मैंने अपने घमंडी तौर-तरीके कैसे बदले
मैं खुद को बहुत बुद्धिमान व्यक्ति मानता था, जो दूसरों से मदद लिए बिना कुछ भी और सब कुछ कर सकता हो। स्कूल में और घर पर, दोनों जगह, जब मेरे भाइयों को कोई प्रश्न नहीं आता था तो मैं हमेशा उसका उत्तर बता देता था, और इसलिए मैं उन्हें नीची नजर से देखता था। मेरे बड़े भाई कहते थे कि मैं अहंकारी और दंभी हूँ और मुझे दूसरों की भावनाओं की ज्यादा कद्र करनी चाहिए, मगर मैं सोचता कि वे मुझसे जलते हैं इसलिए ऐसा कहते हैं, इसलिए मैं उनके आरोपों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता था।
2019 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। जल्द ही, मैं हाल ही में परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले नए सदस्यों का सिंचन करने लगा। मेरे साथ काम करने वाली तीन बहनों में से, दो ने कुछ महीने पहले ही परमेश्वर का कार्य स्वीकारा था। तीसरी थी बहन जॉना, जो मेरे काम में मदद करती थी। तब मुझे समूह का अगुआ चुना गया था, यानी मेरे ख्याल से समूह में मैं सबसे अच्छा था। साथ काम करते समय, जब वे पूछते थे कि, “क्या यह इस तरह से किया जा सकता है” या “क्या तुम इसे उस तरह से करना चाहोगे,” तो मैं अक्सर उन्हें यह कहकर चुप करा देता था कि “नहीं, यह इस तरह नहीं हो सकता,” या “नहीं, मैं इसे उस तरह से नहीं करना चाहता।” मुझे लगता था कि काम मेरे निर्देश के अनुसार ही किया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, नए सदस्यों की सभाओं के बाद, हर बार, बहन जॉना पूछती, “नए सदस्यों से पूछ लें, उन्होंने सब समझ लिया या नहीं?” तो मैं जवाब देता, “कोई जरूरत नहीं। सभा में उनसे पूछ चुका हूँ। वे समझते हैं, इससे फिर से पूछने की जरूरत नहीं है।” जब बहन जॉना ने कहा, “परमेश्वर के कार्य के सत्य पर संगति करते और गवाही देते समय तुम्हें ज्यादा विस्तार से बोलना चाहिए। इससे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता जल्द तय कर पाएँगे कि परमेश्वर का कार्य वास्तविक है।” मैंने बिना सोचे जवाब दिया, “सब-कुछ बता चुका हूँ। दोहराने की जरूरत नहीं है।” कभी-कभी, बहन जॉना मुझसे नए सदस्यों की हालत पता करने को कहती, लेकिन मैं नहीं जाना चाहता। मैंने सोचा कि समूह के अगुआ के तौर पर मुझे उसे बताना चाहिए कि उसे क्या करना है, न कि वह मुझे बताएगी कि मुझे क्या करना है। कभी-कभी बहन जॉना पूछती, क्या नए सदस्य परमेश्वर के काम के बारे में निश्चित हैं। उसे लगातार मेरे काम में दखल देते देख मुझे गुस्सा आ गया और मैंने कहा, “तुम समूह की अगुआ नहीं हो, इसलिए तुम्हें मुझे बताने का कोई हक नहीं है कि मुझे अपना काम कैसे करना है!” तब, मैं बहुत घमंडी था, मैंने बहन जॉना के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने से तो इनकार कर ही दिया था, मैं दूसरी दो बहनों के साथ भी सहयोग नहीं करता था। मैं उन्हें शायद ही कभी कोई काम सौंपता था, बल्कि नए सदस्यों की जिम्मेदारी मैं खुद ही लेता था। चूँकि उन्होंने हाल ही में परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है, इसलिए मुझे लगा कि दर्शनों के बारे में अनेक सत्य हैं जो मेरी बहनें नहीं समझती हैं, जिससे वे शायद अच्छे ढंग से अपना काम न कर सकें। उनके साथ सभाएँ आयोजित करते समय, हमेशा मैं ही बहुत बोलता रहता, उन्हें संगति का समय नहीं देता। मुझे फिक्र होती कि वे अच्छी संगति नहीं करेंगी, और नए सदस्य उन्हें नहीं समझ पाएँगे। वास्तव में, नए सदस्य दोनों बहनों को अच्छी तरह समझ सकते थे। मैं बस नहीं चाहता था वे संगति करें, क्योंकि मैं उन्हें नीची दृष्टि से देखता था। एक बार, सच्चे मार्ग में नए सदस्यों की नींव यथाशीघ्र बनाने के लिए, मैं सत्य के कई अन्य पहलुओं पर संगति करना चाहता था, मगर बहनों ने कहा, “तुम नहीं कर सकते। हमारी सभा सिर्फ डेढ़ घंटे की है। अगर तुम बहुत सारी चीजों के बारे में संगति करोगे, तो नए सदस्यों को सब कुछ पूरी तरह से समझने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलेगा। हम संगति को कई सभाओं में बाँट सकते हैं।” तब मैं उनकी राय नहीं मानना चाहता था, और इसके बजाय मैंने उन्हें मेरी बात सुनने के लिए मनाने की भरसक कोशिश की। अंत में, उन्हें मेरी बात माननी पड़ी। बाद में, हम बीस से भी ज्यादा नए सदस्यों का सिंचन कर रहे थे। पहली सभा में तो लगभग सभी नए सदस्य मौजूद थे, मगर अगली कुछ सभाओं में मैंने देखा कि ज्यादातर नए सदस्य नहीं आए। अंत में, शुरू के बीस से ज्यादा नए सदस्यों में से सिर्फ तीन ही अब भी सभा में आ रहे थे। ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ था और इससे मैं बड़े पशोपेश में पड़ गया और बहुत नकारात्मक हो गया था। एक दिन, अगुआ ने मुझसे मेरी स्थिति के बारे में पूछा। मैंने कहा, “ठीक नहीं है। हाल ही में मेरे कर्तव्य के परिणाम बहुत खराब रहे हैं। हर सभा में मैं नए सदस्यों के साथ उचित रूप से संगति करता हूँ, फिर मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या वे समझ गए हैं, और वे हमेशा कहते हैं, ‘हाँ, मैं समझता हूँ,’ मगर अब वे सभाओं में वापस नहीं आ रहे हैं और मुझे समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है।” अगुआ ने मुझे बताया, “तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए। हो सकता है कि तुम कुछ ऐसा कर रहे हों जिसके कारण ये नए सदस्य सभाओं में नहीं आना चाहते हों?” अगुआ आगे बोला, “क्या तुमने तीनों बहनों से पूछा कि तुम्हारी सिंचन सामग्री या तरीके में उन्हें कुछ गलत नजर आया?” मैंने कहा, “नहीं, मुझे नहीं लगता, वे अच्छी सलाह देंगी।” अगुआ ने जवाब दिया, “समस्या यही है। केवल खुद पर भरोसा करने के बजाय तुम्हें उनकी राय लेनी चाहिए।” जब अगुआ ने ऐसा कहा तो यह मुझे सही लगा। बहनों से उनकी राय पूछने की बात मन में कभी नहीं आई। मैं हमेशा सोचता था कि मैं उनसे बेहतर कार्यकर्ता हूँ, और उनके विचार बेकार हैं।
फिर अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश भेजा : “जब तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, पहले मैं अक्सर भाई-बहनों के सुझाव नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँ। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, कि यह वह प्रस्ताव था जिस पर सब लोगों ने चर्चा की थी और जो दरअसल उपयुक्त था, और यह कि अपने विचारों पर भरोसा करने के कारण मैं चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था और यह मुझमें कमी थी। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे तुम्हें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे। यदि तुम हमेशा सोचते हो कि तुम बहुत कुशल हो और दूसरे तुम्हारी तुलना में बदतर हैं, यदि तुम हमेशा अपनी राय को अंतिम राय मनवाना चाहते हो, तो इससे परेशानी होगी। यह स्वभावगत समस्या है। क्या ऐसे लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं हैं?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी समस्या दिखाई। परमेश्वर कहता है : “जब तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो?” परमेश्वर के सवालों पर गौर करके, मैंने आत्म-चिंतन किया कि इस दौरान मैंने तीनों बहनों के साथ किस तरह सहयोग किया था। मैंने उनके द्वारा दिए गए प्रत्येक सुझाव को ठुकरा दिए। उनकी राय अच्छी या सही रही हो, तब भी मैंने मना किया, क्योंकि मैं नहीं चाहता था वे सोचें कि मैं उनसे नीचे हूँ। मैं खुद को सबसे अच्छा समझता था और इसलिए मैं अकेला ही अच्छी सलाह दे सकता था। मैं समूह का अगुआ था, तो उन्हें मेरी बात सुननी चाहिए, न कि मैं उनकी बात सुनूँ। परमेश्वर के वचन के अनुसार कमियाँ सबमें होती हैं, सबको दूसरों की मदद चाहिए, मगर मैं हमेशा सोचता था कि मैं ही सबसे अच्छा हूँ, और मैं दूसरों से बेहतर हूँ। क्या यह अहंकार और दंभ नहीं था? परमेश्वर के वचनों में मैंने देखा कि वह ऐसे लोगों से घृणा करता है।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा : “जब लोगों द्वारा किए गए काम को फिर से करना पड़ता है, सबसे बड़ी समस्या विशेषज्ञ ज्ञान या अनुभव की कमी नहीं होती, बल्कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे बहुत आत्माभिमानी और अहंकारी होते हैं, वे सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम नहीं करते, बल्कि अकेले निर्णय लेकर कार्य करते हैं—परिणामस्वरूप वे काम में गड़बड़ी कर देते हैं, और कुछ हासिल नहीं होता, सारा प्रयास बर्बाद हो जाता है। इसमें सबसे गंभीर समस्या लोगों का भ्रष्ट स्वभाव है। जब लोगों का भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर होता है, तो वे अच्छे लोग नहीं होते, वे बुरे लोग होते हैं। बुरे लोगों का स्वभाव सामान्य भ्रष्ट स्वभावों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर होता है। बुरे लोग बुरे कार्य ही करते हैं, वे कलीसिया के कार्य में हस्तक्षेप कर उसमें विघ्न-बाधा डालते हैं। जब बुरे लोग कोई कार्य करते हैं, तो वे कार्य को बुरे ढंग से करते हैं और काम को बिगाड़ देते हैं; उनका श्रम अच्छाई के बजाय परेशानी बन जाता है। कुछ लोग बुरे तो नहीं होते, लेकिन वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं—और इस तरह, वे अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाते। संक्षेप में, भ्रष्ट स्वभाव लोगों के ठीक से कार्य करने में अत्यंत बाधक होता है। तुम लोगों के अनुसार, इंसान के भ्रष्ट स्वभाव का कौन-सा पहलू उसके कार्य की प्रभावशीलता में सबसे ज्यादा बुरा असर डालता है? (अहंकार और आत्म-संतुष्टि।) अहंकार और आत्म-संतुष्टि की मुख्य अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? अकेले निर्णय लेना, अपने हिसाब से चलना, दूसरों के सुझाव न सुनना, दूसरों के साथ परामर्श न करना, सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग न करना और हमेशा चीज़ों के बारे में अंतिम निर्णय लेने की कोशिश करना। भले ही काफी भाई-बहन किसी विशेष कर्तव्य का पालन करने के लिए सहयोग कर रहे हों, सभी अपना-अपना कार्य कर रहे हों, कुछ समूह अगुआ पर्यवेक्षक हमेशा अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं; वे जो भी कर रहे होते हैं, वे सामंजस्यपूर्ण ढंग से दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते और संगति में संलग्न नहीं होते, और वे दूसरों के साथ सर्वसम्मति पर पहुँचने से पहले ही बिना सोचे-विचारे काम करते हैं। वे सबको केवल अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करते हैं, और समस्या इसी में है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के इन वचनों ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। मैं समझ नहीं पाया कि पहले अपना कर्तव्य मैं प्रभावी ढंग से क्यों नहीं कर पाता था। परमेश्वर का वचन पढ़ने के बाद ही मुझे समझ आया कि ऐसा इसलिए था क्योंकि मेरे घमंडी स्वभाव के कारण मेरे लिए दूसरों के साथ सहयोग कर पाना असंभव था। तीनों बहनों के साथ काम करते वक्त, अंतिम निर्णय हमेशा मेरा ही होता था। आगामी सभा की सामग्री पर चर्चा करते समय हर बार यह बात स्पष्ट होती थी : सभी के अपने विचार और राय देने के बाद ही, हमें मिलकर सभा का मुख्य विषय चुनना चाहिए था, ताकि सुनिश्चित हो सके कि यह प्रभावी हो। इसके बजाय, मैं उनकी राय को ध्यान में रखे बिना खुद ही फैसले करता था, क्योंकि मुझे लगता था कि मेरी ही राय सर्वोत्तम है और मुझे दूसरों की बात सुनने की जरूरत नहीं है। कोई आपत्ति करता तो मैं बहुत से कारण ढूँढ़ कर काट देता। बेहद घमंडी होने के कारण, मैं दूसरों की सलाह नहीं मानता था, इसलिए मेरे कर्तव्य में परमेश्वर के मार्गदर्शन की कमी थी और इसलिए यह प्रभावी नहीं हो पाया। मेरे लिए, यह विफलता एक खुलासा थी।
एक दिन एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचन के दो अंश भेजे। परमेश्वर कहता है : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं! बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति को सुधारना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। “तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे उद्यम तुम करो या सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है। यही तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हारे मन में यह समझ होनी चाहिए। और इसलिए, चाहे कितने भी लोग अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभा रहे हों या वे कैसी भी समस्याओं का सामना कर रहे हों, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे इस तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा। कुछ लोग दिखावा करने की कोशिश करते रहते हैं, और जब उन्हें काम की कोई जिम्मेदारी दी जाती है, तो वे चाहते हैं कि अंतिम निर्णय उन्हीं का हो। यह किस तरह का व्यवहार है? यह अपने आप को कानून मानना है। वे अपने तरीके से अपने काम की योजना बनाते हैं, वे दूसरों को न तो सूचित करते हैं और न ही किसी से अपने विचारों पर चर्चा करते हैं; वे न तो उन्हें किसी से साझा करते हैं और न ही किसी को बताते हैं, बल्कि उन्हें अपने तक ही सीमित रखते हैं। और जब काम करने का समय आता है, तो वे हमेशा अपने शानदार करतब से दूसरों को विस्मित करना चाहते हैं, सभी को आश्चर्यचकित कर देना चाहते हैं ताकि लोग उनका सम्मान करें। क्या यह अपने कर्तव्य का निर्वहन करना है? वे दिखावा करने की कोशिश कर रहे हैं; और जब उनके पास रुतबा और ख्याति होती है, तो वे अपना संचालन शुरू कर देते हैं। क्या ऐसे लोग अति-महत्वाकांक्षी नहीं होते? तुम किसी को यह क्यों नहीं बताते कि तुम क्या कर रहे हो? चूँकि यह कार्य अकेले तुम्हारा नहीं है, तुम उसे बिना किसी से चर्चा किए क्यों करोगे और अपने आप निर्णय कैसे लोगे? तुम गुप्त रूप से सारी जानकारी छिपाकर काम क्यों करोगे, जिससे कि किसी को उसके बारे में पता न चले? तुम हमेशा ऐसी कोशिश क्यों करते हो कि सबका ध्यान सिर्फ तुम्हारी ओर ही हो? जाहिर है कि तुम इसे अपना निजी कार्य समझते हो। तुम मालिक हो और बाकी सब कार्यकर्ता हैं—वे सभी तुम्हारे लिए काम करते हैं। जब लगातार तुम्हारी मानसिकता ऐसी होती है, तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? क्या इस प्रकार का व्यक्ति शैतान के स्वभाव को प्रकट नहीं करता है? जब इस तरह के लोग कोई कार्य करते हैं, तो देर-सवेर उन्हें हटा दिया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मुझे एहसास हुआ कि घमंड मेरी प्रकृति बन चुका था और इसे मैं स्वाभाविक रूप से प्रकट कर रहा था। जैसे ही मुझे चर्च में कुछ रुतबा मिला, मैं इसका इस्तेमाल अपनी योग्यता दिखाने के अवसर के रूप में करना चाहता था। मैं यह साबित करना चाहता था कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ और मुझे समूह के अगुआ के रूप में चुनना सही निर्णय था। मैं अपने सहकर्मियों को भी यह साबित करना चाहता था कि मैं उनसे बेहतर हूँ और मुझे उनकी सलाह या मदद की जरूरत नहीं है। अपने घमंड के कारण, मुझे हमेशा लगता था कि मैं सब जानता हूँ, और किसी और की बात सुनना बेकार हूँ। मैं अपनी सोच को ही सत्य मानता था, दूसरों से अपने ही ढंग से काम करवाता था, सत्य नहीं खोजता था, कर्तव्य में परमेश्वर पर भरोसा नहीं करता था। इसके बजाय, मैं नए सदस्यों के सिंचन के लिए अपने अनुभव और बुद्धि पर ही भरोसा करता था और दूसरों को अपनी बात मानने के लिए मजबूर करता था। मैं अपने घमंडी स्वभाव में फँसा जी रहा था, सत्य स्वीकार नहीं करता था, और दूसरों से अपनी बात मनवाता था। क्या यह शैतान का स्वभाव नहीं है? परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले से ही मैं बहुत घमंडी व्यक्ति था। अपने से निचले स्तर के लोगों को, अपने भाइयों को भी, मैं नीची नजर से देखता था। मुझे याद है बचपन में जब मुझे कक्षा में सबसे अच्छे अंक नहीं मिलते थे, तो मेरे पिताजी जोर से डांटते थे, “तुझे परीक्षाओं में सबसे अधिक अंक प्राप्त करने होंगे, बाकी सभी से ज्यादा!” दादी भी कहती, “तुझे सबसे बढ़िया बनने की कोशिश करनी है, केवल इसी तरह तुझे सम्मान मिलेगा!” इस वजह से, मैंने हमेशा बाकी सबसे ऊपर रहने और खुद को अव्वल स्थान पर रखने की कोशिश की। मेरे लिए, यही एकमात्र तरीका था जिससे मैं दूसरों को दिखा सकता था कि मैं सबसे अच्छा हूँ। सोचता, दूसरों की बात सुनूँगा तो बुरा नजर आऊँगा, इसलिए उनकी सलाह नहीं लेना चाहता था। सिर्फ परमेश्वर के वचन से ही मैं समझ पाया कि यह विचार सरासर गलत था। मैं हमेशा खुद को दूसरों से ऊपर रखता हूँ और किसी की भी बात सुनने से इनकार करता हूँ, और यही शैतानी स्वभाव है। अगर मैं नहीं बदला तो अपने कर्तव्य में न सिर्फ मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, बल्कि मैं बुराई करूंगा और परमेश्वर का प्रतिरोध करूँगा। अंत में, परमेश्वर मुझे हटा देगा। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं यह भी समझ पाया कि अपना कर्तव्य निभाना मेरा निजी उद्यम नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है और मुझे यह कार्य परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करना चाहिए। मुश्किलों का सामना होने पर, मुझे दूसरों के साथ मिलकर काम करना चाहिए और उन पर विजय पाने के लिए हमें एक साथ सत्य की खोज करनी चाहिए। कोई भी फैसला करने से पहले, मुझे दूसरों से सलाह भी लेनी चाहिए। अगर मैं दूसरों की राय पर विचार नहीं करता और हमेशा एकतरफा काम करता हूँ, जिससे कलीसिया के कार्य देरी होती होती है, तो इस तरह कर्तव्य निभाना अच्छे कर्मों की तैयारी करना नहीं, बल्कि बुरे कर्मों की तैयारी करना होगा। यह एहसास होने पर, मैंने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदलना चाहता था और अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक सहयोग करने में सक्षम होना चाहता था।
अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश देखा : “तुम लोग बताओ, क्या लोगों के साथ सहयोग करना कठिन होता है? वास्तव में, यह कठिन नहीं होता। तुम यह भी कह सकते हो कि यह आसान होता है। लेकिन फिर भी लोगों को यह मुश्किल क्यों लगता है? क्योंकि उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है। जिन लोगों में मानवता, अंतःकरण और विवेक होता है, उनके लिए दूसरों के साथ सहयोग करना अपेक्षाकृत आसान है और वे महसूस कर सकते हैं कि यह सुखदायक चीज है। इसका कारण यह है कि किसी भी व्यक्ति के लिए अपने दम पर कार्य पूरे करना इतना आसान नहीं होता और चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो या कोई भी काम कर रहा हो, अगर कोई बताने और सहायता करने वाला हो तो यह हमेशा अच्छा होता है—यह अपने बलबूते कार्य करने से कहीं ज्यादा आसान होता है। फिर, लोगों में कितनी काबिलियत है या वे स्वयं क्या अनुभव कर सकते हैं, इसकी भी सीमाएं होती हैं। कोई भी इंसान हरफनमौला नहीं हो सकता; किसी एक व्यक्ति के लिए हर चीज को जानना, हर चीज में सक्षम होना, हर चीज को पूरा करना असंभव होता है—यह असंभव है और सबमें यह विवेक होना चाहिए। इसलिए तुम चाहे जो भी काम करो, यह महत्वपूर्ण हो या न हो, तुम्हें अपनी मदद करने के लिए हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ेगी जो तुम्हें सुझाव और सलाह दे सके या तुम्हारे साथ सहयोग करते हुए काम कर सके। काम को ज़्यादा सही ढंग से करने, कम गलतियाँ करने और कम भटकने का यही एकमात्र तरीका है—यह अच्छी बात है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पर मनन कर, मैं समझ गया कि दूसरों के साथ सहयोग करके ही, मैं सही मायनों में अपना कर्तव्य निभा सकते हूँ, सामान्य मानवता के साथ जी सकता हूँ। मैं सोचता था कि मेरे कुछ सहकर्मियों ने कुछ माह पहले ही परमेश्वर का कार्य स्वीकारा था और उन्होंने हाल ही में नए सदस्यों का सिंचन कार्य शुरू किया था, इसलिए ऐसी बहुत-सी चीजें थीं जो वे नहीं समझती थीं, जबकि दूसरी ओर, मैंने तीन साल से परमेश्वर में विश्वास रखा था और मुझे उनसे ज्यादा अनुभव था, इसलिए मैंने कभी उनके सुझाव नहीं माने, राय नहीं मानी। अब जाकर मैं समझ पाया था कि यह नजरिया गलत था। हालांकि परमेश्वर में मेरा विश्वास लंबे समय का था, मेरा अनुभव उनसे ज्यादा था, मगर इसका अर्थ यह नहीं था कि मैं हर बात में उनसे बेहतर था। भाई-बहनों के साथ सहयोग किए बिना, मेरे लिए अच्छे से कर्तव्य निभाना नामुमकिन था। उदाहरण के लिए, मुझे कुछ सत्यों की गहरी समझ नहीं थी, जिसके कारण मैं कुछ सभाओं में बुरे ढंग से संगति करता था। विस्तार से बताने में मदद करने के लिए मुझे एक साथी की आवश्यकता थी ताकि संगति स्पष्ट हो सके। कभी-कभी नए सदस्य बीमारी या काम के चलते सभाओं में नहीं आ पाते थे, और मैं उनकी हालत पर लागू होने वाला परमेश्वर का कोई वचन नहीं ढूँढ़ पाता था, तब भी मुझे साथी के सहयोग की जरूरत होती थी। सच तो यह है कि सभी को परमेश्वर से प्रबुद्ध होने का मौका मिलता है। परमेश्वर ने सिर्फ मुझे ही प्रबुद्ध नहीं किया है। मैं खुद को बहुत ऊँचा और दूसरों को बेवकूफ मानता था। यह एक गलती थी, बेवकूफी थी। परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन हमारे कार्य अनुभव पर निर्भर नहीं करता, यह इस भरोसे होता है कि क्या हम सत्य को खोजकर स्वीकार सकते हैं। असल में सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं, बहन जॉना की तरह, जो अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाती थी, अक्सर अच्छे सुझाव देती थी। मुझे बहन से सहयोग करना चाहिए था, अपनी कमियाँ पूरी करने के लिए उसकी खूबियों से सीखना चाहिए था।
बाद में, मैंने उन बहनों की राय सुनने की कोशिश की जिन्हें कर्तव्य निभाने में मेरा सहकर्मी बनाया गया था। हर सभा के अंत में, जब बहनें मुझसे नए सदस्यों से अलग से पूछने को कहती कि उस दिन की सभा की विषय-वस्तु उन्होंने समझी या नहीं, तो मैं उनका कहना मानता और पहले की तरह अब प्रतिरोध नहीं करता था। जब उन्होंने मुझसे नए सदस्यों के साथ और विस्तार से संगति करने और उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए कहा, तो मैंने वह भी किया। कभी-कभी, वे नए सदस्यों के बेहतर सिंचन के लिए कुछ विचार भी देतीं, और मैं उन्हें स्वीकार कर उन पर अमल करता। इस प्रकार अभ्यास करने के बाद, मैंने ज्यादा नए सदस्यों को सभाओं में आते देखा, इससे मुझे बहुत खुशी मिली। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “पवित्र आत्मा न केवल उन खास लोगों में कार्य करता है जो परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किए जाते हैं, बल्कि कलीसिया में भी कार्य करता है। वह किसी में भी कार्य कर रहा हो सकता है। शायद वह वर्तमान समय में, तुममें कार्य करे, और तुम इस कार्य का अनुभव करोगे। किसी अन्य समय शायद वह किसी और में कार्य करे, और ऐसी स्थिति में तुम्हें शीघ्र अनुसरण करना चाहिए; तुम वर्तमान प्रकाश का अनुसरण जितना करीब से करोगे, तुम्हारा जीवन उतना ही अधिक विकसित होकर उन्नति कर सकता है। कोई व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, यदि पवित्र आत्मा उसमें कार्य करता है, तो तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। उसी प्रकार अनुभव करो जैसा उसने किया है, तो तुम्हें उच्चतर चीजें प्राप्त होंगी। ऐसा करने से तुम तेजी से प्रगति करोगे। यह मनुष्य के लिए पूर्णता का ऐसा मार्ग है जिससे जीवन विकसित होता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे)। परमेश्वर के वचनों से मैं और स्पष्ट रूप से समझ सका कि मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए अहंकारी और दंभी नहीं हो सकता और अपने तरीके पर अड़ा नहीं रह सकता। इसके बजाय, मुझे दूसरों की सलाह अधिक सुननी चाहिए। यह इसलिए कि पवित्र आत्मा सभी को प्रबुद्ध और रोशन करता है। कोई व्यक्ति परमेश्वर में जितने भी लंबे समय से विश्वास रखे, या उसका रुतबा चाहे जैसा भी हो, अगर उसकी कथनी सत्य के अनुरूप हो, हमें स्वीकार कर समर्पण करना चाहिए। अगर हम सुनने से इनकार करें, तो हमें अपने कर्तव्य में परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं होगा। इस अनुभव के माध्यम से, मैंने अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने और अपने कर्तव्य में अपने ही तरीके पर अड़े न रहने का महत्व सीखा।
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