झूठ के पीछे क्या है

21 दिसम्बर, 2017

ज़ियाओजिंग हेज़ शहर, शानडोंग प्रांत

हर बार जब मैंने परमेश्वर के वचनों को हमें ईमानदार बनने और सही ढंग से बोलने के लिए कहते हुए देखा, मैंने सोचा, "मुझे सही ढंग से बोलने में कोई समस्या नहीं है। क्या यह सिर्फ सच को सच बोलना तथा चीजों को वैसे ही बताना नहीं है, जैसे कि वे हैं? क्या यह उतना आसान नहीं है? इस संसार में मुझे जिस बात ने सबसे ज्यादा चिढ़ाया है, वह है लोगों का सुशोभित तरीके से बोलना।" इस वजह से, मैंने अत्यधिक विश्वास को महसूस किया, यह सोचकर कि इस सम्बन्ध में मुझे कोई समस्या नहीं है। लेकिन केवल परमेश्वर के प्रकाशन के माध्यम से मुझे पता चला कि, सत्य में प्रवेश किये बिना या किसी के स्वभाव को बदले बिना, कोई भी किसी भी तरह से सही तरीके से नहीं बोल सकता।

एक बार, मैंने देखा कि किसी व्यक्ति में अन्य लोगों के शारीरिक कल्याण और देखभाल के विचार का अभाव था, इसलिये मैंने कहा कि उनमें दया नहीं है। इसके बाद, सिर्फ साहचर्य के माध्यम से मैंने समझा कि एक दूसरे के लिए हमारा सच्चा प्यार मुख्यरूप से उस परस्पर सहयोग और मदद में समाविष्ट है जिसे हम अपने जीवन प्रवेश में लाते हैं। एक अन्य बार जब मैंने उसको उनके कर्तव्य के दौरान कुछ डॉलर ज्यादा खर्च करते हुए देखा, तो मैंने कहा कि इस व्यक्ति का स्वभाव बहुत ज्यादा लालची प्रवृत्ति का है। केवल बाद में मैंने जाना कि लोगों का थोड़ा सा भ्रष्ट स्वभाव दिखाने और उस तरह का स्वभाव रखने के बीच थोड़ा अंतर है। फिर एक अन्य बार ऐसा तब हुआ जब मेरे अगुआ ने किसी बहन की स्थिति के बारे में मुझसे पूछा। क्योंकि इस बहन के बारे में मुझे कुछ पूर्वाग्रह थे, हालांकि मुझे पता था कि मुझे एक निष्पक्ष रिपोर्ट बनानी चाहिए, फिर भी मैं खुद को न रोक सकी, और उसने जो भ्रष्टाचार प्रदर्शित किया था, उस पर गंभीरता से चर्चा कर डाली, और उसकी किसी भी अच्छी बात पर एक भी शब्द नहीं लिखा। जब मेरे खुद के काम में विचलन या खामियां आती थीं, तो मैं, अपने खुद को तथा स्थिति के बचाव के लिए, तथ्यों की सच्चाई को छिपाकर, गुप्तरूप से इस स्थिति की जानकारी अपने अगुआओं को दे देती थी। ...

ऐसी परिस्थतियों का सामना करते हुए, मैंने पूरी तरह से हैरानी महसूस की: ऐसा क्यों था कि मेरा हृदय सत्य, सही ढंग से बोलने का इच्छुक था, लेकिन जब मैंने अपना मुहं खोला, तो मैं कभी भी निष्पक्षता से या सही ढंग से नहीं बोल सकी। इस प्रश्न के साथ, मैं प्रार्थना करने तथा मार्गदर्शन तलाशने के लिए परमेश्वर के समक्ष गयी। इसके बाद, मैंने एक उपदेश में यह पढ़ा, "लोग सही तरीके से बोल क्यों नहीं सकते? तीन मुख्य कारण हैं: पहला कारण लोगों का गलत पूर्वानुमान लगाना है। चीजों को देखने का उनका तरीका गलत है, इसलिये वे गलत तरीके से बोलते भी हैं। दूसरा कारण यह है कि उनमें क्षमता भी बहुत कम है। वे बिना किसी व्यावहारिक जांच के लापरवाही से काम करते हैं और वे अफ़वाह को सुनना पसंद करते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे कई अलंकार जोड़ते हैं। एक अन्य कारण है वह यह है कि लोगों का स्वभाव बुरा है। जब वे बोलते हैं तो अपने स्वयं के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, व्यक्तिगत इरादों को मिश्रित कर देते हैं, वे दूसरों को साथ छल करने के लिए झूठ बोलते हैं, और जानबूझकर लोगों को धोखा देने के लिए सत्य को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। यह स्थिति मानव निर्मित है, और सच्चाई के अनुसरण तथा अपने स्वयं के स्वभाव को जानने द्वारा इसका समाधान किया जाना चाहिए" (ऊपर से संगति)। को पहचान कर इसका हल निकाला जाना चाहिए। एक बार जब मैंने इन वचनों को देखा, अचानक मुझे प्रकाश दिखाई दिया। अब मैंने देखा कि सही ढंग से बात करना इतना आसान नहीं था जितना की मैंने सोचा था। कई ऐसे घटक हैं, जिनकी वजह से लोग गलत बोल सकते हैं, जैसे कि लोगों के दृष्टिकोण का गलत ढंग से अभिमानी बनना,कोई सत्य न होते हुए, किसी तरह की वास्तविकता के न होते हुए, या भ्रष्ट स्वभाव रखना। जहां तक मेरी बात है, जब मैंने लोगों को इस तरह से काम करते हुए देखा, जो मेरे विचारों से मेल नहीं खाते थे, मैंने उन्हें यह परखने में कि उनमें कोई करूणा नहीं है, बहुत जल्दबाजी की। जब मैंने दूसरों को थोड़ा सा भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त करते हुए देखा, तो मैंने एक विशेष प्रकार का व्यक्ति होने के रूप में परिभाषित किया। जब किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में मेरी कोई राय थी, और उनकी स्थिति की सूचना देनी थी, तो मैंने तथ्यों को बड़ा-चढ़ा कर और अलंकरण जोड़कर प्रस्तुत किया। अपने स्वयं के हितों के लिए, अपना कर्तव्य करते हुए, मैं दूसरों को धोखा देती, और परमेश्वर के साथ चालाकी करती। ...क्या ये परिस्थितियां एवं अभिव्यक्तियां इसीलिए नहीं पैदा हुईं क्योंकि मैंने सत्य में प्रवेश नहीं किया था, क्योंकि मेरा नज़रिया गलत ढंग से अभिमानी था, क्योंकि मेरे स्वभाव में कोई बदलाव न आया था? केवल अब मैं समझती हूं: केवल जब कोई सत्य को समझ पाता है, सत्य में प्रवेश करता है और अपने स्वभाव में बदलाव लाता है, तो ही वे बिना किसी गलती के चुनिंदा तथ्यों को प्रतिबिंबित कर सकते हैं और उन्हें जो भी कछ होता है उस प्रत्येक वस्तु को वे उचित न्याय संगत ढंग से देख सकते हैं। सत्य को प्राप्त किए बिना, कोई भी मुद्दे के सार को नहीं जान सकता है और इसलिए वह सही प्रकार से बोल नहीं पाता है। स्वभाव को बिना बदले, भ्रष्ट शरीर में रहते हुए और अपनी मंशा और लक्ष्यों के लिए काम करते हुए, किसी के लिए सही बोल पाने की संभावना बहुत कम होती है।

हे परमेश्वर! मैं आपके द्वारा दिये गए प्रकाश और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद देती हूँ जिसने मुझे यह ज्ञात कराया कि मैं इस विचार को धारण करने में कि मैं अपनी प्रकृति पर भरोसा करके और अपनी लगन पर निर्भर रहकर सही प्रकार से बोल सकती हूँ कितनी अनुभवहीन और असंगत थी! कि मैं इतने अज्ञानी और अहंकारी तरीके से घमंड से भरी बातें कह सकती थी, यह और भी इस बात को दर्शाता है कि मैं कैसे पूरी तरह यह नहीं पहचान पाई कि मैं शैतान द्वारा कितने भीतर तक भ्रष्ट हो चुकी थी। आज से ही, मैं सत्य को खोजने के लिए और अधिक प्रयास करने की, अपने स्वभाव में बदलाव लाने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ने की, लोगों और अन्य वस्तुओं को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने की, और जल्दी ही एक ईमानदार व्यक्ति बनने का प्रयास करने की इच्छा करती हूँ जो सही प्रकार से बोलता है और सच्चाई के साथ कार्य, दोनों करता है।

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