बर्खास्त करने के बादसीखा एक सबक
पिछले साल मैं उपदेशक थी, मेरे पास कई कलीसियाओं के लेखन कार्य का जिम्मा था। मैंने देखा कि चेंगनान कलीसिया का लेखन कार्य अच्छा नहीं चल रहा है। कार्यकर्ता अपने काम में बड़े ढीले और नाकाबिल थे और उन्होंने काम का ढेर लगने दिया। सुपरवाइजर ने बताया कि समूह की अगुआ झांग शाओ लापरवाह है, वह काम में चूक की जिम्मेदारी नहीं लेती और संगति के बाद भी नहीं बदली, इसलिए उस पर नजर रखने की जरूरत है। मैंने सोचा : “झांग शाओ मेरी सहयोगी हुआ करती थी। जैसा कि मैं उसे जानती हूँ, उसके जीवन प्रवेश में कमी थी मगर उसमें अच्छी मानवता थी। अगर मैं उसके साथ स्पष्ट संगति करूँ तो वह इसे स्वीकार लेगी। हो सकता है कि सुपरवाइजर उसके साथ ठीक से पेश न आ रही हो?” सुपरवाइजर अभी-अभी चुनी गई थी और वह मेरी तरह हालात से परिचित नहीं थी, इसलिए मैं जायजा लेने सीधे कलीसिया चली गई। मैंने झांग शाओ से कार्यों का ब्योरा माँगा, लेकिन उसे उनकी कोई समझ नहीं थी, वह जिम्मेदारी से बचने के लिए बहाने बनाने लगी, और उसने बिल्कुल भी आत्म-चिंतन नहीं किया। तभी मैंने झांग शाओ की समस्याएँ उजागर कर उसके साथ संगति की। उसने हाल-फिलहाल कोई वास्तविक काम न करने की बात मानी और कहा कि वह पश्चात्ताप करना चाहती है। यह सुनकर मैंने सोचा : “पश्चात्ताप की इच्छा दिखाती है कि वह अब भी सत्य स्वीकारने में सक्षम है।” मैंने उसे याद दिलाया कि वह पहले भी कैसे सुपरवाइजर के पद से बर्खास्त की जा चुकी है, इसलिए यह कर्तव्य ठीक से निभाना उसके लिए पश्चात्ताप का मौका है और अगर आधे-अधूरे मन से ही काम करती रही तो वह फिर बर्खास्त कर दी जाएगी। पछतावे से भरकर झांग शाओ ने कहा : “यह काम मैंने वाकई मन लगाकर शुरू किया था लेकिन कुछ नतीजे मिलते ही मैंने संतुष्ट होकर वास्तविक कार्य करना बंद कर दिया। सुपरवाइजर ने कहा कि मैं लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हो रही हूँ, लेकिन मैंने इसे स्वीकारा नहीं। मुझमें वाकई आत्म-जागरूकता की कमी है।” यह कहते-कहते वह रो पड़ी और आँसुओं से भरकर बोली : “मैंने बड़ी लापरवाही की है, मैं इस काम के लायक नहीं हूँ। फिर भी कलीसिया मुझे मौका दे रही है, तो मैं अपने अपराधों की भरपाई कर पश्चात्ताप करूँगी।” उसके मुँह से यह सुनकर मैंने सोचा : “वह पश्चात्ताप करने को तैयार है, इसलिए उसे ज्यादा कुरेदने की जरूरत नहीं है। वैसे भी उसे रातोरात गहरा आत्म-ज्ञान हासिल होने से तो रहा।” काम में आ रही दिक्कतों के बारे में मैंने उसके साथ संगति की और उसे अभ्यास का रास्ता दिया, फिर उसकी और उसके समूह की मदद और मार्गदर्शन का काम बहन लिन फान को सौंप दिया। सारी व्यवस्थाएँ करने के बाद मैं सहज होकर चली आई।
कुछ समय बाद, सुपरवाइजर ने बताया कि उसने झांग शाओ को काम में भटकावों की जाँच करने को कहा था, लेकिन कई दिन तक टालने के बावजूद उसने कुछ नहीं लिखा। सुपरवाइजर ने उससे गुजारिश की तो वह उलटे उसी में कमियाँ निकालती रही, कहा कि वह सिर्फ नाम और ओहदे के लिए काम करती है। लेकिन झांग शाओ ने तो कहा था कि वह पश्चात्ताप करना चाहती है? फिर वह ऐसा क्यों कर रही थी? वह अब भी नहीं बदली थी? बाद में मैंने लिन फान से सुना कि झांग शाओ ने कुछ आत्म-चिंतन किया था। उसने एक और महीने का समय माँगते हुए कहा कि अगर तब तक पश्चात्ताप न कर सकी तो निष्कासन के लिए तैयार रहेगी। मैंने सोचा, “उसने इस बार वाकई पश्चात्ताप का फैसला कर लिया है। यही उसने कहा था। वह अपने तौर-तरीके सुधार कर रहेगी। उसके जीवन प्रवेश की शुरुआत ठीक नहीं थी, इसलिए वह एक-दो बार संगति करने भर से नहीं बदलेगी। उसे एक और मौका देना अच्छा रहेगा।” अगले कुछ दिन उसने महामारी के दौरान ठीक से काम करने के बारे में कुछ पत्र लिखे और इससे समूह का काम थोड़ा-सा आगे बढ़ा। मुझे लगा कि उसने सचमुच पश्चात्ताप कर लिया है, इसलिए मैंने उसके काम की उतनी गहरी निगरानी नहीं की।
कुछ दिन बाद लिन फान ने लिखा कि झांग शाओ और उसके समूह ने काम का ढेर लगा दिया है, वे लगते तो व्यस्त हैं मगर उनका काम बहुत असरदार नहीं है। झांग शाओ के लिखे पत्रों में दोहराव होता है या वे बेतुकी बातों से भरे होते हैं और वह पहले जैसी ही ढीली-ढाली है। लिन फान ने संगति करके समूह की मदद की लेकिन उन्होंने वक्त की नजाकत बिल्कुल नहीं समझी। समूह अगुआ के रूप में झांग शाओ ने काम लटकाने के लिए बिल्कुल भी पछतावा नहीं जताया। यह संदेश पढ़कर मैं अवाक रह गई। मैं नहीं जानती थी कि उनकी कार्य दक्षता इतनी घट चुकी है। मैंने गलत सोचा कि मेरी संगति के बाद वे पश्चात्ताप कर लेंगे। काम की इस दुर्गति के लिए मैं ही जिम्मेदार थी। मुझे खुद से नफरत होने लगी, इतनी अंधी और अज्ञानी होकर झांग शाओ पर भरोसा करने के लिए मैंने खुद को चपत मारनी चाही। मैंने काम को नुकसान पहुँचाया था और इस बारे में सोचकर मुझे और भी बुरा लगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी समस्या समझने के लिए उससे मार्गदर्शन माँगा।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। “किसी व्यक्ति में जो कुछ अभिव्यक्त होता है, उसके जरिये उसकी प्रकृति और सार को देखना, उसकी प्रकृति और सार के आधार पर यह आँकना कि वह व्यक्ति किस मार्ग पर चल रहा है, और उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग के आधार पर यह समझना कि वह पर्यवेक्षक बनने या अगुआ का कार्य करने लायक है या नहीं, नकली अगुआ के लिए संभव नहीं होता। वह इसे इस तरह नहीं देख पाता। नकली अगुआ अपने काम में केवल दो ही चीजें करने में सक्षम होते हैं : एक, बातचीत करने के लिए लोगों को खींचना और बेमन से काम करना; दो, लोगों को मौके देना, दूसरों को खुश करना और किसी को नाराज न करना। क्या वे व्यावहारिक कार्य कर रहे हैं? स्पष्ट रूप से नहीं। लेकिन नकली अगुआ मानते हैं कि बातचीत के लिए किसी को खींचना व्यावहारिक काम है। वे इन वार्तालापों को बहुत मूल्यवान और महत्वपूर्ण मानते हैं, और जो खोखले शब्द और सिद्धांत वे झाड़ते हैं, उन्हें अत्यंत सार्थक समझते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने इन वार्तालापों के माध्यम से बड़ी समस्याएँ सुलझाई हैं और व्यावहारिक कार्य किया है। वे नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों का न्याय और ताड़ना, उनकी काट-छाँट और निपटारा या उनका परीक्षण और शोधन क्यों करता है। वे नहीं जानते कि केवल परमेश्वर के वचन और सत्य ही मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव सुलझा सकते हैं, और वे परमेश्वर के कार्य और उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार का अति सरलीकरण कर देते हैं। वे मानते हैं कि सिद्धांत के कुछ शब्द और वाक्यांश बोलना परमेश्वर के कार्य की जगह ले सकते हैं, कि यह मनुष्य की भ्रष्टता की समस्या हल कर सकते हैं। क्या यह नकली अगुआओं की मूर्खता और अज्ञानता नहीं है? नकली अगुआओं में सत्य की रत्ती भर भी वास्तविकता नहीं होती, फिर वे इतने आश्वस्त क्यों रहते हैं? क्या कुछ सिद्धांत झाड़ना लोगों को स्वयं को जानने हेतु प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव दूर करने में उनकी मदद करने के लिए काफी है? ये नकली अगुआ इतने अज्ञानी और बचकाने कैसे हो सकते हैं? क्या व्यक्ति के गलत अभ्यास और भ्रष्ट व्यवहार सुलझाना वास्तव में इतना आसान है? क्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का मुद्दा हल करना इतना आसान है? नकली अगुआ कितने मूर्ख और ओछे दिमाग के होते हैं! परमेश्वर मनुष्य की भ्रष्टता का मुद्दा हल करने के लिए केवल एक तरीके का उपयोग नहीं करता। वह लोगों को उजागर, शुद्ध और पूर्ण करने के लिए कई तरीकों का उपयोग करता है और विभिन्न परिवेशों का आयोजन करता है। नकली अगुआओं के काम करने का तरीका बहुत सरल और सतही होता है : वे लोगों को बातचीत के लिए खींचते हैं, थोड़ा वैचारिक काम करते हैं, लोगों को थोड़ी सलाह देते हैं, और सोचते हैं कि यही असली काम करना है। यह सतही तरीका है, है न? और इस सतहीपन के पीछे कौन-सा मुद्दा छिपा होता है? क्या वह भोलापन है? नकली अगुआ बेहद भोले होते हैं, लोगों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण में बहुत ही भोले। लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से मुश्किल काम और कोई नहीं है। कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती। नकली अगुआओं को इस समस्या का कोई बोध नहीं होता। इसलिए, जब कलीसिया में उस तरह के निरीक्षकों की बात आती है, जो निरंतर बाधा खड़ी करते हैं, जो लोगों की प्रगति रोकते हैं, जो संभवतः लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं, तो नकली अगुआ बातें बनाने के अलावा कुछ नहीं करते; निपटारे और काट-छाँट के कुछ शब्द कहे और बस। वे न तो तुरंत काम किसी और को सौंपते हैं और न ही लोगों को बदलते हैं। नकली अगुआओं के काम करने का तरीका कलीसिया के काम को भारी नुकसान पहुँचाता है, और अकसर कलीसिया के काम को सामान्य रूप से, सहजता और कुशलता से से आगे बढ़ने से रोकता है, क्योंकि कुछ दुष्ट लोगों के हस्तक्षेप के कारण वह अटक जाता है, उसमें विलंब हो जाता है और उसे नुकसान होता है—यह सब नकली अगुआओं के भावुकता से पेश आने, सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन करने और गलत लोगों की नियुक्ति के गंभीर परिणाम होते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से पता चला कि मेरी सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मैं अहंकारी थी और दूसरों को ठीक से नहीं परख पाती थी। परमेश्वर कहता है कि कोई व्यक्ति काम में बनाए रखने या विकसित किये जाने लायक है या नहीं, यह परखने के लिए हमें उसकी प्रकृति, उसका सार और उसका चुना हुआ रास्ता देखना चाहिए। लेकिन मैं तो बस दिखावों के आधार पर परखती थी। अगर वे संगति के बाद कहते कि वे पश्चात्ताप करना चाहते हैं, मैं यह सोचकर उन्हें नहीं हटाती थी कि कि वे बदल जाएँगे, फिर चाहे उनकी समस्याएँ जो भी हों। ठीक वैसे ही, जैसे मैं झांग शाओ से निपटी : उसके बारे में अपनी पुरानी समझ पर भरोसा कर मैंने मान लिया कि वह सत्य स्वीकार सकती है। मुझे अपने बारे में इतनी गलतफहमी थी। कलीसिया के उस दौरे के दौरान मुझे बखूबी पता था कि वह ढीली है, वास्तविक कार्य नहीं कर रही है, और अब सुपरवाइजर की संगति और मदद के बावजूद बिल्कुल भी न बदलने के कारण, उसे कड़ाई से निपटकर उजागर करना चाहिए था, और तब भी पश्चात्ताप न करने पर बर्खास्त कर देना चाहिए था। लेकिन अपनी संगति के बाद उसे रोते देख मैं उसकी इन बातों में आ गई कि वह पश्चात्ताप करना चाहती है। उसके बाद मैंने उसकी निगरानी बंद कर दी और यह भी नहीं देखा कि क्या वह वाकई पश्चात्ताप कर चुकी है। मुझे खुद पर इतना भरोसा था कि सुपरवाइजर के बताने पर भी मैंने उसकी स्थिति को गंभीरता से नहीं लिया। मुझे लगा कि मैं उसके साथ संगति कर चुकी हूँ और वह बदलने के लिए तैयार है, इसलिए उसे समय देना ही होगा। लेकिन हकीकत में, झांग शाओ बदली नहीं, न ही उसे अपने वास्तविक कार्यों की कमी या कार्य को पहुँचे नुकसान का जरा भी एहसास था। वह पहले जैसी ही ढीली थी जिससे कार्य कुशलता बहुत घट गई थी। मैंने देखा कि मैं झूठी अगुआ हूँ, ठीक वैसी ही जैसा परमेश्वर ने उजागर किया है। मैं अहंकारी, अज्ञानी और अंधी थी। मुझमें सत्य की वास्तविकता या लोगों का सार समझने की योग्यता नहीं थी, फिर भी मुझे लगता था कि मुझमें गहरी समझ है और संगति में कहे गए मेरे शब्द सोने से भी ज्यादा कीमती हैं। झांग शाओ को बातें बनाते और आँसू बहाते देखकर मैंने उस पर पूरा भरोसा कर लिया और फिर चीजों की सचमुच जाँच-पड़ताल नहीं की जिससे काम का नुकसान हुआ। मैं बुरा काम कर रही थी। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद किया। “हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। लोग अपने कर्तव्य-पालन के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कम ही करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करते; केवल जबान से कहते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर लापरवाह और अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट और निपटारा स्वीकार नहीं पर पाते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे नकारात्मक और कमजोर होते ही हार मान लेते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला, उसकी आज्ञा का पालन करने वाला हृदय होता है, एक ऐसा हृदय जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनसे कैसे संपर्क किया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य निभा रहे हों, तो उनकी अधिक निगरानी करनी चाहिए, अधिक से अधिक मदद कर उनका मार्गदर्शन करना चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, उनसे निपटना और उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों की निगरानी करना, उन पर नजर रखना, उन्हें जानना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर की अपेक्षा और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकें, ताकि वे किसी प्रकार की गड़बड़ी या व्यवधान उत्पन्न न करें, ताकि वे समय बर्बाद न करें। ऐसा करना पूरी तरह से उनके और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना की उपज है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे स्पष्ट याद दिलाया कि लोग सत्य हासिल करने या पूर्ण बनाए जाने से पहले भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं और भरोसेमंद नहीं होते हैं। कोई व्यक्ति चाहे जितना भी सत्य का अनुसरण करते या अपने काम का बोझ उठाते दिखाई दे, वह अभी भी ठोकर खाकर विफल हो सकता है, या कभी-कभी सिद्धांत विरोधी काम कर सकता है। ऐसे लोगों पर अगुआओं को कड़ी नजर रखनी चाहिए और समय रहते उन्हें उनकी दिक्कतें बतानी चाहिए। अगर ये गंभीर प्रकृति की हों तो उनसे निपटना चाहिए, उजागर करके उनका विश्लेषण करना चाहिए। यही कलीसिया के काम और लोगों के जीवन प्रवेश के लिए जिम्मेदार होना है। मेरे कर्तव्य में इतनी ज्यादा कमियाँ और खामियाँ थीं और मैं अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाती थी। मैं खुद भरोसेमंद इंसान नहीं थी लेकिन दूसरों पर तुरंत भरोसा कर लेती थी। मैंने झांग शाओ की निगरानी या जाँच-पड़ताल नहीं की, जो गंभीर रूप से लापरवाह थी और सत्य स्वीकारने से कतराती थी। उसके बारे में अपनी पुरानी समझ के आधार पर मैंने तय कर लिया कि उसका जीवन प्रवेश उथला था और वह ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा पहुँचे। लिहाजा, मैंने उसकी समस्याएँ समय पर हल नहीं कीं और उसे काम में बनाए रखकर समूह का कार्य बिगड़ने दिया। मैं इतनी गैर-जिम्मेदार और दंभी थी!
मैंने बाद में सुपरवाइजर से समूह की स्थिति के बारे में पूछा और उनकी कम कार्यकुशलता को देखा। सुपरवाइजर ने कहा : “झांग शाओ अहंकारी स्वभाव की है और समूह अगुआ होने के आधार पर अक्सर सुझाव खारिज कर देती है। मैं जब भी उसके काम की जाँच-पड़ताल करती हूँ तो वह प्रतिरोध करती है, मुझमें कमियाँ निकालकर कहती है कि मैं नाम और ओहदे के लिए काम कर रही हूँ। वह अक्षम है और जब हम अभ्यास के मार्ग पर संगति करते हैं, तो वह कह देती है कि इस पर अमल नहीं कर सकती और दूसरों को भी ऐसा करने से रोकती है। जब एक बहन ने उसे सुझाव दिया, तो उसने इसे स्वीकार नहीं किया, उलटे वह उससे निपटी और काम में उसकी लगन को कम करके आँका। उसके कारण कई बहनों ने खुद को अपने काम में बेबस और मायूस महसूस किया। एक बहन ने तो काम ही छोड़ दिया।” यह सुनकर मैं शर्म और ग्लानि से भर उठी। समूह की अक्षमता की साफ वजहें झांग शाओ की दिक्कतें थीं। वह ढीली, लापरवाह और अच्छी मानवता हीन तो थी ही, बतौर अगुआ वह समूह का कार्य भी आगे नहीं बढ़ा रही थी और सुपरवाइजर के साथ सहयोग करने के बजाय काम में खलल डाल रही थी। वह मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रही थी। ऐसी अहंकारी होने के कारण मुझे खुद से घिन आने लगी। अगर मैंने चीजें जल्दी सँभाल ली होती तो काम पर ऐसा बुरा असर न पड़ता। अगले दिन मैंने और सुपरवाइजर ने झांग शाओ के साथ उसकी दिक्कतों पर संगति की। लेकिन वह बहाने बनाती रही, उसमें आत्म-चिंतन के कोई लक्षण नहीं दिखाई दिए, इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया गया।
इसके बाद मैंने सोचा : “जब मैंने झांग शाओ को उजागर करने के बाद उसे रोते और आत्म-ज्ञान की बात करते सुना, तो लगा कि वह वाकई पश्चात्ताप करेगी, इसलिए मैं उसे मौके देती गई। आखिर मुझसे गलती कहाँ हुई?” बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “जिस विशिष्ट तरीके से लोग पश्चात्ताप करते हैं, वह है खुद को जानना और अपनी समस्याएँ सुलझाना। जब कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता या कोई अपराध करता है, और उसे एहसास होता है कि वह परमेश्वर का विरोध कर रहा है और उसकी नफरत को भड़का रहा है, तो उसे आत्मचिंतन करना और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों के भीतर खुद को जानना चाहिए। परिणामस्वरूप, उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव का कुछ ज्ञान प्राप्त होगा और वह यह स्वीकार करेगा कि यह शैतान के विषों और भ्रष्टता से आता है। इसके बाद, जब उसे सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत मिल जाएँगे, और वह सत्य को अमल में ला सकेगा, तब यह सच्चा पश्चात्ताप होगा। चाहे व्यक्ति कोई भी भ्रष्टता प्रकट करे, अगर वह पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने में सक्षम होता है, उसका समाधान करने के लिए सत्य की तलाश कर पाता है, और सत्य का अभ्यास करने लगता है, तो यह सच्चा पश्चात्ताप है। कुछ लोग अपने बारे में थोड़ा-सा जानते हैं लेकिन उनमें न तो पश्चात्ताप के कोई चिह्न दिखते हैं, न ही सत्य का अभ्यास करने के प्रमाण दिखते हैं। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी अगर वे खुद को बदलते नहीं हैं तो यह सच्चे पश्चात्ताप से कोसों दूर है। सच्चा पश्चात्ताप हासिल करने के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने चाहिए। तो अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए व्यक्ति को खास कर कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? ... मान लो, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है, और तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो जाए, तुम बहुत हठीले रहते हो—तुम हमेशा चाहते हो कि फैसले तुम करो, और दूसरे तुम्हारी बात मानें और वही करें जो तुम उनसे करवाना चाहते हो। फिर वह दिन आता है, जब तुम यह महसूस करते हो कि यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण हुआ है। तुम्हारा यह स्वीकार करना कि यह एक अहंकारी स्वभाव है, आत्म-ज्ञान की ओर पहला कदम है। यहाँ से तुम्हें परमेश्वर के वचनों के उन कुछ अंशों की तलाश करनी चाहिए, जो अहंकारी स्वभाव का खुलासा करते हों, जिनसे तुम्हें अपनी तुलना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। अगर तुम पाते हो कि तुलना पूरी तरह से उपयुक्त है, और तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर द्वारा उजागर किया गया अहंकारी स्वभाव तुममें मौजूद है, और फिर यह समझते और प्रकाश में लाते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कहाँ से आता है, और यह क्यों उत्पन्न होता है, और शैतान के कौन-से जहर, विधर्म और भ्रांतियाँ इसे नियंत्रित करती हैं, तो, इन सभी प्रश्नों का मर्म देखने के बाद, तुम अपने अहंकार की जड़ तक पहुँच चुके होगे। यही सच्चा आत्म-ज्ञान है। जब तुम्हारे पास इसकी अधिक सटीक परिभाषा होगी कि कैसे तुम यह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह तुम्हारे लिए अपने बारे में गहन और अधिक व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना सुगम बनाएगा। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए और समझना चाहिए कि किस प्रकार का मानवीय आचरण और बोली सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। अभ्यास का मार्ग पा लेने के बाद तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और जब तुम्हारा हृदय बदल जाएगा, तब तुम सच में पश्चात्ताप कर लोगे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। मैंने समझा कि सच्चा पश्चात्ताप सतही कर्मों या बातों से नहीं हो जाता, बल्कि इसकी बुनियाद खुद को सच्चे ढंग से समझने पर टिकी है। सबसे पहले आपको अपनी बुराइयाँ और अपना भ्रष्ट स्वभाव कबूलना होगा और ऐसा करते हुए खुद से सच्ची नफरत करनी होगी। तभी आप भ्रष्ट स्वभाव छोड़ कर सिद्धांतों का अनुसरण कर पाएँगे। लेकिन जो लोग समझदारी और पश्चात्ताप का ढोंग करते हैं, अपने बुरे कार्यों और अहंकार की लंबी-चौड़ी बातें करके पश्चात्ताप की इच्छा जताते हैं, लेकिन वे अपने व्यवहार, सार या भ्रष्ट स्वभाव के नतीजों पर न तो आत्म-चिंतन करते हैं, न ही इन्हें समझते हैं। उनमें अपने बुरे कर्मों पर कोई घृणा नहीं होती और तथ्य जानने के बाद भी मनमानी हरकतें करते हैं। उनकी बातें या आत्म-ज्ञान कितना ही अच्छा नजर आए, वे कितने ही रोएँ, सब फिजूल है और इससे सिर्फ लोग गुमराह होते हैं। बिल्कुल फरीसियों की तरह : उन्होंने ऐलान किया था कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उसकी सेवा करते हैं, वे यहूदी मंदिरों में और चौक-चौबारों पर लंबी-लंबी प्रार्थनाएँ करते थे, उपवास भी रखते थे। लेकिन जब प्रभु यीशु आया, तो उन्होंने अपने ओहदे और रोजी-रोटी को बचाने के लिए खुलेआम उसकी आलोचना की और बुरा-भला कहा और फिर सूली पर चढ़वा दिया। फरीसियों का ज्ञान और पश्चात्ताप सिर्फ पाखंड था ताकि लोग गुमराह हों। लेकिन उतने ही पापी नीनवे वासियों ने सच्चे मन से पश्चात्ताप किया। उन्होंने उपवास तो किया ही, टाट पहनकर और राख मलकर परमेश्वर से पश्चात्ताप भी किया। सबसे अहम बात यह है कि उन्होंने ईमानदारी से अपने पाप स्वीकारे और अपनी बुराइयाँ त्यागीं। यह सच्चा पश्चात्ताप था। झांग शाओ ने हमेशा अच्छी बातें बनाईं, अपने बारे में कहा कि वह अहंकारी है, बुरे काम कर कलीसिया का कार्य बाधित करती है, और पश्चात्ताप करना चाहती है। लेकिन उसने कभी यह ब्योरा नहीं दिया कि उसने कौन-से बुरे काम किए, कलीसिया का कार्य कैसे बाधित कर रही थी, उसे अपने अहंकारी स्वभाव, मानवता और सार का क्या ज्ञान था और उसने कैसे खुद से नफरत की और फिर पश्चात्ताप किया। उन निरर्थक बातों की घोषणा करने के बाद, उसे जैसा करना चाहिए था वैसा नहीं किया और खुद को बिल्कुल नहीं बदला। मैंने देखा कि उसने जो आँसू बहाए और जिस आत्म-ज्ञान का दावा किया, वह सब छलावा था और वह पाखंडी फरीसियों से कत्तई अलग नहीं थी। लेकिन मैं इतनी अंधी, अज्ञानी और अविवेकी थी। उसकी निरर्थक बातों को सच्चा पश्चात्ताप मानकर मैं उसे मौके देती रही। इसके कारण उसने लेखन कार्य दो माह से ज्यादा लटका किया। इस बारे में आत्म-चिंतन करके मैं पछतावे और ग्लानि से भर उठी। मैंने खुद से प्रण किया कि मैं अपने काम में अपनी इच्छा को दरकिनार कर परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करूँगी। उसके बाद से मैं अक्सर काम समझने और जाँच-पड़ताल करने के लिए पत्र लिखने लगी, अपने विचार और सुझाव भी देती रही। धीरे-धीरे काम के नतीजे सुधरने लगे, भाई-बहन अपने काम में मग्न रहने लगे।
उसके बाद मैंने झांग शाओ के मामले से निपटने में अपनी दिक्कतों पर आत्म-चिंतन किया और परमेश्वर के ये वचन पढ़े। “कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कभी सत्य की तलाश नहीं करते। वे अपनी कल्पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, सिर्फ वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, वे हमेशा स्वेच्छाचारी और उतावले बने रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। ‘स्वेच्छाचारी और उतावला’ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्हारा किसी समस्या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगै़र उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। और अगर तुम ऐसा बिल्कुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, ‘तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे हो!’ तो तुम जवाब देते हो, ‘भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ,’ और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, ‘तुम्हारा इस तरह से काम करना व्यवधान है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,’ तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हो : ‘मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।’ यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें जिद्दी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्वेच्छाचारी और उतावले ढंग से व्यवहार करोगे। ... यदि तुम्हारा रवैया हठपूर्वक आग्रह करना, सत्य को नकारना, औरों के सुझाव न मानना, सत्य न खोजना, केवल अपने आपमें विश्वास रखना और मनमर्जी करना है—यदि यह तुम्हारा रवैया है और तुम्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर क्या करता है या क्या अपेक्षा करता है, तो परमेश्वर की प्रतिक्रिया क्या होगी? वह तुम पर ध्यान नहीं देता। वह तुम्हें दरकिनार कर देता है। क्या तुम मनमाने नहीं हो? क्या तुम अहंकारी नहीं हो? क्या तुम हमेशा खुद को ही सही नहीं मानते हो? यदि तुममें समर्पण नहीं है, यदि तुम कभी खोज नहीं करते, यदि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के लिए पूरी तरह से बंद और उसका विरोधी है, तो परमेश्वर तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं देता। परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देता? क्योंकि जब तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए बंद है, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रबोधन स्वीकार सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की फटकार को महसूस कर सकते हो? लोग जब दुराग्रही होते हैं, जब उनकी शैतानी प्रकृतिऔर बर्बरता सामने आने लगती है, तो वे परमेश्वर के किसी भी कार्य को महसूस नहीं कर पाते, उन सबका कोई फायदा नहीं होता—तो परमेश्वर बेकार का काम नहीं करता। यदि तुम्हारा रवैया ऐसा अड़ियल और विरोधी है, तो परमेश्वर तुमसे छिपा रहता है, परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैंने जाना कि झांग शाओ के बारे में मालूम होने के समय से ही मुझमें थोड़ा अहंकार था। मुझे लगता था कि हम पहले सहयोगी रह चुकी हैं, इसलिए मैं उसे अच्छे से जानती थी और भले ही उसके जीवन प्रवेश में कमी थी, इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारती। इसलिए इस मामले से निपटते हुए मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं थी, मैंने सत्य के सिद्धांतों को नहीं खोजा। अपने नजरिये पर मेरा ऐसा विश्वास था। सुपरवाइजर ने कहा कि झांग शाओ अहंकारी है, उस पर निगाह रखने की जरूरत है, लेकिन मैंने उसकी बात हवा में उड़ा दी, अपने हिसाब से काम किया और यह सोचकर अपना नजरिया नहीं बदला कि मैं झांग शाओ को उससे बेहतर समझती हूँ। मैं झांग शाओ को पश्चात्ताप के मौके देकर उस पर भरोसा करती रही और सत्य खोजने के बारे में सोचा ही नहीं। परमेश्वर ने बार-बार हमारे साथ संगति कर बताया कि हम कैसे अलग-अलग किस्म के लोगों को पहचानें और कैसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाएँ। इन सारी बातों का मकसद यही है कि हम अपने काम में सत्य के सिद्धांतों के अनुसार लोगों को परखें और पहचानें, विघ्न डालने वालों को तुरंत बर्खास्त करें और सत्य का सचमुच अनुसरण करने वालों का पोषण करें। कलीसिया का कार्य इसी तरह सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है। लेकिन मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था और मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। समूह अगुआ के तबादले और बर्खास्तगी जैसे अहम मामले में भी मैं सत्य के सिद्धांत कत्तई नहीं खोज रही थी। मैं चीजों को देखने-परखने में बिल्कुल नाकाम थी, फिर भी जिद्दी और दंभी होकर दूसरों के सुझावों को अनसुना कर रही थी। मैं अपने ही नजरिये और विचारों को सत्य मानकर मनमाने ढंग से चीजें सँभाल रही थी। मैं एक अयोग्य व्यक्ति को पहचान कर तुरंत बर्खास्त तो कर नहीं पाई, उसे मौके पर मौका देकर लेखन कार्य भी बाधित करवा दिया। मैं कर्तव्य कत्तई नहीं निभा रही थी; दुष्टता पर उतर आई थी। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करती तो परमेश्वर मुझे नकार कर अंत में बहिष्कृत कर देता।
मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब कोई कुछ करता है, चाहे वह अपना कर्तव्य निभा रहा हो या व्यक्तिगत मामलों का ध्यान रख रहा हो, तो इस बात पर ध्यान दो कि वह किस दिशा में ध्यान केंद्रित कर रहा है। अगर वह सांसारिक आचरण के फलसफों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, तो यह दर्शाता है कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता या उसका अनुसरण नहीं करता। अगर व्यक्ति के साथ चाहे जो हो जाए, वह सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करता है, अगर वह यह सोचते हुए अपने चिंतन में हमेशा सत्य की ओर बढ़ता है : ‘क्या ऐसा करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगा? परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? क्या ऐसा करना परमेश्वर के प्रति पाप करना है? क्या यह उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाएगा? क्या इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचेगी? क्या परमेश्वर इससे घृणा करेगा? क्या ऐसा करने में समझदारी है? क्या इससे कलीसिया के काम में बाधा या रुकावट आएगी? क्या इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचेगा? क्या यह परमेश्वर के नाम को लज्जित करेगा? क्या यह सत्य का अभ्यास करना है? क्या यह बुराई करना है? परमेश्वर इसके बारे में क्या सोचेगा?’ अगर वह हमेशा इन प्रश्नों पर विचार करता रहता है, तो यह किस बात का संकेत है? (यह इसका संकेत है कि वह सत्य की खोज और उसका अनुसरण कर रहा है।) यह सही है। यह इस बात का संकेत है कि वह सत्य की खोज कर रहा है और उसके हृदय में परमेश्वर है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि परमेश्वर पर श्रद्धा रखने वाले लोग चाहे जो भी काम करते हों, वे उसकी इच्छा का ख्याल रखते हैं और सत्य के सिद्धांत खोजते हैं। वे परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं के अनुरूप काम करने में सक्षम होते हैं। केवल इसी तरह कार्य करना मानक के अनुरूप है। पहले मेरे काम में इतनी गलतियाँ होने का मुख्य कारण यही था कि मैं अति-आत्मविश्वासी थी, मुझमें परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं थी, मैंने शायद ही कभी परमेश्वर की इच्छा या अपेक्षाओं का ख्याल रखा और अहंकार में आकर काम किया। उसके बाद मैं परमेश्वर के वचनों के अनुरूप अभ्यास करने को राजी हो गई। बाद में कलीसिया को कुछ लेखन कर्मियों का तबादला करने की जरूरत पड़ी। मैं इन लोगों के बारे में ज्यादा नहीं जानती थी और उनके थोड़े समय के व्यवहार के आधार पर फैसला नहीं कर सकती थी, इसलिए मैंने उनके कार्य के दौरान के निरंतर व्यवहार के बारे में सुपरवाइजर और कलीसिया अगुआओं से ब्योरा माँगा और सिद्धांतों के आधार पर उन्हें रहने देने या दूसरी जगह भेजने का फैसला किया। कुछ चीजों को लेकर अनिश्चितता होने पर, मैं दूसरों के साथ चर्चा कर लेती। अगर किसी मामले की मुझे गहरी समझ नहीं होती तो मैं बड़े अगुआओं के पास जाकर पूछ लेती। इस तरह अभ्यास करके मैंने कुछ अयोग्य लोगों का तबादला किया और योग्य लोगों को अभ्यास के लिए चुन लिया। इससे काम के नतीजों में खासा सुधार भी हुआ। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।
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