दूसरों के भरोसे काम करने के नतीजे

03 दिसम्बर, 2024

नवंबर 2021 में, अगुआ ने मुझे बहन सैंड्रा का सहयोगी बनाकर वीडियो के लिए चित्र बनाने का काम सौंपा। शुरुआत में मैंने इससे जुड़े सिद्धांत और सामग्री पढ़ने में काफी समय लगाया ताकि अपना तकनीकी हुनर निखार सकूँ। लेकिन मैंने देखा कि ये चित्र बनाने मुश्किल हैं और मैंने पहले कभी ये बनाए भी नहीं थे। मुझे लगा कि यह काम बहुत कठिन है, और मुझे अभ्यास करते हुए धीरे-धीरे सीखने की जरूरत है। इसलिए मैं सिद्धांतों पर सोच-विचार किए बिना डिजाइन बनाने लगी और सैंड्रा मेरे चित्रों में समस्याएँ बताती रही। इस स्थिति में, मैं न तो अपनी गलतियाँ जाँच पाती, न अपनी कमियाँ ही देख पाती थी। मैंने यह सोचकर खुद को सीमित कर लिया, “मैं इतनी काबिल नहीं हूँ कि ऐसे चित्र अच्छे से बना सकूँ। काफी समय से अभ्यास कर रही हूँ, फिर भी इनमें कमियाँ हैं। लगता है मैं इस स्तर पर आकर अटक गई हूँ।” मुझे सैंड्रा से जलन होती थी और मैं उसे सराहती भी थी। मुझे लगता था कि बरसों से चित्र बनाने के कारण वह हर तरह से मुझसे बेहतर है, साफ तौर पर मुझसे आगे है, इसलिए मुझे उस पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए। उसके बाद से अपने डिजाइनों के मामले में मैं वाकई उसके भरोसे रहने लगी और जो हिस्से मुझसे ठीक से नहीं बनते थे, उसे पूरा करने के लिए दे देती। कभी-कभी कोई खाका पूरा करने पर भी मैं यह ज्यादा नहीं सोचती थी कि क्या यह सिद्धांतों से मेल खाता है और सीधे बहन से सुझाव माँगने लगती थी। कभी-कभी मुझे अपने चित्रों में गड़बड़ी दिखाई देती थी, लेकिन मैं इन्हें सुधारना नहीं करना चाहती थी, सीधे सैंड्रा को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती थी। मुझे लगता था कि इन्हें सुधारना बहुत मेहनत का काम है और मेरे हुनर की भी सीमाएँ हैं, इसलिए इसे सैंड्रा से चुस्त-दुरुस्त करवाना चाहिए क्योंकि वह इस काम में बेहतर है। सैंड्रा जब भी मेरे चित्र दुरुस्त करती, मुझे बहुत अच्छा लगता, सोचती कि ऐसी बहन का साथ पाना बड़ी बात है और इससे मेरा काफी समय बच रहा है, और मेहनत भी।

बाद में चित्रों की माँग बढ़ गई, इसलिए कार्य कुशलता बढ़ाने के लिए सैंड्रा ने सुझाव दिया कि हम मिल-जुलकर डिजाइन बनाएँ। लेकिन चित्र कैसे बेहतर बनाएँ, यह जानने का मेरा मन ही नहीं करता। मैं बहुत अनमनी थी। मुझे लगा कि इस तरह के चित्र मैं अच्छे से नहीं बना पाती, तो सैंड्रा बेहतर साबित होगी, इसलिए मुझे उसकी बातें ज्यादा सुननी चाहिए। इसलिए अक्सर सैंड्रा जैसा कहती, मैं वैसे ही चित्र बना देती और कभी-कभी जब वह व्यस्त होती तो मैं साथ काम करने का इंतजार करती रहती। कभी-कभी मैं सोचती कि सिद्धांतों पर महारत हासिल करने, अपना हुनर सुधारने और चित्र खुद ही बनाने के सबसे तेज तरीके क्या हो सकते हैं। लेकिन तभी लगता कि मेरे लिए यह बहुत कठिन होगा और वैसे भी इन्हें अच्छे से बनाने के लिए सैंड्रा तो है ही, फिर क्यों न वही बड़ी भूमिका निभाती रहे। मुझे चिंता करने की इतनी जरूरत नहीं है। इसलिए मैं सिर्फ सैंड्रा के भरोसे रहकर काम करती रही। कुछ महीनों बाद अगुआ ने देखा कि मैंने ज्यादा तरक्की नहीं की है, तो उसने मुझसे निपटते हुए कहा कि मैं खुद पहल नहीं कर रही हूँ और हरदम सैंड्रा की मदद माँगकर उसके काम पर असर डाल रही हूँ। अगुआ से यह सुनना वाकई बहुत तकलीफदेह था। उसने सैंड्रा को मेरा सहयोगी इसलिए बनाया ताकि मैं जल्द से जल्द काम सीखकर खुद ही डिजाइन बनाने लगूँ। लेकिन मैं हमेशा सैंड्रा के भरोसे रहकर काम में दिल नहीं लगाती थी। इतने समय तक अभ्यास करके भी मैं तरक्की नहीं कर सकी। मैं अपना काम इस तरह कैसे कर सकती हूँ? मैंने प्रार्थना की और अपनी समस्या समझने के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा।

एक बहन ने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश मुझे भेजे : “काम में आ रही समस्याओं के बारे में पूछे जाने पर अधिकांश समय तुम लोग उत्तर नहीं दे पाते। तुममें कुछ लोग काम में शामिल हुए हैं, लेकिन तुम लोगों ने कभी नहीं पूछा कि काम कैसा चल रहा है, न ही इस बारे में सावधानी से सोचा है। तुम लोगों की क्षमता और ज्ञान को देखते हुए, तुम लोगों को कम से कम कुछ पता होना चाहिए, क्योंकि तुम सबने इस कार्य में भाग लिया है। तो ज्यादातर लोग कुछ भी क्यों नहीं कहते? संभव है कि तुम लोगों को वास्तव में पता न हो कि क्या कहना है—कि तुम जानते ही न हो कि कामकाज ठीक चल रहा है या नहीं। इसके दो कारण हैं : एक यह कि तुम लोग पूरी तरह से उदासीन हो, और तुमने कभी इन चीजों की परवाह ही नहीं की है और केवल यह मानते रहे हो कि इस काम को किसी तरह निपटाना है। दूसरा यह है कि तुम गैर-जिम्मेदार हो और इन बातों की परवाह करने के अनिच्छुक हो। अगर वास्तव में तुम्हें परवाह होती, लगन होती, तो हर चीज पर तुम्हारा एक विचार और दृष्टिकोण होता। कोई दृष्टिकोण या विचार न होना अकसर उदासीन और बेपरवाह होने तथा कोई जिम्मेदारी न लेने से पैदा होता है। तुम जो कर्तव्य निभाते हो, उसे मेहनत से नहीं निभाते, तुम कोई जिम्मेदारी नहीं उठाते, तुम कोई कीमत चुकाने या कर्तव्य में तल्लीन होने को तैयार नहीं होते। तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और न ही अधिक ऊर्जा खर्च करने को तैयार होते हो; तुम बस मातहत बनना चाहते हो, जो किसी गैर-विश्वासी के अपने मालिक के लिए काम करने से अलग नहीं है। कर्तव्य का ऐसा प्रदर्शन परमेश्वर को नापसंद है और वह इससे प्रसन्न नहीं होता। इसे उसकी स्वीकृति नहीं मिल सकती(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। “कर्तव्य निभाते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, जो उन्हें थकाए नहीं, जिसमें बाहरी तत्त्वों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और देह के भोगों में लीन रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और बहाने बनाते हैं कि वे उसे क्यों नहीं कर सकते, और कहते हैं कि उनकी क्षमता कम है और उनमें अपेक्षित कौशल नहीं हैं, कि वह उनके लिए बहुत भारी है—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। ... क्या दैहिक सुखों का लालच करने वाले लोग कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं? उनसे कर्तव्य निभाने की बात करो, कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करो, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं : उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होंगी, वे शिकायतों से भरे होते हैं, वे हर चीज को लेकर नकारात्मक रहते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं है, और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। जहाँ तक दैहिक-सुखों की लालसा की बात है, हम इसे यहीं छोड़ देते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैंने देखा कि इन महीनों में मैंने अपने काम में कोई प्रगति नहीं की, इसका मुख्य कारण यह है कि मैं बहुत आलसी हूँ, न पहल करती हूँ, न जिम्मेदारी लेती हूँ। जब मुझे अपना काम डाँवाडोल दिखा, तो मैंने शांत होकर सिद्धांत नहीं खोजे। मुझे सोच-विचार करना बहुत झंझट का काम लगता था, इसलिए इसे सैंड्रा के भरोसे छोड़ देती। जब उसने मेरा काम पूरा करने के बाद कई सुझाव दिए, तो मैंने उन पर न तो सोच-विचार किया, न अपनी कमियाँ ही पहचानीं, बस यही बहाने बनाए कि मुझमें न तो इतनी काबिलियत है, न मैं इस काम में अच्छी हूँ, और काम के कठिन हिस्सों का जिम्मा बहन को सौंप देती। कुछ हिस्सों में तो मुझे खुद गड़बड़ी दिख जाती, लेकिन मैं इन्हें ठीक करने की जहमत नहीं उठाती थी। इसके उलट, मेरा रवैया कामचलाऊ, लापरवाह और कपट भरा था, और मैं सुधारने का काम सैंड्रा पर छोड़ देती थी। मुझे लगता, इससे मैं झंझट से बच जाती हूँ और ज्यादा कुशल भी दिखती हूँ, यानी एक तीर से दो निशाने। खुद को अयोग्य और नाकाबिल मानकर मैं खुशी-खुशी पिछलग्गू बन गई। मुझे लगता था कि मैं नाकाबिल हूँ और सैंड्रा मुझसे बेहतर है, उसके लिए ज्यादा काम करना सहज है, तो मैं उसे ही करने देती थी। मैं जितना कर सकती थी, उतना करती ही थी और कम से कम निठल्ली नहीं बैठी रहती थी। मैं आराम-तलब होकर धूर्तता और छल-कपट पर उतर आई थी। मैंने बाहर की दुनिया में काम करने वाले अविश्वासियों के बारे में सोचा, जो न तो अपनी अंतरात्मा या मानवता का ख्याल करते हैं, न ही यह सोचते हैं कि अपना काम ठीक से करके कीमत कैसे अदा करनी है, वे चीजों को भरसक आसान और आराम-तलब बनाये रखते हैं, और जिम्मेदारी न उठाकर हर मोड़ पर छल-कपट करते हैं। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा यही रवैया था— मेहनत और जिम्मेदारी से कतराना, हमेशा दूसरों के अनुभव का इस्तेमाल कर आराम-तलब होने और अपने काम की कीमत न चुकाने का बहाना बनाना। मैं हमेशा कठिनाइयाँ दूसरों को सौंप देती और खुद पीछे छिपकर आराम से रहती। मैं वाकई स्वार्थी और कपटी थी। मैं हमेशा आराम की चाह रखती और पहल नहीं करती थी, इसलिए न कभी मैं अपना हुनर निखार पाई, न असली भूमिका निभा पाई। मैं इस काम के लायक बिल्कुल भी नहीं थी। मुझे लगा कि मैंने सचमुच परमेश्वर को नीचा दिखाया है। मैं इस तरह अपना काम करते रहना नहीं चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के और अंश पढ़े। “कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग धूर्त होते हैं और हमेशा बेईमानी करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए, उसने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, लेकिन वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर चीज का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और अनमने, आलसी और धूर्त बने रहते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में कौन व्यक्ति होगा जो जीने के लिए खुद पर निर्भर न होगा? व्यक्ति जब बड़ा हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा, और उसे यह पहचानने में सक्षम होना चाहिए, ‘मेरे माता-पिता ने बच्चे पालने का अपन काम पूरा कर दिया है। मैं वयस्क और हृष्ट-पुष्ट हूँ—मुझे स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम होना चाहिए।’ क्या एक वयस्क में इतनी न्यूनतम समझ नहीं होनी चाहिए? अगर व्यक्ति में वास्तव में समझ है, तो वह अपने माता-पिता के टुकड़ों पर पलता नहीं रह सकता; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, शर्मिंदा होने से डरेगा। तो क्या किसी बेकार आवारा में कोई समझ होती है? (नहीं।) वे बिना कुछ काम किए हासिल करना चाहते हैं, कभी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, मुफ्त के भोजन की फिराक में रहते हैं, उन्हें दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है—वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और भोजन भी स्वादिष्ट हो—और यह सब बिना कोई काम किए मिल जाए। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में विवेक और समझ होती है? क्या उनमें गरिमा और निष्ठा होती है? बिल्कुल नहीं; वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। “आलसी लोग कुछ नहीं कर सकते। संक्षेप में, वे कचरा होते हैं, जो आलस के चलते अशक्त हैं। आलसी लोगों की क्षमता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; उनकी अच्छी क्षमता किसी काम की नहीं होती। क्योंकि वे बहुत आलसी होते हैं, उन्हें पता तो होता है कि क्या करना है, लेकिन वे उसे करते नहीं; अगर उन्हें समस्या का पता चल भी जाता है, तो वे इसके समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं करते; वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन वे इस तरह की बहुमूल्य पीड़ा सहने को तैयार नहीं होते। परिणामस्वरूप, उन्हें न तो सत्य प्राप्त होता है और न ही वे कोई वास्तविक कार्य करते हैं। वे उन कष्टों को सहने को भी तैयार नहीं होते जिन्हें सहने की लोगों से अपेक्षा की जाती है; वे केवल आराम के लालची होते हैं, उन्हें सिर्फ आनंद और फुरसत के समय की मौज-मस्ती का, स्वतंत्र और आरामदायक जीवन के आनंद का पता होता है। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? जो लोग कठिनाई सहन नहीं कर सकते वे जीने के लायक नहीं होते। जो लोग हमेशा एक परजीवी के रूप में जीना चाहते हैं, उनमें न तो जमीर होता है और न ही विवेक; वे जानवर होते हैं, ऐसे होते हैं जो सेवा प्रदान करने योग्य भी नहीं होते। क्योंकि वे कठिनाई सहन नहीं कर पाते, वे जो सेवा प्रदान करते हैं वह घटिया होती है और यदि वे सत्य पाना चाहें, तो उसकी आशा और भी कम होती है। जो व्यक्ति कष्ट नहीं उठा सकता, सत्य से प्रेम नहीं करता, वह निकम्मा होता है, सेवा प्रदान करने योग्य भी नहीं होता। ऐसे लोग मानवता से पूरी तरह विहीन पशु हैं। ऐसे लोगों को बहिष्कृत कर देना पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि जो हमेशा आराम के तलबगार हैं, कीमत अदा नहीं करना चाहते, अपना काम ठीक से पूरा नहीं करते और जिम्मेदारियां नहीं निभाते, वे परमेश्वर की निगाह में बिल्कुल बेकार हैं। ये लोग पहल करना नहीं जानते और हमेशा दूसरों की मेहनत के फल खाते हैं। ये कलीसिया के मुफ्तखोर परजीवी हैं और निकाल दिए जाने चाहिए। मैं सोचती रही कि “परजीवी” और “कचरे” से परमेश्वर का क्या मतलब था? मैंने बाहर की दुनिया के उन बालिगों के बारे में सोचा जो अब भी अपने माँ-बाप की कमाई पर जीते हैं। बड़े होने के बाद भी उन्हें नौकरी नहीं मिलती, वे बस अपने माता-पिता की दौलत पर मौज करते हैं, मुफ्त में मिली मदद पर गुजर-बसर करते हैं, वे यह जानते ही नहीं कि अपने पैर पर खड़ा होना क्या होता है। उनमें सामान्य इंसान की समझ नहीं होती। ये लोग परजीवी होते हैं। मैंने देखा कि मेरे और इन गैर-जिम्मेदार, परजीवी कामचोरों के बर्ताव में कोई फर्क नहीं है। कलीसिया ने मुझे चित्र बनाने का काम सौंपा था और यह मेरी जिम्मेदारी बनती थी। काम चाहे जितना कठिन था, मुझे मेहनत से पढ़-समझ कर इसका जिम्मा जल्द से जल्द अपने कंधों पर लेना चाहिए था। लेकिन मुझे लगा कि ये चित्र बनाने कठिन हैं और उनके बारे में सोचने की जहमत नहीं उठानी चाही। अपने आलस्य के लिए मैंने बहाने बनाए, सोचती थी कि काफी समय के बाद मैं सिद्धांतों में पारंगत हो जाऊँगी, और जब समस्याएँ आईं तो मैंने न तो भटकावों की छानबीन की, न ही सिद्धांत खोजे। जब मैंने देखा कि सैंड्रा कितनी अनुभवी है तो मैं उसकी मदद तय मानकर चलने लगी, उसे कठिन काम सौंपकर खुद मैं फल बटोरने की ताक में बैठ गई। जब हम साथ में काम करते थे, तब भी मैं उसी के भरोसे रहती थी। मैं सिर्फ सैंड्रा की बात सुनती थी, इसमें अपना कोई विचार नहीं रखती थी। मुझमें काम को लेकर कोई दायित्व बोध नहीं था, सिर्फ दूसरों के भरोसे रहती थी। मैं अपना कोई प्रयास नहीं करती थी, और दूसरों की मेहनत का फल खाना चाहती थी। कलीसिया के अंदर मैं एक बेकार, मुफ्तखोर परजीवी थी। परमेश्वर वाकई मुझसे घृणा करता था! जब मेरी सहयोगी बहन अपना काम कर चुकी होती, उसके बाद उसे मेरे काम में समय लगाना पड़ता, जिससे उसका काम रुक जाता था। इससे मुझे बहुत बुरा लगा और अपराध बोध भी हुआ। मैं इतनी आलसी इसलिए थी क्योंकि मैं इन शैतानी झूठों से प्रभावित थी, जैसे “अपने पर रहम करो और खुद से प्यार करना सीखो,” “पेड़ों का सहारा लेकर उनकी छाया का मजा लो” और “जब मदद मिल सकती हो तो उसका फायदा न उठाना मूर्खता है।” इन शैतानी विचारों ने सिर्फ दैहिक सुखों के बारे में सोचने को मजबूर कर मुझे और भी ज्यादा पतित, दुष्ट और निकम्मी बना दिया। मैं बीज बोए बगैर फसल काटना चाहती थी और जब मेरा काम थोड़ा कठिन हुआ तो मैं सोचने या कीमत चुकाने को राजी नहीं थी। अपनी सहयोगी को खुद से ज्यादा हुनरमंद पाकर मैंने उसे मुश्किल चीजों का जिम्मा सौंपकर बोझ उठाने दिया। मैंने सोचा कि जब मदद हाजिर है तो उसके भरोसे न रहना मूर्खता है। मैं सचमुच धूर्त और कपटी थी! इस तरह काम करके मैं भले ही थकने से बच गई, लेकिन चित्र बनाने में कभी तरक्की नहीं कर पाई। अगर मैं लंबे अरसे तक अपने काम में खास भूमिका नहीं निभा पाई, तो मुझे देर-सबेर निकाल ही दिया जाएगा! यह सोचकर मैं वाकई परेशान हो गई। मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं अपने काम में आराम-तलब हूँ और पहल नहीं करती हूँ। अब मैं पश्चात्ताप कर तुम्हारा परीक्षण स्वीकारना चाहती हूँ। अगर मैं दुबारा अपने दैहिक सुख की सोचूँ, तो मुझे ताड़ना देकर अनुशासित करना।”

मैंने कुछ दिन पहले के बारे में सोचा, जब सैंड्रा ने मेरे चित्रों में कुछ दिक्कतें बताकर मुझे खास ब्योरे समझाए थे। मैं जानती थी कि उसने पहले भी मुझे ऐसी ही समस्या के बारे में समझाया था, फिर भी मैं इसे पूरी तरह भूल चुकी थी। मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब भी किसी ऐसी चीज से मेरा पाला पड़ता जिसे मैं समझ नहीं पाती थी, तो सैंड्रा इत्मीनान से मेरे साथ संगति करती। अगर मैं थोड़ा-सा याद रखने की कोशिश कर नोट्स बना लेती तो वही समस्याएँ बार-बार नहीं उठतीं। लेकिन मैं कभी सिद्धांतों पर अमल करने पर ध्यान नहीं देती थी, बस दूसरों के भरोसे रहती थी। दूसरों ने चाहे जितना बताया, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा, मैं मूलभूत सिद्धांतों पर भी महारत हासिल नहीं कर पाई थी। यह विचार सूझने पर मैंने एक खाका खींचा, उसमें चित्र डिजाइन करते समय आने वाली समस्याएँ और ध्यान में रखने लायक जरूरी सिद्धांत दर्ज किए ताकि आइंदा जब कोई मुश्किल आए तो मैं खुद उसे पहचान सकूँ। जब समस्याएँ आतीं तो मैं उन्हें फौरन दर्ज कर उनकी समीक्षा करती। धीरे-धीरे चित्र बनाने का मेरा काम सुधर गया।

बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया। आलस के अलावा और कौन-से मसले मुझे अपना कर्तव्य निभाने से रोक रहे थे? आत्म-चिंतन के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “और लोग किस आधार पर अपनी ही योग्यता के स्तर को परखते हैं? इस पर कि उन्होंने कोई कर्तव्य विशेष कितने वर्षों तक किया है, कितना अनुभव प्राप्त किया है, है न? अगर बात ऐसी है तो, क्या तुम लोग धीरे-धीरे वरिष्ठता को ध्यान में रखकर सोचना शुरू नहीं कर दोगे? उदाहरण के लिए, एक भाई ने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और लंबे समय तक कर्तव्य निभाया है, इसलिए वह बात करने के लिए सबसे योग्य है; एक बहन को यहाँ कुछ ही समय हुआ है, और हालाँकि उसमें थोड़ी क्षमता है, पर उसे यह कर्तव्य निभाने का अनुभव नहीं है, और उसे परमेश्वर पर विश्वास किए लंबा समय नहीं हुआ है, इसलिए वह उसके बारे में बात करने के लिए सबसे कम योग्य है। बात करने के लिए सबसे योग्य इंसान मन में सोचता है, ‘चूँकि मेरे पास वरिष्ठता है, इसलिए इसका अर्थ है कि मेरा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का है, और मेरा अनुसरण अपने चरम पर है, और ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए मुझे प्रयास करना चाहिए या जिसमें मुझे प्रवेश करना चाहिए। मैंने यह कर्तव्य बखूबी निभाया है, मैंने यह काम कमोबेश पूरा कर दिया है, परमेश्वर को संतुष्ट होना चाहिए।’ और इस तरह वे बेपरवाह होने लगते हैं। क्या यह इस बात का संकेत है कि उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? ... लोग किसका अनुसरण करते हैं और वे किस मार्ग पर चलते हैं, वे वास्तव में सत्य स्वीकारते हैं या उसे त्याग देते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं या उसका विरोध करते हैं—परमेश्वर लगातार इन सब बातों की पड़ताल करता रहता है। परमेश्वर हर कलीसिया और हर व्यक्ति पर नजर रखता है। कलीसिया में चाहे कितने ही लोग अपना कोई कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों, या परमेश्वर का अनुसरण क्यों न कर रहे हों, जैसे ही वे परमेश्वर के वचनों से भटकते हैं, जैसे ही वे पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित होते हैं, वे परमेश्वर के कार्य को अनुभव नहीं कर पाते, और उनका और उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य का परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध या इसमें कोई हिस्सेदारी नहीं रह जाती। ऐसे मामले में कलीसिया धार्मिक समूह बन जाते हैं। अच्छा बताओ, अगर कलीसिया एक धार्मिक समूह बन जाए तो उसके क्या परिणाम होते हैं? क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि ये बहुत बड़े खतरे में हैं? कोई समस्या आने पर वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, और सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य नहीं करते, बल्कि वे मनुष्य की व्यवस्थाओं और तिकड़मों में फंस जाते हैं। बहुत-से ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी प्रार्थना या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते; वे सिर्फ दूसरों से पूछकर उनके अनुसार चलते रहते हैं, उनकी भाव-भंगिमा देखकर सब कुछ करते रहते हैं। दूसरे लोग उन्हें जो करने को कहते हैं, वे वही करते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी समस्याओं के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज एक अस्पष्ट-सी और मुश्किल चीज है, इसलिए वे कोई सीधा-सादा और आसान हल तलाशते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरों पर निर्भर रहना और उनके अनुसार चलते रहना आसान और सर्वाधिक यथार्थवादी है, और इसलिए, वे वही करते हैं जो जो दूसरे लोग कहते हैं, हर काम में दूसरों से पूछते रहते हैं और वैसा ही करते रहते हैं। परिणामस्वरूप, वर्षों के विश्वास के बाद भी, जब भी उन्हें किसी समस्या का सामना करना पड़ा, उन्होंने कभी भी परमेश्वर के सम्मुख आकर प्रार्थना नहीं की और उसकी इच्छाओं और सत्य को जानने की कोशिश नहीं की, ताकि उन्हें सत्य की समझ आ सके, और वे परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य और व्यवहार कर सकें—उन्हें कभी भी ऐसा कोई अनुभव नहीं हो पाया। क्या ऐसे लोग सचमुच परमेश्वर में आस्था का अभ्यास करते हैं?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार और आत्म-चिंतन कर, मुझे एहसास हुआ कि मैं वरिष्ठ लोगों के लिए श्रद्धा भाव रखती थी। मैं प्रतिभा, काबिलियत और कार्य अनुभव को अच्छा काम करने के लिए पूँजी मानती थी, और सोचती थी कि जिनके पास ये गुण होते हैं, उन्हें काम में खुलकर बोलने का अधिकार है। इसलिए जब मैंने देखा कि सैंड्रा कितने साल से चित्र बना रही है, वह कितनी अनुभवी और कुशल है, तो मैं उससे जलती थी और उसे सराहती भी थी। जब कभी मैं कुछ चीजें कर नहीं पाई, मैंने न तो प्रार्थना कर परमेश्वर पर भरोसा किया, न ही सिद्धांत खोजे या इनके बारे में सोचा। जो काम मैं ठीक से नहीं कर पाती थी, उसे उसी के भरोसे छोड़कर बैठ जाती थी। उसने जो कुछ कहा, मैंने बस वही किया। मुझे एहसास हुआ कि यही अकेला काम नहीं था, जिसमें मैं दूसरों के भरोसे रही। हर बार जब मेरा सामना अपने से ज्यादा प्रतिभाशाली, काबिल, क्षमतावान या अनुभवी व्यक्ति से हुआ, तो मैं दिल से उसकी पूजा-प्रशंसा करने लगी, और अक्सर उस पर निर्भर रहती, तब मेरे दिल में परमेश्वर के लिए भी कोई जगह नहीं होती और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए मैं न कभी परमेश्वर का आसरा लेती, न ही सत्य खोजती। लिहाजा, मैंने कोई प्रगति नहीं की और मेरे काम के कोई नतीजे नहीं निकले। मैं परमेश्वर की घृणा का पात्र बनकर पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करने लायक ही नहीं रही। जैसे कि बाइबल कहती है, “स्रापित है वह पुरुष जो मनुष्य पर भरोसा रखता है, और उसका सहारा लेता है, जिसका मन यहोवा से भटक जाता है(यिर्मयाह 17:5)। वाकई, अपनी आस्था में हमें परमेश्वर को महान मानकर पूजना चाहिए। सभी मामलों में परमेश्वर का आसरा लेकर उसकी ओर देखना सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। कोई व्यक्ति चाहे जितना काबिल, प्रतिभाशाली, क्षमतावान या अनुभवी हो या कितने ही साल से विश्वासी हो, इनका मतलब यह नहीं है कि उसके पास सत्य है। कोई भी सृजित प्राणी किसी दूसरे से महान या कमतर नहीं है। केवल परमेश्वर के भरोसे रहकर, उसकी ओर देखकर और सत्य के सिद्धांतों को ज्यादा खोजकर हम परमेश्वर का मार्गदर्शन हासिल कर अपने कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े जिनसे मुझे अपना कर्तव्य ठीक से निभाने का रास्ता मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “मान लो, कलीसिया तुम्हें कोई काम करने के लिए देता है, और तुम कहते हो, ‘यह काम दूसरों से अलग दिखने का मौका हो या नहीं—चूँकि यह मुझे दिया गया है, इसलिए मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा। मैं यह जिम्मेदारी उठाऊँगा। अगर मुझे स्वागत-कार्य सौंपा जाता है, तो मैं लोगों का अच्छी तरह से स्वागत करने में अपना सब-कुछ लगा दूँगा; मैं भाई-बहनों की अच्छी तरह देखभाल करूँगा और सबकी सुरक्षा बनाए रखने का भरसक प्रयास करूँगा। अगर मुझे सुसमाचार फैलाने का काम सौंपा जाता है, तो मैं खुद को सत्य से लैस करूँगा और प्रेमपूर्वक सुसमाचार फैलाऊँगा और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाऊँगा। अगर मुझे कोई विदेशी भाषा सीखने का काम सौंपा जाता है, तो मैं लगन से उसका अध्ययन करूँगा और उस पर कड़ी मेहनत करूँगा, और जितनी जल्दी हो सके, एक-दो साल के भीतर उसे सीख लूँगा, ताकि मैं विदेशियों को परमेश्वर की गवाही दे सकूँ। अगर मुझे गवाही के लेख लिखने का काम सौंपा जाता है, तो मैं वैसा करने के लिए खुद को कर्तव्यनिष्ठ ढंग से प्रशिक्षित करूँगा और सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें देखूँगा; मैं भाषा के बारे में सीखूँगा, और भले ही मैं सुंदर गद्य वाले लेख लिखने में सक्षम न हो पाऊँ, मैं कम से कम अपनी अनुभवात्मक गवाही स्पष्ट रूप से संप्रेषित कर पाऊँगा, सत्य के बारे में सुगम तरीके से संगति कर सकूँगा और परमेश्वर के लिए सच्ची गवाही दे सकूँगा, ताकि जब लोग मेरे लेख पढ़ें, तो वे शिक्षित और लाभान्वित हों। कलीसिया मुझे जो भी काम सौंपेगी, मैं उसे पूरे दिल और ताकत से करूँगा। अगर कुछ ऐसा हुआ जो मुझे समझ न आए, या अगर कोई समस्या सामने आई, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, सत्य की तलाश करूँगा, सत्य सिद्धांतों के अनुसार समस्याओं का समाधान करूँगा, और काम अच्छे से करूँगा। मेरा जो भी कर्तव्य हो, मैं उसे अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब-कुछ इस्तेमाल करूँगा। मैं जो कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, उसके लिए मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने की पूरी कोशिश करूँगा, और कम से कम, मैं अपने जमीर और विवेक के खिलाफ नहीं जाऊँगा, न लापरवाह और अनमना बनूँगा, न कपटी और कामचोर बनूँगा, न ही दूसरों के श्रम-फल का आनंद उठाऊँगा। मैं जो कुछ भी करूँगा, वह अंतःकरण के मानकों से नीचे नहीं होगा।’ यह मानवीय व्यवहार का न्यूनतम मानक है, और जो अपना कर्तव्य इस तरह निभाता है, वह एक कर्तव्यनिष्ठ, समझदार व्यक्ति कहलाने योग्य हो सकता है। अपना कर्तव्य निभाने में कम से कम तुम्हारा अंतःकरण साफ होना चाहिए, और तुम्हें कम से कम यह महसूस करना चाहिए कि तुम रोजाना अपना तीन वक्त का भोजन कमाकर खाते हो, मांगकर नहीं। इसे दायित्व-बोध कहते हैं। चाहे तुम्हारी क्षमता ज्यादा हो या कम, और चाहे तुम सत्य समझते हो या नहीं, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : ‘चूँकि यह काम मुझे करने के लिए दिया गया था, इसलिए मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए; मुझे इससे सरोकार रखकर अपने पूरे दिल और ताकत से इसे अच्छी तरह से करना चाहिए। रही यह बात कि मैं इसे पूर्णतया अच्छी तरह से कर सकता हूँ या नहीं, तो मैं कोई गारंटी देने की कल्पना तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरा रवैया यह है कि मैं यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करूँगा कि यह अच्छी तरह से हो, और मैं निश्चित रूप से इसके बारे में लापरवाह और अनमना नहीं रहूँगा। अगर काम में कोई समस्या आती है, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि मैं इससे सबक सीखूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँ।’ यह सही रवैया है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। “तुम चाहे जो भी काम करो, तुम्हें परमेश्वर की इच्छा के प्रति चौकस और सावधान रहना चाहिए। इसी मनोवृत्ति से कर्तव्य का निर्वाह भली-भाँति किया जा सकता है। चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ, परमेश्वर पर भरोसा रखो, उससे प्रार्थना करो और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजो। अगर कोई गलती हो जाए, तो उसे समय रहते सुधारो और उससे सबक सीखो ताकि वह दोबारा न हो। जो लोग सही मानसिकता से काम करते हैं वे कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार होते हैं—वे चाहे कोई भी महत्वपूर्ण काम की जिम्मेदारी लें, वे अपने काम में देरी नहीं करेंगे(परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि कलीसिया हमारे लिए जिस काम की व्यवस्था करती है, वह हमारा कर्तव्य और दायित्व है, जिसे हमें निभाना चाहिए। एक सच्चा जिम्मेदार व्यक्ति ही परमेश्वर की इच्छा का सम्मान कर मेहनत से अपना कर्तव्य निभा सकता है। उनकी काबिलियत, प्रतिभा और कौशल का स्तर चाहे जो भी हो, चाहे जितनी मुश्किलों का सामना करना पड़े या कष्ट सहने पड़ें, वे परमेश्वर का आसरा लेकर वाकई कीमत चुकाते हैं, दिक्कतों से पार पाते हैं और अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए सब कुछ झोंक देते हैं। नूह की तरह, जिसने नौका बनाने में कई मुश्किलों का सामना किया। उसे हर तरह की चीज तो बनानी ही थी, कई जीव-जंतु भी इकट्ठे करने थे, वह ऐसे युग में भी रहा जिसमें विकसित उद्योग नहीं थे, इसलिए उसे हर काम में अपनी ही क्षमता पर भरोसा करना पड़ा। उसे कई नाकामियाँ मिलीं, कई काम दुबारा करने पड़े, उसका बदन टूट गया, और भी बहुत कुछ हुआ। लेकिन नूह ने कभी अपने दैहिक सुख की परवाह नहीं की या धूर्तता और छल-कपट वाला बर्ताव नहीं किया, परमेश्वर का आदेश किसी दूसरे पर थोपने की बात तो दूर रही। बल्कि, उसने परमेश्वर का आदेश हरदम सिर माथे रखा और उस पर भरोसा रखकर अनेक संकट पार किए। 120 साल बाद नौका बनाकर उसने परमेश्वर का आदेश पूरा किया। परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह की निष्ठा और आज्ञापालन से मैं प्रेरित भी हुई और शर्मिंदा भी। मैं अंत के दिनों में पैदा हुई, मैंने परमेश्वर के कितने ही वचन सुने और परमेश्वर ने कर्तव्य पालन के सत्य के बारे में काफी कुछ कहा। मेरा काम नूह की नौका बनाने जितना कठिन नहीं था, फिर भी मैं धूर्तता और छल-कपट कर रही थी। मुझमें जरा-सी मानवता नहीं थी। परमेश्वर के वचनों में ही मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। जब कभी कठिनाइयाँ पेश आएँ, मैं बस सैंड्रा के भरोसे नहीं रह सकती थी। उन्हें हल करने के लिए मुझे परमेश्वर से प्रार्थना कर समुचित सिद्धांत खोजने थे। अपने काम में दिल लगाने से मेरे चित्र भी निखरने लगे। कभी-कभी तो सैंड्रा के पास भी कोई सुझाव नहीं होता था। मैंने देखा कि मैं वाकई अपनी भूमिका निभाने में सक्षम थी, और काम उतना कठिन नहीं था, जितना मैंने सोचा था। पहले मैं सिद्धांतों के बारे में सोचने की जहमत कभी नहीं उठाती थी, सिर्फ दैहिक सुखों का ख्याल कर दूसरों के भरोसे रहती थी, मैंने सिद्धांत कभी नहीं समझे।

एक बार एक बहन ने आकर कहा कि एक चित्र की तुरंत जरूरत है। मैंने सोचा : “यह चित्र कठिन लग रहा है और चाहिए भी तुरंत, शायद मैं इसे ठीक से न बना पाऊँ। इसे सैंड्रा को ही बनाने देती हूँ।” जब उसके पास जाना चाहा तो लगा, मैं फिर से दैहिक सुख की सोचने लगी हूँ और काम टालना चाहती हूँ, इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और शांत भाव से सिद्धांतों पर ध्यानपूर्वक सोच-विचार किया। हैरानी की बात तो यह थी, मैंने इसे तुरंत पूरा कर काम में देर नहीं होने दी। मैं जरा-भी नहीं कतराई कि काम कठिन है, इससे मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला!

इस अनुभव के जरिए मुझे पता चला कि काम चाहे जो भी हो, यह अकेले काबिलियत, प्रतिभा या अनुभव के भरोसे नहीं किया जा सकता। महत्वपूर्ण बात सत्य और सिद्धांतों का पालन करना है। कठिनाइयाँ पेश आने पर, अगर आप अपने दैहिक सुख के बारे में सोचना बंद करके, परमेश्वर का आसरा लें और सत्य खोजकर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करें, तो आप परमेश्वर का मार्गदर्शन पाकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकेंगे! मैं यह भी समझ गई कि परमेश्वर ने मुझे एक सहयोगी देकर मेरा काम आसान किया है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि मैं उसी के भरोसे रहूँ। बल्कि, हमें आपस में मदद कर एक दूसरे की कमियों की भरपाई करनी चाहिए। परमेश्वर ने हममें हर किसी को अलग-अलग प्रतिभा, कौशल और काबिलियत दी है, इसलिए हमें तालमेल से एक दूसरे की मदद करके खुद को अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में समर्पित कर देना है!

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