मैंने अपनी जगह पा ली है

10 जून, 2022

रोज़ालि, दक्षिण कोरिया

परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मैंने पूरे उत्साह से अनुसरण किया। कलीसिया ने मुझे जो भी कर्तव्य दिया, मैंने किया। कर्तव्य में कोई दिक्कत या परेशानी होती, तो मैं बिना किसी शिकायत के समाधान खोजने को कष्ट सहकर कीमत चुकाती। जल्द ही मैंने नवागतों का सिंचन करना शुरू कर दिया, जहाँ मुझे लगातार तरक्की मिली। लगा मैं प्रतिभाशाली हूँ, मुझे कलीसिया विकसित कर रही है, मैं दूसरों से अधिक अनुसरण कर रही हूँ, और अगर मैं अपने कर्तव्य में मेहनत करूँगी, तो मुझे तरक्की और महत्वपूर्ण भूमिकाएं दी जाएंगी। यह सोचकर मुझे खुद से बड़ी खुश थी।

कुछ दिन बाद, मैंने देखा कि मेरी ही उम्र के काफी भाई-बहन टीम-अगुआ या सुपरवाइजर रह चुके थे, तो मुझे ईर्ष्या हुई। मैंने सोचा, “अगर ये लोग इतनी कम उम्र में ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य कर सकते हैं, अगुआओं से सम्मान और भाई-बहनों से प्रशंसा पा सकते हैं, तो मैं अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं हो सकती। मुझे अच्छे से अनुसरण कर अपने कर्तव्य में बड़ी सफलता पाने के लिए संघर्ष करना है ताकि मुझे भी अहम भूमिका मिले।” मैंने पूरी मेहनत से कर्तव्य करना शुरू कर दिया। मैं देर तक काम करने और कष्ट सहने से डरती नहीं थी। अगर कर्तव्य में कोई परेशानी आती, तो उसे हल करने को मैं परमेश्वर के वचन खोजता। लेकिन मेरी कड़ी मेहनत से कोई बदलाव नहीं आया। कार्य क्षमता अच्छी न होने के कारण, मुझे सामान्य काम सौंप दिया गया। आस-पास के लोगों को तरक्की पाते देख, मुझे और भी जलन हुई। मैं जानती थी कि मैं अब भी उनसे काफी कम हूँ, इसलिए मैं खुद को हौसला देती कि निराश होकर यथास्थिति से संतुष्ट न हो जाऊँ, खुद की हिम्मत बंधाती कि मुझे आगे बढ़ना और सुधार करना है, मुझे परमेश्वर के और भी वचन पढ़कर जीवन प्रवेश के लिए ज्यादा प्रयास करना है। मुझे लगा कि पेशेवर कौशल में सुधार होने और जीवन प्रवेश में अधिक मेहनत करने से मुझे तरक्की जरूर मिल जाएगी। तो मैंने सुधार करने के लिए कड़ी मेहनत की, और तरक्की के दिन का इंतजार करने लगी।

पता भी नहीं चला और दो साल गुजर गए, मेरे नए साथी आते रहे, जाते रहे। कुछ को पदोन्नत कर दिया गया और कुछ अगुआ और कर्मी बन गए। मैं शक करने लगी, “मैं काफी समय से यह कर्तव्य कर रही हूँ, कुछ ही समय काम करने वालों को भी एक के बाद एक तरक्की मिल गई, तो मेरा कर्तव्य अभी तक बदला क्यों नहीं? क्या अगुआओं को लगता है कि मैं विकसित करने लायक नहीं हूँ, केवल सामान्य कार्य के ही उपयुक्त हूँ? क्या ऐसा हो सकता है कि मेरी तरक्की की कोई संभावना ही नहीं है? क्या मैं इस गुमनाम कर्तव्य में ही फंस कर रह जाऊंगी?” जब ये सब सोचा तो अचानक लगा जैसे मैं कोई पिचकी हुई गेंद हूँ। अचानक जैसे सारी प्रेरणा ही खत्म हो गई, माना मैं अपने कर्तव्य में पहले जितनी कर्मठ नहीं थी, और सारे काम करने की मुझे कोई जल्दी भी नहीं थी। बस हर रोज बेमन से काम करती थी या जैसे-तैसे काम निपटाती। नतीजतन मेरे काम में भटकाव और चूक दिखने लगे, लेकिन मैंने इसे गंभीरता नहीं लिया, ठीक से आत्मचिंतन नहीं किया। बाद में पता चला कि ऐसे और भी भाई-बहनों को पदोन्नति मिल गई जिन्हें मैं जानती थी, मैं और भी ज्यादा दुखी हो गई। सोचा, “उनमें से कुछ तो वही कर्तव्य करते थे जो मैं करती हूँ, फिर भी वे एक-एक करके पदोन्नत हो गए, जबकि मैं वहीं की वहीं फंसी हूँ। शायद मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती या वाकई आगे बढ़ाए जाने लायक नहीं हूँ।” यह सोच मेरे कंधों पर भारी बोझ जैसी थी। मैं बहुत परेशान हो गई। उन दिनों मैं बहुत दुखी रहने लगी, अवसाद की हालत में थी, कर्तव्य में भी मेरा दिल नहीं लगता था। यही सोचती थी कि परमेश्वर में मेरी आस्था का कोई भविष्य नहीं है। मैं इतनी दुखी थी कि जो हो रहा था, उसे स्वीकार नहीं पा रही थी। मैंने सोचा, “क्या ऐसा हो सकता है कि मैं वाकई इतनी बुरी हूँ? क्या ये हो सकता है कि मैं सच में सामान्य कार्य के लायक ही हूँ? मुझे आगे बढ़ाने का कोई फायदा नहीं है? मुझे बस एक मौका चाहिए। मैं ही क्यों हर समय कोने में पड़ी रहूँ, जहाँ मुझ पर किसी की नजर न पड़े?” सोच-सोचकर मैं दुखी और निराश होती रहती। दिल से एक आह-सी निकलती, पैरों में एक भारीपन-सा महसूस होता। कभी-कभी, मैं रात को बिस्तर में पड़ी रोती रहती, सोचती, “अगर मेरा पेशेवर कौशल दूसरों से कम है, तो मैं सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत करूँगी। अधिक परमेश्वर के वचन पढ़कर जीवन प्रवेश पर ध्यान दूंगी। जब मैं व्यावहारिक ज्ञान के साथ संगति कर पाऊँगी और अगुआ मुझे सत्य का अनुसरण करते देखेंगे, तो क्या मुझे तरक्की नहीं देंगे?” लेकिन ऐसा सोचकर मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। मैंने सोचा, “सत्य का अनुसरण करना एक सकारात्मक बात है और एक विश्वासी को इसी का अनुसरण करना चाहिए। लेकिन मैं इसका इस्तेमाल दूसरों से ऊपर उठने के लिए कर रही हूँ। ऐसी महत्वाकांक्षा और इच्छा रखूँगी, तो क्या परमेश्वर मुझसे घृणा नहीं करेगा? मैं गुमनाम रहकर अपना कर्तव्य करने से संतुष्ट क्यों नहीं हूँ?” मैंने इतना अपराध-बोध महसूस किया कि प्रार्थना करते हुए रो पड़ी, “परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मेरा रुतबे के पीछे भागना गलत है, लेकिन मेरी महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं बहुत प्रबल हैं। मुझे लगता रहता है कि इस तरह गुमनाम रहकर कर्तव्य करना निरर्थक है। परमेश्वर, मैं इस स्थिति से निकल नहीं पा रही। मेरी अगुवाई और मार्गदर्शन कर ताकि तेरी इच्छा को समझूँ और खुद को जान सकूँ।”

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में ही सोचेंगे। हालाँकि मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन ही मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनके पास शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, ताकि वे लाभ और हैसियत प्राप्त कर सकें—वे वास्तव में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे दौड़ते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। “एक मसीह-विरोधी के लिए, अगर उसकी प्रतिष्ठा और हैसियत पर हमला किया जाता या उन्हें छीन लिया जाता है, तो यह उसकी जान लेने की कोशिश करने से भी अधिक गंभीर मामला होता है। मसीह-विरोधी चाहे कितने भी उपदेश सुन ले या परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ ले, उसे इस बात का दुख या पश्चात्ताप नहीं होगा कि उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, और वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा है, कि उसका प्रकृति सार मसीह-विरोधी का है। बल्कि उसकी बुद्धि हमेशा इसी काम में लगी रहती है कि कैसे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए। ... प्रतिष्ठा और हैसियत की अपनी निरंतर खोज में वे, परमेश्वर ने जो किया है, उसका भी बेशर्मी से खंडन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अपने हृदय की गहराइयों में मसीह-विरोधी मानते हैं, ‘समस्त प्रतिष्ठा और हैसियत लोगों द्वारा स्वयं अर्जित की जाती है। केवल लोगों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करके और प्रतिष्ठा और हैसियत हासिल करके ही वे परमेश्वर के आशीषों का आनंद ले सकते हैं। जीवन का मूल्य तभी होता है, जब लोग पूर्ण सत्ता और हैसियत हासिल कर लेते हैं। बस यही मनुष्य की तरह जीना है। इसके विपरीत, अगर हर चीज में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होंगे, स्वेच्छा से एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होंगे और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जिएँगे, तो इस तरह जीना बेकार होगा—इस तरह के व्यक्ति का कोई आदर नहीं करेगा। इंसान को अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और खुशी खुद संघर्ष करके अर्जित करनी चाहिए; ये चीजें सकारात्मक और सक्रिय रवैये के साथ लड़कर जीती और हासिल की जानी चाहिए। कोई तुम्हें ये चीजें थाली में परोसकर नहीं देगा—निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करने से केवल विफलता मिलेगी।’ मसीह-विरोधी इसी प्रकार गणना करता है। मसीह-विरोधियों का यही स्वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। उसने बताया कि मसीह विरोधी रुतबे को जीवन से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनकी कथनी-करनी सब हैसियत और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमती है, उनका लक्ष्य बस इसी को हासिल करना और बनाए रखना होता है। रुतबा छिनते ही उनका जीने का जोश खत्म हो जाता है। रुतबे की खातिर वे परमेश्वर का विरोध तक कर सकते हैं, उसे धोखा देकर अपना राज्य स्थापित कर सकते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैंने भी तो हमेशा पद को ही अहमियत दी है। छोटी थी, तो मेरे परिवार ने अक्सर मुझे ऐसी चीजें सिखाईं : “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी” और “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।” मैंने जीने के इन शैतानी नियमों को जीने का सिद्धांत मान लिया था। मुझे लगा जीवन में रुतबा और सम्मान पाकर ही कोई इंसान गरिमामय और सार्थक जीवन जी सकता है, जबकि अपने भाग्य से संतुष्ट रहकर साधारण और विनम्र रहना यानी कोई आकांक्षा, या असली लक्ष्य न होना। मुझे लगता इस तरह जीना बेकार है। परमेश्वर में विश्वास रखकर भी न तो मेरी सोच बदली और न विचार। ऊपर से मैं प्रतिस्पर्धा या होड़ करती नहीं दिखती थी, लेकिन मेरी महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं छोटी नहीं थीं। मैं बस अधिक महत्वपूर्ण कर्तव्य करना चाहती थी, ऊँचा रुतबा पाना चाहती थी, लोगों से सम्मान पाना चाहती थी। जब मैंने दूसरों को टीम अगुआ और पर्यवेक्षक बनते देखा, तो मेरी इच्छा और भी मजबूत हो गई और मैं अपनी मौजूदा स्थिति से और असंतुष्ट हो गई। तरक्की के लिए, मैं जल्दी उठती और देर रात तक जागती और मैं अपने कर्तव्य के लिए कष्ट उठाने और कीमत चुकाने को तैयार थी। अपनी उम्मीदों को बार-बार चूर होते देख, मुझे ढेरों शिकायतें होने लगीं और आसपास के वातावरण के प्रति प्रतिरोध पैदा हुआ। लगने लगा कि परमेश्वर में विश्वास रखना बेकार है, कर्तव्य करने की प्रेरणा भी खत्म हो गई। मैं बस बेमन से और बेतरतीबी से काम कर रही थी। मैंने देखा कि जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया था, तब से मैं सत्य के मार्ग पर नहीं चली थी। मेरा हर काम नाम और रुतबे के लिए था। हमारे कर्तव्य में, परमेश्वर आशा करता है कि हम सत्य का अनुसरण कर पाएँ, उसकी वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाएँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव से बच सकें। लेकिन मैंने अपने काम की उपेक्षा की। मेरा मन सत्य के अनुसरण में नहीं था, मेरी चाहत मात्र ऊँचा रुतबा हासिल करना थी, जब मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, तो मैं ढीली पड़ गई, अपने लिए गहरा गड्ढा खोदने लगी। मुझमें न ज़मीर था और न विवेक! मैंने सोचा, कैसे बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद, मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, आज भी, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव का अधिक ज्ञान नहीं था। मुझे जो कर्तव्य मिला हुआ था, मैंने उसे भी ठीक से नहीं कर पाई। मैं जैसे-तैसे काम करती थी, मेरे काम में समस्या और भटकाव होते थे। ऐसी हालत में भी मैं तरक्की और बड़ा काम करना चाहती थी। मैं कितनी बेशर्म थी! तब जाकर मैंने समझा कि सत्य का अनुसरण किए बिना परमेश्वर में विश्वास रखने और आँख मूँदकर रुतबे के पीछे भागने से, मेरी महत्वाकांक्षा और बढ़ेगी और मेरा स्वभाव ज्यादा अहंकारी बनेगा, हमेशा लोगों से ऊपर रहना चाहूँगी, लेकिन परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन नहीं कर पाऊँगी। ऐसा अनुसरण आत्मघाती है जिससे परमेश्वर को घृणा है, वो इसे धिक्कारता है। यह कलीसिया से निकाले गए मसीह-विरोधियों जैसा ही है, उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागे। वे लोगों से प्रशंसा और सम्मान पाना चाहते थे, उन्हें फंसाना और नियंत्रित करने का प्रयास करते थे। नतीजतन उन्होंने बहुत दुष्टता की और उजागर किए गए, परमेश्वर द्वारा हटा दिए गए। क्या मेरा लक्ष्य भी उनके जैसा ही नहीं था? क्या मैं भी परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर नहीं चल रही थी? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है और इसे ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती। अगर मैंने खुद को सीधा नहीं किया, तो पक्का परमेश्वर मुझे निकाल देगा! इस बात को ध्यान में रखते हुए, मैंने शपथ ली : रुतबे के पीछे न भागते हुए मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्था के अधीन रहूँगी। सत्य का अनुसरण करूँगी, अपना कर्तव्य ठीक से और सादगी से करूँगी।

एक दिन भक्ति-कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्योंकि लोग परमेश्वर के आयोजनों और परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते हैं, इसलिए वे हमेशा अवज्ञापूर्ण ढंग से, और एक विद्रोही दृष्टिकोण के साथ भाग्य का सामना करते हैं, और इस निरर्थक उम्मीद में कि वे अपनी वर्तमान परिस्थितियों को बदल देंगे और अपने भाग्य को पलट देंगे, हमेशा परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता तथा उन चीज़ों को छोड़ देना चाहते हैं जो उनके भाग्य में होती हैं। परन्तु वे कभी भी सफल नहीं हो सकते हैं; वे हर मोड़ पर नाकाम रहते हैं। यह संघर्ष, जो किसी व्यक्ति की आत्मा की गहराई में चलता है, ऐसी गहन पीड़ा देता है जो किसी को अंदर तक छलनी कर देती है, इस बीच व्यक्ति अपना जीवन व्यर्थ में नष्ट कर देता है। इस पीड़ा का कारण क्या है? क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण है, या इसलिए है क्योंकि वह व्यक्ति अभागा ही जन्मा था? स्पष्ट है कि दोनों में कोई भी बात सही नहीं है। वास्तव में, लोग जिस मार्ग पर चलते हैं, जिस तरह से वे अपना जीवन बिताते हैं, उसी कारण से यह पीड़ा होती है। हो सकता है कि कुछ लोगों ने इन चीज़ों को समझा ही न हो। किन्तु जब तुम सही मायनों में जान जाते हो, जब तुम्हें सही मायनों में एहसास हो जाता है कि मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, जब तुम सही मायनों में समझ जाते हो कि वह हर चीज़ जिसकी परमेश्वर ने तुम्हारे लिए योजना बनाई और जो तुम्हारे लिए निश्चित की है, वह बहुत फायदेमंद और बहुत बड़ी सुरक्षा है, तब तुम्हें महसूस होता है कि तुम्हारी पीड़ा धीरे-धीरे कम हो रही है, और तुम्हारा सम्पूर्ण अस्तित्व शांत, स्वतंत्र, एवं बंधनमुक्त हो जाता है। अधिकांश लोगों की स्थितियों का आकलन करने से पता चलता है कि वे तटस्थ भाव से मनुष्य के भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता के व्यावहारिक मूल्य एवं अर्थ को स्वीकार नहीं पाते हैं, यद्यपि व्यक्तिपरक स्तर पर वे उसी तरह से जीवन जीते रहना नहीं चाहते हैं, जैसा वे पहले जीते थे, और अपनी पीड़ा से राहत चाहते हैं; फिर भी तटस्थ भाव से वे सृजनकर्ता की संप्रभुता को सही मायनों में समझ नहीं पाते और उसके अधीन नहीं हो सकते हैं, और वे यह तो बिलकुल भी नहीं जानते हैं कि सृजनकर्ता के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं को किस प्रकार खोजें एवं स्वीकार करें। इसलिए, यदि लोग वास्तव में इस तथ्य को पहचान नहीं सकते हैं कि सृजनकर्ता की मनुष्य के भाग्य और मनुष्य की सभी स्थितियों पर संप्रभुता है, यदि वे सही मायनों में सृजनकर्ता के प्रभुत्व के प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं, तो उनके लिए ‘किसी का भाग्य उसके अपने हाथों में होता है,’ इस अवधारणा द्वारा प्रेरित न होना, और इसे न मानने को विवश न होना कठिन होगा। उनके लिए भाग्य और सृजनकर्ता के अधिकार के विरुद्ध अपने तीव्र संघर्ष की पीड़ा से छुटकारा पाना कठिन होगा, और कहने की आवश्यकता नहीं कि उनके लिए सच में बंधनमुक्त और स्वतंत्र होना, और ऐसा व्यक्ति बनना कठिन होगा जो परमेश्वर की आराधना करते हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे हृदय को झकझोर दिया। इससे पहले, मैंने कभी अपनी स्थिति की तुलना परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर की बातों से नहीं की थी। मुझे लगता था कि ये वचन तो अविश्वासियों के लिए हैं, मैं तो विश्वासियों में से एक हूँ, परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर उसका पालन करती हूँ। लेकिन शांत मन से परमेश्वर के वचन के अंश पर विचार करने पर ही एहसास हुआ कि परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकारना परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता के ज्ञान को नहीं दर्शाता है, उसकी संप्रभुता के प्रति आज्ञाकारिता तो दूर की बात है। परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद, चीजों पर मेरे विचार अविश्वासियों जैसे ही थे। वे सोचते हैं कि लोगों का भाग्य उनके अपने हाथों में है, वे हमेशा भाग्य से लड़ते हैं। अपने प्रयासों से अपना भाग्य बदलकर श्रेष्ठ जीवन जीना चाहते हैं। नतीजतन, वे बहुत कष्ट उठाते हैं, भारी कीमत चुकाते हैं, वे चोट पर चोट खाते रहते हैं, और चोट के निशानों से भर जाने के बाद भी वे असलियत नहीं देखते। क्या मैं भी वही नहीं थी? मैं अपने प्रयासों से अपनी स्थिति को बदलना चाहती थी, तरक्की और महत्वपूर्ण भूमिकाओं के लिए अपने संघर्ष पर भरोसा करती थी। इस मकसद से, मैंने चुपचाप सहा, कीमत चुकाई और कड़ी मेहनत से पेशेवर कौशल सीखा। जब मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, तो मैं निष्क्रिय और विरोधी बनकर खुद की धँसाती चली गई। तब जाकर मैंने देखा मैं इतने कष्ट में और थकी इसलिए थी क्योंकि मैं गलत मार्ग पर चल रही थी और मैंने जीने का गलत तरीका चुना था। मैंने इन शैतानी भ्रांतियों को जीने का आधार माना जैसे “किसी व्यक्‍ति की नियति उसी के हाथ में होती है” और “मनुष्य अपने स्वयं के हाथों से एक सुखद मातृभूमि का निर्माण कर सकता है।” मेरा मानना था कि अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए मुझे अपने प्रयासों पर निर्भर रहना होगा। बार-बार जब मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई और मैं तरक्की और महत्वपूर्ण पद हासिल नहीं कर पाई तो, मैं समर्पण नहीं कर पाई, मैं हमेशा परमेश्वर के खिलाफ लड़ना चाहती थी, उसकी व्यवस्थाओं से निकल, अपने प्रयासों से रुतबा और प्रतिष्ठा हासिल करना चाहती थी। तब जाकर मैंने देखा कि बस नाम की विश्वासी थी। असल में, मुझे दिल से परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं था, उसकी व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए तो बिल्कुल तैयार नहीं थी। मुझ जैसे विश्वासी और एक अविश्वासी में क्या अंतर था? परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, हर चीज पर उसी की संप्रभुता और नियंत्रण है। प्रत्येक व्यक्ति की नियति, उसकी क्षमता और खूबियाँ, कलीसिया में वह क्या कर्तव्य कर सकता है, वह किस समय, किस प्रकार की परिस्थिति का अनुभव करेगा, इत्यादि सभी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और पूर्वनिर्धारित हैं, कोई व्यक्ति उनसे बच या उन्हें बदल नहीं सकता है। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करने पर ही हमारे दिल में सुकून हो सकता है। यह जानकर, मैं अचानक खुद को दयनीय और शोचनीय महसूस करने लगी। मैंने बरसों परमेश्वर में विश्वास रखा था, उसके बहुत से वचन खाए-पिए थे, लेकिन फिर भी मैं एक अविश्वासी की तरह ही थी। मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता का ज्ञान नहीं था। मैं बेहद अहंकारी और अज्ञानी थी! परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब तुम सही मायनों में समझ जाते हो कि वह हर चीज़ जिसकी परमेश्वर ने तुम्हारे लिए योजना बनाई और जो तुम्हारे लिए निश्चित की है, वह बहुत फायदेमंद और बहुत बड़ी सुरक्षा है, तब तुम्हें महसूस होता है कि तुम्हारी पीड़ा धीरे-धीरे कम हो रही है, और तुम्हारा सम्पूर्ण अस्तित्व शांत, स्वतंत्र, एवं बंधनमुक्त हो जाता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से लगा कि, मुझे कैसे पता होगा कि यह परिवेश मेरे लिए लाभकारी है और मेरी रक्षा कर रहा है? खोज की तो एहसास हुआ परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, मुझे कभी भी बड़ी नाकामी, या आघात का अनुभव नहीं हुआ था, मुझे कभी बर्खास्त या मेरा तबादला नहीं किया गया था। लगातार मेरी तरक्की होती गई थी और मुझे विकसित किया गया था। अनजाने में ही, मुझे लगने लगा कि मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ, और कलीसिया में विकसित होने के योग्य हूँ, तो स्वाभाविक रूप से मैंने “तरक्की पाने” को अपना लक्ष्य बना लिया था। हर बार तरक्की पाकर, मैंने इसे परमेश्वर से मिली जिम्मेदारी या कर्तव्य नहीं माना, मैंने न तो सादगी से सत्य का अनुसरण किया, न ही यह सोचा कि अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का उपयोग कैसे किया जाए। बल्कि, अपने कर्तव्य को रुतबे के पीछे भागने और लोगों का सम्मान पाने का साधन समझा। मैंने सोचा कर्तव्य और रुतबा जितना बड़ा होगा, लोग उतनी ही मेरी प्रशंसा और सम्मान करेंगे, इसलिए मुझे तरक्की पाने की इतनी चिंता थी, और मैं हर दिन लाभ और हानि के बारी में सोचते हुए गुजारती थी। मैं भूल चुकी थी कि मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था में अनुसरण करना है। सोचती हूँ तो लगता है कि मेरी महत्वाकांक्षा और इच्छाएँ बहुत बड़ी थीं, अगर मेरी इच्छा के अनुसार मेरी तरक्की हो जाती और मुझे महत्वपूर्ण भूमिका मिल जाती, तो पता नहीं मेरा अहंकार कहाँ तक जाता या मैं क्या दुष्टता कर बैठती। ऐसी विफलताओं के बहुत सारे उदाहरण हैं। जब तक रुतबा नहीं होता, तब तक तो बहुत से लोग ईमानदारी से कर्तव्य करते हैं, लेकिन जैसे ही उन्हें रुतबा मिलता है, उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती हैं, वे बुराई करने लगते हैं, लोगों को धोखा देकर उन्हें फँसाते हैं। अपना नाम, लाभ और रुतबा बनाए रखने के लिए वे लोगों को दरकिनार करते और दबाते हैं, परिणामस्वरूप खुद पर बर्बादी लाते हैं। सत्य का अनुसरण कर सही मार्ग पर चलने वालों के लिए रुतबा अभ्यास और पूर्णता है। पर सत्य का अनुसरण न करने या सही मार्ग पर न चलने वालों के लिए, यह प्रलोभन और प्रकाशन है। उस वक्त तक मुझे कोई रुतबा नहीं मिला था, बस इस कारण कि मुझे तरक्की नहीं मिली थी या मुझे महत्व का नहीं समझा जाता था, मैं इतनी चिढ़ गई थी कि कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी। मैं देख सकती थी कि मेरी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत बड़ी थीं, अगर मुझे तरक्की देकर वाकई कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य दिया जाता, तो मैं यकीनन उन्हीं के समान बुरी तरह असफल होती, जो पहले असफल हो चुके थे। इस मुकाम पर, मैंने महसूस किया कि तरक्की पाकर टीम अगुआ या सुपरवाइजर न बनना परमेश्वर की अनुमति से था। उसने इस माहौल का इस्तेमाल मुझे रोकने और आत्म-चिंतन करवाने के लिए किया, ताकि मैं अपना मार्ग सही कर सकूँ और मुझे सत्य के मार्ग का अनुसरण करूँ। मेरे जीवन को इस परिवेश की ही आवश्यकता थी, यह मेरी बड़ी सुरक्षा थी। इन बातों पर सोचा तो, लगा कि मैं बहुत अज्ञानी और अंधी थी, मैंने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी। मैंने गलत समझकर उसे दोष दिया। मैंने सच में परमेश्वर के दिल को आहत किया था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर लोगों के पास कैसा दिल होने की अपेक्षा करता है? सबसे पहली बात, यह दिल ईमानदार होना चाहिए, और उन्हें शुद्ध अंतःकरण से और यथार्थ में रहकर अपना कर्तव्य निभाने लायक होना चाहिए, कलीसिया का कार्य सर्वोपरि रखने में सक्षम होना चाहिए, और उनमें अब कभी तथाकथित ‘बड़ी महत्वाकांक्षाएँ’ या ‘ऊँचे लक्ष्य’ नहीं होने चाहिए। जैसे-जैसे वे परमेश्वर का अनुसरण और स्तुति करते हैं तो हर कदम अपने पदचिह्न छोड़ता है, वे खुद सृजित प्राणियों जैसा आचरण करते हैं; वे अब एक असाधारण या महान व्यक्ति बनने का प्रयास नहीं करते, खास कारनामे करने वाला व्यक्ति तो बिल्कुल भी नहीं बनना चाहते, और वे दूसरे ग्रहों के प्राणियों की स्तुति भी नहीं करते हैं। इसके अलावा, इस दिल को सत्य से प्रेम करना चाहिए। सत्य से प्रेम करने का अर्थ मुख्य रूप से क्या है? इसका अर्थ है सकारात्मक चीजों से प्रेम करना, न्याय की भावना रखना, स्वयं को नेकनीयती से परमेश्वर के लिए खपा सकना, उससे सचमुच प्रेम करना, उसके प्रति समर्पित होना और उसकी गवाही देना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं बहुत प्रेरित हुई। मैंने लोगों से परमेश्वर की आशाएँ और अपेक्षाएँ महसूस कीं। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग प्रसिद्ध, महान या उत्कृष्ट बनें। वह हमें बड़े उपक्रमों में लिप्त होने या गौरवपूर्ण उपलब्धि हासिल करने के लिए नहीं कहता। परमेश्वर बस यही चाहता है कि लोग सत्य का अनुसरण कर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को समर्पित हों, सादगी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। लेकिन मुझे न तो परमेश्वर की इच्छा की समझ थी, न मैं खुद को जानती थी। मुझे हमेशा से रुतबे की, उत्कृष्ट या ताकतवर हस्ती बनने की चाह थी। लगता था कि बिना रुतबे और सत्कार के, मेरा जीवन निराशा भरा और निरर्थक है। मुझमें न इंसानियत थी और न विवेक। मैं घास थी जो पेड़ बनना चाहती थी, चींटी थी जो हाथी बनना चाहती थी, इस वजह से मैंने इतना तनाव ले लिया कि मैं दुख से टूट गई। इसका एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! पहले मैं रुतबे, नाम और ज्ञान के पीछे भागा करती थी। चाहती थी कि लोग मेरी प्रशंसा और मुझे सराहें। गुमनामी में रहकर कर्तव्य करने से मैं संतुष्ट नहीं थी, जिससे तू घृणा और नफरत करता है। अब मैं समझ गई हूँ कि यह गलत तरीका है। मैं तेरी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को समर्पित होना चाहती हूँ। आगे चलकर मुझे तरक्की मिल पाए न मिल पाए, मैं सादगी से सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य बखूबी निभाऊंगी।” प्रार्थना के बाद, मुझे सुकून मिला और परमेश्वर के करीब होने का एहसास हुआ।

फिर परमेश्वर के वचन पढ़कर, लक्ष्य को लेकर, अपने गलत विचारों का ज्ञान हुआ। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब किसी व्यक्ति को अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के लिए पदोन्नत किया जाता है, या उन्हें किसी तरह के तकनीकी कार्य के सुपरवाइजर के तौर पर तैयार किया जाता है, तो यह परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें एक दायित्व सौंपने से ज्यादा कुछ नहीं है। यह एक आदेश है, एक जिम्मेदारी है, और निस्संदेह, यह एक विशेष कर्तव्य, एक असाधारण अवसर भी है; यह एक असाधारण उन्नति है, और इस व्यक्ति के पास डींग मारने के लिए कुछ नहीं है। जब किसी को परमेश्वर के घर द्वारा उन्नत और विकसित किया जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि परमेश्वर के घर में उसका विशेष स्थान या दर्जा होता है, ताकि वह विशेष व्यवहार और अनुग्रह का आनंद ले सके। इसके बजाय, परमेश्वर के घर द्वारा असाधारण रूप से उन्नत किए जाने के बाद उसे कुछ महत्वपूर्ण कलीसिया-कार्य करने का अभ्यास करने के लिए परमेश्वर के घर से प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु उत्कृष्ट स्थितियाँ दी जाती हैं, और साथ ही परमेश्वर के घर में इस व्यक्ति के लिए उच्चतर अपेक्षित मानक अधिक होते हैं, जो उसके जीवन-प्रवेश के लिए बहुत फायदेमंद है। जब किसी व्यक्ति को परमेश्वर के घर में उन्नत और विकसित किया जाता है, तो इसका मतलब है कि उसे सख्त अपेक्षाओं के तहत रखा जाएगा और उसकी कड़ी निगरानी की जाएगी। परमेश्वर का घर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य का कड़ाई से निरीक्षण और पर्यवेक्षण करेगा, और उसके जीवन-प्रवेश को समझेगा और उस पर ध्यान देगा। इन दृष्टिकोणों से, क्या परमेश्वर के घर द्वारा उन्नत और विकसित लोग विशेष व्यवहार, विशेष हैसियत और विशेष स्थिति का आनंद लेते हैं? बिल्कुल नहीं, और किसी विशेष पहचान का आनंद तो वे बिल्कुल भी नहीं लेते। जिन लोगों को पदोन्नत और विकसित किया गया है, अगर उन्हें लगता है कि अपना कर्तव्य कुछ हद तक प्रभावी ढंग से करने के परिणामस्वरूप उनके पास पूँजी है, और इसलिए वे निष्क्रिय होकर सत्य का अनुसरण करना बंद कर देते हैं, तो वे परीक्षणों और क्लेशों का सामना करने पर खतरे में पड़ जाते हैं। अगर लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तो उनके मजबूती से खड़े रहने में असमर्थ होने की संभावना है। कुछ लोग कहते हैं, ‘अगर किसी को अगुआ के रूप में पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसकी एक पहचान होती है। वह ज्येष्ठ पुत्रों में से एक न भी हो, फिर भी उसके पास कम से कम परमेश्वर के लोगों में से एक बनने की आशा तो है। मुझे कभी पदोन्नत या विकसित नहीं किया गया है, तो मेरे लिए परमेश्वर के लोगों में से एक के रूप में गिने जाने की क्या आशा है?’ ऐसा सोचना गलत है। परमेश्वर के लोगों में से एक बनने के लिए तुम्हारे पास जीवन अनुभव होना चाहिए, और तुम्हें ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता है। चाहे तुम कोई अगुआ हो या कार्यकर्ता या साधारण अनुयायी, जिसके पास भी सत्य वास्तविकताएँ हैं, वह परमेश्वर के लोगों में से एक है। भले ही तुम कोई अगुआ या कार्यकर्ता हो, अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकताओं का अभाव है, तो तुम अभी भी एक सेवाकर्ता ही हो(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि कलीसिया में तरक्की और विकसित होने का अर्थ यह नहीं कि लोगों को एक विशेष दर्जा प्राप्त है, न इसका मतलब जगत में सरकारी अफसर जैसा आवभगत पाना है। यह अभ्यास करने का एक अवसर मात्र है। यह केवल लोगों के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी है। तरक्की और विकसित होने का अर्थ मात्र इतना है कि किसी व्यक्ति को एक कर्तव्य से हटाकर दूसरा कर्तव्य सौंपा गया है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उस व्यक्ति की पहचान और रुतबा दूसरे से ऊंचा है, और तो और इसका अर्थ यह नहीं कि उसे सत्य का ज्ञान है या उसमें उसकी वास्तविकताएं हैं। पदोन्नत नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि तुम हीन हो, या तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है और तुम बचाए नहीं जा सकते। कहने का अर्थ है कि तुम कोई भी कर्तव्य करो, तुम्हारी तरक्की हो, न हो, परमेश्वर सबके साथ न्यायपूर्ण है, और सभी को उनके कर्तव्य में अभ्यास का मौका दिया जाता है। कलीसिया हर व्यक्ति की क्षमता और खूबियों के अनुसार कर्तव्यों की व्यवस्था करता है, ताकि हर किसी की क्षमता और खूबियों का पूरा उपयोग किया जा सके। इससे कलीसिया के काम और हमारे निजी जीवन प्रवेश दोनों को फायदा होता है। तुम्हें तरक्की देकर महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपा जाए या नहीं, लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएं और सभी के लिए प्रावधान समान होते हैं। परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपना स्वभाव बदलें। इसलिए, परमेश्वर द्वारा लोगों का उद्धार उनके रुतबे या योग्यता पर कभी निर्भर नहीं होता। बल्कि, सत्य और कर्तव्य के प्रति लोगों के रवैये पर निर्भर करता है। अगर तुम सत्य के मार्ग पर चलते हो, तो तुम अपना कर्तव्य निभाते और अभ्यास करते हुए जीवन में प्रगति करने लगते हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा हो, तुम टिक नहीं पाओगे। देर-सवेर तुम्हें बर्खास्त करके निकाल दिया जाएगा। पहले मुझे तरक्की की सही समझ नहीं थी। मुझे हमेशा लगता था कि इसका मतलब रुतबा हासिल करना है, जितना ऊँचा रुतबा, उतना अच्छा भविष्य और भाग्य होगा। नतीजतन मैंने अपने कर्तव्य में सत्य के अनुसरण पर ध्यान नहीं दिया और मैं सिर्फ रुतबे के पीछे भागती रही। अब जाकर एहसास हुआ कि चीजों के बारे में मेरा दृष्टिकोण बेतुका है! वास्तव में, कलीसिया ने मुझे अभ्यास का मौका दिया, लेकिन महत्वपूर्ण कार्यों के लिए मुझमें क्षमता की काफी कमी थी। लेकिन मुझमें आत्मज्ञान नहीं था, इसलिए मुझे हमेशा लगता था कि मैं सक्षम हूँ, अधिक जरूरी काम के लिए पदोन्नत की जा सकती हूँ। मुझे अपने बारे में कुछ पता ही नहीं था। परमेश्वर के घर में हम चाहे जो भी काम करें, हम सभी को सत्य समझकर सत्य सिद्धांतों में प्रवेश करना होगा ताकि हमारे काम के परिणाम अच्छे आएँ। पर मैं न सत्य समझती थी, कोई व्यावहारिक काम बिल्कुल नहीं कर सकती थी। अगर मेरी पदोन्नति हो भी जाती, तो मैं क्या अच्छा कर लेती? क्या मैं रुकावट नहीं बन जाती? एक तो मैं बुरी तरह थक जाती, ऊपर से कलीसिया के काम में बाधा बनती। इससे कोई फायदा नहीं होता। इस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि मेरा वर्तमान कर्तव्य ही मेरे लिए सबसे उपयुक्त है। मैं इसके काबिल भी थी और मेरी खूबियों का सदुपयोग भी हो रहा था। यह मेरे अपने जीवन प्रवेश में सहायक और कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद था। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन से, मैं उसकी इच्छा के बारे में जान गई, मुझे अपनी जगह मिल गई, मैं समझ गई कि मुझे कौन-सा कर्तव्य निभाना चाहिए, और मेरी नकारात्मक अवस्था बदल गई।

उसके बाद, मैं नाम, लाभ और रुतबे के नियंत्रण से मुक्त होकर अपने कर्तव्य में दायित्व वहन कर रही थी। जब मैं काम में व्यस्त न होती, तो खाली समय में सुसमाचार का प्रचार कर परमेश्वर के बारे में गवाही देती। परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने और सत्य के लिए तरसने वालों को अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारते देख, मुझे बड़ी राहत और सुकून मिला। आखिरकार, मैं समझ गई कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने महत्वपूर्ण पद पर हैं, महत्वपूर्ण यह है कि अपना कर्तव्य करते हुए तुम सृजित प्राणी की भूमिका निभा सकते हो या नहीं। यह सबसे अहम है। अभी, हालाँकि अक्सर सुनने में आता है कि मेरे परिचित कुछ भाई-बहनों को पदोन्नत किया गया है, लेकिन मैं बहुत शांत रहती हूँ और मैं पहले जैसी ईर्ष्यालु नहीं रही, क्योंकि मैं जान गई हूँ कि भले ही हम अलग-अलग कर्तव्य करें, लेकिन लक्ष्य एक ही है, और हम परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार को फैलाने के लिए भरसक प्रयास करते हैं। आखिरकार, अब मुझे अपनी जगह मिल गई है। मैं तो एक छोटी-सी सृजित प्राणी हूँ। मेरा कर्तव्य सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करना है। भविष्य में चाहे मेरा कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, मैं परमेश्वर की संतुष्टि के लिए उसे स्वीकारने, उसका पालन करने और कर्तव्य में अपना सर्वश्रेष्ठ देने को तैयार हूँ।

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