कैसे मैंने अपनी धूर्तता और कपट को दूर किया

05 अप्रैल, 2022

फ्रैंक, फ़िलीपीन्स

मैं हमेशा खुद को ईमानदार इंसान मानता था। सोचता था मेरी कथनी-करनी भरोसे के लायक है, मुझे जानने वाले लोग भी मेरे बारे में यही कहते थे। मुझे लगा मैं एक ईमानदार, भरोसेमंद इंसान हूँ। आस्था रखने के बाद, मैंने शायद ही कभी भाई-बहनों से झूठ बोला हो या जानबूझकर दूसरों को धोखा दिया हो। इसलिए मेरा मानना था, भले ही मैं पूरी तरह ईमानदार नहीं हूँ, पर कम से कम धूर्त या धोखेबाज तो नहीं हूँ। फिर तथ्यों ने जो प्रकट किया, उससे जाना कि मुझे अपनी कपटी प्रकृति का कुछ ज्ञान हुआ, और मैंने अपना असली चेहरा देखा।

एक दिन मेरी साथी, बहन एशले ने मुझे मैसेज भेजकर पूछा कि क्या मैंने एक कार्य विशेष की जानकारी ली थी, क्या उसमें कोई प्रगति हुई थी। तब मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैंने उस प्रोजेक्ट पर कई दिनों से नज़र नहीं रखी, इसलिए मुझे उसकी प्रगति के बारे में ज्यादा पता नहीं था। पहले सोचा सच बता दूँ, फिर दुविधा में पड़ गया, “मैंने हमेशा ऐसा दिखाया है कि मैं एक भरोसेमंद इंसान हूँ, अगर सीधे कह दिया कि मैंने हाल में उस प्रोजेक्ट की खबर नहीं रखी, तो क्या उसे नहीं लगेगा कि मैं अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार हूँ? उसके मन में मेरी नकारात्मक छवि बन जाएगी, उसकी नज़रों में मैं विश्वसनीय नहीं रहूँगा। नहीं, मैं सीधे-सीधे जवाब नहीं दे सकता। मैं जल्दी से प्रोजेक्ट का ध्यान रखने वाली बहन से परिस्थिति को समझकर, फिर एशले को जवाब भेज दूँगा। फिर काम की प्रगति चाहे जैसी भी रहे, पर कम से कम ऐसा तो लगेगा कि मुझे चीजों की जानकारी है।” मैंने ऐसा जताया मानो वो मैसेज देखा ही न हो, फिर काम की जानकारी लेकर जवाब भेज दिया। उस वक्त एशले ने मुझे कुछ नहीं कहा, पर मैं बेचैन और फिक्रमंद रहने लगा। फिर परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : “ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे शर्मिंदा किया। देखने में नहीं लगता था कि मैंने झूठ बोला है, लेकिन अपने कर्मों में अपनी सोच और मंशाओं के ज़रिये मैंने उजागर किया कि मैं कर्तव्य में अपनी लापरवाही को ढकना और छिपाना चाहता था, इस डर से कि एशले मुझे समझ जाएगी। जब मैंने दिखाया कि मैंने उसका संदेश देखा ही नहीं, फिर जवाब देने से पहले फटाफट हालात समझने के लिए प्रभारी बहन के पास दौड़ा, ताकि उसे गलत ढंग से लगे कि मैं जानकारी लेता था, क्या मैं कपटी होकर झूठी छवि नहीं बना रहा था? क्या यह धूर्त और धोखा देने वाला व्यवहार नहीं है? एक मामूली से मुद्दे पर मेरी सोच इतनी जटिल थी, और मेरे आने इरादे थे, सच को छिपाने के लिए छल किया। ये ईमानदार होना कैसे हुआ? यह भरोसे के लायक होना कैसे हुआ? तब समझ आया, कि मैं उतना ईमानदार और खरा नहीं था जितना सोचता था, कभी-कभी मैं भी चाल चलता और दूसरों को धोखा देता था। अगली बार मुझे सच कहना होगा, एक ईमानदार इंसान बनना होगा, और दूसरों को धोखा देने के लिए बातें छिपाना बंद करना होगा।

कुछ ही दिनों बाद, एशले ने बताया कि दो दिन बाद हमारी अगुआ हमारे काम की जांच करेंगी। ये सुनकर मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा, “आम तौर पर अगुआ अचानक हमारे काम की जाँच नहीं करते, तो वह इस बार हमें क्यों खोज रही हैं? उन्हें हमारे काम में किसी समस्या का पता तो नहीं चला? हाल में मैं सिंचन के काम में व्यस्त था, अपने जिम्मे के वीडियो प्रोडक्शन कार्य की मैंने खबर नहीं ली है, न उसमें ज़्यादा कुछ हासिल किया। अगुआ ने उसके बारे में पूछा, तो मैं क्या कहूंगा?” तो मैं अंदाजा लगाने लगा कि वे किस तरह के सवाल पूछेंगी, किन बातों की जानकारी मुझे नहीं है, ताकि फटाफट इनके जवाब खोज लूँ। वरना उन्होंने कोई सवाल किया और मैं जवाब नहीं दे पाया, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहा? मुझे थोड़ी फिक्र और चिंता होने लगी। थोड़ी देर सोचने पर समझ आया, अगुआ का काम की जांच करना तो सामान्य बात है—मैं इतना ज़्यादा क्यों सोच रहा हूँ? मैं न सिर्फ अगुआ के मकसद का अंदाज़ा लगा रहा था, बल्कि अपनी समस्याओं को छिपाने के लिए सिर भी खपा रहा था, मुझे डर था कि उन्हें मेरी समस्याओं का पता चल जाएगा और वो व्यावहारिक काम न करने के कारण मेरी काट-छाँट करेंगी, कहेंगी मैं एक झूठा अगुआ हूँ। क्या मैं खुद को छिपाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ? काम के बारे में अगुआ का पूछना तो बहुत सामान्य बात है। मुझे शांति से इसका सामना करना चाहिए, और अगर समस्याएँ और भटकाव मिले तो बदलाव करना चाहिए। मैं इतना ज़्यादा क्यों सोच रहा था? क्या मैं नहीं कपटी बन रहा था? फिर मुझे परमेश्वर की वचन याद आए : “मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है(मत्ती 5:37)परमेश्वर के वचन स्पष्ट हैं। ईमानदार लोगों को सीधी-सच्ची बात कहनी चाहिए, उन्हें स्पष्टता से बात करनी चाहिए, पर मेरी सोच बहुत पेचीदा थी। मैं सच छिपाने के लिए कुटिल बातें सोच रहा था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, सत्य पर अमल करने और ईमानदारी की राह दिखाने को कहा, ताकि अगुआ कुछ भी पूछें, तो मैं पूरी ईमानदारी से जवाब दे सकूँ।

हमारी सभा में, अगुआ ने सबसे पहले वीडियो प्रोडक्शन कार्य के बारे में पूछा। इस काम के लिए मैं सीधे तौर पर जिम्मेदार था, पर मैं अपना ज़्यादातर वक्त और ऊर्जा सिंचन कार्य में लगा रहा था। वीडियो के कार्य पर ज़्यादा ध्यान नहीं दे रहा था। जब ये बताया, तो उन्होंने व्यावहारिक कार्य न करने को लेकर मेरी काट-छाँट की, फिर उन्होंने पूछा कि कितने नए विश्वासी नियमित ढंग से सभाओं में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। इस सवाल पर मैं थोड़ा घबरा गया। मुझे इसकी भी ज्यादा जानकारी नहीं थी, कभी-कभार इस बारे में पूछ लेता, पर मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। फिर मैंने सोचा, “अभी-अभी तो मैंने कहा कि मेरा सारा ध्यान सिंचन कार्य पर था, लेकिन अगर ये भी नहीं बता पाया कि कितने नए विश्वासी सभाओं में नियमित हिस्सा नहीं ले रहे हैं, तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगी? वो पूछेंगी कि आखिर मैं दिन भर करता क्या हूँ जो ये भी नहीं पता, असल में मैं कोई व्यावहारिक कार्य कर भी रहा हूँ या नहीं। वीडियो के काम में पहले ही कई समस्याएं दिख चुकी हैं, अगर उन्हें सिंचन कार्य में भी समस्याएं दिख गईं, तो क्या वो मुझे फौरन बर्खास्त कर देंगी?” इसलिए मैंने उन्हें एक अंदाज़ा बता दिया, सोचा कि थोड़ी कमोबेश हो, तो कोई बात नहीं। वैसे भी, ये कोई सटीक आंकड़ा नहीं है, तो असल में ये झूठ नहीं है। सभा के बाद, मैंने हालात की जानकारी ली तो पता चला मेरा अंदाज़ा काफी गलत था। ये देखकर मुझे बहुत चिंता हुई। इस बार मैंने बड़ी ढिठाई से झूठ बोला था। मैंने बेशर्मी स धोखा दिया था। मैं झूठ बोलने और धोखा देने से खुद को क्यों नहीं रोक पाया? प्रार्थना में, ईमानदार होने में मेरा विश्वास था। इस हालात का सामना होने पर, मैं खुद को रोक क्यों नहीं पाया? मुझे बहुत बुरा लगा। दो दिन तक, “कपट” शब्द मेरे जेहन में हर वक्त गूँजता रहा। लगा जैसे मैंने वाकई कुछ बुरा किया हो।

अपनी समस्या पर खोज करने के लिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। आत्मचिंतन के वक्त मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्या धोखेबाज लोगों का जीवन थकाऊ नहीं है? वे अपना पूरा समय झूठ बोलने और फिर उन्हें छिपाने के लिए ज्यादा झूठ बोलने और चालबाजी करने में लगा देते हैं। वे खुद को बहुत थका लेते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह जीना थकाऊ है—फिर भी वे क्यों धोखेबाज बने रहना चाहते हैं, ईमानदार क्यों नहीं होना चाहते? क्या तुम लोगों ने कभी इस सवाल पर विचार किया है? यह लोगों के अपनी शैतानी प्रकृति द्वारा बेवकूफ बनाए जाने का नतीजा है; यह उन्हें ऐसे जीवन और ऐसे स्वभाव से छुटकारा पाने से रोकता है। लोग इस तरह बेवकूफ बनाए जाने और इस तरह जीने को तैयार रहते हैं; वे सत्य पर अमल नहीं करना चाहते, प्रकाश के मार्ग पर नहीं चलना चाहते। तुम्हें लगता है कि इस तरह जीना थकाऊ है और इस तरह कार्य करना जरूरी नहीं है—लेकिन धोखेबाज लोग सोचते हैं कि यह बहुत जरूरी है। वे सोचते हैं कि ऐसा न करने से उनका अपमान होगा; उनकी छवि, शोहरत और हितों को भी नुकसान पहुँचेगा, और वे बहुत-कुछ खो देंगे। वे ये चीजें सँजोते हैं, अपनी छवि, शोहरत और हैसियत को सँजोते हैं। यह उन लोगों का असली चेहरा है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। संक्षेप में, लोग ईमानदार होने या सत्य पर अमल करने को इसलिए तैयार नहीं होते, क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे शोहरत और हैसियत जैसी चीजों को संजोते हैं, सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागना और शैतान की सत्ता के अधीन जीना पसंद करते हैं। यह उनकी प्रकृति की समस्या है। अभी ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं और जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है। लेकिन फिर भी वे सत्य पर अमल नहीं करते और वे जरा भी नहीं बदले हैं—ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझते हों, फिर भी वे उस पर अमल नहीं कर पाते। ऐसे लोग परमेश्वर में चाहे जितने वर्ष विश्वास रख लें, कुछ भी नहीं होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। “कुछ लोग कभी किसी को सच नहीं बताते। लोगों से कहने से पहले वे अपने दिमाग में हर चीज पर सोच-विचार कर उसे चमकाते हैं। तुम नहीं बता सकते कि उनकी कौन-सी बातें सच हैं और कौन-सी झूठी। वे आज एक बात कहते हैं तो कल दूसरी, वे एक व्यक्ति से एक बात कहते हैं तो दूसरे से कुछ और। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अपने आप में विरोधाभासी होता है। ऐसे लोगों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? तथ्यों की सटीक समझ प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाता है, तुम उनसे कोई सीधी बात नहीं बुलवा सकते। यह कौन-सा स्वभाव है? यह कपट है। क्या कपटी स्वभाव बदलना आसान है? इसे बदलना सबसे मुश्किल है। जिस भी चीज में स्वभाव शामिल होते हैं, वह व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित होती है, और व्यक्ति की प्रकृति से जुड़ी चीजों से मुश्किल किसी भी चीज का बदलना नहीं होता। ‘कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी रहती है’ कहावत बिल्कुल सच है। कपटी लोग चाहे किसी भी चीज के बारे में बात करें या कुछ भी करें, वे हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे रखते हैं। अगर उनका कोई लक्ष्य या इरादा न हो, तो वे कुछ नहीं कहेंगे। अगर तुम यह समझने की कोशिश करो कि उनके लक्ष्य और इरादे क्या हैं, तो वे एकाएक बोलना बंद कर देते हैं। अगर उनके मुँह से अचानक कोई सच निकल भी जाए, तो वे उसे तोड़ने-मरोड़ने का कोई तरीका सोचने के लिए किसी भी हद तक जाएँगे, ताकि तुम्हें भ्रमित कर सच जानने से रोक सकें। कपटी व्यक्ति चाहे कुछ भी करें, वे उसके बारे में किसी को पूरा सच पता नहीं चलने देंगे। लोग चाहे उनके साथ कितना भी समय बिता लें, कोई नहीं जानता कि उनके दिमाग में वास्तव में क्या चल रहा है। ऐसी होती है कपटी लोगों की प्रकृति। कपटी व्यक्ति चाहे कितना भी बोल लें, दूसरे लोग कभी नहीं जान पाएँगे कि उनके इरादे क्या हैं, वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं, या वे ठीक-ठीक क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। यहाँ तक कि उनके माता-पिता को भी यह जानने में मुश्किल होती है। कपटी लोगों को समझने की कोशिश करना बेहद मुश्किल है, कोई नहीं जान सकता कि उनके दिमाग में क्या है। कपटी लोग ऐसे ही बोलते या करते हैं : वे कभी अपने मन की बात नहीं कहते या जो वास्तव में चल रहा होता है, उसे व्यक्त नहीं करते। यह एक प्रकार का स्वभाव है, है न? जब तुम्हारा स्वभाव कपटी होता है, तो तुम चाहे कुछ भी कहो या करो—यह स्वभाव हमेशा तुम्हारे भीतर रहता है, तुम्हें नियंत्रित करता है, तुमसे खेल कराता है और तुम्हें छल-कपट में संलग्न करता है, तुमसे लोगों के साथ खिलवाड़ कराता है, सत्य पर पर्दा डलवाता है और तुमसे अपने असली मनोभाव छिपवाता है। यह कपट है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। परमेश्वर के वचनों से पता चला कि मैं झूठ बोलने, धोखा देने और सच को छिपाने से खुद को नहीं रोक पाया, क्योंकि मैं धूर्त था, अपने नाम और रुतबे को संजोता था। इन्हें बचाने के लिए, मैं जो भी कहना चाहता था, उस पर कई बार सोचता, बार-बार मन में इसे दोहराता, ये कितना भी थकाने वाला हो, पर मैं सही बात बताना नहीं चाहता था। मैंने ईमानदार बनने के लिए परमेश्वर से मदद मांगी, पर जब अगुआ ने उस काम के बारे में पूछा जिसकी मुझे जानकारी नहीं थी, तो मैंने सोचा कि अगर मैंने सीधे कह दिया कि मुझे नहीं पता, तो उन्हें लगेगा मैं व्यावहारिक काम नहीं कर रहा था, मैं भरोसे के लायक नहीं हूँ, बहुत बुरा हुआ तो मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता है। अपने रुतबे के लिए, मैं नहीं चाहता था कि अगुआ को मेरे कर्तव्य में कोई समस्या या भटकाव दिखे, इसलिए मैं सच को छिपाने के तरीके सोच रहा था। मुझे सचमुच जानकारी नहीं थी कि कितने नवागत नियमित ढंग से सभा में भाग नहीं ले रहे थे, पर मैंने चालाकी से एक अनुमान बता दिया, ताकि अगुआ को लगे कि मुझे काम के सभी पहलुओं की अच्छी समझ है, मैं कुछ व्यावहारिक काम कर सकता हूँ। मैंने देखा कि मैं सिर्फ अपने नाम और रुतबे को बचाने के लिए इतनी साधारण-सी बात पर चाल चलने और धोखा देने को तैयार था। कितनी शातिर बात है! असल में कर्तव्य करते समय समस्या या भटकाव का होना असामान्य नहीं है। पता चलने के बाद अगर चीजों को तुरंत पलट दिया जाए, तो कोई बात नहीं। इसमें कुछ भी छिपाने या धोखेबाज बनने की कोई ज़रूरत नहीं है। पर, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बचाने की कोशिश में मैंने बेईमान और धोखेबाज बनकर, अपनी समस्याएँ छिपाई, अपने चरित्र और गरिमा की बलि चढ़ा दी। क्या यह मूर्खता नहीं थी? इससे एहसास हुआ कि भले ही बाहर से मैं ईमानदार दिखता था, पर अपनी कथनी और कर्म में ईमानदार नहीं था, न ही मेरे विचार सरल थे। जो मैंने उजागर किया, वो पूरी तरह एक शैतानी स्वभाव था। मैं कपटी, धोखेबाज और कमीना था। मैं सच में धूर्त, घिनौना और भ्रष्ट इंसान था। मुझे खुद से ही नफ़रत हो गई, तो भला परमेश्वर मुझसे घृणा और मुझसे नफरत कैसे नहीं करता? मैंने हमेशा खुद को एक सच्चा इंसान माना, जो शायद ही कभी कपट करता है। न ही मैंने कभी खुले तौर पर परमेश्वर को धोखा देने या उसके ख़िलाफ़ जाने वाला कोई काम नहीं किया, मुझे लगता था वो मुझे एक नेक, ईमानदार इंसान समझेगा। मुझे ईमानदार बनने के सत्य पर अमल करने के लिए काम करने की ज़रूरत नहीं है, मैं इसी तरह कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर का अनुसरण करता रहूँ तो मुझे बचा लिया जाएगा। मैं खुद को थोड़ा भी नहीं जानता था। अगर वास्तविकता ने मुझे सच्चाई न दिखाई होती और परमेश्वर के वचनों का न्याय और खुलासा नहीं होता, तो खुद को कभी नहीं समझ पाता। आखिरकार मैंने जाना कि मैं ईमानदार इंसान होने के आसपास भी नहीं हूँ। मैं उससे कोसों दूर हूँ।

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब मसीह-विरोधियों को उजागर किया जाता है और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो पहला काम वे यह करते हैं कि अपने बचाव के लिए विभिन्न कारण खोजते हैं, समस्या से बचने की कोशिश में सभी प्रकार के बहाने तलाशते हैं, और इस प्रकार अपनी जिम्मेदारियों से बचने का अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैं, और क्षमा किए जाने का अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेते हैं। मसीह-विरोधी जिस बात से सबसे अधिक डरते हैं, वह यह है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनके व्यक्तित्व, उनकी कमजोरियों और खामियों, उनके कमजोर पक्ष, उनकी वास्तविक क्षमता और कार्य करने की योग्यता की असलियत देख लेंगे—और इसलिए वे नाटक करने और अपनी कमियाँ, समस्याएँ और भ्रष्ट स्वभाव छिपाने की पूरी कोशिश करते हैं। जब उनके कुकर्म उजागर हो जाते हैं, तो पहला काम वे यह करते हैं कि इस तथ्य को मानते या स्वीकारते नहीं, या अपनी गलतियों की भरपाई या क्षतिपूर्त करने का भरसक प्रयास नहीं करते, बल्कि उनकी लीपापोती करने, अपने कार्यों से अवगत लोगों को भ्रमित करने और उन्हें धोखा देने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मामले की असलियत न देखने देने, और उन्हें यह न जानने देने की कोशिश करते हैं कि उनके कार्य परमेश्वर के घर के लिए कितने हानिकारक रहे हैं, और कलीसिया के काम को उन्होंने कितना अस्त-व्यस्त किया है। बेशक, वे जिस चीज से सबसे ज्यादा डरते हैं, वह यह होती है कि कहीं ऊपर वाले को पता न लग जाए, क्योंकि ऊपर वाले को पता चलते ही उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार निपटा जाएगा और उनके लिए सब-कुछ खत्म हो जाएगा, और उन्हें बर्खास्त कर बाहर निकाला जाना निश्चित है। और इसलिए, जब मसीह-विरोधी बुराई करते हैं और उजागर कर दिए जाते हैं, तो पहला काम जो वे करते हैं, वह है यह न सोचना कि उनसे कहाँ गलती हुई है, कहाँ उन्होंने सिद्धांत का उल्लंघन किया है, उन्होंने जो किया वह क्यों किया, वे किस स्वभाव से नियंत्रित थे, उनके इरादे क्या थे, उस समय उनकी कैसी अवस्था थी, यह उनके स्वेच्छाचार के कारण हुआ या दूषित इरादों के कारण। इन चीजों का विश्लेषण करने के बजाय, और इन पर चिंतन तो बिलकुल भी न करके, वे अपना दिमाग असली तथ्यों को छिपाने का कोई तरीका सोचने में लगाते हैं। साथ ही, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने उन्हें युक्तिसंगत बताने की भी पूरी कोशिश करते हैं ताकि उन्हें चकमा दे सकें, वे अपनी की हुई चीजों को न्यूनतम करने और तिकड़म से इस कठिन समस्या से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं—ताकि वे परमेश्वर के घर में बने रहकर दंड से बच सकें, अपने सामर्थ्य का दुरुपयोग कर सकें, ताकि वे अभी भी लोगों को धोखा देकर उन्हें नियंत्रित कर सकें, उनसे अपना सम्मान करवा सकें, और उनसे जैसा वे कहते हैं वैसा ही करवाने की अपनी अनियंत्रित इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकें(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद ग्यारह)। परमेश्वर के वचन मेरे लिए खतरे की घंटी थे। खासकर जब मैंने इन शब्दों को पढ़ा, “मसीह-विरोधी,” “उनकी लीपापोती करना,” “धोखा देना,” और “भ्रमित करना,” लगा जैसे परमेश्वर सामने से मेरा न्याय करके मुझे उजागर कर रहा हो। जब एशले ने पूछा कि क्या मैं उस प्रोजेक्ट पर नज़र रख रहा हूँ, तब मैंने फौरन ये नहीं माना कि मैंने ऐसा नहीं किया, उस मौके का इस्तेमाल आत्मचिंतन करने और ये सोचने के लिए नहीं किया, कि मैं अपने भटकाव कैसे दूर कर सकता हूँ। मैसेज न देखने का बहाना बनाकर फटाफट जवाब ढूंढे और उनको बता दिया। ताकि एशले को पता न चले कि मैं उस प्रोजेक्ट पर ध्यान नहीं दे रहा या ये कि मैंने अपने कर्तव्य में कोई बोझ या जिम्मेदारी नहीं उठाई थी। उन्हें लगेगा कि मैं भरोसेमंद हूँ, मुझ पर भरोसा किया जा सकता है। फिर जब अगुआ मेरे काम की जांच करने आईं, तो मेरे कर्तव्य में समस्याएं और भटकाव देख, उन्होंने मेरी काट-छाँट की, तो मैंने न सिर्फ इसे स्वीकार कर आत्मचिंतन नहीं किया, ये नहीं माना कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं करता और अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हूँ, ऊपर से मैंने झूठ बोला, धोखा दिया और सच छिपाया। मैंने खुद से ये तक कहा, “भविष्य में मुझे कड़ी मेहनत करके पक्का करना है कि अगुआ के हर सवाल का फौरन जवाब दूँ, ताकि उन्हें मेरे काम में कोई गड़बड़ी या चूक न दिखे, बल्कि वे सोचें कि मैं जिम्मेदार हूँ, पूरी जानकारी रखता हूँ।” अपने नाम और रुतबे की रक्षा के लिए मैं दिमाग के घोड़े दौड़ा रहा था, डर रहा था कि लोग मुझे समझ जाएंगे, और मेरी “कर्तव्यनिष्ठ, जिम्मेदार, वफादार और भरोसेमंद” होने की छवि धूमिल हो जाएगी। क्या मेरा लक्ष्य यह नहीं था कि दूसरे मुझे महत्त्व दें और मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ? मैंने देखा कि मैंने जो स्वभाव दिखाया वो सचमुच एक मसीह-विरोधी का स्वभाव था। जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है या उसे उजागर किया जाता है, तो वह समर्पित होकर आत्मचिंतन करने के बजाय, खुद को सही ठहराने, जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने और अपनी समस्याएं छिपाने की भरसक कोशिश करता है। वह पूरी तरह बेशर्म होता है। मसीह-विरोधी सत्य को स्वीकार करने की ज़रा सी भी इच्छा नहीं दिखाते, वे अपनी तरकीबें लड़ाते हुए बोलते और काम करते हैं कि उनका नाम और रुतबा कायम रह सके। क्या मैं भी ऐसा ही नहीं कर रहा था? मैंने व्यावहारिक कार्य नहीं किया, खुद को कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं किया, तो मुझे अपराध बोध होना और ऋणी महसूस करना चाहिए था। मगर न सिर्फ मुझे कोई अंदाजा नहीं था, बल्कि मैं खुद को छिपाने और बचाने का निरंतर भरसक प्रयास कर रहा था। मैं सच में धूर्त, कपटी और घिनौना और दुष्ट था। लगा जैसे मुझे उजाले में उजागर करके, उघाड़ दिया गया हो, परमेश्वर ने मेरे कर्मों का न्याय करके मेरी निंदा की हो। मैंने ये भी महसूस किया कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है और कोई अपमान नहीं सहता, मुझे बहुत डर लगा, मैं काँपने लगा। मैं जानता था मुझे फौरन पश्चाताप करके बदलना होगा।

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अगर लोग ईमानदार होने की कोशिश करें तभी वे जान सकते हैं कि वे कितनी बुरी तरह से भ्रष्ट हैं, उनमें वास्तव में इंसानियत बची है या नहीं, और क्या वे अपनी थाह ले सकते हैं कि नहीं या अपनी कमियाँ देख सकते हैं कि नहीं। ईमानदारी पर अमल करने पर ही वे जान सकते हैं कि वे कितने झूठ बोलते हैं और कपट और बेईमानी उनके अंदर कितनी गहराई में छिपे हैं। ईमानदारी पर अमल करने का अनुभव होने पर ही वे धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को जान सकते है और अपने प्रकृति-सार को पहचान सकते हैं और तभी उनका भ्रष्ट स्वभाव निरंतर शुद्ध हो सकेगा। अपने भ्रष्ट स्वभाव की निरंतर शुद्धि के दौरान ही लोग सत्य पा सकते हैं। इन वचनों का अनुभव करने के लिए समय लो। परमेश्वर उन लोगों को सिद्ध नहीं बनाता है जो धोखेबाज हैं। अगर तुम लोगों का हृदय ईमानदार नहीं है, अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाओगे। इसी तरह, तुम कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और परमेश्वर को पाने में भी असमर्थ रहोगे। परमेश्वर को न पाने का क्या अर्थ है? अगर तुम परमेश्वर को प्राप्त नहीं करते हो और तुमने सत्य को नहीं समझा है, तो तुम परमेश्वर को नहीं जानोगे और तुम्हारे पास परमेश्वर के अनुकूल होने का कोई रास्ता नहीं होगा, ऐसा हुआ तो तुम परमेश्वर के शत्रु हो। अगर तुम परमेश्वर से असंगत हो, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है; अगर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। अगर तुम उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? अगर तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम हमेशा परमेश्वर के कट्टर शत्रु बनकर रहोगे और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा। इस प्रकार, अगर लोग चाहते हैं कि उन्हें बचाया जाए, तो उन्हें ईमानदार बनना शुरू करना होगा। अंत में जिन्हें परमेश्वर प्राप्त कर लेता है, उन पर एक संकेत चिह्न लगाया जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? बाइबल में, प्रकाशित-वाक्य में लिखा है : ‘उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं’ (प्रकाशितवाक्य 14:5)। कौन हैं ‘वे’? ये वे लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचाया, पूर्ण किया और प्राप्त किया जाता है। परमेश्वर उनका वर्णन कैसे करता है? उनके आचरण की विशेषताएँ और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उन पर कोई दोष नहीं है। वे झूठ नहीं बोलते। तुम सब शायद समझ-बूझ सकते हो कि झूठ न बोलने का क्या अर्थ है : इसका अर्थ ईमानदार होना है। ‘निर्दोष’ का क्या मतलब है? इसका मतलब है कोई बुराई न करना। और कोई बुराई न करना किस नींव पर निर्मित है? बिना किसी संदेह के, यह परमेश्वर का भय मानने की नींव पर निर्मित है। अतः निर्दोष होने का अर्थ है परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। निर्दोष व्यक्ति को परमेश्वर कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर की दृष्टि में केवल वे ही पूर्ण हैं, जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं; इस प्रकार, निर्दोष लोग वे हैं जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं, और केवल पूर्ण लोग ही निर्दोष हैं। यह बिल्कुल सही है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचन से मैंने देखा कि कपटी लोग बहुत झूठे होते हैं। वे पूरी तरह शैतानी स्वभाव में जीते हैं और परमेश्वर के शत्रु हैं। वे शैतान के हैं, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। मैंने देखा कि मेरे झूठ और धोखे ने मुझे बड़े खतरे में डाल दिया था और मैं बहुत बेशर्म था! अगर खुलासे की ये घटनाएँ न होतीं, तो मैंने अपने झूठ और धोखे की हद कभी न जान पाता, न अपने धूर्त और कपटी शैतानी स्वभाव की गंभीरता को जान पाता। मैं इस तरीके से काम नहीं कर सकता। मुझे अपनी गलतियां मानकर सत्य पर अमल करना और ईमानदार इंसान बनना होगा।

मैं अगुआ को असलियत बताने के लिए संदेश भेजने को तैयार हो गया, पर फिर मुझे थोड़ा संकोच होने लगा। “अगर मैंने अगुआ को बता दिया कि मैंने झूठ बोला, तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या उन्हें ये नहीं लगेगा कि मैं बहुत चालाक इंसान हूँ, जो इतनी साधारण-सी बात पर इतना सोचा, इस बारे में झूठ तक बोला, और मैं भरोसे के लायक नहीं हूँ? इस बार कुछ नहीं कहूँगा, पर अगली बार सीधी बात कहूंगा, ईमानदार रहूँगा, तब उसे पश्चाताप के रूप में गिना जाएगा।” मैं खुद को दिलासा देता रहा कि दोबारा कभी झूठ नहीं बोलूँगा, पर मेरा ज़मीर कचोट रहा था, मुझे अपराध बोध हुआ। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब लोग ईमानदार होने का अनुभव करते हैं, तो कई व्यावहारिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी वे बिना सोचे-समझे बोल देते हैं, वे क्षण भर के लिए चूक कर बैठते हैं और झूठ बोल देते हैं, क्योंकि वे गलत इरादे या उद्देश्य, या अभिमान और गर्व से संचालित होते हैं, और नतीजतन, उन्हें इसे छिपाने के लिए ज्यादा से ज्यादा झूठ बोलना पड़ता है। अंत में उन्हें अपने दिल में सहजता महसूस नहीं होती, लेकिन वे वो झूठ वापस नहीं ले पाते, उनमें अपनी गलतियाँ सुधारने का, यह स्वीकारने का साहस नहीं होता कि उन्होंने झूठ बोले थे, और इस तरह उनकी गलतियाँ लगातार होती जाती हैं। इसके बाद हमेशा ऐसा होता है जैसे उनका दिल किसी चट्टान से दबा जा रहा हो; वे हमेशा अपना भेद खोलने, गलती स्वीकारने और पश्चात्ताप करने का अवसर ढूँढ़ना चाहते हैं, लेकिन वे इसे कभी अभ्यास में नहीं लाते। अंततः वे इस पर विचार कर मन ही मन कहते हैं, ‘मैं जब भविष्य में अपना कर्तव्य निभाऊँगा तो इसकी भरपाई कर दूँगा।’ वे हमेशा कहते हैं कि वे इसकी भरपाई कर देंगे, लेकिन कभी करते नहीं। यह झूठ बोलने के बाद माफी माँगने जितना आसान नहीं है—क्या तुम झूठ बोलने और धोखे में शामिल होने के नुकसान और परिणामों की भरपाई कर सकते हो? अगर अत्यधिक आत्म-घृणा के बीच तुम पश्चात्ताप का अभ्यास करने में सक्षम रहते हो और फिर कभी उस तरह की चीज नहीं करते, तो तुम्हें परमेश्वर की सहनशीलता और दया प्राप्त हो सकती है। अगर तुम मीठी बातें बोलते हो और कहते हो कि तुम भविष्य में अपने झूठ की भरपाई कर दोगे, लेकिन वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, और बाद में झूठ बोलना और धोखा देना जारी रखते हो, तो तुम पश्चात्ताप करने से इनकार करने में बेहद जिद्दी हो, और तुम्हें निश्चित रूप से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। इसे उन लोगों को पहचानना चाहिए, जिनके पास जमीर और समझ है। झूठ बोलने और धोखे में शामिल होने के बाद सिर्फ उन्हें सुधारने के बारे में सोचना ही पर्याप्त नहीं है; सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें सच में पश्चात्ताप करना चाहिए। अगर तुम ईमानदार होना चाहते हो, तो तुम्हें झूठ बोलने और धोखा देने की समस्या का समाधान करना चाहिए। तुम्हें सच बोलना चाहिए और व्यावहारिक चीजें करनी चाहिए। कभी-कभी सच बोलने के परिणामस्वरूप तुम्हें अनादर झेलना पड़ेगा और तुम्हारी काट-छाँट की जाएगी, लेकिन तुमने सत्य का अभ्यास किया होगा, और उस एक घटना में परमेश्वर का आज्ञापालन कर उसे संतुष्ट करना उपयोगी होगा, और यह ऐसी चीज होगी जो तुम्हें आराम देगी। हर हाल में तुम अंततः ईमानदार होने का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे, तुम अंततः अपना बचाव करने या खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश किए बिना अपने दिल की बात कहने में सक्षम हो जाओगे, और यही सच्चा विकास है। चाहे तुम्हारी काट-छाँट की जाए या तुम्हें बदला जाए, तुम अपने दिल में दृढ़ता महसूस करोगे, क्योंकि तुमने झूठ नहीं बोला; तुम महसूस करोगे कि चूँकि तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, इसलिए तुम्हारी काट-छाँट होना और तुम्हारा इसकी जिम्मेदारी लेना सही था। यह एक सकारात्मक मानसिक अवस्था है। लेकिन अगर तुम धोखे में शामिल होते हो, तो क्या परिणाम होंगे? धोखे में शामिल होने के बाद तुम अपने दिल में कैसा महसूस करोगे? असहज; तुम्हें हमेशा महसूस होगा कि तुम्हारे दिल में अपराध और भ्रष्टता है, तुम हमेशा दोषी महसूस करोगे : ‘मैं झूठ कैसे बोल सका? मैं दोबारा धोखे में शामिल कैसे हो सका? मैं ऐसा क्यों हूँ?’ तुम्हें लगेगा मानो तुम अपना सिर ऊँचा नहीं उठा सकते, मानो तुम इतने शर्मिंदा हो कि परमेश्वर का सामना नहीं कर सकते। विशेष रूप से जब लोगों को परमेश्वर का आशीष मिलता है, जब उन्हें परमेश्वर का अनुग्रह, करुणा और सहनशीलता प्राप्त होती है, तो उन्हें और भी ज्यादा महसूस होता है कि परमेश्वर को धोखा देना शर्मनाक है, और उनके दिलों में तिरस्कार का सशक्त बोध होता है, और शांति और आनंद कम महसूस होता है। यह किस समस्या को प्रदर्शित करता है? लोगों को धोखा देना एक भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है, यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करना और उसका विरोध करना है, इसलिए यह तुम्हें पीड़ा पहुँचाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी ही हालत बयाँ की थी। मुझे लगा जैसे परमेश्वर यह सब सीधे मुझसे ही कह रहा हो, मैंने जाना कि कपटी होना और ईमानदार होना, बिल्कुल विपरीत मार्ग हैं। कपटी होना सही मार्ग नहीं है, यह सामान्य इंसानियत नहीं है। लोग झूठ और मक्कारी से कभी-कभी अपना लक्ष्य हासिल कर सकते हैं, पर वे अपना ईमान और गरिमा खो देते हैं। इससे अपराध बोध और बेचैनी ही होगी, वे अँधेरे में जिएंगे, शैतान के हाथों धोखा खाएँगे और वह उनकी हँसी उड़ाएगा। मैंने देखा कि झूठ बोलते और कपट करते हुए, मैंने ऐसे शर्मनाक इरादे पाले जिन्हें सामने नहीं लाया जा सकता, पीड़ादायक रूप से मैं शैतान के हाथों का खिलौना बन गया था! मेरे झूठ और धोखे से कुछ पल के लिए मेरा अहंकार संतुष्ट हो सकता था, पर परमेश्वर इसे घृणा कर इसकी निंदा करता है और इसे नहीं स्वीकारता। क्या यह मूर्खता नहीं थी? हर अहम मौके पर, जब मुझे सच कहने की ज़रूरत थी, मैं खुद से नरमी से पेश आते हुए कहता, “अगली बार मैं सत्य पर अमल करूंगा, अगली बार।” मैं खुद को माफ किए जा रहा था, जिन सत्यों को समझा, उस पर अमल नहीं किया, इसलिए मैंने कभी ईमानदार होने की वास्तविकता को नहीं जिया, अपने धोखेबाज स्वभाव को किनारे नहीं रखा परमेश्वर ऐसे इंसान को कैसे बचा सकता था? इस पर सोचते हुए मैंने खुद से कहा कि मैं आगे से ऐसा नहीं कर सकता, लोग मुझे कैसा भी समझें, इससे फर्क नहीं पड़ता, मुझे सबसे ज्यादा जरूरत है परमेश्वर के सामने जीने की, उसकी जांच-पड़ताल को स्वीकारने और ऐसा इंसान बनने की जिसे वह अनुमोदित कर सके। यही सबसे अहम है। मुझे सरल और खुला होना चाहिए, सच बोलना चाहिए। अगर किसी ने मुझे अच्छे से जान लिया और मेरा नाम और रुतबा खराब हो गया, तब भी सत्य पर अमल करके ईमानदार बनने का मतलब परमेश्वर की स्वीकृति पाना होगा, यही बात सबसे अधिक मायने रखती है, यही सबसे कीमती और सार्थक है! मैं हमेशा अपनी समस्याओं को छिपाता रहा, भले ही दूसरों को उनके बारे में पता न चला और मेरी काट-छाँट नहीं की गई हो या मुझे दोष न दिया गया हो, पर मुझे अपनी भ्रष्टता और कमियों का सच्चा ज्ञान नहीं हुआ, इसलिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदल नहीं पाया, अपने कर्तव्य में बेहतर नहीं कर पाया। ये चीज़ें मेरे दिल में एक ट्यूमर की तरह बनी रहीं जो लगातार बढ़ती ही जा रही थीं, और आखिर में मुझे खत्म कर डालतीं। हालांकि जो भाई-बहन सरल और सच्चे थे, वे अपने कर्तव्य की सभी गलतियों और समस्याओं को सबके सामने खुलकर बता देते थे, कभी-कभी उनकी काट-छाँट की जाती, उन्हें दोष दिया जाता या वे बर्खास्त भी किए जाते, पर उसका असर सीधे उनके दिल पर होता था। वे जल्द अपनी समस्याओं को समझकर उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजते, जिससे उनके जीवन में काफी प्रगति होती। भले ही सरल होना, खुलकर बोलना शर्मनाक था, पर वे सत्य पर अमल करके परमेश्वर की स्वीकृति पा लेते। यही बुद्धिमानी है। मैं सोचता था मेरे पास तरकीबों की कमी नहीं, मैं चालाक हूँ, दूसरों की आँखों में धूल झोंकना स्मार्ट होना है, पर मैं निहायत ही मूर्ख और बेवकूफ था! मैं कुछ ज्यादा ही स्मार्ट था। मैं बिल्कुल हँसी का पात्र था! ये एहसास होने पर मैंने ये सोचना छोड़ दिया कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे, परमेश्वर को फिर से निराश न करके सत्य पर अमल कर शैतान को शर्मिंदा करना चाहता था। मैंने अगुआ को झूठ बोलने के कारण, अपने इरादे के साथ-साथ, सच बताने के लिए हिम्मत जुटाई। मैसेज भेजने के बाद मुझे काफी सुकून और शांति मिली। अगुआ ने जल्दी ही जवाब में यह कहा, “ईमानदार बनने की कोशिश करना बहुत बढ़िया है। मेरा स्वभाव भी भ्रष्ट और कपटी है...।” यह देखकर मेरा दिल भर आया, शर्मिंदा भी हुआ। ईमानदार बनने की इस कोशिश ने मुझे दिखाया कि इंसान बनने का यही सबसे सही तरीका है।

उसके बाद, अपने रोजमर्रा के जीवन में मैं इरादतन अपनी कथनी और करनी में ईमानदारी का अभ्यास करने लगा, और मुझे पता चला कि मैं अपनी कही बहुत सी बातों में सही और निष्पक्ष नहीं था। कभी-कभी मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर बातें करता, कभी-कभी बढ़ा-चढ़ाकर या गलत ढंग से बातें करता। कभी तो जानबूझकर खुद को गलत तरीके से पेश कर कपट करता। धीरे-धीरे और भी साफ हो गया कि मैं आदतन झूठा इंसान हूँ। मुझे याद है, एक बार अगुआ ने मैसेज भेजकर पूछा कि प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है, मैंने अनजाने में सोचा “समय रहते मैंने हालात का जायजा नहीं लिया, लेकिन अगर मैंने कहा ‘मुझे नहीं पता, मुझे जाकर पूछना पड़ेगा,’ तो क्या अगुआ को लगेगा कि मैं व्यावहारिक नहीं हूँ, और बस नारे लगा सकता हूँ? शायद मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए, जल्दी से हालात जानकर फिर जवाब देना चाहिए। तब कम से कम अगर वो काम न हुआ हो, तो अगुआ मेरे बारे में कुछ बुरा नहीं कहेंगी, लगेगा कि कम से कम मैं चीज़ों की जानकारी तो रख रहा हूँ।” मैं ऐसा करने ही वाला था, तभी एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कपटी बन रहा हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर से मन में प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अपने कुटिल इरादों को त्यागकर, ईमानदार बनकर सत्य पर अमल करना चाहता हूँ। मुझे राह दिखाओ, मेरी मदद करो।” प्रार्थना के बाद, परमेश्वर के ये वचन याद आए : “झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है, और इससे परमेश्वर नाराज होता है और चिढ़ता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। “चरित्र” और “आत्म-सम्मान” जैसे शब्दों ने मुझे सच बोलने और राक्षस की तरह जीना छोड़ने के लिए प्रेरित किया। फिर मैंने ये कहते हुए सीधा सा जवाब भेजा, “मुझे इस बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है, पहले इसका पता लगाना होगा।” संदेश भेजने के बाद मेरे दिल को काफी सुकून मिला। मुझे और भी ज़्यादा लगने लगा कि ईमानदार होना इंसानियत का सबसे बुनियादी पहलू है, यह इंसानियत की न्यूनतम अपेक्षा है। केवल ईमानदारी ही सामान्य व्यक्ति की पहचान है। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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