मॉम-डैड का असली चेहरा पहचानना

05 अप्रैल, 2022

आलिया, दक्षिण कोरिया

बचपन से ही, परमेश्वर में विश्वास करने के संबंध में मैं अपने मॉम-डैड को अपना आदर्श मानती थी। मुझे लगता था कि वे वाकई अपनी आस्था में बहुत उत्साही और त्याग करने को तैयार थे। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के कुछ समय बाद ही, मेरी मॉम ने अपना कर्तव्य निभाने में पूरा समय देने के लिए अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी। उनमें थोड़ा कौशल और ज्ञान था, और कीमत चुकाने को तैयार थीं, इसलिए कलीसिया में उनके पास हमेशा महत्वपूर्ण कर्तव्य होते थे। बाद में एक यहूदा ने हमारे परिवार के साथ धोखा किया, तब मैं बहुत छोटी थी तो सीसीपी की गिरफ्तारी से बचने के लिए मेरे मॉम-डैड मुझे साथ लेकर छिप गए। फिर भी, मेरे मॉम-डैड अपना कर्तव्य निभाते रहे। इसी के साथ, वे साधारण जीवन जीते थे और उनका व्यवहार धार्मिक और आध्यात्मिक प्रतीत होता था, और अक्सर कलीसिया के सदस्यों से यही सुनने को मिलता कि मेरे मॉम-डैड में अच्छी मानवता है, वे सच्चे विश्वासी और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं। जब मैं 10 साल की थी, पार्टी के उत्पीड़न के कारण मुझे अपने मॉम-डैड से अलग होना पड़ा और भले ही अब हमारे पास एक-दूसरे से मिलने का कोई जरिया नहीं था, मैं हमेशा उनके बारे में बहुत ऊँचा सोचती थी। मैं उनकी बहुत प्रशंसा और सम्मान करती थी; मुझे लगता था कि उनकी आस्था बहुत शानदार है, उनके सभी त्यागों को देखते हुए यही लगता था कि वे सत्य का अनुसरण करते होंगे और उनमें अच्छी मानवता होगी, और परमेश्वर उन्हें अवश्य स्वीकारेगा। मुझे यह भी लगा कि उन्हें बचाया जा सकता था। मुझे अपने मॉम-डैड पर बहुत गर्व था।

बाद में, पार्टी के अत्याचार के कारण हम सब भागकर दूसरे देश चले गए। कुछ समय बाद ही जब मैंने उनसे संपर्क किया तो पता चला कि वे अभी भी विदेश में कर्तव्य निभा रहे थे। खास तौर से जब मुझे पता चला कि मेरी मॉम कई प्रोजेक्ट की सुपरवाइजर थी, तो मैं उनका और अधिक सम्मान करने लगी। मेरे मॉम-डैड इतने सालों से विश्वासी रहे, कितना कुछ अनुभव किया, और अब वे ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे थे। मुझे यकीन था कि वे सत्य का अनुसरण करने वालों में से हैं, उनके पास आध्यात्मिक कद है, तो अब से जब भी मैं किसी प्रकार की मुश्किल या कठिनाई में हुई, तो उनसे मदद माँग सकती हूँ। यह बहुत बढ़िया था।

बाद में, हम कभी-कभी अपनी-अपनी दशाओं के बारे में संगति करने लगे। एक बार, मेरे डैड ने बताया कि वे कोई ऐसा काम कर रहे थे जिसमें उनके हिसाब से किसी तकनीकी कौशल की जरूरत नहीं थी, और वह अपना कर्तव्य बदलना चाहते थे। संजोग से तब मैं भी इसी दशा में जी रही थी, तो हमने एक-दूसरे के साथ संगति की और एक साथ प्रवेश करने के लिए परमेश्वर के कुछ वचनों को साझा किया। समय के साथ, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने से, मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कर्तव्य में बहुत मीनमेख निकाल रही थी, और बस वही कर्तव्य निभाना चाहती थी जिससे मुझे नाम और फायदे मिलते, जब यह सब न मिलने वाला होता तो मैं ढीली पड़ जाती थी। मैं बहुत स्वार्थी और घृणित थी, परमेश्वर के प्रति मेरा हृदय ईमानदार नहीं था। फिर मैंने खुद से नफरत की और उस दशा से बाहर निकलने में कामयाब रही। मगर मेरे डैड इसी दशा में उलझे रहे, और उन्हें अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा नहीं मिल पाई। मैं उलझन में थी। क्योंकि वे करीब एक दशक से विश्वासी रहे हैं, उनके पास कुछ आध्यात्मिक कद होना चाहिए, तो फिर वे अपने कर्तव्य में मीनमेख निकालने की इस समस्या को हल क्यों नहीं कर पाए? मुझे यह भी एहसास हुआ कि अक्सर जब मैं अपने मॉम-डैड से अपनी परेशानियों और समस्याओं के बारे में बात करती थी, तो भले ही वे मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेज देते और चीजों के बारे में अपने दृष्टिकोण पर संगति करते थे, मगर उनकी बातों से मेरी समस्याएँ वास्तव में कभी हल नहीं होती थीं। मुझे थोड़ा-थोड़ा लगने लगा कि वे वास्तव में सत्य नहीं समझते जैसा कि मैं सोचती थी। बाद में, सभी भाई-बहनें परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने अनुभव पर निबंध लिखने लगे। मुझे लगा कि लंबे समय से विश्वासी होने के नाते, मेरे मॉम-डैड के पास बहुत-से अनुभव होंगे, खास कर मेरी मॉम के पास तो जरूर होंगे। एक मसीह-विरोधी ने उनका दमन किया था और उन्हें गलती से कलीसिया से निकाल दिया गया था, मगर उनसे जहाँ तक बन पड़ा वे सुसमाचार फैलाती रहीं। कलीसिया में वापस लिए जाने के बाद, उन्हें जो कर्तव्य मिलता उसे पूरी शिद्दत से निभाती थी। उन्होंने कई बार बर्खास्त होने और दोबारा नियुक्त किए जाने का भी अनुभव किया था, तो उनके पास बहुत सारे अनुभव होने चाहिए। मैंने सोचा कि उन्हें परमेश्वर की गवाही देने के लिए जल्द-से-जल्द इन अनुभवों के बारे में लिखना चाहिए। तो मैं अपनी मॉम से जल्दी एक निबंध लिखने की जिद करने लगी, मगर वे इसे नजरंदाज करती रहीं, कहने लगीं कि वे लिखना तो चाहती हैं, मगर अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त होने के कारण वे अभी अपने मन को शांत नहीं कर पा रही हैं। मैं उनसे आग्रह करती रही, पर उन्होंने कभी कुछ भी नहीं लिखा। एक बार, उन्होंने मुझसे कहा कि वे एक निबंध लिखना चाहती हैं, मगर अपने विचारों को व्यवस्थित नहीं कर पा रहीं और नहीं जानती कि शुरुआत कहाँ से करें, तो वे इस बारे में मेरे साथ चर्चा करना चाहती थीं। मुझे बड़ी खुशी हुई। मैं वाकई उनके इतने सालों के अनुभवों के बारे में सुनना चाहती थी। मगर मुझे बहुत हैरानी हुई जब अपने साथ हुई सभी चीजों और अपनी भ्रष्टता के बारे में बात करने के बाद, उन्होंने अपनी वास्तविक समझ के बारे में कोई बात नहीं की, बल्कि खुद को सीमित करते हुए बहुत-सी नकारात्मक बातें कहीं। ऐसा लगा जैसे अपने पिछले कुछ अनुभवों को याद करना उनके लिए बेहद दर्दनाक था, मानो कि उन्होंने बस इसलिए समर्पण किया क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा न था। उन्होंने इस अनुभव से मिली किसी भी वास्तविक सीख के बारे में बात नहीं की। हमारी बातचीत के बाद मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने सोचा था कि अगर उन्हें वाकई इससे कोई समझ या लाभ मिला होता, तो भले ही उस समय अनुभव कितना भी दर्दनाक या नकारात्मक रहा हो, अगर वह परमेश्वर के वचनों को खाती-पीती, सत्य खोजती, परमेश्वर की इच्छा को समझती, और अपने और परमेश्वर के बारे में सच्चा ज्ञान प्राप्त कर पाती, तो आखिर में उन्हें अच्छा अनुभव मिलता और थोड़ी खुशी भी होती। मगर अपने पिछले अनुभवों के बारे में बात करते हुए, वह अभी भी बहुत दुखी और नकारात्मक लग रही थी, और ऐसा लग रहा था कि अपने बारे में उनकी समझ बहुत भावुक और अव्यवहारिक थी। क्या इसका मतलब यह था कि उनके पास वास्तविक अनुभव नहीं था? अचानक मेरे मन में यह बात आई—शायद इसी वजह से वे परमेश्वर की गवाही देने वाला निबंध लिखने में इतना हिचकिचा रही थी। समय न होने वाली बात तो एक बहाना मात्र थी। असलियत यह थी कि उन्होंने सत्य हासिल नहीं किया था या कोई वास्तविक लाभ नहीं पाया था, इसलिए वे अनुभवात्मक गवाही नहीं लिख सकीं। जहाँ तक मेरे डैड का सवाल है, भले ही वे निबंध लिखने का अभ्यास करना चाहते थे, उनकी कोशिशें छोटी-मोटी बातों से भरी थीं, और इसमें उनके सच्चे आत्म-ज्ञान या अपने अनुभवों से उन्होंने क्या हासिल किया, इसके बारे में ज्यादा कुछ भी नहीं था। यह उनकी इतने बरसों की आस्था से मेल खाता प्रतीत नहीं हुआ। मुझे परमेश्वर की यह बात याद आई : “तुम्हारा बचाया जाना इस बात पर निर्भर नहीं है कि तुम कितने वरिष्ठ हो या तुम कितने साल से काम कर रहे हो, और इस बात पर तो बिल्कुल भी निर्भर नहीं है कि तुमने कितनी साख बना ली है। बल्कि इस बात पर निर्भर है कि क्या तुम्हारा लक्ष्य फलीभूत हुआ है। तुम्हें यह जानना चाहिए कि जिन्हें बचाया जाता है वे ऐसे ‘वृक्ष’ होते हैं जिन पर फल लगते हैं, ऐसे वृक्ष नहीं जो हरी-भरी पत्तियों और फूलों से तो लदे होते हैं, लेकिन जिन पर फल नहीं आते। अगर तुम बरसों तक भी गलियों की खाक छानते रहे हो, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारी गवाही कहाँ है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (7))। यह मेरे लिए जागने की घंटी थी। यह सच है। चाहे किसी को परमेश्वर में विश्वास करते हुए कितना भी समय हुआ हो, उसने कितना भी काम किया हो या उसके पास कितना भी अनुभव हो, अगर उसने इससे कोई वास्तविक लाभ नहीं पाया, कोई सत्य हासिल नहीं किया और वह गवाही देने में सक्षम नहीं है, तो इसका मतलब है कि उसके पास जीवन नहीं है। ऐसा व्यक्ति अगर बिल्कुल अंत तक विश्वासी बना रहे तो भी उसे नहीं बचाया जा सकता। यह एहसास होने पर मैंने जो महसूस किया उसे शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती। “सत्य समझने वाले” और “आध्यात्मिक कद वाले” लोगों के रूप में मेरे मन में मॉम-डैड की जो छवि थी वह पहली बार टूटकर बिखर गई। मुझे कुछ समझ नहीं आया। उनकी इतने बरसों की आस्था और इतने सारे त्यागों के बाद भी, वे सत्य हासिल क्यों नहीं कर पाए थे? अकेले में, मैं फूट-फूटकर रोने लगी। इसके बाद भले ही मैं अब पहले की तरह उनकी सराहना नहीं करती थी, फिर भी सोचती थी कि चाहे कुछ भी हो, इतने बरसों के त्याग के बाद, कम से कम इसका मतलब यह तो जरूर था कि उनमें अच्छी मानवता थी और वे सच्चे विश्वासी थे। अगर वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाएँ और अभी से सत्य खोजना शुरू करें, तो उन्हें अभी भी बचाया जा सकता है। मगर फिर कुछ ऐसी चीजें घटीं जिनकी वजह से उनके प्रति मेरा नजरिया फिर से बदल गया।

एक दिन, मुझे पता चला कि हमेशा लापरवाही बरतने, मुश्किल कामों से जी चुराने, और अच्छे परिणाम हासिल नहीं कर पाने के कारण मेरे डैड को बर्खास्त कर दिया गया था। इसके कुछ ही समय बाद, मुझे पता चला कि मेरी मॉम को भी बुरी मानवता होने, कलीसिया के हितों की रक्षा न करने, खास तौर से अहंकारी स्वभाव रखने और अपने कर्तव्य में सकारात्मक भूमिका नहीं निभाने के कारण बर्खास्त कर दिया गया था। उस वक्त मैं हैरान थी और इस पर विश्वास ही नहीं कर पा रही थी, मैंने मन-ही-मन सोचा, “ऐसा कैसे हो सकता है? क्या कोई कर्तव्य नहीं निभा पाना मूल रूप से उजागर करके निष्काषित किए जाने के समान नहीं है? क्या उनमें बुरी मानवता है? जो कोई भी मेरे मॉम-डैड को पहले से जानता था, वह हमेशा यही कहता था कि उनमें बहुत अच्छी मानवता थी; वरना, वे इतना सारा त्याग कैसे कर पाते?” मैं वाकई पशोपेश में थी, सभी प्रकार की चिंताएँ और शंकाएँ सामने आ रही थीं। मुझे उनकी चिंता हुई कि वे कैसे होंगे, क्या उन्हें कष्ट और पीड़ा हो रही होगी। मैं इस बारे में जितना सोचती, उतनी ही ज्यादा उदास और दुखी महसूस करती थी। भले ही मुझे पता था कि कलीसिया ने सिद्धांतों के आधार पर इसकी व्यवस्था की होगी, और यह उचित था, पर मैं इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी, मन-ही-मन सोचती, “मेरे मॉम-डैड ने इतने बरसों से परमेश्वर में विश्वास किया है, कितना कुछ सहा है, सीसीपी के उत्पीड़न के कारण उन्हें छिपकर रहना पड़ा, और मेरे बचपन से ही हम सब साथ रहने के बजाय एक-दूसरे से अलग ज्यादा रहे हैं। मुझे बहुत अधिक आशा थी कि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के बाद हम उसके राज्य में फिर से एकजुट हो सकेंगे। मगर अब...। इतने बरसों तक कठिनाइयों से गुजरने और इतना सारा काम करने के बाद, उन्हें इतनी आसानी से कैसे बर्खास्त किया जा सकता है?” मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही दुखी होती थी, और मैं फिर से रो पड़ी। उन कुछ दिनों में, मैं बस आहें भरती रही और मुझमें अपना कर्तव्य निभाने के बिल्कुल भी प्रेरणा नहीं थी। जब भी मैं इस मामले के बारे में सोचती, तो मुझे बड़ी बेचैनी होती और मेरी सारी ऊर्जा खत्म हो जाती थी। ऐसा लगा जैसे मैंने अचानक ही अनुसरण करने की सारी प्रेरणा खो दी हो। मुझे पता था कि मेरी दशा ठीक नहीं थी, और मैं खुद को यही तर्क देती रही, “मॉम-डैड की बर्खास्तगी उचित रही होगी, परमेश्वर धार्मिक है।” मगर मेरा दिल इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था और मैं परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश करती रही, सोचा कि, “ऐसे भाई-बहनें भी हैं जिन्होंने कलीसिया के कार्य में कोई वास्तविक योगदान नहीं दिया या कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं निभाया है, और वे अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, तो फिर मेरे मॉम-डैड को क्यों बर्खास्त कर दिया गया? उनमें जो भी समस्याएँ थीं, भले ही उन्होंने इतने बरसों में कुछ भी हासिल नहीं किया था, फिर भी उन्होंने कड़ी मेहनत की, तो क्या उनके सारे कष्टों और कामों को देखते हुए, किया उन्हें एक और मौका नहीं दिया जा सकता?” मैं जानती थी कि मेरी यह दशा गलत थी, मगर मेरा दिल झुकने को तैयार नहीं था, और मुझमें सत्य खोजने की कोई प्रेरणा नहीं थी। तो मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बहुत पीड़ा में हूँ। मुझे प्रबुद्ध बनाओ और मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझ सकूँ।”

मैं एक बहन से पूछने गई कि अपनी दशा को कैसे ठीक करूँ, और यह सब बताते हुए मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई। उसने मेरे साथ संगति की, “तुम्हारे मॉम-डैड को बर्खास्त किया है, मगर उन्हें हटाया या निकाला नहीं गया है। तुम इतनी बेचैन क्यों हो? तुम्हें देखना चाहिए कि इसमें परमेश्वर का प्रेम छिपा है। परमेश्वर उन्हें पश्चात्ताप का एक मौका दे रहा है।” उसकी बात सुनकर मेरी आँखें खुल गईं। यह सच था। परमेश्वर ने यह कभी नहीं कहा कि बर्खास्तगी का मतलब उजागर करके बाहर निकाल दिया जाना है। बहुत-से भाई-बहन बर्खास्त किए जाने के बाद ही चिंतन करना, पछताना, सच्चा पश्चात्ताप करना और बदलाव लाना शुरू करते हैं। उसके बाद, वे फिर से कलीसिया में कर्तव्य संभालते हैं। वैसी भी, कर्तव्य निभाना इस बात की गारंटी नहीं है कि तुम्हें बचाया जा सकता है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो भी परमेश्वर तुम्हें निकाल सकता है। वास्तव में, मेरे मॉम-डैड को बर्खास्त करके परमेश्वर उन्हें चिंतन-मनन और पश्चात्ताप करने का एक मौका दे रहा था, मगर मैं यह सोच बैठी थी कि बर्खास्त किया जाना उजागर होने और बाहर निकाले जाने के समान है। यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं है! जब मैंने इस तरह से सोचा तो मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ, मगर अभी भी जब इस बारे में सोचती तो बहुत बेचैन हो जाती। मुझे यही लगता रहता था कि कलीसिया ने उनके प्रति बहुत सख्ती दिखाई।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जितनी अधिक तुममें किसी मामले में समझ की कमी हो, उतना ही अधिक तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला और पवित्र हृदय होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और सत्य का पता लगाने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना चाहिए। जब तुम चीजों को नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। जब तुम्हारे सामने ऐसी चीजें आती हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर से यह कहने की आवश्यकता होती है कि वह तुम पर अधिक कार्य करे। ये परमेश्वर के अच्छे इरादे हैं। जितना अधिक तुम परमेश्वर के सामने आते हो, उतना ही अधिक तुम्हारा दिल परमेश्वर के करीब होगा। और क्या यह सच नहीं कि तुम्हारा दिल परमेश्वर के जितना करीब होता है, उतना ही अधिक परमेश्वर उसके भीतर रहेगा? जितना अधिक परमेश्वर व्यक्ति के दिल में रहता है, उतना ही बेहतर उसका अनुसरण, उसके चलने का मार्ग और उसके हृदय की अवस्था बनती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं थोड़ी शांत हुई। परमेश्वर कहता है कि तुम्हें जिस चीज की जितनी कम समझ है, उतना ही अधिक तुम्हें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल से सत्य खोजना चाहिए। सिर्फ इसी तरह तुम्हारी दशा बेहतर हो सकती है। अपने मॉम-डैड की बर्खास्तगी के बारे में सोचूँ, तो मैं सैद्धांतिक तौर पर जानती थी कि ऐसा करना कलीसिया के लिए उपयुक्त रहा होगा और मुझे इसकी शिकायत या आलोचना नहीं करनी चाहिए, और मैं इस पर ध्यान नहीं देने की कोशिश कर रही थी, मगर मैंने अभी तक परमेश्वर को लेकर अपनी गलतफहमी और उससे दूर जाने की समस्या का समाधान नहीं किया था। जब भी इस बारे में सोचती, तो मुझे अभी भी बहुत दुःख और दर्द होता था। उस वक्त, मुझे एहसास हुआ कि जब हमारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जिसे हम नहीं समझते हैं या समझ नहीं पाते हैं, तो हमें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए, न कि नियमों से बंधे रहकर खुद को नियंत्रित करना, और चीजों को धुंधलके में होने देना चाहिए—समस्याएँ इस तरह से हल नहीं हो सकतीं। वास्तव में, मैं अपने मॉम-डैड को अच्छे से नहीं जानती थी। मैंने उन्हें बस बाहरी तौर पर त्याग करते और खुद को खपाते हुए देखा था, और दूसरों को उनके बारे में अच्छी बातें कहते सुना था, मगर यह सब वास्तव में संकीर्ण और एकतरफा था। मुझे उन भाई-बहनों से उनके बारे में और अधिक सुनना चाहिए जिनके साथ वे हाल ही में संपर्क में रहे हैं, न कि सिर्फ अपनी भावनाओं पर भरोसा करना चाहिए। मैंने अपने मॉम-डैड के कर्तव्यों के दौरान उनके व्यवहार की बारीकियों पर गौर करना शुरू किया। मैंने उनके निबंध और उनके बारे में दूसरों के मूल्यांकन पढ़े। उनसे पता चला कि मेरे डैड अपने कर्तव्यों में लापरवाह थे और कोई भी मुश्किल काम करने से कतराते थे, और वे ऐसी किसी भी चीज में अधिक मेहनत नहीं करना चाहते थे जिसमें शारीरिक कष्ट शामिल हो, और भले ही उनके पास कौशल था, वे अपने कर्तव्य में हमेशा निष्क्रिय रहते थे और उन्होंने ज्यादा कुछ भी हासिल नहीं किया। उन्हें कई बार बर्खास्त और स्थानांतरित किया गया था, मगर उन्होंने ऐसा कोई भी कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया जिसके लिए उसे स्थानांतरित किया गया था। बाद में जब उन्होंने सुसमाचार का प्रचार किया, तब भी वे अपने काम में लापरवाह थे और कड़ी मेहनत करने से कतराते थे। सुपरवाइजर अगर निगरानी न करे तो वे कुछ भी नहीं करते थे। जब भाई-बहनों ने उनके कर्तव्य में समस्याएँ बताईं, तो उन्होंने आत्मचिंतन नहीं किया और हमेशा बहाने बनाते रहे, कहा कि वे बूढ़े हो रहे हैं और उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ हैं, यह कर्तव्य उनकी क्षमताओं के अनुरूप नहीं है, तो समस्याएँ होना सामान्य बात थी, और बाकी लोग उनसे ज्यादा ही उम्मीदें लगा बैठे थे। इसी वजह से, जब उनके कर्तव्य में अच्छे परिणाम नहीं मिले तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। और भले ही मेरी मॉम बहुत ऊर्जावान लगती थीं और अपने कर्तव्य में कीमत चुका सकती थीं, मगर वे केवल सतही काम करती थीं और ज्यादातर समय बिना बस जैसे-तैसे काम निपटाती थीं। उन्होंने व्यावहारिक कार्य नहीं किया और कार्य की प्रगति में देरी की। भले ही उन्होंने बहुत सारा काम किया, पर उनमें कई समस्याएँ थीं, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को बहुत नुकसान पहुँचा। इसके अलावा, वे हमेशा अपना भला सोचती और कलीसिया के हितों के बजाय अपने हितों की रक्षा करती थीं। उदाहरण के लिए, कुछ चीजों को तुरंत निपटाना जरूरी था, और इसके लिए अगर वह खुद जातीं तो बेहतर होता, मगर वे दूसरों को नाराज करने के डर से किसी और को भेज देती थीं, जिससे कलीसिया का कार्य रुक जाता था। भाई-बहनों ने यह भी कहा कि वे बड़ी अहंकारी स्वभाव की और बड़ी जिद्दी थीं। वे अपने अनुभव की आड़ में दूसरों के साथ चीजों पर चर्चा किए बिना बस अपनी मनमानी करती थीं। वे दूसरों के सुझावों को स्वीकारने में भी असमर्थ थीं, अपने काम पर अधिकार जमाती थीं, उनमें पारदर्शिता की कमी थी, और भाई-बहनों को उनके बहुत-से कार्यों की बारीकियों के बारे में पता नहीं होता था। और जब भी कोई कुछ ऐसा करता जो उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होता, तो वे गुस्से में आकर उन्हें डांटती थीं, जिससे वे उनके आगे बेबस महसूस करते थे। एक भाई तो इतना बेबस हो गया था कि उसने उनसे बोल ही दिया, “बहन, मुझमें काबिलियत नहीं है। मेरे साथ काम करना तुम्हारे लिए कष्टकारी रहा होगा, मुझे माफ कर दो!” और कुछ दूसरे लोगों ने कहा : “अगर मेरे कर्तव्य की बात न होती, तो मैं कभी भी ऐसी इंसान के साथ बातचीत नहीं करना चाहता।” जब दूसरे लोग उनकी समस्याएँ बताते तो वे उन्हें स्वीकार नहीं करती थीं। वे उस बहन के प्रति भी बड़ी पक्षपाती और प्रतिरोधी थीं जो उनके काम पर नजर रखती थीं। वे हमेशा यही सोचती थीं कि दूसरे लोग उसका जीवन कठिन बना रहे हैं और वे उनके साथ सही तरह से पेश नहीं आ सकते। ये सारे मूल्यांकन पढ़कर मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैं यह मानने को तैयार ही नहीं थी कि मेरे मॉम-डैड वाकई ऐसे इंसान थे।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों में इसे पढ़ा : “अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और निकृष्ट होते हैं।) स्वार्थी और निकृष्ट लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। “जब किसी व्यक्ति में अच्छी मानवता, एक सच्चा दिल, अंतःकरण और विवेक होता है, तो ये कोई खोखली या अस्पष्ट चीजें नहीं होतीं, जिन्हें देखा या छुआ न जा सके, बल्कि ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें दैनिक जीवन में कहीं भी खोजा जा सकता है, ये सभी वास्तविक चीजें हैं। मान लो, कोई व्यक्ति महान और परिपूर्ण है : क्या तुम ऐसा कुछ देख सकते हो? तुम यह देख, छू या कल्पना भी नहीं कर सकते कि परिपूर्ण या महान होना क्या होता है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि कोई स्वार्थी है, तो क्या तुम उस व्यक्ति के कृत्य देख सकते हो—और क्या वह वर्णन से मेल खाता है? अगर किसी व्यक्ति को ईमानदार और सच्चे दिल वाला कहा जाता है, तो क्या तुम इस व्यवहार को देख सकते हो? अगर किसी को धोखेबाज, कुटिल और नीच कहा जाता है, तो क्या तुम इन चीजों को देख सकते हो? अगर तुम अपनी आँखें भी बंद कर लो, तब भी तुम उसकी कथनी-करनी से यह समझ सकते हो कि उस व्यक्ति की मानवता सामान्य है या घृणित। इसलिए ‘अच्छी या बुरी मानवता’ कोई खोखला वाक्यांश नहीं है। उदाहरण के लिए, स्वार्थपरता और नीचता, कुटिलता और छल, अहंकार और आत्म-तुष्टि वे सब चीजें हैं, जिन्हें तुम जीवन में किसी व्यक्ति के संपर्क में आने पर समझ सकते हो; ये मानवता के नकारात्मक तत्त्व हैं। इसी तरह, क्या मानवता के वे सकारात्मक तत्व, जो लोगों में होने चाहिए—जैसे कि ईमानदारी और सत्य से प्रेम—दैनिक जीवन में महसूस किए जा सकते हैं? किसी के पास पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता है या नहीं; वह परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है या नहीं; पवित्र आत्मा ने उस पर कार्य किया है या नहीं—क्या तुम इन चीजों को देख सकते हो? क्या तुम इन सबको परख सकते हो? वे कौन-सी स्थितियाँ हैं, जो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करने, परमेश्वर का मार्गदर्शन हासिल करने, और सभी चीजों में सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए व्यक्ति में होनी चाहिए? उसके पास ईमानदार दिल होना चाहिए, उसे सत्य से प्रेम करना चाहिए, सभी चीजों में सत्य की तलाश करनी चाहिए, और सत्य समझने के बाद उस पर अमल करने में सक्षम होना चाहिए। इन स्थितियों के होने का अर्थ है पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता का होना, परमेश्वर के वचन समझने और सत्य को आसानी से अभ्यास में लाने में सक्षम होना। यदि कोई व्यक्ति ईमानदार नहीं है और अपने हृदय में सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, और अगर तुम उसके साथ सत्य पर संगति करते भी हो, तो उससे कुछ हासिल नहीं होगा। तुम कैसे बता सकते हो कि कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं? तुम्हें केवल इतना ही नहीं देखना चाहिए कि वह झूठ बोलता और धोखा देता है या नहीं, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम है या नहीं। यही सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर का घर हमेशा लोगों को निकालता रहा है, और अब तक बहुतों को पहले ही निकाला जा चुका है। वे लोग ईमानदार नहीं थे, वे सब धोखेबाज थे। उन्हें अधार्मिक चीजों से प्रेम था, सत्य से वे बिलकुल भी प्रेम नहीं करते थे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए उन्हें चाहे कितने भी वर्ष हो गए हों, वे सत्य नहीं समझ सके या वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाए। ऐसे लोग वास्तविक बदलाव कर पाने में तो बिलकुल भी सक्षम नहीं थे। इसलिए उनका निकाला जाना अपरिहार्य था। जब तुम किसी व्यक्ति के संपर्क में आते हो, तो सबसे पहले क्या देखते हो? देखो कि क्या वह अपनी कथनी-करनी में ईमानदार है, क्या वह सत्य से प्रेम करता है और क्या वह सत्य को स्वीकार सकता है। ये महत्वपूर्ण हैं। अगर तुम यह निर्धारित कर पाओ कि कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं, वह सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम है या नहीं, तो तुम मूल रूप से उसके सार को देख सकते हो। अगर कोई व्यक्ति बेहद चिकनी-चुपड़ी बातें करता है, पर कुछ भी वास्तविक नहीं करता—जब कुछ वास्तविक करने का समय आता है तो वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है और दूसरों के बारे में कभी नहीं सोचता—तो यह किस तरह की मानवता है? (स्वार्थता और नीचता की। उसमें कोई मानवता नहीं है।) क्या मानवता से रहित व्यक्ति के लिए सत्य को प्राप्त करना आसान है? यह उसके लिए मुश्किल है। ... ऐसे व्यक्तियों की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वे किसके अनुसार जीते हैं, क्या प्रकट करते हैं, और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कैसा होता है, साथ ही उनकी अंदरूनी दशा कैसी है और उन्हें किससे प्रेम है। अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के घर के हितों से बढ़कर है, या अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वे परमेश्वर के प्रति दर्शाते हैं, तो क्या ऐसे लोगों में मानवता है? वे मानवता वाले लोग नहीं हैं। उनका व्यवहार दूसरों के द्वारा और परमेश्वर द्वारा देखा जा सकता है। ऐसे लोगों के लिए सत्य को हासिल करना बहुत कठिन होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि यह समझने के लिए कि किसी की मानवता अच्छी है या बुरी, हमें उसके कर्तव्य और सत्य के प्रति उसके दृष्टिकोण को देखना होगा। अच्छी मानवता वाले लोग सत्य से प्रेम करते हैं और अपने कर्तव्य में परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखते हैं। वे अपने कर्तव्य को जिम्मेदारी से निभाते हैं, भरोसेमंद होते हैं और कलीसिया के हितों की रक्षा करते हैं। बुरी मानवता वाले लोग बहुत स्वार्थी और नीच होते हैं, और सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते हैं। वे अपने कर्तव्य में लापरवाही करते हैं, वे जी चुराने की कोशिश करते हैं, और वास्तविक कार्य करने के बजाय सिर्फ बातें बनाना जानते हैं। वे अपने हितों की रक्षा करने की खातिर कलीसिया के हितों की उपेक्षा भी कर सकते हैं या उनसे दगा भी कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने मॉम-डैड के व्यवहार को देखते हुए, मैंने जाना कि वे वास्तव में अच्छी मानवता वाले लोग नहीं थे, जैसा कि मैंने सोचा था। जैसे कि मेरे डैड—भले ही उन्होंने कुछ सतही त्याग किए, मगर अपने कर्तव्य में कभी कोई बोझ नहीं उठाया, बल्कि वे लापरवाही बरतते और कड़ी मेहनत करने से कतराते थे। जब कीमत चुकाने की बारी आती, तो वे अपने देह-सुख के लिए बहुत सारे बहाने बनाते, और कलीसिया की जरूरतों के बारे में नहीं सोचते थे। अपने कर्तव्य में उन्हें निरंतर निरीक्षण और आग्रह की जरूरत होती थी। वे वाकई बहुत निष्क्रिय थे। जहाँ तक मेरी मॉम का सवाल है, भले ही वे हमेशा व्यस्त रहती थीं, अपने कर्तव्य में कष्ट सह सकती और कीमत चुका सकती थी, और ऐसा लगता था कि उन्होंने कुछ काम किया है, मगर उनके कर्तव्यों से कभी कोई वास्तविक परिणाम नहीं मिले, और उन्होंने यह सब बस दिखावे के लिए किया था। ऐसा लगता था कि वे काफी व्यस्त हैं और दक्षता पर ध्यान देती हैं, मगर वास्तव में वे तुरंत लाभ पाना चाहती थीं और यह सब सिर्फ उनके नाम और रुतबे के लिए था। वे परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ काम नहीं करती थीं, जिससे कलीसिया के हितों को काफी नुकसान पहुँचा। कलीसिया के हितों से जुड़ी चीजों में, वे जानती थीं कि वे इस काम के लिए सबसे उपयुक्त इंसान हैं, फिर भी अपना काम दूसरों पर थोप देती थीं। मैंने यह भी देखा कि उन्होंने अहम मामलों में कलीसिया के हितों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की, और वे परमेश्वर के साथ एक मन नहीं थीं। मैंने बस यही देखा कि उन्होंने कई सारे कार्य किए और बड़ी कीमत चुकाई थी, मगर मैंने यह नहीं देखा कि इस कीमत को चुकाने में उनकी मंशाएँ क्या थीं या क्या इन कार्यों को करने में उन्हें कुछ हासिल हुआ, क्या उन्होंने वास्तव में कलीसिया में कुछ योगदान दिया, या क्या उन्होंने वाकई फायदे से ज्यादा कलीसिया का नुकसान किया। आखिरकार मैंने देखा कि किसी की मानवता अच्छी है या बुरी, इसका मूल्यांकन इस बात से नहीं किया जा सकता कि उसने कितने त्याग या कितनी कोशिशें की हैं, बल्कि इससे ज्यादा जरूरी यह है कि क्या उसकी मंशाएँ सही हैं, क्या वे कलीसिया के कार्य के बारे में ईमानदारी से सोच रहे हैं या फिर बस अपने नाम और रुतबे के लिए काम कर रहे हैं। वास्तव में अच्छी मानवता वाले लोग शायद सत्य न समझें, पर उनके दिल ईमानदार होते हैं और वे अपनी अंतरात्मा के अनुसार चलते हैं। उनका दिल परमेश्वर के घर के साथ एक होता है और कोई समस्या होने पर वे कलीसिया के हितों की रक्षा करने में सक्षम होते हैं ताकि अच्छे परिणाम पा सकें। मगर जहाँ तक बुरी मानवता वाले लोगों का सवाल है, चाहे वे कितना भी कष्ट सहते और परिश्रम करते हुए दिखाई दें, या वे कितना भी अच्छा बोलें, वास्तव में, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें लापरवाही बरतते हैं, कलीसिया के हितों के बारे में ईमानदारी से सोचे बिना वे सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते और वैसी ही योजनाएँ बनाते हैं, इसलिए वे अपने काम में बहुत सारी गलतियाँ करते हैं और कुछ भी वास्तविक हासिल नहीं कर पाते। ऐसा हो सकता है कि वे अस्थायी रूप से अपने गुणों या अनुभव पर भरोसा करके कुछ काम कर सकें, मगर लंबे समय में, ऐसे व्यक्ति का उपयोग करने से होने वाले नुकसान उनसे मिलने वाले फायदों की तुलना में कहीं ज्यादा होते हैं, क्योंकि उनकी मानवता और चरित्र घटिया है। वे भरोसेमंद नहीं हैं और वास्तविक काम नहीं करते हैं। कोई नहीं कह सकता कि वे कब कलीसिया को भारी नुकसान पहुँचा देंगे। इसका एहसास होने पर, मुझे पूरा यकीन हो गया कि मेरे मॉम-डैड में अच्छी मानवता की कमी है।

मैं हमेशा यही सोचती थी कि उन्होंने अपनी आस्था में कितना कुछ त्याग दिया, एक आरामदायक जीवन त्यागकर करीब दो दशकों की चुनौतियों का सामना करते हुए अपना कर्तव्य निभाया, और भले ही उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, फिर भी वे कम से कम सच्चे विश्वासी थे जिनके पास अच्छी मानवता थी। मगर वास्तव में, ऐसे कई लोग हैं जो कठिनाई झेलने का दिखावा कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करने में हर एक व्यक्ति की प्रेरणा और सार अलग-अलग हो सकते हैं। मैंने यह नहीं देखा कि उनके कष्ट सहने और खुद को खपाने के पीछे उनका इरादा क्या था या क्या उन्होंने वास्तव में अपने कर्तव्य में कुछ हासिल किया था। मैंने बस उनके सतही त्यागों और प्रयासों को देखा और उन्हें अच्छी मानवता वाले सच्चे विश्वासी मान लिया। मेरे दृष्टिकोण बहुत सतही और मूर्खतापूर्ण थे! इतने बरसों तक विश्वासी रहकर, भले ही हमने कम्युनिस्ट पार्टी का उत्पीड़न और हमारे परिवारों के टूटने का दर्द सहा है, मगर हमने परमेश्वर के अनुग्रह का भरपूर आनंद भी लिया है। परमेश्वर न सिर्फ हमें बहुत सारे सत्य बताता है, बल्कि वह हमें जीवन जीने के लिए जरूरी ढेर सारा पोषण भी देता है। जिस व्यक्ति के पास भी अंतरात्मा और विवेक है उसे अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए। मगर इतने बरसों तक आस्था रखने और इतने सारे सिद्धांत समझने के बाद भी, मेरे मॉम-डैड के पास अभी भी अपने कर्तव्यों के बोझ या जिम्मेदारी की सबसे बुनियादी भावना तक नहीं थी जो उनमें होनी चाहिए थी। उन्होंने कलीसिया के हितों की भी रक्षा नहीं की। उन्होंने जैसा बर्ताव किया उसके आधार पर, कलीसिया का उन्हें बर्खास्त करना पूरी तरह से परमेश्वर की धार्मिकता थी! उनके साथ इस तरह से निपटना न सिर्फ कलीसिया के कार्य के लिए, बल्कि यह उनके लिए भी अच्छा था। अगर इस तरह से ठोकर खाने और असफल होने से उन्हें आत्मचिंतन करने, खुद को जानने और परमेश्वर की ओर मुड़ने, और अपने कर्तव्यों के प्रति अपना रवैया बदलने में मदद मिल सकती है, तो यह उनके लिए उद्धार और उनकी आस्था के मार्ग में एक महत्वपूर्ण मोड़ होगा। अगर वे बिना किसी आत्म-चिंतन, पश्चात्ताप या बदलाव के, वैसे ही कार्य करते रहे जैसे करते थे, तो उन्हें वास्तव में उजागर करके बाहर निकाला जा सकता है। मैंने परमेश्वर की कही इस बात के बारे में सोचा : “किसी व्‍यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। उस वक्त, मैं बस उन समस्याओं के बारे में उन्हें बता सकती थी जो मैंने उनमें देखी और उनकी मदद करने की पूरी कोशिश कर सकती थी, मगर वे कौन-सा मार्ग चुनते हैं, मुझे इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। इन बातों को समझकर मेरा दिल रोशन हो गया, और अब मैं उनके लिए परेशान या दुखी नहीं थी। मैं इस मामले के प्रति सही नजरिया अपनाने में सक्षम थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। इन अंशों से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं, यह तय करने के लिए परमेश्वर का एकमात्र मानक यह है कि क्या उनके पास सत्य है और क्या उन्होंने अपना स्वभाव बदल लिया है। परमेश्वर ने इतने बरसों तक कार्य किया और इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और उद्धार पाने के मार्ग पर इतनी विशिष्ट और विस्तृत संगति दी है। अगर कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम कर सकता है और उसे स्वीकार कर सकता है, तो उसके लिए परमेश्वर का उद्धार पाने की आशा है। लेकिन, कई बरसों की आस्था के बाद भी, अगर कोई सत्य का अभ्यास किए बिना या अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदले बिना बस सतही त्याग करके संतुष्ट है, तो वह सत्य को नहीं स्वीकारता, बल्कि सत्य से ऊब चुका है। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए, चाहे वह कितना भी त्याग करे या कितने ही बरसों तक काम करे, या चाहे उसने कितने भी महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाए हों, अगर उसने सत्य और जीवन नहीं पाया है या अंत में उसके भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है, और वह अभी भी परमेश्वर का विरोध और विद्रोह करता है, कलीसिया के कार्य में बाधा डालता है, तो उसे बचाया नहीं जा सकता। जो लोग बहुत सारे कुकर्म करते हैं परमेश्वर उन्हें दंडित करेगा, और यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से निर्धारित होता है। इस पर विचार करते हुए, मुझे इस बात की और स्पष्ट समझ मिली कि मेरे मॉम-डैड इस स्थिति तक कैसे पहुँचे थे। भले ही उन्होंने अपना घर-बार और नौकरियाँ छोड़ दी थीं और कड़ी मेहनत की थी, मगर वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे। वे अपने कर्तव्य में लापरवाह थे और अपनी मनमानी करते थे, और उन्होंने परमेश्वर के वचनों के आधार पर आत्मचिंतन करने या खुद को जानने की कोशिश नहीं की। जब भाई-बहनों ने उनकी समस्याएँ बताईं, तो उन्होंने समर्पण नहीं किया, इसके बजाय बहाने बनाए, सोचा कि सामने वाला व्यक्ति उनका जीवन मुश्किल बनाना चाहता है, और लोग उनसे बहुत सारी उम्मीदें लगा बैठे हैं। इससे मुझे पता चला कि वे सत्य से ऊब चुके थे और इसे स्वीकार नहीं करते थे, यही कारण है कि कई बरसों की आस्था के बाद भी उनके भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदले। बल्कि, जैसे-जैसे विश्वासियों के रूप में उनका समय और कार्य अनुभव बढ़ता गया, उनका अहंकारी स्वभाव अधिक से अधिक गंभीर होता गया। मैं सत्य के प्रति उनके रवैये से देख सकी कि उनके सभी त्याग सत्य और जीवन हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि आशीष पाने के लिए अनिच्छा से किए गए थे। जैसे कि पौलुस ने जो कुछ भी किया वह परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए था। वह सच्चा विश्वासी नहीं था जिसने ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाया हो। आखिरकार मैं समझ गई कि क्या कोई व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है, क्या उसमें अच्छी मानवता है, और क्या उसे बचाया जा सकता है, इसका आंकलन सत्य के प्रति उसके रवैये से ही किया जाना चाहिए। उसके सतही त्यागों की मात्रा, उसने कितना काम किया है या किस प्रकार के कर्तव्य निभाए हैं, इसके आधार पर उसका आंकलन करना सही नहीं है। भले ही कुछ भाई-बहन कलीसिया में बहुत बड़ा योगदान न दें, और उनके कर्तव्य महत्वहीन लगें, मगर वे अपने कर्तव्यों में दृढ़ होते हैं, वे उसमें अपना पूरा जी-जान लगा देते हैं। अपने कर्तव्य में उनका ध्यान सत्य खोजने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में चिंतन करने पर होता है, और इसका एहसास होने के बाद, वे पश्चात्ताप करके सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, और अपने भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव ला सकते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर के घर में दृढ़ता से खड़ा रह सकता है। इस बारे में मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतना ही पता चला कि परमेश्वर सच में धार्मिक है। लोगों के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर का मानक कभी नहीं बदला है। बात बस इतनी है कि मैं सिर्फ उद्धार के बारे में सोच रही थी। मैंने हमेशा से यही माना कि परमेश्वर को उन लोगों को नहीं त्यागना चाहिए या बाहर नहीं निकालना चाहिए जिन्होंने दिखावे के लिए ही सही पर बड़े त्याग किए हैं और कड़ी मेहनत की है, भले ही उन्होंने कुछ भी योगदान नहीं दिया हो। मगर अपने मॉम-डैड के मामले से मैं वास्तव में परमेश्वर की धार्मिकता को देख सकी। परमेश्वर मनुष्य की भावनाओं या धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर काम नहीं करता है, बल्कि वह हर एक व्यक्ति का न्याय करने और परखने के लिए सत्य के मानकों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि जिन लोगों ने परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है वे भी कोई अपवाद नहीं हैं। इन बातों का एहसास होने पर मेरा दिल अधिक रोशन और मुक्त हो गया।

मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े। परमेश्वर कहते हैं : “एक दिन, जब तुम थोड़ा-बहुत सत्य समझ लोगे, तो तुम यह नहीं सोचोगे कि तुम्हारी माँ सबसे अच्छी इंसान है, या तुम्हारे माता-पिता सबसे अच्छे लोग हैं। तुम महसूस करोगे कि वे भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-जैसे हैं। उन्हें सिर्फ तुम्हारे साथ उनका शारीरिक रक्त-संबंध अलग करता है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, तो वे भी अविश्वासियों के ही समान हैं। तब तुम उन्हें परिवार के किसी सदस्य के नजरिये से नहीं, या अपने देह के संबंध के नजरिये से नहीं, बल्कि सत्य के दृष्टिकोण से देखोगे। तुम्हें किन मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनके विचार, दुनिया पर उनके विचार, मामले सँभालने के बारे में उनके विचार, और सबसे महत्वपूर्ण बात, परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण देखने चाहिए। अगर तुम इन पहलुओं का सही ढंग से आकलन करते हो, तो तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे अच्छे लोग हैं या बुरे। किसी दिन तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे बिल्कुल तुम्हारे जैसे भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग हैं। यह भी और स्पष्ट हो सकता है कि वे ऐसे दयालु लोग नहीं हैं जो तुमसे वास्तविक प्रेम करते हैं, जैसा कि तुम उन्हें समझते हो, और न वे तुम्हें सत्य की ओर या जीवन में सही रास्ते पर ले जाने में बिल्कुल भी समर्थ हैं। तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि उन्होंने तुम्हारे लिए जो कुछ किया है, वह बहुत लाभदायक नहीं है, और यह जीवन में सही रास्ता अपनाने में तुम्हारे लिए किसी काम का नहीं हैं। तुम यह भी देख सकते हो कि उनके कई अभ्यास और मत सत्य के विपरीत हैं, कि वे दैहिक हैं, और इससे तुम्हें उनसे घृणा होती है, और तुम उनके प्रति विरक्ति और तिरस्कार महसूस करते हो। अगर तुम इन चीजों को भाँप सको तो फिर तुम उनके साथ सही ढंग से व्यवहार कर पाओगे, तब तुम उनकी कमी महसूस नहीं करोगे, उनके बारे में चिंता नहीं करोगे और उनसे अलग होने में कोई परेशानी महसूस नहीं करोगे। उन्होंने माता-पिताके रूप में अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, इसलिए अब तुम उन्हें अपने सबसे करीबी लोग नहीं समझोगे और न ही उन्हें अपना आदर्श मानोगे। बल्कि, तुम उन्हें साधारण इंसान समझकर भावनाओं के बंधन से पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे और अपनी भावनाओं और पारिवारिक स्नेह से उबर जाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। “अनेक लोग व्यर्थ ही भावनात्मक रूप से पीड़ा झेलते हैं; वास्तव में, यह सब अनावश्यक, निरर्थक पीड़ा है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? लोग हमेशा अपनी भावनाओं के कारण विवश होते हैं, इसलिए वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के आगे समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं; यही नहीं, भावनाओं के आगे विवश होना अपना कर्तव्य निभाने या परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए लाभदायक नहीं है, और साथ ही जीवन-प्रवेश के लिए भारी बाधा है। इसलिए भावनाओं की विवशता झेलने का कोई अर्थ नहीं है, न इसे परमेश्वर याद रखता है। तो तुम इस निरर्थक पीड़ा से खुद को कैसे मुक्त कर सकते हो? तुम्हें सत्य समझने और इन दैहिक संबंधों के सार को अच्छी तरह देखने-समझने की जरूरत है; तब तुम्हारे लिए देह की भावनाओं के आगे विवश होने से मुक्त होना आसान हो जाएगा। ... लोगों को विवश करने और बाँधने के लिए शैतान भावनाओं का सहारा लेता है। अगर लोग सत्य नहीं समझते हैं तो वे आसानी से धोखा खा लेते हैं। अक्सर अपने माता-पिता और प्रियजनों की खातिर वे खिन्न रहते हैं, विलाप करते हैं, कठिनाइयाँ सहते हैं और त्याग करते हैं। यह उनका घोर अज्ञान है; वे बिना शिकायत किए अपने दुर्भाग्य को स्वीकारते हैं, और जो बोते हैं वही काटते हैं। इन चीजों को सहना बेकार है—एक ऐसा व्यर्थ प्रयास जिसे परमेश्वर बिल्कुल भी याद नहीं रखेगा—कहा जा सकता है कि वे बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं। जब तुम वास्तव में सत्य समझोगे और उनके सार को स्पष्ट रूप से समझ पाओगे, तो मुक्त हो जाओगे; तुम महसूस करोगे कि तुम्हारी विगत पीड़ा तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता का नतीजा थी। तुम किसी और को दोष नहीं दोगे; तुम अपनी अज्ञानता, अपनी मूर्खता और इस बात को दोषी ठहराओगे कि तुमने सत्य नहीं समझा या चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देखा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ना मेरे लिए बहुत भावुक अनुभव था। परमेश्वर हमारी रग-रग से वाकिफ है। मेरे सारे आँसू और मेरी निरर्थक पीड़ा सिर्फ मेरे भावुक होने और चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाने के कारण थी। पहले, मैं सत्य नहीं समझती थी या अपने मॉम-डैड को नहीं पहचानती थी, बल्कि उन्हें वाकई बहुत महान और सराहनीय मानती थी, उन्हें अपना आदर्श मानती थी, और सोचती थी कि मुझे उनके जैसा बनने की कोशिश करनी चाहिए। मैंने तो यह भी सोचा था कि वे उन लोगों में से हैं जो सत्य समझते हैं और जो बचाए जाने के करीब हैं, मगर जब मैंने उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य की रोशनी में देखा, तो आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि मेरे दृष्टिकोण कितने ज्यादा गलत थे और तब जाकर मुझे थोड़ी समझ आई कि वे वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं। मैंने उनमें ऐसी बहुत सी चीजें देखीं जिनकी मैं न सिर्फ प्रशंसा नहीं करती थी, बल्कि मुझे उनसे घृणा भी थी। मैंने उनकी सराहना करना, उन्हें ऊँची नजरों से देखना, और उनके लिए दुखी होना और रोना बंद कर दिया। मैं उन्हें वस्तुनिष्ठ तरीके से और सटीकता से देखने में सक्षम हो गई।

इन हालात का सामना करते हुए, आखिरकार मैं यह देख पाई कि मैं बहुत भावुक थी। जब मैं दैहिक स्नेह के दायरे में जीती थी, तब सिर्फ यही सोचती थी कि मेरे मॉम-डैड कितनी पीड़ा में होंगे और कितना कष्ट सहते होंगे, और कलीसिया ने उनके साथ जैसा व्यवहार किया उसे मैं स्वीकार नहीं पाई। मैं प्रतिरोध से भरी हुई थी, और यहाँ तक कि परमेश्वर के धार्मिक न होने की शिकायत भी की। अब मैं जानती हूँ कि परमेश्वर मनुष्यों के बीच भावनात्मक संबंधों से नफरत क्यों करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग इन भावनाओं में बँधे रहते हैं, तो वे सही-गलत, अच्छे-बुरे में अंतर नहीं कर पाते, वे परमेश्वर से दूर हो जाते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं। पहले मैं खुद को नहीं जानती थी। जब मैं भाई-बहनों को कई दिनों तक अपने उन रिश्तेदारों के लिए रोते हुए देखती जिन्हें बर्खास्त कर दिया था, हटा दिया था या निष्कासित कर दिया था, तो मैं उन्हें नीची नजरों से देखती थी। मैं सोचती थी कि अगर मेरे साथ कभी ऐसा हुआ तो मैं इतनी कमजोर नहीं रहूँगी। मगर जब सचमुच मेरे साथ यही सब हुआ, तो मैं सबसे ज्यादा कमजोर बन गई और टूटकर बिखर गई। मैंने बस चार आँसू नहीं बहाए, बल्कि नकारात्मकता में जीती रही, जिससे मेरे कर्तव्य पर असर पड़ा। मैं सचमुच मूर्ख और नासमझ थी, और कुछ हद तक विवेकहीन भी थी। इस अनुभव से, मुझे आखिरकार उन भाई-बहनों की कुछ समझ प्राप्त हुई जो अपनी भावनाओं से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहे थे, और मुझे अपनी पिछली अज्ञानता और घमंड के लिए शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने यह भी सीखा कि जो कुछ भी घटित होता है उसमें सत्य खोजना चाहिए, समझ विकसित करने और सबक सीखने का मौका हमेशा मिलता है; हमें अपने आस-पास के सभी लोगों, यहाँ तक कि मॉम-डैड के साथ भी परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए। तब हम उनके साथ अपनी भावनाओं और कल्पनाओं के अनुसार व्यवहार नहीं करेंगे, या परमेश्वर का विरोध करने वाले कार्य नहीं करेंगे। परमेश्वर का धन्यवाद!

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