मॉम-डैड का असली चेहरा पहचानना

05 अप्रैल, 2022

क्षिंचे, दक्षिण कोरिया

जब मैं छोटी थी, तो परमेश्वर के अनुसरण के लिए हमेशा मॉम-डैड को रोल मॉडल मानती थी। लगता था वे अपनी आस्था में बहुत उत्साही हैं, त्याग करने को तैयार हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकारने के बाद, कर्तव्य निभाने के लिए मॉम ने अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी। उनके पास काबिलियत, ज्ञान और कीमत चुकाने की इच्छा थी, कलीसिया में उन्हें हमेशा महत्वपूर्ण काम मिलते थे। फिर, एक यहूदा ने हमारे परिवार को धोखा दे दिया, सीसीपी की गिरफ्तारी से बचने के लिए मॉम-डैड मुझे लेकर छिप गये। फिर भी वे अपना कर्तव्य निभाते रहे। उनकी सरल जीवनशैली, समर्पित और आध्यात्मिक दिखने वाले सामान्य व्यवहार के कारण, कलीसिया के सदस्यों को मैंने अक्सर ये कहते सुना कि मेरे मॉम-डैड में अच्छी इंसानियत है, वे सच्चे विश्वासी हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं। 10 साल की थी जब सीसीपी के उत्पीड़न के कारण मुझे मॉम-डैड से अलग होना पड़ा, हम एक-दूसरे से मिल भी नहीं सकते थे, पर मेरे मन में उनकी शानदार छवि बनी रही। मैं उनका बहुत आदर करती थी, मुझे लगता था उन्हें परमेश्वर में अटूट आस्था है, वे इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते और त्याग करते थे, तो वे ज़रूर सत्य का अनुसरण करते होंगे, उनमें अच्छी इंसानियत होगी, परमेश्वर उन्हें ज़रूर स्वीकारता होगा। मुझे लगता था वे ऐसे लोग हैं जिन्हें बचाया जा सकता है। ऐसे मॉम-डैड पर मुझे बहुत गर्व था।

फिर पार्टी के अत्याचार के कारण हम सभी को दूसरे देश जाना पड़ा। उसके बाद जब मैं उनके संपर्क में आई, तो देखा कि विदेश में भी वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। खासकर जब मॉम को सुपरवाइजर की कई भूमिकाएं निभाते देखा, तो उनके बारे में और ऊँचा सोचने लगी। मेरे मॉम-डैड कई बरसों से विश्वासी थे, उन्होंने काफी त्याग किया था, महत्वपूर्ण कर्तव्य भी निभाए थे। मुझे लगा वे सत्य खोजते होंगे, उनका आध्यात्मिक कद बड़ा होगा, भविष्य में किसी तरह की परेशानी होने पर मैं मदद के लिए उनके पास जा सकती हूँ। सब बहुत अच्छा था। कभी-कभी हम अपनी हालिया स्थिति के बारे में बातें करते। एक बार मेरे डैड ने कहा, उनके काम में किसी खास तकनीकी कौशल की ज़रूरत नहीं थी, इसलिए उन्हें प्रेरणा नहीं मिल रही थी, वे कोई दूसरा काम करना चाहते थे। उस समय मुझे भी ऐसा ही अनुभव हो रहा था, हमने एक दूसरे से सहभागिता की और परमेश्वर के वचन साझा किये। थोड़े ही समय में, परमेश्वर के वचन खाने-पीने और सत्य खोजने से पता चला, मैं अपने काम में मीन-मेख निकालने लगी थी। मैं ऐसा काम चाहती थी जिससे अच्छी दिखूं, वरना आलसी बनी रहती थी। मैं स्वार्थी थी, मुझमें सच्ची आस्था नहीं थी। मैंने खुद से नफ़रत की और खुद को उन हालात से निकाल लिया। पर मेरे डैड ऐसा नहीं कर पाये, उन्हें काम करने की प्रेरणा नहीं मिली। मैं उलझन में पड़ गई। वे एक दशक से विश्वासी थे, उनका थोड़ा तो आध्यात्मिक कद होना चाहिए। चुन-चुनकर काम करने की समस्या को हल क्यों नहीं कर पाये? मैंने देखा जब मैं अपनी समस्याओं के बारे में मॉम-डैड से बात करती, तो वे परमेश्वर के कुछ वचन भेज देते और अपने विचार साझा करते, पर उनकी बात से मुझे कोई मदद नहीं मिलती। तब मुझे ऐसा लगने लगा, वे सत्य उतने अच्छे से नहीं समझते, जितना मैं सोचती थी।

फिर, भाई-बहनों ने गवाही वाले लेख लिखने के बारे में सहभागिता की। मुझे लगा मॉम-डैड लंबे समय से विश्वासी थे, तो वे काफी अनुभवी होंगे, खासकर मेरी मॉम। एक मसीह-विरोधी ने उन्हें दबाया, अनुचित तरीके से कलीसिया से निकाला था, पर वे सुसमाचार फैलाती रहीं। काम पर वापस लौटने के बाद, उन्होंने अपने हर काम में पूरा मन लगाया, उनका काम कई बार बदला गया, तो उनके पास अनुभव का भंडार होना चाहिए। मुझे लगा परमेश्वर की गवाही देने के लिए उन्हें कुछ लिखना चाहिए। मैं अक्सर अपनी मॉम को लेख लिखने के लिए कहने लगी, पर वे इससे बचती रहीं। कहतीं कि वे लिखना चाहती थीं, पर व्यस्तता के कारण शांत माहौल नहीं ढूंढ पा रही थीं। मैं सोचने लगी वे सचमुच अपने काम में व्यस्त हैं, पर ये तो कोई बहाना नहीं हुआ। अगर उनके पास साझा करने लायक गवाही है, तो लिखने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा। अपनी बरसों की आस्था से परमेश्वर के लिए गवाही लिखना बहुत सार्थक होगा! मैं उनसे कहती रही, पर उन्होंने कभी कुछ नहीं लिखा। एक बार उन्होंने कहा, वो विचारों को व्यवस्थित नहीं कर पा रहीं, कहां से शुरू करें, ये नहीं समझ पा रहीं, तो वे मेरे साथ चर्चा करना चाहती थीं। मैं बहुत खुश थी। मैं इतने बरसों के उनके अनुभवों के बारे में बेसब्री से सुनना चाहती थी। मगर मुझे हैरानी हुई जब उन्होंने अपने साथ हुई घटनाओं और अपनी भ्रष्टता के बारे में बताया, उन्होंने कोई सही समझ साझा नहीं की, बल्कि खुद को सीमांकित करते हुए, बहुत सी नकारात्मक बातें कहीं। लगा कि उनके लिए पिछले अनुभवों पर बात करना पीड़ादायक था, मानो कोई चारा न देख समर्पण कर दिया हो। मैंने उन्हें अनुभव से हासिल चीजों पर बात करते नहीं सुना। इस बातचीत के बाद मुझे बहुत निराशा हुई। मैं सोचने लगी उन्हें वाकई कुछ हासिल हुआ भी है, उस समय यह कितना भी पीड़ादायक रहा हो, परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य खोजने और उसकी इच्छा जानने से खुद की और परमेश्वर की वास्तविक समझ मिलती, और अंत में उससे सच्ची खुशी मिलती। मगर पिछले अनुभवों के बारे में उनकी बातों से लगा वो अब भी पीड़ादायक है, खुद के बारे में एक अलग सोच और अव्यावहारिक समझ थी। क्या इसका मतलब ये नहीं कि उनमें व्यावहारिक अनुभव नहीं था? तब मुझे समझ आया—कोई हैरानी नहीं कि वे परमेश्वर के लिए गवाही नहीं लिखना चाहती थीं। समय न होना तो बस एक बहाना था। दरअसल, उन्होंने न सत्य हासिल किया, न वास्तविक लाभ पाया, इसलिए वे गवाही नहीं लिख सकती थीं। मेरे डैड कुछ लिखना चाहते थे, पर उनके लेख में बस मामूली बातें थीं, उन्हें जो हासिल हुआ या उनके आत्मज्ञान के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं था। ये उनकी बरसों की आस्था के अनुरूप नहीं था। मुझे परमेश्वर की ये बात याद आई, "तुम्हारा बचाया जाना इस बात पर निर्भर नहीं है कि तुम कितने वरिष्ठ हो या तुम कितने साल से काम कर रहे हो, और इस बात पर तो बिल्कुल भी निर्भर नहीं है कि तुमने कितनी साख बना ली है। बल्कि इस बात पर निर्भर है कि क्या तुम्हारा लक्ष्य फलीभूत हुआ है। तुम्हें यह जानना चाहिए कि जिन्हें बचाया जाता है वे ऐसे 'वृक्ष' होते हैं जिन पर फल लगते हैं, ऐसे वृक्ष नहीं जो हरी-भरी पत्तियों और फूलों से तो लदे होते हैं, लेकिन जिन पर फल नहीं आते। अगर तुम बरसों तक भी गलियों की खाक छानते रहे हो, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारी गवाही कहाँ है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (7))। ये मेरे लिए नींद से जागने जैसा था। सही है। किसी ने कितना ही काम किया हो या वरिष्ठ और अनुभवी हो, अपने अनुभव से मिले वास्तविक ज्ञान के बिना, सत्य हासिल किये बिना या गवाही दिये बिना, जीवन सार्थक नहीं है। ऐसे इंसान को कभी नहीं बचाया जा सकता। ये बात समझ आने पर मुझे जैसा लगा, वो मैं बयान नहीं कर सकती। मन में मॉम-डैड की सत्य समझने, आध्यात्मिक कद होने की, जो छवि थी पहली बार टूटकर बिखर गई। मैं समझ नहीं पाई। इतने बरसों की आस्था और इतने सारे त्याग के बाद भी, उन्हें सत्य हासिल क्यों नहीं हुआ? मैं खुद को रोक नहीं पाई, कमरे में जाकर रोने लगी। मैं अब उन्हें उतना नहीं सराहती थी, फिर भी सोचती थी, चाहे जो भी हो, इतने बरसों तक इतना कुछ देने के बाद, कम से कम उनमें अच्छी इंसानियत तो है, वे सच्चे विश्वासी हैं। अगर वे अच्छे से कर्त्तव्य निभा सकें, सत्य खोजना शुरू करें, तो उन्हें अब भी बचाया जा सकता है। मगर फिर कुछ ऐसा हुआ कि उनके बारे में मेरी सोच बदल गई।

एक दिन, मुझे पता चला कि मेरे डैड को काम से निकाल दिया गया, क्योंकि वे लापरवाह और सुस्त थे, उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं था। जल्दी ही पता चला, मेरी मॉम को भी बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि उनमें अच्छी इंसानियत नहीं थी, कलीसिया के हितों को कायम नहीं रखा, वे बहुत अहंकारी थीं और काम बिगाड़ती रहती थीं। मैं हैरान थी, विश्वास नहीं हो रहा था। ये कैसे हो सकता है? क्या कर्तव्य निभाने के काबिल न होना, हटा दिया जाना नहीं है? उनमें अच्छी इंसानियत नहीं थी? मेरे मॉम-डैड को जानने वाले सभी कहते थे कि उनमें अच्छी इंसानियत है, वरना वे इतना सारा त्याग कैसे कर पाते? मैं बहुत पीड़ा में थी, मन में सभी तरह की चिंताएं आने लगीं। पता नहीं वे कैसे होंगे, क्या वे पीड़ा में होंगे। मुझे हर पल अंधकार और निराशा महसूस हो रही थी, मुझे पता था, सब सत्य के सिद्धांतों के आधार पर और सही किया गया होगा, पर इसे स्वीकार नहीं पा रही थी। मेरे मॉम-डैड ने कितना कुछ सहा, हमेशा कम्युनिस्ट पार्टी से भागते रहे, इतने बरसों तक हमने अलग-अलग रहकर जीवन बिताया। मुझे बड़ी उम्मीद थी, जब परमेश्वर अपना कार्य पूरा कर लेगा, हम उसके राज्य में फिर से मिलेंगे। हालांकि, इतने सारे उतार-चढ़ावों से गुजरने और इतना काम करने के बाद, उन्हें आसानी से कैसे बर्खास्त कर दिया गया? ये सोचकर मैं और भी ज़्यादा परेशान हो गई, आँखों से आंसू बहने लगे। कुछ दिनों तक, मैं निरंतर आह भरती रही, काम के लिए कोई उत्साह नहीं बचा। जब भी इस बारे में सोचती, मैं अत्यधिक परेशान होकर निढाल हो जाती। अनुसारण का सारा उत्साह अचानक खत्म हो गया। मैं जानती थी मेरी हालत ठीक नहीं, खुद को समझाती रहती, "मॉम-डैड की बर्खास्तगी का उचित कारण होगा। परमेश्वर धार्मिक है।" मगर दिल से स्वीकार न सकी, परमेश्वर से कुतर्क करने लगी। कई ऐसे भाई-बहन थे जो बिना कलीसिया में वास्तविक योगदान दिए, बिना महत्वपूर्ण कर्त्तव्य निभाए, काम पर बने हुए थे, फिर मेरे मॉम-डैड काम पर क्यों नहीं बने रह पाये? उनकी समस्याएं जैसी भी थीं, भले ही इतने बरसों तक कोई योगदान नहीं किया, पर काफी कोशिश की थी, उनकी सारी पीड़ा और काम को देखते हुए उन्हें दूसरा मौका नहीं मिल सकता? मैं जानती थी मेरी हालत ठीक नहीं, मैं अड़ियल बन रही थी, मुझमें सत्य खोजने की प्रेरणा नहीं थी। मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, "परमेश्वर, ये बड़ी मुश्किल घड़ी है। मुझे राह दिखाओ, तुम्हारी इच्छा जानने में मेरी मदद करो।"

एक बहन से इनसे निपटने का तरीका पूछा, हालात बयान करते हुए मैं अपने आंसू नहीं रोक पाई। उस बहन ने कहा, "तुम्हारे मॉम-डैड से काम छीना गया, पर उन्हें निकाला नहीं गया है। तुम इतनी परेशान क्यों हो? तुम्हें समझना चाहिए कि इसमें परमेश्वर का प्रेम है। परमेश्वर उन्हें पश्चाताप का मौका दे रहा है।" उसकी इस बात ने मेरी आँखें खोल दीं। सही बात है। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि कर्तव्य छीने जाने का मतलब उसे हटाया जाना है। कुछ भाई-बहन बर्खास्त किए जाने के बाद आत्मचिंतन करते हैं, अफसोस करते हैं, फिर सचमुच बदलकर पश्चाताप करते हैं। उसके बाद, वे फिर से कर्तव्य निभाते हैं। वैसे भी, कर्तव्य निभाने का अर्थ ये नहीं कि आप पूरी तरह बचाए जा सकेंगे। अगर आप सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो भी परमेश्वर आपको उजागर करके हटा देगा। असल में, बर्खास्त करके परमेश्वर मेरे मॉम-डैड को पश्चाताप का मौका दे रहा था, पर मैंने इसे हटाये जाने के जैसा माना। ये बात सत्य के अनुरूप नहीं है। इस तरह से सोचने पर मुझे थोड़ा बेहतर लगा, पर जब भी इस बारे में सोचती, मैं परेशान हो जाती। मुझे हमेशा लगा जैसे कलीसिया उनके साथ कड़ाई से पेश आई।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े: "जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सच्चाई को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। 'प्रतीक्षा' का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और उसकी इच्छा स्वयं को धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट करे, इसकी प्रतीक्षा करना" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। "जितनी अधिक तुममें किसी मामले में समझ की कमी हो, उतना ही अधिक तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला और पवित्र हृदय होना चाहिए, और अकसर तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और सत्य का पता लगाने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए। जब तुम चीजों को नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। जब तुम्हारे सामने ऐसी चीजें आती हैं, जिन्हें तुम नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर के कार्य की अधिक आवश्यकता होती है, और यह परमेश्वर की अच्छी मंशा होती है। जितना अधिक तुम परमेश्वर के सामने आते हो, उतना ही अधिक तुम्हारा दिल परमेश्वर के करीब होता है। और क्या यह सच नहीं कि तुम्हारा दिल परमेश्वर के जितना करीब होता है, उतना ही अधिक परमेश्वर उसमें रहता है? अगर परमेश्वर लोगों के दिलों में अधिक रहता है, तो उनकी दशा, उनकी खोज और स्थिति बेहतर होगी या बदतर? वह निश्चित रूप से बेहतर होगी" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मन को थोड़ा सुकून मिला। परमेश्वर कहता है, किसी चीज़ के बारे में जितना कम पता हो, उतना ही परमेश्वर पर श्रद्धा रखकर खोजना चाहिए, ताकि तुम्हारी हालत में सुधार होता रहे। मॉम-डैड के बर्खास्त होने को लेकर, मैं जानती थी कलीसिया ने सही ही किया होगा, मुझे शिकायत नहीं करनी चाहिए। मैं इस बारे में सोचना नहीं चाहती थी, पर मैंने अपनी गलतफहमी या परमेश्वर से दूरी की समस्या हल नहीं की। जब भी इस बारे में सोचती, मुझे अब भी बहुत बुरा लगता। फिर मुझे समझ आया, जब किसी बात को लेकर उलझन हो, तो नियमों का पालन करने और खुद पर काबू रखने के बजाय हमें सत्य खोजना चाहिए, अस्पष्ट नहीं रहना चाहिए, ऐसे समस्याएं हल नहीं होतीं। दरअसल, मैं मॉम-डैड को अच्छे से नहीं जानती थी। बस ये जानती थी कि उन्होंने काफी त्याग किया और दूसरे उनके लिए अच्छी बातें कहते हैं, पर वो एकतरफा और संकीर्ण सोच थी। मैं सिर्फ भावनाओं में न बहकर, ये जानना चाहती थी कि वे जिन भाई-बहनों के संपर्क में थे, वे उनके बारे में क्या कहते हैं। मैं अपने मॉम-डैड के बर्ताव की खास बातों पर ध्यान देने लगी। जब मैंने उनके बारे में दूसरों के मूल्यांकन पढ़े, तो देखा मेरे डैड हमेशा लापरवाही करते, मुश्किल काम से बचते रहते, कीमत चुकाने की बात होती, तो वे ज़्यादा मेहनत नहीं करना चाहते। उनमें काबिलियत थी, पर वे अपने कर्तव्य में हमेशा निष्क्रिय रहते, कुछ हासिल नहीं कर पाते। उनका काम कई बार बदला गया, पर उन्होंने कोई काम ठीक से नहीं किया। सुसमाचार के काम में भी वे लापरवाह थे, कड़ी मेहनत से बचते थे। सुपरवाइजर की निगरानी के बिना वे कोई काम नहीं करते। जब भाई-बहनों ने उनके काम की समस्याएँ बताईं, तो उन्होंने आत्मचिंतन करने के बजाय उम्र और स्वास्थ्य की समस्याओं के बहाने बनाए, कहा कि काम उनकी खूबी के मुताबिक नहीं है, तो मुश्किलें आना लाजमी था, दूसरों को अपेक्षाएं भी बहुत थीं। अपने काम में कभी अच्छे नतीजे न देने पर, उन्हें बर्खास्त किया गया। मेरी मॉम वैसे तो बहुत उत्साही दिखती थीं, कीमत चुका सकती थीं, पर वो सब सतही था, वे भी जैसे-तैसे काम चला रही थीं। वे व्यावहारिक काम नहीं करती थीं, जिससे कलीसिया के काम में देरी हुई। वे भेंटों का इस्तेमाल श्रद्धा से नहीं करती थीं, जिससे बहुत बरबादी हुई और परमेश्वर के घर की भेंटों का नुकसान हुआ। उन्होंने काफी काम किया, पर उनमें बहुत सी समस्याएं और गलतियाँ थीं। इससे परमेश्वर के घर को बड़ा नुकसान हुआ। कुछ गड़बड़ियां तो अब भी दूर की जा रही हैं। उन्होंने हमेशा परमेश्वर के घर के हितों के बजाय अपने हितों की रक्षा की, जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की। कभी-कभी जब ज़रूरी समस्याओं के हल के लिए उनका जाना बेहतर होता, तो वे किसी और को भेजने पर जोर देतीं, ताकि कोई नाराज़ न हो। इससे परमेश्वर के घर का काम रुक गया। भाई-बहनों ने ये भी कहा कि वे बहुत अहंकारी और अड़ियल हैं, अपने अनुभव का सहारा लेते हुए बिना किसी से चर्चा किये, अपनी मनमानी करती थीं। वे दूसरों के सुझाव नहीं मानती थीं, अपने काम में किसी को भाग नहीं लेने देती थीं, उनमें पारदर्शिता नहीं थी। भाई-बहनों को कई चीज़ों के बारे में पक्की जानकारी नहीं थी। जैसे ही किसी ने कुछ ऐसा किया जो उन्हें पसंद नहीं, तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर होता, वे लोगों को फटकार देतीं। दूसरे उनके आगे बेबस महसूस करते, एक भाई के साथ तो इतना बुरा किया कि उन्होंने कहा, "बहन, मुझमें काबिलियत नहीं है। मेरे साथ काम करना आपके लिए बहुत बड़ा बोझ होगा, मुझे माफ करें।" कुछ और लोगों ने कहा कि कर्तव्य नहीं होता, तो वे कभी ऐसे इंसान से बात नहीं करते। उनकी समस्याएं इतनी बुरी थीं, पर जब दूसरों ने उन्हें इस बारे में बताया, तो वे स्वीकार नहीं सकीं। वे अपने काम की निगरानी करने वाली बहन के प्रति पक्षपाती और विरोधी थीं। उन्हें लगता था दूसरे लोग ही घुल-मिल नहीं पाते, वे ही अनुचित थे।

मुझे बहुत हैरानी हुई। मैं ये बिल्कुल नहीं मानना चाहती थी कि मेरे मॉम-डैड ऐसे थे। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : "विवेक और सूझ-बूझ दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और निकृष्ट होते हैं।) स्वार्थी और निकृष्ट लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "जब किसी व्यक्ति में अच्छी मानवता, एक सच्चा दिल, चेतना और विवेक होता है, तो ये कोई खोखली या अस्पष्ट चीजें नहीं होतीं, जिन्हें देखा या छुआ न जा सके, बल्कि ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें दैनिक जीवन में कहीं भी खोजा जा सकता है, ये सभी वास्तविक चीजें हैं। मान लो, कोई व्यक्ति महान और परिपूर्ण है : क्या तुम ऐसा कुछ देख सकते हो? तुम यह देख, छू या कल्पना भी नहीं कर सकते कि परिपूर्ण या महान होना क्या होता है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि कोई स्वार्थी है, तो क्या तुम उस व्यक्ति के कृत्य देख सकते हो—और क्या वह वर्णन से मेल खाता है? अगर किसी व्यक्ति को ईमानदार और सच्चे दिल वाला कहा जाता है, तो क्या तुम इस व्यवहार को देख सकते हो? अगर किसी को धोखेबाज, कुटिल और नीच कहा जाता है, तो क्या तुम इन चीजों को देख सकते हो? अगर तुम अपनी आँखें भी बंद कर लो, तब भी तुम उसकी बातों और व्यवहार से यह समझ सकते हो कि उस व्यक्ति की मानवता निकृष्ट है या श्रेष्ठ। इसलिए 'अच्छी या बुरी मानवता' कोई खोखला वाक्यांश नहीं है। उदाहरण के लिए, स्वार्थपरता और नीचता, कुटिलता और छल, अहंकार और आत्म-तुष्टि वे सब चीजें हैं, जिन्हें तुम जीवन में किसी व्यक्ति के संपर्क में आने पर समझ सकते हो; ये मानवता के नकारात्मक तत्त्व हैं। इसी तरह, क्या मानवता के वे सकारात्मक तत्व, जो लोगों में होने चाहिए—जैसे कि ईमानदारी और सत्य से प्रेम—दैनिक जीवन में महसूस किए जा सकते हैं? वे कौन-सी स्थितियाँ हैं, जो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करने, परमेश्वर का मार्गदर्शन हासिल करने, और सभी चीजों में सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए व्यक्ति में होनी चाहिए? उसके पास ईमानदार दिल होना चाहिए, उसे सत्य से प्रेम करना चाहिए, सभी चीजों में सत्य की तलाश करनी चाहिए, और सत्य समझने के बाद उस पर अमल करने में सक्षम होना चाहिए। इन स्थितियों के होने का अर्थ है पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता का होना, परमेश्वर के वचन समझने में सक्षम होना, और सत्य को आसानी से अभ्यास करने में लाने में सक्षम होना। यदि कोई व्यक्ति ईमानदार नहीं है और हृदय से सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, और अगर तुम उसके साथ सत्य पर संगति करते भी हो, तो उससे कुछ हासिल नहीं होगा। तुम कैसे बता सकते हो कि कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं? तुम्हें केवल इतना ही नहीं देखना चाहिए कि वह झूठ बोलता और धोखा देता है या नहीं, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण है यह देखना कि वह सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम है या नहीं। यही सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर का घर हमेशा लोगों को निकालता रहा है, और इस मुकाम पर, बहुतों को पहले ही निकाला जा चुका है। वे लोग ईमानदार नहीं थे, वे सब धोखेबाज थे। उन्हें अधार्मिक चीजों से प्रेम था, सत्य से वे बिलकुल भी प्रेम नहीं करते थे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए उन्हें कितने भी वर्ष हो गए हों, वे सत्य नहीं समझ सके या उसकी वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं कर सके। ऐसे लोग वास्तविक बदलाव कर पाने में सक्षम तो बिलकुल भी नहीं थे। इसलिए उनका निकाला जाना अपरिहार्य था। जब तुम किसी व्यक्ति के संपर्क में आते हो, तो सबसे पहले क्या देखते हो? देखो कि क्या वह वचन और कर्म में ईमानदार है, क्या वह सत्य से प्रेम करता है और सत्य को स्वीकार कर सकता है। ये महत्वपूर्ण हैं। अगर तुम यह निर्धारित कर पाओ कि क्या कोई व्यक्ति ईमानदार है, क्या वह सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम है, तो तुम मूल रूप से उसके सार को देख सकते हो। अगर किसी व्यक्ति का मुँह मीठे लगने वाले शब्दों से भरा है, पर वह कुछ भी वास्तविक नहीं करता—जब कुछ वास्तविक करने का समय आता है तो वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है और दूसरों के बारे में कभी नहीं सोचता—तो यह किस तरह की मानवता है? (स्वार्थता और नीचता की। उसमें कोई मानवता नहीं है।) क्या मानवता से रहित व्यक्ति के लिए सत्य को प्राप्त करना आसान है? यह उसके लिए मुश्किल है। ... ऐसे व्यक्ति की बातों पर बिलकुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वह किस प्रकार का जीवन जीता है, क्या प्रकट करता है, कर्तव्य निभाते समय उसका रवैया कैसा होता है, साथ ही उसकी अंदरूनी दशा कैसी है और उसे क्या पसंद है। अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम परमेश्वर के प्रति निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम परमेश्वर के घर के हितों से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और दौलत के प्रति उसका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वो परमेश्वर के प्रति दर्शाता है, तो क्या इस प्रकार के इंसान में इंसानियत है? यह ऐसा इंसान नहीं है जिसके पास मानवता है। उसका व्यवहार दूसरों के द्वारा और परमेश्वर द्वारा देखा जा सकता है। ऐसे इंसान के लिए सत्य को हासिल करना बहुत कठिन होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना, किसी की इंसानियत का मूल्यांकन करने के लिए. हमें परमेश्वर की आज्ञा और सत्य के प्रति उनका रवैया देखना चाहिए। अच्छी इंसानियत वाले, सत्य से प्रेम कर परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देते हैं। वे परमेश्वर की आज्ञा को जिम्मेदारी से लेते हैं, भरोसेमंद होते हैं, कलीसिया के हितों की रक्षा करते हैं। जिनमें अच्छी इंसानियत नहीं होती वे बहुत स्वार्थी और दुष्ट होते हैं, सिर्फ अपने हितों की सोचते हैं। वे कपटी होते हैं, जैसे-तैसे काम निपटाते हैं, वास्तविक काम नहीं बस बातें करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों को भी अनदेखा करते हैं, अपने फायदे के लिए इसे धोखा दे देते हैं। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में मॉम-डैड के बर्ताव को देखकर पता चला वे उतने अच्छे लोग नहीं थे, जैसा मैं सोचती थी। जैसा कि मेरे डैड ने किया, उन्होंने सतही त्याग किये, काम की जिम्मेदारी उठाने के बजाय लापरवाही की, कड़ी मेहनत से बचते रहे। जब कीमत चुकाने की बारी आती, तो देह सुख की खातिर कई बहाने बनाये, कलीसिया की ज़रूरतों पर ध्यान नहीं दिया। काम में उन्हें निरंतर निगरानी और प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। वे बहुत निष्क्रिय थे। जहां तक मेरी मॉम की बात है, वे अक्सर व्यस्त रहती थीं, कर्तव्य के लिए तकलीफ उठा सकती थीं, लगता था जैसे वे कुछ काम करती हैं, पर वास्तविक नतीजे नहीं मिले, उन्होंने सब दिखावे के लिये किया। वे बहुत व्यस्त लगती थीं, पर बस तत्काल फायदे पाना चाहती थीं, सिर्फ अपने नाम और रुतबे के लिए काम करती थीं। भेंट जैसी अहम चीज़ों को संभालते हुए भी, उनमें परमेश्वर के लिए श्रद्धा नहीं थी, इससे परमेश्वर के घर को काफी नुकसान हुआ। उन्होंने बहुत से काम किये, पर समस्याएं, लापरवाहियां और नुकसान कहीं अधिक थे। जिन चीज़ों में कलीसिया के हित शामिल होते थे तब ये जानकर भी कि वे उस काम के लिए सबसे सही थीं, वो इसे किसी और से करवाने पर जोर देतीं। उन्होंने अहम मामलों में कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं की, वे परमेश्वर के साथ एकचित्त नहीं थीं। मैंने बस यही देखा कि उन्होंने कितने काम किये और कीमत चुकाई, पर उनकी मंशा नहीं देखी, न ही ये कि उन्होंने कुछ हासिल किया भी या नहीं, क्या उन्होंने कोई योगदान दिया या उन्होंने फायदे से ज़्यादा नुकसान किया। मुझे समझ आया, किसी की इंसानियत का मूल्यांकन उसके सतही त्यागों या प्रयासों के बारे में नहीं है, बल्कि इस बारे में है कि क्या उनकी मंशाएं सही हैं, क्या वे सचमुच परमेश्वर के घर के बारे में सोच रहे हैं या अपने नाम और रुतबे के लिए काम कर रहे हैं। अच्छी इंसानियत वाले लोग शायद सत्य न समझ पाएं, पर उनके दिल सच्चे होते हैं, वे अपने ज़मीर के अनुसार चलते हैं। वे परमेश्वर के घर के साथ खड़े होते हैं, उसके हितों की सोचते हैं, इसी वजह से, सचमुच नतीजे हासिल कर पाते हैं। मगर बुरी इंसानियत वाले लोग चाहे कितनी भी तकलीफ और पीड़ा सहें, कितने भी अच्छे वक्ता हों, वे हर काम में लापरवाह होते हैं, परमेश्वर के घर के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ अपने फायदे की सोचते और योजनाएं बनाते हैं। इसी वजह से उनके काम में बहुत सी कमियाँ होती हैं, और वे कुछ हासिल नहीं कर पाते। कभी-कभार अपनी खूबियों या अनुभव से कुछ काम पूरा कर भी पाते हैं, पर लंबे समय में फायदे से अधिक नुकसान होते हैं, क्योंकि उनकी इंसानियत और चरित्र ठीक नहीं होता। वे भरोसेमंद नहीं होते, वास्तविक काम नहीं करते। कहा नहीं जा सकता वे कब परमेश्वर के घर को नुकसान पहुंचा देंगे। ये बात समझ आने पर, मैं मान गई कि मेरे मॉम-डैड में अच्छी इंसानियत नहीं थी।

मैं हमेशा सोचती थी उन्होंने कितना त्याग किया, अच्छी-खासी आराम की जिंदगी छोड़ी, करीब दो दशकों के उतार-चढ़ाव के बीच अपना कर्तव्य निभाया, सत्य का अनुसरण न भी किया, पर कम से कम वे सच्चे विश्वासी और नेक इंसान तो थे। हालांकि, ऐसे बहुत से लोग हैं जो मुश्किलों में डटे दिख सकते हैं, पर उनकी प्रेरणाओं और सार में अंतर हो सकता है। मुझे नहीं पता था इतनी मेहनत के पीछे उनकी प्रेरणा क्या है, क्या उन्होंने वाकई कुछ हासिल किया था। मैंने बस उनके सतही प्रयासों को देखकर सोचा कि वे अच्छी इंसानियत वाले सच्चे विश्वासी हैं। मेरी सोच वाकई सतही और मूर्खतापूर्ण थी। इतने बरसों से विश्वासी होने के नाते, हमने कम्युनिस्ट पार्टी के उत्पीड़न का सामना किया, हमारे परिवारों के बिखरने का दर्द सहा, पर हमने परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद भी उठाया। परमेश्वर हमें बहुत सारे सत्य के साथ हमारे जीवन के लिए ज़रूरी प्रचुर पोषण भी देता है। एक विवेकशील और समझदार इंसान को कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने का भरसक प्रयास करना चाहिए। हालांकि, इतने बरसों की आस्था और ढेर सारा सिद्धांत जानने के बाद भी, मेरे मॉम-डैड ने अपने कर्तव्य के प्रति सबसे बुनियादी जिम्मेदारी भी नहीं निभाई। वे कलीसिया के हितों की रक्षा भी नहीं कर पाये। उनके कामकाज के तरीके को देखें, तो काम से हटाया जाना परमेश्वर की धार्मिकता थी। ये केवल कलीसिया के लिए ही नहीं, बल्कि उनके लिए भी अच्छा था। अगर इस तरह नाकाम होने और ठोकर खाने के बाद वे आत्मचिंतन करके परमेश्वर की ओर मुड़ पाते, कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदल पाते, तो यह उनके लिए उद्धार होता, आस्था के मार्ग में नया मोड़ होता। अगर वे कोई आत्मचिंतन, पश्चाताप या बदलाव किये बिना इसी तरह काम करते रहते, तो पक्के तौर पर उजागर करके हटा जा सकते हैं। मुझे परमेश्वर की ये बात याद आई : "किसी व्‍यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्‍वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। मैं जो समस्याएँ देख रही थी, उनके बारे में सिर्फ बोल सकती थी, उनकी भरसक मदद कर सकती थी, पर वे कौन-सा मार्ग चुनते हैं, उसे लेकर मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए। इसका एहसास होने पर मेरे दिल में थोड़ी रोशनी महसूस हुई। मैंने उनकी चिंता करने और रोने के बजाय समस्या को ठीक से समझा।

फिर मैंने वचनों के ये दो अंश पढ़े : "तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन लोगों को कभी आसान प्रवेश नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरे साथ साँठ-गाँठ करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। इन अंशों को पढ़कर मेरा दिल भर आया। किसे बचाया जा सकता है, ये परमेश्वर इससे तय करता है कि क्या व्यक्ति के पास सत्य है, क्या उसने अपना स्वभाव बदला है। परमेश्वर ने इतने बरसों तक कार्य किया, बहुत से सत्य व्यक्त किये, सत्य में प्रवेश करने और उद्धार पाने के मार्ग पर हमारे लिए विस्तार से और विशेष सहभागिता की। अगर कोई प्रेम करता है और सत्य स्वीकार करता है, तो परमेश्वर का उद्धार पाने की उम्मीद है। हालांकि, अगर कोई बरसों की आस्था के बाद भी सिर्फ सतही त्याग कर सकता है, सत्य पर अमल नहीं कर सकता या अपना स्वभाव नहीं बदल सकता, तो वह सत्य को स्वीकारने के बजाय उससे नफरत करता है। ऐसा इंसान चाहे कितना भी त्याग करे या चाहे कितने ही बरसों तक काम करे, चाहे उसका काम कितना ही अहम क्यों न हो, अगर उसने न सत्य हासिल किया, न स्वभाव बदला, औरअब भी परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करता है, तो वह कलीसिया का काम बिगाड़ रहा है, उसे बचाया नहीं जा सकता। जो बहुत से बुरे कर्म करते हैं उन्हें परमेश्वर दंड देगा, ये परमेश्वर की धार्मिकता से तय होता है। ये देखकर, मुझे और स्पष्ट हो गया कि मेरे मॉम-डैड ऐसी हालत में कैसे पहुंचे। उन्होंने अपना घर छोड़ा, नौकरी छोड़ी, कड़ी मेहनत की, पर वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे। वे अपने काम में लापरवाह और दुराग्रही थे, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के आधार पर आत्मचिंतन नहीं किया। जब भाई-बहनों ने उनकी समस्याएं बताईं, तो उन्होंने बहाने बनाये, हमेशा सोचा कि समस्या दूसरों में है, कि वे बहुत अधिक अपेक्षा रखते थे। इससे पता चला वे सत्य से नफरत करते थे, इसे नहीं स्वीकारते थे, यही वजह थी कि इतने बरसों की आस्था के बाद भी उनका स्वभाव नहीं बदला। दरअसल, वर्षों से विश्वासी होने और बहुत-से काम करने के कारण वे और अधिक अहंकारी हो गये। वे जिस तरह सत्य से पेश आते थे उससे मैंने देखा कि उनका सारा त्याग सत्य और जीवन हासिल करने के लिए नहीं था, बल्कि बेमन से, सिर्फ आशीष पाने के लिए था। जिस तरह पौलुस ने जो किया वो सिर्फ परमेश्वर से लेनदेन था। वो सच्चा विश्वासी नहीं था, जिसने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया हो। मुझे स्पष्ट हो गया कि कोई सत्य का अनुसरण करता हो, अच्छी इंसानियत हो, उसे बचाया जा सकता हो, ये सब सत्य के प्रति उसके रवैये से तय होना चाहिए। उनके सतही योगदान, उन्होंने कितना काम किया, कौन से काम किये, सभी महत्वहीन हैं। कुछ भाई-बहन भले ही कलीसिया में बड़े योगदान न दें, उनके काम मामूली दिखें, पर वे अडिग रहते हैं, काम में पूरा मन लगाते हैं। अगर कोई अपने काम में सत्य खोजने, अपनी भ्रष्टता पर चिंतन करने, अफसोस करने, सत्य पर अमल करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान देता है, तो वह ऐसा इंसान है जो परमेश्वर के घर में अडिग रह सकता है। इस बारे में जितना सोचा उतनी ही परमेश्वर की धार्मिकता दिखी। लोगों के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर का मानक कभी नहीं बदला। बस मैं ही सोचती थी कि उद्धार का किस्मत से कोई संबंध है। मेरा मानना था, परमेश्वर उन लोगों को नहीं छोड़ेगा जिन्होंने बड़े त्याग किये, कड़ी मेहनत की, भले ही उन्होंने कोई योगदान न किया हो। मगर मॉम-डैड के मामले में मैंने परमेश्वर की धार्मिकता देखी। परमेश्वर इंसान को भावनाओं या धारणाओं के आधार पर नहीं आंकता, वह हर इंसान को सत्य के मानकों पर तौलता और देखता है। कलीसिया में अहम भूमिकाएं निभाने वाले लोग भी अपवाद नहीं हैं।

मैंने वचनों के कुछ और अंश पढ़े, जो मेरे लिए प्रबोधक और बेहद सुकून देने वाले थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "एक दिन, जब तुम थोड़ा-बहुत सत्य समझ लोगे, तो तुम यह नहीं सोचोगे कि तुम्हारी माँ सबसे अच्छी इंसान है, या तुम्हारे माता-पिता सबसे अच्छे लोग हैं। तुम महसूस करोगे कि वे भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-जैसे हैं। उन्हें सिर्फ तुम्हारे साथ उनका शारीरिक रक्त-संबंध अलग करता है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो वे भी अविश्वासियों के ही समान हैं। तब तुम उन्हें परिवार के किसी सदस्य के नजरिये से नहीं, या अपने रक्त-संबंध के नजरिये से नहीं, बल्कि सत्य के दृष्टिकोण से देखोगे। तुम्हें किन मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनके विचार, दुनिया पर उनके विचार, मामले सँभालने के बारे में उनके विचार, और सबसे महत्वपूर्ण बात, परमेश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण देखना चाहिए। अगर तुम ये पहलू सही ढंग से देखते हो, तो तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे अच्छे लोग हैं या बुरे। अगर किसी दिन तुम स्पष्ट रूप से देख पाओ कि वे तुम्हारे जैसे ही हैं, कि वे भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग हैं, और इससे भी बढ़कर, वे दयालु लोग नहीं हैं जो तुमसे वास्तविक प्रेम करते हैं, जैसा कि तुम उन्हें समझते हो, और यह कि वे जीवन में तुम्हें सत्य की ओर या सही रास्ते पर ले जाने में एकदम असमर्थ हैं, और अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाओ कि जो कुछ उन्होंने तुम्हारे लिए किया है, वह तुम्हारे लिए बहुत लाभदायक नहीं है, और यह कि जीवन में सही रास्ता अपनाने में तुम्हारे लिए इसके कोई मायने नहीं हैं, और अगर तुम यह भी पाते हो कि उनके कई अभ्यास और मत सत्य के विपरीत हैं, कि वे दैहिक हैं, और इससे तुम्हें उनसे घृणा होती है, और तुम उनके प्रति विरक्ति और तिरस्कार महसूस करते हो, तो इन बातों के मद्देनजर, तुम उनके साथ सही ढंग से व्यवहार कर पाओगे, तब तुम उनकी कमी महसूस नहीं करोगे, उनके बारे में चिंता नहीं करोगे और उनसे अलग होने में कोई परेशानी महसूस नहीं करोगे। उन्होंने माता-पिता के रूप में अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, और अब तुम उन्हें अपने सबसे करीबी लोग नहीं समझोगे और न ही उन्हें अपना आदर्श मानोगे। बल्कि, तुम उन्हें साधारण इंसान समझकर भावनाओं के बंधन से पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे और अपनी भावनाओं और पारिवारिक स्नेह से उबर जाओगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल अपने भ्रष्‍ट स्‍वभाव को दूर करके ही तुम निराशाजनक अवस्‍था से मुक्त हो सकते हो')। "कई लोग बहुत सारे निरर्थक भावनात्मक कष्टों से गुजरते हैं। ये सब फालतू और बेकार के कष्ट हैं। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? चूँकि लोग हमेशा अपनी भावनाओं वशीभूत होते हैं, इसलिए वे सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं कर पाते। अपनी भावनाओं के वशीभूत होना अपने कर्तव्यों की पूर्ति और परमेश्वर के आज्ञापालन के लिए बहुत हानिकारक है, और यह जीवन-प्रवेश के लिए भी एक बड़ी बाधा है। इसलिए, भावनात्मक विवशताओं के कारण होने वाली पीड़ा का कोई अर्थ नहीं है, और परमेश्वर इसे स्मरण नहीं करता। तो तुम इस निरर्थक पीड़ा से कैसे छुटकारा पा सकते हो? तुम्हें सत्य समझना चाहिए। जब तुम इन दैहिक संबंधों का सार देख और समझ लेते हो, तो तुम आसानी से दैहिक विवशताओं से बच जाओगे। ... शैतान लोगों को विवश करने और बाँधने के लिए पारिवारिक स्नेह का उपयोग करता है। अगर लोग सत्य नहीं समझेंगे, तो वे आसानी से धोखा खा जाएँगे। लोग अक्सर अपने माता-पिता और रिश्तेदारों की खातिर कीमत चुकाते और कष्ट उठाते हैं, रोते हैं और पीड़ा सहते हैं। यह अज्ञानता और मूर्खता है। तुम इस तरह से पीड़ित होने को तैयार हो, यह पूरी तरह से स्वयं को सजा देना है, इसका कोई मूल्य नहीं है और यह बेकार में पीड़ा सहना है; इसे परमेश्वर द्वारा बिल्कुल भी स्मरण नहीं किया जाता, और कहा जा सकता है कि यह शुद्ध पीड़ा के अलावा कुछ नहीं है! जिस दिन तुम सत्य समझ जाओगे, तुम मुक्त हो जाओगे, और महसूस करोगे कि तुम अज्ञानी और मूर्ख थे जो तुमने वे कठिनाइयाँ सहीं, और यह किसी और की गलती नहीं थी, बल्कि तुम्हारा अपना अंधापन, अज्ञानता, सत्य की समझ की कमी और इस बात की कमी थी कि तुम मामलों को कैसे देखते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल अपने भ्रष्‍ट स्‍वभाव को दूर करके ही तुम निराशाजनक अवस्‍था से मुक्त हो सकते हो')। इसे पढ़कर मैं बेहद भावुक हो गई। परमेश्वर हमें अच्छे से समझता है! मेरे आंसुओं और बेवजह की पीड़ा का कारण सिर्फ मेरा बहुत भावुक होना और, चीज़ों को न समझना था। पहले, मैं सत्य नहीं समझती थी, मॉम-डैड को नहीं पहचानती थी, सोचती थी वे बहुत महान और सराहनीय हैं, वे मेरे रोल मॉडल थे, मैं उनके जैसी बनना चाहती थी। मैंने सोचा कि वे ऐसे लोग हैं जिन्हें बचाया जा सकता है, पर सत्य और परमेश्वर के वचनों की रोशनी में देखा, तो समझ आया मैं कितनी गलत थी, आखिर में थोड़ा पहचान पाई कि वे असल में किस तरह के लोग थे। मैंने उनमें कई ऐसी चीज़ें देखीं जिनकी सराहना तो दूर मुझे तो नफरत हो गई। मैंने उनकी भक्ति करना, उनका आदर करना छोड़ दिया, अब मैं उनके लिए कष्ट में पड़कर रो नहीं रही थी। मैं उन्हें सही और निष्पक्ष तरीके से देख पाने लगी।

इन हालात से समझ आया, मैं अपनी भावनाओं को बहुत तरजीह देती थी, सांसारिक मोह-माया में जीते हुए यही सोचती थी कि मेरे मॉम-डैड कितनी तकलीफ उठा रहे होंगे, परमेश्वर का घर चीज़ों को कैसे संभालता है, ये स्वीकार नहीं कर पाई। मैं प्रतिरोधी थी, लगता था परमेश्वर धार्मिक नहीं है। फिर समझ आया, क्यों परमेश्वर को मोह-माया से नफरत है। इसलिए कि ये हमें सही-गलत और अच्छे-बुरे के बीच उलझाकर, परमेश्वर से दूर करता है। पहले मैं खुद को नहीं जानती थी। जब भाई-बहन अपने रिश्तेदारों को निकाले या हटाये जाते देखते थे, वे कई दिनों तक रोते रहते थे, ये मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैं सोचती थी अगर मेरे साथ ऐसा हुआ, तो मैं इतनी कमजोर नहीं बनूंगी। हालांकि, वास्तव में उन हालात का सामना होने पर, मैं और भी ज़्यादा कमजोर हो गई, काफी हद तक बिखर गई। मैं सिर्फ रोती ही नहीं थी, बल्कि निराश भी थी, काम पर भी असर पड़ा। मैंने देखा मैं नादान और मूर्ख थी, बिल्कुल नासमझ थी। इस अनुभव से, मुझे उन भाई-बहनों को समझ पाई जो सांसारिक मोह-माया के बंधन से नहीं निकल पाते थे, मुझे अपनी अज्ञानता और घमंड पर शर्म आई। मैंने ये भी जाना कि जो भी जोता है उसमें सत्य खोजने की गुंजाइश होती है। सबक सीखने और विचार करने का मौका हमेशा रहता है। हमें अपने आसपास के हर इंसान और माता-पिता के साथ भी, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुरूप बर्ताव करना चाहिए। तब हम उन्हें स्नेह और कल्पनाओं से नहीं देखेंगे, परमेश्वर विरोधी काम नहीं करेंगे। परमेश्वर का धन्यवाद!

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