आइने के रूप में परमेश्वर के वचन का उपयोग करना
अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने और परमेश्वर के वचन को खाने और पीने के बाद, मुझे यह स्पष्ट हो गया कि मेरे लिए खुद को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय, मैं उस वचन से खुद को दोबारा जाँचना सुनिश्चित करती थी जिनके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को उजागर करता है। ज्यादातर मामलों में, मैं अपनी कमियों और अपर्याप्तताओं को पहचान पाने में समर्थ थी। मुझे लगता था कि मैं वाकई खुद को समझने लगी हूँ। फिर भी, केवल परमेश्चर के प्रकाशन के माध्यम से ही मैं यह देखने में समर्थ थी कि मैं परमेश्वर के वचनों को अनुसार खुद को सच में नहीं समझती थी।
एक दिन, मैं धन आहरित करने के लिए जिले के एक अगुआ के साथ कहीं गई। जब धनराशि की पुष्टि कर दी गई और रसीद लिख दी गई, तो मैंने सोचा कि धार्मिक आस्था का सीसीपी सरकार द्वारा दमन अब और अधिक गम्भीर होता जा रहा है और वह कलीसिया की सम्पत्ति छीनने की हर कोशिश कर रही है। इसलिए सुरक्षित रहने के लिए, मैंने सुझाव दिया कि पुरानी सभी रसीदें नष्ट कर दी जायें। उस समय, जिले के उस अगुआ ने तपाक से कहा, "अगर तुम पिछली रसीद नष्ट कर दो, तो फिर कोई साक्ष्य नहीं बचेगा। यदि तुम यह पैसा बस अपने पास रख लो तो क्या होगा?" मुझे नहीं पता था कि यह सुनने के बाद मैं क्या महसूस करूँ, लेकिन यह मुझे निश्चित रूप से अपनी ईमानदारी के लिए एक बहुत बड़े अपमान की तरह महसूस हुआ; इसे सह लेना मेरे लिए बहुत ज्यादा कठिन था। मैंने सोचा: तुम्हें मैं किस तरह की व्यक्ति लगती हूँ? मैंने इतने सालों से परमेश्वर का अनुसरण किया है और मैं एक अच्छी इंसान हूँ। मैं ऐसा कुछ कैसे कर सकती हूँ? इसके अलावा, मैंने बहुत सालों तक इस कार्य का प्रभार धारण किया है और वित्त के साथ कभी भी कोई ग़लती नहीं की थी, तो मैं क्यों कलीसिया का धन चुराऊँगी? मैं किस तरह से यहूदा के समान थी? ...मैं इसके बारे में जितना ज्यादा सोचती, मुझे उतना ही ज्यादा गुस्सा आता। मैं इसके बारे में जितना ज्यादा सोचती, मुझे उतना ही ज्यादा महसूस होता कि उसने मुझे नीचा दिखाया है और मुझ पर धौंस दिखाई है। मुझे इतनी ठेस पहूँची थी कि मैं लगभग रो ही पड़ी थी।
अपनी पीड़ा में, मैंने अचानक ही परमेश्वर के वचनों को याद किया, "हमारे इर्द-गिर्द के वातावरण से लेकर लोग, विभिन्न मामले और वस्तुएँ, सबकुछ उसके सिंहासन की अनुमति से अस्तित्व में हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। फिर मैंने सोचा कि: परमेश्वर ऐसी स्थिति का निर्माण क्यों करेगा जहाँ यह बहन ऐसी बात कहेगी? परमेश्वर मुझे क्या सिखा रहा है? इस बात पर विचार करते हुए, मेरे दिल में शांति महसूस होने लगी। मेरे मन ने उन दुःखदायी प्रतिक्रियाओं पर प्रश्न करना शुरू कर दिया, जो अभी-अभी उस बहन की टिप्पणी से मुझे हुई थीं: जब उसने "यदि तुम यह पैसा बस अपने पास रख लो तो क्या होगा?" कहा था, तो क्या वह ग़लत थी। परमेश्वर ने कहा था कि मनुष्य किसी भी समय और किसी भी स्थान पर धार्मिकता के साथ विश्वासघात करेगा और परमेश्वर से दूरी बना लेगा। कोई भी पूरी तरह से विश्वासयोग्य नहीं है। क्या मैं एक अपवाद हूँ? इसके अलावा, मेरे स्वभाव में कितना बदलाव आया है? मैंने कितना सत्य प्राप्त कर लिया है? अगर मैंने सत्य प्राप्त नहीं किया है और न ही मेरे स्वभाव में कोई बदलाव आया है, तो मुझे दूसरों को खुद को उस तरह से क्यों नहीं देखने देना चाहिए और किस आधार पर मुझे खुद को एक कुलीन और शुद्ध समझना चाहिए? और मुझे क्यों इस बात पर इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं कभी भी चढ़ावे की चोरी नहीं करूँगी? परमेश्वर ने एक बार कहा था: "मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति से लबालब भरी है, वे पूरी तरह से आत्म-केंद्रित, स्वार्थी, लालची, और असंयमी हैं" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। क्या यह केवल दूसरों पर लागू होता है और खुद मुझ पर नहीं? हर कोई प्रकृति से लालची होता है, क्या मैं एक अपवाद हूँ? उस बहन ने जो कहा था क्या वह तथ्यों से असंगत है? जब मैं आमतौर पर परमेश्वर का वचन खाती और पीती हूँ, तो मैं परमेश्वर के प्रकाशन की रोशनी में जागृत होकर खुद को जाँचने में समर्थ प्रतीत होती हूँ। हालाँकि, जब उस बहन ने, मनुष्य की प्रकृति पर परमेश्वर के प्रकाशन के आधार पर, भावुक हुए बिना सत्य कहा, तो मैं बहुत क्रोधित हो गई थी। क्या इससे यह प्रकट नहीं होता कि मैं परमेश्वर के वचन के अनुसार खुद को नहीं जानती हूँ? क्या यह इस बात का संकेत नहीं करती है कि मुझे अपने अंदर शैतान की प्रकृति की सच्ची समझ नहीं है? अब तक मैंने यह अहसास नहीं किया था कि परमेश्वर के वचनों को खा और पी मेरा खुद को जानना सैद्धांतिक मान्यता और सतही समझ से अधिक कुछ नहीं था। मैं परमेश्वर के वचन के प्रकाशन के माध्यम से अपनी सच्ची प्रकृति को समझने के लिए विशेष ध्यान नहीं दे रही थी। इसलिए, मेरे साथ यह स्थिति तो होनी ही थी: जब मैं संवाद करती हूँ, तो मैं सामान्यत: ऐसे बोलती हूँ कि जैसे मैं खुद को समझती हूँ; मैं हाँ में अपना सिर हिला देती हूँ और परमेश्वर द्वारा मनुष्य को उजागर करने वाले वचनों को स्वीकार कर लेती हूँ, लेकिन जब तथ्यों से सामना होता है, तो परमेश्वर मुझे जैसा व्यक्ति दिखाता है, वैसा होना स्वीकार करने से पहले मैं मर जाती। अतीत की बातों पर चिंतन करते हुए: कितनी ही बार मैंने यह घोषणा की है कि मुझमें मानवीय समझ का अभाव है, लेकिन जब दूसरे लोग कहते हैं कि मुझमें मानवीय समझ का अभाव है, तो मैं तुरंत इस बात से इनकार कर देती हूँ और मरते दम तक खुद को बचाती हूँ। कितनी ही बार मेरे होठों ने यह बड़बड़ाया है कि मैं अपना कर्तव्य लापरवाही से करती हूँ, फिर भी जब दूसरे लोग यह कहते हैं कि मैं अपना कर्तव्य लापरवाही से करती हूँ, तो खुद को निर्दोष साबित करने हेतु मैं खुद को बचाने और खुद को न्यायसंगत बताने के हर संभव तरीके के बारे में सोचती हूँ। मैंने कितनी ही बार दूसरों के समक्ष यह स्वीकार किया है कि मैं कुछ नहीं हूँ, मगर जब दूसरे यह कहते हैं कि मैं कुछ सही नहीं करती हूँ, तो मैं हताश और इतनी नकारात्मक हो जाती हूँ कि मैं प्रसन्न नहीं हो पाती हूँ। कितनी ही बार मैंने यह घोषित किया है कि मेरी क्षमता कमज़ोर है और मुझमें कार्य करने की सामर्थ्य का अभाव है, मगर जब मैं दूसरों को यह कहते सुनती कि मैं क्षमता वाली हूँ और यह कि मैं कभी एक अच्छी अगुआ नहीं बन पाऊँगी, तो मैं हार मान लेती और कमज़ोर पड़ जाती हूँ। ...यह स्पष्ट है कि मैं पाखण्डी हूँ। जब मैं खुद यह कहती हूँ कि मैं भ्रष्ट हूँ, तो यह ठीक है, लेकिन जब दूसरे मेरे बारे में कुछ कहते हैं, तो मैं यह स्वीकार नहीं कर सकती हूँ, और मैं उसका विरोध करती हूँ। यह पर्याप्त रूप से दर्शाता है कि खुद के बारे में मेरी समझ केवल मेरे मुँह तक ही सीमित है। यह दूसरों को धोखा देती है और यह पाखंडपूर्ण है। चूँकि मैं कभी भी परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से अपनी सच्ची आत्म-प्रकृति का विश्लेषण करने और उसे समझने में कभी भी समर्थ नहीं रही हूँ, इसलिए मैंने वाकई अभी तक खुद को समझना शुरू नहीं किया है और मेरा स्वभाव नहीं बदला है।
उस समय, मैंने अपने खुद के आत्मकामी नज़रिये पर चिंतन किया और पाया कि यह वाकई शर्मनाक है। परमेश्वर के प्रकाशनों ने वाकई मुझे यकीन दिला दिया है और मुझे साफ तौर पर यह देखने दिया है कि मैं वाकई खुद को नहीं समझती हूँ। अब से, मैं परमेश्वर द्वारा मनुष्य को उजागर करने वाले वचनों के माध्यम से अपने भ्रष्ट सार को पहचानने की इच्छुक हूँ; मैं साहस के साथ तथ्यों का सामना करने और खुद को वाकई में समझने की इच्छुक हूँ ताकि मैं जल्द ही अपना स्वभाव बदल सकूँ।
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