असफलता से सीखे सबक
जब मैं कलीसिया अगुआ थी, वांग हुआ मेरे कार्य की निगरानी करती थी। वह अक्सर इस बारे में बात करती कि वह कलीसिया के काम का प्रबंधन कैसे करती है। कहती कि वह सिर्फ अपनी कलीसिया के काम की प्रभारी नहीं है, बल्कि वह और भी कई कलीसियाओं के काम की खोज-खबर रखती है, और यह कि उच्च अगुआ भी उसकी बुद्धि, अच्छी काबिलियत और काम में सक्षम होने की प्रशंसा करते हैं। अपने काम में सफलता का मुख्य कारण उसने यह बताया कि वह अपने निजी जीवन प्रवेश पर ध्यान देती है। उसने यह भी कहा कि अपने स्कूली जीवन में उसे निबंध लिखना अच्छा लगता था और वह एक अच्छी लेखिका है, इसका मतलब था कि वह अगुआओं और सहकर्मियों के साथ जो पत्राचार करती है, उसमें फेरबदल नहीं करना पड़ता है, वह जटिल मुद्दों को भी स्पष्ट भाषा में समझा सकती है। उसने कहा कि परमेश्वर ने उसे यह कौशल दिया है जिसका अब वह अपने काम में इस्तेमाल करती है। उसकी बात सुनकर मुझे जलन हुई, मैंने उसकी अच्छी काबिलियत, प्रभावशाली कार्यशीलता और सत्य की खोज की प्रशंसा की।
लेकिन दो महीने उसके साथ काम करके, मैंने देखा कि वह सभाओं में भाग लेने के बजाय अक्सर घर पर ही रहती है। मैंने पूछा : “तुम सभाओं में क्यों नहीं आती?” उसने जवाब दिया : “मैं घर पर ही परमेश्वर के वचन खाती-पीती हूँ और खुद को सत्य से युक्त करती हूँ ताकि परमेश्वर के वचनों पर बेहतर संगति कर लोगों की समस्याएँ सुलझा सकूँ।” मैंने सोचा : “अब सुसमाचार के विस्तार का समय है, और सुसमाचार कार्य ही तुम्हारी मुख्य जिम्मेदारी है। इतने व्यस्त समय में भी, तुम घर पर बैठी रहती हो। क्या तुम वास्तविक कार्य करने के बजाय लालची बनकर अपने रुतबे का सुख नहीं ले रही हो?” लेकिन फिर सोचा : “उसमें अच्छी काबिलियत है, और वह काफी समय से अगुआ है। उच्च अगुआ भी उसकी काबिलियत, बुद्धि और कार्यकुशलता की प्रशंसा करते हैं। अगर वह थोड़ा-बहुत अपने रुतबे का सुख ले भी रही है, तो क्या फर्क पड़ता है? हम सभी में भ्रष्टता है; कभी-कभार इसका उजागर होना सामान्य बात है। मुझे ऐसी निराधार बातें नहीं सोचनी चाहिए।” इस तरह, मैंने इस बात को दिमाग से निकाल दिया और इसके बारे में सोचना बंद कर दिया। उस दौरान कुछ सहकर्मी और मैं हर समूह के साथ रोजाना सभाएँ कर रहे थे ताकि संगति कर सुसमाचार कार्य में उनकी समस्याओं और मुश्किलों को हल जा सके। अधिक से अधिक संगति करने से हमारी समझ बढ़ती गई, औरहमें कुछ अभ्यास के मार्ग मिल गये। हमने वांग हुआ को उन परिणामों के बारे में बताया जो हमने सभाओं में हासिल किए थे। हालांकि, हमें हैरानी हुई जब वह प्रभावित नहीं दिखी—जबर्दस्ती मुस्कराकर बोली, “तुम्हें सुसमाचार कार्य के बारे में संगति करने और इन मामूली मसलों को हल करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए था। यह काम तो उन लोगों का है जो सुसमाचार फैलाते हैं—यह तो बच्चों का खेल है। सभाओं में, तुम्हें सत्य खोजने और जीवन प्रवेश के तरीके के बारे में संगति करने पर ध्यान देना चाहिए। तब तुम्हें सुसमाचार कार्य में अपने आप सफलता मिलेगी।” उसकी बात सुनकर, मेरी हिम्मत नहीं हुई कि अपनी राय पर बनी रहूँ। मैं दुविधा में थी, समझ नहीं आया क्या करूँ—अगर उसकी बात नहीं मानी और किसी भटकाव से सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ, तो भाई-बहन मुझे ही दोष देंगे। सुसमाचार कार्य में गड़बड़ कर बाधा डालना एक कुकर्म है। काम से हटा देना एक मामूली सजा होगी; अधिक गंभीर मामले में, मुझे निकाला भी जा सकता है। मैंने सोचा, “जाने दो, जैसा वह कहती है, वैसा ही करूँगी!”
अगले दिन, एक सभा में, लोगों ने सुसमाचार के प्रचार के दौरान आ रही कुछ वास्तविक समस्याओं और मुश्किलों को उठाया। हालांकि, इस बार मैंने उनके वास्तविक हालात के अनुसार उनकी समस्याओं का विश्लेषण कर समाधान खोजने में मदद नहीं की। बल्कि, उन मुश्किलों और समस्याओं की अनदेखी कर उनसे पूछा कि उन्होंने इन मसलों का सामना करते हुए अपने बारे में क्या सीखा है। मैंने यह भी कहा कि अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान देकर ही हम अपने कामों में परिणाम पा सकते हैं। यह सुनकर भाई-बहन लाचार होकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। किसी ने एक शब्द नहीं कहा। अगले कुछ दिनों तक सभा इसी तरह चलती रही। इस तरह संगति कर-करके, मैं ऊब गई। मेरी संगति नीरस और उबाऊ होती थी, मेरे पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं था और सभाओं की अगुआई में कोई दिशा नहीं थी। मुझे बहुत बुरा लगा। इस तरह की सभा करना निरर्थक लगा—इससे उनकी समस्याएं हल नहीं हो रही थीं। मेरे सहकर्मियों को भी ऐसा ही लगता था। हमने वांग हुआ से कहा कि वो उसके साथ संगति करे। हमने उससे पूछा कि इस तरह से काम करके क्या हम कोई गलती कर रहे हैं। लेकिन वांग हुआ अपनी बात पर अड़ी रही कि हमें वास्तविक समस्याएं हल करने की कोई जरूरत नहीं—अगर हम जीवन प्रवेश पर संगति करेंगे, तो सुसमाचार कार्य प्रभावी होगा। उसने यह भी कहा कि हममें अनुभव और अंतर्दृष्टि नहीं है, हम सिर्फ अपने काम पर ध्यान देते हैं और सत्य नहीं खोजते। उसकी बात सुनकर, मैं फिर असमंजस में पड़ गई कि आगे कैसे बढ़ूँ। मैंने सोचा : “उसमें अच्छी काबिलियत है, वह कई तरह के प्रोजेक्ट की निगरानी करती है और उच्च अगुआ भी उसे अहमियत देते हैं, तो मुझे वैसे ही करना चाहिए जैसे वह कहती है! आखिर, मुझमें काबिलियत, अनुभव और अंतर्दृष्टि की कमी है और मैं हर मामले में उससे कमतर हूँ।” आखिरकार, मैं उसके आदेशों का पालन करती रही।
उस दौरान, अन्य कलीसियाएँ सुसमाचार फैलाने के अपने परिणाम बेहतर कर रही थीं, और नए विश्वासियों की संख्या तेजी से बढ़ रही थी। जबकि हमारी कलीसिया के परिणाम असल में बदतर आ रहे थे। मेरी हालत खराब थी, समझ नहीं आ रहा था कैसे आगे बढ़ूँ। उसी समय, एक सहकर्मी सभा आयोजित की गई, जब अन्य कलीसियाओं के अगुआओं ने सुना कि हमारी कलीसिया ने सुसमाचार फैलाने में अच्छे परिणाम हासिल क्यों नहीं किए, तो उन्होंने अपने रुतबे के लाभों का सुख लेने और वास्तविक कार्य न करने के लिए वांग हुआ की आलोचना की। उसने इसे नहीं माना और रोकर अपना बचाव करने की कोशिश करने लगी। उसने कहा कि सुसमाचार कार्य के परिणाम खराब होने के लिए अकेली वह जिम्मेदार नहीं है, बाकी सहकर्मियों का भी दोष है। हमने उससे संगति करनी चाही और उसे खुद पर विचार करने को कहा, लेकिन वह तो मानने को तैयार ही नहीं थी। बस रो-रोकर हंगामा करती रही और सभा को पूरी तरह बाधित कर दिया। यह देखकर मैंने सोचा : “हमने सुसमाचार कार्य की समस्याएँ हल करने के लिए की, लेकिन तुम हमारे काम में रुकावट डालकर कहती रही कि हमें जीवन प्रवेश पर ध्यान देना चाहिए। तुमने सुसमाचार कार्य की वास्तविक समस्याएँ और मुश्किलें दूर करने की अनदेखी की और हमसे ‘जीवन प्रवेश पर ध्यान देने को कहा।’ तुमने यही तो किया न? मामले के तथ्य एकदम साफ हैं—तुमने अपना दोष स्वीकारने के बजाय, औरों को दोष देने की कोशिश की। क्या तुम सत्य स्वीकारने में नाकाम नहीं रही?” मैंने उच्च अगुआओं को उसके हालात की सूचना देने की सोची ताकि वे ही तय करें कि वह सही है या गलत। लेकिन फिर मैंने सोचा, शायद उसकी हालत बहुत खराब है। सबसे बड़ी बात, उसकी काट-छाँट हुई है, जिसका सीधा असर उसकी गरिमा और रुतबे पर पड़ा होगा। उसकी ऐसी प्रतिक्रिया की यही वजह है। अगर उसकी हालत खराब है और मैंने उसकी हालत की सूचना उच्च अगुआओं को दे दी, तो कहीं उन्हें यह न लगे कि मुझमें सत्य की समझ और विवेक नहीं है, मैं लोगों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर पाती? और अगर वांग हुआ को पता चला, तो क्या वह नहीं सोचेगी कि मैं जानबूझकर उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हूँ? क्या वह मुझे अलग-थलग कर परेशान नहीं करेगी? इस वजह से मुझे हटाने की कोशिश नहीं करेगी? मैंने सोचा, पहले उससे संगति करूँगी और वहाँ से चली जाऊँगी। संगति करने और उसे ठीक से पहचानने के बाद, अगर जरूरी लगा तो उसकी रिपोर्ट की जा सकती है।
सहकर्मी सभा के दूसरे दिन, मैंने वांग हुआ को एक बहन के सामने दूसरी बहन की आलोचना करते सुना, उसने उन दोनों के बीच विवाद पैदा करवा दिया। मैंने उसे याद दिलाया : “इन दोनों बहनों में आपस में पहले से ही कुछ गलतफहमी है, और तुम इस तरह की बातें करती हो, यह तो बस आग में घी डालने का काम है। उसके बाद उनमें आपस में सहयोग कहाँ रहेगा?” उसने इसे नहीं स्वीकारा और मुझसे बहस करने लगी : “मैंने जो कुछ कहा वह सच है, मैं सीधी बात करती हूँ, जो देखती हूँ और जो मेरे मन में होता है, वही कहती हूँ।” मैंने कहा : “जैसा तुम्हें दिख रहा है, वैसा नहीं है। तुमने जो कुछ उस बहन के व्यवहार के बारे में बोला है, वह तथ्यात्मक या वस्तुनिष्ठ नहीं है—तुम उसकी आलोचना कर रही थी। तुमने यह नहीं सोचा कि तुम्हारी बात से उस बहन को कितना नुकसान हो सकता है या कलीसिया के कार्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है। इसका नतीजा यह होगा कि उनका रिश्ता खराब हो जाएगा और वे मिलकर कभी काम नहीं कर पाएँगी। इसे कलह के बीज बोना कहते हैं।” उसके जवाब पर मुझे हैरानी हुई : “मैं उनमें से नहीं हूँ जो सोचते कुछ हैं और कहते कुछ हैं, जो गोल-गोल बात करते हैं, अपने कर्मों में पारदर्शी नहीं होते, कपटी होते हैं।” उसकी बातों में निहित इशारों और आक्रामकता को देखकर, मैं जानती थी कि उसकी समस्या गंभीर है, और मैं अगुआओं को उसकी रिपोर्ट करना चाहती थी। लेकिन फिर मैंने सोचा, “आज मैंने उसे बस कुछ सुझाव दिए और उसने तुरंत मुझ पर हमला कर दिया। अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की है, तो क्या वह गुस्से से भड़ककर मुझसे बदला नहीं लेगी? वह पहले ही मुझे कपटी कह चुकी है—अगर उसने मेरी निंदा की और कहा कि मैं कलीसिया अगुआ बनने के लायक नहीं और मुझे हटवा दिया तो क्या होगा? सीसीपी की पुलिस अभी भी मेरा पीछा कर रही है, इसलिए मैं घर नहीं लौट सकती। अगर मुझे हटा दिया और फिर भी मैं सभाओं में वापस नहीं लौट पाई, तो और कहाँ जाऊँगी?” उस रात, मुझे बड़ी बेचैनी रही। मन में विचारों का तूफान चलता रहा और रात भर मैं ज़रा भी सो नहीं पाई। आखिर, मैंने उसकी रिपोर्ट न करने का फैसला किया। फिर अगली सुबह, बिस्तर के पाये से मेरा सिर इतनी जोर से टकराया कि चक्कर आ गए, सिर में दो गोले-से निकल आए जो कई दिनों तक बने रहे। मैंने सोचा : “क्या परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है?” लेकिन उस समय, मैं सुन्न महसूस कर रही थी, और मैंने आत्मचिंतन भी नहीं किया। उन दो दिनों में, मैं किसी प्रेत की तरह भटकती रही, लगा जैसे मैंने पवित्र आत्मा का कार्य गँवा दिया।
मुझे हैरानी हुई जब सीधे सहकर्मी सभा के बाद, उच्च अगुआओं द्वारा भेजे गए कुछ भाई-बहन वांग हुआ की हालत की जांच करने आए। मुझे जो कुछ पता था, मैंने उन्हें बता दिया। भाई-बहनों ने बहुत सख्ती से मेरी काट-छाँट की : “तुम्हें समस्या की खबर थी, तो तुमने जो कुछ देखा, उसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? भले ही तुम समस्या का सार न समझ पाई हो, लेकिन कम से कम जो देखा-जाना था और उसके व्यवहार के विशिष्ट विवरण की रिपोर्ट तो तुम उच्च अगुआओं को कर ही सकती थी। तुम्हें पता था कि उसकी समस्या की रिपोर्ट करनी चाहिए, लेकिन खुद को बचाने के लिए, तुमने सत्य पर अमल नहीं किया और कलीसिया के कार्य के हितों की रत्ती भर भी रक्षा नहीं की। तुम वाकई स्वार्थी और नीच हो!” इस तरह काट-छाँट किए जाने पर, मुझे बहुत अफसोस और पश्चात्ताप हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मुझे पता है कि मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं की, लेकिन समझ नहीं पा रही कि मेरी समस्या की जड़ क्या है। मुझे प्रबुद्ध कर राह दिखा ताकि मैं खुद को जान सकूँ। मैं प्रायश्चित्त करने को तैयार हूँ।”
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “अपने कार्य में, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दो सिद्धांतों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य व्यवस्थाओं के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें कलीसिया के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले रखने चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि वे अभी भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हैं, या वे जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनके कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा। प्रबुद्धता और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से निरंतर मुँह फेरना उन्हें केवल बंद गली की ओर ले जाएगा। यदि वे पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देते हैं, तो वे कार्य नहीं कर पाएँगे, और यदि वे कार्य करने का प्रबंध कर भी लेते हैं, तो वे कुछ पूरा नहीं कर पाएँगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर अगुआओं और कर्मियों से यह अपेक्षा करता है कि वे कार्य-व्यवस्था के अनुसार सही कार्य करें और परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार ही अपने कर्तव्य निभाएं। अगर वे सिद्धांतों और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का उल्लंघन कर मनमानी करेंगे, और कार्य में अपने ही विचारों पर अड़े रहेंगे, तो यह परमेश्वर का गंभीर प्रतिरोध है। तब जाकर मुझे समझ आया कि पवित्र आत्मा का कार्य गँवाकर मैं अंधेरे में क्यों डूब गई। मैंने देखा था कि वांग हुआ सभाओं में नहीं जा रही है या सुसमाचार कार्य नहीं कर रही है। इसके अलावा, मैं जानती थी कि यह कार्य-व्यवस्था का उल्लंघन है, और मैं यह भी जानती थी कि उसके कहे अनुसार करना साफ तौर पर काम करना नहीं है। लेकिन क्योंकि मैं यह मानती थी कि उसमें अच्छी काबिलियत है और वह एक सक्षम कार्यकर्ता है, तो मैंने कार्य-व्यवस्था का उल्लंघन कर उसका साथ दिया, और नतीजतन सुसमाचार कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। मैं समझ गई कि अपनी तमाम गलतियों के बावजूद वांग हुआ आत्मचिंतन नहीं करेगी, बल्कि औरों पर हमलावर होगी और सत्य कभी नहीं स्वीकारेगी। लेकिन उसकी नाराजगी और हटाए जाने के डर से, मैंने उसकी समस्या की रिपोर्ट नहीं की। मैंने कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन किया और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और रोशनी के खिलाफ गई, अड़ियल बनकर परमेश्वर का विरोध करती रही। परमेश्वर मुझसे कैसे नफरत न करता? मुझे न तो परमेश्वर के वचनों का प्रबोधन मिला और न ही मेरे पास संगति में कुछ कहने को था, मैं अपने कर्तव्य में कोई मार्ग खोजने में नाकाम होकर घोर अंधकार में डूब चुकी थी। परमेश्वर ने मुझसे मुँह मोड़ लिया था।
इन बातों विचार करते हुए, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “भ्रम तब होता है जब तुम किसी मामले को ठीक से समझ नहीं पाते; तुम नहीं जानते कि सिद्धांतों के अनुरूप या सटीक तरीके से निर्णय कैसे लें या समझ कैसे पैदा करें। भले ही तुम इसे थोड़ा बहुत समझ पाते हो, लेकिन तुम अनिश्चित होते हो कि तुम्हारा दृष्टिकोण सही है या नहीं, तुम नहीं जानते कि मामले को कैसे सँभालना या हल करना है, और तुम्हारे लिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना मुश्किल हो जाता है। संक्षेप में, तुम इसके संबंध में अनिश्चित होते हो और कोई निर्णय लेने में असमर्थ होते हो। यदि तुम सत्य को थोड़ा भी नहीं समझते और कोई अन्य व्यक्ति उस समस्या का समाधान नहीं करता, तो वह हल न हो सकने वाली समस्या हो जाती है। क्या यह कठिन चुनौती का सामना करना नहीं है? जब ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऊपरवाले को सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से मदद माँगनी चाहिए ताकि मुद्दों को और अधिक तेजी से हल किया जा सके। क्या तुम लोग अक्सर भ्रम का सामना करते हो? (हाँ।) नियमित रूप से भ्रम का सामना करना अपने आप में एक समस्या है। मान लो कि तुम किसी समस्या का सामना कर रहे हो और तुम्हें नहीं पता कि उसे कैसे सँभालना है। कोई व्यक्ति एक ऐसा समाधान प्रस्तावित करता है जो तुम सोचते हो कि उचित है, साथ ही कोई अन्य व्यक्ति एक दूसरा समाधान पेश करता है और तुम्हारे विचार में वह भी उचित होता है, और तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते कि कौन सा समाधान अधिक उपयुक्त है, सभी की राय अलग-अलग है और कोई भी समस्या के मूल कारण या सार को नहीं समझ पा रहा है, तो समस्या के समाधान में चूक होना तय है। इसलिए, किसी समस्या को हल करने के लिए उसके मूल कारण और सार को निर्धारित करना आवश्यक और महत्वपूर्ण होता है। यदि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचान नहीं है, वे समस्या के सार को समझने में विफल रहते हैं, और सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, तो उन्हें तुरंत इस मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और उससे समाधान खोजना चाहिए; यह आवश्यक है और यह जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देना नहीं है। अनसुलझी समस्याएँ गंभीर परिणाम पैदा कर सकती हैं और कलीसिया के काम को प्रभावित कर सकती हैं—इस बात को ठीक से समझा जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे समझ आया, जब हमारे काम में कोई समस्या आती है, जैसे सहकर्मियों के बीच संघर्ष होता है या हमें किसी में कोई समस्या दिखती है, लेकिन हालात को अच्छी तरह समझ नहीं पाते, और नहीं जानते कि इससे कैसे निपटें, तो हमें सही समय पर उच्च अगुआओं को उसकी रिपोर्ट कर समाधान खोजना चाहिए। समस्या की रिपोर्ट करना कोई लोगों में दोष ढूँढ़ना नहीं है, उनकी बुराई करना या तिल का ताड़ बनाना नहीं है; बल्कि लोग जो समस्याएं खुद नहीं सुलझा पा रहे हों, उनमें उनकी मदद करना है, ताकि कार्य और लोगों के जीवन प्रवेश में देरी को रोका जा सके। जहाँ तक मेरी बात है, मैंने चाहे कितनी भी समस्याओं का सामना किया और उनकी गंभीरता चाहे जितनी भी रही हो, अगर मेरे हितों या मेरे भविष्य की संभावनाओं को खतरा होता तो मुझे उनकी रिपोर्ट करने के बजाय काम में देरी करना और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचाना मंजूर था। जब वांग हुआ कार्य-व्यवस्था के खिलाफ जा रही थी और सुसमाचार कार्य की निगरानी नहीं कर पा रही थी, तो भले ही मुझे उस समस्या की पूरी समझ न हो, लेकिन मुझे लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, और वह लीक से हट रही है। तभी मुझे फौरन उसके हालात की रिपोर्ट उच्च अगुआओं को करनी चाहिए थी। लेकिन डर यह था कि अगर मैंने उसकी बात नहीं मानी, तो मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा, इसलिए मैंने उसकी हर बात मानी। जब वांग हुआ ने काट-छाँट किए जाने पर बेवजह इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा किया, तो मुझे यह पक्का नहीं करना था कि क्या वह बुरी हालत में है या उसके सार में ही सत्य के प्रति नफरत और तिरस्कार का भाव है। तब भी मैं समय रहते रिपोर्ट कर सकती थी और उच्च अगुआ जांच-पड़ताल और पहचान करने के लिए किसी को भेज सकते थे ताकि किसी गलत व्यक्ति के कारण कलीसिया के काम में देरी न हो। लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने गलत तरीके से उसकी रिपोर्ट की, तो उच्च अगुआओं को लगेगा कि मुझे दूसरों की समझ नहीं है। इसी तरह, मुझे यह भी डर था कि उसके बाद वांग हुआ मुझे दबाएगी, तो मैं उसकी समस्या की रिपोर्ट करना टालती रही। अगर मैं जिम्मेदार इंसान होती, कलीसिया के काम की रक्षा करती, तो फिर चाहे मुझे उस समस्या के सार और सत्य की समझ होती या न होती, मुझे कोई भी चीज रोक न पाती। मैं कलीसिया के हितों की रक्षा का रास्ता खोज लेती। लेकिन मैं, खुद को बचाने के लिए, निष्क्रिय बनकर खड़ी रही और यह कहकर बहाना बनाती रही कि जब मुझे सही समझ होगी, तब उसकी रिपोर्ट करूँगी। लेकिन सही समझ होने तक प्रतीक्षा करने से क्या बहुत देर नहीं हो जाती? क्या सुसमाचार कार्य पर और भी अधिक प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता? तब मुझे एहसास हुआ कि कठिनाइयों का सामना करते हुए और जब हम भ्रमित होते हैं तब सत्य खोजना कितना महत्वपूर्ण होता है। कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होना बहुत महत्वपूर्ण होता है!
अपने बचाव के लिए, मैं वांग हुआ के समस्याओं की रिपोर्ट करना टालती रही, इससे सुसमाचार कार्य को भयंकर नुकसान पहुँचा। मुझे बेहद अफसोस हुआ। फिर मुझे मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन मिले : “मसीह-विरोधियों की स्वार्थपरता और नीचता कैसे प्रकट होती हैं? उनके रुतबे और प्रतिष्ठा को जिससे लाभ होता है, वे उसके लिए जो भी जरूरी होता है उसे करने या बोलने के प्रयास करते हैं और वे स्वेच्छा से हर पीड़ा सहन करते हैं। लेकिन जहाँ बात परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कार्य से संबंधित होती है, या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन के विकास को लाभ पहुंचाने वाले कार्यों से संबंधित होती है, वे पूरी तरह इसे अनदेखा करते हैं। यहाँ तक कि जब बुरे लोग विघ्न-बाधा डाल रहे होते हैं, सभी प्रकार की बुराई कर रहे होते हैं और इसके फलस्वरूप कलीसिया के कार्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहे होते हैं, तब भी वे उसके प्रति आवेगहीन और उदासीन बने रहते हैं, जैसे उनका उससे कोई लेना-देना ही न हो। और अगर कोई किसी बुरे व्यक्ति के बुरे कर्मों के बारे में जान जाता है और इसकी रिपोर्ट कर देता है, तो वे कहते हैं कि उन्होंने कुछ नहीं देखा और अज्ञानता का ढोंग करने लगते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। “कुछ लोग बहुत-से सत्यों को नहीं समझते। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सिद्धांतों को नहीं समझते, और समस्याओं से सामना होने पर वे उन्हें सँभालने का उचित तरीका नहीं जानते। इस स्थिति में उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? न्यूनतम मापदंड है अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना—यह आधार-रेखा है। तुम्हें अंतरात्मा के अनुसार कार्य कैसे करना चाहिए? ईमानदारी से कार्य करो, और परमेश्वर की दया, परमेश्वर द्वारा दिए गए इस जीवन, और उद्धार पाने के इस परमेश्वर-प्रदत्त अवसर के योग्य बनो। क्या यह तुम्हारी अंतरात्मा का प्रभाव है? जब तुम यह न्यूनतम मापदंड पूरा कर लेते हो, तो तुम एक सुरक्षा प्राप्त कर लेते हो और तुम गंभीर त्रुटियां नहीं करोगे। फिर तुम इतनी आसानी से परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने वाले काम नहीं करोगे या अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भागोगे, न ही तुम्हारे द्वारा बेमन से काम किए जाने की उतनी संभावना होगी। तुम अपने रुतबे, प्रसिद्धि, धन और भविष्य के लिए षड्यंत्र करने में भी इतने प्रवृत्त नहीं होगे। अंतरात्मा यही भूमिका निभाती है। अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और नीच होते हैं।) स्वार्थी और नीच लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर के इरादों का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। लोगों को विघ्न-बाधा डालते देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे दुष्ट लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं और सुविधा के लालची होते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, हैसियत और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे समझ आया, काम के दौरान अक्सर ऐसा होता है कि हम समस्या को अच्छी तरह न समझ पाएँ और उसका हल न ढूँढ़ पाएँ, लेकिन जिनमें इंसानियत होती है, वे अपने विवेक से कलीसिया के हितों की रक्षा करते हैं। बिना अंतरात्मा और विवेक के, लोग केवल अपनी गरिमा, रुतबे और स्वार्थ का ही ख्याल करते हैं। पता होने पर भी वे समस्याओं की रिपोर्ट नहीं करते, वे बेहद स्वार्थी और नीच होते हैं। मैं बिल्कुल वैसी ही थी। अपनी प्रतिष्ठा, रुतबे, भविष्य की संभावनाएँ और मंजिल को बनाए रखने के लिए, मैं वांग हुआ द्वारा कलीसिया के काम को बाधित करने की रिपोर्ट करने को टालती रही। मैं इन शैतानी विषों के अनुसार जी रही थी, जैसे “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं” और “जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है।” मुझे डर था अगर मैंने वांग हुआ की समस्याओं की रिपोर्ट की, तो मुझे दबाया या हटा दिया जाएगा, इसलिए मैंने कई बहाने बनाए, जैसे, “हर कोई भ्रष्ट है,” “शायद वह बुरी हालत में है” और “मैं बेहतर समझ होने पर समस्या की रिपोर्ट करूँगी।” ये बहाने सही लग सकते हैं, लेकिन असल में, मैं सिर्फ अपना बचाव करने और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रही थी। मैंने केवल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबे, भविष्य की संभावनाओं और मंजिल की परवाह की—कलीसिया के काम पर विचार और उसके हितों की रक्षा नहीं की। मैं स्वार्थी, नीच और मानवता से हीन थी। मैं जिस थाली में खा रही थी, उसी में छेद कर रही थी!
बाद में, मैंने विचार किया कि मैं वांग हुआ की समस्या की रिपोर्ट करना टालती क्यों रही, तो एहसास हुआ कि इसकी वजहों में से एक यह है कि मुझे उसकी समझ नहीं थी। परमेश्वर के वचनों की व्याख्या से, मैंने वांग हुआ को पहचाना और उसके व्यवहार को समझा। परमेश्वर कहता है : “अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़िक्र तक नहीं करते। जब उन्होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्या यह अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का ही तरीका नहीं है? क्या अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्वभाव प्रगट होता है? अहंकार। यह प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव रखें। उनके शब्द पूरी तरह अकाट्य होते हैं और उनमें अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्वभाव है? और क्या उसमें दुष्टता के कोई तत्त्व हैं? (हाँ, हैं।) यह एक प्रकार का दुष्ट स्वभाव है। देखा जा सकता है कि उनके द्वारा प्रयुक्त ये साधन कपटपूर्ण स्वभाव से निर्देशित होते हैं—तो मैं क्यों कहता हूँ कि यह दुष्टतापूर्ण है? दुष्टता के साथ इसका क्या संबंध है? आप लोग क्या सोचते हो : अपनी बड़ाई करने तथा गवाही देने के अपने लक्ष्यों के बारे में क्या वे निष्कपट हो सकते हैं? नहीं हो सकते। लेकिन उनके दिलों की गहराइयों में हमेशा एक आकांक्षा होती है, और जो कुछ भी वे कहते और करते हैं वह उस आकांक्षा को बल प्रदान करता है, और वे जो कुछ कहते और करते हैं, उसके लक्ष्य और प्रयोजन बहुत गुप्त रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए, इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वे गुमराह करने वाली या किन्हीं संदिग्ध चालों का इस्तेमाल करेंगे। क्या इस तरह का दुराव-छिपाव अपनी प्रकृति में ही धूर्ततापूर्ण नहीं है? और क्या इस तरह की धूर्तता को दुष्टता नहीं कहा जा सकता? (हाँ।) इसे निश्चय ही दुष्टता कहा जा सकता है, और इसकी जड़ें छल-कपट से कहीं ज़्यादा गहराई तक फैली होती हैं। वे अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए एक निश्चित तरीका या विधि का प्रयोग करते हैं। यह स्वभाव धोखेबाजी है। तथापि, उनके दिलों की गहराइयों में हर समय व्याप्त यह महत्वाकांक्षा और इच्छा कि लोग उनका अनुसरण करें, उनकी प्रशंसा करें, और नित्य उनकी आराधना करें, उन्हें अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने, तथा इन कार्यों को अनैतिकता और बेशर्मी से करने के लिए निर्देशित करती है। यह कैसा स्वभाव है? यह दुष्टता के स्तर तक पहुँच जाता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव अहंकारी और दुष्ट होता है। लोगों को लुभाने और उन पर काबू करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए, वे खुद को ऊंचा उठाने और अपनी गवाही देने को हर प्रकार के हथकंडे अपनाते हैं, चालाकी से लोगों से अपनी प्रशंसा और आराधना करवाते हैं, और समझते हैं कि किसी से भी उनकी तुलना नहीं की जा सकती। परमेश्वर के वचनों से मुझे वांग हुआ के तौर-तरीकों और इरादों की थोड़ी समझ हुई। मैंने उसके साथ हुए अपने मेलजोल पर विचार किया, वह अपने काम के प्रबंधन को लेकर डींगें हाँकती और कहती कि उसे उच्च अगुआओं से प्रशंसा मिलती है। इन सब से दूसरों को लगता कि वह जीवन प्रवेश को अधिक महत्व देती है और सत्य खोजने वाली इंसान है। वह अपने हुनर और खूबियों का भी दिखावा करती, कहती कि उसके पत्रों की भाषा सुरुचिपूर्ण और धाराप्रवाह होती है, उसे कभी संपादित नहीं करना पड़ता। इससे लोग खुद को हर मामले में उससे हीन समझते और मानते कि वे उसकी तुलना में कुछ नहीं हैं। वांग हुआ दिखावा करने और डींगें हाँकने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाती, लेकिन कभी अपनी भ्रष्टता उजागर नहीं करती। वह तथ्यों को घुमा-फिराकर खुद को एकदम साफ-सुथरा दिखाती, खुद को पूरी तरह छुपाकर रखती, ताकि कोई उसकी कमजोरियाँ, दोष या धूर्त इरादे न भाँप सके। दरअसल, उच्च अगुआओं ने सिद्धांत के अनुसार लोग न चुनने या उनका इस्टाल न करने और अपने काम में लापरवाही बरतने पर, कई बार उसे उजागर कर उसकी काट-छाँट की थी, लेकिन उसने उन बातों की चर्चा कभी नहीं की। वह केवल यही बात करती कि कैसे उच्च अगुआ उसकी प्रशंसा और सम्मान करते हैं, वह लोगों के सामने सिर्फ अपने सकारात्मक पहलू ही पेश करती। वह वास्तविक कार्य करने के बजाय अक्सर घर पर ही रहती थी। वह दावा करती कि वह खुद को सत्य से युक्त कर रही है ताकि परमेश्वर के वचनों की बेहतर संगति कर सके और लोगों की समस्याएँ बेहतर ढंग से सुलझा सके। लेकिन असल में वह साफ तौर पर केवल अपने रुतबे के लाभों का आनंद ले रही थी। वह सुसमाचार कार्य में मौजूद कोई भी वास्तविक परेशानी दूर नहीं करती थी, बल्कि झूठ फैलाती थी कि सभाओं में सुसमाचार कार्य की समस्याएँ सुलझाकर, लोग केवल काम को महत्व दे रहे हैं, जीवन प्रवेश को नहीं। वह हमेशा लोगों पर हमले कर उन्हें अपमानित करती और उनके वास्तविक कार्यों को बच्चों का खेल बताती। उसने कलह के बीज बोये, गुप्त रूप से लोगों को कमजोर करती रही और भाई-बहन के बीच रिश्ते बिगाड़ने का काम किया, फिर भी दावा करती थी कि वह सीधी बात करने वाली इंसान है, स्पष्टता और सत्यता से बोलती है। वांग हुआ की सारी कथनी और करनी पूरी तरह कपट और बेईमानी से भरी थी। अगर परमेश्वर ने उजागर न किया होता, तो वह आसानी से लोगों को गुमराह कर अपनी प्रशंसा और पूजा करवाती। यह सब जानकर आखिरकार मुझे अक्ल आ गई और वांग हुआ का मसीह-विरोधी सार समझ गई।
मैंने विचार किया तो जाना कि उसे न समझ पाने का एक कारण यह भी है कि मुझे भ्रष्टता की अकेली मिसाल और एक भ्रष्ट प्रकृति सार में अंतर करने की समझ नहीं थी। फिर मुझे परमेश्वर के कुछ वचन मिले : “शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। “परमेश्वर मसीह-विरोधियों का चित्रण किस तरह करता है? यह वे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं—वे परमेश्वर के शत्रु हैं! सत्य का विरोध करना, परमेश्वर से घृणा करना, और सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करना—यह सामान्य लोगों में पाई जाने वाली क्षणिक कमजोरी या मूर्खता नहीं है, न ही यह गलत विचारों और दृष्टिकोणों का प्रकाशन है जो क्षण भर की विकृत समझ से उत्पन्न हो जाते हैं; यह समस्या नहीं है। समस्या यह है कि वे मसीह-विरोधी हैं, परमेश्वर के दुश्मन हैं, सभी सकारात्मक चीजों और सभी सत्य से घृणा करते हैं; वे ऐसे चरित्र हैं जो परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसका विरोध करते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को कैसे देखता है? परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता! ये लोग सत्य से घृणा और नफरत करते हैं, उनमें मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार होता है। क्या तुम लोग इसे समझते हो? यहाँ जो उजागर किया जा रहा है वह दुष्टता, क्रूरता और सत्य से नफरत है। यह भ्रष्ट स्वभावों में सबसे गंभीर शैतानी स्वभाव होते हैं, जो शैतान की सबसे विशिष्ट और ठोस विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, न कि सामान्य भ्रष्ट मानव जाति द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों का। मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण ताकत हैं। वे कलीसिया में बाधा डालकर उसे नियंत्रित कर सकते हैं, और उनके पास परमेश्वर के प्रबंधन कार्य का विघटन करने और उसमें गड़बड़ करने की क्षमता होती है। यह ऐसा कुछ नहीं है जो भ्रष्ट स्वभाव वाले सामान्य लोग कर पाएँ; केवल मसीह-विरोधी ही ऐसे कार्य करने में सक्षम हैं। इस मामले को कम मत समझो” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, लेकिन कुछ लोगों में मानवता, अंतरात्मा और विवेक होता है और वे सत्य स्वीकार सकते हैं। अगर उनके काम में उनसे कोई कमी या चूक होती है, और उनके बारे में बताकर, उन्हें उजागर करके, काट-छाँट की जाती है, तो पहले वे शर्मिंदगी और प्रतिरोध के साथ अपना बचाव करते हैं। इसके बाद, वे आत्मचिंतन करते हैं, तो उन्हें अपनी भ्रष्ट प्रकृति और गलत तरीकों से घृणा हो जाती है। जब उन्हें एहसास होता है कि कैसे उन्होंने कलीसिया के काम में देरी की और बाधा डाली, तो वे पछताते हैं, खुद से नफरत करते हैं, फिर वे पश्चाताप कर अपने आप में बदलाव लाते हैं। कुछ लोगों में शैतानी भ्रष्ट स्वभाव तो होता ही है, उनकी प्रकृति भी दुर्भावनापूर्ण होती है, वे सत्य स्वीकारने के बजाय उससे घृणा करते हैं। वे चाहे कितनी भी बुराई करें या कलीसिया के काम को कितना भी बड़ा नुकसान पहुँचाएँ, वे जरा भी कष्ट नहीं उठाते और न ही आत्मचिंतन करते हैं। उनमें राई-रत्ती भर भी अपराध-बोध नहीं होता। उनकी कितनी भी काट-छाँट करो या कितना भी उजागर या विश्लेषण करो, वे कभी अपनी गलती नहीं मानते, साफ-साफ उजागर हुए तथ्य भी नहीं स्वीकारते। उन्हें काट-छाँट से, आलोचना और ताड़ना से नफरत होती है। सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण के आधार पर, वे परमेश्वर के विरोधी और कट्टर शत्रु बन जाते हैं। वांग हुआ का व्यवहार ऐसा ही थी। वह कोई वास्तविक कार्य नहीं करती थी, वह अभिमानी थी, अपनी मान्यताओं पर अड़ी रहकर सुसमाचार कार्य में बाधा डालती थी। जब अगुआओं ने उसे उजागर कर उसकी काट-छाँट की, तो उनकी बात मानने के बजाय, उसने बखेड़ा खड़ा कर दिया और दूसरों पर दोष मढ़ने की कोशिश की और पूरी सभा को बाधित कर दिया। जब मैंने उसे चेताया कि वह लोगों की आलोचना कर दो बहनों के बीच कलह के बीज बो रही है, तो इस बात को मानने के बजाय, उल्टे वह मुझ पर हमलावर होकर मेरी निंदा करने लगी। वह हमेशा जीवन प्रवेश पर ध्यान देने की बात करती, जिससे लोगों को लगे कि वह वाकई सत्य खोज रही है। हालांकि, वास्तव में वह परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके के घर की कार्य-व्यवस्थाओं से घृणा और उनका विरोध करती थी। जब उसे उजागर उसकी काट-छाँट की गई, तो उसने जरा भी समर्पण नहीं किया, वह बुरा मानकर घृणा भी करने लगी। उसने चाहे जितनी भी गलतियाँ की हों, कलीसिया के काम को जितना भी नुकसान पहुँचाया हो, लेकिन कभी स्वीकार नहीं किया, पश्चात्ताप नहीं किया, आभार नहीं माना, उसमें विवेक की बहुत कमी थी। उसे तो केवल अपने हितों की चिंता थी—अगर उससे ऐसा कुछ कहा गया जिससे उसके रुतबे को खतरा हो, तो वह क्रोधित होकर निराधार आरोप लगाती। उसने कभी सत्य या सकारात्मक बातें नहीं स्वीकारीं, अगर कोई उससे संगति करने या सुधारने का प्रयास करता, तो वह उसे अपना दुश्मन समझती। जो उसे उजागर करने की कोशिश करता, उस पर हमला करती। यह देखते हुए कि उसे सत्य से घृणा थी, वह सत्य का अभ्यास करने वालों का तिरस्कार करती और न्याय-भावना से जो कोई उसे उजागर करता, उससे नफरत करती, तो क्या वह परमेश्वर को अपना शत्रु नहीं मान रही थी? यह ठीक वैसा ही है जैसा परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यह सामान्य लोगों में पाई जाने वाली क्षणिक कमजोरी या मूर्खता नहीं है, न ही यह गलत विचारों और दृष्टिकोणों का प्रकाशन है जो क्षण भर की विकृत समझ से उत्पन्न हो जाते हैं; यह समस्या नहीं है। समस्या यह है कि वे मसीह-विरोधी हैं, परमेश्वर के दुश्मन हैं, सभी सकारात्मक चीजों और सभी सत्य से घृणा करते हैं; वे ऐसे चरित्र हैं जो परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसका विरोध करते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। हटाए जाने पर भी, वांग हुआ ने न तो अपनी गलती मानी और न ही उसने अपने कुकर्म स्वीकारे। उसने यहां तक कहा, “परमेश्वर मेरे कार्य का साक्षी है, दूसरे क्या सोचते हैं, मुझे परवाह नहीं।” न तो उसे कोई पछतावा था और न ही वह आत्मचिंतन कर रही थी। उसकी प्रकृति द्वेषपूर्ण और सत्य से घृणा करने वाली थी—क्या वह खासकर मसीह-विरोधी नहीं थी? ऐसे लोग केवल कलीसिया के काम को बिगाड़ते और उसे बाधित ही करते हैं।
बाद में, अधिकांश भाई-बहनों ने वांग हुआ को कलीसिया से निकालने के पक्ष में मतदान किया। उसे हटाने के बाद, हमने सुसमाचार कार्य की वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए संगति की, काम के नतीजों में काफी सुधार आया। उस समय मैंने और भी आभार माना, इतनी स्वार्थी और नीच बनने, केवल अपनी सोचने, कलीसिया के कार्य की रक्षा न करने, और कलीसिया के सुसमाचार कार्य को बाधित करने और उसे नुकसान पहुँचाने वाले एक मसीह-विरोधी के कुकर्मों में साथ देने के कारण मुझे खुद से नफरत हो गई। मैंने कसम खाई कि आगे से अगर मैंने किसी को कलीसिया के काम को बाधित करते और उसे नुकसान पहुँचाते देखा, तो मैं सत्य का अभ्यास कर कलीसिया के कार्य की रक्षा करूँगी। चाहे किसी का रुतबा कितना भी ऊँचा हो, उसने कितना भी काम किया हो या वह कितनी भी दृढ़ता से सिद्धांत की बात करता हो, अगर वह कलीसिया के कार्य को बाधित करता है और उसे नुकसान पहुँचाता है, तो मैं सत्य सिद्धांतों पर कायम रहूँगी। भले ही कोई मुझे अभिमानी कहे, कुकर्मी या मसीह-विरोधी कहकर मेरी निंदा करे, मैं कलीसिया के काम की रक्षा करूँगी। अगर मुझे हालात पूरी तरह समझ न भी आए, तो भी मैंने जो कुछ देखा है, विश्वसनीयता से उसकी रिपोर्ट उच्च अगुआओं को करूँगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि अगर मैं किसी समस्या को देखकर भी कलीसिया के काम की रक्षा न करूँ, तो वह मुझे दंड दे और अनुशासित करे।
कुछ महीनों बाद, कुछ लोगों ने रिपोर्ट की कि दूसरी कलीसिया की अगुआ ली ना वास्तविक कार्य नहीं कर रही, झूठे अगुआओं और कर्मियों को हटा नहीं रही, बल्कि कुकर्मियों को तरक्की दे रही है। इन लोगों ने सिद्धांत के अनुसार काम नहीं किया, जिसके कारण कलीसिया के पैसों को नुकसान पहुँचा। खास तौर से ली ना दिखावा कर लोगों को अपमानित कर रही थी, और सारे भाई-बहन उसकी प्रशंसा और पूजा करते थे। उसके सहकर्मियों ने कई बार उसके साथ संगति कर उसकी समस्या उठाई, लेकिन वह उनकी बात मानने को तैयार नहीं थी। सबसे बड़ी बात, वह उच्च अगुआओं की भी आलोचना करती, जिससे उसके सहकर्मियों में उनके प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो गया। जब उच्च अगुआओं ने कार्य में मदद के लिए किसी को भेजा, तो उसने उन्हें निकाल बाहर किया। वह सहयोग करने के बजाय आलोचना करके उन्हें कमजोर कर रही थी—उसका कहना था कि अगुआओं ने जिसे भेजा है, वह समस्याएँ दूर नहीं कर सकता, यानी कार्य हुआ ही नहीं। यह सब सुनकर, मुझे लगा कि यह इंसान जरूर मसीह-विरोधी है, तो मैंने उसे तुरंत हटाने को लेकर अपने सहकर्मियों से बात की। लेकिन जब मुझे पता चला कि ली ना मेरी साथी की छोटी बहन है, तो मुझे झिझक हुई। अगर मैंने ली ना को हटाया, तो मेरी साथी मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह यह नहीं कहेगी कि मुझे ली ना से द्वेष है? मेरे मन में उधेड़बुन चल रही थी, लगातार संघर्ष चल रहा था, समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत और इरादे ठीक नहीं हैं—मैं फिर से अपने हितों की रक्षा करने की कोशिश कर रही थी। मुझे याद आया कि मैं पिछली बार भी, अपने हितों की रक्षा को लेकर बहुत चिंतित थी और समय रहते मसीह-विरोधी को उजागर नहीं किया था, जिससे कलीसिया के कार्य को भारी नुकसान पहुँचा—यह एक ऐसा अपराध था जिसकी भरपाई मैं कभी नहीं कर सकी। मैं फिर से अपने हितों की रक्षा नहीं करूँगी, मुझे सत्य का अभ्यास कर कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी होगी। मेरे बारे में कोई कुछ भी सोचे, परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करना सर्वोपरि है। फिर मैंने और मेरे सहकर्मियों ने ली ना को सिद्धांत के अनुसार बर्खास्त कर दिया। बाद में, जांच से पता चला कि ली ना ने लगातार खुद को ऊंचा उठाया, लोगों को गुमराह करने, फँसाने और कलीसिया पर कब्जा कर एक स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए के लिए लगातार दिखावा किया। वह एक मसीह-विरोधी थी। कलीसिया के अधिकांश लोगों ने उसे निष्कासित करने के पक्ष में मतदान किया। मैंने अनुभव किया कि देह के विरुद्ध विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास और सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से मुझे शांति, संतोष और आनंद मिला है। मैंने यह भी महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करने से ही इंसान गवाही देकर शैतान को शर्मिंदा कर सकता है। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद!
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