महामारी के दौरान बीमार पड़ने पर चिंतन
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार को स्वीकार करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि जब परमेश्वर अंत के दिनों के अपने कार्य को खत्म कर रहा होगा तो भलों को पुरस्कृत और बुरों को दंडित करने के लिए महान आपदाएँ आएंगी। इन आपदाओं में बुरे कर्म और परमेश्वर का विरोध करने वाले नष्ट हो जाएंगे, जबकि परमेश्वर के वचनों का न्याय स्वीकारने वाले शुद्ध किए जाएंगे और परमेश्वर द्वारा इन आपदाओं से बचाकर अनंत आशीषों का आनंद लेने के लिए उसके राज्य में ले जाए जाएंगे। उस वक्त मैंने सोचा था स्वर्ग के राज्य में जाना और अनंत जीवन पाना महान आशीष होगी, मुझे जीवन में एक बार मिलने वाले इस अवसर को संजोते हुए अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना और परमेश्वर के लिए परिश्रम करना चाहिए, ताकि परमेश्वर का काम खत्म होने पर मैं बचने के योग्य रहूँ। इसलिए मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और सुसमाचार फैलाने लगी। आपदाओं को बढ़ते देखकर, ऐसी विकट घड़ी में मैं और ज्यादा अच्छे कर्म करना चाहती थी और ज्यादा लोगों के साथ परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार को साझा करना चाहती थी, ताकि राज्य का सुसमाचार फैलाने में योगदान दे सकूँ। इसलिए, मैंने अपनी पूरी ऊर्जा सुसमाचार साझा करने में झोंक दी, और सुबह से शाम तक व्यस्त रहती। मेरे जिले में दिनोदिन और ज्यादा लोग परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार रहे थे, एक के बाद एक कलीसियाएं स्थापित हो रही थीं। इन नतीजों को देखकर मैं अपने-आपसे बहुत खुश थी। मुझे लगता था सुसमाचार के मेरे काम को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जब महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया और संक्रमणों की संख्या बढ़ने लगी, तो भी मैं शांत रही। मैं सोचती थी कि अपने कर्तव्य में इतनी मेहनत करने के कारण, महामारी कितनी ही क्यों न फैले, मुझ पर कोई असर नहीं कर सकती। पर, महामारी के वायरस के अचानक फैले संक्रमण ने मेरी धारणाओं और कल्पनाओं को ध्वस्त कर दिया। मुझे इतने वर्षों की अपनी आस्था में मंशाओं और मिलावटों को लेकर चिंतन-मनन करना पड़ा।
मई, 2021 में एक दिन, मुझे अचानक खांसी होने लगी, इसके बाद बुखार और कमजोरी ने जकड़ लिया। पहले लगा मुझे सर्दी हो गई है, और मैंने ज्यादा परवाह नहीं की, पर लक्षण कम होने के बजाय एक हफ्ते तक बने रहे। एक बहन को लगा कि मेरे लक्षण कोरोनावायरस जैसे हैं और चिंता में पड़ गई कि मुझे यही हो गया है। उसने मुझे अस्पताल जाकर जांच करवाने का सुझाव दिया। मैंने इस पर कोई खास चिंता नहीं जताई। मुझे लगता था कि दिन भर देर तक काम करके मैंने कष्ट उठाए हैं और कीमत चुकाई है, और मुझे नतीजे भी अच्छे मिले हैं। मैंने कोई बुराई भी नहीं की है, और कलीसिया के काम में कोई अड़चन नहीं डाली है, तो फिर मुझे वायरस कैसे हो सकता है? पर जांच के नतीजे मेरी उम्मीद से बिल्कुल उलट थे। मेरा टेस्ट पॉज़िटिव आया था। मैं खोई-खोई सी घर लौटी, बिल्कुल नहीं समझ पा रही थी कि मुझे यह वायरस कैसे हो सकता था। मैं बरसों से कर्तव्य निभा रही थी, तो फिर परमेश्वर ने मुझे बचाया क्यों नहीं? भाई-बहनों को पता चला तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मेरी किसी बात ने परमेश्वर को नाराज कर दिया है और मुझे इसका दंड मिला है? पर मुझे नहीं लगता था कि मैंने कोई बुराई की है या कलीसिया के काम में बाधा डाली है। पिछले साल यह महामारी फैलने के बाद से दुनिया भर में लाखों लोग इस बीमारी से मर चुके थे। अब जब मुझे भी यह संक्रमण हो गया था तो क्या मैं भी मरने वाली थी? परमेश्वर का कार्य खत्म होने के करीब है, अगर मैं मर गई तो क्या बरसों की मेरी मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? तो फिर भविष्य के राज्य की आशीषों में मेरा कोई हिस्सा नहीं होगा। मैंने जितना ज्यादा सोचा उतनी ही परेशान होती चली गई, मुझे नहीं पता था कि मैं इन हालात से कैसे गुजरूंगी। मैंने प्रार्थना करके परमेश्वर को पुकारा, "परमेश्वर, तुमने मुझे यह वायरस लगने दिया—इसमें तुम्हारी कोई शुभ इच्छा रही होगी। तुम गलत नहीं हो सकते, मैंने जरूर किसी तरह तुम्हारा विरोध या खिलाफत की होगी। पर मुझे नहीं पता मैंने कैसे तुम्हारे स्वभाव का अपमान किया है। मुझे प्रबुद्ध करो कि मैं जान सकूँ कि मुझसे गलती कैसे हुई। मैं प्रायश्चित के लिए तैयार हूँ।" इसके बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। "बीमारी के प्रारंभ का अनुभव कैसे किया जाना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसकी इच्छा को समझने की तलाश में उसके सामने आना चाहिए, और यह जाँचना चाहिए कि तुमसे क्या भूल हुई थी, और तुम्हारे भीतर वे कौन-सी भ्रष्टताएँ हैं जिनका समाधान अभी बाकी है। तुम पीड़ा के बिना अपने भ्रष्ट स्वभावों को हल नहीं कर सकते। लोगों को पीड़ा से ग्रस्त करना ही होगा; इसके बाद ही वे स्वच्छंद होना बंद करेंगे और सदा परमेश्वर के सामने जिएँगे। जब दुख का सामना करना पड़ेगा, तो लोग हमेशा प्रार्थना करेंगे। उस समय भोजन, वस्त्र, या आनंद का कोई विचार नहीं होगा; अपने दिल में, वे हमेशा बस प्रार्थना करेंगे, और यह जाँचेंगे कि क्या उन्होंने इस दौरान कोई भी भूल की है। ज्यादातर समय, जब तुम किसी गंभीर बीमारी या असामान्य रोग से घिर जाते हो, और इससे तुम्हें बहुत पीड़ा होती है, तो ये चीजें अनायास ही नहीं होती; चाहे तुम बीमार हो या स्वस्थ, इन सब के पीछे परमेश्वर की इच्छा होती है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने सही वक्त पर मुझे प्रबुद्ध करके यह दिखाया कि मेरा संक्रमण अनायास नहीं था, यह पूरी तरह परमेश्वर का निर्देश और व्यवस्था थी। मुझे परमेश्वर की इच्छा जानकर आत्मचिंतन करना था। चाहे कुछ भी हो, मैं परमेश्वर को दोष नहीं दे सकती थी। अगले कई दिनों तक जब मैं घर पर क्वारंटाइन में थी, मैंने भाई-बहनों को अपनी उजागर हुई भ्रष्टता के बारे में बताया, मैंने खुद को जाना और मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास और सत्य में प्रवेश का एक रास्ता मिला। शरीर से कैसा भी महसूस करने के बावजूद मैं सुसमाचार को ऑनलाइन साझा करती रही। दो दिन बाद, मैं काफी बेहतर महसूस करने लगी, अब खांसी बहुत कम थी, मेरा तापमान भी सामान्य था, और मेरी ऊर्जा और शक्ति में काफी सुधार था। मैं सचमुच खुश थी, और सोच रही थी कि परमेश्वर ने मेरी आज्ञाकारिता और प्रायश्चित को देख लिया था, इसलिए मेरा ध्यान रखा था। इस विचार से मेरी बेचैनी कुछ कम हुई। पर अगले दिन अचानक मुझे अपने सीने में जकड़न और दर्द महसूस हुआ और खांसी ने रुकने का नाम नहीं लिया। फिर मुझे तेज बुखार हो गया और कमजोरी महसूस होने लगी। मुझे दहशत-सी होने लगी। जब से बीमारी का पता चला था, मैंने परमेश्वर को कोई दोष न देते हुए कर्तव्य निभाना जारी रखा था। मैं और ज्यादा बीमार कैसे हो गई? इसके इलाज के लिए कोई दवा नहीं थी, अगर परमेश्वर ने मुझे नहीं बचाया तो मैं मर जाऊँगी। मौत का विचार बहुत डरावना था—मैं इसके आगे बेबस नहीं हो सकती थी। मैं करीब दस वर्ष से परमेश्वर का अनुसरण कर रही थी। अपना घर-बार और नौकरी पीछे छोड़कर रोज देर तक अपना कर्तव्य निभाती रही थी। मैंने बहुत कष्ट उठाए थे, कीमत चुकाई थी। क्या परमेश्वर को यह सब याद नहीं था? अगर मैं मर गई, तो मैं कभी भी राज्य की सुंदरता नहीं देख पाऊँगी, इसकी आशीषों का सुख नहीं ले पाऊँगी। मैंने जितना सोचा उतनी ही हताश होती चली गई। मैं अब भी अपना कर्तव्य निभा रही थी, पर दिल में कोई उमंग नहीं थी, जब काफी काम पड़ा होता तो मुझे खीज होने लगती, मैं जल्दी से जैसे-तैसे काम निपटाती, ताकि थोड़ा आराम कर सकूँ। पहले मैं सुबह से लेकर रात तक काम में जुटी रहती थी, और सोचती थी परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। पर अब जब परमेश्वर ऐसा नहीं कर रहा था, तो मुझे अपनी कुशलता के बारे में खुद सोचना था, और अपनी सेहत का ध्यान रखना था। बहुत ज्यादा तनाव और थकान बीमारी से उबरने के लिए अच्छे नहीं थे। सभाओं में, दूसरे भाई-बहनों में कितना दमखम होता था और वे लगातार संगति कर सकते थे। पर मैं बोलना शुरू करते ही खाँसने लगती और परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए मेरी सांस फूलने लगती। मैं बहुत परेशान थी और परमेश्वर से तर्क किए बिना न रह सकी : "परमेश्वर, मैं आम तौर पर अपने कर्तव्य में बहुत मेहनत करती हूँ, मैं गंभीर और जिम्मेदार इंसान हूँ। कुछ दूसरे लोग इस मामले में मेरा मुकाबला नहीं कर सकते। दूसरा हर कोई स्वस्थ है और अपना कर्तव्य निभा रहा है, तो मुझे ही यह वायरस क्यों हुआ? अगर यह तुम्हारा परीक्षण है, तो कलीसिया में दूसरे कई हैं जो मुझसे भी ज्यादा सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे इसका सामना क्यों नहीं कर रहे? अगर यह तुम्हारा दंड है, तो मैंने कोई बुराई नहीं की है, न ही कलीसिया के काम में रुकावट डाली है, न तुम्हारे स्वभाव का अपमान किया है। परमेश्वर, मैं अब भी अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ, और मेरा यह काम मुझे पसंद है। मुझे अभी इसे और करना है, इसलिए मैं जिंदा रहकर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। हे परमेश्वर, मैं एक महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रही हूँ, और मैं अब भी तुम्हारी सेवा कर सकती हूँ। मुझे बचा लो ताकि मैं जिंदा रहूँ और तुम्हारी सेवा कर सकूँ।" इस तरह से सोचने पर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश बिल्कुल साफ याद आ गया : "तुम—सृजित प्राणी—किस आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो? लोग परमेश्वर से माँग करने के उपयुक्त नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज़्यादा अनुपयुक्त कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से न्यासंगत या तर्कसंगत नहीं होती; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को अपना इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तब भी क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। ... वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। हालाँकि वह मनुष्यों के लिए अज्ञेय हो सकता है, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, लगा वह मेरे सामने ही खड़ा है और मुझे फटकार रहा है, और हर वचन सीधा मेरे दिल में उतर गया। क्या मैं परमेश्वर को अनुचित और अधार्मिक होने के लिए दोष नहीं दे रही थी? क्या मैं सौदेबाजी और बहानेबाजी नहीं कर रही थी, परमेश्वर के सामने शर्तें नहीं रख रही थी? मैंने बरसों कष्ट उठाकर और खुद को कर्तव्य के लिए खपाकर कुछ हासिल किया था तो मुझे लगता था परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा, और यह उसकी धार्मिकता होगी। पर असल में, यह पूरी तरह मेरी धारणा और कल्पना थी और सत्य के अनुरूप नहीं थी। परमेश्वर सृजन का प्रभु है और मैं एक सृजित प्राणी हूँ। मेरा हर सुख परमेश्वर की देन है, मेरा जीवन भी परमेश्वर की देन है। परमेश्वर मेरी नियति की व्यवस्था कैसे करता है और मुझे कब तक जीने देता है, सब उसके हाथ में है। एक सृजित प्राणी के नाते मुझे समर्पण करके इसे स्वीकार करना चाहिए। मुझे परमेश्वर के साथ तर्क करने और शर्तें रखने का क्या अधिकार था? पर अपनी इतने बरसों की आस्था में परमेश्वर से सत्य का इतना अधिक सिंचन और पोषण मिलने के बाद भी मुझमें कोई कृतज्ञता नहीं थी। अब जब मुझे वायरस हो गया था और मौत का खतरा था, तो मैं परमेश्वर के साथ तर्क कर रही थी, उसे अधार्मिक होने का दोष दे रही थी। मेरी चेतना और समझ कहाँ थी? यह सब सोचते हुए मुझे अपराध-बोध और शर्म महसूस हुई, और परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करने लगी। "परमेश्वर, मैं कितनी विवेकहीन हूँ! मुझे तुमने रचा है; मैं तुम्हारी सृजित प्राणी हूँ। मुझे तुम्हारे सारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना चाहिए। यही सही और स्वाभाविक है। तुमने मुझे यह वायरस लगने दिया है, जिसमें मौत का खतरा है। मैं मरना नहीं चाहती थी, समर्पण करना नहीं चाहती थी, इसलिए मैंने तुमसे तर्क किया, तुम्हें सही तरीके से काम न करने का दोष दिया, और मुझे जिंदा रखने के लिए कहा। मुझमें समर्पण या समझदारी की कोई भावना नहीं थी। मैं कितनी विद्रोही थी! परमेश्वर, मैं आत्मचिंतन करके प्रायश्चित करना चाहती हूँ।"
अगले कुछ दिनों तक परमेश्वर को लेकर अपनी शिकायतों और गलतफहफ़ियों की सोचकर मैं बहुत खराब महसूस करती रही। खासकर यह सोचकर कि कैसे जब मेरी हालत ज्यादा गंभीर हो गई, तो मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध किया, उससे तर्क किया, निराश होकर ढीली पड़ गई, अपने कर्तव्य में खानापूरी की और इसे जैसे-तैसे निभाया, मैं और ज्यादा अपराध-बोध और बेचैनी महसूस करने लगी। जब मैं बीमार नहीं थी और कोई संकट नहीं था, मैं परमेश्वर की धार्मिकता का गुणगान कर रही थी, और कहती थी कि सृजित प्राणी को सृजन के प्रभु की व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना चाहिए। तो बीमार होने के बाद मैंने इतना विद्रोहीपन और प्रतिरोध क्यों दिखाया? अपने भक्ति पाठ में मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा। "मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। "मसीह-विरोधी सोचते हैं, अगर लोग कर्तव्य-पालन करते हैं, कीमत चुकाते हैं और थोड़ी-बहुत कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो उन्हें परमेश्वर का आशीष मिलना चाहिए। तो, कुछ समय तक कलीसिया का काम करने के बाद ही, वे इस बात का जायजा लेना शुरू कर देते हैं कि उन्होंने कलीसिया के लिए क्या काम किया है, उन्होंने परमेश्वर के घर में क्या योगदान दिया है और भाई-बहनों के लिए उन्होंने क्या किया है। वे यह सब अपने मन में बिठाकर रखते हैं और यह अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं कि इनसे उन्हें परमेश्वर से क्या अनुग्रह और आशीष मिलेगा, ताकि वे यह तय कर सकें कि इस तरह के काम करने का कोई मूल्य है भी या नहीं। वे इस तरह की चीजों में क्यों उलझे रहते हैं? वे मन ही मन किस लक्ष्य का पीछा कर रहे होते हैं? परमेश्वर में उनकी आस्था का उद्देश्य क्या होता है? शुरू से ही, परमेश्वर में उनका विश्वास इसलिए था क्योंकि वे आशीष पाना चाहते थे। चाहे उन्होंने कितने भी वर्ष प्रवचन सुने हों, परमेश्वर के कितने भी वचन खाए और पिए हों, चाहे कितने भी सिद्धांतों की समझ हासिल की हो, लेकिन वे आशीष पाने की अपनी इच्छा और मंशा कभी नहीं त्यागते। यदि तुम उनसे एक कर्तव्यपरायण सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं को स्वीकार करने के लिए कहोगे, तो वे बोलेंगे, 'इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, मुझे इन चीजों के लिए प्रयास नहीं करना चाहिए। मुझे तो इन चीजों के लिए प्रयास करना है : अपनी लड़ाई लड़ लेने, अपने अपेक्षित प्रयास और अपेक्षित कठिनाइयों का सामना कर लेने के बाद, और परमेश्वर ने जो कहा था, उसके अनुसार सब कर लेने के बाद, परमेश्वर को मुझे इनाम देना चाहिए और मेरा अस्तित्व बनाए रखना चाहिए, तब मुझे राज्य में मुकुट पहनाया जाएगा और मेरे पास परमेश्वर के लोगों की तुलना में अधिक ऊँचा ओहदा होगा—कम से कम मैं दो या तीन शहरों पर शासन करूंगा।' मसीह-विरोधियों को इन्हीं बातों की सबसे अधिक परवाह होती है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसे संगति करे, उनकी मंशाओं और इच्छाओं को मिटाया नहीं जा सकता; वे पौलुस जैसे ही होते हैं। क्या इस तरह के बेशर्मी भरे लेन-देन में किसी प्रकार की बुराई और शातिर स्वभाव नहीं पल रहा होता है? कुछ धार्मिक लोग कहते हैं, 'हमारी पीढ़ी क्रूस के मार्ग पर परमेश्वर का अनुसरण करती है। क्योंकि परमेश्वर ने हमें चुना है और इसलिए हम आशीष पाने के हकदार हैं। हमने दुख उठाया, कीमत चुकाई है और कड़वे प्याले से दाखमधु पिया है। हममें से कुछ को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला गया है। इतने कष्ट सहने, इतने सारे उपदेश सुनने और बाइबल के बारे में इतना कुछ सीखने के बाद भी, यदि एक दिन हमें आशीष नहीं मिला, तो हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे।' क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा कुछ सुना है? वे कहते हैं कि हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे—यह कितनी धृष्टता है? क्या इसे सुनने मात्र से तुम लोग भयभीत नहीं हो जाते? परमेश्वर के साथ बहस करने की हिम्मत कौन करता है? ... क्या ऐसे लोग महादूत नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? तुम किसी से भी बहस करो, लेकिन परमेश्वर से नहीं। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए। आशीष परमेश्वर से आती है, वह उन्हें जिसे चाहे दे सकता है। भले ही तुम आशीष पाने की अपेक्षाएँ पूरी करते हो, उसके बावजूद अगर परमेश्वर उन्हें तुम्हें नहीं देता है, तो तुम्हें उससे बहसबाजी नहीं करनी चाहिए। पूरा ब्रह्मांड और सारी मानवजाति परमेश्वर के हाथों में है, अंतिम निर्णय परमेश्वर का होता है, तुम एक मामूली और तुच्छ मानव होकर भी परमेश्वर से बहस करने का दुस्साहस करते हो। तुम इतने धृष्ट कैसे हो सकते हो? आईने में पहले अपनी शक्ल तो देखो कि तुम हो कौन। सृष्टिकर्ता के खिलाफ शोर-गुल मचाकर और उससे होड़ करके क्या तुम अपनी मौत को दावत नहीं दे रहे हो? 'यदि एक दिन हमें आशीष नहीं मिली, तो हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे।' ऐसी बातें कहकर, तुम खुलेआम परमेश्वर के विरुद्ध शोर-गुल कर रहे हो। यह तीसरा स्वर्ग कैसा स्थान है? यह परमेश्वर का निवास-स्थान है। परमेश्वर से बहसबाजी करने के लिए तीसरे स्वर्ग में जाने का दुस्साहस करना राजमहल पर धावा बोलने जैसा है। यही बात है न? कुछ लोग कहते हैं, 'इसका मसीह-विरोधियों से क्या लेना-देना?' बिल्कुल लेना-देना है, क्योंकि जो लोग परमेश्वर से बहसबाजी करने के लिए तीसरे स्वर्ग में जाना चाहते हैं, वे मसीह-विरोधी होते हैं; ऐसी बातें सिर्फ मसीह-विरोधी ही कर सकते हैं, ऐसे शब्द मसीह-विरोधी के दिल की गहराइयों में छिपी आवाज हैं और यही मसीह-विरोधियों की दुष्टता होती है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के खुलासे से मैं शर्म से पानी-पानी हो गई, और मैंने देखा कि अपने कर्तव्य में मेरा बरसों कष्ट उठाना और कीमत चुकाना परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखने और एक सृजित प्राणी द्वारा उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए नहीं था, यह परमेश्वर की आशीषों के लिए, राज्य में प्रवेश करने और अनंत आशीषों का सुख भोगने के लिए था। मैं कर्तव्य निभाने को आपदा से बचने और परमेश्वर से आशीष पाने का साधन मानती थी, परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की मुद्रा और पूंजी। इसी वजह से मैं मन-ही-मन यह हिसाब रखती थी कि मैंने कितना कुछ किया है, कितने लोगों का मत परिवर्तन किया, कितना कष्ट उठाया, कितनी कीमत चुकाई। मैं जितना हिसाब लगाती उतना ही मुझे लगता कि मैंने ऊंचे दर्जे का योगदान दिया है, और मैं आपदाओं में परमेश्वर की सुरक्षा पाने और जीवित रहने के योग्य हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि अचानक ही मुझे इस वायरस का संक्रमण हो जाएगा। मैंने परमेश्वर को गलत समझा और दोष दिया, अपनी बीमारी में परमेश्वर के सामने समर्पण करने का नहीं सोचा। इसके बजाय मैं परमेश्वर की मंजूरी पाने के तरीके सोचती रही, ताकि परमेश्वर मुझे बचा ले और मैं जल्दी ठीक हो जाऊँ। इसलिए जब मैंने अपनी तबीयत और बिगड़ती देखी, तो मैं परमेश्वर से निराश हो गई। मैंने उसे मुझे न बचाने और मेरे साथ बेइंसाफ़ी करने का दोष दिया। तथ्यों से पता चला कि मेरी आस्था और कर्तव्य सिर्फ आशीष पाने तक सीमित थे, इनमें परमेश्वर के प्रति ईमानदारी नहीं थी। मैं सिर्फ आशीष पाने के अपने लक्ष्य के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी, परमेश्वर के साथ सौदेबाजी और जालसाजी कर रही थी। मैं कितनी स्वार्थी और धूर्त थी! अनुग्रह के युग में, पौलुस ने पूरे यूरोप में घूमकर प्रभु के सुसमाचार का प्रचार किया, उसने बहुत कष्ट उठाए और भारी कीमत चुकाई, पर यह सब कुछ स्वर्ग के राज्य में जाने और पुरस्कार पाने के लिए था। उसने कहा, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। जिसका मतलब था कि अगर परमेश्वर ने उसे मुकुट नहीं दिया, तो परमेश्वर धार्मिक नहीं था। धार्मिक दुनिया के लोगों पर पौलुस के इन शब्दों का बहुत गहरा प्रभाव है। प्रभु के नाम पर काम करने और कष्ट उठाने वाले स्वर्ग में जाने और आशीष पाने के लिए ऐसा करते हैं। उन्हें आशीष न मिले तो वे परमेश्वर से बहस करते हैं, मैं भी उनके जैसी ही थी, नहीं क्या? मुझे अचानक डर लगने लगा। मैंने कभी कल्पना भी नही की थी कि मैं ऐसा स्वभाव उजागर करूंगी। ये हालात न आए होते, तो मुझे अब भी पता न चलता कि मेरा ऐसा गंभीर मसीह-विरोधी स्वभाव था। मैंने परमेश्वर के कुछ वचनों को याद किया : "मैंने पूरे समय मनुष्य के लिए बहुत कठोर मानक रखा है। अगर तुम्हारी वफादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहना चाहूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो मुझे अपने इरादों से धोखा देते हैं और शर्तों द्वारा मुझसे जबरन वसूली करते हैं। मैं मनुष्य से सिर्फ यही चाहता हूँ कि वह मेरे प्रति पूरी तरह से वफादार हो और सभी चीजें एक ही शब्द : आस्था—के वास्ते—और उसे साबित करने के लिए करे। मैं तुम्हारे द्वारा मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करने के लिए की जाने वाली खुशामद का तिरस्कार करता हूँ, क्योंकि मैंने हमेशा तुम लोगों के साथ ईमानदारी से व्यवहार किया है, और इसलिए मैं तुम लोगों से भी यही चाहता हूँ कि तुम भी मेरे प्रति एक सच्ची आस्था के साथ कार्य करो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर के वचनों से मुझे महसूस हुआ कि उसका स्वभाव धार्मिक, और पवित्र है, वह कोई अपमान बर्दाश्त नहीं करता। परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, और वह मनुष्य से ईमानदारी और निष्ठा चाहता है। अगर लोगों के प्रयासों में मंशाएं, मिलावटें, सौदेबाजी या छल-कपट छिपे हुए हैं, तो परमेश्वर न सिर्फ उन्हें पसंद नहीं करता, बल्कि उनसे नफरत और घृणा करता है, उनकी निंदा करता है। बिल्कुल पौलुस की तरह, जिसे आखिर में न सिर्फ परमेश्वर से आशीष नहीं मिली, बल्कि उसे नरक में दंडित किया गया। जिस तरह मेरे कर्तव्य में सौदेबाजी की मिलावट थी, उससे भी परमेश्वर को घृणा और नफरत हो रही होगी। मेरे बीमार पड़ने से परमेश्वर का धार्मिक और पवित्र स्वभाव उजागर हुआ था। इसके बाद, मैंने बीमारी को स्वीकार करते हुए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "एक सृजित प्राणी के रूप में, जब तुम सृष्टिकर्ता के सामने आते हो, तो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना उचित है, और यह तुम्हारे कंधों पर जिम्मेदारी है। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है। उसने मानवजाति पर कार्य का अगला कदम निष्पादित किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने, और शैतान के दुखों के अधीन न रहने में सक्षम हो जाते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का पालन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर तुम्हें केवल एक चीज स्पष्ट रूप से देखने और थोड़ा-सा सत्य ही समझने नहीं देता, न ही वह तुम्हें केवल एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेने में सक्षम बनाता है। इसके बजाय, वह तुम्हें शुद्ध होने और बचने, और अंततः, सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने का अवसर देता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे झकझोर दिया। कर्तव्य निभाना एक जिम्मेदारी और दायित्व है, जिससे सृजित प्राणी मुंह नहीं मोड़ सकता। यह सत्य हासिल करने और अपने स्वभाव को बदलने का एक रास्ता है। हमारे कर्तव्य में, परमेश्वर सभी तरह के हालात पैदा करता है, ताकि लोगों का भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो सके, फिर अपने वचनों के न्याय और प्रकाशन और अपने अनुशासन के जरिए वह हमें हमारे भ्रष्ट स्वभाव को समझने और बदलने देता है, ताकि शैतान हमें और नुकसान न पहुंचा सके। यह परमेश्वर की नेक इच्छा है। बरसों से अपना कर्तव्य निभाते हुए, मैंने परमेश्वर के बनाए परिवेशों के जरिए बहुत-सी भ्रष्टता दिखाई थी। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की थोड़ी समझ आई, तो मैं खुद से घृणा करते हुए प्रायश्चित और बदलाव में जुट गई, और कुछ-कुछ मनुष्य जैसी बन सकी। मैंने अपने कर्तव्य से इतना कुछ पाया था, फिर भी मैं कृतज्ञ नहीं थी। इसके बजाय मैं अपने कर्तव्य को किसी मुद्रा की तरह आशीषों की सौदेबाजी करने और आपदाओं से बचने के लिए इस्तेमाल कर रही थी, मैं परमेश्वर को धोखा देने और उसका इस्तेमाल करने जैसा बर्ताव कर रही थी। कितनी घिनौनी बात थी! परमेश्वर ने इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, पर मैंने उनका मोल नहीं समझा, और बस आशीष पाने, आपदाओं से बचने, राज्य में प्रवेश करने और इनाम पाने के बारे में ही सोचती रही। मैं सचमुच दुष्ट थी। मैंने प्रार्थना करके परमेश्वर के सामने कसम खाई कि मैं आशीषों के लिए कर्तव्य निभाना बंद कर दूँगी, और अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करते हुए परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाऊँगी। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे अभ्यास का रास्ता मिला। "अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, 'परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।' क्या यह गवाही देना नहीं हुआ? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, 'परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।' इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि 'यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और आज्ञाकारी रहूँगा। मैं बीमार होते हुए आज्ञाकारी कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?' जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारा मस्तिष्क स्वस्थ है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी 'हाँ' कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। और इसलिए, तुम लोगों को सत्य की खोज करनी चाहिए, अकसर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए, और यह सोचने में ज्यादा समय बिताना चाहिए कि 'मैं परमेश्वर की इच्छा पूरी कैसे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?' सृजित प्राणी क्या होता है? क्या सृजित प्राणी का कर्तव्य सिर्फ परमेश्वर के वचनों को सुनना है? नहीं—उसका कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को जीना है। परमेश्वर ने तुम्हें इतना सारा सत्य दिया है, इतना सारा मार्ग और इतना सारा जीवन दिया है, ताकि तुम इन चीजों को जी सको और उसकी गवाही दे सको। यही है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन करने में ही आगे का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर सृजन का प्रभु है और मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मेरी नियति उसके हाथों में है। उसने मुझ पर बीमारी आने दी, तो मैं जीऊँ या मरूँ, मुझे उसके विधान और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना चाहिए। एक सृजित प्राणी में यह बुनियादी समझ होनी चाहिए। कर्तव्य एक ऐसी चीज है जिसे सृजित प्राणी को निभाना चाहिए। मुझे हर वक्त, चाहे कुछ भी हो जाए, आखरी सांस तक अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। इतने बरसों से मैंने परमेश्वर के प्रेम का सुख भोगा है, पर सत्य का अनुसरण न करने के कारण, मैं हमेशा उससे विद्रोह करके उसका दिल दुखाती रही हूँ—मैं उसकी कितनी ज्यादा ऋणी हूँ। अब जब तक मैं जीऊंगी, अपना कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाती रहूँगी। आने वाले दिनों में मैं हर रोज यह सोचती रही कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट कैसे करूँ। मैं जिस बहन के साथ भागीदारी कर रही थी, वह कर्तव्य में नई होने के कारण सुसमाचार साझा करने के कई सिद्धांत नहीं जानती थी, इसलिए कई समस्याएँ आती रहती थीं। मैं ऑनलाइन जाकर उसकी मदद और मार्गदर्शन करती रहती। मैं अक्सर मन-ही-मन परमेश्वर के वचन पढ़ती और उसकी स्तुति वाले भजन गाती रहती। मुझे अब भी खांसी और बुखार था, पर अब मैं अपनी बीमारी से लाचार नहीं थी, और मैंने मरने-जीने के बारे में सोचना छोड़ दिया था। मैं जानती थी मेरी नियति परमेश्वर के हाथों में थी, और मेरे जीने की उम्र उसके विधान से निर्धारित थी। वह मुझे जब तक भी जिंदा रखता है, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और उसके प्रेम का मूल्य चुकाने की कोशिश करूंगी, समर्पण करूंगी और जब तक जीवित हूँ, कभी भी शिकायत नहीं करूँगी।
एक शाम मेरी खांसी रुक ही नहीं रही थी, और गले में बलगम जमा थी, मुझे तेज बुखार और पूरे शरीर में दर्द भी था। मैं बिस्तर पर लेटी बेचैनी से करवटें बदल रही थी और सो नहीं पा रही थी। मैं सोचने लगी, "क्या मैं मरने वाली हूँ? मुझे नींद आ गई तो क्या मैं कभी वापस भी उठूँगी?" मौत का विचार बहुत विचलित कर देने वाला था, और यह सोचकर कि शायद मुझे अब परमेश्वर के वचन पढ़ने का मौका न मिले, मैं लगातार रोती रही। फिर मैं उठ बैठी और अपना कंप्यूटर खोलकर परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ने लगी : "हर व्यक्ति का जीवन परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक दिखाई दे सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी है और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर परमेश्वर ने तुम्हें कोई आदेश दिया है, और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो तुम उस बीमारी से भी नहीं मरोगे जो प्राणघातक है—परमेश्वर अभी तुम्हें मरने नहीं देगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, अपना ख्याल न रखो, अपनी स्थिति को गंभीरता से न लो या इलाज न कराओ—मानो तुमने अपने इलाज में देरी कर दी हो—लेकिन तुम मर नहीं सकते। यह खास तौर से उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने परमेश्वर से एक आदेश प्राप्त किया है : जब तक उनका मिशन पूरा नहीं होता, उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे तब तक जियेँगे जब तक कि उनका मिशन पूरा नहीं हो जाता। क्या तुम्हें इस पर विश्वास है? ... हकीकत में, चाहे तुम अधिक समय के लिए सौदेबाजी करने की कोशिश करो, या अपनी बीमारी को बिल्कुल गंभीरता से न लो, परमेश्वर के नजरिये से, अगर तुम अपने कर्तव्य को पूरा कर सकते हो और अभी भी काम के हो, अगर परमेश्वर ने तय किया है कि वह तुम्हारा इस्तेमाल करेगा, तो तुम नहीं मरोगे। अगर तुम मरना भी चाहो तो नहीं मर सकते। लेकिन अगर तुम कोई परेशानी खड़ी करते हो, दुनिया भर के बुरे काम करते हो परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, तो तुम तुरंत मर जाओगे; तुम्हारे जीवन को छोटा कर दिया जाएगा। दुनिया को बनाने से पहले ही परमेश्वर ने सभी की जीवन अवधि तय कर दी थी। यदि लोग परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का पालन करें, तो फिर चाहे बीमारी आए चाहे न आए, उनका स्वास्थ्य अच्छा हो या खराब हो, वे उतने वर्ष तो जियेँगे ही जितने परमेश्वर ने पहले ही तय किए हैं। क्या तुम्हें इस पर विश्वास है?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों में मैंने उसके प्रेम और दया को महसूस किया, और मेरा दिल भर आया। मुझे परमेश्वर की इच्छा थोड़ी और समझ में आई। मेरा अंत के दिनों में जन्म लेना, परमेश्वर में विश्वास करना और कर्तव्य निभाना परमेश्वर द्वारा निर्धारित था, और यह उसका दिया एक मिशन भी था। अगर मेरा मिशन पूरा हो गया तो किसी बीमारी के बिना भी मुझे मरना होगा। वरना जानलेवा बीमारी होने के बाद भी मैं मरूँगी नहीं। मुझे नहीं पता था आगे क्या होने वाला था, पर जानती थी कि मैं अपना जीवन परमेश्वर के हाथों में सौंपकर उसकी व्यवस्थाओं का अनुसरण करूंगी। यह सोचकर कि मैं किसी भी पल मर सकती हूँ, मैं एक बार फिर परमेश्वर से दिल से बात करना चाहती थी। मैंने घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मुझे अपने घर में आने के लिए चुनने और अपनी वाणी सुनने देने के लिए धन्यवाद। तुम्हारे वचनों के भरपूर सिंचन और पोषण से मैंने बहुत-से सत्यों को जाना है, और एक इंसान होने के सिद्धांतों को समझा है। मुझे लगता है मेरी जिंदगी बेकार नहीं गई। पर मैं इतनी गहराई तक भ्रष्ट हूँ, हमेशा तुम्हारा विद्रोह करती और दिल दुखाती रही हूँ। मैं सत्य का ठीक-से अनुसरण नहीं कर पाई, न ही तुम्हारे प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए सच्चे मन से कर्तव्य निभा पाई। मैंने कभी भी तुम्हें कोई सुख नहीं दिया। मैं कितनी ऋणी हूँ तुम्हारी। मुझे नहीं पता तुम्हारे प्रेम का मूल्य चुकाने का मुझे कोई और मौका मिलेगा। अगर मैं जिंदा रही, तो मैं सचमुच सत्य का अनुसरण करना और अपने कर्तव्य से तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ...।"
उस रात मुझे झट-से नींद आ गई। अगली सुबह उठते ही, मैं बिल्कुल दुरुस्त महसूस करने लगी, जैसे मैं बीमार हुई ही नहीं थी। मेरा गला ठीक था, बलगम भी ज्यादा नहीं था। मैंने जल्दी से अपना तापमान जांचा तो यह बिल्कुल सामान्य था। मैं भाव-विभोर हो उठी। मैं जानती थी यह मेरे लिए परमेश्वर की दया और सुरक्षा थी। जब मुझे कोरोनावायरस हुआ था तो भले ही मैंने काफी विद्रोह और प्रतिरोध दिखाया था, पर परमेश्वर ने मेरे अपराधों पर ध्यान देने के बजाय मेरी देखभाल की थी। मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई और परमेश्वर का धन्यवाद और गुणगान करने लगी।
दो महीने बीत गए और इस बीच मेरा तापमान सामान्य ही रहा। वायरस वापस नहीं आया, और देखते-ही-देखते मैं पूरी तरह ठीक हो गई। इस महामारी में बहुत-से लोग मारे गए हैं, मैं बस परमेश्वर की चमत्कारिक देखभाल और उद्धार के कारण बच गई। इस वायरस से संक्रमित होने से मेरी आस्था और कर्तव्य की मंशाओं और मिलावटों की पोल खुल गई थी, मैं परमेश्वर से आशीषों के लिए सौदेबाजी करने की अपनी दुष्ट मंशा को देख पाई थी, और खुद को समझने के बाद मुझे खुद पर कोफ्त होने लगी थी। साथ ही, मुझे परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक स्वभाव की समझ और व्यवहारिक अनुभव हासिल करने का भी अवसर मिला था, मैंने परमेश्वर के विधान और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर दिया। इन हालात के जरिए मुझे कुछ पीड़ा और परिशोधन का अनुभव हुआ, पर मुझे बहुत कुछ ऐसा मिला जिसे मैं किसी सुविधाजनक हालात में नहीं पा सकती थी। जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ कि इस अनुभव से मैंने क्या पाया, तो परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता और प्रशंसा से भर जाती हूँ। मैं परमेश्वर के प्यार और उद्धार के लिए उसकी शुक्रगुजार हूँ!
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