याय और सिद्धांतों पर चलने की हिम्मत जुटा सकें। जहाँ तक मेरी बात है, मैंने बहन लियु की समस्या पहचान ली थी, मगर मैंने एक ईमानदार इंसान की तरह न तो अपनी बहन को उनकी समस्या बताई, और ना ही प्यार से उनकी मदद करने की कोशिश की। बजाय इसके, मैं एक खुशामदी और कपटी इंसान बनी रही, इसलिए अंत में उनकी समस्या बताकर उनकी मदद करने में विफ़ल रही। क्या मैं ऐसा करके उन्हें नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? मुझे और भी ज़्यादा खेद महसूस होने लगी। मैं खुद को खुशामदी इंसान बने रहने नहीं दे सकती थी। मुझे सत्य का अभ्यास करके एक ईमानदार इंसान बनना था।
बहन लियु के साथ एक सभा में, मैंने उन्हें उनकी समस्या के बारे में बताया, कि वे अपनी सहभागिता में केवल अपनी अच्छाइयों के बारे में बताती हैं, उन्होंने कभी अपनी भ्रष्टता प्रकट होने की प्रक्रिया के बारे में चर्चा नहीं की, जिस कारण लोग उनके बारे में ऊँचा सोचते हैं और उनका ही अनुसरण करते हैं, जो परमेश्वर का विरोध करना है। मैंने यह भी कहा कि सत्य के बारे में सहभागिता और परमेश्वर की गवाही उस भ्रष्टता पर आधारित होनी चाहिए जिसे हम खुद उजागर करते हैं, फिर हमें परमेश्वर के वचनों की मदद से खुद को पहचानना और विश्लेषण करना चाहिए, यह चर्चा करनी चाहिए कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने हमें बदल दिया। इस तरह हम लोगों को ऐसे शैतानी स्वभाव का ज्ञान और समझ हासिल करने में मदद कर सकेंगे और देख सकेंगे कि कैसे परमेश्वर के वचन वाकई लोगों को बदल सकते हैं। केवल इसे ही परमेश्वर का उत्कर्ष करना और उसके लिए गवाही देना कहा जाएगा। मेरी बात पूरी होते ही, बहन लियु ने अपनी समस्याओं को स्वीकार किया, उन्होंने विस्तार से यह भी बताया कि उनकी रुतबे की चाह कैसे उजागर हुई, उन्होंने अपने भ्रष्ट विचारों और सुझावों के बारे में भी चर्चा की, उन्होंने मेरा आभार माना कि मैंने उनकी समस्या के बारे में बताया और इससे उन्हें बहुत मदद मिली, उन्होंने कहा कि मैं इसी तरह हर बार उनकी गलतियां याद दिलाऊँ। उनकी बातें सुनकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। सीधे तौर पर उनकी समस्या बताने से उन्हें बहुत मदद मिली, मगर मुझे डर लगा रहता था कि खुलेआम उनकी समस्या बताने पर वे मुझसे नाराज़ हो जाएंगी और मेरे बारे में बुरा सोचने लगेंगी। मगर हुआ ये कि वे सत्य को उस तरह स्वीकार करने में अक्षम नहीं थीं जैसा मैंने सोचा था। समस्या तो मेरे साथ थी कि मैं बहुत डरपोक, धूर्त और कपटी बन रही थी। ऐसा करने के बाद ही मुझे ये मालूम पड़ा कि सत्य का अभ्यास करना केवल दूसरों के लिए ही मददगार नहीं है, बल्कि इससे हमारे मन को भी शांति मिलती है।
फिर, अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ के दो वीडियो देखे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "लोग अपना हित-साधन करते हुए परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, वे भाई-बहनों के सामान्य प्रवेश को बाधित करते हैं, यहाँ तक कि लोगों को एक सामान्य कलीसियाई जीवन और सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीने से भी रोकते हैं। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि, जब लोग अपना नाम, धन-दौलत और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इस तरह के व्यवहार को परमेश्वर के कार्य की सामान्य प्रगति को हद दर्जे तक नुकसान पहुँचाने और बाधित करने, और लोगों के बीच परमेश्वर की इच्छा को सामान्य रूप से पूरा होने से रोकने के लिए शैतान के साथ सहयोग करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लोगों के अपने हित-साधन की प्रकृति यही है। ... जब कोई सत्य का अनुसरण करता है, तो वह परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील हो पाता है, और परमेश्वर के दायित्व के प्रति सचेत रहता है। उसके कर्तव्य-पालन से संबंधित सब-कुछ परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखता है। वह परमेश्वर को महिमा-मंडित करने और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होता है, वह भाई-बहनों को लाभ पहुँचाता है, और परमेश्वर महिमा और गवाही प्राप्त करता है, और शैतान को लज्जित किया जाता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर एक ऐसा प्राणी प्राप्त करता है, जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है, जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर की इच्छा का मार्ग भी स्पष्ट हो जाता है, और परमेश्वर का कार्य भी प्रगति कर पाता है। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, ईमानदार है, और यह परमेश्वर के घर और कलीसिया के लिए बहुत ही लाभकारी है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। "यदि परमेश्वर जो कहता है, वह करने में तुम असमर्थ हो, परमेश्वर तुम्हारे लिए जो व्यवस्था करता है या तुमसे जो अपेक्षा करता है, उसका पालन करने में असमर्थ हो, तो तुम परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते—तुम शैतान का अनुसरण करते हो। और शैतान कहाँ है? लोगों के दिलों में। तुम लोगों को अकसर खुद को आइना दिखाना चाहिए और अपने विचारों में मौजूद चीजों का विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारे भीतर कौन-सी चीजें जीवन-दर्शन हैं, कौन-सी चीजें लोकप्रिय कहावतें हैं, कौन-सी पारंपरिक संस्कृति हैं, और कौन-सी चीजें बौद्धिक ज्ञान से आई हैं। तुम्हें पता होना चाहिए कि इनमें से किन्हें तुम हमेशा सही और सत्य के अनुरूप मानते हो, किनका तुम ऐसे पालन करते हो मानो वे सत्य हों, और किन्हें तुम सत्य का स्थान लेने देते हो। इन चीजों का तुम्हें विश्लेषण करना चाहिए। विशेष रूप से उन चीजों का, जिन्हें तुम सही और मूल्यवान मानते हो, उनके साथ ऐसे पेश आते हो जैसे वे सत्य हों; ऐसी चीजों को पहचानना आसान नहीं है। लेकिन जब तुम उन्हें पहचान लेते हो, तो तुम एक बड़ी बाधा पार कर लेते हो। ये चीजें लोगों को सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों को समझने और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने से रोकती हैं। यदि तुम सारा दिन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर और बोरियत में बिताते हो, यदि तुम इन चीजों के प्रति जरा-भी विचारशील नहीं होते, इन पर कोई ध्यान नहीं देते, तो ये तुम्हारे दिल में हमेशा व्याधि बनी रहेंगी, ऐसी व्याधि जिसे दूर नहीं किया जा सकता, और इसलिए तुम परमेश्वर का वास्तव में अनुसरण करने में असमर्थ रहोगे, और सत्य का अभ्यास नहीं कर पाओगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'धर्म में विश्वास से कभी उद्धार नहीं होगा')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद, मुझे यह एहसास हुआ कि मैं एक खुशामदी इंसान इसलिए बनी क्योंकि मेरे अंदर इस तरह के विचार भरे थे, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," "दूसरों की भावनाओं और तर्क-शक्ति के सामंजस्य में अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है"; और इसी तरह के शैतानी फलसफों ने मुझ पर काबू कर लिया था। इन फलसफों के मुताबिक चल कर मैं बेहद स्वार्थी, मतलबी, धूर्त और कपटी बन गई थी। मैं कुछ भी करने और कोई भी कदम उठाने से पहले यही सोचती थी कि इससे मुझे कोई फ़ायदा होगा या नहीं। बहन लियु की समस्या का पता चलते ही मैं उन्हें इस बारे में बताना चाहती थी, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हुए एक न्यायप्रिय इंसान बनना चाहती थी, मगर अपनी पहचान को बचाने के लिए और अपना रिश्ता खराब होने के डर से, मैं खुली आँखों से कलीसिया जीवन को नुकसान पहुँचते देखती रही, सीधे तौर पर उन्हें उनकी खामियां बताने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। मन-ही-मन खुद से संघर्ष करते रहने और खुद को दोषी समझने के बावजूद, मैं अब भी जीवन जीने के इन फलसफों से बंधी और जकड़ी हुई थी और इसलिए अपनी बात सबके सामने नहीं रख सकी। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं इन शैतानी विषों के प्रभाव में जीती रही, तो कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकूँगी, क्योंकि मेरा नज़रिया शुरुआत से ही गलत था। परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार बनें, अपने भाई-बहनों को उनकी कमियां बताकर एक दूसरे की मदद कर सकें, हम सब सत्य की तलाश करके अपने जीवन स्वभाव में बदलाव और शुद्धिकरण करने में सक्षम हों। मगर इन शैतानी नज़रियों और विचारों के प्रभाव में रहकर मैं हमेशा यही मानती रही कि "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है" और "दूसरों की भावनाओं और तर्क-शक्ति के सामंजस्य में अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है" जैसी बातें सही हैं और इन पर ऐसे विश्वास करती रही जैसे यही सत्य हों। मुझे लगता था कि दूसरों की समस्याओं को देखकर भी अनदेखा करके या उनके बारे में बात ना करके मैं उनके साथ अपने रिश्ते बनाए रख पाऊँगी, और यह कि मैं एक अच्छी इंसान हूँ। मैं कितनी बड़ी बेवकूफ़ थी। अगर मैंने सत्य की खोज की होती, परमेश्वर के वचनों के अनुसार ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास किया होता, और अपनी बहन की समस्या पहले से उन्हें बताती, तो वे अपनी समस्या को जल्दी पहचानकर खुद को बदल सकती थीं, जो कि उनके जीवन और कलीसिया जीवन, दोनों के लिए मददगार होता। फिर मैंने अपने हितों की रक्षा करने की कोशिश क्यों की और सत्य का अभ्यास क्यों नहीं किया? क्या यह मुझे शैतान का सहयोगी नहीं बनाता, जो कलीसिया जीवन को नुकसान पहुँचाने में बराबर की अपराधी थी? सिर्फ़ अपने हितों की रक्षा करना बहुत बड़ी दुष्टता थी! आखिरकार मुझे एहसास हो गया कि खुशामदी इंसान बने रहने से कलीसिया के काम में रुकावट आती है और उसे नुकसान पहुँचता है। केवल सत्य की खोज करना और ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करते रहना ही सही अनुसरण है; ऐसा करने से ही भाई-बहनों के साथ हमारा रिश्ता बना रहता है और यही परमेश्वर की इच्छा भी है।
मैं परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन की आभारी हूँ, जिसकी मदद से मैं जान सकी कि खुशामदी लोग वास्तव में अच्छे नहीं होते; इससे मुझे स्वार्थ और बेईमानी के अपने शैतानी स्वभाव की कुछ समझ हासिल हुई। मैंने खुद यह अनुभव किया कि सत्य का अभ्यास करना और ईमानदार इंसान बनना ही सुकून और शांति पाने का एकमात्र तरीका है। भविष्य में, मैं सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार इंसान बने रहने पर ध्यान दूँगी जिससे परमेश्वर को खुशी मिले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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