मेरे कर्तव्य ने मुझे बदला

05 अप्रैल, 2022

ज्यांग लिंग, स्पेन

पिछले साल मैंने ग्राफिक डिजाइन का काम लिया, और मुझ पर औरों के काम का दायित्व भी था। शुरू-शुरू में मैं सभी पहलुओं के सिद्धांत और विवरण ठीक से नहीं समझ पाती थी, इसलिए मैंने मेहनत से पढ़ाई की, जो समझ न आता वो भाई-बहनों से पूछ लेती। कुछ समय बाद, मैंने सिद्धांतों में महारत हासिल करके अपने काम में कुछ परिणाम प्राप्त कर लिए। मैंने यथास्थिति से संतोष कर लिया, मुझे लगा कि काम करने का यह तरीका सही है। उसके बाद मैंने अपने काम में सुधार लाने के कौशल सीखने बंद कर दिए। उस समय, बेहतर इमेजिज बनाने के लिए अगुआओं ने सुझाव दिया कि हम और सीखें, कुछ नया करें। मैंने हाँ तो कर दी, लेकिन फिर सोचा, "कुछ नया करना थकाऊ और मेहनत का काम है, हम अभी जो इमेजिज बना रहे हैं, उनसे भी अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। कुछ नया करने के लिए इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है?" मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। एक दिन, मेरी साथी ने कहा कि उसे इमेजिज बनाने का एक नया तरीका मिला है जिससे बेहतर परिणाम मिले हैं, वह चाहती थी कि मैं उसे सीखूँ। मैंने सोचा, "परिणाम यकीनन बेहतर हैं, लेकिन मुझे तो यह तकनीक आती नहीं, और अगर सीख भी लूँ, तो समय बहुत लगेगा, बड़ी मुसीबत होगी। वैसे भी हमारी मौजूदा तकनीकों से समय भी बच रहा है और अच्छे परिणाम भी मिल रहे हैं, तो नई तकनीक सीखने की जहमत क्यों उठाऊँ? हमारा काम बस ठीक होना काफी है।" इसलिए मैंने पुरानी तकनीक से ही इमेजिज बनाना जारी रखा। समूह-कार्य पर नजर रखने के दौरान भी मैं परेशानी से बचने के उपाय खोजती रहती। शुरु में, समूह की एकमात्र प्रभारी मैं ही थी, इसलिए दबाव बहुत रहता था। बाद में बहन हान का साथ मिल गया, तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने सोचा, "बहन हान अपने काम में बहुत अच्छी है और कीमत चुकाने को भी तैयार है। आगे चलकर मैं उस पर काम का ज्यादा बोझ डाल सकती हूँ। इस तरह, मेरा तनाव कम रहेगा, और मुझे ज्यादा चिंता नहीं करनी पड़ेगी।" जब बहन हान पर काम का ज्यादा बोझ आ गया, तो उसने कहा कि वह बहुत दबाव में है और समय भी काफी नहीं। मैंने आत्म-चिंतन करने के बजाय इसे अभ्यास का मौका बताकर बात टाल दी और उसे काम से लादती रही। उस वक्त मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। मुझे लगा, बहन कुछ ज्यादा ही दबाव में है, मैंने उसे ज्यादा ही काम दे दिया, यह मेरी ज्यादती है। लेकिन खुद मेहनत से बचने के लिए मैं उसे काम से लादती रही।

इसलिए, मैं कुछ नया सीखने के बजाय काम का बोझ बहन हान पर ही डालती रही, और खुद खाली समय का मजा लेती रही। उस खाली वक्त में जो अच्छा लगता, मैं वो करती। उस दौरान अपने सौंदर्य-बोध में सुधार के नाम पर मैं धर्मनिरपेक्ष लघु फिल्में देखा करती। मैं एक के बाद दूसरी फिल्म देखती। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए और सभाओं में भी, वे वीडियो-क्लिप मेरे दिमाग में घूमती रहतीं, इसलिए मुझे परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने का समय ही न मिलता। दिन-ब-दिन मेरी रुचि दैहिक सुखों और स्वादिष्ट भोजन बनाने में बढ़ती गई, और मैं तरह-तरह के ऑनलाइन समाचार-वीडियो देखने लगी। कभी-कभी डर लगता कि कहीं लोग मुझ पर काम की अवहेलना का आरोप न लगा दें, इसलिए जब कोई मेरे पास से गुजरता, मैं घबराकर तुरंत वीडियो बंद कर देती और वर्क-इंटरफेस खोलकर काम करने का नाटक करती। इस तरह मैं अपने कर्तव्य में कम बोझ उठाने लगी। भाई-बहनों के काम की जानकारी लेने में भी मैं लापरवाही बरतने लगी। अगर वे कहते कि उन्हें कोई मुश्किल या परेशानी नहीं है, तो मुझे बहुत अच्छा लगता, समस्याएँ होतीं भी, तो मेरी उन्हें सुलझाने के लिए मेहनत करने में कोई दिलचस्पी न होती। मैं सोचती, "अगर मैं सभी की समस्याएँ हल करने का प्रयास करूँगी, तो उसमें कितना समय और मेहनत जाया होगी? बेहतर होगा, मैं उन्हें अपनी समस्या खुद सुलझाने दूँ। बस उन्हें तकनीक जानने वालों से मिलकर समस्याएँ सुलझाने को कह दूँगी।" जहाँ पहले मैं हफ्ते में एक बार उनके काम की जानकारी लेती थी, अब धीरे-धीरे पंद्रह दिन में एक बार पर आ गई। कभी-कभी मुझे अपराध-बोध होता। मैं जानती थी कि परमेश्वर हमसे अपने कर्तव्यों में पूरे समर्पण की अपेक्षा रखता है, लेकिन मैं समय बचाने और दैहिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमेशा अपने काम से बचती थी, यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं था। लेकिन दूसरे नजरिये से, मैंने इमेजिज बनाने के काम में देरी नहीं की थी, मेरे काम में कोई स्पष्ट समस्या नहीं थी, सब-कुछ सामान्य रूप से चल रहा था, इसलिए यह मुझे कोई बड़ी समस्या नहीं लगी। धीरे-धीरे मुझे परमेश्वर की उपस्थिति का एहसास नहीं रहा, न तो प्रार्थनाएँ मुझे द्रवित कर पातीं, न ही परमेश्वर के वचनों से प्रबोधन मिलता। मेरे अंदर इमेजिज बनाने की प्रेरणा भी नहीं रही। मेरे काम के परिणाम बद से बदतर होते गए। इसके अलावा, चूँकि मैंने भाई-बहनों के काम पर ठीक से नजर नहीं रखी थी, उनकी कठिनाइयों की परवाह नहीं की थी, न ही सत्य खोजा था, इसलिए वे अपने काम में आलसी हो गए थे, उन्होंने आगे बढ़ने की कोशिश छोड़ दी थी, वे यथास्थिति से संतुष्ट थे, वे काम में कोई प्रगति नहीं कर रहे थे और अच्छे परिणाम नहीं दे रहे थे। मुझे बस इतना लगा कि कुछ गड़बड़ है, मैं थोड़ी भ्रमित थी। कोई याद भी दिलाता, तो मैं परवाह न करती।

एक दिन अचानक एक कलीसिया-अगुआ मुझसे मिलने आ गई, और पूछने लगी, "तुम इतने समय से इमेजिज बना रही हो, फिर काम इतना कम और बेअसर क्यों है? यकीन नहीं होता कि तुम्हारा काम इतना खराब हो गया है!" उसने मुझे बेकार "काडर" होने और व्यावहारिक काम न करने के लिए उजागर किया, कहा कि मेरे कारण भाई-बहन निकम्मे, आलसी और अयोग्य हो गए हैं, उनके काम में गुणवत्ता नहीं रही। उसने कहा कि मैं अपने काम को बस जैसे-तैसे निपटाते हुए, परमेश्वर को धोखा देकर उसके घर का नुकसान कर रही हूँ, और अगर मैंने चिंतन कर प्रायश्चित नहीं किया, तो सुधरना मुश्किल हो जाएगा और मैं अपना काम गँवा बैठूँगी। उस समय अगुआ की बात सुनकर मन आहत तो हुआ, लेकिन मुझे गंभीरता का एहसास नहीं हुआ, इसलिए मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। उसके बाद मैं बेमन से कार्य की जानकारी लेती और मैंने वो वीडियो देखने बंद कर दिए, जो मेरे काम से नहीं जुड़े थे।

महीने भर बाद, लंबे समय तक जैसे-तैसे काम निपटाने, ढिलाई बरतने और चलताऊ काम करने के कारण मुझे बरखास्त कर दिया गया, और वास्तविक कार्य न करने के कारण दो अन्य बहनों को भी निकाल दिया गया। मेरी अगुआ ने मुझे अपने कर्तव्यों में लापरवाही बरतने, टालमटोल करने, ढिलाई बरतने और गुप्त मंशा रखने के कारण उजागर किया, जो परमेश्वर को धोखा देना है, उन्होंने कहा कि मैंने न तो भाई-बहनों के काम पर नजर रखी, न ही उनकी समस्याएँ हल कीं, इसलिए असल में मैं उनके बरताव का बचाव और अनदेखी कर रही थी, जो परमेश्वर के घर को नुकसान पहुँचाना है। अगुआ को मेरा व्यवहार उजागर करते सुनकर मैं हैरान रह गई। मेरा काम इतना खराब था कि लोग बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे, जबकि मुझे इसका जरा भी एहसास नहीं था। मुझे लगता था कि मैं काम बिलकुल बाधित नहीं करती। मैं इतनी बेसुध क्यों थी? उन दिनों मुझे बार-बार लगता, "मैं जो भी काम कर रही हूँ, पूरी जागरूकता से कर रही हूँ। मैं जानती थी, अपना कर्तव्य निष्ठा से करना चाहिए, लेकिन फिर भी मैं इतनी धूर्त और काम में इतनी बेपरवाह क्यों थी? मैं किस तरह की इंसान हूँ?" दुख और उलझन में डूबकर मैं परमेश्वर के सामने आई और उससे राह दिखाने को कहा ताकि मैं खुद को जान सकूँ।

फिर, एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "नूह ने कोई बड़े-बड़े उपदेश नहीं सुने थे। वह बहुत भारी-भरकम सत्य नहीं समझता था, न ही वह कोई बड़ा विद्वान था। उसे न आधुनिक विज्ञान की समझ थी, न आधुनिक ज्ञान की। वह एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति था, मानवजाति का एक मामूली सदस्य। फिर भी एक मायने में वह सबसे अलग था : वह परमेश्वर के वचन सुनना जानता था, वह जानता था कि परमेश्वर के वचनों का अनुसरण और पालन कैसे करना है, वह जानता था कि मनुष्य की स्थिति क्या है, और वह परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करने और उनका पालन करने में सक्षम था—इससे अधिक कुछ नहीं। नूह को परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को क्रियान्वित करने देने के लिए ये कुछ सरल सिद्धांत पर्याप्त थे, और वह इसमें केवल कुछ महीनों, कुछ वर्षों या कुछ दशकों तक नहीं, बल्कि एक शताब्दी से भी अधिक समय तक दृढ़ता से जुटा रहा। क्या यह संख्या आश्चर्यजनक नहीं है? (बिलकुल है।) नूह के अलावा इसे और कौन कर सकता था? (कोई नहीं।) और क्यों नहीं कर सकता था? कुछ लोग कहते हैं कि इसका कारण सत्य को न समझना है—लेकिन यह तथ्य के अनुरूप नहीं है! अन्य लोग कहते हैं कि यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण है—लेकिन क्या नूह का स्वभाव भ्रष्ट नहीं था? क्यों नूह इसे हासिल करने में सक्षम था, लेकिन आज के लोग नहीं हैं? (क्योंकि आज के लोग परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करते, वे न तो उन्हें सत्य मानते हैं और न ही उनका पालन करते हैं।) और वे परमेश्वर के वचनों का पालन करने में असमर्थ क्यों हैं? वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में असमर्थ क्यों हैं? (उन्हें परमेश्वर का कोई भय नहीं है।) हाँ। तो जब लोगों में सत्य की समझ नहीं होती, और उन्होंने बहुत-से सत्य नहीं सुने होते, तो उनमें परमेश्वर का भय कैसे उत्पन्न होगा? लोगों की मानवता में दो सबसे कीमती चीजें अवश्य मौजूद होनी चाहिए : पहला है विवेक और दूसरा है सामान्य मानवता की भावना। इंसान होने के लिए विवेक और सामान्य मानवता की भावना का होना न्यूनतम मानक है; यह किसी व्यक्ति को मापने के लिए न्यूनतम, सबसे बुनियादी मानक है। यह आज के लोगों में नदारद है, और इसलिए चाहे वे कितने ही सत्य सुन और समझ लें, उनमें परमेश्वर का भय नहीं होता। तो नूह के सार से आज के लोगों के सार में क्या अंतर है? (उनमें मानवता नहीं है।) और मानवता की इस कमी का सार क्या है? (जानवर और राक्षस।) 'जानवर और राक्षस' कहना बहुत अच्छा नहीं लगता, लेकिन यह तथ्यों के अनुरूप है; इसे कहने का एक और विनम्र तरीका यह होगा कि उनमें कोई मानवता नहीं होती। बिना समझ के लोग, लोग नहीं होते, वे जानवरों से भी नीचे होते हैं। नूह ऐसा करने में सक्षम इसलिए था, क्योंकि वह एक वास्तविक व्यक्ति था, एक ऐसा व्यक्ति, जिसमें अत्यधिक समझ थी; नूह जितनी समझ वाले लोग दुर्लभ होते हैं, ऐसा दूसरा व्यक्ति खोजना बहुत कठिन होगा" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग एक)')। परमेश्वर के वचन तीखे और चोट करने वाले थे। लगा जैसे कर्तव्य में निष्ठावान न रहने के कारण परमेश्वर मुझे सामने से फटकार रहा हो। मैंने क्षमता की कमी और सत्य की उथली समझ के कारण अपना कर्तव्य खराब तरीके से नहीं निभाया था, न इसलिए कि मुझे पता नहीं था कि कर्तव्य को कैसे लेना है, बल्कि इसलिए कि मुझमें अंतरात्मा, विवेक और मानवता नहीं थी, और मुझे परमेश्वर के आदेश को लेकर उसका भय नहीं था। जबकि नूह ने तो परमेश्वर के बहुत कम वचन सुने थे और वह थोड़ा ही सत्य समझता था, फिर भी उसने परमेश्वर के आदेश को पूरी गंभीरता से लिया और कर्मठता दिखाई। उसने हर विवरण याद रखा और अच्छे परिणाम हासिल करने का प्रयास किया। नूह परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील था। उसके प्रति अपनी निष्ठा और आज्ञाकारिता की गवाही देने के लिए वह 120 वर्षों तक दृढ़ता से डटा रहा। और मेरी स्थिति क्या थी? मैंने परमेश्वर के इतने वचन पढ़े, इतने सत्य और रहस्य जाने, और पहले के लोगों के मुकाबले बहुत अधिक पाया, लेकिन फिर भी मैंने अपने कर्तव्य में हर जगह चालाकी और शिथिलता दिखाई। मुझे पता था, कैसे अच्छे परिणाम पाकर परमेश्वर की बेहतर गवाही देनी है, लेकिन इन्हें मुसीबत समझकर मैं इनसे बचती थी और अपनी साथी का फायदा उठाकर उसे काम से लादे रखती थी। भाई-बहनों की मुश्किलों के वक्त मैं अपने लिए कोई आसान रास्ता ढूँढ़ती थी, हल खोजने के लिए मेहनत नहीं करना चाहती थी। उनके काम की जानकारी लेने में भी लापरवाही बरतती थी। मेरा मन अपने काम में बिलकुल नहीं रमता था। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने भी अपना काम बिना किसी चिंता के धीरे-धीरे किया। काम करने के नाम पर लापरवाही बरतते हुए मैं धर्मनिरपेक्ष वीडियो तक देखती थी, मेरा ध्यान बस अच्छा भोजन और दैहिक सुख पाने पर रहता था, पकड़े जाने के डर से मैं चीजें छिपाती और कपट से काम करती थी। हालाँकि ये सब हरकतें करते समय मेरी अंतरात्मा मुझे फटकारती थी, मैं जानती थी कि ऐसा करना परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध है, फिर भी मैं अड़ियल बनकर ऐसा करती रही। मेरी अंतरात्मा और विवेक बेहद कमजोर थे। मेरी तुलना नूह से ही नहीं, निष्ठापूर्वक काम करने वाले भाई-बहनों से भी नहीं हो सकती। इस तरह अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर को मूर्ख बनाकर धोखा देना था। मुझमें इंसानियत नहीं थी, न ही परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा थी। मैं परमेश्वर के आदेश के एकदम नाकाबिल थी। मुझे बरखास्त करके परमेश्वर ने अपना धार्मिक स्वभाव दिखाया था। मेरा व्यवहार अनुचित था।

उस समय मैं अक्सर इस बारे में सोचा करती थी। मैं सोचती कि मुझमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव क्यों है। फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना, "शैतान के हाथों इंसान के दूषण के परिणाम का सत्य।" "बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मैं समझ गई। काम में लापरवाही कर मैं परमेश्वर को मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही थी क्योंकि मैं शैतानी फलसफों के सहारे जी रही थी, जैसे "जिंदगी छोटी है; जब तक उठा सकते हैं आनंद उठाएँ," "आज की मस्ती आज ही कर लो," और "चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो।" इस बकवास ने मेरा दिमाग भ्रष्ट और विकृत कर दिया। मुझे लगा, आराम और सुकून से जीना ही समझदारी का काम है। जीवन इतना छोटा है, तो इतनी मेहनत क्यों की जाए? परिश्रम मूर्खता है। लोगों को अपने प्रति दयालु होकर अपने साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, भरपूर मजा लूटना चाहिए। इस तरह की सोच के अधीन, मैं कपटी बनकर जैसे-तैसे काम निपटाने लगी थी। मैं ज्यादा से ज्यादा धूर्त होती गई। जब मैं स्कूल में थी, तो एक पार्ट टाइम नौकरी करती थी। काम आसान था। सुपरवाइजर के जाने के बाद मैं चुपके से आराम करने बेडरूम में चली जाती, और कम काम करने के ऐसे तरीके खोजती, जिनका पता न चले। एक बार मेरी रूममेट को इसका पता चल गया, उसने कहा कि मैं बहुत आलसी हूँ। उसने कहा, आगे चलकर असली नौकरी में भी मैं परेशानी से बचने की कोशिश करूँगी। यह सुनकर मैं शर्मिंदा हो गई। लेकिन फिर मैंने सोचा, "कोई बात नहीं, तुम्हें जो कहना है कहो। क्या लोगों का मेहनत करना बेवकूफी नहीं है? कहावत है 'हर व्यक्ति अपनी सोचे और बाकियों को शैतान ले जाए।' कौन है, जो अपने लिए नहीं जीता? क्या अपने बारे में न सोचना मूर्खता नहीं है?" परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मैंने सत्य खोजने और अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने पर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं अभी भी इन्हीं शैतानी फलसफों के सहारे जी रही थी, यही सोचती रहती कि दैहिक सुख और आनंद कैसे पाया जाए, इसलिए काम में मैंने परेशानियों से बचने की हर संभव कोशिश की, शारीरिक कष्ट से बचने के लिए हर जरूरी प्रयास किया। मैं इन शैतानी फलसफों के सहारे जीती रही, इसलिए मैं कर्तव्य में पीछे रही, कभी पूरा प्रयास नहीं किया, ईमानदारी से कीमत नहीं चुकाई। हमेशा छल, चालाकी और कपट से काम चलाया। अगुआ ने जब मुझे उजागर कर मेरा निपटारा किया, तब भी मैं नहीं जागी। मैं लगभग सुन्न हो चुकी थी और पूरी तरह इन शैतानी फलसफों के कब्जे में फँस गई थी। काम में मुझे प्रगति की कोई चिंता नहीं रहती थी, न ही मैं काम की जानकारी लेती थी, इसके कारण भाई-बहन भी काम में लापरवाह हो गए और कोई प्रगति नहीं कर पाए, और मेरे साथ दो और बहनें भी निकाल दी गईं। इस तरह काम करके मैंने लोगों को बहुत नुकसान पहुँचाया। शैतानी फलसफे से भ्रष्ट होकर मैंने अपनी इंसानियत पूरी तरह गँवा दी थी। मैं एक आलसी, स्वार्थी, चालाक और धोखेबाज इंसान बन गई थी। मैं एक दयनीय और शर्मनाक स्थिति में जी रही थी। ये एहसास होने पर मैंने मन में परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "परमेश्वर! मैं अब इस तरह बिल्कुल नहीं जीना चाहती। मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बचाओ।"

बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "वह सब जो परमेश्वर से उपजता है, और जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, और जो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित श्रम और कार्य के विभिन्न पहलुओं संबंधित हैं—इस सबके लिए मनुष्य के सहयोग की आवश्यकता है, यह सब मनुष्य का कर्तव्य है। कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक है। कर्तव्य तुम्हारी जिम्मेदारी हैं, वे वही हैं जो तुम्हें करना चाहिए, और यदि तुम हमेशा उनके बारे में टालमटोल करते हो, तो फिर समस्या है। नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धोखेबाज हो, तुम निठल्ले हो, आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो; अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो, तुममें कोई प्रतिबद्धता नहीं है, कोई आज्ञाकारिता नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य में भी प्रयास नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में समर्पित है, और अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना रखता है, तो अगर परमेश्वर द्वारा कुछ अपेक्षित है, और परमेश्वर के घर को उसकी आवश्यकता है, तो वह बिना किसी चयन के वह सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है; वह जो कुछ भी करने में सक्षम है और जो कुछ उसे करना चाहिए, वह उसकी जिम्मेदारी लेकर उसे पूरा करेगा। क्या यह अपना कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों में से एक है? (हाँ।) शारीरिक श्रम करने वाले कुछ लोग इससे असहमत होकर कहते हैं, 'आप लोग तो सारा दिन अपने कमरे में हवा और धूप से सुरक्षित रहकर अपना कार्य करते हुए बिताते हैं। इसमें जरा भी कठिनाई नहीं होती। आप लोगों का काम हमारी तुलना में बहुत आरामदेह है। खुद को हमारी परिस्थिति में रखो, तो देखें, कई घंटे बाहर काम करने के बाद आपका क्या हाल होता है।' वास्तव में, हर कार्य में कुछ कठिनाई रहती है। शारीरिक श्रम में शारीरिक कठिनाई रहती है और मानसिक श्रम में मानसिक कठिनाई; हर एक की अपनी कठिनाइयाँ हैं। हर चीज कहनी आसान है, करनी कठिन। जब लोग वास्तव में कार्य करते हैं, तो एक ओर तुम्हें उनके चरित्र को देखना चाहिए, और दूसरी ओर, तुम्हें यह देखना चाहिए कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। पहले लोगों के चरित्र की बात करते हैं। यदि व्यक्ति अच्छे चरित्र का है, तो वह हर चीज का सकारात्मक पक्ष देखता है, और चीजों को सकारात्मक दृष्टिकोण से और सत्य के आधार पर स्वीकार करने और समझने में सक्षम होता है; अर्थात् उसका हृदय, चरित्र और मिजाज धार्मिक हैं—यह चरित्र के दृष्टिकोण से है। दूसरा पहलू यह है कि वे सत्य से कितना प्रेम करते हैं। यह किससे संबंधित है? चाहे वे परमेश्वर के वचनों को समझते हों या नहीं, और चाहे वे परमेश्वर की इच्छा समझते हों या नहीं, अगर वे फिर भी परमेश्वर से प्राप्त अपना कर्तव्य स्वीकार करने में सक्षम हैं, और आज्ञाकारी और ईमानदार हैं, तो यह पर्याप्त है, यह उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के योग्य बनाता है, यह न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो कोई कार्य करते हुए तुम लापरवाह और असावधान नहीं होते, और सुस्त होने के तरीके तलाश नहीं करते, बल्कि अपना सारा तन-मन उसमें लगा देते हो। भीतर गलत अवस्था होने से नकारात्मकता पैदा होती है, जिससे लोगों में काम करने का जोश खत्म हो जाता है, इसलिए वे लापरवाह और आलसी हो जाते हैं। जो लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी अवस्था ठीक नहीं है, और फिर भी सत्य की खोज करके उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करते : ऐसे लोगों को सत्य से प्रेम नहीं होता, वे केवल अपना कर्तव्य निभाने के थोड़े-बहुत ही इच्छुक होते हैं; वे कोई प्रयास करने या कठिनाई सहने के इच्छुक नहीं होते हैं, और हमेशा शिथिलता दिखाने के तरीके तलाशते रहते हैं। वास्तव में, परमेश्वर यह सब पहले ही देख चुका है, और बस लोगों के जागने की प्रतीक्षा कर रहा है, ताकि उन्हें उजागर करके हटा सके। लेकिन, ऐसा व्यक्ति सोचता है, 'देखो मैं कितना चतुर हूँ। हम वही खाना खाते हैं, लेकिन काम करने के बाद वे पूरी तरह से थक जाते हैं—जबकि मुझे देखो, मैं आनंद लेना जानता हूँ। मैं चतुर हूँ; जो कोई वास्तविक कार्य करता है, वह मूर्ख है।' क्या उनका ईमानदार लोगों को इस तरह से देखना सही है? नहीं, वास्तव में, जो लोग वास्तविक कार्य करते हैं, वे चतुर होते हैं। उन्हें चतुर क्या बनाता है? वे कहते हैं, 'मैं ऐसा कुछ नहीं करता जो परमेश्वर मुझसे करने के लिए नहीं कहता, और मैं वह सब करता हूँ जो वह मुझसे करने के लिए कहता है। वह जो कुछ भी करने को कहता है, मैं करता हूँ, और उसे दिल लगाकर, मैं उसमें अपना सब-कुछ लगा देता हूँ, मैं कोई चाल बिलकुल नहीं चलता। मैं उसे किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए करता हूँ।' यह सही मन:स्थिति है, और इसका परिणाम यह होता है कि जब कलीसिया के शुद्धिकरण का समय आता है, तो जो लोग अपने कर्तव्य का पालन करने में अस्थिर होते हैं, वे सभी हटा दिए जाते हैं, जबकि जो लोग ईमानदार होते हैं और परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हैं, वे बने रहते हैं। इन ईमानदार लोगों की अवस्था और मजबूत होती जाती है, और उन पर जो भी मुसीबत आती है, परमेश्वर उनकी रक्षा करता है। और उन्हें यह सुरक्षा क्यों मिलती है? क्योंकि वे दिल से ईमानदार होते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए कठिनाई या थकावट से नहीं डरते, और सौंपे जाने वाले किसी भी काम में मीनमेख नहीं निकालते; वे कभी 'क्यों' नहीं कहते, वे बस जैसा कहा जाता है वैसा करते हैं, बिना जाँच या विश्लेषण किए, या किसी भी अन्य बात पर विचार किए, वे आज्ञा का पालन करते हैं; उनके कोई गुप्त इरादे नहीं होते, बल्कि वे सभी चीजों में आज्ञाकारी होने में सक्षम होते हैं। उनकी आंतरिक स्थिति हमेशा बहुत सामान्य होती है; खतरे से सामना होने पर परमेश्वर उनकी रक्षा करता है; जब उन पर बीमारी या महामारी पड़ती है, तब भी परमेश्वर उनकी रक्षा करता है—वे बहुत धन्य हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार)')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं समझ गई। हमें अपने कर्तव्य सच्चे दिल से और व्यावहारिकता के साथ निभाने चाहिए, निजी लाभ-हानि के बारे में नहीं सोचना चाहिए, कपट नहीं करना चाहिए, समस्याएँ आने पर उन्हें तुरंत हल करते हुए कर्तव्य निभाने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। परमेश्वर के आगे ईमानदार होने, उसकी सुरक्षा और आशीष पाने का यही एकमात्र तरीका है। मैं बेहद स्वार्थी, नीच और दैहिक सुखों की दीवानी थी, काम में कोई मेहनत नहीं करना चाहती थी, मेरे काम से अच्छे परिणाम नहीं मिले, मैं अपराध-बोध से ग्रस्त हो गई। बाद में भी मैं खाली समय में ग्राफिक डिजाइनिंग का काम और खुद को बदलने का प्रयास करती रही। मैं नई तकनीकें सीखने लगी, लोगों से पूछ-पूछकर नए तरीकों से इमेजिज बनाने की कोशिश करती। कठिनाई आने पर परमेश्वर से प्रार्थना करती, दूसरों के सुझावों के आधार पर कई बार संशोधन करती। किसी नई इमेज के बारे में सोचते हुए हर नजरिए से विचार करती कि क्या इसे बनाने का कोई और नया तरीका भी है। इस तरह काम में अभ्यास करने के बाद मैंने परमेश्वर का आशीर्वाद देखा। मैंने कॉन्सेप्ट और तकनीक में कुछ नया किया, जिसे देख भाई-बहनों ने कहा कि अब मेरी इमेजिज पहले से बेहतर हैं। मेरे अंदर काम करने का नया जोश भर गया, अब मैं भाई-बहनों को भी प्रेरित कर पा रही थी। अब हर कोई कुछ नया और बेहतर करना चाहता था।

जब मैंने पूरी लगन और मेहनत से काम करना शुरू किया, तो खुद को सुरक्षित महसूस किया। परमेश्वर से प्रार्थना करते समय मेरे पास कहने को बहुत-कुछ होता। मैं कुछ समस्याएँ भी समझने लगी और अपने काम में प्रगति भी करने लगी। मैंने जाना कि परमेश्वर सच में पवित्र है। परमेश्वर पवित्र स्थानों में प्रकट होता है, लेकिन मलिन स्थानों में खुद को छिपाता है। अनायास ही मेरे दिल में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा जगने लगी। पूरी लगन और मेहनत से काम करने के बावजूद अब मुझे थकान नहीं होती थी। हालाँकि कभी-कभी थोड़ा अधिक सोचना पड़ता था, लेकिन मन में संतोष और आनंद था। मैंने जाना कि परमेश्वर लोगों से असंभव की अपेक्षा नहीं करता, थोड़े से प्रयास से सब-कुछ हासिल किया जा सकता है, मैंने परमेश्वर का आभार व्यक्ति किया। कुछ समय बाद, मुझे फिर से भाई-बहनों के साथ अपने पुराने काम पर भेज दिया गया। तब मैंने आभारी तो महसूस किया, लेकिन यह भी लगा कि मैं इसके लायक नहीं, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "परमेश्वर! ऐसी निम्न इंसानियत के साथ मैं कर्तव्य निभाने और ये उत्कर्ष पाने के योग्य नहीं हूँ। मैं ये काम सर्वश्रेष्ठ ढंग से करना चाहती हूँ, अगर मैं अब भी पहले की तरह तुम्हारे आदेश की उपेक्षा करूँ, तो तुम मुझे दंड देकर अनुशासित करना, ताकि मैं प्रायश्चित कर तुम्हारे प्रेम के प्रतिदान के लिए निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा सकूं!"

उस समय, अगुआ ने मुझे तीन और भाई-बहनों के साथ मिलकर कुछ नए इफेक्ट्स बनाने के काम में लगाया। प्रोडक्शन के लिए बहुत समय और मेहनत की जरूरत थी, और उस समय इमेजिज की माँग भी बहुत थी, इसलिए मेरा काम कुछ ज्यादा ही थकाऊ हो गया। खासकर जब निपटाने के लिए ढेर सारा काम इकट्ठा हो जाता, तो ऐसा लगता जैसे मेरा सिर फट जाएगा। एक बार मैं इमेजिज वक्त पर नहीं बना पाई, तो मेरे साथी ने पूछा कि मेरा काम इतना धीमा क्यों है। उस वक्त मैंने दुख होकर सोचा, "सारे लोग तो केवल इमेजिज बनाने पर ही ध्यान देते हैं, पर मुझे तो इमेजिज बनाने के साथ-साथ नई तकनीक और इफेक्ट्स भी सीखने होते हैं। इसमें ज्यादा समय और मेहनत लगती है। और अगर मैंने कम इमेजिज बनाईं, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? शायद मुझे अगुआ से बात करके बता देना चाहिए कि मैं नए इफेक्ट्स का काम नहीं सँभाल सकती, इसलिए वे किसी और को ढूँढ़ लें।" ऐसा ख्याल आया, तो मैं समझ गई कि मैं फिर से देह की चिंता कर रही हूँ, इसलिए मैंने ध्यान से परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खाए-पिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है; उसे धूर्त लोग पसंद नहीं हैं। थोड़ा-सा अज्ञानी होने में डरने की कोई बात नहीं है, लेकिन उसे ईमानदार जरूर होना चाहिए। ईमानदार लोग जिम्मेदारी लेते हैं; वे अपने बारे में नहीं सोचते; उनके विचार शुद्ध होते हैं; उनके दिलों में ईमानदारी और भलाई होती है, जैसे साफ पानी का कटोरा, जिसकी तली तुरंत दिखाई दे जाती है। हालाँकि तुम हमेशा दिखावा करते हो, छिपाते हो और लीपापोती करते हो, खुद पर इतना मजबूत आवरण चढ़ा लेते हो कि तुम्हारे दिल में जो होता है, दूसरे उसे देख नहीं सकते, लेकिन परमेश्वर फिर भी उन चीजों की जाँच कर सकता है, जो तुम्हारे दिल में सबसे गहरी होती हैं। क्या परमेश्वर को यह देखना चाहिए कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, बल्कि धूर्त हो, कभी अपना दिल उसे नहीं देते, हमेशा उसके साथ छल-कपट करने की कोशिश करते हो, वह तुम्हें पसंद नहीं करेगा और तुम्हें नहीं चाहेगा। जो लोग अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय होते हैं—जो वाक्पटु और हाजिरजवाब होते हैं—वे किस तरह के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? कहा जा सकता है कि वे सभी बेहद अस्थिर बुद्धि के और चालाक व्यक्ति होते हैं, वे सभी बेहद शातिर होते हैं, वे धूर्त होते हैं, वे असली दुष्ट शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद कर सकता है? (नहीं।) परमेश्वर दुष्टात्माओं से सबसे ज्यादा नफरत करता है—तुम कुछ भी करो, पर तुम्हें इस तरह का व्यक्ति नहीं होना चाहिए। जो हमेशा सतर्क रहते हैं और बहुत सोच-समझकर बोलते हैं, जो देखते हैं कि हवा किस तरफ बह रही है और अपने मामले कपट से सँभालते हैं—मैं कहता हूँ, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है। तो, क्या परमेश्वर अब भी ऐसे व्यक्ति पर कृपा करेगा या उसे प्रबुद्ध करेगा? नहीं—वह नहीं करेगा। परमेश्वर ऐसे लोगों को जानवरों के समान समझता है। उनकी त्वचा मानव की होती है, लेकिन सार दुष्टात्मा शैतान का होता है। वे चलती-फिरती लाशें हैं, जिन्हें परमेश्वर बिलकुल नहीं बचाएगा। तुम लोग इस प्रकार के व्यक्ति को चतुर कहोगे या मूर्ख? वह सबसे मूर्ख होता है। वह धूर्त होता है। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं करता। वह उसकी निंदा करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए परमेश्वर में विश्वास करने में क्या आशा है? उसका विश्वास महत्वहीन है, ऐसे व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था के दौरान लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने वर्षों से विश्वासी रहे हैं; अंत में, उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। अगर वे परमेश्वर को पाना चाहते हैं, तो उन्हें सत्य पाना होगा। अगर वे सत्य समझते हैं, सत्य का अभ्यास करते हैं और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करते हैं, तो ही वे सत्य प्राप्त करेंगे और परमेश्वर द्वारा बचाए जाएँगे; तभी वे परमेश्वर की स्वीकृति और उसके आशीष प्राप्त करेंगे; यही परमेश्वर को प्राप्त करना है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (8)')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा कि मेरे विचार अभी भी गलत हैं। पहले मुझे धूर्त लोग अच्छे लगते थे। मुझे लगता था कि वे लोग वही काम करते हैं जिनसे वे अच्छे दिखें, और वे सही शॉर्टकट लेते हैं। मुझे ऐसे लोग स्मार्ट और होशियार लगते थे, मेरी इच्छा होती थी कि मैं भी वैसी ही बनूँ। लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ में आ गया कि परमेश्वर की नजर में यह होशियारी नहीं, धूर्तता है। अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए ऐसे लोग कोई भी नीच हथकंडा अपना सकते हैं। ऐसे लोग गूढ़ और शैतानी प्रकृति के होते हैं। परमेश्वर को सरल और ईमानदार लोग पसंद हैं, जिनके दिल में छल-कपट न हो, जिनकी ज्यादा कुटिल मंशाएँ न हों, जो परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कामों का दायित्व ले सकें, और जो पूरे दिल और व्यावहारिक ढंग से काम करें। परमेश्वर हमारे दिलो-दिमाग की जाँच करके हमारे सार के अनुसार हमसे व्यवहार करता है। धोखेबाजों के प्रति परमेश्वर घृणा दिखाता है। वह उन्हें सत्य की समझ से प्रबुद्ध नहीं करता और अंतत: हटा देता है, लेकिन ईमानदार लोगों को प्रबुद्ध कर आशीष देता है। फिर मैंने अपने बारे में सोचा। काम के दौरान जब मुझे कीमत चुकानी और शारीरिक कष्ट सहने पड़ते, तो मैं काम से बचना चाहती थी, ताकि मुझे थकान न हो। यह स्वार्थ और कपट था, धूर्तता की अभिव्यक्ति थी। अगर मैंने ऐसा किया, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा, मुझे पवित्र आत्मा का कार्य नहीं मिलेगा, ऐसे माहौल में मैं निश्चित रूप से कभी सत्य प्राप्त नहीं कर पाऊँगी। इस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि ये काम मेरे लिए परमेश्वर की परीक्षा है, वो देखना चाहता है कि मैंने प्रगति की या नहीं, मुझमें कर्तव्य के प्रति दायित्व की भावना है या नहीं, और मैं कर्तव्य और दैहिक सुखों के बीच सही चुनाव कर सकती हूँ या नहीं। अगर मैंने अपने हितों की रक्षा के लिए कर्तव्य की उपेक्षा की, तो मैं इस परीक्षा में अपनी गवाही गँवा बैठूँगी। मैंने हाल की बातों पर विचार किया। मेरे शरीर को थोड़ा कष्ट जरूर हुआ था, लेकिन मेरे हृदय में पूर्णता थी। मेरे काम में परेशानियाँ और कठिनाइयाँ तो आईं, लेकिन मैं सत्य और सिद्धांतों की खोज के लिए परमेश्वर के करीब भी आ गई। मैं हर दिन अपने काम में कुछ न कुछ हासिल करती, जो मुझे सार्थक लगता। पहले मुझमें दैहिक सुखों की लालसा थी, हालाँकि मैं थकती नहीं थी, लेकिन आनंद भी नहीं था, पवित्र आत्मा ने मुझे त्याग दिया था। वह पीड़ा शारीरिक पीड़ा से भी बदतर थी। अब मैं छल-कपट के सहारे काम नहीं चला सकती। फिर मैंने दोबारा अपने काम का आकलन किया, जब कोई असली मुश्किल आती, तो मैं प्रभारी बहन से मदद माँगती, जितना हो सके उतना खपती, जो अपेक्षित था उसके लिए जो बन पड़े करती। इससे मुझे बड़ा सुकून मिलने लगा।

जब मैं अपने पिछले रवैये पर विचार करती हूँ, तो मुझे गहरा पछतावा और शर्मिंदगी होती है। परमेश्वर ने मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए बार-बार माहौल बनाया, मुझे दैहिक सुखों की लालसा और पाशविकता से मुक्त किया, मुझे लज्जा का पाठ पढ़ाया, मुझे विनम्रतापूर्वक कर्तव्य निभाते हुए इंसानियत से जीने योग्य बनाया। यह सच में मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था! परमेश्वर का धन्यवाद!

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