भूकंप के बाद
मैंने जुलाई 2019 में अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े, जब भी मैं उन्हें पढ़ती, लगता जैसे परमेश्वर मुझसे आमने-सामने बात कर रहा हो। यह बहुत पोषक था, मैंने इसका बहुत आनंद लिया। ऐसा एहसास मैंने पूरे जीवन में कभी नहीं किया था। सहभागिता से मैंने जाना कि जीवन में हमें परमेश्वर में आस्था रखकर उसके वचन पढ़ने चाहिए, अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। हालाँकि मेरे डैड मेरी आस्था के ख़िलाफ़ थे, मुझ पर काफी गुस्सा करते थे, फिर भी मैं सभाओं में जाती रही, क्योंकि मैं जानती थी कि परमेश्वर के वचनों को अच्छी तरह समझने का यही तरीका है। परमेश्वर के वचन पढ़ने से पहले मेरा जीवन बहुत खाली था। इन वचनों ने ही मुझे पूर्ण किया और जीवन में दिशा दिखाई। मैं जानती थी कि सभाओं में जाना और उसके वचन पढ़ना मेरे लिए कितना अहम है।
लेकिन जल्दी ही मेरे सामने एक प्रलोभन आया। मेरी पड़ोसन ने मुझे उस स्टोर में नौकरी करने को कहा जहां वो काम करती थी, वहां मैं रोजाना करीब साढ़े सात सौ रुपए कमा सकती थी। उसे यकीन था कि मुझे नौकरी मिल जाएगी। ये मुझे अच्छी कमाई लगी। उस पैसे से मैं अपनी पसंद की कई चीज़ें खरीद सकती थी, अपने माता-पिता की मदद भी कर सकती थी। हालांकि नौकरी करने पर मेरा सभाओं में हिस्सा लेना मुश्किल था। फिर भी मैं पैसे कमाने का ये मौका गंवाना नहीं चाहती थी। आखिरकार में इस प्रलोभन से बच नहीं पाई और मैंने सहमति दे दी। मैंने सिर्फ एक महीने का अनुबंध किया, सोचा, फिर सामान्य रूप से सभाओं में हिस्सा लेने लगूंगी, इस बीच सभाओं में जाने की पूरी कोशिश करूंगी। लेकिन मैंने जैसा सोचा था, वैसा नहीं हुआ। मेरी उम्मीद के उलट, सभाओं में जाना मुमकिन नहीं था। मैं वहाँ अपना फ़ोन इस्तेमाल नहीं कर सकती थी, और छुट्टी शाम 6 बजे होती थी। काम के लिए दूर जाना होता था, इसलिए घर आने तक थककर चूर हो जाती। मुझमें ऊर्जा नहीं बचती थी। समय पर घर न पहुँचती, तो सभा में जाने में देर हो जाती। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा, जैसे मैं परमेश्वर से दूर होती जा रही हूँ, मुझे डर और बेचैनी महसूस होने लगी। पता नहीं क्यों, मन हमेशा दुखी रहता। चेहरे पर मुस्कान होती, पर अंदर से दिल दुखी रहता। लगा, जैसे मेरे जीवन की पूरी रोशनी गायब हो गई। कभी-कभी इतना अंधेरा महसूस होता कि मैं रोने लगती। सभाओं में जाने की बहुत याद आती। जब स्टोर में कोई ग्राहक न होता, तो मैं याद करके परमेश्वर के वचन नोटबुक में लिखा करती, और समय मिलने पर उन्हें पढ़ती और विचार करती। मुझे परमेश्वर की मदद और मार्गदर्शन महसूस होता। मैं हमेशा कैलेंडर देखती, अनुबंध पूरा होने में बचे दिन गिना करती। मैं नौकरी छोड़कर फिर से सभाओं में जाना चाहती थी।
एक दिन मैंने फेसबुक पर परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश देखे, जो एक भाई ने भेजे थे। "एक के बाद एक सभी तरह की आपदाएँ आ पड़ेंगी; सभी राष्ट्र और स्थान आपदाओं का सामना करेंगे : हर जगह महामारी, अकाल, बाढ़, सूखा और भूकंप आएँगे। ये आपदाएँ सिर्फ एक-दो जगहों पर ही नहीं आएँगी, न ही वे एक-दो दिनों में समाप्त होंगी, बल्कि इसके बजाय वे बड़े से बड़े क्षेत्र तक फैल जाएँगी, और अधिकाधिक गंभीर होती जाएँगी। इस दौरान, एक के बाद एक सभी प्रकार की कीट-जनित महामारियाँ उत्पन्न होंगी, और हर जगह नरभक्षण की घटनाएँ होंगी। सभी राष्ट्रों और लोगों पर यह मेरा न्याय है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 65)। "मेरी दया उन पर अभिव्यक्त होती है, जो मुझसे प्रेम करते हैं और स्वयं को नकारते हैं। इस बीच, दुष्टों को मिला दंड निश्चित रूप से मेरे धार्मिक स्वभाव का प्रमाण है, और उससे भी बढ़कर, मेरे क्रोध की गवाही है। जब आपदा आएगी, तो मेरा विरोध करने वाले सभी अकाल और महामारी के शिकार हो जाएँगे और विलाप करेंगे। जिन्होंने सभी तरह के दुष्टतापूर्ण कर्म किए हैं किंतु कई वर्षों तक मेरा अनुसरण किया है, वे अपने पापों का फल भुगतने से नहीं बचेंगे; वे भी लाखों वर्षों में कभी-कभार ही दिखने वाली आपदा में डुबा दिए जाएँगे, और वे लगातार आंतक और भय की स्थिति में जिएँगे। और मेरे वे अनुयायी, जिन्होंने मेरे प्रति निष्ठा दर्शाई है, मेरी शक्ति का आनंद लेंगे और उसका गुणगान करेंगे। वे अवर्णनीय तृप्ति का अनुभव करेंगे और ऐसे आनंद में रहेंगे, जो मैंने मानवजाति को पहले कभी प्रदान नहीं किया है। क्योंकि मैं मनुष्यों के अच्छे कर्मों को सँजोकर रखता हूँ और उनके बुरे कर्मों से घृणा करता हूँ। जबसे मैंने पहली बार मानवजाति की अगुआई करनी आरंभ की, तबसे मैं उत्सुकतापूर्वक मनुष्यों के ऐसे समूह को पाने की आशा करता रहा हूँ, जो मेरे साथ एकचित्त हों। इस बीच मैं उन लोगों को कभी नहीं भूलता, जो मेरे साथ एकचित्त नहीं हैं; अपने हृदय में मैं हमेशा उनसे घृणा करता हूँ, उन्हें प्रतिफल देने के अवसर की प्रतीक्षा करता हूँ, जिसे देखकर मुझे खुशी होगी। अब अंततः मेरा दिन आ गया है, और मुझे अब और प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। मैंने परमेश्वर के वचनों की प्रामाणिकता महसूस की और डर गई। मैं देख सकती थी कि उसका कहा पूरा हो रहा है। मिंदानाओ में ज्वालामुखी-विस्फोट, तूफान, भूकंप, और महामारी जैसी आपदाएं बहुत अधिक आ रही थीं, और दुनिया भर में यही हो रहा था। फिर भी मैंने परमेश्वर से दूर होकर पैसे कमाने का फैसला किया था। मुझे डर लगा कि आपदा में परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं करेगा और मैं मर जाऊँगी। इसलिए मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, मुझे माफ करो, मैंने तुम्हारी जगह पैसे को चुना। मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध गई, पर अब पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।" मैंने मन में कहा, पश्चात्ताप के लिए देर नहीं हुई है, मेरे पास अब भी सभाओं में जाने का मौका है। मैं अपना अनुबंध खत्म होने का इंतज़ार कर रही थी, ताकि फिर से कर्तव्य निभा सकूँ।
मुझे याद है, 15 दिसंबर 2019 को मुझे बहुत डर लग रहा था। पता नहीं क्यों, मुझे अनिष्ट का आभास हो रहा था। मैं मॉल से भागकर घर जाना चाहती थी, काम नहीं करना चाहती थी। फिर एक सहकर्मी ने मुझे अपने साथ बाथरूम चलने को कहा। कुछ मिनट बाद जब हम वापस मॉल जा रहे थे, तभी अचानक घरती हिलने लगी। मैंने लोगों को मॉल से बाहर भागते देखा। कुछ लोग डर से जड़ हो गए थे। चीजें हर जगह अलमारियों से गिर रही थीं। सौभाग्य से हम दरवाजे ही थे, इसलिए झटपट बिल्डिंग से बाहर निकल आए। धरती इतनी जोर से हिल रही थी, मानो मैं झूले में बैठी हूँ, किसी सुरक्षित जगह पर पहुँचना मुश्किल था। मैंने इस सबके बारे में सोचा, भूकंप से ठीक पहले मैं बाथरूम जाने के लिए मॉल से बाहर निकल गई थी, वहाँ बहुत लोग थे, इसलिए हमें थोड़ी देर बाहर ही इंतज़ार करना पड़ा। मेरे वापस अंदर आते ही भूकंप शुरू हो गया था। वक्त बिल्कुल सटीक था, परमेश्वर की सुरक्षा ने मुझे खतरे से बचाया। मेरा दिल भर आया। इसलिए नहीं कि मैं बच गई, बल्कि मैंने परमेश्वर का प्रेम देखा, वो मेरे साथ था। उसने मुझे भूकंप से बचाया। मैंने बार-बार तहेदिल से परमेश्वर को पुकारा, "धन्यवाद सर्वशक्तिमान परमेश्वर, तुमने बचा लिया!" जब मैं बाहर खड़ी थी, मन में बहुत-से विचार आ रहे थे। मैं जानती थी कि मैंने कुछ पैसे कमाए, पर मैं बहुत परेशान और दुखी थी। पैसा महत्वपूर्ण नहीं है। भूकंप में वो कोई काम नहीं आता। परमेश्वर के सामने आना और उसका उद्धार पाना ही मायने रखता है। मैं घर जाकर सभा में शामिल होने के लिए लालायित थी। मैं भाई-बहनों को बताना चाहती थी, कि कैसे परमेश्वर ने मुझे आपदा से बचने में राह दिखाई, कैसे मैंने उसका प्रेम, उसके कर्म देखे।
उस दिन घर वापस आते हुए मैं सोच रही थी, मेरे परमेश्वर से दूर होने के बाद भी उसने मेरी रक्षा क्यों की। मैंने कलीसिया की ऐप खोली, तो मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश दिखा। "परमेश्वर का प्रेम व्यावहारिक है : परमेश्वर के अनुग्रह के माध्यम से मनुष्य एक के बाद दूसरी आपदा से बचता है, और इस पूरे समय मनुष्य की दुर्बलता के प्रति परमेश्वर बार-बार सहिष्णुता दिखाता है। परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना से लोग धीरे-धीरे मानवजाति की भ्रष्टता और शैतानी सार जान जाते हैं। जो कुछ परमेश्वर प्रदान करता है, उसके द्वारा किया जाने वाला मनुष्य का प्रबोधन और मार्गदर्शन, इस सबसे मनुष्य सत्य के सार को अधिकाधिक जान जाता है, और वह उत्तरोत्तर यह जान जाता है कि लोगों को किस चीज की आवश्यकता है, उन्हें कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए, वे किसके लिए जीते हैं, उनकी जिंदगी का मूल्य और अर्थ, और आगे के मार्ग पर कैसे चलें। ये सभी चीजें जो परमेश्वर करता है, उसके एकमात्र मूल उद्देश्य से अभिन्न हैं। तो वह उद्देश्य क्या है? क्यों परमेश्वर मनुष्य पर अपना कार्य करने के लिए इन विधियों का उपयोग करता है? वह क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है? दूसरे शब्दों में, वह मनुष्य में क्या देखना चाहता है? वह उससे क्या प्राप्त करना चाहता है? परमेश्वर जो देखना चाहता है, वह यह है कि मनुष्य के हृदय को पुनर्जीवित किया जा सकता है। ये विधियाँ, जिनका वह मनुष्य पर कार्य करने के लिए उपयोग करता है, निरंतर प्रयास हैं मनुष्य के हृदय को जाग्रत करने का, मनुष्य की आत्मा को जाग्रत करने का, मनुष्य को यह जानने में समर्थ बनाने का कि वह कहाँ से आया है, कौन उसका मार्गदर्शन, उसकी सहायता और उसका भरण-पोषण कर रहा है, और किसने मनुष्य को आज तक जीने दिया है; वे मनुष्य को यह ज्ञात करवाने एक का साधन हैं कि सृष्टिकर्ता कौन है, मनुष्य को किसकी आराधना करनी चाहिए, किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, और किस तरह से परमेश्वर के सामने आना चाहिए; वे मनुष्य के हृदय को धीरे-धीरे पुनर्जीवित करने का साधन हैं, ताकि मनुष्य परमेश्वर के हृदय को जान ले, परमेश्वर के हृदय को समझ ले, और मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के पीछे की बड़ी परवाह और विचार समझ ले। जब मनुष्य का हृदय पुनर्जीवित हो जाता है, तब मनुष्य पतित और भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीना नहीं चाहता, बल्कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अनुसरण करना चाहता है। जब मनुष्य का हृदय जाग्रत हो जाता है, तो वह खुद को शैतान से पूरी तरह अलग करने में सक्षम हो जाता है। अब उसे शैतान द्वारा हानि नहीं पहुँचाई जाएगी, नियंत्रित या मूर्ख नहीं बनाया जाएगा। इसके बजाय, मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के कार्य और वचनों में सक्रिय रूप से सहयोग कर सकता है, और इस प्रकार परमेश्वर का भय मान सकता है और बुराई से दूर रह सकता है। परमेश्वर के कार्य का यही मूल उद्देश्य है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। ये मेरे दिल को छू गया। मैंने परमेश्वर का प्रेम और दया देखी। मैंने दैहिक सुख के लिए सभाओं में जाना और कर्तव्य निभाना छोड़ दिया था, इसलिए लगा, परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा। मगर उसने मुझे छोड़ देने के बजाय चमत्कारी ढंग से उस भूकंप में मेरी रक्षा की। परमेश्वर मुझे जगाकर पैसों के लालच में पड़ने से रोकना चाहता था, ताकि मैं उसके सामने आकर सत्य की खोज करूं, कर्तव्य निभाऊं। मैंने खुद को खुशकिस्मत माना। मैं परमेश्वर का दिया ये मौका नहीं गँवा सकती थी, बल्कि मुझे पश्चात्ताप करना था, और दैहिक सुख छोड़कर कलीसिया में एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना था।
दिसंबर के आखिर में अनुबंध खत्म होने पर मैंने अपना पूरा समय और ऊर्जा अपने कर्तव्य में लगा दिया। समस्याएँ आने पर मुझे थोड़ी कमजोरी महसूस होती, कभी-कभी बहुत थक जाती, पर फिर सोचती, कैसे परमेश्वर ने उस भूकंप में मेरी रक्षा की। कितनी भी मुश्किलें क्यों न आएं, मैं जानती थी, मुझे मेहनत से कर्तव्य निभाकर उसके प्रेम का मूल्य चुकाना है। आपदाओं की मुश्किलों से बचने और अच्छी मंज़िल पाने का मेरे विचार से यही एक तरीका था। फिर एक दिन मैंने बीमारी के ज़रिए मेरी आशीष पाने की मंशा उजागर हो गई नामक एक गवाही देखी। ये एक काफी समय से विश्वासी रहे भाई का वीडियो था, जिन्होंने बीमार होने से पहले कर्तव्य निभाने में कड़ी मेहनत की थी। वे दुखी थे, परमेश्वर को दोष रहे थे। उन्हें लगता था कि इतना कुछ देने के बाद उन्हें इतना बीमार नहीं होना चाहिए था, वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्यों परमेश्वर ने उनकी रक्षा नहीं की। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद उन्हें एहसास हुआ, वे अपना कर्तव्य सत्य खोजने या परमेश्वर के आज्ञापालन के बजाय आशीष पाने और उसके राज्य में जाने के लिए निभा रहे थे। उनके अनुभव से पता चला कि मेरे कर्तव्य में मेरी मंशाएं भी दागदार थीं, क्योंकि मैं हमेशा उम्मीद करती थी कि परमेश्वर मुझे आपदा से बचाएगा। मुझे लगा, मैं भी उनकी ही तरह परमेश्वर के साथ सौदा करना चाहती थी। उस रात मैंने अपने आपसे पूछा, मेरा कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए है या अनुग्रह पाने के लिए? मैंने भूकंप के दौरान मिली सुरक्षा और तथ्य जानने के बाद मन में पैदा हुए भय के बारे में सोचा। मुझे लगा, मैं भविष्य में आपदा से घिर जाऊँगी। कर्तव्य में वापस लौटने की मेरी लालसा सिर्फ इस उम्मीद से थी कि परमेश्वर मुझे आपदाओं से बचाएगा। मेरी मंशाएं और सोच भी वैसी ही थी, जैसी वीडियो में उस भाई की थी। उन्हें बीमारी से गुजरना पड़ा और मुझे भूकंप से। मेरे त्याग परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं थे, बल्कि इसलिए थे कि वो आपदा में मेरी रक्षा करे, मुझे अच्छी मंज़िल मिले और मैं उसके राज्य में जा सकूँ। उस रात मैं बहुत परेशान रही। मैं स्वीकार नहीं पा रही थी कि मैं परमेश्वर से आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही हूँ। मैं उसे पूरी ईमानदारी से करना चाहती थी। लेकिन असल में मेरी आस्था मेरे अपने फायदे के लिए थी। मेरे दिल में कोई श्रद्धा नहीं थी, मैंने सृष्टिकर्ता के रूप में परमेश्वर की आराधना नहीं की थी।
बाद में, मैंने इस बारे में कुछ सत्य खोजे, तो परमेश्वर के वचन का ये अंश मिला। "मेरे कर्मों की संख्या समुद्र-तटों की रेत के कणों से भी ज़्यादा है, और मेरी बुद्धि सुलेमान के सभी पुत्रों से बढ़कर है, फिर भी लोग मुझे मामूली हैसियत का मात्र एक चिकित्सक और मनुष्यों का कोई अज्ञात शिक्षक समझते हैं। बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत अच्छी तरह उजागर कर दी। मेरी आस्था सिर्फ उसके अनुग्रह का आनंद लेने और आपदा से बचने के लिए थी। भूकंप के बाद मैं पैसा और खुशी पाने की इच्छा त्यागकर कर्तव्य निभाने लौट आई, पर मैं कितनी भी कड़ी मेहनत करती, कोशिश सिर्फ यही थी कि परमेश्वर मुझे बचाए, आपदा से दूर रखे। मैं कर्तव्य निभाने का मौका परमेश्वर के राज्य का आशीष पाने के लिए इस्तेमाल करना चाहती थी। मैं सिर्फ अपने फायदे के लिए काम कर रही थी—परमेश्वर से सौदा कर रही थी। मैं अपनी स्वार्थी मंशाओं और गलत सोच के बारे में जानकर बहुत शर्मिंदा हुई, और खुद को दोषी माना। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं बहुत भ्रष्ट हूँ। मेरी सारी कोशिश लेनदेन के लिए है। मैं तुम्हें धोखा दे रही हूँ। परमेश्वर, मैं आभारी हूँ कि तुमने मेरी भ्रष्टता उजागर कर मुझे खुद को जानने दिया। मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए काम नहीं करना चाहती। मैं तुम्हें खुश करना चाहती हूँ।"
थोड़ी देर बाद एक बहन ने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे, जिससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि मैं अपने अनुसरण में कहां गलत हूँ। परमेश्वर के वचन कहते है, "परमेश्वर में अपनी आस्था में, अब तुम लोग किस मार्ग पर चल रहे हो? अगर तुम पतरस की तरह जीवन, अपनी समझ और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, तो तुम पतरस के मार्ग पर नहीं चल रहे हो। इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : 'आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए।' इस पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो अपने आपको पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और निश्चित रूप से उनकी समझ केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों से युक्त होती है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उसके घर में निश्चित रूप से सबसे बड़ा आशीष प्राप्त करेंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे परमेश्वर के सबसे धन्य लोगों में से होंगे—जो सबसे बड़ा आशीष प्राप्त करते हैं—और फिर उन्हें यकीनन मुकुट प्राप्त हो जाएगा। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था; वह भी इसी मार्ग पर चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा, बहुत-से लोग उसके लिए कीमत चुकाने को सब-कुछ छोड़ सकते हैं, पर दिल से वे परमेश्वर को संतुष्ट करना नहीं, आशीष पाना चाहते हैं। वे पौलुस की तरह हैं। पौलुस ने सुसमाचार फैलाने के लिए काफी कष्ट उठाया, यात्राएं की, पर उस काम और मेहनत के बदले वह परमेश्वर से आशीष पाना चाहता था। बहुत काम करने के बाद उसने कहा, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस ने सब-कुछ लेनदेन के लिए ही किया। ये सब आशीष, इनाम और मुकुट पाने के लिए था। उसने बस काम की परवाह की, सत्य पर अमल या परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने की नहीं। इसलिए उसका स्वभाव कभी नहीं बदला। उसने सुसमाचार फैलाया, बहुत लोगों को प्राप्त किया, फिर भी परमेश्वर ने कभी उसे अपनी मंज़ूरी नहीं दी। आत्मचिंतन करते हुए मैंने जाना, मैं भी पौलुस जैसी ही हूँ। मैंने नौकरी छोड़ दी, और अपना पूरा समय और ऊर्जा अपने कर्तव्य में लगाया, कभी-कभी तो दिन में सिर्फ एक बार ही खाना खा पाती। ये सब सत्य खोजने या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं, उसके आशीष पाने के लिए था। मैं खुद को जानने या अपनी भ्रष्टता दूर करने के बजाय यही चाहती थी कि परमेश्वर देखे मैं कितना काम कर रही हूँ, वो मुझे आपदाओं से बचाए, ताकि अंत में मुझे अच्छी मंज़िल मिले, मैं उसके राज्य में जा सकूँ। मैंने देखा, शैतान मुझे कितना भ्रष्ट कर चुका है, मैं कितनी स्वार्थी हूँ, मैंने जो किया, सिर्फ अपने लिए किया। मुझे परमेश्वर पर श्रद्धा या उससे प्रेम नहीं था। मैं सिर्फ खुद से प्रेम करती थी। ये जानकर मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, कर्तव्य में मेरी गलत मंशाएँ और सोच बदलने में मेरी मदद करो। मैं अपने लिए नहीं, तुम्हारी अपेक्षानुसार काम करना चाहती हूँ।"
थोड़ी देर बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जो मेरे दिल को छू गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है और मैं पूरे हृदय से तुम लोगों के प्रति समर्पित रहा हूँ, फिर भी तुम लोग मेरे बारे में दुष्ट इरादे रखते हो और मेरे प्रति अनमने रहते हो। यही तुम लोगों के कर्तव्य की सीमा, तुम लोगों का एकमात्र कार्य है। क्या ऐसा ही नहीं है? क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में बिलकुल असफल हो गए हो? तुम लोगों को सृजित प्राणी कैसे माना जा सकता है? क्या तुम लोगों को यह स्पष्ट नहीं है कि तुम क्या व्यक्त कर रहे हो और क्या जी रहे हो? तुम लोग अपना कर्तव्य पूरा करने में असफल रहे हो, पर तुम परमेश्वर की सहनशीलता और भरपूर अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हो। इस प्रकार का अनुग्रह तुम जैसे बेकार और अधम लोगों के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए तैयार किया गया है, जो कुछ नहीं माँगते और खुशी से बलिदान करते हैं। तुम जैसे मामूली लोग स्वर्ग के अनुग्रह का आनंद लेने के बिलकुल भी योग्य नहीं हैं। केवल कठिनाई और अनंत सज़ा ही तुम लोगों को अपने जीवन में मिलेगी! यदि तुम लोग मेरे प्रति विश्वसनीय नहीं हो सकते, तो तुम लोगों के भाग्य में दु:ख ही होगा। यदि तुम लोग मेरे वचनों और कार्यों के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकते, तो तुम्हारा परिणाम दंड होगा। राज्य के समस्त अनुग्रह, आशीषों और अद्भुत जीवन का तुम लोगों के साथ कोई लेना-देना नहीं होगा। यही वह अंत है, जिसके तुम काबिल हो और जो तुम लोगों की अपनी करतूतों का परिणाम है! वे अज्ञानी और घमंडी लोग न केवल पूरी कोशिश नहीं करते, बल्कि वे अपना कर्तव्य भी नहीं निभाते, बस वे अनुग्रह के लिए अपने हाथ पसार देते हैं, मानो वे जो माँगते हैं, उसके योग्य हों। और यदि वे वह प्राप्त नहीं कर पाते, जो वे माँगते हैं, तो वे और भी कम विश्वासपात्र बन जाते हैं। ऐसे लोगों को सही कैसे माना जा सकता है? तुम लोग कमजोर क्षमता के और विवेकशून्य हो; प्रबंधन के कार्य के दौरान तुम लोगों को जो कर्तव्य पूरा करना चाहिए, उसे करने में तुम पूर्णतः अक्षम हो। तुम लोगों का महत्व पहले ही तेजी से घट चुका है। अपने साथ ऐसा उपकार करने का बदला चुकाने की तुम्हारी विफलता पहले ही चरम विद्रोह का कृत्य है, जो तुम्हारी निंदा करने के लिए पर्याप्त है और तुम्हारी कायरता, अक्षमता, अधमता और अनुपयुक्तता प्रदर्शित करता है। कौन-सी चीज़ तुम्हें अपने हाथ पसारे रखने का अधिकार देती है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। इसे पढ़ने से पहले तक मैं नहीं समझ पाई थी कि मैं कितनी लालची हूँ। मैंने कर्तव्य में काफी समय दिया, पर इस बीच परमेश्वर से आशीष ऐंठती रही, उससे सौदा करती रही। मैं असल में कर्तव्य नहीं निभा रही थी, असल में एक सृजित प्राणी नहीं थी। मुझे परमेश्वर से अनुग्रह मांगने और आपदा से बचाकर उसके राज्य में प्रवेश दिए जाने की माँग करने का अधिकार कैसे था? परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के बिना मुझे अब भी पता न चल पाता कि मैं कितनी विद्रोही और भ्रष्ट हूँ, या आशीष पाने की मेरी नीच मंशाओं से परमेश्वर को कितनी नफ़रत है। मैंने परमेश्वर की इच्छा के बजाय, बस अपने बारे में सोचा। मुझ जैसी इंसान परमेश्वर के आशीष और उद्धार पाने लायक नहीं है। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, वो समर्पित लोगों को पसंद करता है, जो सच्चे दिल से कर्तव्य निभा सकें। क्या मेरा दिल सच्चा या ईमानदार था? बिल्कुल नहीं। मैं अपनी नीच मंशाओं और निरंकुश इच्छाओं के कारण बहुत शर्मिंदा थी। मैं परमेश्वर का अनुग्रह पाने लायक नहीं थी। मैं खुद को और अपनी गलत मंशाओं को बदलना चाहती थी, अपना सब-कुछ परमेश्वर को संतुष्ट करने के काम में लगाना चाहती थी।
एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे बहुत मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते है, "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए—ये मेरी जिम्मेदारी है। मुझे परमेश्वर से इनाम या आशीष नहीं मांगने चाहिए, न यही सोचना चाहिए कि मुझे बचाया जाएगा या दंड दिया जाएगा। मुझे बस ये सोचना चाहिए कि अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाऊं। मैं सोचती थी, अगर मैं कर्तव्य निभाती हूँ, तो परमेश्वर मुझे दंड नहीं देगा, मैं आपदा में भी नहीं गिरूंगी। वो उन्हीं लोगों को दंड देता है, जो अनुसरण नहीं करते या कर्तव्य नहीं निभाते, इसलिए अपने कर्तव्य का इस्तेमाल परमेश्वर से सुरक्षा पाने के सौदे के लिए किया। फिर मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य निभाना तो सृजित प्राणी का न्यूनतम दायित्व है। इसका आशीष या दंड पाने से कोई लेना-देना नहीं है। अंत में मुझे बचाया जाएगा या दंड दिया जाएगा, इसके लिए वह देखता है क्या मैंने सत्य हासिल किया, खुद को बदला। यही परमेश्वर की धार्मिकता है। आपदाओं में चाहे मुझे चोट लगे या मैं मर जाऊं, मुझे उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित होना चाहिए। मुझे आपदाओं से बचने के लिए कर्तव्य नहीं निभाना चाहिए। ये एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना नहीं है। मुझे खुद को परमेश्वर के हाथों सौंपकर बदले में कुछ नहीं मांगना चाहिए, क्योंकि उसने मुझे रचा है। उसके बाद अपने कर्तव्य में मैं लगातार खुद को जांचती रही, खुद को याद दिलाती रही। मुझे स्वार्थी इरादों से काम न करके परमेश्वर को संतुष्ट कर उसे खुशी देनी थी।
परमेश्वर का धन्यवाद! परमेश्वर ने इन हालात के जरिये मेरी भ्रष्टता और गलत सोच उजागर की, आशीष पाने की मेरी नीच मंशाएं दिखाईं, और आस्था में मेरी गलत सोच में कुछ बदलाव किए। अब मैं परमेश्वर से अनुग्रह पाने या आपदा से बचने के लिए कर्तव्य नहीं निभाती, बल्कि सच में सत्य खोजना और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहती हूँ।
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