अपने काम में नकारात्मकता और सुस्ती का कारण क्या है
2021 में एक दिन, अगुआ ने मुझे नए समूह की सभाओं का जिम्मा सौंपा था। थोड़ा अभ्यास करने से मैंने कुछ सिद्धांत समझ लिए और लोगों जिन विभिन्न दशाओं से गुजरते हैं उसे थोड़ा पहचान लिया। मुझे लगता था कि यह काम मुझे काफी सत्य समझने और फटाफट तरक्की करने में मदद कर रहा है। लेकिन बाद में सामान्य कार्यों की उपयाजक उपयाजक के पीछे पुलिस पड़ गई और उसका दूसरों से संपर्क कट गया, इसलिए अगुआ ने मुझे सामान्य कार्य सँभालने को कहा। उस दौरान भाई-बहन एक के बाद एक गिरफ्तार किए जा रहे थे। कई चीजों को सँभालना था, जैसे किताबें पहुँचाना, भाई-बहनों को शरण देने के लिए नए मेजबान घर खोजना, वगैरह। इन चीजों के इंतजाम के लिए मुझे रोज दौड़-भाग करनी पड़ती थी। कुछ समय बाद मैं कुछ बदमिजाज और नाखुश रहने लगी। मुझे लगता था कि यह तो सिर्फ दौड़-भाग का काम है और हर समय इस भागमभाग से मैं सत्य हासिल नहीं कर सकती। यह सिलसिला जारी रहा तो क्या बचा ली जाऊँगी? सामान्य कार्यों से मेरा मन उकता गया, आगे से मैं यह काम नहीं करना चाहती थी।
कई बार जब मैं मेजबान घरों में चीजें पहुँचाने जाती तो भाई-बहनों को सभा में संगति करते देखती। मुझे बहुत बुरा लगता और अगुआ के खिलाफ शिकायत भी करती। उसने मुझे सामान्य कार्य क्यों सौंपे हैं? वे सब मिलकर सत्य पर संगति कर रहे हैं, इतना कुछ सीखकर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, और मैं यहाँ दौड़-भाग में ही लगी रहती हूँ—मैं कैसे सत्य पा सकती हूँ? सत्य के बगैर मुझे जीवन नहीं मिलेगा और मैं बचाई नहीं जा सकूँगी। क्या मैं पिछड़ती नहीं जा रही थी? इस बारे में सोचते रहने से मैं और भी परेशान हो गई और मुझमें काम के लिए कोई उत्साह नहीं बचा। एक बार मैंने एक बहन के घर पर सुरक्षा खतरा भाँपा, ऐसे में तुरंत वहाँ से किताबें हटाकर उन्हें किसी सुरक्षित जगह पहुँचाना जरूरी था। मैंने सोचा, “मेरे जिम्मे इतने ज्यादा सामान्य कार्य क्यों हैं? इनमें वक्त और मेहनत लगती है, फिर भी मैं सत्य हासिल नहीं कर सकती। क्या मैं ये सब बेकार में नहीं कर रही हूँ?” यह तरह सोचकर मैं यह काम नहीं करना चाहती थी। लेकिन स्थिति नाजुक थी, इसलिए किताबें हटाने के लिए मुझे जाना ही पड़ा। वहाँ काम निपटा ही था, अकस्मात, किताबों वाले एक और घर में एक नई मुसीबत खड़ी हो गई। उन किताबों को हटाते हुए, किताबें सँभालने और बाँधने का वही काम फिर करना पड़ा, और दिन भर के काम के बाद मेरा मन गिले-शिकवों से भर गया। जब मैं थकी-माँदी घर लौटी, तो अगुआ और सिंचन उपयाजक किसी चर्चा में मशगूल थे। अगुआ ने मुझसे कहा, “तुम तो एक बहन को बस नए मेजबान घर पहुँचाने गई थी न? इसमें पूरा दिन क्यों खपा दिया?” यह सुनकर मेरे दिल में आग लग गई। वे सब मिलकर सत्य और सिद्धांतों पर संगति कर रहे थे जबकि मैं भागती फिर रही थी। सिर्फ सामान्य कार्य सँभालकर मुझे क्या मिलता? मैं अपने को चाहे जितना झोंक दूँ, रहूँगी तो श्रमिक ही? अगर मैं अंदर रहकर परमेश्वर के वचन पढ़ पाती, सबके साथ सभा में संगति कर पाती, और कार्य पर चर्चा करती, तो क्या खूब होता! यह आसान रहता और मैं सत्य भी हासिल कर पाती, ताकि भविष्य में बचाई जा सकूँ। यह सोचकर मेरी नाराजगी बढ़ती गई और मैं बहुत नकारात्मक और थककर चूर हो गई। मैं इस बारे में हैरान-परेशान होती गई : मैं सामान्य कार्यों की प्रभारी क्यों हूँ? क्या परमेश्वर मुझे श्रमिक ही रहने देना चाहता है? यही चलता रहा तो क्या मैं हमेशा दौड़-भाग लायक ही नहीं रह जाऊँगी? मुझे हासिल क्या होगा?
अगले दिन करने के लिए बहुत सारे सामान्य काम पड़े थे, और मैं अपनी शिकायतें नहीं रोक पाई। यह देखकर कि मेरी दशा ठीक नहीं है, अगुआ ने मुझे आत्म-चिंतन करने और इससे सबक सीखने को कहा। मेरी लिए यह चेतावनी की घंटी थी। उस समय सामान्य कार्य सँभालते हुए मैं काम-धाम तो कर रही थी लेकिन अंदर ही अंदर विद्रोही बन चुकी थी। मैं नाराज थी और अपनी मर्जी के काम चुनना चाहती थी। यहाँ तक सोचने लगी कि परमेश्वर मुझसे नाइंसाफी कर रहा है। मुझे अपनी खतरनाक दशा का एहसास हुआ। मैं इतनी विरोधी नहीं बनी रह सकती थी। मुझे सत्य खोजना था, परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना था।
परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर : “तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें जो सिद्धांत समझने चाहिए और जिन सत्यों को तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए वे एक समान हैं। तुमसे चाहे अगुआ बनने को कहा जाए या कार्यकर्ता, या तुम चाहे मेजबान के रूप में खाना बना रहे हो, या तुमसे चाहे किन्हीं बाहरी कार्यों की देखरेख करने या कोई शारीरिक मेहनत करने को कहा जाए, ये विभिन्न कर्तव्य निभाते हुए जिन सत्य सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए वे इस रूप में एक समान हैं कि ये सत्य और परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। “कई लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर उन्होंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो उनके बचाए जाने की संभावना है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, तो उनके बचाए जाने की संभावना है, या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है पाप से मुक्त होना, शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, उसमें गुण या खूबियाँ हैं या नहीं, या वह कितना कष्ट सहता है। एकमात्र चीज, जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज, तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के किसी भी वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से, तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने समझा चाहे सिंचन कार्य हो या कलीसिया के सामान्य कार्य ये ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें हमें निभाना चाहिए। परमेश्वर चाहता है कि कर्तव्य पालन के समय हम सत्य की राह पर चलकर जीवन प्रवेश करें। हमारे काम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उनमें सत्य सिद्धांतों का अभ्यास एक समान है। काम चाहे कोई हो, उनमें हमारी भ्रष्टता सामने आ जाती है। अपनी भ्रष्टता दिखने पर जब तक हम सत्य खोजते रहेंगे, फिर पश्चात्ताप कर खुद को बदलते रहेंगे, तो हम जीवन में तरक्की कर सकते हैं। तब हम सत्य हासिल कर बचाए जा सकेंगे। लेकिन मुश्किलें आने पर अगर हम कोई सबक नहीं सीखते या हम जो कुछ करते हैं वह सत्य के अभ्यास या स्वभाव बदलने से जुड़ा नहीं है, तो परमेश्वर इसे महज चाकरी मानता है, और तब हम सत्य हासिल नहीं कर सकते, परमेश्वर का उद्धार पाना तो दूर रहा। लेकिन मैं गलत सोचती थी कि सामान्य कार्य सँभालने से सत्य हासिल नहीं कर सकूँगी, और चाहे जितना काम करती जाऊँ, ज्यादा से ज्यादा एक श्रमिक ही रहूँगी। मैं सोचती थी कि अगुआ या समूह अगुवा बनकर, सत्य पर संगति कर दूसरों को सहारा देकर, रोजाना परमेश्वर के वचन पढ़कर और उन पर संगति कर, आप जीवन में तेजी से तरक्की करते हैं, और सत्य हासिल कर बचाए जा सकेंगे। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं थी? सच तो यह है, सत्य की राह पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति चाहे जो भी काम करे, अपने अनुभवों से सीख सकता है और वास्तविक फायदे पा सकता है। यह वैसे ही है जैसे मैंने अनुभवजन्य गवाहियों के वीडियो में देखा है। कुछ भाई-बहन सामान्य कार्य सँभालते हैं, फिर भी वे परमेश्वर के वचनों को जीवन में उतारने, सत्य खोजने और भ्रष्टता उजागर होने के बाद इसे दूर करने में सक्षम होते हैं। अनुभव होने के बाद वे खुद को बदलकर सच्ची गवाही दे सकते हैं। और कुछ अगुआ ऐसे भी होते हैं जो अक्सर दूसरों को परमेश्वर के वचन सुनाते हैं, उनकी दिक्कतें दूर करने में मदद करते हैं, लेकिन अपने उपदेशों पर खुद अमल नहीं करते, सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बघारते हैं और आखिरकार उजागर होकर हटा दिए जाते हैं। ऐसी घटनाएँ वाकई घटती हैं, मानती हो न? परमेश्वर अलग-अलग कामों के आधार पर पक्षपात नहीं करता। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे महज श्रम कर रहे होते हैं। सत्य की राह पर चलने वाला इंसान किसी भी काम से फल पा लेगा। परमेश्वर धार्मिक है और किसी की तरफदारी नहीं करता। लेकिन मैं तो भ्रामक विचारों में उलझी रही, मनचाहा काम चुनना चाहती थी। सामान्य कार्यों के खिलाफ थी—इन्हें नहीं करना चाहती थी। मैं तो अगुआ के खिलाफ पक्षपाती भी हो गई, नाराज थी कि उसने मुझे ऐसा काम सौंपा है। मैं सत्य की राह पर नहीं चल रही थी। मैंने भ्रष्टता दिखाई, लेकिन न आत्म-चिंतन किया, न इसे दूर किया। फिर भी मैं नकारात्मक और शिकायती टट्टू बनकर दूसरों को दोष देती रही। मैं सोचती थी कि परमेश्वर मुझे केवल श्रम तक सीमित रखना चाहता है; क्या मैं उसे गलत नहीं समझ रही थी? मैं बहुत ही वास्तविक माहौल में काम कर रही थी, लेकिन कोई सबक नहीं लिया। गिले-शिकवे करती रही। मैं कितनी मूर्ख थी। अगर मैं वैसी ही रहती, सत्य हासिल न करती, तो मैं वाकई श्रमिक बनकर रह जाती। मुझे कुछ सामान्य कार्य मिले, लेकिन मैं उन्हें परमेश्वर से स्वीकार कर समर्पण नहीं कर पाई। दूसरे भाई-बहनों की समस्या सुलझाना तो दूर रहा, मैं अपनी ही दिक्कत दूर नहीं कर पाई। फिर भी मैं उस दशा में सिंचन कार्य करना चाहती थी! क्या ये बेतुकी बात नहीं थी? मैंने परमेश्वर के वचन याद किए : “आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसकी व्यवस्था की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के ये वचन पढ़कर मैंने जाना कि चाहे कोई सामान्य कार्य सँभाल रहा हो या अगुआ के रूप में काम कर रहा हो, अपना काम करते हुए सबसे अहम है सत्य का अनुसरण। सिर्फ वही लोग बचाए जा सकते हैं जो परमेश्वर के बनाए माहौल में सत्य खोज सकें, खुद को समझ सकें और पश्चात्ताप कर बदल सकें। यह समझ पाकर मेरे दिल को रोशनी मिल गई।
उसके बाद मैं चीजों के बारे में दुबारा सोच-विचार करने लगी। सामान्य कार्य सौंपे जाने से मैं इतनी परेशान और अनिच्छुक क्यों थी? मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास के बारे में सबसे दुःखद बात यह है कि मनुष्य परमेश्वर के कार्य के बीच अपने खुद के प्रबंधन का संचालन करता है, जबकि परमेश्वर के प्रबंधन पर कोई ध्यान नहीं देता। मनुष्य की सबसे बड़ी असफलता इस बात में है कि जब वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने का प्रयास करता है, उसी समय कैसे वह अपनी आदर्श मंज़िल का निर्माण कर रहा होता है और इस बात की साजिश रच रहा होता है कि सबसे बड़ा आशीष और सर्वोत्तम मंज़िल कैसे प्राप्त किए जाएँ। यहाँ तक कि अगर कोई समझता भी है कि वह कितना दयनीय, घृणास्पद और दीन-हीन है, तो भी ऐसे कितने लोग अपने आदर्शों और आशाओं को तत्परता से छोड़ सकते हैं? और कौन अपने कदमों को रोकने और केवल अपने बारे में सोचना बंद कर सकने में सक्षम हैं? परमेश्वर को उन लोगों की ज़रूरत है, जो उसके प्रबंधन को पूरा करने के लिए उसके साथ निकटता से सहयोग करेंगे। उसे उन लोगों की ज़रूरत है, जो अपने पूरे तन-मन को उसके प्रबंधन के कार्य में अर्पित करने के द्वारा उसके प्रति समर्पित होंगे। उसे ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है, जो हर दिन उससे भीख माँगने के लिए अपने हाथ फैलाए रहते हैं, और उनकी तो बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है, जो थोड़ा-सा देते हैं और फिर पुरस्कृत होने का इंतज़ार करते हैं। परमेश्वर उन लोगों से घृणा करता है, जो तुच्छ योगदान करते हैं और फिर अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट हो जाते हैं। वह उन निष्ठुर लोगों से नफरत करता है, जो उसके प्रबंधन-कार्य से घृणा करते हैं और केवल स्वर्ग जाने और आशीष प्राप्त करने के बारे में बात करना चाहते हैं। वह उन लोगों से और भी अधिक घृणा करता है, जो उसके द्वारा मानवजाति के बचाव के लिए किए जा रहे कार्य से प्राप्त अवसर का लाभ उठाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन लोगों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की है कि परमेश्वर अपने प्रबंधन-कार्य के माध्यम से क्या हासिल और प्राप्त करना चाहता है। उनकी रुचि केवल इस बात में होती है कि किस प्रकार वे परमेश्वर के कार्य द्वारा प्रदान किए गए अवसर का उपयोग आशीष प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। वे परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील नहीं हैं, और पूरी तरह से अपनी संभावनाओं और भाग्य में तल्लीन रहते हैं। जो लोग परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से कुढ़ते हैं और इस बात में ज़रा-सी भी रुचि नहीं रखते कि परमेश्वर मानवजाति को कैसे बचाता है और उसके इरादे क्या हैं, वे केवल वही कर रहे हैं जो उन्हें अच्छा लगता है और उनका तरीका परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से अलग-थलग है। उनके व्यवहार को परमेश्वर द्वारा न तो याद किया जाता है और न ही अनुमोदित किया जाता है—परमेश्वर द्वारा उसे कृपापूर्वक देखे जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा उजागर कर दी। अपने काम में सही प्रेरणा न मिलने के कारण ही मैं सामान्य कार्य नहीं सँभालना चाहती थी। मैं कृपा पाने के लालच में इसे कर रही थी, मेरा दिल हमेशा नफा-नुकसान के हिसाब में डूबा रहता। अगर किसी चीज से फायदा हो तो मैं खुशी-खुशी कोई भी कीमत चुका देती थी, लेकिन जैसे ही मुझे सामान्य कार्य सौंपा गया और मुझे लगा कि यह सिर्फ श्रमिक बनने जैसा है, तो मुझे लगा कि इसमें बड़ा नुकसान है। मैं मुँह फुलाकर बड़बड़ाने लगी, हालांकि मैंने थोड़ा-बहुत काम किया मगर मैं इससे खीझी हुई रहती थी। मैं ऐसे शैतानी फलसफे जी रही थी, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “दूसरे का फायदा उठाओ, पर अपना फायदा मत उठाने दो,” और “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो।” मेरे लिए “पुरस्कार” सर्वोपरि था, और परमेश्वर के लिए खपना भी उसके साथ लेन-देन करने जैसा था। शुरुआत से अंत तक, मैं कभी नहीं सोचती थी कि अपना काम कैसे अच्छे से करूँ। उन कठिन हालात में भी, मेरा सारा ध्यान भाई-बहनों और कलीसिया की संपत्ति को बचाकर उन्हें जल्द से जल्द सुरक्षित जगह ले जाना नहीं होता था, बल्कि पहले यह सोचती थी कि यह काम करने लायक है भी या नहीं, क्या यह मेरी मंजिल के लिए फायदेमंद रहेगा। शैतान ने मुझे भ्रष्ट कर कितना स्वार्थी और अधम बना दिया था, मुझमें अंतरात्मा और बुद्धि नहीं बची थी। मैं इतनी निर्दयी थी, सिर्फ अपना सोचती थी। कलीसिया की सदस्य होने के नाते जो भी प्रोजेक्ट करने जरूरी थे, कलीसिया के हित सुरक्षित रखने के लिए मुझे उनमें मदद करनी चाहिए थी। लेकिन हर काम में मेरी आँख केवल अपने फायदे पर लगी रहती। मुझे लगता, इतनी मेहनत के बावजूद परमेश्वर की कृपा नहीं मिली तो मैं वाकई घाटे में रहूँगी। मैं इन्हीं ख्यालों में डूबी रहती कि कैसे आशीष पाऊँ और फायदे में रहूँ। इन तथ्यों से नजर आया कि मैं महज आशीष पाने की लालसा से इतने बरसों से आस्था में टिकी हुई हूँ। इसने मुझे परमेश्वर के वचनों की याद दिला दी : “दूसरों के प्रति हमदर्दी दिखाने वाले लोगों तक को प्रतिफल दिया जाता है, लेकिन मसीह को, जिसने तुम्हारे बीच ऐसा कार्य किया है, न तो मनुष्य का प्रेम मिला है और न ही उसकी कोई प्रतिपूर्ति या समर्पण। क्या यह हृदय-विदारक बात नहीं है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरी हालत और भी खराब हो गई और पछतावा हुआ। मैंने परमेश्वर के इतने वचन खाए-पिए, उसका इतना सिंचन और पोषण पाया, फिर भी मैंने ठीक से कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम का कर्ज चुकाने का ख्याल नहीं किया। मुझ पर तो बस लेने की धुन सवार थी। मैं असंतुष्ट होकर परमेश्वर से आशीष माँगती थी और चाहती थी कि वह मुझे अच्छी मंजिल दे। ऐसा न होने पर मैं ढीठ बन जाती, जरा-सा काम करते ही शिकवे-शिकायतों से भर उठती। मेरी अंतरात्मा और बुद्धि कुंद हो चुकी थी, मैं वाकई परमेश्वर का दिल दुखा रही थी। यह सोचकर मैं उसकी और भी आभारी हो गई, मुझे आत्मग्लानि हुई। यह सोचकर मुझे खुद से घिन होने लगी कि मुझमें जरा भी अंतरात्मा और मानवता नहीं बची है।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ और पढ़ा : “परमेश्वर के घर में, जब भी तुम्हारे लिए कोई व्यवस्था की जाती है, चाहे वह कठिन हो या थका देने वाला काम हो, और चाहे वह तुम्हें पसंद हो या नहीं, वह तुम्हारा कर्तव्य है। अगर तुम उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश और जिम्मेदारी मान सकते हो, तो तुम मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के लिए प्रासंगिक हो। और अगर तुम जो करते हो और जो कर्तव्य निभाते हो, वे मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य के लिए प्रासंगिक हैं, और तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को गंभीरता और ईमानदारी से स्वीकार कर सकते हो, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? वह तुम्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में देखेगा। यह आशीष है या शाप? (आशीष।) यह एक बड़ा आशीष है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। इस अंश ने मुझे वाकई मथ दिया। अगर कोई अपना कर्तव्य निभाने का इच्छुक है, परमेश्वर उसे मौका देगा। कलीसिया में सारे काम सार्थक हैं, वे भी जो हमें निरर्थक लगते हैं। उन सबको अपना कर्तव्य और दायित्व समझकर स्वीकारना चाहिए। अगर आप अपने काम में सत्य की राह पर चलते हैं, उसे परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप ठीक से करते हैं, तो आपके पास उद्धार का अवसर है। अगर आप अपना काम लेन-देन के रूप में करते हैं, मानो यह आशीष के बदले धन या परमेश्वर के राज्य में जाने का टिकट हो, तो आप चाहे जितनी मेहनत करें, कभी भी सत्य में प्रवेश नहीं कर पाएंगे, क्योंकि अपने लक्ष्य के प्रति आपके विचार और आपका रास्ता गलत है। कर्तव्य निभाने का अवसर मिलना और परमेश्वर के कार्य के लिए श्रम करना परमेश्वर से प्राप्त उत्कर्ष और असीम आशीष है। तो फिर मैं अपने काम में नुक्ताचीनी कैसे कर सकती थी? इसे स्वीकार कर मुझे समर्पण करना चाहिए था। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे यही करना चाहिए था। लेकिन मैं अंधी थी, अपने आसपास बरसती कृपा नहीं देख पा रही थी, इस काम के जरिए सत्य के अनुसरण के मौके को अहमियत नहीं दे रही थी। मैं अपने कर्तव्य को कठिन मेहनत मान रही थी, इसे परमेश्वर के साथ लेन-देन में सौदेबाजी का हथकंडा समझ रही थी, और मैंने परमेश्वर को भी गलत समझकर उसे दोष दिया। मैं निरी अंधी थी। यह एहसास होने के बाद मैंने सामान्य कार्य सँभालने का विरोध नहीं किया। इसे स्वीकारने और समर्पण को तैयार होने और ठीक से कर्तव्य निभाने में मैंने असली संतोष महसूस किया।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अपने कर्तव्यों के पालन में, लोग सत्य के अनुसरण का उपयोग, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य को धीरे-धीरे समझने, उसे स्वीकारने और फिर उसका अभ्यास करने के लिए करते हैं। फिर वे एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं, जहाँ वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग देते हैं, खुद को शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों और नियंत्रण से मुक्त कर लेते हैं, और इसलिए वे ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जिनके पास सत्य-वास्तविकता होती है और जो सामान्य मानवता से युक्त होते हैं। जब तुममें सामान्य मानवता होगी, तभी तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन और तुम्हारे कार्य लोगों के लिए शिक्षाप्रद और परमेश्वर के लिए संतोषजनक होंगे। और जब परमेश्वर लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन का अनुमोदन करता है, तभी वे परमेश्वर के स्वीकार्य सृजित प्राणी हो सकते हैं। तो, अपने कर्तव्य के प्रदर्शन के संबंध में, हालाँकि जो तुम लोग अब खपाते हो और भक्ति में जो प्रदर्शित होता है, वे तुम लोगों द्वारा प्राप्त विभिन्न कौशल, शिक्षा और ज्ञान हैं, ठीक अपना कर्त्तव्य निभाने के माध्यम से ही तुम लोग सत्य समझ सकते हो, और जान सकते हो कि अपना कर्तव्य निभाना क्या होता है, परमेश्वर के सामने आना क्या होता है, परमेश्वर के लिए दिलोजान से खपना क्या होता है। इस माध्यम से तुम जानोगे कि कैसे अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ना है, और कैसे अपने खिलाफ विद्रोह करना है, अहंकारी और आत्म-तुष्ट नहीं बनना और सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। केवल इसी तरह तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि अपना कर्तव्य निभाना खुद को बदलने और सत्य हासिल करने का मार्ग है। इसका आशीष पाने या फायदे हासिल करने से कोई वास्ता नहीं है। आप चाहे जो काम करें, सत्य पर चलना और स्वभाव बदलने पर ध्यान देना ही सही रास्ता है। सामान्य कार्यों के दौरान मैंने न तो सत्य का अनुसरण किया, न जीवन प्रवेश का काम किया, इसीलिए मैं कुछ भी नहीं सीख पाई। इसका मेरे काम की प्रकृति से कोई वास्ता नहीं था। मुझे लगता था कि सामान्य कार्य कोरी मेहनत है। भ्रष्टता दिखाने पर भी मैंने न तो सत्य खोजने पर ध्यान दिया, न ही इसके समाधान पर। मैं अपने काम में नकारात्मक और सुस्त रही, हालाँकि काम तो किया, लेकिन मुझे हासिल कुछ नहीं हुआ और मेरे स्वभाव में भी कोई बदलाव नहीं आया। अगर मेरा रवैया ऐसा ही रहता, तो मुझे कभी भी बचाया नहीं जा सकता था। इस एहसास ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। चाहे सामान्य कार्य सँभालने हों या भाई-बहनों को सिंचित कर सहारा देना हो, मैं इसे सिर्फ एक काम समझकर करती नहीं रह सकती थी। मुझे प्रार्थना करने और सत्य सिद्धांत खोजने पर ध्यान देना था और जब भी मुझे अपने अंदर भ्रष्टता दिखाई दे, आत्म-चिंतन करके और सत्य खोजकर इसे दूर करना था। कुछ समय इस तरह अभ्यास करते रहने से, पता ही नहीं चला कि मैंने कब खुद को बेहतर समझना सीख लिया और सत्य की ज्यादा असल समझ हासिल कर ली।
मुझे याद एक समय एक बहन थी जो कुछ भी योजना बनाते हुए हमेशा मुझे शामिल होने को कहती थी। वह उन सरल कामों में भी मेरी मदद माँगती थी, जिन्हें खुद भी कर सकती थी। जब उसने फिर पूछा तो मैंने अपनी सोच सुधारी और इस बात को लेकर कोई विरोध नहीं किया कि मुझे कितना काम करना है। साथ में काम करते हुए मैंने देखा कि वह असली बोझ नहीं उठाती थी और आरामतलब थी। मैं उसे इस बारे में बताना चाहती थी, लेकिन यह सोचकर डर गई कि उसे मेरे साथ काम करना कठिन लगेगा, तो मुझे उसके दैहिक सुखों की चिंता थी। यह सोचकर कि मैं चीजों को सँभाल लूँगी—मैंने उसे कुछ नहीं कहा, न उसके साथ संगति की। बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़ने और आत्म-चिंतन करने के बाद मुझे लगा कि मैं तो खुशामदी टट्टू बन गई हूँ। लगता तो यह था कि मैं दूसरों का ख्याल रखती हूँ, समझदार हूँ, जबकि वास्तव में मेरा एक ही मकसद होता था कि उसकी नजरों में मैं भली बनी रहूँ। इससे उसके जीवन में कोई फायदा नहीं होना था और वह हमेशा मुझ पर निर्भर रहती। यही सोचकर मैंने उससे खुलकर बात की, उसे अपनी भ्रष्टता के बारे में बताया और उसकी समस्या भी बता दी। उसके बाद उसने खुद को कुछ बदला, अपने काम में सक्रियता बढ़ाकर मुझ पर निर्भर रहना बंद कर दिया।
इन अनुभवों ने मुझे सिखाया कि मैं चाहे जैसा भी काम करूँ, उसमें सत्य समझकर उसमें प्रवेश कर सकती हूँ। परमेश्वर किसी की तरफदारी नहीं करता। साथ ही, मुझे यह एहसास भी हुआ कि मैं चाहे जो भी काम करूँ, जैसी भी स्थिति का सामना करूँ, सत्य खोजकर उसका अभ्यास करने की क्षमता ही सबसे महत्वपूर्ण है।
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