अब मैं अपने साथी से घृणा नहीं करता
मैं कलीसिया की किताबों और चीजों का प्रबंधन करता हूँ। मेरा काम यह जाँचना है कि विभिन्न चीजें व्यवस्थित रूप से सही जगह रखी गई हैं या नहीं, उन्हें सफाई से रखा गया है या नहीं, और आवक-जावक अभिलेख सही हैं या नहीं। मैं डरता हूँ कि अगर असावधान रहा, तो चीजें अस्त-व्यस्त हो जाएँगी। लेकिन मेरे साथ कार्यरत भाई चेंग थोड़ा लापरवाह था और सफाई पर ध्यान नहीं देता था। कभी-कभी वह चीजें यहाँ-वहाँ फेंक देता था या उनका ढेर लगा देता था, इसलिए मुझे हमेशा उसके काम की जाँच करनी पड़ती थी। जब मैं भाई चेंग को चीजें गलत जगह रखते देखता, या यह देखता कि चीजों के आवक-जावक अभिलेख स्पष्ट नहीं हैं, तो मैं इतना बेचैन हो जाता कि आपा खो बैठता और उसकी मदद के लिए संगति न करता। पहले मैं भाई की भावनाओं का ख्याल रखता था, अपने लहजे और बोल को लेकर सतर्क रहता था, लेकिन समय के साथ मैंने इन चीजों का ध्यान रखना छोड़ दिया, और बार-बार उसे बताने लगा कि फलाँ-फलाँ चीज गलत है। कभी-कभी यह कहते हुए उसे गुस्से से डांट देता, "तुम चीजों को फिर से गलत जगह क्यों रख रहे हो? तुम एक चीज यहाँ रखते हो, दूसरी वहाँ। क्या तुम चीजें वहीं नहीं रख सकते, जहाँ से उठाते हो? चीजें व्यवस्थित रखने में पल भर का समय लगेगा, पर तुम काम अधूरा छोड़े बिना नहीं रहते, और बाद में कभी तुम उसे पूरा नहीं करते...।" भाई चेंग के प्रति मेरा रवैया लगातार बुरा होता गया। कभी-कभी मैं आज्ञा के लहजे में उसे यह बेतरतीबी ठीक करने को कहता।
मुझे याद है, एक बार आवक-जावक अभिलेख की जाँच करते वक्त मैंने पाया कि उसने कुछ सुधार इतने बुरे ढंग से किए थे कि उन्हें पढ़ना मुश्किल था। मैं तुरंत बौखला गया, और सोचा, "मैं अंदाजा तक नहीं लगा सकता कि उसने यहाँ क्या लिखा है!" मैं सीधे भाई चेंग के पास गया। छात्र को डाँटने वाले शिक्षक की तरह मैंने अभिलेख दिखाकर उससे हर प्रविष्टि के बारे में पूछा। मैंने कहा, "जानते हो, अभी मैं क्या करना चाहता हूँ? मैं ये अभिलेख ले जाकर अगुआ को दिखाना चाहता हूँ, ताकि उन्हें पता चले कि तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो, और तुम कितने लापरवाह हो!" भाई चेंग के चेहरे पर अपराध-बोध था, बोला कि भविष्य में वह सावधान रहेगा। उसने कहा कि यह संयोग मात्र था। अभिलेख लिखते समय किसी ने उसे एक अहम मामला निपटाने के लिए बुला लिया था, इसलिए वह इसे भूल गया। लेकिन मैंने उसे बोलने नहीं दिया और गुस्से से कहा, "अगर ऐसा फिर से हुआ, तो मैं अभिलेख का पन्ना सीधे अगुआ को दे दूँगा, और फिर वे ही इसे देखेंगी!" जल्दी ही मुझे भाई चेंग के एक अभिलेख-पन्ने पर फिर से अस्पष्ट लिखावट मिली। इस बार मुझे पहले से भी ज्यादा गुस्सा आया। मैंने जाकर भाई चेंग से कहा, "मैंने तुमसे कहा था, कि गलती हो जाए तो उसी पर न लिखकर दूसरी जगह फिर से लिखो। अपना यह सुधार देखो। पता नहीं, तुमने क्या लिखा है? समझ न आए तो मुझे आकर तुमसे पूछना पड़ेगा। क्या इससे गुस्सा नहीं आएगा? तुम्हें न आए, मुझे तो आता है!" मुझे फिर से नाराज देख उसने अभिलेख का पन्ना उठाया और बोला, "मैं इसे दोबारा सुधार दूँगा।" मैं गुस्से से चिल्ला पड़ा, "रहने दो! इससे यह ठीक नहीं होगा!" यह कहकर मैं चला आया, भाई अभिलेख का पन्ना हाथ में लिए परेशान बैठा रहा। तब, मुझे एहसास हुआ कि मैंने ज्यादती की है। पर मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, और बात आई-गई हो गई। कुछ दिनों बाद एक मामूली बात पर मैं भाई चेंग से फिर गुस्सा हो गया। उसने भी मुझ पर गुस्सा दिखाया, और हम बहस में उलझ गए। अगुआ ने पाया कि हम मिल-जुलकर काम नहीं कर सकते, तो उन्होंने मेरे साथ संगति की, और परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया, "मसीह-विरोधी चाहे जो भी कर्तव्य निभाए, चाहे जिसके साथ भी वह सहयोग कर रहा हो, वहाँ हमेशा संघर्ष और विवाद होते हैं। वह हमेशा चाहता है कि वह दूसरों को व्याख्यान दे और वे उसकी बात पर ध्यान दें। ऐसा व्यक्ति किसके साथ सहयोग कर सकता है? किसी के साथ नहीं—उसका भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर होता है। वह न केवल किसी के साथ सहयोग करने में असमर्थ होता है, बल्कि वह हमेशा दूसरों को ऊँचाई से व्याख्यान देता है और उन्हें विवश करता है, हमेशा लोगों के जूए पर सवारी गाँठकर उन्हें आज्ञाकारी बनने पर मजबूर करना चाहता है। यह केवल स्वभाव की समस्या नहीं है—उसकी मानवता में भी कोई गंभीर गड़बड़ी होती है, वह यह है कि उसमें कोई जमीर या विवेक नहीं होता। ... लोग सामान्य रूप से बातचीत कर सकें, इसके लिए एक शर्त पूरी होनी चाहिए : उनमें कम से कम जमीर और विवेक, धैर्य और सहनशीलता होनी चाहिए, तभी वे सहयोग कर पाएँगे। कर्तव्य निभाने में सहयोग कर पाने के लिए यह आवश्यक है कि लोगों का मन एक हो, और वे अपनी कमजोरियाँ दूसरे की ताकतों से दूर करने में सक्षम हों, और उनके आचरण की एक आधार-रेखा हो, और उसके साथ वे धैर्यवान और सहनशील हों। केवल इसी तरह वे आपस में सौहार्दपूर्ण ढंग से निभा सकते हैं। हालाँकि कभी-कभी संघर्ष और विवाद सामने आ सकते हैं, लेकिन वे सहयोग करते रह सकते हैं; कम से कम कोई दुश्मनी नहीं पैदा होगी। मानवता रहित हर व्यक्ति सड़ा हुआ सेब है। केवल सामान्य मानवता वाले ही दूसरों के साथ आसानी से सहयोग करते हैं, और दूसरों के प्रति सहिष्णु और धैर्यवान होते हैं; केवल वे ही दूसरे लोगों की राय सुनेंगे, और दूसरों के साथ चर्चा करने के लिए काम करते समय कृपालु होंगे। उनका भी भ्रष्ट स्वभाव होता है और उनकी भी निरंतर यह इच्छा होती है कि दूसरे उन पर ध्यान दें। उनका भी यही इरादा होता है—लेकिन चूँकि उनमें जमीर और विवेक होता है, और वे सत्य की तलाश कर सकते हैं और खुद को जान सकते हैं, और चूँकि उन्हें लगता है कि ऐसा व्यवहार अनुचित होगा, और चूँकि उनका दिल उन्हें धिक्कारता है और उनमें संयमित रहने की क्षमता होती है, इसलिए वे दूसरों के साथ सहयोग कर पाते हैं। यह सिर्फ एक भ्रष्ट स्वभाव का बाहर आना है। वे बुरे लोग नहीं होते, न ही उनमें मसीह-विरोधी का सार होता है। वे दूसरों के साथ सहयोग करने में सक्षम होते हैं। अगर वे बुरे लोग या मसीह-विरोधी होते, तो वे किसी भी तरह दूसरों के साथ सहयोग न कर पाते। उन सभी दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा ही होता है, जिन्हें परमेश्वर के घर से निकाल दिया जाता है। वे किसी के भी साथ तालमेल बिठाकर सहयोग नहीं कर पाते, इसलिए वे सभी उजागर कर बाहर निकाल दिए जाते हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने के बाद अगुआ ने मुझे चेताया, "लोगों के साथ मिल-जुलकर रहने के लिए हमें उनका आदर करना होगा। आप भाई चेंग पर इस तरह चिल्लाते हैं, उन्हें इस तरह फटकारते हैं, तो आपमें बुनियादी सम्मान भी नहीं है। क्या आप बेहद घमंडी नहीं हैं? आप हर काम पर उसे नीचा दिखाते हैं, गिद्ध की तरह उस पर नजर गड़ाए रहते हैं, और समस्याएँ जाने नहीं देते। क्या यह सही है? भाई चेंग काम में व्यस्त रहते हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है। कुछ समस्याएँ अपरिहार्य होती हैं। क्या आपको अच्छा बरताव कर उनकी ज्यादा मदद नहीं करनी चाहिए? यही नहीं, उनमें निरंतर सुधार हो रहा है। पर आपका क्या? आपके स्वभाव और मानवता दोनों के साथ समस्या है। लोगों पर लगातार चिल्लाना एक भ्रष्ट स्वभाव है। आपको अपने भाई की आँख का तिनका दिखता है, अपनी आँख का लट्ठा नहीं सूझता?"
फिर, अगुआ ने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़कर सुनाया। "तुम लोग क्या कहते हो, क्या लोगों के साथ सहयोग करना कठिन होता है? वास्तव में, नहीं होता। तुम यह भी कह सकते हो कि यह आसान होता है। लेकिन फिर भी लोगों को यह मुश्किल क्यों लगता है? क्योंकि उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है। जिन लोगों में मानवीयता, विवेक और समझ होती है, उनके लिए दूसरों के साथ सहयोग करना अपेक्षाकृत आसान होता है और उन्हें संभवत: उस काम को करने में खुशी भी होती है। चूँकि किसी के लिए भी अपने दम पर किसी काम को पूरा करना इतना आसान नहीं होता, चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो या कोई भी काम कर रहा हो, अगर कोई बताने और सहायता करने वाला हो तो यह हमेशा अच्छा ही होता है—अपने स्तर पर करने से कहीं ज्यादा आसान होता है। इसके अलावा, लोगों की काबिलियत क्या कर सकती है या वे स्वयं क्या अनुभव कर सकते हैं, इसकी सीमाएं होती हैं। कोई भी इंसान हरफनमौला नहीं हो सकता; किसी के लिए भी हर चीज़ को जानना, सीखना, उसे पूरा करना असंभव होता है और सभी को इस बात की समझ होनी चाहिए। इसलिए तुम चाहे जो काम करो, वह महत्वपूर्ण हो या न हो, वहां हमेशा तुम्हारी मदद करने वाले लोग होने चाहिए, तुम्हें सुझाव और सलाह देनेवाले, काम में तुम्हारी सहायता करने वाले लोग होने चाहिए। इस प्रकार तुम काम को ज़्यादा सही ढंग से कर पाओगे, ग़लतियाँ करना मुश्किल होगा, और तुम कम भटकोगे—जो सब अच्छे के लिए होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने के बाद, अगुआ ने थोड़ी और संगति की, और आखिरकार मुझसे पूछा, "अगर आपको इनका खुद प्रबंधन करना होता, तो क्या आप बिना कोई गलती किए कर पाते?" मैंने शर्मसार होकर कहा, "नहीं।" अगुआ बोलीं, "सही है। कोई भी सब-कुछ नहीं जानता, और सबको अपना कर्तव्य निभाने के लिए साथी की जरूरत होती है। सौहार्दपूर्वक सहयोग किए बिना आप कर्तव्य ठीक से कैसे निभा सकते हैं? आपको इस पर मनन कर अपनी समस्याओं पर विचार करना चाहिए।"
लौटकर आया, तो मैं बहुत दुखी था। मैं अपनी इतनी बड़ी समस्या से कैसे अनजान था? मुझे लगता था कि मुझमें अच्छी मानवता है और मैं भाई-बहनों के साथ मिल-जुलकर रह सकता हूँ, लेकिन अपने कर्तव्य में भाई चेंग से सहयोग करते हुए मैं अपने विचारों और कार्यों को सही मानकर हमेशा आत्म-तुष्ट रहता था। मैं उस पर अपनी इच्छा थोपकर उससे वही करवाता था, जो मैं चाहता था। मैं सत्य पर संगति कर उसकी मदद नहीं करता था, बस, गुस्सा होकर, उसे फटकारता रहता था। मुझमें मानवता और विवेक नहीं था। खुद को भाई से बेहतर समझकर मैं उसे नीचा दिखाता रहता था। मुझे वह नापसंद था, इसलिए मैं उसकी खूबियों और कमजोरियों पर ध्यान नहीं दे पाता था। मैं लगातार दिखावा कर उसे नीचा दिखाता था। मूल रूप से, कलीसिया की चीजों के प्रबंधन के लिए मैं और भाई चेंग दोनों जिम्मेदार थे, पर मैं उससे किसी चीज पर चर्चा नहीं करता था। मैं हमेशा आत्म-केंद्रित रहता था, अपनी ही चलाता था, और भाई चेंग को आदेश दिया करता था। मैं उसे अक्सर बच्चे की तरह डांटकर सबक सिखाने की कोशिश करता था। मेरा स्वभाव बहुत घमंडी था, और परमेश्वर को इससे घृणा थी!
मैं जान गया कि मैं घमंडी हूँ, हमेशा दूसरों को अपनी बात सुनने पर मजबूर करता हूँ, पर यह नहीं जान पाया कि यह समस्या कैसे सुलझाऊँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचनों के संगत अंश ढूँढ़े। एक दिन, परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "मसीह-विरोधी निरंतर दूसरों को नियंत्रित कर जीतने की महत्वाकांक्षा और इच्छा रखते हैं। लोगों के साथ अपने व्यवहार में, वे हमेशा यह जानना चाहते हैं कि लोग उन्हें कैसे देखते हैं, और क्या उनके दिलों में उनकी हैसियत है और क्या वे उनकी प्रशंसा और आराधना करते हैं। मसीह-विरोधी तब विशेष रूप से खुश होता है, जब उसका सामना चापलूसों से होता है, ऐसे लोगों से, जो उसकी खुशामद और ठकुरसुहाती करते हैं; वह ऊँचाई से उस व्यक्ति को व्याख्यान देना शुरू कर देगा और सत्य के रूप में स्वीकार करवाने के लिए उस व्यक्ति में नियम, विधियाँ, सिद्धांत और धारणाएँ स्थापित करते हुए, खोखली बातें करेगा। यहाँ तक कि वह इसे यह कहकर महिमामंडित भी करेगा, 'अगर तुम ये चीजें स्वीकार कर सको, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है।' अविवेकी लोग सोचेंगे कि मसीह-विरोधी जो कहता है, वह उचित है, हालाँकि वे इसे अस्पष्ट पाते हैं, और नहीं जानते कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं। वे केवल यह महसूस करेंगे कि जो कुछ मसीह-विरोधी कहता है, वह गलत नहीं है और इसे सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं कहा जा सकता। और इस तरह, वे मसीह-विरोधी के प्रति समर्पित हो जाते हैं। अगर कोई मसीह-विरोधी को पहचानकर उसे उजागर कर ही दे, तो इससे वह क्रोधित हो जाएगा। मसीह-विरोधी अशिष्टतापूर्वक उस व्यक्ति पर आरोपों, निंदा और धमकियों की बौछार कर शक्ति-प्रदर्शन करेगा। अविवेकी पूरी तरह से वशीभूत हो जाएँगे और उनकी प्रशंसा में फर्श पर गिर जाएँगे; वे मसीह-विरोधी के उपासक और उस पर निर्भर हो जाएँगे, यहाँ तक कि उससे भयभीत भी हो जाएँगे। इन लोगों में गुलाम होने की भावना पैदा हो जाएगी, मानो मसीह-विरोधी की अगुआई के बिना, मसीह-विरोधी के उनका निपटान और उनकी काट-छाँट न करने पर, उनका दिल डाँवाँडोल हो जाएगा, मानो अगर ये चीजें खो गईं तो परमेश्वर उन्हें नहीं चाहेगा। उनमें सुरक्षा की कोई भावना नहीं होती। जब ऐसा होता है, तो लोग कार्य करने से पहले मसीह-विरोधी के चेहरे के भावों से संकेत ग्रहण करना सीख लेते हैं, इस डर से कि कहीं वे क्षुब्ध न हों। वे सभी अपनी खुशी जाहिर करना चाहते हैं; वे सभी मसीह-विरोधी का अनुसरण करने पर दृढ़ होते हैं। मसीह-विरोधी जो भी भी कार्य करता है, उसमें वह सिद्धांत के शब्द प्रस्तुत करता है। वह लोगों को नियमों का पालन करने का निर्देश देने में माहिर होता है, लेकिन उन्हें यह कभी नहीं बताता कि उन्हें सत्य के किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, या उन्हें कोई चीज क्यों करनी चाहिए, या परमेश्वर की क्या इच्छा है, या परमेश्वर का घर अपना कार्य कैसे व्यवस्थित करता है; वह यह कभी नहीं बताता कि कौन-सा काम सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण है, या कौन-सा मुख्य काम है जो अच्छी तरह से किया जाना है। मसीह-विरोधी इन महत्वपूर्ण चीजें के बारे में कुछ नहीं कहता। काम करने और उसे व्यवस्थित करने में वह कभी सत्य के बारे में संगति नहीं करता, क्योंकि वह सत्य के सिद्धांत नहीं समझता। इसलिए, वह बस लोगों को कुछ नियमों और सिद्धांतों का पालन करने का निर्देश दे पाता है—और अगर कोई उनके दावों और नियमों का उल्लंघन करेगा, तो उसे उसकी निंदा और तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा। मसीह-विरोधी जब अपना काम करता है, तो अक्सर परमेश्वर के घर का झंडा उठाए रहता है और दूसरों को ऊँचाई से व्याख्यान देता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो उनके व्याख्यानों से इतने अभिभूत हो जाते हैं कि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने वैसा न किया जैसा मसीह-विरोधी कहता है, तो यह परमेश्वर को धोखा देना होगा। इस प्रकार का व्यक्ति मसीह-विरोधी के नियंत्रण में होता है। मसीह-विरोधी यह किस प्रकार का व्यवहार दिखाता है? यह गुलाम बनाना है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर ने ठीक मेरी ही हालत का वर्णन किया था। भाई चेंग के साथ काम करते समय मैंने उसे सहज पाया। काम में गड़बड़ी होने पर वह मेरी आलोचना स्वीकार कर लेता, उसके खंडन की कोशिश न करता। मुझे लगा, उसे आसानी से धमकाया जा सकता है, इसलिए मैं उस पर रोब झाड़ता और हर चीज में अपनी ही चलाता। कई बार, उससे चर्चा करते समय, मैं बस चर्चा करने का नाटक करता। अंत में, फैसला मेरा ही होता। साथ ही, चीजों के प्रबंधन की मेरी रची हुई कुछ सावधानियाँ, समस्याहीन और प्रबंधन में मददगार लगती थीं, लेकिन ये सावधानियाँ मैंने संगत सिद्धांतों के आधार पर तैयार नहीं की थीं। मैंने उन्हें भाई चेंग की समस्याएँ सुलझाने के लिए रचा था। कह सकते हैं कि वे उसी के लिए रची गई थीं। वह जब भी ये सावधानियाँ न बरतता, मुझे उसे फटकारने का बहाना मिल जाता, और वह इसका विरोध न कर पाता। इस बार भी जब उसने मेरे निर्देशानुसार अभिलेख का पन्ना नहीं बनाया, तो मैंने उसे बेझिझक डांट पिलाई, और उसे अपने कहे अनुसार करने को मजबूर किया। मुझे उसकी उस दिन की बात याद आई, "आपको चीजें व्यवस्थित करते देख मैं छिपने की कोशिश करता हूँ। मैं डरता हूँ कि आप फिर मेरी आलोचना करेंगे।" इस खयाल ने मुझे बेचैन कर दिया। मेरे शैतानी स्वभाव ने भाई के दिल पर अपना साया डालकर उसे लाचार कर दिया था। ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं, "अगर कोई उनके दावों और नियमों का उल्लंघन करेगा, तो उसे उसकी निंदा और तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा। मसीह-विरोधी जब अपना काम करता है, तो अक्सर परमेश्वर के घर का झंडा उठाए रहता है और दूसरों को ऊँचाई से व्याख्यान देता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो उनके व्याख्यानों से इतने अभिभूत हो जाते हैं कि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने वैसा न किया जैसा मसीह-विरोधी कहता है, तो यह परमेश्वर को धोखा देना होगा। इस प्रकार का व्यक्ति मसीह-विरोधी के नियंत्रण में होता है।" आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि मेरी समस्या गंभीर है। भाई चेंग के साथ काम करते हुए मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव प्रकट हो गया था। तब मेरा कोई रुतबा नहीं था, अगर होता, तो लोगों को लाचार कर उन्हें काबू में करना और आसान रहता। तब, क्या मैं मसीह-विरोधी नहीं हो गया होता? मैं प्राय: सत्य खोजने या आत्म-चिंतन करने पर ध्यान नहीं देता था। अनजाने ही मैं अक्सर अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित कर देता था। मैं बहुत सुन्न था।
मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "अगर तुम परमेश्वर के घर के सदस्य होकर भी अपने कार्यों में हमेशा उतावले रहते हो, हमेशा वह चीज प्रकट कर देते हो जो तुम में स्वाभाविक रूप से है, और हमेशा अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देते हो, मानवीय साधनों और भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव के साथ चीजें करते हो, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम दुष्टता करते हुए परमेश्वर का विरोध करोगे—और अगर तुम कभी पश्चात्ताप नहीं करते और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चल पाते, तो तुम्हें उजागर करके बाहर निकालना होगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है)। मुझे भाई चेंग से किया गया बरताव याद आ गया। अपना असंतोष जाहिर करने और क्षणिक आनंद के लिए मैं भाई की भावनाओं की पूरी अनदेखी करता था। अभिलेख का पन्ना पढ़ने लायक न होने से गुस्सा होने पर मैं भाई चेंग को गलती करने वाला बच्चा मानकर भाषण देता था। वह बिना कुछ बोले चुपचाप बैठा रहता, और उसके गलती मान लेने पर भी मैं रूखेपन से उसका प्रस्ताव ठुकरा देता। वह छवि मेरे मन में जम गई, जिसे भुलाना नामुमकिन था। इस बारे में सोचकर मैं अपना अपराध-बोध और दर्द व्यक्त नहीं कर पाया। मैंने खुद से पूछा, "तुम भाई से ऐसा बरताव कैसे कर सकते थे? तुमने उसके साथ कभी संगति नहीं की, उसकी मदद नहीं की, फिर उसे डांटने का हक तुम्हें किसने दिया? तुम किस मुँह से उसे अपना भाई कहते हो?" हर सवाल ने मुझे अवाक कर दिया। पहले, मैं हमेशा मानता था कि भाई चेंग ही दोषी है, उसी में ढेरों खामियाँ हैं, और उसी ने मेरे लिए समस्या खड़ी की है। अब मुझे एहसास हुआ कि असली समस्या मुझमें थी। मैं ही नहीं बदला था, मैं ही बहुत घमंडी और अमानवीय था। मुझे बहुत पछतावा हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर प्रायश्चित्त करना चाहा।
मैंने जानने का प्रयास किया कि सिद्धांतों के अनुसार भाई-बहनों से बरताव कैसे करना है। परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "भाई-बहन कैसे बातचीत करते हैं, इसके सिद्धांत होने चाहिए। हमेशा दूसरों के दोषों पर ध्यान केंद्रित न करो, बल्कि स्वयं पर बार-बार चिंतन करो, दूसरे के सामने उसे स्वीकार करने में सक्रिय रूप से आगे बढ़ो जो तुमने किया हो और जिसमें उनके प्रति हस्तक्षेप या नुकसान निहित हो, और खुलकर अपने बारे में बोलना और संगति करना सीखो। इससे आपसी समझ बढ़ेगी। साथ ही, चाहे कोई भी बात हो जाए, लोगों को चीजें परमेश्वर के वचनों के आधार पर देखनी चाहिए। अगर वे सत्य के सिद्धांत समझने और अभ्यास करने का मार्ग खोजने में सक्षम हैं, तो वे एक दिल और दिमाग के हो जाएँगे, और भाई-बहनों के बीच संबंध सामान्य हो जाएगा, और वे अविश्वासियों जितने कठोर, उदासीन और क्रूर नहीं होंगे, और इसलिए वे एक-दूसरे के प्रति संदेह और सतर्कता की मानसिकता छोड़ देंगे। भाई-बहन एक-दूसरे के साथ ज्यादा घनिष्ठ हो जाएँगे; वे एक-दूसरे की सहायता और एक-दूसरे से प्रेम कर सकेंगे; उनके दिलों में सद्भावना होगी, और वे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता और करुणा रखने में सक्षम होंगे, और वे एक-दूसरे को अलग-थलग करने, एक-दूसरे से ईर्ष्या करने, एक-दूसरे से तुलना करने और गुप्त रूप से एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने और एक दूसरे के प्रति विद्रोही होने के बजाय एक-दूसरे का समर्थन और सहायता करने में सक्षम होंगे। अगर लोग अविश्वासियों जैसे होंगे, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं? यह न केवल उनके जीवन में प्रवेश को प्रभावित करेगा, बल्कि दूसरों को भी नुकसान पहुँचाएगा और प्रभावित करेगा। ... जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, तो उनके लिए परमेश्वर के सामने शांति से रहना बहुत कठिन होता है, सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना बहुत कठिन होता है। परमेश्वर के सामने जीने के लिए तुम्हें पहले आत्मचिंतन कर खुद को जानना और वास्तव में परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखना चाहिए, और फिर तुम्हें सीखना चाहिए कि भाई-बहनों के साथ कैसे निभाना है। तुम्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, एक-दूसरे के साथ उदार होना चाहिए, यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि एक-दूसरे के बारे में कौन-सी बात असाधारण है, दूसरे के गुण क्या हैं—और तुम्हें दूसरों की राय और सही चीजें स्वीकार करना सीखना होगा, खुद को भोगों में लिप्त मत करो, निरंकुश इच्छाएँ मत रखो और हमेशा यह मत सोचो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो, और फिर खुद को एक महान व्यक्ति समझकर अन्य लोगों को तुम्हारा कहा मानने, तुम्हारी आज्ञा मानने, तुम्हारा आदर और बड़ाई करने के लिए मजबूर मत करो—यह विकृत है। ... तो परमेश्वर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? परमेश्वर इसकी परवाह नहीं करता कि लोग कैसे दिखते हैं, वे लंबे हैं या छोटे। इसके बजाय, वह देखता है कि उनका हृदय दयालु है या नहीं, वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं, वे परमेश्वर से प्रेम और उसका आज्ञापालन पालन करते हैं या नहीं। इसी को परमेश्वर लोगों के प्रति अपने व्यवहार का आधार बनाता है। अगर लोग भी ऐसा कर सकें, तो वे दूसरों के साथ उचित व्यवहार कर पाएँगे, और यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगा। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिए। जब हम जानते हैं कि परमेश्वर लोगों के प्रति कैसा व्यवहार करता है, तो हमारे पास भी लोगों के प्रति व्यवहार करने का एक सिद्धांत और मार्ग होता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के अभ्यास के सिद्धांत)। हाँ। अपने कर्तव्य में एक-दूसरे से बातचीत करते समय हमें सामान्य मानवता के साथ जीना चाहिए, एक-दूसरे की सहायता, और सहिष्णुता और धैर्य से एक-दूसरे का ध्यान रखना चाहिए, जब लोग सिद्धांतों के खिलाफ जाएँ, तो सत्य पर संगति करनी चाहिए, गंभीर मामलों में, उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट और निपटान करना चाहिए। सिद्धांतों के अनुसार काम करने का यही एक मार्ग है। भाई-बहन अलग-अलग स्थानों से आते हैं, सबके जीवन के हालात, अनुभव, उम्र और क्षमता अलग-अलग होती है। उनमें जो भी कमियाँ या खामियाँ हों, हमें उनके साथ उचित बरताव कर ज्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, और उनके प्रति विचारशील और सहिष्णु होना चाहिए। भाई चेंग रखरखाव में माहिर था, और आम तौर पर व्यस्त रहता था। लेकिन, वह चीजों के आवक-जावक अभिलेख का प्रबंधन करने में अच्छा नहीं था। मुझे और ज्यादा जिम्मेदारी उठानी चाहिए थी और ज्यादा उदार होना चाहिए था, और उसे मेरे ढंग से काम करने पर मजबूर नहीं करना चाहिए था। यह बिल्कुल अमानवीय था। मेरा भाई रखरखाव में अच्छा था, मरम्मत के काम में कर्तव्यनिष्ठ था, और कष्ट उठाने से नहीं डरता था। इस मामले में वह मुझसे बहुत श्रेष्ठ था। पर मैंने उसकी खूबियाँ नहीं देखीं, मैंने उसकी कमियों पर ध्यान दिया, उस पर आरोप लगाए, उसे डांटा-डपटा। यह बहुत घमंड और बेवकूफी थी।
बाद में, मैंने होशपूर्वक अपनी हालत बदली और सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास किया। जब चीजें दोबारा घटीं, तो मैं बहुत शांत रहा, और भाई चेंग के प्रति और उदार रहा। एक बार, मैं किसी काम से बाहर गया, तो चीजों का प्रबंधन भाई चेंग पर छोड़ गया। कुछ देर बाद, मैंने भाई चेंग को फोन कर पूछा कि काम कैसा चल रहा है। उसने शांति और सतर्कता से कहा, "आपको क्या लगता है? वैसा ही चल रहा है, जैसा आप सोच रहे हैं।" यह सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ। भाई ने ऐसी बात क्यों कही? इसीलिए न कि उसके साथ मेरा पिछला बरताव मेरे भ्रष्ट स्वभाव से निकला था, और मैंने उसे हमेशा महसूस कराया था कि वह निकम्मा है, कोई काम ढंग से नहीं कर सकता? इस बारे में मैंने जितना सोचा, उतना ही दुखी हुआ, लेकिन इसने सत्य का अभ्यास करने और खुद को बदलने के मेरे संकल्प को मजबूती दी। मैंने भाई चेंग को सांत्वना देते हुए कहा, "बस देख लेना, कौन-सी चीजें छितरी पड़ी हैं, और समय निकालकर उन्हें सही जगह रख देना। तुम आम तौर पर दूसरी चीजों में व्यस्त रहते हो, तो थोड़ा बिखराव होना लाजमी है। अगर तुम्हें समय न मिले, तो कोई बात नहीं, मेरे लौटने के बाद हम मिलकर लेंगे।" फोन करने के बाद मुझे लगा, भाई चेंग अपने-आप नहीं सँभाल पाएगा, इसलिए मैंने एक बहन से उसकी मदद करने के लिए कह दिया। पहले ऐसी चीजें होने पर मैं उसकी गलतियों के लिए हमेशा उसे डांटता-फटकारता था। अब ऐसा होने पर मैं संगति कर उसकी मदद कर पाता हूँ, जिससे मुझे सुकून और आराम मिलता है। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ। अब मुझे अपने घमंडी स्वभाव की थोड़ी समझ है, और खुद पर थोड़ा काबू रख पाता हूँ। यह सब परमेश्वर के वचन पढ़ने का नतीजा है। हालाँकि यह एक छोटा-सा बदलाव है, मेरे भ्रष्ट स्वभाव में मूलभूत परिवर्तन नहीं है, फिर भी मैं खुश हूँ, क्योंकि यह एक अच्छी शुरुआत है। मुझे यकीन है, अगर मैं परमेश्वर के वचनों पर अमल कर प्रवेश करूँ, तो अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग पाऊँगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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