अब मैं काम से जी नहीं चुराती

03 अगस्त, 2022

डांग एन, स्पेन

पिछले साल अगस्त में एक दिन, एक अगुआ ने कहा, मैं चाहती हूँ तुम कई कलीसियाओं के काम की जिम्मेदारी लो, और पूछा क्या मैं इसके लिए तैयार हूँ। यह सुनते ही मेरा दिल धड़क उठा। कलीसियाओं के काम का दायित्व लेना यानी भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में आने वाली समस्याओं और मुश्किलों के समाधान के साथ-साथ, कार्यों में उनका मार्गदर्शन और मदद भी करना। यह एक बड़ी जिम्मेदारी है। अगर वह काम ठीक से नहीं हुआ और काम में देरी हुई, या इससे परमेश्वर के घर के हित बाधित हुए और उन्हें नुकसान पहुँचा, तो न केवल मेरे साथ निपटा जाएगा, बल्कि मुझे हटाया या निकाला भी जा सकता है। इससे मेरा परिणाम और मंजिल दोनों जाते रहेंगे। मैंने विचार किया कि किस तरह पिछले दोनों लोगों को बर्खास्त कर दिया गया था। मुझे कार्य का पता नहीं था और उससे मेरी क्षमता भी मेल नहीं खाती थी, तो मुझे लगा कि इस जिम्मेदारी को लेने में ढेरों समस्याएं होंगी। इतना भारी दायित्व लेने से अच्छा है कि मैं बस एक ही कार्य करूँ। मैं नकारना चाहती थी, लेकिन फिर लगा यह परमेश्वर द्वारा मेरा उत्कर्ष है, मुझे मान लेना चाहिए, तो मैंने अनिच्छा से उसे स्वीकार लिया। मैं रात भर करवटें बदलती रही। मुझे भयंकर तनाव हो गया। मैं बार-बार सोचती रही कि कलीसियाओं के कार्य का प्रभारी होने के नाते, मुझे काफी मार्गदर्शन और सहायता मिलेगी, और अधिक सत्य समझकर, जीवन में तेजी से प्रवेश करूँगी। लेकिन यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी। अगर प्रदर्शन खराब रहा तो मुझे उजागर करके तुरंत निकाला भी जा सकता है। लगा दायित्व न लेना ही ज्यादा सुरक्षित है। तो मन बनाकर अगले दिन मैंने अगुआ को फोन करके कह दिया, "अपने छोटे आध्यात्मिक कद के कारण, मैं अभी इस कार्य के लिए तैयार नहीं हूँ। मुझे काम में देरी होने का डर है, तो मुझे लगता है कि आपको किसी और को ढूंढना चाहिए।" अगुआ ने कहा कि मुझे थोड़ा और सोचना चाहिए और इस काम से जी चुराने की अपनी मंशा पर विचार करना चाहिए। मैंने फोन रखा और परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं कई कलीसियाओं के काम की जिम्मेदारी लेने से डरती हूँ। (मुझे डर है कि) अगर मैं अच्छा नहीं कर पाई तो मैं निकाल दी जाऊँगी, मैं सतर्कता और गलतफहमी की स्थिति में हूँ। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन कर ताकि तेरी इच्छा समझ सकूँ।" फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : "केवल सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर की आज्ञा मानकर ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है।" में "अपना कर्तव्य निभाते समय कुछ लोग अक्सर नकारात्मकता और निष्क्रियता या प्रतिरोध और गलतफहमी की स्थिति में होते हैं। वे हमेशा डरते हैं कि उन्हें उजागर कर बाहर निकाल दिया जाएगा, और वे अपने भविष्य और भाग्य से विवश रहते हैं। क्या यह बचकाने आध्यात्मिक कद की अभिव्यक्ति नहीं है? (है।) कुछ लोग हमेशा कहते हैं कि वे डरते हैं कि वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाएँगे, और गहराई से विश्लेषण किए बिना, कोई सोच सकता है कि वे काफी वफादार हैं। वे वास्तव में अपने दिल में किस बारे में चिंतित होते हैं? वे इस बात से चिंतित होते हैं कि अगर वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाए, तो उन्हें बाहर कर दिया जाएगा और उनका कोई अंतिम गंतव्य नहीं होगा। कुछ लोग कहते हैं कि वे सेवाकर्ता बनने से डरते हैं। जब दूसरे लोग यह सुनते हैं, तो वे सोचते हैं कि वे लोग सेवाकर्ता नहीं बनना चाहते और केवल परमेश्वर के लोगों में से एक के रूप में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि उन लोगों में संकल्प है। दरअसल, सेवाकर्ता बनने से डरने वाले लोग, अपने दिल में यह सोच रहे होते हैं, 'अगर मैं सेवाकर्ता बन गया, तो अंत में मैं नष्ट ही होऊँगा और मेरा कोई अंतिम गंतव्य और स्वर्ग के राज्य में कोई हिस्सा नहीं होगा।' यह उनके शब्दों का निहितार्थ होता है; वे अभी भी अपने परिणाम और अंतिम गंतव्य के बारे में चिंता कर रहे होते हैं। अगर परमेश्वर कहता है कि वे सेवाकर्ता हैं, तो वे अपना कर्तव्य निभाने में कुछ कम मेहनत करते हैं। अगर परमेश्वर कहता है कि वे उसके लोगों में से एक हैं और परमेश्वर द्वारा उनकी प्रशंसा की गई है, तो वे अपना कर्तव्य निभाने में कुछ ज्यादा मेहनत करते हैं। यहाँ क्या समस्या है? समस्या यह है कि परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते समय वे सत्य के सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं करते। वे हमेशा अपनी संभावनाओं और भाग्य पर विचार करते हैं, और हमेशा 'सेवाकर्ता' पदनाम से विवश रहते हैं। नतीजतन, वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाते, और सत्य का अभ्यास करने की ताकत नहीं रखते। वे हमेशा नकारात्मकता की स्थिति में जीते हैं, और परमेश्वर के वचनों के पीछे का अर्थ तलाशते हैं ताकि यह सुनिश्चित कर सकें कि वे परमेश्वर के लोग हैं या सेवाकर्ता। अगर वे परमेश्वर के लोग होते हैं, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं। अगर वे सेवाकर्ता होते हैं, तो वे लापरवाह और असावधान रहते हैं, कई नकारात्मक चीजों को जन्म देते हैं, नियंत्रण के अधीन रहते हैं और उससे बाहर नहीं निकल पाते" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह पुरस्कार पाने के लिए होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य निभाते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं दुःख का भी सामना कर सकते हैं : मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर का प्रत्येक वचन मेरे लिए बेहद मार्मिक था—उसने मेरी असल स्थिति उजागर कर दी। काम को देखते हुए, मैंने कह दिया मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है, मुझे अच्छा न कर पाने और काम के बाधित होने का डर है, पर असल में मैं अपने निजी हितों पर विचार कर रही थी। पहले इस काम को करने वालों की बर्खास्तगी देखकर, मुझे लगा इस जिम्मेदारी को लेना जोखिम भरा है। अगर मैं अच्छा न कर पाई, काम बाधित हुआ और परमेश्वर के घर के काम में देरी हुई, एक तो यह अपराध होगा और मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा, दूसरे, अगर यह गंभीर हुआ तो मुझे निकाल दिया जाएगा। तब मेरे पास न तो कोई परिणाम होगा और न ही गंतव्य। तो, मुझे अपने भविष्य और गंतव्य की रक्षा के लिए काम को नकारने का बहाना मिल गया, जो सुनने में अच्छा लगता था कि मुझे परमेश्वर के घर के काम में देरी होने का डर है। मैं बस कम जिम्मेदारी वाला काम चाहती थी जहाँ मैं काम भी कर सकूँ और अंत में अच्छी मंजिल भी पा लूँ। मैं पूरी तरह शैतान के विष के अधीन थी "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और उस अवस्था में रहते हुए "गलतियों से बचने की सोचो, बड़ी योग्यता पाने की नहीं"। मेरा हर काम स्वार्थ और खुद से शुरू होता था। मैं केवल वही काम करती थी जिससे मुझे फायदा हो, जहाँ एक छोटी सी कीमत चुकाई और बदले में परमेश्वर का आशीर्वाद पा लिया। यह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी है, स्वार्थी और नीच होना है।

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े। "मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है! कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि जो लोग मुझे खुश करते हैं, वे बिल्कुल ऐसे लोग हैं जो चापलूसी और खुशामद करते हैं, और जिनमें ऐसे हुनर नहीं होंगे, वे परमेश्वर के घर में अवांछनीय होंगे और वे वहाँ अपना स्थान खो देंगे। क्या तुम लोगों ने इतने बरसों में बस यही ज्ञान हासिल किया है? क्या तुम लोगों ने यही प्राप्त किया है? और मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान इन गलतफहमियों पर ही नहीं रुकता; परमेश्वर के आत्मा के खिलाफ तुम्हारी निंदा और स्वर्ग की बदनामी इससे भी बुरी बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि ऐसा विश्वास तुम लोगों को केवल मुझसे दूर भटकाएगा और मेरे खिलाफ बड़े विरोध में खड़ा कर देगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों पर विचार और आत्मचिंतन करने पर, देखा कि मेरी प्रकृति वाकई बेहद धूर्त और दुष्ट है। मैंने सोचा महत्वपूर्ण काम में बड़ी जिम्मेदारी और जोखिम दोनों हैं, अगर कोई गलती हुई, तो उजागर होने पर तुरंत हटा दी जाऊँगी और शायद निकाल ही दी जाऊँ। मैं परमेश्वर के घर को संसार और परमेश्वर को सांसारिक राजा की तरह मान रही थी। मुझे लगा कर्तव्य निभाना तलवार की धार पर चलना है, थोड़ी-सी चूक हुई कि खेल खत्म। मानो परमेश्वर स्वेच्छा से लोगों के साथ खिलवाड़ करता हो, उन्हें परेशान करता हो, मुझे महत्वपूर्ण काम देकर, उजागर कर हटाना चाहता हो, मुझे आग की लपटों में धकेलना चाहता हो। मुझे परमेश्वर की धार्मिकता में विश्वास नहीं था, इसलिए मैं उससे सतर्क थी और उसे गलत समझ रही थी। यह सरासर परमेश्वर का तिरस्कार था! दरअसल, परमेश्वर का घर लोगों से सैद्धांतिक तरीके से व्यवहार करता है। मैं एक कलीसिया अगुआ, बहन चेंग को जानती थी, वह बरसों से विश्वासी थी, हालाँकि उसमें काबिलियत थोड़ी कम थी, लेकिन अपने काम को लेकर जिम्मेदार और परमेश्वर के घर के प्रति समर्पित थी। वह काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार कर झुक गई और बदलाव लाने की कोशिश करने लगी। परमेश्वर के घर ने उसे महत्वपूर्ण काम सौंपा। एक बार, उसने किसी को तरक्की देकर टीम अगुआ बना दिया, बाद में पता चला कि वह अगुआ चालाक है, व्यावहारिक कार्य नहीं करती और यह कलीसिया के कार्य में बाधक थी। पता चलने पर, उसके अगुआ ने बिना सिद्धांतों के उसे नियुक्त करने और उसके काम की निगरानी न करने पर कठोरता से उसका निपटारा किया। झूठा अगुआ यही करता है। लेकिन अगुआ ने उसे इसके लिए बर्खास्त नहीं किया। बल्कि, उसने सत्य के प्रासंगिक सिद्धांतों के उपयोग से तसल्ली से उसके साथ संगति की और उसे उसकी गलतियाँ और कमियाँ समझाईं। एक और नवनिर्वाचित अगुआ थी, बहन वांग, उसे ज्यादा अनुभव नहीं था, लेकिन अच्छी काबिलियत और समझ रखती थी और अपना काम अच्छे से पूरा कर सकती थी। लेकिन उसे न तो सिद्धांतों की समझ थी और न ही अगुआ रहते हुए लोगों को पहचान पाती थी, तो उसने एक जन को मसीह-विरोधी समझकर निकाल दिया जबकि वह बस अति-अहंकारी था। जब उसकी अगुआ को पता चला, तो उसने उसे बर्खास्त नहीं किया, बल्कि उजागर कर उसका निपटारा किया और उसे समस्या की गंभीरता का एहसास कराया, सत्य के प्रासंगिक सिद्धांतों पर संगति कर बहन वांग को इंसान की पहचान करना सिखाया। मैंने देखा परमेश्वर के घर में अगुआओं की भ्रष्टता प्रकट होने या उनसे गलती होने पर उन्हें बर्खास्त या निष्कासित नहीं किया जाता। बल्कि, संगति कर उनकी सहायता की जाती है या निपटा जाता है, ताकि वे सत्य और सिद्धांत की समझ हासिल कर सकें। अगर उनमें काबिलियत है, वे सत्य स्वीकार कर अपने कर्तव्य का बोझ उठा सकें, तो नाकामी और अपराध के बावजूद, परमेश्वर का घर उन्हें पश्चात्ताप का अवसर देता है, केवल एक गलती के लिए उन्हें नकार नहीं देता। उनके विकास का क्रम जारी रहता है ताकि उन्हें कार्य में प्रशिक्षित किया जा सके। कुछ लोग काम में सक्षम नहीं होते क्योंकि उनमें काबिलियत नहीं होती, लेकिन परमेश्वर का घर उन्हें निकालता नहीं। उन्हें उनकी काबिलियत और आध्यात्मिक कद के अनुसार उपयुक्त कार्य पर भेज देता है। लेकिन जो काम में धूर्त होते हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे महत्वपूर्ण काम में न होते हुए भी, उजागर कर त्याग दिए जाते हैं। कुछ लोग बर्खास्त होने पर भी पश्चात्ताप नहीं करते, बल्कि शिकायत और आलोचना करते हैं, धारणाएँ फैलाकर कलीसिया को बाधित करते हैं। उन्हें निष्कासित कर दिया जाता है। मैंने जाना कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, परमेश्वर का घर लोगों से सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर का प्रेम और उद्धार इन सब में समाहित है। मैंने परमेश्वर को जाने बिना उसमें आस्था रखी और उसके बारे में अटकलें लगाईं। मुझे लगा परमेश्वर ने मुझे उजागर करने और त्यागने के लिए वह आदेश दिया है। मेरी समझ बेहद बेतुकी और परमेश्वर की इच्छा को पूरी तरह तोड़-मरोड़कर समझना था। यह परमेश्वर को गलत समझना, उसका तिरस्कार करना और उसकी धार्मिकता को नकारना है। परमेश्वर के वचनों के न्याय के बिना, मैं समझ न पाती कि यह कितनी गंभीर समस्या है, और परमेश्वर-विरोध में ही जीती रहती।

फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार कर सीखा कि आशीष पाने या कष्ट भुगतने का व्यक्ति के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है। कर्तव्य परमेश्वर का आदेश होता है, उसे करना उचित और स्वाभाविक है। किसी को बर्खास्त कर निकालने का कारण, उसका अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण नहीं करना या परमेश्वर को समर्पित नहीं होना है, अपने काम में अव्यवस्था फैलाना, दुष्टता और परमेश्वर का विरोध करना है। पहले दो प्रभारियों को बर्खास्त करने का कारण यही था। एक को तो बर्खास्त करने की वजह मुख्यत: उसका अच्छा इंसान न होना और सत्य को जरा भी न स्वीकारना था। वह झगड़ा, गुटबाजी और लोगों के लिए परेशानी पैदा करता था, कलीसिया के काम को बुरी तरह बाधित करता था। कलीसिया उसके साथ उसकी प्रकृति, सार और कुकर्मों के अनुसार पेश आई। दूसरी बहुत अभिमानी स्वभाव की थी और हमेशा अपना उत्कर्ष और दिखावा करती थी। वह रुतबे के लाभों का मजा तो लेती लेकिन कोई व्यावहारिक कार्य नहीं करती थी। इससे कलीसिया के काम में बहुत विलंब हुआ, इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया गया। उस निर्णय की वजह यह नहीं थी कि उनके काम से उन्हें नुकसान पहुँचा। यह पूरी तरह व्यावहारिक काम न करने और गलत रास्ते पर चलने के कारण था मैंने उनकी बर्खास्तगी के कारण और पृष्ठभूमि पर गौर नहीं किया या तथ्य नहीं समझे। बस मान लिया कि उनके मुश्किल काम की वजह से उन्हें उजागर कर निकाल दिया गया, और यह मान बैठी कि चूँकि मेरी काबिलियत उनकी जितनी अच्छी नहीं है, अगर मैंने वह महत्वपूर्ण काम ले लिया, तो मुझे और भी जल्दी त्याग दिया जाएगा। क्या बेतुका दृष्टिकोण था!

फिर, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े। "तुम लोगों में से प्रत्येक को अपना कर्तव्य अपनी पूरी क्षमता से, खुले और ईमानदार दिलों के साथ पूरा करना चाहिए, और जो भी कीमत ज़रूरी हो, उसे चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसा कि तुम लोगों ने कहा है, जब दिन आएगा, तो परमेश्वर ऐसे किसी भी व्यक्ति के प्रति लापरवाह नहीं रहेगा, जिसने उसके लिए कष्ट उठाए होंगे या कीमत चुकाई होगी। इस प्रकार का दृढ़ विश्वास बनाए रखने लायक है, और यह सही है कि तुम लोगों को इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। केवल इसी तरह से मैं तुम लोगों के बारे में निश्चिंत हो सकता हूँ। वरना तुम लोगों के बारे में मैं कभी निश्चिंत नहीं हो पाऊँगा, और तुम हमेशा मेरी घृणा के पात्र रहोगे। अगर तुम सभी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुन सको और अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर सको, मेरे कार्य के लिए कोई कोर-कसर न छोड़ो, और मेरे सुसमाचार के कार्य के लिए अपनी जीवन भर की ऊर्जा अर्पित कर सको, तो क्या फिर मेरा हृदय तुम्हारे लिए अक्सरहर्ष से नहीं उछलेगा? इस तरह से मैं तुम लोगों के बारे में पूरी तरह से निश्चिंत हो सकूँगा, या नहीं? यह शर्म की बात है कि तुम लोग जो कर सकते हो, वह मेरी अपेक्षाओं का दयनीय रूप से एक बहुत छोटा-सा भाग है। ऐसे में, तुम लोग मुझसे वे चीज़ें पाने की धृष्टता कैसे कर सकते हो, जिनकी तुम आशा करते हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि वह लोगों को उनके कर्तव्य के जरिए पूर्ण करता है, वह महत्वपूर्ण हो या न हो, उसके लिए जिम्मेदारी और जोखिम लेना पड़े या न पड़े, हमें समर्पित होकर उस काम को पूरी लगन से करना चाहिए। काम में जितनी अधिक समस्याएं आएँगी, हमारे लिए वह उतना ही अधिक फायदेमंद होगा, हम आत्मचिंतन कर अपनी भ्रष्टता और दोष देख पाएँगे। तब हम उसका उपयोग सत्य खोजने, सिद्धांत सीखने और धीरे-धीरे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए कर पाएँगे। यह सब कार्य करने से ही प्राप्त होता है। अगर हम किसी काम को न करें या जिम्मेदारी लेने के डर से नकार दें, तो हमारा भ्रष्ट स्वभाव और दोष सामने नहीं आ पाएंगे। हम कभी भी अपने गलत दृष्टिकोण और शैतानी प्रकृति को नहीं समझ पाएँगे, फिर सत्य खोजकर उन्हें दूर करने का तो सवाल ही नहीं। तब अंत तक हमारा विश्वास तो बना रहेगा, लेकिन हम कभी न तो सत्य पा सकेंगे और न ही अपना स्वभाव बदल सकेंगे, फिर हम बचाए और पूर्ण नहीं किए जाएंगे। कई कलीसिया के कामों का इतना महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा जाना मुझे प्रशिक्षित होने का अवसर देना था। चाहे काम में मुझसे गलती हो या मेरी काट-छाँट और निपटारा हो, यह सब मेरे लिए खुद को जानकर सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने का एक अच्छा अवसर था। इन सबका एहसास मुझे सुकून देने वाला था, तो मैंने अगुआ से कहा कि मैं कर्तव्य स्वीकारने को तैयार हूँ। उसके बाद, अगुआ मेरे काम की जाँच के लिए काफी बार आने लगी, उसके मार्गदर्शन और सहायता से, धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांत और सत्य जाने और अपनी कमियों के बारे में भी काफी कुछ पता चला। एक बार कोई काम करते समय, मैंने उस पर संगति या ठीक से निगरानी नहीं की, जिससे काम में परेशानी आ गई और थोड़ा नुकसान हो गया। मैं डर गई कि मुझसे निपटा जाएगा या अगुआ को बताने पर मुझे ही दोषी माना जाएगा, लेकिन मुझे यह पता था कि तथ्य छिपाए नहीं जा सकते। मुझे ईमानदारी से समस्या की सही-सही रिपोर्ट करनी चाहिए, परमेश्वर का घर मेरे साथ जैसे चाहे पेश आए, उसे स्वीकारना चाहिए। अगुआ ने मेरी बात सुनी, लेकिन मेरा निपटारा नहीं किया, बल्कि सत्य के कुछ सिद्धांतों पर मेरे साथ संगति की ताकि मैं जान सकूँ कि मैंने कहाँ गलती की और उस काम को करने के लिए सिद्धांतों और विवरणों को अच्छे से समझ सकूँ। हालाँकि उसके बाद भी मेरे काम में कुछ त्रुटि और समस्या हो जाती थी और कई बार अगुआ कठोरता से मेरी काट-छाँट और निपटारा भी करते थे, लेकिन जैसा मुझे लगता था, गलती होने पर मुझे हटाया या त्यागा नहीं गया। मैंने अनुभव किया कि उस कर्तव्य-निर्वहन से मुझे त्रुटियाँ सुधारने में मदद मिली, वह परमेश्वर का प्रेम था!

जल्दी ही मुझे एक और परीक्षा का सामना करना पड़ा। एक दिन, अगुआ ने मुझे एक काम सौंपा वह काम भेंट-वितरण को लेकर था। सुनते ही मैं बेचैन हो गई और सोचने लगी कि अगर मुझसे कोई भूल हो गई जिससे परमेश्वर की भेंट को भयंकर नुकसान हुआ, तो मैं सीधे नरक के द्वार पर पहुँच जाऊँगी और सब खत्म हो जाएगा! नहीं, मुझे कह देना चाहिए कि मैं वह काम नहीं कर सकती। लेकिन उस कार्य के लिए मैं ही सबसे उपयुक्त थी, अगर मैं ही कतराऊँगी, तो परमेश्वर के घर के काम में विलंब होगा। मैं उलझन में थी। मन में संघर्ष चल रहा था। मैं काम न करने का बहाना ढूँढ़ रही थी, लेकिन मन में अपराध-बोध भी था। मुझे लगा मैं फिर से अपने भविष्य और नियति की ही सोच रही हूँ, मैंने तुरंत प्रार्थना से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं फिर से जिम्मेदारी लेने से डरकर इस काम से बचना चाहती हूँ। हे परमेश्वर, मैं इतनी स्वार्थी बनकर केवल अपने हितों की कैसे सोच सकती हूँ। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मान जाऊँ।" फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "आज तुम लोगों से जो कुछ हासिल करने की अपेक्षा की जाती है, वे अतिरिक्त माँगें नहीं, बल्कि मनुष्य का कर्तव्य है, जिसे सभी लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। यदि तुम लोग अपना कर्तव्य तक निभाने में या उसे भली-भाँति करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम लोग अपने ऊपर मुसीबतें नहीं ला रहे हो? क्या तुम लोग मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हो? कैसे तुम लोग अभी भी भविष्य और संभावनाओं की आशा कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए किया जाता है, और मनुष्य का सहयोग परमेश्वर के प्रबंधन के लिए दिया जाता है। जब परमेश्वर वह सब कर लेता है जो उसे करना चाहिए, तो मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने अभ्यास में उदार हो और परमेश्वर के साथ सहयोग करे। परमेश्वर के कार्य में मनुष्य को कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए, उसे अपनी वफादारी प्रदान करनी चाहिए, और अनगिनत धारणाओं में सलंग्न नहीं होना चाहिए, या निष्क्रिय बैठकर मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर मनुष्य के लिए स्वयं को बलिदान कर सकता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर को अपनी वफादारी प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मनुष्य के प्रति एक हृदय और मन वाला है, तो क्यों मनुष्य थोड़ा-सा सहयोग प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मानवजाति के लिए कार्य करता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए अपना कुछ कर्तव्य पूरा नहीं कर सकता? परमेश्वर का कार्य इतनी दूर तक आ गया है, पर तुम लोग अभी भी देखते ही हो किंतु करते नहीं, सुनते ही हो किंतु हिलते नहीं। क्या ऐसे लोग तबाही के लक्ष्य नहीं हैं? परमेश्वर पहले ही अपना सर्वस्व मनुष्य को अर्पित कर चुका है, तो क्यों आज मनुष्य ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ है? परमेश्वर के लिए उसका कार्य उसकी पहली प्राथमिकता है, और उसके प्रबंधन का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करना उसकी पहली प्राथमिकता है। इसे तुम सभी लोगों को समझ लेना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। इसे पढ़कर समझ में आया कि परमेश्वर को मुझसे इस कार्य की अपेक्षा है और मुझे यह दायित्व निभाना चाहिए। इसे पूरा करना मेरा परम कर्तव्य है। अगर अपने भविष्य और गंतव्य की रक्षा के लिए मैंने इस काम से जी चुराया और नकारा, तो यह सृजित प्राणी के रूप में जीवन का मूल्य गँवा देना होगा और ऐसी आस्था को परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती। परमेश्वर लगातार मुझे ऊपर उठा रहा था, मुझे प्रशिक्षण का मौका दे रहा था, लेकिन मैं परमेश्वर की इच्छा पर विचार न करके, अपने विवेक के विरुद्ध काम को नकारना चाहती थी। इस विवेकहीन निर्णय के कारण, मैं परमेश्वर के सामने रहने योग्य नहीं थी। इस तरह सोचने पर मेरे अंदर अपराध-बोध पैदा हुआ और मैंने स्वार्थ त्याग कर काम को स्वीकारने का मन बनाया। शुरू-शुरू में उस काम में मुझे थोड़ी मुश्किल आई। बेहतर तरीका किसी के पास नहीं था और काम में कोई प्रगति नहीं हो पा रही थी। मेरे पास भी कोई अच्छा समाधान नहीं था और मुझे बेचैनी हो रही थी, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, भाई-बहनों के साथ संगति कर उनके विचार जाने। सबके सौहार्दपूर्ण सहयोग और परमेश्वर के मार्गदर्शन से, हमें जल्दी ही एक मार्ग मिल गया और कार्य में थोड़ी प्रगति होने लगी यह देखकर मैंने बार-बार परमेश्वर को धन्यवाद दिया।

इस अनुभव से परमेश्वर में मेरी आस्था दृढ़ हुई और समझ आया कि परमेश्वर के घर में चाहे जो काम मिले, मुझे उसे पूरी जिम्मेदारी और निष्ठा से निभाना चाहिए। मुझे जवाबदेही के डर से उसे मना नहीं करना चाहिए। यह मानवता में कमी होना है। (मैंने यह भी अनुभव किया कि) परमेश्वर का हमें कोई कार्य सौंपना उसका आशीर्वाद है, अगर हमारे इरादे सही हैं, हम भार उठाएं, सत्य खोजकर सिद्धांतों का पालन करें, तो हम पवित्र आत्मा के कार्य को और अधिक प्राप्त करेंगे और हमारा काम बेहतर होता जाएगा।

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