क्या खुशामदी लोग परमेश्वर की प्रशंसा पा सकते हैं?
विश्वासी बनने से पहले, मैं हमेशा इस बात को लेकर सतर्क रहती थी कि दूसरों का अपमान न हो जाए, और मैं सबके साथ मिल-जुलकर रह सकूँ। जब कभी किसी को परेशानी में देखती तो मैं उसकी मदद करती, इससे मुझे लगता होता कि मैं एक अच्छी इंसान हूँ और मुझमें अच्छी इंसानियत है। मगर परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि मैं तो बस दूसरों के साथ अपने रिश्तों को बचा रही थी और मुझमें न्याय की समझ नहीं थी। मैं सबसे अहम मौकों पर भी सत्य के सिद्धांतों को कायम रखने या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में सक्षम नहीं थी। मैंने देखा कि मैं एक स्वार्थी, धोखेबाज और खुशामदी इंसान हूँ जो परमेश्वर से नफ़रत करती है। खुद से नफ़रत और पछतावे से भरी, मैंने सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान दिया और फिर मैं बदलने लगी।
जब मैं कलीसिया की सिंचन टीम की प्रमुख थी, तो मैं बहन ली के साथ काम करती थी। कुछ समय बाद मैंने देखा कि वो अपने कर्तव्य में कोई जिम्मेदारी नहीं उठा रही हैं और अपने किसी भी काम में मेहनत नहीं करती हैं। उन्होंने शायद ही कभी भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने में मदद की हो, कभी-कभी तो वो सभाओं का समय तय करने में भी गड़बड़ कर देती थीं। मैं इन चीज़ों पर उनका ध्यान दिलाना चाहती थी, मगर फिर मैंने सोचा कि कैसे वो काफ़ी समय से अपना कर्तव्य नहीं निभा रही हैं, फिर अगर मैंने कुछ कहा तो वो ऐसा सोच सकती हैं कि मैं काफ़ी सख्त हूँ और रोब जमा रही हूँ। उनके मन में मेरी छवि अच्छी बनी हुई थी, अगर मैंने इन चीज़ों के बारे में बताया तो क्या मेरे बारे में उनकी राय बदल जाएगी? फिर मैंने निजी तौर पर उनके साथ सहभागिता करने का फ़ैसला किया ताकि उनकी छवि खराब न हो। सहभागिता के दौरान, मैंने उनकी समस्याओं को हल करने के लिये सत्य पर बात नहीं की, बल्कि चतुराई से उन्हें सलाह दी, "हाल के दिनों में आप अपने कर्तव्य को लेकर ज़्यादा कारगर नहीं रही हैं, क्या आपने इस पर विचार किया? अगर आप गलत मनोदशा में जी रही हैं जिस पर ध्यान नहीं दिया गया है, तो आप न सिर्फ़ अपना काम ठीक से नहीं कर पाएंगी, बल्कि इससे आपके जीवन प्रवेश में भी रुकावट आएगी।" वास्तव में, मैं जानती थी कि वो अपने कर्तव्य में लापरवाह हैं और उस पर ध्यान नहीं देती हैं, इस समस्या की प्रकृति का विश्लेषण करने के लिये मुझे उनसे सत्य पर सहभागिता करनी चाहिए, उनके साथ निपटकर उन्हें उजागर करना चाहिए, ताकि वे अपनी समस्याओं की समझ हासिल कर सकें। लेकिन मुझे फ़िक्र थी कि अगर मैंने ज़्यादा सख्ती बरती और वो इसे स्वीकार नहीं कर पायीं तो हमारे रिश्ते बिगड़ जाएंगे और शायद वो मुझसे नाराज़ हो जाएं। इसलिये, मैंने बस सब्र से काम लेते हुए उनके साथ सहभागिता की।
फिर मैंने देखा कि बहन ली अपने कर्तव्य में काफ़ी प्रतिस्पर्धी बन जाती थीं और हमेशा दूसरों से आगे निकलने की कोशिश करती थीं। जब उन्हें लोगों की प्रशंसा नहीं मिलती, तो वे निराशा में डूब जाती थीं। मैंने कई बार उनके साथ आमने-सामने बैठकर सहभागिता की और लगता था कि वो भी इसे काफ़ी अच्छी तरह समझती हैं, मगर कभी कुछ बदला नहीं। मैंने इस स्थिति के बारे में अगुआओं को रिपोर्ट करने की सोची मगर मुझे डर था कि इसका मतलब बहन ली की पीठ में छुरा घोंपना होगा। अगर मैंने उनका अपमान किया तो उसके बाद हमारे मेलजोल का क्या होगा? हम एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे, और मुझे लगता था कि एक दूसरे को जानने के फ़ायदे भी हैं। मैंने तय किया कि उनकी मदद करने की कोशिश करती रहूँगी, और अगर वो उसी तरह काम करती रहीं, तो भी मेरे पास अगुआओं से बात करने के लिए काफ़ी समय होगा।
अपने काम में बहन ली का प्रदर्शन गिरता चला गया और वे भाई-बहनों की समस्याएं हल नहीं कर पाती थीं। एक बार, एक सभा में नये विश्वासियों की समस्याओं को हल करने की कोशिश में, उन्होंने ऐसी सहभागिता की जो गलत थी। हमने तुरंत इस गलती को सुधार लिया, मगर बाद में इसी तरह की समस्या आने पर उन्होंने फिर वही गलत सहभागिता की। वे न केवल नये विश्वासियों की समस्याओं को हल करने में नाकाम रहीं, बल्कि उन्हें गुमराह भी कर दिया। जब मुझे इस बारे में पता चला तो मैंने खुद को ही दोषी माना, मैं बहन ली को उजागर करना चाहती थी कि वे नुकसान पहुँचाने वाले तरीके से काम कर रही हैं, मगर उन्हें देखते ही मेरी ज़बान पर ताला लग गया। मैंने बस घुमा-फिराकर बात की और कहा कि उन्होंने भाई-बहनों के साथ गलत तरीके से सहभागिता की। मैंने यह सोचकर साफ़-साफ़ कुछ नहीं कहा कि कहीं वे नाराज़ न हो जाएं और ज़्यादा सख्ती बरतने पर कहीं वे मेरे बारे में बुरा न सोचने लगें। नतीजा ये हुआ कि उन्हें अपने बारे में कोई समझ हासिल नहीं हुई। मैंने देखा कि उनमें चीज़ों की अच्छी समझ नहीं है और वे सिंचन के काम के लिये उपयुक्त नहीं हैं, इसलिये, सिद्धांतों के मुताबिक उन्हें कोई और जिम्मेदारी दी जानी चाहिए और मुझे इसके बारे में जल्द से जल्द अगुआओं को रिपोर्ट कर देनी चाहिए। मगर फिर ये सोचकर मेरा मन बदल गया कि इससे उनको बुरा लगेगा, इस तरह, साथ काम करने के उस पूरे दौर में, हम दोस्त के बजाय दुश्मन बन जाएँगे। आखिरकार, मैं सत्य के सिद्धांतों पर कायम नहीं रही और उनके बारे में अगुआओं को रिपोर्ट करने में देरी की। मैं अजीबो-गरीब स्थित में फँस गयी थी, क्योंकि मैं सत्य पर अमल नहीं कर रही थी, मैंने अपने काम की समस्याओं को लेकर आँखें मूँद ली थी। मैं बहन ली के कामकाज के तरीकों की अभ्यस्त हो चुकी थी और जब तक बाहरी तौर पर हमारा मेलजोल ठीक था, मैं संतुष्ट थी। मैं परमेश्वर के घर के कार्य को कायम रखने के बारे में नहीं सोच रही थी, यहां असल में क्या चल रहा है, इसके बारे में मैंने अगुआओं को नहीं बताया।
फिर एक दिन, बहन ली को पता चला कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखबिर उन पर नज़र रख रहे हैं, और अगर वो अपना काम करती रहीं, तो उसकी वजह से दूसरे भाई-बहन भी चक्कर में फंस सकते हैं। जब मैंने यह खबर सुनी तो मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा। यह जानकर कि समस्या बहुत गंभीर है, मैंने आखिरकार उनकी स्थिति के बारे में अगुआओं को बता दिया। अगुआओं ने मुझे बहुत सख्ती से यह जवाब भेजा: "बहन ली अपने कर्तव्य में लापरवाह हैं और उनकी समझ गुमराह करने वाली है। इससे काफ़ी समय से नुकसान पहुंच रहा है, मगर आपने इतने दिनों तक इसकी रिपोर्ट नहीं की। आपने बीच का रास्ता चुना और एक खुशामदी इंसान होने के सिद्धांतों का पालन किया। इससे परमेश्वर के घर के कार्य में देरी हुई और उसे नुकसान पहुंचा। आपको आत्मचिंतन करके खुद को जानना चाहिए।" उन्होंने "ऊपर से आया" के उपदेशों के कुछ अंश भी शामिल किये: "खुशामदी लोग अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे सत्य के सिद्धांतों को अच्छी तरह जानते हैं, मगर उन पर कायम नहीं रहते। जिस किसी चीज़ से उनके निजी हितों पर असर पड़ता है, उसकी खातिर वे सत्य के सिद्धांतों को ताक पर रख देते हैं, सिर्फ़ अपने निजी लाभ की सोचते हैं। जब कोई खुशामदी इंसान किसी दुष्ट व्यक्ति को बुरे कर्म करते देखता है, तो उसे पता होता है कि ऐसे कर्म परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुंचाते हैं और कलीसिया के जीवन में रुकावट डालते हैं, मगर वे इस डर से कुछ भी नहीं कहते कि कहीं उसका अपमान न हो जाये। वे ऐसे व्यक्ति को उजागर नहीं करते या उसकी रिपोर्ट नहीं करते। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की समझ बिल्कुल भी नहीं होती है। इस तरह के लोग कलीसिया में कोई भी कर्तव्य निभाने के उपयुक्त नहीं होते—वे किसी भी काम में अच्छे नहीं होते। खुशामदी लोग ईमानदार दिखते हैं और दूसरे लोगों को भी लगता है कि वे अच्छी इंसानियत वाले लोग हैं, कुछ अगुआ और कर्मी तो उनको पोषण भी देते हैं। यह पूरी तरह से मूर्खता है। किसी भी खुशामदी इंसान को पोषण देने की कोशिश मत करो, क्योंकि वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। दरअसल, वे सत्य से प्रेम नहीं करते या सत्य को स्वीकार नहीं करते, सत्य पर अमल करने की तो बात ही दूर है। यही कारण है कि परमेश्वर खुशामदी लोगों से सबसे ज्यादा नफ़रत करता है। अगर ऐसे लोग सचमुच पश्चाताप न करें, तो उन्हें हटा दिया जाएगा" (कार्य व्यवस्था)। अगुआओं द्वारा इतनी सख्ती से काँट-छाँट और निपटान ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया, खास तौर पर जब मेरी नज़र "खुशामदी" शब्द पर पड़ी। मैं अपने आंसुओं को बहने से नहीं रोक पाई: मैं खुशामदी कैसे हो सकती हूँ? परमेश्वर खुशामदी लोगों से नफ़रत करता है। वे किसी भी काम के नहीं होते और उन्हें हटा दिया जाएगा। मैं बेहद परेशान हो गयी और इस सच को सहन नहीं कर पा रही थी कि मैं खुशामदी इंसान हूँ, भले ही मैंने वाकई वह सब कुछ किया था तो खुशामदी लोग करते हैं। आँखों से बहते आंसुओं के साथ, मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, मैंने सत्य पर अमल न करके परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुंचाया है। मैंने दुष्टता की है और अगुआओं ने मेरे साथ निपटकर सही किया है। मगर मुझे अब भी खुद की गहरी समझ नहीं है। कृपा करके मुझे प्रबुद्ध करो और खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करो।"
प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी कुछ बुरा नहीं किया, दूसरों का माल-असबाब नहीं चुराया, या अन्य लोगों की चीजों की लालसा नहीं की। यहाँ तक कि जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे नुक़सान उठाना चुनकर, अपनी क़ीमत पर दूसरों को लाभ उठाने देते हैं, और वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते ताकि अन्य हर कोई यही सोचे कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे कुकर्मियों को बुरा करते देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह अच्छी मानवता का उदाहरण नहीं है। ऐसे व्यक्ति की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वह किस प्रकार का जीवन जीता है, क्या प्रकट करता है, कर्तव्य निभाते समय उसका रवैया कैसा होता है, साथ ही उसकी अंदरूनी दशा कैसी है और उसे क्या पसंद है। अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम परमेश्वर के प्रति निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम परमेश्वर के हितों से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वो परमेश्वर के प्रति दर्शाता है, तो उस इंसान में इंसानियत नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "बहुत से लोग मानते हैं कि एक अच्छा व्यक्ति होना वास्तव में आसान है, इसमें बस कम बोलने और अधिक करने, एक अच्छा हृदय रखने और गलत आशय नहीं रखने की ज़रूरत है। उनका मानना है कि यह सुनिश्चित करेगा कि वे जहाँ कहीं भी जाएँ वहाँ समृद्ध हों, कि लोग उन्हें पसंद करेंगे, और बस इस प्रकार का व्यक्ति होना पर्याप्त है। वे इस हद तक चले जाते हैं कि सत्य की खोज भी नहीं करना चाहते हैं; वे बस अच्छे लोग बन कर संतुष्ट हैं। वे सोचते हैं कि सत्य की खोज करना और परमेश्वर की सेवा करने का मामला बहुत जटिल है; वे सोचते हैं कि इसके लिए कई सत्यों को समझने की आवश्यकता है, और कौन इसे पूरा कर सकता है? वे बस आसान मार्ग को अपनाना चाहते हैं—अच्छे लोग बनना और अपने कर्तव्य करना—और सोचते हैं कि इतना पर्याप्त होगा। क्या यह स्थिति उचित है? क्या एक अच्छा व्यक्ति बनना वास्तव में इतना सरल है? समाज में, तुम्हें बहुत से अच्छे लोग बहुत उत्कृष्ट तरीके से बोलते दिख जाएंगे, और भले ही बाहर से ऐसा लगे कि उन्होंने कोई बड़ी दुष्टता नहीं की है, किन्तु अंतरतम में वे धोखेबाज और झूठे होते हैं। विशेष रूप से, वे यह देखने में सक्षम होते हैं कि हवा किधर को बहती है, और वे अपनी बातों में चिकने-चुपड़े और दुनियादारी वाले होते हैं। जैसा कि मैं इसे देखता हूँ, ऐसा 'अच्छा व्यक्ति' एक झूठा है, पाखंडी है; वह बस अच्छा होने का दिखावा करा रहा है। जो लोग किसी सुखद माध्यम से चिपके रहते हैं वे सबसे भयावह होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करने की कोशिश करते हैं, वे लोगों-को-खुश करने वाले होते हैं, वे सभी चीज़ों में हामी भरते हैं, और कोई भी उनकी वास्तविक प्रकृति का पता नहीं लगा सकता है। इस तरह का व्यक्ति एक जीवित शैतान है!" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य को अभ्यास में ला कर ही तू भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों को त्याग सकता है')। परमेश्वर के वचनों की हर बात मुझे एकदम सटीक लगी और मैं पूरी तरह से आश्वस्त हो गई। मैंने जाना कि मैं लगातार एक खुशामदी इंसान, "नेक इंसान" बनी हुई थी, जो बस लोगों को खुश करना चाहती है। बहन ली के साथ काम करते हुए, अपने रिश्तों को बनाये रखने के लिए, मैं तलवार की धार पर चल रही थी। जब मैंने देखा कि वो अपने कर्तव्य का भार नहीं उठा रही हैं और लगातार गलतियां करती जा रही हैं, हमेशा नाम और फ़ायदे के लिए होड़ कर रही हैं जिससे परमेश्वर के घर के कार्य पर बुरा असर पड़ रहा है, तो मुझे उनके साथ सहभागिता करके तुरंत इस पर ध्यान दिलाना चाहिए था। मगर इस भय से कि कहीं उनको बुरा न लग जाये, मैंने समस्या के बारे में उनके साथ घुमा-फिराकर बात की। यह उनकी मदद करना या उनसे प्रेम करना नहीं—बल्कि नुकसान पहुंचाना था। मैं जानती थी कि उनकी समझ ठीक नहीं है और वो सिंचन का कार्य करने के लिये उपयुक्त नहीं हैं, मगर मैं उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी, ताकि वो मेरे बारे में बुरा न सोचें, इसलिये मैंने अगुआओं को इसकी रिपोर्ट करने में देरी की। मैंने बुरी और गलत सोच वाली एक लापरवाह इंसान को सिंचन का कार्य करने दिया और परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डालने दी। मैंने शैतान के सेवकों में से एक बनकर परमेश्वर के घर के कार्य को भारी नुकसान पहुंचाया। अपनी आस्था में, कहने को तो मैंने अपना परिवार और करियर छोड़ दिया, दिन-रात काम किया और कीमत भी चुकाई, मगर जब समस्याओं से सामना हुआ, तो मैं अपने हितों के लिये साजिश रचने लगी, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं की। मैं परमेश्वर में विश्वास तो करती थी, मगर मेरा दिल और मन उसके साथ नहीं था। मैं अपने आपको एक विश्वासी कैसे कह सकती थी? मैं तो परमेश्वर के सामने रहने के लायक भी नहीं थी! इस सोच ने मुझे बिल्कुल असहाय कर दिया और मैं इस पछतावे से भर गई कि मैंने सत्य के सिद्धांतों को कायम नहीं रखा या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं की।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन-प्रकृति बन गए हैं। 'स्वर्ग उन लोगों को नष्ट कर देता है जो स्वयं के लिए नहीं हैं' एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। जीने के लिए दर्शन के कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश की उत्तम पारंपरिक संस्कृति के माध्यम से लोगों को शिक्षित करता है और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। कल्पना करो कि समाज में कई वर्षों से सक्रिय व्यक्ति से कोई यह प्रश्न पूछे : 'चूँकि तुम इतने लंबे समय से दुनिया में रहे हो और इतना कुछ हासिल किया है, ऐसी कौन-सी मुख्य प्रसिद्ध कहावतें हैं जिनके अनुसार तुम लोग जीते हो?' शायद वह कहे, 'सबसे महत्वपूर्ण कहावतें यह हैं कि "अधिकारी उपहार देने वालों को नहीं मार गिराते, और जो चापलूसी नहीं करते हैं वे कुछ भी हासिल नहीं करते हैं।"' क्या ये शब्द उस व्यक्ति की प्रकृति के स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? पद पाने के लिए अनैतिक साधनों का इस्तेमाल करना उसकी प्रकृति बन गयी है, और अधिकारी होना ही उसे जीवन देता है। अभी भी लोगों के जीवन में, और उनके आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं—उनमें बिलकुल भी कोई सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विष से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, सभी चीजें जो लोगों की हड्डियों और रक्त में बहें, वह सभी शैतान की चीज़ें हैं। उन सभी अधिकारियों, सत्ताधारियों और प्रवीण लोगों के सफलता पाने के अपने ही मार्ग और रहस्य होते हैं, तो क्या ऐसे रहस्य उनकी प्रकृति का उत्तम रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? वे दुनिया में कई बड़ी चीज़ें कर चुके हैं और उन के पीछे उनकी जो चालें और षड्यंत्र हैं उन्हें कोई समझ नहीं पाता है। यह दिखाता है कि उनकी प्रकृति आखिर कितनी कपटी और विषैली है। शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह देखा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति दूषित, बुरी और प्रतिक्रियावादी है, शैतान के दर्शन से भरी हुई और उसमें डूबी हुई है—अपनी समग्रता में यह प्रकृति परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों से मेरे सामने यह साफ़ हो गया कि एक खुशामदी इंसान के रूप में, मैं शैतान के इन फ़लसफ़ों से गुमराह हो गई थी और उसके काबू में थी, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये", "एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग", "एक जाना-पहचाना चेहरा मददगार होता है," "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है" और "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए," ये शैतानी फलसफे मेरे अंदर गहराई तक समाये हुए थे और मैं इनके अनुसार ही जी रही थी। मैं स्वार्थी और चालाक बनती जा रही थी। परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, मैंने कभी किसी को नाराज़ नहीं किया था। कारोबार में, मैं वही कहती थी जो लोग सुनना चाहते थे, मुझे लगता था कि उन शैतानी फलसफों के अनुसार चलना जिंदगी जीने का एक समझदारी भरा तरीका है, इस तरह के व्यवहार से मेरी काबिलियत का पता चलता है और मैं इसका दिखावा भी करती थी। विश्वासी बनने के बाद, मैंने सत्य पर अमल नहीं किया, बल्कि शैतान के इन विषों के अनुसार जिंदगी जीती रही। मैंने देखा कि बहन ली अपने कर्तव्य में भ्रष्टता दिखा रही हैं, मगर मैंने सहभागिता में इस बात पर उनका ध्यान आकर्षित नहीं किया। मैंने उनकी भ्रष्टता को उजागर करने या उनका विश्लेषण करने की हिम्मत भी नहीं की, इसके बजाय मैंने बस वैसे ही इसका जिक्र कर दिया, क्योंकि मुझे डर था कि सच बोल देने से हमारे रिश्ते खराब हो जाएंगे। जब मैंने उन्हें परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुंचाते देखा, तो अगुआओं को इसके बारे में रिपोर्ट नहीं की, बल्कि यह सोचा कि इस स्थिति के बारे में अगुआओं को बताने का मतलब होगा उनका भेद खोलना और उनकी पीठ में छुरा घोंपना। मैं कितनी बेवकूफ़ थी! किसी समस्या के बारे में रिपोर्ट करना परमेश्वर के घर के कार्य को कायम रखना है—यह बिल्कुल सही और उचित है। इससे कलीसिया को बहन ली के लिये उनकी क्षमता और कद के हिसाब से उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था करने का अवसर मिल जाता। यह बहन ली और कलीसिया, दोनों के लिये फ़ायदेमंद होता, मगर मैंने सोचा कि ऐसा करना बुरी बात है। मुझे एहसास हो गया कि ये शैतानी विष लोगों को कितना बड़ा नुकसान पहुंचाते हैं। इन विषों ने मुझे धोखा देकर इस हद तक भ्रष्ट कर दिया था कि चीज़ों को देखने का मेरा नज़रिया ही बदल गया था और मैं सही-गलत या ऊंच-नीच में भेद नहीं कर पा रही थी। मैं स्वार्थी और नीच थी, मैंने सिर्फ़ अपने हितों के लिये काम किया था। मैंने बिना किसी सिद्धांत और बिना किसी नज़रिये के काम किया। मुझमें न्याय की समझ नहीं थी और मैं एक सच्चे इंसान की तरह बिल्कुल भी नहीं जी रही थी। इस एहसास ने इन शैतानी सिद्धांतों और मेरे खुशामदी विचारों के प्रति मुझे गुस्से और नफ़रत से भर दिया। मुझे अपने काम करने के तरीके से नफ़रत हो गयी और अब मैं अपने दिल की गहराइयों से, वैसा बिल्कुल भी नहीं बनना चाहती थी। मैं अब शैतान के हाथों का खिलौना बनकर नुकसान नहीं उठाना चाहती थी। मैंने यह भी महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करना कितना अहम है, और इसलिये मैं एक खुशामदी इंसान होने की अपनी समस्या को दूर करने के लिये तुरंत सत्य की खोज में लग गई।
अपनी खोज के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को नाराज़ नहीं करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी तुम जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी तुम मिलो सभी से चिकनी-चुपड़ी बातें करना, और सभी को अच्छा महसूस कराना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? इसमें शामिल है परमेश्वर, अन्य लोगों, और घटनाओं के साथ सच्चे हृदय से बर्ताव करना, उत्तरदायित्व स्वीकार कर पाना, और यह सब इतने स्पष्ट ढंग से करना कि हर कोई देख और महसूस कर सके। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदय को टटोलता है और उनमें से हर एक को जानता है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "क्या कोई व्यक्ति जो स्वाभाविक रूप से सभ्य है सचमुच में एक अच्छा व्यक्ति है? किस तरह का व्यक्ति सचमुच में अच्छा व्यक्ति है, क्या कोई ऐसा जिसके पास परमेश्वर की नज़रों में सत्य है? सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, उन्हें परमेश्वर की इच्छा को समझना है और सत्य को समझना है। दूसरा, उन्हें सत्य के बारे में अपनी समझ को नींव के रूप के साथ सत्य को अभ्यास में लाने में समर्थ होना है। ... यानी, जैसे ही उस व्यक्ति को पता चलता है कि उसके साथ कोई समस्या है, तो वह उस समस्या को सुलझाने करने के लिए परमेश्वर के सामने आ जाता है, और परमेश्वर के साथ अपने संबंध को सामान्य बना लेता है। हो सकता है कि ऐसा व्यक्ति कमज़ोर और भ्रष्ट हो, विद्रोही भी हो, और उसके अंदर से अहंकार, दंभ, कुटिलता और कपट जैसे हर तरह के भ्रष्ट स्वभाव उजागर होते हों। लेकिन, एक बार जब वो आत्म-चिंतन करके इन चीज़ों के प्रति जागरुक हो जाता है, तो वह सही समय पर उन दोषों को दूर करके, अपने अंदर अप्रत्याशित परिवर्तन ला सकता है। ये वे लोग हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और जो सत्य का अभ्यास करते हैं। ये परमेश्वर की नज़रों में अच्छे लोग हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मानव सदृशता पाने के लिए आवश्यक है अपने समूचे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य सही-सही पूरा करना')। फिर मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : "कलीसिया में मेरी गवाही में दृढ़ रहो, सत्य पर टिके रहो; सही सही है और गलत गलत है। काले और सफ़ेद के बीच भ्रमित मत होओ। तुम शैतान के साथ युद्ध करोगे और तुम्हें उसे पूरी तरह से हराना होगा, ताकि वह फिर कभी न उभरे। मेरी गवाही की रक्षा के लिए तुम्हें अपना सब-कुछ देना होगा। यह तुम लोगों के कार्यों का लक्ष्य होगा—इसे मत भूलना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचनों के ज़रिए, मैं यह समझ पायी कि एक सच्चा इंसान दूसरों के साथ बिल्कुल सही तालमेल नहीं बनाता है और किसी को नाराज़ न करने वाली बात नहीं कहता है। वास्तव में, एक अच्छा इंसान ईमानदार और सच्चा होता है, उसे प्रेम और नफ़रत के बीच का भेद अच्छी तरह पता होता है, जहां परमेश्वर के घर के हित शामिल होते हैं, वहां अपने निजी हितों को ताक पर रख सकता है। ऐसे लोग सत्य के सिद्धांतों को कायम रखते हैं, दूसरों को नाराज़ करने से नहीं डरते, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते हैं। सिर्फ़ इस तरह के इंसान में ही न्याय की समझ होती है और वह परमेश्वर की प्रशंसा पा सकता है। परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझने के बाद, मैंने प्रार्थना करते हुए संकल्प लिया कि अब से मैं सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करूंगी; मैं अपने अंदर के खुशामदी इंसान को अलविदा कहूंगी और खुद को एक नया इंसान बनाऊंगी।
बाद में, अगुआओं ने मामले की जांच करने के बाद यह पुष्टि कर दी कि बहन ली को उनके कर्तव्य से हटाया जाना ज़रूरी है, उन्होंने मुझे उनके पास जाकर सहभागिता करने के लिए कहा। मैंने सोचा, "मैं ही क्यों? अगर उन्हें पता चला कि मैंने ही अगुआओं को उनके बारे में बताया है और इसी वजह से उन्हें हटाया जा रहा है, तो वे यकीनन मुझसे नाराज़ हो जाएंगी और इससे हमारे रिश्ते बिगड़ जाएंगे।" यह सोचकर, मुझे वह नुकसान याद आया जो मैंने सत्य का अभ्यास करने में नाकाम रहकर परमेश्वर के घर के कार्य का किया था, मैं जानती थी कि अब मैं खुशामदी इंसान बनकर नहीं रह सकती। मेरा बहन ली के साथ सहभागिता करने का मतलब है कि परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है, ताकि यह देख सके कि मैं सत्य का अभ्यास कर सकती हूँ या नहीं, मामलों को सिद्धांतों के अनुसार निपटाती हूँ या नहीं। मैं पूरे रास्ते परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे मार्गदर्शन मांगती रही। मैं यह भी जानती थी कि अगर मैंने बहन ली की समस्याओं पर बिल्कुल स्पष्ट सहभागिता नहीं की और वो उन बातों को समझ नहीं पायीं, तो इससे उन्हें कोई मदद नहीं मिलेगी, बल्कि उनके दिल को ठेस ही पहुंचेगी। इस सोच के साथ, मैंने तय कर लिया कि अब मैं कभी खुशामदी इंसान नहीं बनूंगी। इसलिये, मैंने बहन ली के साथ सहभागिता की और उनके कर्तव्य में उनकी लापरवाही की प्रकृति और नतीजों का विश्लेषण किया, मैंने उनके ऐसे सभी व्यवहार को खोलकर रख दिया जिनसे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुंचा था। जब उन्होंने यह सब सुना, तो वे समर्पण और आत्मचिंतन करने को तैयार हो गयीं। सत्य का अभ्यास करने के बाद मैंने काफ़ी बेहतर महसूस किया।
उसके बाद, परमेश्वर ने मेरी परीक्षा लेने के लिये एक और परिस्थिति बनायी। एक युवा बहन को कुछ समय तक जानने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि उनका स्वभाव अहंकारी है और वे दूसरी बहनों के सुझावों को स्वीकार नहीं करना चाहतीं, जिनके कारण कई बहनें उनके आगे बेबस महसूस करती हैं। मैं अपने साथ काम करने वाली बहन लियू को साथ लेकर उनसे सहभागिता करने पहुँची, और उनके काम करने के तरीके को उजागर किया, मगर उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने पक्ष में तर्क दिया और अपना मुँह लटका लिया। इससे मुझे थोड़ी निराशा महसूस हुई, यह सोचकर कि अब उन्होंने मेरे बारे में बुरी राय बना ली होगी। अब मैं उनका सामना कैसे कर पाऊँगी? तभी कुछ ऐसा हुआ कि हमें वहां से निकलना पड़ा। वापस लौटते समय रास्ते में, मैं सोच रही थी कि कैसे यह युवा बहन जिद्दी बन रही हैं और सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहतीं। सही सहभागिता के बिना, हमारे रिश्ते यकीनन खराब हो जाएंगे। मैंने तय किया कि अगली बार मैं अपनी साथी को उनके साथ सहभागिता के लिए लेकर जाऊँगी। कुछ दिनों बाद जब मैं दोबारा उनसे मिली, तो मेरे साथ उनका व्यवहार बिल्कुल मैत्रीपूर्ण था। मुझे एहसास था कि पिछली बार हमने सहभागिता के ज़रिए उनकी समस्या को हल नहीं किया था, इसलिए मुझे उनके साथ फिर से सहभागिता करनी चाहिए। अगर वो अब भी सत्य को स्वीकार नहीं करती हैं, तो उन्हें उजागर करके उनके साथ निपटा जाएगा। मगर जब वे मेरे लिये एक कुर्सी लेकर आयीं और मेरी सेहत के बारे में पूछा, तो मुझे लगा जैसे मेरा मुँह सिल गया हो। मैं सहभागिता में कुछ कहना चाहती थी, मगर अपना मुँह भी नहीं खोल पायी। मैंने महसूस किया कि जैसे ही मैं सहभागिता शुरू करूंगी, हमारे रिश्ते खराब हो जाएंगे और वह दोस्ताना माहौल बिल्कुल बिगड़ जाएगा। अगर उनका रवैया पहले जैसा रहा और उन्होंने सत्य को स्वीकार नहीं किया, तो मेरी स्थिति बहुत दयनीय हो जाएगी। मैंने तय किया कि मैंने अपने शब्द चतुराई से चुनूँगी, कठोर नहीं बनूंगी और थोड़ी बुद्धिमानी से काम लूंगी। तभी, मैंने महसूस किया कि मेरे अंदर फिर से एक खुशामदी इंसान सिर उठा रहा है और मैं अपने आपसी रिश्तों को बचाना चाहती हूँ। मैंने तुरंत परमेश्वर से मुझे शक्ति देने के लिए प्रार्थना की। प्रार्थना के बाद, मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : "तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें नियंत्रित कर रहा है; तुम तो अपने मुँह के मालिक भी नहीं हो। भले ही तुम ईमानदारी भरे शब्दों को कहना चाहते हो, लेकिन इसके बावजूद तुम ऐसा करने में असमर्थ होने के साथ-साथ डरते भी हो। तुम्हें जो करना चाहिए, जो बातें तुमको कहनी चाहिए, जो ज़िम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए, उनका दस हज़ारवाँ हिस्सा भी तुम नहीं कर पा रहे; तुम्हारे हाथ-पैर, तुम्हारे शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हुए हैं। इन पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है। तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें यह बताता है कि बात कैसे करनी है, और तुम उसी तरीके से बात करते हो; यह तुम्हें बताता है कि क्या करना चाहिए और फ़िर तुम वही करते हो। ... तुम सत्य की खोज नहीं करते, सत्य का अभ्यास तो तुम और भी कम करते हो, फिर भी तुम प्रार्थना करते रहते हो, अपना निश्चय दृढ़ करते हो, संकल्प करते हो और शपथ लेते हो। यह सब करके तुम्हें क्या मिला है? तुम अब भी हर बात का समर्थन करने वाले व्यक्ति ही हो : 'मैं किसी को नहीं उकसाऊंगा और न ही मैं किसी को नाराज करूँगा। अगर कोई बात मेरे किसी मतलब की नहीं है, तो मैं इससे दूर ही रहूँगा; मैं उन चीजों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा जिनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, इनमें कोई अपवाद नहीं है। अगर कोई चीज़ मेरे हितों, मेरे रुतबे या मेरे आत्म-सम्मान के लिए हानिकारक है, तब भी मैं इस पर कोई ध्यान नहीं दूँगा, इन सब चीज़ों पर सावधानी बरतूंगा; मुझे बिना सोचे-समझे काम नहीं करना चाहिए। जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है और मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ!' तुम पूरी तरह से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से नफ़रत करने वाले अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में हो। वे तुम्हें ज़मीन पर गिरा रहे हैं, ये तुम्हारे लिये इतने कठोर हो गये हैं कि तुम सुनहरे छल्ले वाले सुरक्षा कवच को पहनकर भी इसे बरदाश्त नहीं कर सकते। भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में रहना हद से ज़्यादा थकाऊ और कष्टदायी है! मुझे यह बताओ कि अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करोगे तो क्या तुम्हारे लिए अपनी भ्रष्टता से छुटकारा पाना आसान होगा? क्या इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है? मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करोगे और अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहोगे, तो वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने का भी कोई लाभ नहीं होगा, और अगर तुम आखिर तक यही करते रहे तो ज्यादा-से ज्यादा तुम एक धार्मिक ढोंगी और एक फरीसी बनकर रह जाओगे, और बस यही इसका अंत होगा। अगर तुम इससे भी बुरी स्थिति में पहुँच जाते हो, तो एक ऐसा समय आ सकता है जब तुम प्रलोभन के शिकार हो जाओ और तुम अपने कर्तव्य से च्युत होकर परमेश्वर को धोखा दे दो। तुम गिर चुके होगे। तुम हमेशा गर्त के कगार पर रहोगे! इस समय, सत्य का अनुसरण करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। किसी भी दूसरी चीज का अनुसरण करना व्यर्थ है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे खुशामदी इंसान होने के सत्य को पूरी तरह खोल कर रख दिया। जब मैंने देखा कि युवा बहन थोड़ी जिद्दी हैं और सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रही हैं, तो मैं चिंगारी को हवा देना या अपनी स्थिति खराब करना नहीं चाहती थी, बल्कि समस्या के बारे में घुमा-फिराकर बात करना चाहती थी। मैं तो चाहती थी कि मेरे बजाय कोई और उनके साथ सहभागिता करे, ताकि मैं अपने साथ उनके रिश्ते को बचाये रखूँ। मैं अब भी खुशामदी इंसान बन रही थी! मुझे वह नुकसान याद आया जो मैंने पहले परमेश्वर के घर के कार्य का किया था, क्योंकि मैंने सत्य पर अमल नहीं किया। उस समय मैंने सत्य पर अमल करने का अपना मौक़ा गँवा दिया था और इस बार मैं जानती थी बाद में पछताने से कुछ नहीं होगा। फिर एकदम से, मेरे अंदर शक्ति का संचार हुआ: सत्य पर अमल करना सर्वोपरि था और अब मैं फिर से पीछे नहीं हट सकती थी। मैंने हिम्मत जुटाई और इस बहन के साथ सहभागिता की, वे जो भी कर रही थीं उसे और उनके कार्यों की प्रकृति को उजागर किया। उन्होंने मेरी बात सुनी और उसे स्वीकार किया, वो पश्चाताप करने को तैयार हो गईं। इससे मुझे अपने दिल में बेहद खुशी महसूस हुई। आखिर मैं सत्य पर थोड़ा-बहुत अमल कर पाने में सक्षम हुई और मुझे अपनी आत्मा में शांति और आनंद का एहसास हुआ। ऐसा लगा कि यही जीने का ईमानदार तरीका है, जैसे मेरे अंदर इंसानियत जिंदा हो।
परमेश्वर ने मेरे अंदर जो छोटे-छोटे बदलाव किये, उनके बारे में सोचकर मैं यह समझ पायी कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिये वाकई परमेश्वर के न्याय और ताड़ना की ही ज़रूरत थी। अगर उसने मुझे उजागर करने के लिये एक-एक करके वैसी परिस्थिति नहीं बनायी होती और अगर उसके वचनों का न्याय और प्रकाशन नहीं होता, तो मैं कभी नहीं जान पाती कि मैं असल में किस तरह की इंसान हूँ। मैं इस विचारणीय सत्य को कभी नहीं जान पाती कि कैसे मैं शैतान के विष के प्रभाव में जी रही थी। मैंने जाना कि परमेश्वर का उद्धार और परिवर्तन इंसान के लिए कितना व्यावहारिक है और उन्हें कितनी मुश्किल से पाया जा सकता है! आज सत्य पर थोड़ा-बहुत अमल कर पाने और इंसान की तरह जिंदगी जीने की मेरी क्षमता परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कारण ही है। परमेश्वर के उद्धार को पाकर मैं उसकी बहुत कृतज्ञ हूँ!
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