आशीष पाने के पीछे भागने से आई जागृति

03 सितम्बर, 2024

1994 में, मेरी माँ प्रभु यीशु में विश्वास करती थी। तीन महीने के भीतर, उनका कोरोनरी हृदय रोग ठीक हो गया, जिसमें मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसकी आशीष दिखी। मैंने सोचा कि अगर मैं ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करूँगी, तो वह हमारे परिवार की सुरक्षा करेगा और हमें बीमारी और आपदा से दूर रखेगा। इस तरह मैंने प्रभु में विश्वास करने में अपनी माँ का अनुसरण किया। तब से, मैंने सक्रियता से सभाओं में भाग लिया, और कारोबार करते हुए भी मैंने प्रभु की आशीषों को देखा; मैं बहुत आभारी थी।

1 जून, 2002 को मैंने प्रभु यीशु के आगमन का सुसमाचार सुना, मुझे पता चला कि प्रभु आखिरी बार लोगों को बचाने का कार्य करने के लिए देह में लौटा है। मैंने सोचा मैं बहुत धन्य हूँ, और मुझे इस आखिरी मौके का फायदा उठाकर लगन से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। उसी नवंबर में, मैंने अपना लकड़ी का कारोबार छोड़ दिया और सारा समय अपना कर्तव्य निभाने में लगा दिया। मैंने मन में सोचा, “अगर मैं ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करूँगी, उसके लिए दौड़-भागकर खुद को खपाऊँगी, तो वह मुझे आशीष देगा और सुनिश्चित करेगा कि सब कुछ अच्छा हो।” मैं सुबह से शाम तक कलीसिया में व्यस्त रहती, हमेशा इसका आनंद लेती और कभी थकती नहीं थी। 2012 में, मैं अपने बेटे को परमेश्वर के घर लाई। उसके बाद, मैंने अपने बेटे के साथ मिलकर कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाया। मैंने मन में सोचा : उन वर्षों में, मैंने और मेरे बेटे ने अपना सब कुछ त्यागकर सारा समय परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में लगा दिया; हमें परमेश्वर की सुरक्षा और आशीष जरूर मिलेगी। मगर जब मैं ज्यादा बड़ी आशीषें पाने के लिए तत्परता से खुद को खपा रही थी, अचानक हुई एक घटना ने आशीष पाने के मेरे सपने को चकनाचूर कर दिया।

17 अक्टूबर, 2020 को शाम 6 बजे के बाद, मुझे मेरे बेटे का फोन आया। उसने मायूस आवाज में कहा, “माँ, मैं बीमार पड़ गया हूँ, जल्दी आओ!” तब, मुझे इस खबर पर यकीन नहीं हुआ, और मैंने कहा, “मैंने तुम्हें दोपहर में देखा था तो तुम ठीक लग रहे थे; कुछ घंटे पहले की तो बात है, फिर अचानक बीमार कैसे पड़ गए?” मेरे बेटे ने बेसब्र होकर कहा, “माँ, ये बीमारी बहुत गंभीर है! तुरंत आओ!” मैं फटाफट टैक्सी लेकर अपने बेटे के पास पहुँची। जैसे ही कमरे के अंदर आई, मेरे बेटे ने कहा, “माँ, मैं खड़ा नहीं हो पा रहा। शरीर का निचला हिस्सा सुन्न हो गया है।” मैंने अपने बेटे को देखा, वो चल नहीं पा रहा था, मेरा दिमाग सन्न रह गया। उसके बगल में खड़े छोटे भाई ने कहा, “हमें फौरन इसे अस्पताल लेकर जाना होगा!” फिर मैं होश में आई, छोटे भाई और मैंने मिलकर अपने बेटे को खड़ा किया और हम नीचे जाने ही वाले थे, पर मेरे बेटे के पैर नूडल्स जैसे कोमल हो गए थे, और वह एक कदम भी नहीं चल पा रहा था। हमें कुछ समझ नहीं आया, तो हमने 1066 पर फोन किया और वे लोग ही उसे अस्पताल लेकर गए। डॉक्टर ने कहा, “ये लक्षण गुइलेन-बैरे सिंड्रोम के लगते हैं, पर इस बीमारी का इलाज आसान नहीं है। हाल ही में, हमारे अस्पताल की एक नर्स को भी यही बीमारी हुई थी। उसने 60-70 हजार युआन खर्च दिए, फिर भी ठीक नहीं हुई; और वो मर गई।” यह बहुत बड़ा झटका था, एकदम से मेरी टाँगें कमजोर पड़ गईं। मैं बहुत घबराई हुई थी, सोच रही थी, “मेरे बेटे को अचानक इतनी भयानक बीमारी कैसे हो सकती है? मेरा बेटा और मैं घर छोड़कर यहाँ अपना कर्तव्य निभाने आए थे; हमारे साथ ऐसा कैसे हो गया? परमेश्वर ने हमारी रक्षा क्यों नहीं की?” मैं इस सच पर यकीन नहीं कर पाई। डॉक्टर ने हमें तुरंत प्रांतीय अस्पताल में जाने के लिए कहा, क्योंकि वहाँ बीमारी ठीक होने की संभावना अधिक होगी। मेरे दिल में आशा की किरण जगी। मगर जब मैं बेटे के अस्पताल वाले कमरे में लौटी और उसे वहाँ पड़ा हुआ देखा, तो मेरा दिल बैठ गया। अब, मेरे पास बस 20 हजार युआन ही बचे थे; यह उसके इलाज के लिए काफी नहीं थे! मैं परमेश्वर को दोषी ठहराने से खुद को नहीं रोक सकी : मैं इतने सालों से घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभा रही थी। मैंने कलीसिया द्वारा सौंपे गए किसी भी कर्तव्य के लिए कभी “ना” नहीं कहा। इसी तरह मैंने खुद को खपाया; परमेश्वर मेरे बेटे के साथ ऐसा कैसे होने दे सकता है? मैं बिस्तर पर लेटी करवटें बदल रही थी, सो नहीं पा रही थी। मेरे मन में लगातार कुछ-न-कुछ चल रहा था, “परमेश्वर मेरे बेटे को मरने नहीं देगा, है न? शायद यह परमेश्वर का परीक्षण है, और वह हमारी आस्था की परीक्षा ले रहा है? या फिर शायद सूरज निकलने तक मेरा बेटा ठीक हो जाएगा?” मैं पूरी रात ऐसे ही दिमाग दौड़ाती रही, और अगले दिन फौरन अपना कर्तव्य किसी और को सौंपकर अपने बेटे को प्रांतीय अस्पताल ले गई। ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर ने मेरे बेटे की स्थिति की जाँच करने के बाद कहा, “वैसे तो लक्षण गुइलेन-बैरे सिंड्रोम जैसे ही दिखते हैं, पर पक्का पता चलने के लिए अगले दिन तक इंतजार करना होगा, तभी हम दवाई देकर इस बीमारी का इलाज करेंगे। आज आपको कड़ी नजर रखनी होगी; उसकी साँस अटक गई तो शायद आप उसे खो भी सकती हैं।” यह सुनकर मैं अवाक रह गई। क्या मेरा बेटा सचमुच मौत से बच नहीं पाएगा? मैं सच में डरी हुई थी कि शायद मेरा बेटा आज रात ही गुजर जाए। इस बारे में जितना सोचा, उतना ही डर लगा, तो मैंने फौरन मन में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मेरे बेटे को बचा लो। तुम सर्वशक्तिमान हो, तुम हाथ बढ़ाओगे, तो उसे मरना नहीं पड़ेगा। परमेश्वर, मैं तुमसे और कुछ नहीं माँगूंगी; बस मेरे बच्चे की रक्षा करना और उसे मरने मत देना...” प्रार्थना के बाद, मेरा दिल थोड़ा शांत हुआ। उस रात, मैंने निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना की, और एक पल के लिए भी बेटे से नजर नहीं हटाई। जब भी मैंने उसे जोर-जोर से हाँफते हुए सुना, उसे तुरंत जगा दिया। मुझे डर था कि उसका दम घुट जायेगा। तीसरी सुबह, मेरे बेटे को एक्यूट ट्रांसवर्स मायलिटिस होने का पता चला। मुख्य डॉक्टर ने कहा, “अगर वह नहीं मरता, तो आसानी से लकवाग्रस्त हो सकता या फिर निष्क्रिय अवस्था में जा सकता है।” डॉक्टर की बातें सुनकर मैं फूट-फूटकर रोने वाली थी। मैंने मन में सोचा, “अगर वह लकवाग्रस्त या निष्क्रिय बन जाता है, तो क्या उसका बाकी जीवन समाप्त नहीं हो जाएगा?” फिर, डॉक्टर ने मुझे बताया कि हार्मोन वाली दवाओं का उपयोग करना बहुत जोखिम भरा होगा, और उसने मुझसे एक सूचित सहमति फॉर्म पर दस्तखत कराया। उस वक्त ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ काँप रहे थे। मुझे डर था कि अगर मैंने इस पर दस्तखत किए, और दवा के दुष्प्रभाव हुए, तो बेटे का बाकी जीवन भी समाप्त हो जाएगा। और अगर दस्तखत नहीं किए, तो यह बीमारी के इलाज से इनकार करने और उसके मरने का इंतजार करने के समान था। तब मैंने थोड़ा संकोच किया, और मन ही मन सोचा, “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और सब कुछ उसके हाथों में है, मेरे बेटे की बीमारी भी। मुझे शांत होकर सब कुछ परमेश्वर पर छोड़ देना चाहिए।” फिर मैंने फॉर्म पर दस्तखत कर दिए। मेरे बेटे को हार्मोन वाली दवाएं दिए जाने के बाद, दूसरे दिन उसके पैरों में थोड़ी सी हरकत लौटी, और तीसरे दिन वह थोड़ा हिल-डुल पा रहा था। मैं बहुत भावुक थी, मैंने मन में मन बार-बार परमेश्वर को धन्यवाद दिया। मगर मैंने जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, वह चौथे दिन की सुबह को हुआ, मैं अपना फोन बेटे को दे रही थी, जब उसके हाथ की ताकत अचानक खत्म हो गई और फोन “धम्म” से बिस्तर पर गिर गया। यह देखकर, मैं सन्न रह गई : यह चल क्या रहा है? बीमारी अचानक इतनी गंभीर क्यों हो गई? मैंने फौरन डॉक्टर को फोन किया, तो डॉक्टर ने बताया, “यह वायरस शरीर के जिस भी हिस्से पर हमला करेगा, उसे पंगु बना देगा। अब, इसने ऊपरी अंगों पर हमला किया है, अगर यह थोड़ा और ऊपर की ओर बढ़ता है, तो दिमाग पर भी असर डाल सकता है। अगर चीजें इसी तरह चलती रहीं, तो वह निष्क्रिय अवस्था में जा सकता है। आपको इसके लिए तैयार रहना होगा।” ये सुनकर ऐसा लगा जैसे मेरे ऊपर कोई बम फट गया हो। मैंने मन में सोचा, “अगर वह निष्क्रिय हो जाता है, तो क्या यह मरने जैसा नहीं होगा?” मैं बहुत डरी हुई थी, मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरा बेटा अभी जवान है। इन कुछ वर्षों से उसने हर समय कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाया है। उसकी रक्षा करना। मैं अपना बेटा तुम्हें सौंपती हूँ; वह जियेगा या मरेगा इसका फैसला तुम ही करो।”

बाद में, मेरे बेटे की जान का खतरा टल गया, और वायरस को उसके दिमाग तक पहुँचने से भी रोक लिया गया। मुझे उम्मीद दिखी, मैंने रोते-रोते परमेश्वर से प्रार्थना की और आभार व्यक्त किया। आधे महीने तक सब कुछ इसी तरह चलने के बाद, डॉक्टर ने उसकी शारीरिक कार्यप्रणाली को ठीक करने के लिए उसे किसी पुनर्वास केंद्र में भेजने का सुझाव दिया। पुनर्वास केंद्र में पहुँचने पर, डॉक्टर ने कहा, “इस बीमारी से उबरने का सबसे अच्छा समय पहले तीन महीनों के भीतर का है। आपके बेटे की बीमारी की गंभीरता को देखते हुए, उसके दोबारा खड़े होने की संभावना कम है। अगर वह अगले तीन महीनों के भीतर खड़ा नहीं हो पाता है, तो फिर कभी खड़ा नहीं हो पाएगा।” एक दिन, मैं अपने बेटे के पुनर्वास केंद्र में गई, और जब मैंने उसे बिस्तर पर लकवाग्रस्त पड़े देखा, और उसके चेहरे पर चिंता देखी, तो अंदर से बहुत बुरा लगा। मैंने मन में सोचा, “मैंने इतनी खुशी से परमेश्वर में विश्वास किया, मेरी एकमात्र आशा यही है कि वह मेरे बेटे को और मुझे सुरक्षित रखे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा बेटा अचानक निष्क्रिय हो जाएगा और चल-फिर नहीं सकेगा, और अब तो यह भी निश्चित नहीं है कि वह दोबारा खड़ा हो पाएगा या नहीं। यह सब कब खत्म होगा?” मैंने उस बारे में सोचा जो एक बहन ने मुझे याद दिलाया था : “यह कोई संयोग नहीं है कि तुम्हारे बेटे को अचानक इतनी गंभीर बीमारी हो गई। कभी-कभी, परमेश्वर हमारे अंदर के भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ करने के लिए किसी खास परिस्थिति का इस्तेमाल करता है।” मैंने सोचा कि वास्तव में परमेश्वर की मंशा क्या रही होगी, और फिर अपना फोन उठाकर परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध मनुष्य पर उतारा और उसकी सारी सुख-शांति छीन ली जो उसके पास कभी थी, तो मनुष्य शंकालु हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर का हरेक वचन मेरे हृदय में गूंजने लगा। उसने उजागर किया है कि परमेश्वर पर अपने विश्वास में लोगों के विचार गलत हैं, इसके पीछे सभी के अपने निजी इरादे और लक्ष्य होते हैं। वे अनुग्रह और लाभ पाने के लिए परमेश्वर से माँगें और अनुरोध करते हैं। मैं भी वैसी ही इंसान थी। शुरू में, मैंने देखा कि जब मेरी माँ ने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया, तो उनका गंभीर कोरोनरी हृदय रोग ठीक हो गया। अपनी आँखों से परमेश्वर की आशीष देखकर ही मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, उसके लिए त्याग किए और खुद को खपाया। मैं यह भी चाहती थी कि परमेश्वर मेरी रक्षा करे, मुझे सुरक्षित रखे और पक्का करे कि सब कुछ ठीक चलता रहे। चाहे बीमारी हो, आपदा हो या मुझे किसी भी कठिनाई का सामना करना पड़े, मैं हमेशा परमेश्वर को मदद के लिए पुकारती थी। मैंने परमेश्वर को अपना आश्रय मान लिया था। अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, मैं उसके लिए भाग-दौड़ करने और खुद को खपाने के लिए और भी तैयार थी, यह सोचकर कि अगर इसी तरह अनुसरण करती रही, तो मुझे यकीनन परमेश्वर से ज्यादा आशीषें मिलेंगी। मगर जब मेरा बेटा गंभीर रूप से बीमार पड़ गया और वह लकवाग्रस्त हो सकता था या मर सकता था, तो मैं इसे स्वीकार नहीं सकी, मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की, उसके साथ तर्क किया और हिसाब माँगा। मैंने हिसाब लगाया कि मैंने अतीत में खुद को कितना खपाया था, और इसे पूँजी के तौर पर इस्तेमाल कर परमेश्वर से अपने बेटे की बीमारी ठीक करने की मांग की, मैंने मान लिया कि वह ऐसा ही करेगा। मैं उन धार्मिक लोगों जैसी थी जो खुद को परमेश्वर के हाथों में शिशु मानते हैं; मैंने परमेश्वर को ऐसा परमेश्वर माना जो लोगों की हर विनती सुनता है और लोगों पर सिर्फ अनुग्रह और आशीष बरसाता है। अगर मैं उससे कुछ माँग करती हूँ, तो वह मुझे जरूर संतुष्ट करेगा। भले ही मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण किया, पर क्या मेरा विश्वास करने का तरीका उन धार्मिक लोगों जैसा ही नहीं था? यह अनुग्रह के युग जैसा है, जब प्रभु यीशु ने पाँच रोटियों और दो मछलियों से पाँच हजार लोगों को खाना खिलाया था। ये लोग परमेश्वर से बस लाभ पाना चाहते थे। वे परमेश्वर को नहीं जानते थे, और न ही कभी उसके द्वारा व्यक्त सत्यों और या उसके कार्य में रुचि लेते थे। परमेश्वर ने इन लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया, सिर्फ उनकी दैहिक जरूरतों को पूरा किया और उन पर कोई उद्धार कार्य नहीं किया। अंत के दिनों में परमेश्वर जो करता है वह बीमारों को ठीक करने और दुष्टात्माओं को बहिष्कृत करने का नहीं, बल्कि लोगों का न्याय कर उन्हें शुद्ध करने के लिए सत्य व्यक्त करने का कार्य है, ताकि वो अपनी भ्रष्टता से मुक्त होकर परमेश्वर का उद्धार पा सकें। मगर मैं इतने सालों से सिर्फ आशीष और लाभ पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास कर रही थी। ऐसा अनुसरण परमेश्वर के कार्य के उलट था, तो मैं कैसे बचाई जा सकती थी? तब, मैं समझ गई कि मेरे बेटे की बीमारी परमेश्वर की अनुमति से हुई थी, यह मुझे सत्य खोजकर उसमें प्रवेश करने में मदद के लिए था। मगर, मैं परमेश्वर के कार्य को नहीं समझ पाई, और न ही मैंने सत्य पाने के लिए परमेश्वर के इरादे को खोजा, मैं बस इतना चाहती थी कि वह मेरे बेटे की रक्षा करे और उसे आशीष दे, ताकि उसकी बीमारी जल्द से जल्द ठीक हो जाए। मैं उन धार्मिक लोगों के समान थी जो भूख मिटाने के लिए रोटी खोजते थे; मुझमें एक छद्म-विश्वासी का सार था! अब मैं परमेश्वर से अनुचित माँगें नहीं कर सकती थी। चाहे मेरे बेटे की हालत कितनी भी खराब क्यों न हो, मैं परमेश्वर का कार्य स्वीकारने और उसका अनुभव करने को तैयार थी।

आगे चलकर, मेरे बेटे को हर दिन छह तरह की पुनर्वास ट्रेनिंग करनी पड़ी। हर बार जब वह कोई ट्रेनिंग पूरी करता, तो उसे बहुत पसीना आता। करीब आधे महीने बाद, उसके दोनों हाथ-पैरों में कुछ संवेदना लौटी। मैंने सुरंग के अंत में रोशनी की एक किरण देखी, और रोज मैं कोई चमत्कार होने की उम्मीद करती कि एक दिन मेरा बेटा फिर से खड़ा हो सकेगा। लेकिन चीजें वैसी नहीं हुईं जैसी कि मैंने सोची थी।

एक दिन, मैं अपने बेटे के साथ उसकी ट्रेनिंग में थी, और उसने अपनी पैंट में ही शौच कर दिया। उस समय, ऐसा दृश्य देखकर मैं बेहद परेशान हो गई। भले ही मेरे बेटे की जान अब खतरे में नहीं थी, पर हर दिन पेशाब की थैली और डायपर लगा रहता था। इस तरह जीना बहुत दर्दनाक था! मेरा बेटा अभी 30 साल का ही था, अभी बहुत जवान था; वह भविष्य में इस तरह कैसे जी सकेगा? मुझे अपने दिल में थोड़ी निराशा महसूस हुई, और मैंने परमेश्वर के सामने आकर चुपचाप प्रार्थना की, “परमेश्वर! अगर मेरा बेटा अपना खयाल नहीं रख सकता, तो भविष्य में कैसे जियेगा? परमेश्वर, मुझे तुम्हारी सामर्थ्य में विश्वास है। अगर मेरा बेटा फिर से खड़ा हो सके, तो मैं यकीनन कड़ी मेहनत करूँगी और अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाऊँगी।” मुझे एहसास हुआ कि ऐसी प्रार्थना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं थी। तो मैंने आत्म-चिंतन किया। मैंने कहा था कि मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ, तो फिर मैंने परमेश्वर से दोबारा माँग क्यों की? तब, मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “तुम लोग लालायित रहते हो कि परमेश्वर तुम पर प्रसन्न हो, मगर तुम लोग परमेश्वर से दूर हो। यह क्या मामला है? तुम लोग केवल उसके वचनों को स्वीकार करते हो, उसके द्वाराकाट-छाँट को नहीं, उसके प्रत्येक प्रबंध को स्वीकार करने, उस पर पूर्ण विश्वास रखने में तो तुम बिल्कुल भी समर्थ नहीं हो। तो आखिर मामला क्या है? अंतिम विश्लेषण में, तुम लोगों का विश्वास अंडे के खाली खोल के समान है, जो कभी चूज़ा पैदा नहीं कर सकता। क्योंकि तुम लोगों का विश्वास तुम्हारे लिए सत्य लेकर नहीं आया है या उसने तुम्हें जीवन नहीं दिया है, बल्कि इसके बजाय तुम लोगों को पोषण और आशा का एक भ्रामक बोध दिया है। पोषण और आशा का बोध ही परमेश्वर पर तुम लोगों के विश्वास का उद्देश्य है, सत्य और जीवन नहीं। इसलिए मैं कहता हूँ कि परमेश्वर पर तुम लोगों के विश्वास का आधार चापलूसी और बेशर्मी से परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं रहा है, और उसे किसी भी तरह से सच्चा विश्वास नहीं माना जा सकता। इस प्रकार के विश्वास से कोई चूज़ा कैसे पैदा हो सकता है? दूसरे शब्दों में, इस तरह के विश्वास से क्या हासिल हो सकता है? परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन लक्ष्य पूरे करने में उसका उपयोग करना है। क्या यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के स्वभाव के अपमान का एक और तथ्य नहीं है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़कर शर्मिंदगी से मेरे गाल लाल हो गए। इन वचनों से ऐसा लगा मानो परमेश्वर मेरे सामने ही मेरा न्याय कर रहा है। जब डॉक्टर ने कहा कि मेरे बेटे की बीमारी ठीक होने की संभावना नहीं है, तो मैं परमेश्वर से सारी उम्मीद लगाकर बैठ गई, उसकी खुशामद और चापलूसी करने के लिए मीठी-मीठी बातें बोलीं। जब परमेश्वर ने मेरे बेटे की रक्षा की और उसे मौत के मुँह से वापस लाया, तो मैंने खुशी से उसका धन्यवाद किया। मेरे बेटे ने हार नहीं मानी थी, मगर फिर उस पर पंगु होने या निष्क्रिय अवस्था में जाने का खतरा मंडराया, तब फिर से मैंने परमेश्वर से माँग की कि मेरे बेटे को निष्क्रिय अवस्था में जाने से बचाए, मैंने तो परमेश्वर को लालच देते हुए अनुरोध किया कि अगर वह मेरे बेटे को खुद की देखभाल करने में सक्षम बनाता है, तो मैं निश्चित ही अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाऊँगी और उसके प्रेम का बदला चुकाऊँगी। मैंने देखा कि परमेश्वर से मेरी बेशर्मी भरी खुशामद सिर्फ अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए थी। मैं सच में बहुत नीच थी! मैंने परमेश्वर के बारे में वैसे ही सोचा जैसे भ्रष्ट इंसान के बारे में सोचती थी, सोचा कि उसे चापलूसी पसंद हैं। मैंने सोचा कि अगर मैं मीठी-मीठी बातें कहूँगी, तो परमेश्वर खुश होगा और फिर मुझे लाभ देगा, और मेरे बेटे की बीमारी ठीक हो जाएगी। परमेश्वर धार्मिक और भरोसेमंद है, वह चाहता है कि लोग अपने दिल से और ईमानदारी से उसकी आराधना करें, सच्चे दिल से उसके साथ पेश आएँ, फिर भी मैंने अपने निजी लक्ष्यों की खातिर परमेश्वर की चापलूसी की और खुशामद किया। परमेश्वर ऐसी चीजों से घृणा करता है। इस बार, मैंने परमेश्वर की विचारशीलता को अनुभव किया था। अगर उसने ऐसी परिस्थितियाँ नहीं बनाई होती, तो मैं कभी नहीं समझ पाती कि इतने सालों से मेरा विश्वास बस सुरक्षा और आशीष पाने के लिए था। अगर मैं जीवन भर इसी तरह परमेश्वर में विश्वास करती रही, तो भी मुझे सत्य और जीवन कभी नहीं मिलेगा। मेरे लिए, ये परिस्थितियाँ जबरदस्त उद्धार थीं, दया का प्रदर्शन थीं। यह एहसास होने पर, मेरी आँखों से ऋणी होने और आत्म-ग्लानि के आँसू छलक उठे। मुझे पछतावा हुआ कि मैंने परमेश्वर के खिलाफ इतना अधिक विद्रोह किया, उसकी खुशामद की और उसका इस्तेमाल किया; मैंने उसे परमेश्वर नहीं माना। मगर, परमेश्वर ने मेरे साथ मेरे कर्मों के अनुसार व्यवहार नहीं किया, बल्कि उसने अपने वचनों के जरिये उसका इरादा समझने में मेरा मार्गदर्शन किया। इस बार तो मैं परमेश्वर का प्रेम और उद्धार पाकर पहले से कहीं ज्यादा शर्मिंदा थी। मैंने परमेश्वर से चुपचाप प्रार्थना की, “परमेश्वर, चाहे मेरा बेटा भविष्य में खुद की देखभाल कर सके या नहीं, मैं समर्पण करने, सत्य खोजने, तुम्हारे वचनों और कार्यों का अनुभव करने, और इन परिस्थितियों से सबक सीखने के लिए तैयार हूँ।”

एक दिन, जब मैं अपने बेटे के साथ उसकी ट्रेनिंग में थी, तो अनजाने में ही परमेश्वर में मेरी आस्था की सारी यादें ताजा हो गईं : जब मेरी माँ का गंभीर कोरोनरी हृदय रोग ठीक हो गया, तो मैंने प्रभु से आशीषें माँगीं। जब मैंने कारोबार किया, तब भी मुझे यह उम्मीद थी कि प्रभु सब कुछ सहज रूप से चलाएगा। परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकारने के बाद, मैंने थोड़ा त्याग किया और खुद को खपाया, लेकिन यह अभी भी उससे अनुग्रह और आशीष माँगने के लिए ही था। फिर, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “मनुष्य का स्वभाव अत्यंत शातिर बन गया है, उसकी समझ अत्यंत मंद हो गई है, और उसका अंतःकरण उस दुष्ट द्वारा पूरी तरह से रौंद दिया गया है और वह बहुत पहले से मनुष्य का मौलिक अंतःकरण नहीं रहा है। मानवजाति को बहुत अधिक जीवन और अनुग्रह प्रदान करने के लिए मनुष्य देहधारी परमेश्वर का न केवल एहसानमंद नहीं है, बल्कि परमेश्वर द्वारा उसे सत्य दिए जाने पर वह क्रोधित भी हो गया है; ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य को सत्य में थोड़ी-सी भी रुचि नहीं है, इसीलिए वह परमेश्वर के प्रति क्रोधित हो गया है। मनुष्य देहधारी परमेश्वर के लिए न सिर्फ अपनी जान देने में अक्षम है, बल्कि वह उससे अनुग्रह हासिल करने की कोशिश भी करता है, और ऐसे सूद का दावा करता है जो उससे दर्जनों गुना ज्यादा है जो मनुष्य ने परमेश्वर को दिया है। ऐसे विवेक और समझ वाले लोगों को यह कोई बड़ी बात नहीं लगती, और वे अब भी यह मानते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए स्वयं को बहुत खपाया है, और परमेश्वर ने उन्हें बहुत थोड़ा दिया है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो मुझे एक कटोरा पानी देने के बाद अपने हाथ पसारकर माँग करते हैं कि मैं उन्हें दो कटोरे दूध की कीमत चुकाऊँ, या मुझे एक रात के लिए कमरा देने के बाद मुझसे कई रातों के किराए की माँग करते हैं। ऐसी मानवता और ऐसे विवेक के साथ तुम अब भी जीवन पाने की कामना कैसे कर सकते हो? तुम कितने घृणित अभागे हो! इंसान की ऐसी मानवता और विवेक के कारण ही देहधारी परमेश्वर पूरी धरती पर भटकता फिरता है और किसी भी स्थान पर आश्रय नहीं पाता। जिनमें सचमुच विवेक और मानवता है, उन्हें देहधारी परमेश्वर की आराधना और सच्चे दिल से सेवा इसलिए नहीं करनी चाहिए कि उसने बहुत कार्य किया है, बल्कि तब भी करनी चाहिए अगर उसने कुछ भी कार्य न किया होता। सही समझ वाले लोगों को यही करना चाहिए, यही मनुष्य का कर्तव्य है। अधिकतर लोग परमेश्वर की सेवा करने के लिए शर्तों की बात भी करते हैं : वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वह परमेश्वर है या मनुष्य, वे सिर्फ अपनी शर्तों की ही बात करते हैं, और सिर्फ अपनी इच्छाएँ पूरी करने की ही कोशिश करते हैं। जब तुम लोग मेरे लिए खाना पकाते हो तो तुम सेवा-शुल्क की माँग करते हो, जब तुम मेरे लिए भाग-दौड़ करते हो तो तुम लोग मुझसे भाग-दौड़ करने का शुल्क माँगते हो, जब तुम मेरे लिए काम करते हो तो काम करने का शुल्क माँगते हो, जब तुम मेरे कपड़े धोते हो तो कपड़े धोने का शुल्क माँगते हो, जब तुम कलीसिया को कुछ प्रदान करते हो तो घाटे से उबरने की लागत माँगते हो, जब तुम बोलते हो तो बोलने का शुल्क माँगते हो, जब तुम पुस्तकें बाँटते हो तो वितरण-शुल्क माँगते हो, और जब तुम लिखते हो तो लिखने का शुल्क माँगते हो। जिन लोगों की मैंने काट-छाँट की है, वे भी मुझसे मुआवजा माँगते हैं, जबकि जिन्हें घर भेज दिया गया है, वे अपने नाम के नुकसान की भरपाई माँगते हैं; जो अविवाहित हैं वे दहेज की या अपनी खोई हुई जवानी के लिए मुआवजे की माँग करते हैं, जो मुर्गा काटते हैं वे कसाई के शुल्क की माँग करते हैं, जो खाना पकाते हैं वे पकाने का शुल्क माँगते हैं, और जो सूप बनाते हैं वे उसके लिए भी भुगतान माँगते हैं...। यह तुम लोगों की ऊँची और शक्तिशाली मानवता है, और ये तुम लोगों के स्नेही विवेक द्वारा निर्धारित कार्य हैं। तुम लोगों की समझ कहाँ है? तुम लोगों की मानवता कहाँ है? मैं तुम लोगों को बता दूँ! यदि तुम लोग ऐसे ही करते रहे, तो मैं तुम लोगों के मध्य कार्य करना बंद कर दूँगा। मैं मनुष्य के भेस में जंगली जानवरों के झुंड के बीच कार्य नहीं करूँगा, मैं ऐसे समूह के लोगों के लिए दुःख नहीं सहूँगा जिनका उजला चेहरा जंगली हृदय को छुपाए हुए है, मैं ऐसे जानवरों के झुंड के लिए कष्ट नहीं झेलूँगा जिनके उद्धार की थोड़ी-सी भी संभावना नहीं है। जिस दिन मैं तुम सबसे मुँह मोड़ लूँगा, उसी दिन तुम लोग मर जाओगे, उसी दिन तुम लोगों पर अंधकार छा जाएगा, और उसी दिन प्रकाश द्वारा तुम्हें त्याग दिया जाएगा। मैं तुम लोगों को बता दूँ! मैं तुम लोगों जैसे समूह पर कभी दयालु नहीं बनूँगा, ऐसा समूह जो जानवरों से भी बदतर है! मेरे वचनों और कार्यकलापों की सीमाएँ हैं, और जैसी तुम लोगों की मानवता और विवेक हैं, उसके चलते मैं और कार्य नहीं करूँगा, क्योंकि तुम लोगों में विवेक की बहुत कमी है, तुम लोगों ने मुझे बहुत अधिक पीड़ा दी है, और तुम लोगों के घृणित व्यवहार से मुझे बहुत घिन आती है! जिन लोगों में मानवता और विवेक की इतनी कमी है, उन्हें उद्धार का अवसर कभी नहीं मिलेगा; मैं ऐसे हृदयहीन और कृतघ्न लोगों को कभी नहीं बचाऊँगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। पहले, जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा था, तो कभी भी इसकी तुलना खुद से नहीं की थी और इन लोगों को नीची नजरों से भी देखती थी। मेरा मानना था कि जो लोग परमेश्वर से माँग करते हैं और उससे हिसाब बराबर करते हैं, उनमें कितनी कम मानवता होगी! आज इन वचनों को पढ़कर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। यह मेरे गाल पर एक तमाचा था; यह बहुत शर्मिंदगी भरा था। क्या मैं भी ठीक ऐसी ही इंसान नहीं थी? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मैंने सोचा था कि परमेश्वर मेरे परिवार को सुरक्षित और आपदा से दूर रखेगा। मैंने ज्यादा आशीष पाने के लिए सब कुछ त्याग दिया; मैंने हर कर्तव्य अपनी इच्छा से निभाया, और सोचा कि मैंने खुद को खपाया है, तो परमेश्वर मुझे अनुग्रह और आशीष देगा। यह संसार में अपने लिए बीमा खरीदने जैसा था। अगर मैं अपनी पूँजी का इस्तेमाल बीमा लेने में करती हूँ, तो मेरे निजी हित सुरक्षित रहेंगे, और मुझे वो बोनस मिलेंगे जिसकी मैं हकदार हूँ। उसी तरह, अगर मैं खुद को परमेश्वर के लिए खपाती रहूँगी, उसे मेरी सभी माँगें पूरी करनी होंगी। मैंने सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने को परमेश्वर से माँग करने वाली पूँजी में बदल दिया, और जितना मैंने खुद को खपाया था आशीषें भी उससे दर्जनों गुना ज्यादा चाहिए थीं। जब मेरा बेटा बीमार हुआ, तो मैंने हिसाब लगाया कि मैंने इन वर्षों में खुद को कितना खपाया था, और माना कि परमेश्वर मेरे बेटे की बीमारी निश्चित ही ठीक कर देगा। मैंने लालच में परमेश्वर से यह भी माँगा कि वह कोई चमत्कार करे ताकि मेरा बेटा फिर से खड़ा हो सके और अपनी देखभाल खुद कर सके। मैंने सोचा कि अगर मैं परमेश्वर में विश्वास रखूँगी, उसे मेरी देखभाल करनी होगी और मेरी सभी माँगें पूरी करनी होंगी। नहीं तो, परमेश्वर अधर्मी कहलाएगा। इस तरह मैंने बेशर्मी से परमेश्वर को मजबूर किया और निर्भीक होकर उससे माँगें कीं। मुझमें वाकई मानवता और विवेक की कमी थी। मैंने अनुग्रह के युग के दौरान पौलुस के बारे में सोचा, जब उसने सुसमाचार फैलाते हुए काफी कष्ट तो सहे थे, मगर सत्य का अनुसरण करने या स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं की थी। उसने दुख सहने, कीमत चुकाने और कड़ी मेहनत करने को एक शर्त और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने की पूँजी में बदल दिया, और परमेश्वर से धार्मिकता के मुकुट की माँग की। उसने कहा : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस का मानना था कि अगर परमेश्वर ने उसे यह मुकुट नहीं दिया, तो परमेश्वर अधर्मी होगा। वह सार्वजनिक रूप से परमेश्वर के विरुद्ध चिल्ला रहा था, और नतीजतन, उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और दंडित किया गया। मैं जिस मार्ग पर चल रही थी, क्या वह पौलुस के मार्ग जैसा नहीं था? यह सत्य का अनुसरण न करने और स्वभाव को न बदलने का मार्ग था, और परमेश्वर से सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाने की कोशिश थी। मैंने देखा कि अपने बरसों के त्याग, खुद को खपाने और कड़ी मेहनत को, साथ ही परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मेरे बेटे के जवानी त्याग देने और शादी न करने को भी परमेश्वर को मजबूर करने के लिए पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया। जब परमेश्वर ने मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं की, मैंने उस पर सवाल उठाए और उसके खिलाफ शत्रुता दिखाते हुए शोर मचाया। मैं वाकई बहुत बेशर्म थी! मैंने जितना ज्यादा विचार किया, उतना ही लगा कि मेरे व्यवहार ने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया है और उसका क्रोध भड़काया है। मैं डरी हुई थी; अगर मैंने अभी भी पश्चात्ताप नहीं किया, तो निश्चित ही पौलुस की तरह परमेश्वर से दंड पाऊँगी। मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया, “परमेश्वर, इन वर्षों के दौरान, मैंने ईमानदारी से तुम्हारी आराधना नहीं की है। मैंने हमेशा तुम्हें इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु माना और तुमसे आशीष पाने की मेरी इच्छा पूरी करने को कहा। मैं वाकई बहुत नीच हूँ! परमेश्वर! मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ। चाहे मेरा बेटा जिंदा रहे या मर जाए, या वह पंगु हो जाए, मैं अब तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करूँगी, मैं तुम्हारे द्वारा आयोजित सभी परिस्थितियों में समर्पण करने और विवेक और मानवता से युक्त सृजित प्राणी के रूप में काम करने को तैयार हूँ, ताकि तुम्हारे प्रेम का मूल्य चुकाकर तुम्हारे दिल को सुकून पहुँचा सकूँ!”

इसके बाद, मैंने अपने बेटे से कहा, “चलो हम अपनी मानसिकता को सुधारकर, जो भी होगा उसे स्वीकारते हैं। हम यह माँग नहीं कर सकते कि परमेश्वर तुम्हारी बीमारी ठीक कर दे, तो चलो समर्पण का सबक सीखें। भले ही तुम पंगु हो जाओ और कभी खड़े न हो पाओ, हम शिकायत नहीं करेंगे।” उसने कहा, “आप सही हो। लोग कब पैदा होते हैं और कब मरेंगे, यह सब परमेश्वर के हाथों में है। वह पहले ही यह तय कर चुका है; मैं उसके प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ!” उसके बाद से, मेरा बेटा और मैं उतनी पीड़ा में नहीं थे, अब मैं कभी यह माँग नहीं करती कि परमेश्वर मेरे बेटे को जल्दी ठीक कर दे। चीजें जैसे हुईं हमने वैसे ही उनका अनुभव किया। अप्रत्याशित रूप से, जल्दी ही, मेरे बेटे की बीमारी दिन-ब-दिन ठीक होने लगी। एक दिन, मेरा बेटा हमेशा की तरह दालान में अपनी व्हीलचेयर पर इधर-उधर घूम रहा था। उस समय मुझे थोड़ी नींद आ रही थी, तो मैं थोड़ी देर आराम करने के लिए कमरे में चली गई। अभी लेटी ही थी कि मैंने दालान से किसी को जोर से चिल्लाते हुए सुना, “देखो-देखो, वो आदमी खड़ा हो गया!” यह आवाज सुनकर मैंने तुरंत दरवाजा खोला और देखा, तो पता चला यह मेरा बेटा ही था जो खड़ा हो गया था। लगा जैसे मैं सपना देख रही हूँ; मुझे अपनी आँखों पर यकीन ही नहीं हुआ। मैंने दिल में बार-बार यही कहा, “परमेश्वर! धन्यवाद, परमेश्वर! तुम्हारा गुणगान हो! मेरा बेटा आज खड़ा हो पाया यह तुम्हारी सामर्थ्य के कारण है; यह तुम्हारा कर्म है!” धीरे-धीरे, मेरा बेटा अपने पेशाब और शौच को नियंत्रित करने लगा, और वह व्हीलचेयर पर खुद ही शौचालय भी जाने लगा। एक दिन, एक मरीज के परिवार के सदस्य ने मुझसे ईर्ष्या से कहा, “मेरे बच्चे और आपके बेटे को एक ही बीमारी है। हमने दस लाख से ज्यादा युआन खर्च कर दिए, पर वह अभी भी खड़ा नहीं हो पाया है!” मैंने मन में सोचा, “मेरा बेटा आज खड़ा हो पाया, यह परमेश्वर का कर्म है, और सिर्फ परमेश्वर के पास ही ऐसी सामर्थ्य है!” किसी ने यह भी कहा, “आपका बच्चा वाकई लाखों में एक है, जो इस बीमारी से इतना ठीक हो पाया है। आप बहुत खुशकिस्मत हैं!” मैंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया और बार-बार दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया! कई दिनों बाद, हमें अस्पताल से छुट्टी मिली और हम घर वापस आ गए।

मैं इक्कीस साल से सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण कर रही हूँ। मुड़कर देखती हूँ, तो पाती हूँ कि परमेश्वर ने मुझे कदम-दर-कदम इस प्रक्रिया से गुजारा। बस मैं बहुत विद्रोही थी और परमेश्वर में अपनी आस्था के साथ अतिरिक्त शर्तें जोड़ दी थीं। मैंने अनुग्रह और आशीष पाने के लिए परमेश्वर से लेनदेन की। अगर परमेश्वर ने मुझे प्रकट करने के लिए मेरे बेटे की बीमारी का उपयोग न किया होता और आशीष पाने के मेरे सपने को चकनाचूर न किया होता, तो मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में इस भ्रामक दृष्टिकोण को नहीं पहचान पाती। मैंने देखा कि परमेश्वर में विश्वास रखने का मेरा उद्देश्य कितना कुरूप, कितना घृणित था! परमेश्वर के इस कार्य का अनुभव करके मुझे एहसास हुआ कि मेरे बेटे की बीमारी हमारे लिए बहुत बड़ा उद्धार थी। परमेश्वर का प्रेम सिर्फ अनुग्रह और आशीष में ही नहीं है; बल्कि उसका सच्चा प्रेम बीमारी और पीड़ा, न्याय और ताड़ना, और परीक्षण और शोधन में निहित है, जो मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए है। मेरे बेटे की बीमारी ने मुझे परमेश्वर के धार्मिक, सुंदर और नेक सार का अनुभव करने का मौका भी दिया। अब, मेरे बेटे का शरीर काफी हद तक ठीक हो गया है। मैं सोचती हूँ कि कैसे मेरे बेटे को डॉक्टर ने मौत की सजा सुना दी थी, पर अब वह न सिर्फ अपना ख्याल रख सकता है बल्कि कुछ कामों में मेरी मदद भी कर सकता है। यह कुछ ऐसा है जिसकी आशा करने की हिम्मत भी मुझमें नहीं थी। मैंने देखा कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और उन्हें व्यवस्थित करता है, मनुष्य के जीवन और मृत्यु का अधिकार भी उसी के हाथों में है, और वह हर चीज का प्रभारी है। सारी महिमा परमेश्वर की हो!

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