कोविड होने से मैं बेनकाब हुई

17 दिसम्बर, 2024

जियांग पिंग, चीन

पिछले कुछ सालों में जैसे-जैसे कोरोना वायरस महामारी दुनिया भर में फैली, बहुत सारे लोग वायरस से संक्रमित हो गए, उनमें से कई लोगों की इससे मौत भी हो गई। मैंने मन ही मन सोचा, “परमेश्वर के कार्य के अंत के बाद बहुत बड़ी आपदा आएगी और बुराई करने वाले और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले सभी लोग आपदा में घिरकर नष्ट हो जाएँगे। केवल वे लोग जो परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारते हैं और शुद्ध होते हैं, वे ही परमेश्वर की सुरक्षा पा सकते हैं और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। मुझे सुसमाचार के प्रसार और अपने कर्तव्य निर्वहन में तेजी लानी होगी और अच्छे कर्म अधिक करने होंगे। तभी मुझे अच्छा परिणाम और मंजिल मिलेगी।” मैंने यह भी सोचा, “परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद मैंने सुसमाचार फैलाने के लिए अपना काम छोड़ दिया। मुझे कई बार गिरफ्तार किया गया पर मैंने कभी भी भाई-बहनों या कलीसिया को धोखा नहीं दिया। इसके बाद भी मैं पहले की तरह सुसमाचार फैलाती रही और इन वर्षों में मैंने काफी लोगों को पाया। भले ही मैं 70 साल की हो चुकी हूँ, मैं अभी भी कई कलीसिया के सुसमाचार कार्य की प्रभारी हूँ और उनके परिणाम खराब नहीं हैं। मुझे विश्वास है कि अगर मैं अपना काम ठीक से करती रहूँगी तो परमेश्वर भविष्य में मुझे जरूर बचाएगा!” यह सोचकर मैं मन ही मन खुश हुई और मैं काम में बहुत सक्रिय हो गई।

दिसंबर 2022 में एक दिन जब मैं सुबह उठी तो मुझे थोड़ा बुखार, गले में खराश और खांसी महसूस हुई। मैं हाल ही में किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आई थी जिसे कोविड था, इसलिए मुझे शक हुआ कि मैं भी संक्रमित हो गई हूँ। हालाँकि, उस समय मेरे लक्षण बहुत गंभीर नहीं थे और मैं उन्हें सहन कर सकती थी, इसलिए मैंने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया। कुछ दिनों तक घर पर आराम करने के बाद मैं थोड़ा बेहतर महसूस कर रही थी। उस समय मैं काफी खुश थी, यह सोच रही थी कि चूंकि मैं इतने वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करती रही हूँ और हमेशा कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ, इसलिए परमेश्वर ने मुझे जल्दी ठीक होने दिया है, इसलिए मुझे सुसमाचार प्रचार खास तौर पर करना चाहिए और अच्छे कर्म बढ़ाने चाहिए। लेकिन बाद में मेरी बीमारी एकाएक और बढ़ गई। एक दिन मैं सुसमाचार प्रचार कर घर लौटी ही थी जब अचानक मेरे पूरे शरीर में कमजोरी महसूस हुई और मुझे तेज बुखार और चक्कर आने लगे। अगले दिन भी मुझे तेज बुखार था, जो कम नहीं हो रहा था। तब मैं जरा घबरा गई और सोचने लगी, “जब मैं बीमार हुई तो मैंने शिकायत नहीं की और हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभाती रही। मुझे तो परमेश्वर की सुरक्षा मिलनी चाहिए थी, फिर क्यों अचानक मेरी हालत इतनी बिगड़ गई? कोरोना वायरस के प्रकोप के बाद से दुनिया भर में बहुत से लोग मर चुके हैं, उनमें से कई उम्रदराज हैं। अगर मेरी हालत बिगड़ती रही तो क्या मैं भी मर जाऊँगी?” कुछ दिन मैंने बुखार घटाने के लिए कुछ दवाएँ लीं लेकिन यह तेज ही रहा। मुझे थकान रहती थी और मैं लगातार खाँसती रहती थी। खासकर जब मैंने सुना कि मेरे जानने वाले बूढ़े लोग कोविड से मर रहे हैं तो मैं थोड़ी डर गई और चिंतित होकर सोचने लगी, “परमेश्वर का कार्य जल्दी ही समाप्त हो जाएगा। अगर मैं अभी मर गई तो क्या तब भी मुझे बचाया जा सकेगा? क्या इतने वर्षों में मैंने जो कुछ भी खपाया है, वह सब बेकार चला जाएगा? कलीसिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो कोई कर्तव्य नहीं निभाते; वे अभी तक संक्रमित कैसे नहीं हुए? इस बीच मैंने अपना परिवार और करियर त्याग दिया, हमेशा अपना कर्तव्य निभाया, बहुत कष्ट सहे और काफी कीमत चुकाई। परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की?” यह सोचकर मैं हताश हो गई। हालाँकि मैंने कुछ नहीं कहा और अपना कर्तव्य निभाती रही, लेकिन मेरे दिल में उत्साह नहीं रहा और मैं अपने कर्तव्य में कष्ट सहना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। जब अगुआ ने मुझसे कुछ अन्य कलीसिया के सुसमाचार कार्य का प्रभार सौंपने के बारे में बात की तो मैं इससे कुछ हद तक नाखुश थी। मुझे लगा कि अपना स्वास्थ्य अच्छा रखना अधिक महत्वपूर्ण है। अगर मुझे बहुत सी चीजों के बारे में चिंता करनी पड़ी तो मेरा शरीर साथ नहीं दे पाएगा। साथ ही, मैं अभी तक कोविड के पिछले झटके से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी। अगर मैं फिर से संक्रमित हो गई तो शायद मैं बच न पाऊँ। उसके बाद अपना काम करते हुए जब भी मुझे ठंड लगती और खांसी आती, मुझे डर लगता कि हालत और बिगड़ जाएगी और मैं अक्सर चिंतित और भयभीत रहती थी। मुझे अपनी गलत दशा का एहसास हुआ तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! तुमने मुझे यह बीमारी होने दी है, लेकिन मैं तुमसे माँगें कर रही हूँ और समर्पण नहीं कर पा रही हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँ, सत्य खोजूँ और इससे सबक सीखूँ!”

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “जब लोग परमेश्वर द्वारा आयोजित माहौल और उसकी संप्रभुता को स्पष्ट रूप से देख, समझ और स्वीकार कर उसके आगे समर्पण नहीं कर पाते, और जब लोग अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करते हैं, या जब ये मुश्किलें सामान्य लोगों के बरदाश्त के बाहर हो जाती हैं, तो अवचेतन रूप में उन्हें हर तरह की चिंता और व्याकुलता होती है, और यहाँ तक कि संताप भी हो जाता है। वे नहीं जानते कि कल या परसों कैसा होगा, या कुछ साल बाद चीजें कैसी होंगी, या उनका भविष्य कैसा होगा, और इसलिए वे हर चीज के बारे में संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा कौन-सा संदर्भ होता है जिसमें लोग हर चीज को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं? होता यह है कि वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं रखते—यानी वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर उसे समझ नहीं पाते। अपनी आँखों से देखने पर भी वे उसे नहीं समझ सकते, या उस पर यकीन नहीं कर सकते। वे नहीं मानते कि उनके भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वे नहीं मानते कि उनके जीवन परमेश्वर के हाथों में हैं, और इसलिए उनके दिलों में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है, और फिर दोषारोपण होता है, और वे समर्पण नहीं कर पाते(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, ‘ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने नेक कार्य किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?’ ... जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने उजागर किया कि लोग वास्तव में परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता को नहीं समझते हैं और हमेशा मौत से डरते रहते हैं। इसी वजह से वे परेशानी और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जीते हैं। मेरी अवस्था बिल्कुल वैसी ही थी जैसी परमेश्वर ने उजागर की थी। कोविड होने के बाद मैं पहले तो जल्दी ठीक हो गई, इसलिए मैं खुश थी और परमेश्वर को देखभाल और सुरक्षा के लिए धन्यवाद दिया। बाद में जब मेरी हालत गंभीर हो गई और मुझे तेज बुखार हुआ तो मैं डर गई, मुझे चिंता होने लगी कि चूंकि मैं बूढ़ी हूँ, इसलिए अगर मेरी बीमारी गंभीर हो गई तो मैं इस वायरस से मर सकती हूँ। मैं हताशा में जी रही थी और अपना काम करते समय मुझमें जरा भी ऊर्जा नहीं होती थी। खासकर जब अगुआ मुझे कई अन्य कलीसिया के सुसमाचार कार्य का प्रभारी बनाना चाहता था तो मुझे डर लगा कि अगर मेरा काम मुश्किल हुआ तो मेरी हालत बिगड़ जाएगी और मैं कोविड से मर जाऊँगी और इसलिए मैंने इसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं की। इस बीमारी के कारण मैं अक्सर चिंतित और भयभीत रहती थी, यहाँ तक कि मैं अपना काम करने के लिए भी सही मानसिक स्थिति में नहीं रहती थी। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है जो सब पर प्रभुता रखता है और सब कुछ नियंत्रित करता है। मैं कब बीमार पड़ूँगी, कब ठीक होऊँगी, मेरा जीवन कब खत्म होगा—ये सारी चीजें परमेश्वर के हाथ में हैं और मुझे उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। लेकिन मुझे परमेश्वर की संप्रभुता पर आस्था नहीं थी या यह विश्वास नहीं था कि सब कुछ वही नियंत्रित करता है, मैं हमेशा चिंतित और भयभीत रहती थी। मैं कितनी मूर्ख थी! परमेश्वर ने मुझे यह बीमारी झेलने की अनुमति दी थी और मुझे सत्य की खोज कर इससे सबक सीखना चाहिए था। अगर मैं हमेशा नकारात्मकता की इसी भावना में रहती तो जब एक दिन सचमुच मृत्यु मेरे सामने आ जाती, तब भी मैं शिकायत करती और परमेश्वर को गलत समझकर दोष देती, यहाँ तक कि मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली बातें भी करतीं, जिनसे वह घृणा करता और जिनकी निंदा करता। यह सोचकर मैं डर गई और मुझे सत्य खोजने और इस दशा का समाधान करने की तुरंत जरूरत महसूस हुई।

खोज करते समय, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम—सृजित प्राणी—किस आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो? लोग परमेश्वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्‍म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्‍ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्‍हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्‍ट कर दिया होता, तब भी क्‍या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। ... वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि पहले मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को सही मायने में नहीं समझा था। मैं हमेशा सोचती थी कि चूँकि मैंने अपना कर्तव्य निभाते हुए खुद को परमेश्वर के लिए खपाया है, इसलिए मुझे उसकी देखभाल और सुरक्षा मिलनी चाहिए और मुझे बीमारी या यहाँ तक कि मृत्यु का सामना नहीं करना चाहिए। मैंने सोचा कि यही परमेश्वर की धार्मिकता है। इस गलत दृष्टिकोण के प्रभाव में मैं हमेशा यही सोचती थी कि चूँकि मुझे परमेश्वर में विश्वास करते हुए कई वर्ष हो गए, मैंने बहुत कष्ट सहे हैं और काफी कीमत चुकाई है और कोविड होने के बावजूद अपने कर्तव्य में डटी रही हूँ, इसलिए परमेश्वर को मुझे सुरक्षित रखना चाहिए या जितनी जल्दी हो सके बीमारी से उबरने में मेरी मदद करनी चाहिए। लेकिन जब चीजें मेरी उम्मीद के अनुसार नहीं हुईं तो मैंने परमेश्वर को लेकर अपने मन में गलतफहमी और शिकायत पाल ली और अपना कर्तव्य निभाते हुए मुझमें कोई उत्साह नहीं रहा। खासकर जब मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन जो कोई कार्य नहीं करते थे, उन्हें कोविड नहीं हुआ था जबकि मैंने खुद को हमेशा उत्साह के साथ खपाकर अपना कर्तव्य निभाया, फिर भी मैं संक्रमित हो गई तो मुझे लगा कि यह अनुचित है और परमेश्वर अधार्मिक है, अब मैं अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं रही और यहाँ तक कि कुछ और कलीसियाओं के कार्यों की देखरेख के लिए भी तैयार नहीं थी। शुरू में, मैंने सोचा था कि वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने और हमेशा अपने कर्तव्य में दृढ़ रहने के बाद मैंने परमेश्वर के प्रति थोड़ा समर्पण पा लिया है, लेकिन जब मैंने मौत को सामने देखा तो मेरा विद्रोहीपन और प्रतिरोध बेनकाब हो गया और मेरे पास जरा भी समर्पण नहीं रहा। मैंने परमेश्वर के वचनों से इतना सारा सिंचन और पोषण पाया था; अपना कर्तव्य निभाना और खुद को थोड़ा खपाना ऐसी चीजें थीं जो मुझे करनी चाहिए थीं। लेकिन मैंने तो इनका इस्तेमाल परमेश्वर के साथ सौदेबाजी और लेन-देन करने के लिए पूँजी के रूप में किया, जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं तो मैंने उसके बारे में शिकायत की। मैं वास्तव में बहुत नासमझ थी! परमेश्वर सृष्टिकर्ता है; परमेश्वर जो कुछ भी करता है और लोगों के साथ जैसा भी व्यवहार करता है, वह सब धार्मिक है और इस सब में उसका इरादा छिपा है। मुझे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर के कार्यों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “क्या जिन चीजों के बारे में तुम फैसला नहीं ले सकते, उनको लेकर तुम्हारा संतप्त, व्याकुल और चिंतित होना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) लोगों को उन चीजों को सुलझाने में लगना चाहिए जिन्हें वे खुद सुलझा सकें, और जो चीजें वे नहीं सुलझा सकते, उनके लिए उन्हें परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए; लोगों को चुपचाप समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर से उनकी रक्षा करने की विनती करनी चाहिए—लोगों की मनःस्थिति ऐसी ही होनी चाहिए। जब रोग सचमुच जकड़ ले और मृत्यु सचमुच करीब हो, तो लोगों को समर्पण कर देना चाहिए, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत या विद्रोह नहीं करना चाहिए, परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करनी चाहिए या उस पर हमला करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। इसके बजाय, लोगों को सृजित प्राणियों की तरह परमेश्वर से आने वाली हर चीज का अनुभव कर उसकी सराहना करनी चाहिए—उन्हें अपने लिए चीजों को खुद चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे और भी अधिक आत्मग्लानि और अपमान महसूस हुआ। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने से बहुत दूर थी। मेरा स्वास्थ्य, मेरी मृत्यु और मेरी बाकी सभी चीजें परमेश्वर द्वारा आयोजित थीं। अगर कोविड ने मेरी जान ले ली तो यह कुछ ऐसा होगा जिसकी अनुमति परमेश्वर ने दी है और चाहे मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ, मुझे उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन रहना चाहिए। कम-से-कम इतनी सूझ-बूझ एक सृजित प्राणी में होनी चाहिए। इसलिए मैंने घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बहुत विद्रोही हूँ! चाहे मेरी बीमारी ठीक हो या न हो, मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए तैयार हूँ। मैं अब तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करूँगी और मैं तुमसे अनुचित माँग नहीं करूँगी।”

बाद में, मैंने आत्म-चिंतन किया और सोचा “जब मैं बीमारी या आपदा का सामना कर रही होती हूँ तो मैं अपने कार्य में सक्रिय हो सकती हूँ और अक्सर भाई-बहनों के साथ संगति कर सकती हूँ चाहे हमारे साथ कुछ भी हो, हमें हमेशा परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहना चाहिए। जब मेरी बीमारी गंभीर हो गई तो मैंने परमेश्वर को गलत क्यों समझा और शिकायत क्यों की, यहाँ तक कि अपना कार्य करने की ऊर्जा भी खो दी? मैंने यह विद्रोहीपन और प्रतिरोध क्यों बेनकाब किया है?” खोज करते समय मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं, और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा भरोसा होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता, तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है, और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है, और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने और कीमत चुकाने की उनकी इच्छा के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे, और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है। जब लोग दूसरों का मूल्यांकन करते हैं और उनके साथ पेश आते हैं, तो वे कौन हैं इसका निर्धारण केवल उनके बाहरी व्यवहार के आधार पर, वे कितना कष्ट सहते हैं और वे क्या कीमत चुकाते हैं, इन बातों के आधार पर ही करते हैं, और यह बहुत बड़ी गलती है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर ने जो उजागर किया, उसके माध्यम से आखिरकार मैं समझ गई कि जब मैं इन वर्षों के दौरान अपना कार्य कर रही थी और उत्साह से खुद को खपा रही थी तो मैं दरअसल परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं थी और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी, न ही परमेश्वर के प्रति ईमानदार या वफादार थी। बल्कि मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन को एक ऐसा औजार और सौदेबाजी का साधन बना दिया था, जिसका इस्तेमाल मैं आशीष पाने की अपनी इच्छा संतुष्ट करने के लिए करती थी, ताकि मैं भविष्य में जीवित रह पाऊँ और अनंत आशीष का आनंद ले सकूं। यह देखते हुए कि आपदाएँ लगातार आ रही थीं और परमेश्वर का कार्य लगभग समाप्त हो चुका था, मैंने खुद को बधाई दी और सोचा कि चूँकि मैंने परमेश्वर के लिए खुद को त्याग और खपा कर अपना कर्तव्य निभाया है तो मुझे निश्चित रूप से उसकी सुरक्षा मिलेगी और मैं बच जाऊँगी। लेकिन जब मुझे कोविड हुआ और मेरी हालत बिगड़ गई तो मुझे चिंता हुई कि चूँकि मैं बूढ़ी हो गई हूँ, इसलिए मैं इस वायरस से मर सकती हूँ, इसलिए मैं निराश और हताश हो गई और अपनी आस्था खो बैठी। मैं तो परमेश्वर से बहस करने के लिए अपनी तथाकथित पूँजी का इस्तेमाल भी करने लगी और सोचा कि चूँकि मैंने अपने कर्तव्य में इतना कष्ट सहा है और सुसमाचार प्रसार में नतीजे पैदा किए हैं, इसलिए परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए। जब मेरी असंयत इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं तो मुझे लगा कि परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं कर रहा है और मेरे साथ अन्याय कर रहा है और अपना कर्तव्य निभाते के लिए मुझमें कोई ऊर्जा नहीं बची। असलियत सामने आने पर आखिरकार मैंने देखा कि मैं तो शुरुआत से ही परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने के लिए करती आ रही हूँ। मैंने बार-बार कहती थी कि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, कि मेरा कर्तव्य निर्वहन पूरी तरह सहज और उचित है, लेकिन वास्तव में मैं परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी और उसे धोखा दे रही थी। मैं वास्तव में बहुत स्वार्थी और धोखेबाज थी! मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जो अनुग्रह के युग के दौरान ज्यादातर यूरोप में सुसमाचार फैलाने गया था, उसने बहुत कष्ट सहे और बहुत से लोगों का मतांतरण किया। लेकिन उसके खपने और कष्ट सहने का सारा उद्देश्य यह था कि वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सके और पुरस्कार पा सके। यह लेन-देन और धोखा था और परमेश्वर ने उसके खपने को न सिर्फ अस्वीकार कर दिया, बल्कि इससे अत्यधिक घृणा भी की। अंत में, परमेश्वर से आशीष पाने के बजाय पौलुस को दंड मिला। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है और जब वह हमारे परिणाम और गंतव्य का निर्धारण करता है तो वह इस आधार पर न्याय नहीं करता कि हम सतह पर कितना कष्ट सहते हैं और काम करते हैं, या हम कितना अच्छा व्यवहार दिखाते हैं। बल्कि इसका आधार यह होता है कि हमने सत्य हासिल किया कि नहीं किया और हमारा स्वभाव बदला कि नहीं बदला। अगर मैं अपनी तमाम भागदौड़ करने और खुद को खपाने के बदले हमेशा एक अच्छा परिणाम और गंतव्य पाना चाहती, सत्य का अनुसरण न करती या अपनी भ्रष्टता को शुद्ध न करती, तो मेरा परिणाम बिल्कुल पौलुस जैसा ही होता; परमेश्वर मुझे हटा देता और दंड देता। पौलुस की नाकामी मुझे याद दिलाती और चेतावनी देती है! फिर मैंने सोचा कि परमेश्वर किस प्रकार मानवजाति को बचाने के लिए अपना दिल झोंक देता है, अपनी सारी कोशिश लगा देता है और तमाम कीमत चुकाता है, और कभी हमसे कुछ माँग या अपेक्षा नहीं करता। परमेश्वर कितना निस्वार्थ है! इस बीच, मैंने परमेश्वर द्वारा मुझे दी गई हर चीज का आनन्द लिया, पर कभी उसके इरादों पर विचार नहीं किया था। मैंने अपना कर्तव्य निभाते हुए भी परमेश्वर के साथ लेन-देन किया था ताकि मुझे एक अच्छी मंजिल मिल सके। मैं वास्तव में बहुत स्वार्थी और नीच थी! मैं परमेश्वर को इस्तेमाल करने लायक और ठगने लायक चीज मानती थी। जिस तरह से मैंने खुद को खपाया था, परमेश्वर उससे घृणा और नफरत कैसे न करे? यह बात समझ में आने पर मुझे आत्मग्लानि होने लगी और मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता के भाव से भर गई और मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा कि मैं अब आशीष पाने के लिए उसके साथ लेन-देन नहीं करना चाहती और इसके बजाय मैं सत्य का उचित रूप से अनुसरण करना चाहती हूँ, एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ और उसे संतुष्ट करना चाहती हूँ।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जो मुझे काफी प्रेरणादायी लगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीचइससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं, और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है, और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। ... एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि सृष्टिकर्ता के समक्ष सृजित प्राणियों का अपने कर्तव्य स्वीकार करना सबसे सार्थक और सबसे बढ़िया बात है। यह वैसा ही है जैसे बच्चे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होते हैं; यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे लोगों को बिना किसी लेन-देन या माँग के पूरा करना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर हमारी भ्रष्टता और कमियों को बेनकाब करने वाली विभिन्न परिस्थितियाँ पैदा करता है, जिससे हम सत्य खोज पाते हैं, खुद को समझ पाते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर कर पाते हैं, उसके वचनों के आधार पर लोगों और चीजों का आकलन कर पाते हैं, शैतान की भ्रष्टता और नुकसान को और नहीं झेलते हैं और अंततः उद्धार पाते हैं; यही परमेश्वर का इरादा है। पिछले कुछ वर्षों में मुझे पुलिस ने कई बार गिरफ्तार किया और मेरे दर्द के बीच परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे प्रबुद्ध किया और मेरा मार्गदर्शन किया, मुझे आस्था और ताकत दी और मुझे उन राक्षसों की क्रूरता पर विजय पाने की अनुमति दी। साथ ही, जब मैंने अपने कर्तव्य में अपनी बड़ाई और दिखावा करते हुए अहंकारी स्वभाव प्रकट किया तो परमेश्वर ने मुझे दंडित और अनुशासित करने के लिए परिस्थितियाँ पैदा कीं। उसके वचनों ने जो उजागर किया, उसके माध्यम से मुझे अपने बारे में कुछ समझ मिली और मैं तुरंत उसके सामने पश्चात्ताप कर पाई। यह सब परमेश्वर का उद्धार था! परमेश्वर ने मुझ पर इतना प्रयास किया था और फिर भी मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया या उसके प्रेम का बदला नहीं चुकाया, कर्तव्य निभाते समय केवल आशीष पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया। मेरे पास दरअसल कोई जमीर नहीं था। जब मैं इस बार बीमार पड़ी तो सत्य की खोज और आत्म-चिंतन करने के बाद आखिरकार मुझे अपने घृणित उद्देश्य का स्पष्टता से पता चल गया कि इतने वर्षों तक मैं केवल आशीष पाने के लिए ही अपना कर्तव्य निभा रही थी, साथ ही मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में भी कुछ समझ मिली। ये सारी बातें यही बताती हैं कि परमेश्वर ने मुझे बचाया। अब, परमेश्वर ने मुझे साँस दी थी और मुझे जीवित रहने दिया था और यह उसकी दया और अनुग्रह था। मुझे आशीष पाने का अपना इरादा त्यागकर अच्छी तरह से कर्तव्य निभाना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “क्योंकि कोई भी व्यक्ति जिसने इस संसार में जन्म लिया है, उसका जन्म आवश्यक है और उसकी मृत्यु अनिवार्य है; जो कुछ घटित होता है, उससे परे कोई नहीं जा सकता है। यदि कोई इस संसार से बिना किसी पीड़ा के जाना चाहता है, यदि कोई जीवन के इस अंतिम मोड़ का बिना किसी अनिच्छा या चिंता के सामना करना चाहता है, तो इसका एक ही रास्ता है कि वो कोई पछतावा न रखे। और बिना किसी पछतावे के संसार से जाने का एकमात्र मार्ग है सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानना, उसके अधिकार को जानना, और उनके प्रति समर्पण करना। केवल इसी तरह से कोई व्यक्ति मानवीय लड़ाई-झगड़ों, बुराइयों, और शैतान के बंधन से दूर रह सकता है; और केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान, सृजनकर्ता के द्वारा निर्देशित और आशीष-प्राप्त जीवन जी सकता है, ऐसा जीवन जो स्वतंत्र और मुक्त हो, ऐसा जीवन जिसका मूल्य और अर्थ हो, ऐसा जीवन जो सत्यनिष्ठ और खुले हृदय का हो। केवल इसी तरह कोई अय्यूब के समान, सृजनकर्ता के द्वारा परीक्षा लिए जाने और वंचित किए जाने के प्रति, सृजनकर्ता के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकता है; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति जीवन भर सृजनकर्ता की आराधना कर सकता है और उसकी प्रशंसा अर्जित कर सकता है, जैसा कि अय्यूब ने किया था, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और उसे अपने समक्ष प्रकट होते हुए देख सकता है। केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति, अय्यूब के समान, बिना किसी पीड़ा, चिंता और पछतावे के प्रसन्नता के साथ जी और मर सकता है। केवल इसी तरह से कोई व्यक्ति, अय्यूब के समान प्रकाश में जीवन बिता सकता है और अपने जीवन के हर मोड़ में प्रकाश से होकर गुज़र सकता है, अपनी यात्रा को प्रकाश में बिना किसी व्यवधान के पूरा कर सकता है, और अनुभव करने, सीखने, और एक सृजित प्राणी के रूप में सृजनकर्ता की संप्रभुता के बारे में जानने के अपने ध्येय को सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है—और प्रकाश में मृत्यु को प्राप्त कर सकता है, और उसके पश्चात् एक सृजित किए गए प्राणी के रूप में हमेशा सृजनकर्ता की तरफ़ खड़ा हो सकता है, और उसकी सराहना पा सकता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा हृदय काफी उज्ज्वल हो गया। पहले, मैं हमेशा सोचती थी कि चूँकि मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मेरी बीमारी और भी गंभीर होती जा रही है, किसी भी समय मेरे मरने का खतरा है और अगर मैं कोविड से मर गई तो मुझे कोई अच्छा परिणाम या मंजिल नहीं मिलेगी। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि दरअसल हर व्यक्ति की मौत होगी, लेकिन लोगों की मौत की प्रकृति अलग-अलग होती है। कुछ लोगों की मृत्यु दर्शाती है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर निकाल दिया गया है, जबकि अन्य लोगों की देह बाहरी तौर पर मर सकती है, लेकिन उनकी आत्माएँ बचा ली गई हैं। उदाहरण के लिए अय्यूब को ही ले लो जिसे परमेश्वर में सच्ची आस्था थी और वह परीक्षणों के बीच भी परमेश्वर के नाम की स्तुति करने और उसके सामने सच्ची गवाही देने में सक्षम था, उसने एक सृजित प्राणी के रूप में अपना मिशन पूरा किया। जब अय्यूब की मृत्यु हुई तो वह चिंतित या भयभीत नहीं था, बल्कि दुनिया छोड़ते समय वह संतुष्ट और आभारी था। उसकी देह मर गई लेकिन उसकी आत्मा बच गई। एक पतरस भी था, जिसने सारा जीवन परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने में लगा दिया और वह परीक्षणों और क्लेशों का सामना करते हुए मृत्यु तक समर्पण कर पाया। अंत में उसे परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटका दिया गया, जिसने एक अच्छी गवाही दी और परमेश्वर की स्वीकृति पाई। अब मैं समझ गई हूँ कि किसी की देह के मरने का मतलब यह नहीं है कि उसका परिणाम और मंजिल बुरी होगी। महत्वपूर्ण यह है कि क्या वह अपने जीवनकाल में सत्य का अनुसरण करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम है। यही वह असली पैमाना है जिससे यह तय होगा कि किसी व्यक्ति को अंत में अच्छा परिणाम और गंतव्य मिलेगा या नहीं। मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति पर दृढ़ रहना था और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। जब तक मैं जीवित रहूँ, मुझे परमेश्वर पर भरोसा करना था और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना था, सत्य का अनुसरण करना था और अपने कर्तव्य पथ पर सिद्धांतों के अनुसार काम करना था, ताकि मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकूँ और परमेश्वर के हृदय को सुख पहुँचा सकूँ। यह समझकर मैं बहुत शांत महसूस कर रही थी और मैं अब अपनी बीमारी से बेबस नहीं थी। मेरी उम्मीद के उलट कुछ ही दिनों बाद मेरी हालत सुधर गई।

कोविड की चपेट में आने के इस अनुभव ने मुझे यह समझने में मदद की कि मेरे विश्वास में गलत दृष्टिकोण था कि मैं आशीष पाने और परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के लिए सब कुछ कर रही थी। मैं आशीष पाने की अपनी इच्छा कुछ-कुछ छोड़ पाई हूँ और अपना कर्तव्य निभाने के पीछे के मंसूबे सुधार पाई हूँ, यह सब परमेश्वर का मुझे बचाने का तरीका है।

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