क्या आशीषों के पीछे भागना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है?
2018 में, मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने का सौभाग्य मिला। बहुत उत्साहित था कि मुझे प्रभु के लौट आने के स्वागत का मौका मिला था। जल्दी ही, मैं सुसमाचार साझा करना सीखने लगा, मगर अक्सर दिन भर काम कर रात में थके हुए घर लौटने के कारण, कर्तव्य पर ध्यान देना सचमुच मुश्किल था। मैं नौकरी छोड़कर पूरे समय सुसमाचार साझा करना चाहता था, मगर मेरे व्यावहारिक हालात इसकी इजाजत नहीं देते थे। मैं पाँच बच्चों को पाल-पोस रहा था, अगर मैं उन्हें स्कूल न भेजता, तो सरकार मुझे उनकी देखभाल के लायक न मानती, और उन्हें मुझसे दूर ले जाती। मेरे जीवन में बहुत ज्यादा तनाव था, मगर मुझे मालूम था कि एक सृजित प्राणी के रूप में, मुश्किलें जितनी भी बड़ी हों, मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही था।
2019 में, मैं एक कलीसिया-अगुआ बन गया, और मैं ज्यादा व्यस्त रहने लगा। मैंने अपने काम के दिन घटाकर छह से चार कर देने का फैसला लिया। सोचता कि शायद परमेश्वर मेरे त्याग के लिए मुझे आशीष देगा। हालाँकि काम का समय घट जाने से मेरा कारोबार उतना अच्छा नहीं हो पा रहा था, पर मेरे जीवन पर इसका बुरा असर नहीं हुआ, क्योंकि हर चीज सुगमता से चल रही थी, हमारी सेहत नहीं बिगड़ी और हम किसी मुसीबत में नहीं फँसे। मुझे लगा कि मेरा जीवन इतना शांत इसलिए था, क्योंकि परमेश्वर के लिए उत्साह से खपने पर मुझे उचित लाभ मिल रहा था। अपना कर्तव्य निभाने के लिए ज्यादा समय पाकर मैं बहुत खुश था। फिर, 2021 में, महामारी फैल जाने से सब-कुछ बदल गया।
महामारी के कारण मेरे हेयर सैलन की आमदनी बुरी तरह गिर गई। कारोबार की आमदनी किराया देने के लिए भी काफी नहीं थी। इसलिए सस्ती दुकान लेने के सिवाय मेरे पास कोई विकल्प नहीं था, लेकिन उसमें मरम्मतों की जरूरत थी। इसमें मदद के लिए मुझे निर्माण कार्य में लगा एक व्यक्ति मिला, मगर कुछ हफ्ते बाद वह बोला कि मेरे प्रोजेक्ट में बहुत समय लगेगा, उसे बहुत-से काम करने थे और उसके पास जरूरी कामगार नहीं थे, तो उसे मेरा काम बंद करना पड़ा। मेरे पड़ोसियों और ग्राहकों को इस बात का पता चल गया, तो वे बोले कि अगर नई दुकान का काम पूरा नहीं हुआ, तो मुझे एक साथ दो जगहों का किराया देना पड़ेगा, जो बहुत खर्चीला होगा, और एक विश्वासी होने के नाते मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है? शुरू-शुरू में, मैंने पूरे विश्वास से उनसे कहा, कि सब-कुछ परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं पर निर्भर है, मैं शिकायत नहीं कर सकता। इसके बाद, मुझे दूसरे निर्माण समूह में काम करनेवाला एक व्यक्ति मिला, मगर, उसने भी सेहत की दिक्कतों के कारण मेरा प्रोजेक्ट छोड़ दिया। समय तेजी से बीत गया और दुकान तैयार नहीं हुई। लगातार तीन महीने तक, मैं एक साथ दो-दो दुकानों का किराया देता रहा। जल्दी ही नई दुकान में, एक पाइप में रिसाव होने लगा, और रिसाव का पता लगाने के लिए छत तोड़नी पड़ी। दुकानें बदलने में मुझे कुल मिलाकर 3000 पाउंड की चपत लग चुकी थी। मैं सच में बहुत नाखुश था, उलझन में भी था। ऐसा मेरे साथ क्यों होता है—मुझे इतना ज्यादा पैसा क्यों खर्च करना पड़ा? मैं हमेशा सोचता था कि परमेश्वर एक अच्छा निर्माण कामगार ढूँढने में मेरी मदद करेगा। लेकिन हैरानी हुई कि हीटर लगाने का काम आधा-अधूरा छोड़कर उसने काम छोड़ दिया, और पाइप में रिसाव भी शुरू हो गया, जिससे हीटिंग वाली नई मरम्मत बेकार चली गई। उस दौरान, मुझे कोरोनावाइरस भी हो गया। मैं शिकायत करने लगा : परमेश्वर मेरे साथ ऐसा क्यों होने दे रहा है? मैं कलीसिया में कर्तव्य निभा रहा था और उसके लिए काम करके पैसे कमाने का समय भी घटा दिया था, तो फिर मेरे सामने इतनी मुश्किलें क्यों आ रही थीं? मेरा दिल बस शिकायतों से भर गया।
इसके बाद, अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया ईमानदारी का नहीं था। मैं अब भी कर्तव्य निभा रहा था, लेकिन लगन से नहीं। मैं अपनी दुकान के मसले सुलझाने के तरीकों में पूरी तरह उलझा रहता। मैं बड़े असमंजस में था, नतीजतन सभाओं में मेरा ज्यादा ध्यान नहीं होता था। पहले, मैं सभाओं के बाद हमेशा लेखा-जोखा तैयार किया करता था, मगर अब यह काम नहीं करना चाहता था। मैं दूसरों से संगति करने और समस्याएँ सुलझाने में मदद के लिए अपना थोड़ा-सा सोने का वक्त भी न्योछावर किया करता था, लेकिन अब जब वे मसलों पर मुझसे बात करना चाहते, तो मैं फोन का जवाब नहीं देना चाहता था। पहले, मैं भाई-बहनों का हालचाल जानने की कोशिश किया करता था, कि कहीं उनके कर्तव्य में कोई मुश्किलें तो नहीं, और उनकी मुश्किलों के आधार पर परमेश्वर के वचनों पर संगति करता, लेकिन अब मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहता था। मैं अपने कर्तव्य में ढीला पड़ता गया। एक दिन, एक उच्च अगुआ ने मुझसे कहा कि मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए, और कलीसिया के सभी नए सदस्यों के लिए सभाएँ आयोजित कर सही ढंग से उनका सिंचन करना चाहिए, किसी एक को भी दरारों में से खिसकने नहीं देना चाहिए। मैं अगुआ की व्यवस्था का सचमुच प्रतिरोधी था। इस तरह काम करने से, मेरे पास घर के कामकाज के लिए ज्यादा समय नहीं बचता। मैं देह-सुख के लिए, अपना खाली वक्त अपने परिवार और दोस्तों के साथ बिताना चाहता था। मैं बुरी-से-बुरी हालत में डूबता गया, धार्मिक कार्य भी नहीं करना चाहा, परमेश्वर के वचन भी नहीं पढ़ने चाहे। पहले, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए जल्दी उठता था, और दिन में उनका पाठ सुनता था, लेकिन अब मैं सुबह नहीं उठाना चाहता था, न ही परमेश्वर के वचन पढ़ना चाहता था, क्योंकि मेरे प्रयासों के बदले मुझे आशीष नहीं मिली थी, और मेरे सामने इतनी सारी रुकावटें थीं। मैं नहीं जानता था कि सभाओं में किस विषय पर संगति करूँ। मैं सब-कुछ बिल्कुल ठीक होने का नाटक करता, ताकि कम से कम कलीसिया में मेरा पद बना रहे। अपने कर्तव्य में भी मैं कपटी होने लगा। जब कोई मुझसे कामकाज के बारे में पूछता, तो भाई-बहनों को धोखा देते हुए कोई काम बिना किए ही उसके पूरा हो जाने की बात कह देता। मेरा यह रवैया, पूरी तरह से, परमेश्वर के आशीष न देने, और मेरे सामने मुश्किलें खड़ी कर देने के कारण था। मैं परमेश्वर की आराधना करना तो दूर, उसके प्रति श्रद्धा भी नहीं दिखा रहा था।
मैं बुरी हालत में था, इसलिए मैंने अगुआ को बताया कि मैं किस हाल से गुजर रहा था। उसने मुझसे परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ने को कहा : "परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर की इच्छा या अपने अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य है। परंतु हर हालत में, अय्यूब की ही तरह, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर भरोसा होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, फिर भी उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई हैं, और यहोवा ही उन्हें वापस लेने वाला है। चाहे उसकी कैसे भी परीक्षा ली गई, उसने यह विश्वास बनाए रखा। अपने अनुभव में, तुम चाहे परमेश्वर के वचनों के द्वारा जिस भी शोधन से गुजरो, परमेश्वर को मानवजाति से जिस चीज की अपेक्षा है, संक्षेप में, वह है परमेश्वर पर उनका विश्वास और प्रेम। इस तरह से कार्य करके जिस चीज को वह पूर्ण बनाता है, वह है लोगों का विश्वास, प्रेम और अभिलाषाएँ। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, और वे इसे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितियों में तुम्हारा विश्वास आवश्यक होता है। लोगों का विश्वास तब आवश्यक होता है, जब कोई चीज खुली आँखों से न देखी जा सकती हो, और तुम्हारा विश्वास तब आवश्यक होता है, जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते, तो आवश्यक होता है कि तुम विश्वास बनाए रखो, रवैया दृढ़ रखो और गवाह बनो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने देखा कि अपनी मुश्किलों के इस दौर में परमेश्वर के इरादे की मुझे बिल्कुल कोई समझ नहीं थी। मैंने हताश और वीरान महसूस किया, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता पर भी शक हुआ। लेकिन मैं बस परमेश्वर का निष्ठावान अनुयायी होने का बार-बार दावा करता रहा। जब मेरा कारोबार ठीक चल रहा था और मेरी सेहत ठीक थी, तो मैं सोचता था कि परमेश्वर ने मुझे भरपूर आशीष दी थी और मैं उसके लिए ज्यादा खप सकता था। मुसीबतों में, जीवन की मुश्किलों में, मैं परमेश्वर को दोष देने लगा। यह आस्था कैसे हो सकती थी? जब अय्यूब ने अपने परिवार की धन-दौलत और सारे बच्चे खो दिए, तो उसने परमेश्वर को दोष नहीं दिया, बल्कि परमेश्वर के नाम का गुणगान किया। जब उसकी पत्नी ने उसे आस्था से भटकाने की कोशिश की, तो उसने उसे एक मूर्ख औरत कहकर धिक्कारा, "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?" (अय्यूब 2:10)। अय्यूब परमेश्वर में अपनी आस्था में सौदेबाज या अपेक्षा रखनेवाला नहीं था। आशीषों का आनंद लेते समय या विपत्ति झेलते समय, वह परमेश्वर को समर्पित हुआ। अय्यूब परमेश्वर में सच्ची आस्था रखता था। मुझे लगा कि मैं उसकी बराबरी कर ही नहीं सकता। अपने जीवन में एक-के-बाद-एक मुश्किल आते देख, मुझे थोड़ा असंतोष हुआ। परिचितों ने मुझसे पूछा कि मुझ जैसे विश्वासी के साथ ऐसा क्यों हो रहा था, और सब-कुछ बढ़िया होने का दावा करके भी, समय के साथ, मैं भीतर से विचलित होने लगा, और परमेश्वर के शासन पर शक करने लगा। अय्यूब के अनुभव से, मुझे एहसास हुआ कि दूसरों की बातों के जरिए शैतान मुझ पर हमला कर रहा था, कोशिश कर रहा था कि मैं परमेश्वर को नकार दूँ, उसे दोष दूँ। उस अनुभव में मेरे पास कोई गवाही नहीं थी—मैं शैतान का उपहास-पात्र बन गया था। मैं शर्मसार था, अपनी करनी पर मुझे पछतावा हुआ।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े। "लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं, मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है 'परमेश्वर में विश्वास' की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति और सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह केवल स्वयं ही अपने हृदय का ध्यान रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। "जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपने देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुस्कुराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि मेरे दिल की गहराई में क्या दबा हुआ था। मैंने परमेश्वर को समर्पित होकर उसकी आराधना के लिए विश्वास नहीं रखा था, बल्कि इसलिए कि उसके अनुग्रह और आशीषों का आनंद ले सकूँ। कर्तव्य निभाने के लिए काम कर पैसा कमाने का अपना समय इसलिए घटाया, ताकि मुझे ज्यादा आशीष मिलें। मेरी छोड़ी हुई हर चीज सिर्फ परमेश्वर से सौदेबाजी की कोशिश के लिए थी, सच्ची आस्था और प्रेम के कारण नहीं। जब पहले-पहल मेरे जीवन में समस्याएँ आने लगीं, तो मैं अपने कर्तव्य में अटल रहा, क्योंकि मैं सोचता था कि ये मुश्किलें गुजर जाएँगी, और फिर परमेश्वर मुझे और भी ज्यादा आशीष देगा। लेकिन चीजें मुश्किल बनी रहीं। नई दुकान में समस्याओं ने मुझे घेर लिया और मैंने बहुत-सारा पैसा खो दिया। मुझमें अब कर्तव्य निभाने का उत्साह रहा ही नहीं, और मैं परमेश्वर को दोष देने लगा। परमेश्वर की आशीषों के बिना, मैं पहले की तरह परमेश्वर के लिए इतनी कड़ी मेहनत नहीं करना चाहता था। मैं बस अपने आराम के बारे में ज्यादा सोचना चाहता था। चीजों को लेकर मेरी सोच पर लगातार मेरी मुश्किलों का हमला हो रहा था, और इन संघर्षों में, मैं परमेश्वर की इच्छा खोज नहीं पाया, जाना नहीं पाया कि कैसे सत्य पर अमल कर अडिग रहूँ। इसके बजाय, मैं अपनी पैसों की कमी की लड़ाई खुद ही लड़ने के तरीके ढूँढने की कोशिश करता रहा, अपने कर्तव्य को बेपरवाही से निपटाते हुए गैर-जिम्मेदार बना रहा। मेरे दिल में परमेश्वर की कोई जगह नहीं थी। अपने कर्तव्य और परमेश्वर के प्रति अपने रवैये से, मैंने जाना कि मैं परमेश्वर का सच्चा अनुयायी नहीं था। मैं हमेशा परमेश्वर से प्रेम का दावा करता था, लेकिन जीवन में मुश्किलें आते ही मैंने परमेश्वर को दोष दिया। मैंने बहस कर उससे हिसाब करने की कोशिश की, ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर ने कहा : "यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुस्कुराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं।" मेरा बर्ताव ठीक वैसा ही था जैसा परमेश्वर अपने वचनों में साफ खुलासा करता है। परमेश्वर से आशीष मिलने पर ही मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाता था। मैं किसी ऋणदाता की तरह परमेश्वर से अपनी चाहत पूरी करने की अपेक्षा करता था। लेकिन दरअसल, परमेश्वर ने ही मुझे जीवन दिया था—सब-कुछ दिया था। उसने मुझे जरूरत से ज्यादा दिया था। मैं अब भी परमेश्वर को क्यों भला-बुरा कहना चाहता था, क्यों तर्क देकर बहस करना चाहता था? यही नहीं, मैं अपना काम ठीक से न करके उससे लड़ा भी। इस पर सोच-विचार कर मैंने बहुत शर्मिंदा महसूस किया। अगर मैंने परमेश्वर से प्रायश्चित्त नहीं किया, तो क्या वह मुझ जैसे इंसान से घृणा कर त्याग नहीं देगा? मैंने दिल से परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझमें जमीर नहीं है। मैं तुम्हारे अनुग्रह का भरपूर आनंद ले चुका हूँ, मगर मैं एक-के-बाद-एक बस तुमसे कुछ माँगता ही रहता हूँ। अपनी आकांक्षाएँ पूरी न होने पर, मैं निराश होकर शिकायत करता हूँ। हे परमेश्वर, मैंने अपना असली चेहरा देख लिया है, मैं खुद से घृणा करता हूँ। मेरी मदद करो ताकि मैं अपनी इस गलत सोच को बदल सकूँ।"
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : "तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह पुरस्कार पाने के लिए होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य निभाते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं दुःख का भी सामना कर सकते हैं : मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर समझ सका कि मैं कितना स्वार्थी और घिनौना था। मैं इस विचार के काबू में था कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे, बाकियों को शैतान ले जाये।" मेरी सोच थी कि जो भी करूँ मुझे उससे फायदा होना ही चाहिए, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहता था जिससे मुझे लाभ न हो। इस तरह का फलसफा, इस किस्म की सोच, मेरे दिल में गहरे पैठी हुई थी, जो मुझे हमेशा बस खुद के लिए जीने के रास्ते पर ले जाती थी। परमेश्वर में मेरी आस्था और मेरे त्याग भी सिर्फ एक ही लक्ष्य के लिए थे—आशीष पाने के लिए। मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा था। मैं बहुत ज्यादा स्वार्थी और धूर्त इंसान था। मैं निरंतर अपने निजी हितों और परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष पाने के पीछे भागता था। यह देखकर कि परमेश्वर मेरी कल्पना के अनुसार मुझे आशीष नहीं दे रहा था, मैं बहुत दुखी होकर शिकायतों से भर गया था। इस स्थिति में परमेश्वर की क्या इच्छा थी? मैंने न इसे खोजा, न ही सोच-विचार किया, मुझे कोई परवाह ही नहीं थी। मैं बस अपने दैहिक हितों पर ही ध्यान देता था। क्या मैं सत्य हासिल करने के मौके खो नहीं रहा था? परमेश्वर अंत के दिनों में देहधारी होकर हमें बचाने आया है। उसने बहुत-से वचन कहे हैं, हमारे लिए अपना खून-पसीना और आँसू बहाए हैं, ताकि इन वचनों और इतने सारे सत्य के जरिए हम पाप और बुराई से बच सकें, शैतान की भ्रष्टता और नुकसान से बच सकें। लेकिन मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा था—मैंने उसे बहुत कम आँका। मैं बस देह-सुख का लालच कर रहा था, उसी का ख्याल कर हिसाब-किताब कर रहा था। अगर मैं ऐसा ही करता रहता, तो मुझ जैसे इंसान के साथ परमेश्वर ने क्या किया होता? आखिर मुझे त्याग कर मिटा दिया गया होता। मैंने दिल से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझे बचा लो। मुझे खुद को जानने दो, अभ्यास का मार्ग खोजने दो।" हर दिन मैं ऐसी प्रार्थना करता था।
बाद में परमेश्वर के वचनों में मैंने यह अंश पढ़ा : "तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने या उसके लिए कई चीजें करने से ताल्लुक रखता है; तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शांति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी जिंदगी में सब-कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो और हर चीज में सहज रहो। परंतु इनमें से कोई भी प्रयोजन ऐसा नहीं है, जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। अगर तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बिलकुल संभव नहीं है। परमेश्वर के क्रियाकलाप, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता ही वे सब चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना चाहिए। यह समझ होने पर, तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय को व्यक्तिगत माँगों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा दिलाने के लिए करना चाहिए। केवल इन चीजों को दूर करके ही तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित शर्तें पूरी कर सकते हो, और केवल ऐसा करके ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन उसे संतुष्ट करना और उसके द्वारा अपेक्षित स्वभाव को जीना है, ताकि अयोग्य लोगों के इस समूह के माध्यम से उसके क्रियाकलाप और उसकी महिमा प्रकट हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने का यही सही दृष्टिकोण है और यही वह लक्ष्य भी है, जिसे तुम्हें पाना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। मैंने अनेकों बार परमेश्वर में सच्ची आस्था होने का दावा किया था, मगर फिर मुझे एहसास हुआ कि यह पूरी तरह से मेरी कल्पना थी। मेरी आस्था बस वैसी ही थी जैसा पौलुस ने 2 तीमुथियुस 4:7-8 में कहा था : "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है।" पौलुस प्रभु की सेवा करने के बाद धार्मिकता के ताज का इंतजार कर रहा था, और अपनी आस्था में मेरा लक्ष्य भी वही था—मुझे आशीष मिलने चाहिए। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था का अर्थ बताया, और यह भी कि अपनी आस्था में मुझे कैसे सही अनुसरण करना चाहिए। मुझे लगा कि मैं पहले वाले गलत रास्ते को बदलने के लिए तैयार था, क्योंकि वह मुझे ज्यादा-से-ज्यादा पथभ्रष्ट कर देता, परमेश्वर का दुश्मन बना देता। मैं बस एक ऐसे बच्चे जैसा था, जो अपने माता-पिता से दिल से जुड़ा हुआ नहीं था, मगर उनसे कुछ चाहता था। इस प्रकार के बच्चे को माता-पिता कभी पसंद नहीं कर सकते, वह उन्हें दुख ही देता है। अपनी आस्था में मेरी प्रेरणा और नजरिया मेरे लिए शर्मिंदगी की बात थी। मैं परमेश्वर से किस किस्म का हर्जाना पाना चाहता था? मैं पहले ही उसका इतना ज्यादा अनुग्रह और आशीष पा चुका था, साँसों की हवा, गुनगुनी धूप, रोजी-रोटी वगैरह का तो जिक्र ही क्या करूँ, उसके वचनों के सत्य, उसकी देखभाल और सुरक्षा से बहुत-सारा पोषण पा चुका था। यह सब परमेश्वर ने मुहैया किया था। मेरा जीवन भी तो परमेश्वर का ही दिया हुआ था। मैं अपने सृजनकर्ता के प्रेम की कीमत कैसे चुकाऊँ? मैं अपने अस्तित्व का हर अंश भी दे दूँ, तो भी मैं उसका ऋण नहीं चुका सकता। फिर भी मैंने परमेश्वर को ही दोष दिया, बहस की, और उससे हिसाब लेना चाहा। मुझमें सचमुच इंसानियत नहीं थी, जरा भी आत्मबोध नहीं था। मैंने परमेश्वर का अनुसरण कर अपना कर्तव्य निभाया, जो कि मेरी जिम्मेदारी थी, सबसे बुनियादी काम जो मुझे करना चाहिए था। सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के लिए यह परमेश्वर का मुझे दिया हुआ मौका भी था। अगर मैं कर्तव्य न निभाऊँ, तो सत्य हासिल नहीं कर पाऊँगा, या अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल पाऊँगा। परमेश्वर का धन्यवाद! अब मैं समझ गया हूँ कि कर्तव्य तो एक सृजित प्राणी को निभाना ही चाहिए, यह मनुष्य की जिम्मेदारी है। कर्तव्य निभाना परमेश्वर से मेरा सौदा नहीं होना चाहिए। मैं यह भी समझता हूँ कि मेरे सामने जो भी मुश्किलें आएँ, मैं बीमार पड़ जाऊं या कारोबार ठीक से न चले, मुझे इसे स्वीकारना ही चाहिए, शिकायत नहीं करनी चाहिए। एक सृजित प्राणी के रूप में मेरी यही समझ और रवैया होना चाहिए। ऐसी समझ पा सकने का मौका देने के लिए मैं परमेश्वर का आभारी हूँ। मैं अब बहुत नहीं कमाता हूँ, मेरा जीवन-स्तर थोड़ा नीचा है, मगर मैं पहले के मुकाबले मितव्ययी हूँ—उतना ज्यादा खर्च नहीं करता हूँ। फिर भी गुजारा हो रहा है। मैं सेहत और जीवन की समस्याओं को कर्तव्य के प्रति अपने रवैये पर असर नहीं डालने दे सकता। मैंने भाई-बहनों की मदद जारी रखी है, अपने कर्तव्य का हर काम पूरा करने की भरसक कोशिश करता हूँ। इस स्थिति का अनुभव कर मैं यह समझ सका कि मैं कितना स्वार्थी और बुरा था, इससे मुझे अपनी आस्था और अनुसरण के गलत नजरिए की भी थोड़ी समझ मिली। यह सब परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से ही हासिल हो सका।
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