मैं भावनाओं के बंधन से कैसे निकली?
नवंबर 2020 में, मुझे एक अगुआ का पत्र मिला कि मेरी बरसों से विश्वासी माँ सभाओं में ठीक से शामिल नहीं हो रही हैं। वह हमेशा पैसे कमाने में व्यस्त रहती थीं और जब कभी इधर-उधर की सभाओं में शामिल होती भी, तो अक्सर झपकियाँ लेती रहतीं। वह मुश्किल से ही कभी परमेश्वर के वचन पढ़ती थीं, उपदेश नहीं सुनती थीं, उनके विचार अविश्वासियों जैसे थे, और उनके कृत्य काफी कुछ गैर-विश्वासियों जैसे थे। कलीसिया उन्हें निकालने पर विचार कर रही थी, तो उन्होंने मेरा मूल्यांकन माँगा था। यह सोचकर मुझे झटका लगा : “कहीं कलीसिया के अगुआ ने कोई गलती तो नहीं कर दी? कम से कम देखने में तो ऐसा लगता है कि मेरी माँ ने इन वर्षों में अपने विश्वास में थोड़ा-बहुत जोश और उत्साह दिखाया है। कभी-कभी भाई-बहनों को समस्या आती है, तो वह उनकी मदद भी करती हैं। यकीनन ऐसी नौबत तो बिल्कुल नहीं आईकि उन्हें हटा दिया जाए?” फिर मुझे ख्याल आया कि कलीसिया हमेशा लोगों को सिद्धांत के अनुसार हटाती है और ऐसा निर्णय उस व्यक्ति के समग्र व्यवहार और प्रकृति सार के आधार पर लेती है—वह कभी भी किसी के साथ अन्याय नहीं करेगी। मैं कर्तव्य की वजह से कई सालों से शहर से बाहर थी, तो मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि कलीसिया में मेरी माँ के तौर-तरीके कैसे हैं। पहले तो मुझे इसे बात को स्वीकार कर समर्पण कर देना चाहिए।
उसके बाद, मैंने इस पर विचार करना शुरू किया कि जब हम साथ थे तब मेरी माँ का व्यवहार कैसा था। जब भी मैं घर लौटकर उनकी स्थिति के बारे में पूछती, तो वह जानबूझकर मेरे सवाल को टाल जातीं। वह परमेश्वर के वचन भी नहीं पढ़ती थीं और उपदेश भी नहीं सुनती थीं। मैं जब उनके साथ परमेश्वर के वचन पढ़ने के महत्व पर संगति करती, तो वह सहमत हो जातीं, लेकिन बाद में फिर अपनी पुरानी आदतों पर लौट जातीं। अधिक पैसा कमाने के चक्कर में वह नियमित सभाओं में भी शामिल नहीं होती थीं। मैंने कई बार उनके साथ संगति की, लेकिन उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया, उनका कहना था कि अपनी तकदीर सुधारने के लिए वह सिर्फ खुद पर भरोसा कर सकती हैं। इतना ही नहीं, वह अक्सर छोटी-छोटी बातों पर मेरे पिता से बहस भी करती रहती थीं। जब भी पिताजी उनसे कठोर लहजे में बात कर उनके अभिमान को चोट पहुँचाते, तो वह नाराज हो जातीं, अपना गुस्सा निकालने के लिए अक्सर पिता को एक अविश्वासी की तरह कोसतीं। मैं जब भी एक नेक इंसान की तरह जीने के तौर-तरीकों पर उनसे संगति करती, तो वह यह कहकर अनसुनी कर देतीं कि यह सब उनसे नहीं हो सकता। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कुछ लोगों के विश्वास को परमेश्वर के हृदय ने कभी स्वीकार नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह नहीं मानता कि ये लोग उसके अनुयायी हैं, क्योंकि परमेश्वर उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं करता। क्योंकि ये लोग, भले ही कितने ही वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हों, लेकिन इनकी सोच और इनके विचार कभी नहीं बदले हैं; वे अविश्वासियों के समान हैं, अविश्वासियों के सिद्धांतों और लोगों से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों, और जिन्दा रहने के उनके नियमों एवं विश्वास के मुताबिक चलते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचन को कभी अपना जीवन नहीं माना, कभी नहीं माना कि परमेश्वर का वचन सत्य है, कभी परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया, और परमेश्वर को कभी अपना परमेश्वर नहीं माना। वे परमेश्वर में विश्वास करने को एक किस्म का शगल मानते हैं, परमेश्वर को महज एक आध्यात्मिक सहारा समझते हैं, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर का स्वभाव, या उसका सार इस लायक है कि उसे समझने की कोशिश की जाए। कहा जा सकता है कि वह सब जो सच्चे परमेश्वर से संबद्ध है उसका इन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; उनकी कोई रुचि नहीं है, और न ही वे ध्यान देने की परवाह करते हैं। क्योंकि उनके हृदय की गहराई में एक तीव्र आवाज है जो हमेशा उनसे कहती है : ‘परमेश्वर अदृश्य एवं अस्पर्शनीय है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है।’ वे मानते हैं कि इस प्रकार के परमेश्वर को समझने की कोशिश करना उनके प्रयासों के लायक नहीं है; ऐसा करना अपने आपको मूर्ख बनाना होगा। वे मानते हैं कि कोई वास्तविक कदम उठाए बिना अथवा किसी भी वास्तविक कार्यकलाप में स्वयं को लगाए बिना, सिर्फ शब्दों में परमेश्वर को स्वीकार करके, वे बहुत चालाक बन रहे हैं। परमेश्वर इन लोगों को किस दृष्टि से देखता है? वह उन्हें अविश्वासियों के रूप में देखता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने महसूस किया कि परमेश्वर में गैर-विश्वासियों की आस्था केवल मौखिक होती है, वे सत्य का अभ्यास नहीं करते। उनका प्रकृति सार सत्य से घृणा करने का है और परमेश्वर भी कभी उनकी आस्था को स्वीकार नहीं करता। मेरी माँ ने अपनी बरसों की आस्था में कभी सत्य स्वीकारा ही नहीं था, अपनी आस्था, विचार, बातचीत और व्यवहार में वह उनकी तरह थीं जिनमें कोई विश्वास नहीं होता—क्या इससे वह गैर-विश्वासी नहीं हो गई थीं? मुझे उनके व्यवहार का एक ईमानदार विवरण देना चाहिए। वैसे मेरी माँ ने हमेशा मेरे विश्वास का समर्थन किया था, यहाँ तक कि जब घरवाले आपत्ति करते या मुझे भला-बुरा कहते, तो हमेशा मेरा बचाव करतीं ताकि मैं अपने कर्तव्य शांति से कर सकूँ। मैं बरसों तक कर्तव्यों के सिलसिले में शहर से बाहर रही हूँ, तो उस दौरान वह आर्थिक रूप से मेरी मदद किया करतीं थीं। जब कभी मैं बीमार पड़ती, तो मुझे अस्पताल ले जातीं, मेरा पंजीकरण कराने और दवा वगैरह लाने के लिए भाग-दौड़ करतीं। जब कभी मैं घर आती, तो मेरे लिए खाने-कपड़े की व्यवस्था करतीं...। इन सब बातों को याद कर, मैं खुद को उनका आकलन लिखने के लिए तैयार नहीं कर सकी। मैं काफी पीड़ा और द्वंद्व में थी : “वह मेरी माँ हैं और इस नाते मेरा आकलन बहुत मायने रखता है। अगर मैंने उनके व्यवहार को ईमानदारी से बयाँ कर दिया, तो उनके हटाए जाने की संभावना और भी अधिक हो जाएगी। क्या उनकी आस्था का मार्ग ही अवरुद्ध नहीं हो जाएगा? जब उन्हें पता चलेगा कि मैंने उनके गैर-विश्वासी व्यवहार के बारे में लिखा है, तो उनका दिल टूट जाएगा, उन्हें लगेगा कि मैं हृदयहीन और कृतघ्न हूँ।” यह विचार ही जैसे मेरे दिल को चीर रहा था, मेरी आंखों से टप-टप आंसू बहने लगे। दुख की इस अवस्था में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरा मार्गदर्शन कर मुझे सही राह दिखाए ताकि मैं सच के साथ खड़ी रहूँ।
प्रार्थना के बाद मुझे काफी शांति मिली। उसी दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो। हालाँकि ये बाहर से महत्त्वहीन लग सकती हैं, किंतु जब ये चीजें होती हैं तो ये दर्शाती हैं कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो या नहीं। यदि तुम करते हो, तो तुम उसके लिए गवाही देने में अडिग रह पाओगे, और यदि तुम उसके प्रति प्रेम को अभ्यास में नहीं लाए हो, तो यह दर्शाता है कि तुम वह व्यक्ति नहीं हो जो सत्य को अभ्यास में लाता है, यह कि तुम सत्य से रहित हो, और जीवन से रहित हो, यह कि तुम भूसा हो! लोगों के साथ जो कुछ भी होता है, वह तब होता है जब परमेश्वर को आवश्यकता होती है कि लोग उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहें। भले ही इस क्षण में तुम्हारे साथ कुछ बड़ा घटित न हो रहा हो, और तुम बड़ी गवाही नहीं देते, किंतु तुम्हारे जीवन का प्रत्येक विवरण परमेश्वर के लिए गवाही का मामला है। यदि तुम अपने भाइयों और बहनों, अपने परिवार के सदस्यों और अपने आसपास के सभी लोगों की प्रशंसा प्राप्त कर सकते हो; यदि किसी दिन अविश्वासी आएँ और जो कुछ तुम करते हो उसकी तारीफ करें, और देखें कि जो कुछ परमेश्वर करता है वह अद्भुत है, तो तुमने गवाही दे दी होगी। ... यद्यपि तुम महान कार्य करने में अक्षम हो, लेकिन तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो। अन्य लोग अपनी धारणाओं को एक ओर नहीं रख सकते, लेकिन तुम रख सकते हो; अन्य लोग अपने वास्तविक अनुभवों के दौरान परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते, लेकिन तुम परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और उसके लिए ज़बर्दस्त गवाही देने के लिए अपनी वास्तविक कद-काठी और कार्यकलापों का उपयोग कर सकते हो। केवल इसी को परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करना माना जाता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे एहसास हुआ कि अपनी माँ का यह मूल्यांकन लिखने में सत्य सिद्धांत शामिल थे। मुझे परमेश्वर की जाँच को स्वीकारना चाहिए था और इस मामले में उसकी आज्ञा का पालन करना चाहिए था। अपनी भावनाओं से काम लेने के बजाय मुझे अपनी माँ की असल स्थिति का निष्पक्ष ढंग से वर्णन करना चाहिए था। उनके साथ अपने एक भावनात्मक जुड़ाव के कारण, मैं मूल्यांकन नहीं लिखना चाहती थी यह जानते हुए भी कि उनमें कुछ गैर-विश्वासी व्यवहार मौजूद थे, मुझे इस बात का डर था कि ऐसा करने पर उन्हें कलीसिया से हटाया जा सकता है और फलस्वरूप वह अपने उद्धार का अवसर गँवा सकती हैं। क्या मैं सही चीज का समर्थन कर गवाही देने में असफल नहीं हो रही थी? मैं अपने विश्वास में सत्य के पक्ष में खड़ी होकर कलीसिया के काम की रक्षा करने में आनाकानी कर रही थी। मैंने भावनात्मक संबंध के कारण अपनी माँ का बचाव किया—मेरा परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कहां था? पहले तो मैं मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और गैरविश्वासियों को पूरी सक्रियता और उत्साह से संभाल लेती थी, कलीसिया के शुद्धिकरण की महत्ता पर भाई-बहनों के साथ संगति कर लेती थी, कलीसिया के काम की रक्षा के लिए नकारात्मक चीजों को उजागर करने के लिए न्याय-शक्ति से बात करती थी। लेकिन जैसे ही मेरी माँ का मसला आया, मुझ पर भावनात्मक संबंध हावी हो गए और मैं सिद्धांत के अनुसार कार्रवाई नहीं कर पाई। मेरे अंदर रत्तीभर भी सत्य वास्तविकता नहीं थी, मेरे लिए मातृ-स्नेह अधिक प्रबल था! इन सब बातों का एहसास होने पर, मेरी पीड़ा थोड़ी कम हो गई और मैंने तुरंत मूल्यांकन लिखकर अगुआ को भेज दिया।
अगले ही दिन, मैंने एक उपदेश में पढ़ा कि भले ही बिना सत्य खोजे कोई बरसों से विश्वासी रहा हो, अगर उसने कोई गड़बड़ी या विघ्न पैदा नहीं किया है, तो उसे हटाए जाने से अस्थायी तौर पर बचाया जा सकता है। मेरे दिल में आशा की किरण जागी। मेरी माँ ने सत्य की खोज भले ही न की हो, लेकिन उन्होंने कलीसिया के काम में कोई गड़बड़ी या विघ्न पैदा नहीं किया था। अपनी स्थिति-विशेष में, संभवतः अभी भी उनके पास पश्चाताप करने का एक अवसर था। मुझे लगा कि हो सकता है कि कलीसिया की अगुआ ने उनकी स्थिति को ठीक से न समझा हो। इस बात पर बल देते हुए कि मेरी माँ उत्साहपूर्वक भाई-बहनों की मदद करती रही हैं, शायद मैं एक पत्र लिखकर उनसे अनुरोध कर सकती थी कि वह मेरी माँ के साथ थोड़ी और संगति कर लें। निश्चित रूप से उन्हें कलीसिया से निकालने के बजाय, उन्हें कलीसिया में ही सेवा करते रहने देना बेहतर होता। मेरी इच्छा हुई कि मैं तुरंत ही एक पत्र स्थानीय कलीसिया को लिख दूँ, लेकिन जैसे ही लिखना शुरू किया, तो मैं चिंतित हो गई : “मुझे अपनी माँ के वर्तमान व्यवहार की अच्छी समझ नहीं है। अगर वह सच में नियमित रूप से परमेश्वर के वचन नहीं पढ़तीं और सभाओं में भी ऊँघती रहती हैं, तो क्या इसका असर सभाओं में मौजूद अन्य भाई-बहनों पर नहीं पड़ेगा? क्या मैं यह पत्र सिर्फ इसलिए नहीं लिख रही हूँ क्योंकि मुझे अपनी माँ से भावनात्मक लगाव है और मैं उनका बचाव करना चाहती हूँ? लेकिन अगर हटा दिया गया, तो फिर उन्हें कभी उद्धार पाने का अवसर नहीं मिलेगा।” इस दुखद स्थिति में, मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपनी अनुचित स्थिति को समझूँ और भावुक होकर कार्य करने से बचना सीखूँ। प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले : “भावनाओं से संबंधित कौन-से मुद्दे हैं? एक तो यह है कि तुम अपने परिवार का मूल्यांकन कैसे करते हो, तुम उनके द्वारा किए जाने वाले कामों पर कैसी प्रतिक्रिया देते हो। ‘उनके द्वारा किए जाने वाले कामों’ में शामिल हैं उनका कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त करना, लोगों की पीठ पीछे उनकी आलोचना करना, गैर-विश्वासियों वाले काम करना, इत्यादि। क्या तुम अपने परिवार द्वारा की जाने वाली इन चीजों के प्रति निष्पक्ष हो सकते हो? अगर तुम्हें लिखित रूप में तुम्हारे परिवार का मूल्यांकन करने के लिए कहा जाए, तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर तटस्थ और निष्पक्ष रूप से ऐसा करोगे? यह इससे संबंधित है कि तुम्हें परिवार के सदस्यों का सामना कैसे करना चाहिए। और क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जिनके साथ तुम उठते-बैठते हो या जिन्होंने पहले कभी तुम्हारी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति तटस्थ, निष्पक्ष और सटीक होगे? क्या तुम उन्हें कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त करते पाकर तुरंत उनकी रिपोर्ट करोगे या उन्हें उजागर करोगे? इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जो तुम्हारे करीब हैं या जिनके हित समान हैं? क्या उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति तुम्हारा मूल्यांकन, परिभाषा और प्रतिक्रिया निष्पक्ष और तटस्थ होगी? और अगर सिद्धांत के तकाजे से कलीसिया तुमसे भावनात्मक रूप से संबंधित किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई कदम उठाए और वे कदम तुम्हारी धारणाओं के विपरीत हों, तो तुम कैसे प्रतिक्रिया करोगे? क्या तुम आज्ञापालन करोगे? क्या तुम उनके साथ गुप्त रूप से संपर्क बनाए रखोगे, क्या तुम अभी भी उनके द्वारा फुसलाए जाते रहोगे, क्या तुम अभी भी उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए तैयार हो जाओगे? क्या तुम उनके दोष अपने सिर लेकर उनकी मदद करोगे, जिन्होंने तुम पर दया दिखाई है, जो सत्य सिद्धांतों से बेखबर हैं और परमेश्वर के घर के हितों की परवाह नहीं करते? ये सारे भावनात्मक मुद्दे हैं, है न?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे रिश्तेदार या माता-पिता परमेश्वर के विश्वासी हैं और उन्हें बुरे कर्म करने, रुकावटें पैदा करने या सत्य को जरा भी न स्वीकारने के कारण निकाल दिया जाता है। लेकिन तुम्हें उनकी पहचान नहीं है, तुम नहीं जानते कि उन्हें क्यों निकाला गया है, तुम बेहद परेशान हो जाते हो और हमेशा यह शिकायत करते हो कि परमेश्वर के घर में प्रेम नहीं है और यह लोगों के प्रति निष्पक्ष नहीं है। ऐसे में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य खोजना चाहिए, फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर यह मूल्यांकन करना चाहिए कि ये रिश्तेदार किस तरह के लोग हैं। अगर तुम वाकई सत्य को समझते हो, तो तुम उन्हें सटीक रूप से परिभाषित कर लोगे और देखोगे कि परमेश्वर जो भी करता है वह सही होता है, और वह धार्मिक परमेश्वर है। फिर तुम्हें कोई शिकायत नहीं रहेगी, तुम परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकोगे, और अपने रिश्तेदारों या माता-पिता का बचाव करने की कोशिश नहीं करोगे। यहाँ मुख्य बात अपनी रिश्तेदारी बिगाड़ना नहीं है, बल्कि सिर्फ यह परिभाषित करना है कि वे किस तरह के लोग हैं, और यह जानना है कि तुम उन्हें कैसे पहचान पाओगे, और यह कैसे जानोगे कि उन्हें क्यों निकाला गया है। अगर ये चीजें तुम्हारे दिल में बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं, और तुम्हारे दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप होते हैं, तो तुम परमेश्वर की तरफ खड़े होने में सक्षम होगे, और इस मामले में तुम्हारे दृष्टिकोण पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों से मेल खाएंगे। अगर तुम सत्य को स्वीकारने में सक्षम नहीं हो या लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते हो, और लोगों को देखने में अभी भी दैहिक संबंधों और परिप्रेक्ष्यों को अहमियत देते हो, तो तुम इस दैहिक संबंध के बंधन से कभी नहीं निकल पाओगे, और अभी भी लोगों को अपने रिश्तेदार मानोगे—यहाँ तक कि उन्हें कलीसिया के अपने भाई-बहनों से भी अधिक करीब मानोगे, ऐसे में इस मामले में परमेश्वर के वचनों और अपने परिवार के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में विरोधाभास होगा—यहाँ तक कि टकराव भी होगा, और ऐसी परिस्थिति में तुम्हारे लिए परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना नामुमकिन हो जाएगा और तुम्हारे मन में उसके प्रति धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाएँगी। इस प्रकार, अगर लोगों को परमेश्वर के साथ सुसंगत होना है, तो सबसे पहले मामलों को लेकर उनके दृष्टिकोण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने में सक्षम होना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को सत्य मानना चाहिए, और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं को दरकिनार करने में सक्षम होना चाहिए। तुम चाहे किसी भी व्यक्ति या मामले का सामना करो, तुम अपने दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य परमेश्वर के समान बनाए रखने में सक्षम होगे, और तुम्हारे दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य सत्य के साथ समन्वय में होंगे। इस तरह, तुम्हारे दृष्टिकोण और लोगों के प्रति तुम्हारा रवैया, परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं होगा, तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर पाओगे और परमेश्वर के साथ सुसंगत होगे। ऐसे लोग संभवतः कभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर सकते; यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर पाना चाहता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें)। परमेश्वर के वचन प्रकट करते हैं कि दैहिक स्नेह से बंधे हुए लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते या अपने रिश्तेदारों का निष्पक्ष और न्यायोचित मूल्यांकन नहीं कर पाते, ऐसे लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य तो बिल्कुल ही नहीं कर पाते। इसके बजाय, वे कलीसिया के हितों के बारे में जरा भी विचार किए बिना, अपने रिश्तेदारों की रक्षा और उनका बचाव करने में ही लगे रहते हैं। परमेश्वर के वचनों से मुझे अपनी स्थिति को थोड़ा-बहुत समझने का मौका मिला। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि मेरी माँ का प्रकृति सार एक गैर-विश्वासी जैसा ही है और वह कलीसियाई जीवन के लिए बाधक बन चुकी थीं। कलीसिया के काम की रक्षा के लिए मुझे सत्य का अभ्यास करते हुए अपनी माँ के व्यवहार को उजागर करना चाहिए। फिर भी मैं अपने भावनात्मक लगाव को नहीं छोड़ पाई थी, मुझे चिंता थी कि अगर उन्हें हटा दिया गया, तो उद्धार पाने का अवसर उनके हाथ से निकल जाएगा। तो यह सोचकर कि वह मेरे लिए कितनी अच्छी रही हैं, मैं उनकी ओर से जिरह करना चाहती थी, मैंने उनकी रक्षा करने, उन्हें बचाने और उनके व्यवहार को छिपाने की कोशिश की। उस उपदेश को पढ़ने के बाद, मैं लोगों को परमेश्वर के घर से निकालने और हटाने के पीछे के सिद्धांतों को बिल्कुल स्वीकार नहीं कर सकी, बल्कि मैंने बचाव का रास्ता ढूँढ़ा। मैंने चाहा कि कलीसिया उनके प्रति उदार रवैया अपनाकर उन्हें कलीसिया में बने रहने दे, ताकि उनका उद्धार पाने का मौका शायद अभी भी बरकरार रहे। परमेश्वर का घर कलीसिया की पवित्रता बनाए रखने और भाई-बहनों को शैतान के व्यवधानों से मुक्त कलीसियाई जीवन देने की खातिर एक सकारात्मक वातावरण प्रदान करने हेतु शुद्धिकरण का कार्य करता है। फिर भी मैंने अपने भावनात्मक लगाव को खुद पर हावी होने दिया, कलीसिया के काम का या यह हरकत भाई-बहनों के जीवन को कितना नुकसान पहुंचा सकती है, इसका जरा-सा भी विचार किए बिना अपनी माँ का बचाव किया। मैं कितनी स्वार्थी और नीच बन गई थी! शैतान ने मुझे पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया गया था और मैं इस तरह के शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जी रही थी “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” मैंने सोचा चूंकि माँ ने मुझे पाला है, मेरी अच्छी देखभाल की है और कर्तव्य-निर्वहन में मेरा साथ दिया है, तो उनका व्यवहार कितना भी बुरा हो, उसे सहन किया जाना चाहिए। मुझे लगा कि एक बेटी के रूप में उन्हें हटाए जाते देखना संतानोचित व्यवहार नहीं होगा। अगर थोड़ी-सी भी आशा है, तो मुझे उन्हें कलीसिया में बनाए रखने का मौका खोजने की कोशिश करनी होगी। क्या मैं परमेश्वर के विरुद्ध नहीं जा रही थी? एक विश्वासी के रूप में अपनी बरसों की आस्था में, माँ ने कभी परमेश्वर के वचनों को नहीं संजोया था, सभाओं में नियमित रूप से भाग नहीं लिया था या परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं किया था। उन्होंने खुद को सांसारिक चीजों और पैसे के पीछे भागने में झोंक दिया था, और यहाँ तक कहती थीं : “मैं सत्य की खोज के लिए परेशान नहीं हो सकती। पैसा कमाना ही मेरे लिए सबसे अचूक विकल्प है।” एक बार, जब एक दस साल पुराने विश्वासी दंपत्ति को, उनके बुरे कर्मों और कलीसिया के काम में व्यवधान पैदा करने के लिए हटा दिया गया, तो उन्होंने भाई-बहनों से कहा, “हममें से बहुत कम लोग अपने विश्वास में सफल होंगे—उन्हें हटा दिया गया है। देर-सवेर मैं भी हटा दी जाऊँगी।” उस समय, मैंने उनके साथ संगति की थी कि कैसे कलीसिया लोगों को सिद्धांत के अनुसार और उनके सामान्य व्यवहार और प्रकृति सार के आधार पर हटा देती है। मैंने उनसे यह भी कहा कि वह इस तरह की टिप्पणियों से नकारात्मकता के बीज बो रही हैं। फिर भी, उन्होंने आत्म-चिंतन नहीं किया और पूरी तरह से उदासीन बनी रहीं। मुझे एहसास हुआ कि मेरी माँ ने अपने बरसों के कलीसियाई जीवन में कभी भी सत्य नहीं स्वीकारा था और न ही उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था थी—वह सिर्फ एक गैर-विश्वासी थीं। मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनके वास्तविक सार को नहीं पहचाना था, यहाँ तक कि मैं हठपूर्वक अपने भ्रामक दृष्टिकोणों से चिपकी रही थी। मेरा मानना था कि भले ही उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, लेकिन जब तक कि वह खुले तौर पर काम में बाधा डालकर गड़बड़ नहीं कर रही थी, तब तक वह कलीसिया में सेवा करना जारी रख सकती हैं और शायद अभी भी उनके पास उद्धार पाने का अवसर है। मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि भले ही गैर-विश्वासी बाहरी तौर पर दुष्ट कर्म करते दिखाई न दें, लेकिन उनका प्रकृति सार सत्य को संजोता नहीं है, बल्कि उससे घृणा करता है। चाहे कितने भी वर्ष कलीसिया में रहें, वे कभी भी अपने जीवन स्वभाव में बदलाव नहीं ला सकेंगे या उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे। अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य मानवजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए सत्य व्यक्त करना है। अगर लोग सत्य से प्रेम न करें, तो वे कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभावों से मुक्त नहीं हो सकते और देर-सवेर उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाएगा। मुझे एहसास हुआ कि मुझमें सत्य की समझ नहीं है, मेरे विचार, मेरी सोच और राय सच में बेतुकी है। मुझे यह भी लगा कि गैर-विश्वासी कलीसिया में अपने गैर-कलीसियाई विचारों के बीज बोते हैं, जो कि पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के विपरीत होते हैं। जिन छोटे आध्यात्मिक कद के भाई-बहनों में सत्य की समझ नहीं होती, उनमें विवेक की कमी होती है; उन्हें ऐसे विचारों से आसानी से बाधित और गुमराह किया जा सकता है। इससे वे कमजोरी और नकारात्मकता में डूब जाते हैं, कुछ गंभीर मामलों में तो उनका विश्वास भी डगमगा सकता है और वे परमेश्वर से दूर हो सकते हैं। गैर-विश्वासी परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हैं, वे हमारे भाई-बहन नहीं हैं; वे मूलतः दुष्ट शैतान से जुड़े हैं और परमेश्वर के शत्रु हैं। अगर उन्हें कलीसिया से तुरंत स्वच्छ न किया जाए, तो वे केवल आपदा ही लाएँगे। मेरी माँ बरसों विश्वासी रही थीं, लेकिन उन्होंने कभी नियमित रूप से परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े, अभ्यास करने की तो बात ही छोड़ दो। मेरी तमाम संगति के बावजूद, वे हमेशा सांसारिक चीजों के पीछे भागने और पैसा कमाने में लगी रहीं, और उनकी प्रकृति सत्य से घृणा करने की थी। वह अक्सर अपने गैर-विश्वासी विचारों और अवधारणाओं को फैलाकर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती रहती थीं। अगर उन्हें एक और मौका दे भी दिया जाता, तो भी वह सच्चा पश्चाताप नहीं करतीं। मेरा ऐसे शैतानी किस्म के सदस्य को बचाने की कोशिश करना और उनकी ओर से जिरह करना ताकि वह कलीसिया में रह सकें, यह दर्शाता है कि मैं मंदबुद्धि थी और सही-गलत में फर्क नहीं समझती थी।
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिलकुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन का विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है और मैंने सबकुछ उसी से पाया है। परमेश्वर की देखभाल और पोषण पाकर ही मैं बड़ी हुई हूँ। इसके बाद, परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह किया, मुझे अपने सामने आने दिया और उसके वचनों का सिंचन और पोषण पाने की अनुमति दी ताकि मैं सत्य समझ सकूँ, जीवन का अर्थ जान सकूँ, सही आचरण सीख सकूँ और सही मार्ग चुन सकूँ। यह सब परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था। परमेश्वर ने माँ को मेरी अभिभावक होने और मुझे भौतिक दुनिया में पालने के लिए नियत किया था—मुझे उनकी देखभाल को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यह परमेश्वर से प्राप्त होती है, उनका सम्मान करना चाहिए और उनकी बेटी के रूप में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। हालाँकि जब बात सत्य सिद्धांत की हो, तो मैं भावनात्मक लगाव से प्रभावित नहीं हो सकती, बल्कि मुझे सत्य का अभ्यास कर अपनी माँ के सभी गैर-विश्वासी व्यवहारों को उजागर करना था। केवल यही कर्तव्यनिष्ठा और तर्कसंगत रूप से और सत्य सिद्धांत के अनुसार कार्य करना होता। अगर मैं अपने आचरण पर दैहिक स्नेह को हावी होने दूँ, अपनी माँ जैसे गैर-विश्वासी को प्रेम, करुणा, बचाव और सुरक्षा प्रदान करूँ और कलीसिया के काम की जरा भी चिंता न करूँ या यह न देखूँ कि इससे भाई-बहनों का कलीसियाई जीवन कैसे प्रभावित हो सकता है, अपनी माँ के साथ अपने रिश्ते को बचाने के लिए सत्य सिद्धांतों का त्याग कर दूँ, तो यह परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध करना होगा। तब मैं सच में विवेकहीन और कृतघ्न बन जाऊँगी। इस एहसास के बाद, मैंने अपने आपको स्वतंत्र और लाचारी से मुक्त महसूस किया।
इसके तुरंत बाद, जब मैं शहर में थी तो कुछ मामलों को संभालने और माँ का हाल-चाल जानने घर आई। उस रात हमने उनकी हाल की स्थिति के बारे में बात की, और उन्हें पता था कि कलीसिया उन्हें हटाने वाली है। मैंने जब उनसे संगति करने की कोशिश की, तो उन्होंने बिना कुछ कहे बात बदल दी। उन्हें अपने कृत्यों पर जरा भी पछतावा होते न देख, मैं और भी आश्वस्त हो गई कि उन्हें हटाने का कलीसिया का निर्णय पूरी तरह से सिद्धांत के अनुरूप है। दो महीने बाद, मुझे स्थानीय कलीसिया के अगुआ का एक और पत्र मिला, जिसमें मुझसे मेरी माँ के बारे में अपना पूर्व आकलन विस्तार से बताने के लिए कहा गया था। उस समय, मैंने सोचा : “कहीं ऐसा तो नहीं कि माँ का दुर्व्यवहार इतना गंभीर न हो कि उन्हें बहिष्कृत किया जाए? अगर ऐसा है, तो क्या इसका मतलब यह है कि कम से कम अभी के लिए, उन्हें नहीं हटाया जाएगा? लेकिन अभी दो महीने पहले ही जब मैंने उनसे संगति की थी तो माँ को जरा सा भी पछतावा नहीं था। क्या मुझे इस बारे में कलीसिया अगुआ को बताना चाहिए?” जब मैं इस मामले को लेकर दुविधा में थी, तो परमेश्वर के वचनों का यह अंश मेरे दिमाग में आया : “अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, ‘मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस दुष्ट बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।’ यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की निष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार ‘परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो’ होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने जाना कि मुझे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहना चाहिए, कलीसिया के जीवन की सामान्य व्यवस्था को बनाए रखना चाहिए और कलीसिया में उन लोगों को बेनकाब करना चाहिए जो मसीह-विरोधी, कुकर्मी और गैर-विश्वासियों के रूप में उजागर हुए हैं। ऐसा करके ही मैं अपने कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह कर पाऊँगी। मैंने सोचा कि जब अय्यूब की पत्नी ने उसे परमेश्वर को त्यागने के लिए कहा, तो वह परमेश्वर के पक्ष में खड़ा हो गया और अपनी पत्नी को “मूर्ख महिला” कहकर फटकार लगाई। अय्यूब ईमानदार और स्पष्टवादी था, उसे इस बात का स्पष्ट अंदाजा था कि किससे प्रेम करना चाहिए और किससे घृणा। उसने अपने जीवन जीने के तरीके को भावनात्मक लगाव से प्रभावित नहीं होने दिया। मुझे भी अपने दैहिक-सुख का त्याग कर देना चाहिए, सत्य को उसी रूप में उजागर करना चाहिए जैसा मैंने देखा था और गैर-विश्वासियों को अविलंब कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए। इस बात का एहसास होने पर, मैंने पिछली बार घर जाने पर अपनी माँ का जो भी व्यवहार देखा था, वह सब लिख दिया। उसके तुरंत बाद, मुझे एक पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि मेरी माँ को कलीसिया से निकाल दिया गया है। उन तमाम व्यवहारों का विस्तृत ब्योरा दिया गया था जिनका उल्लेख मैंने किया था। मुझे खुशी हुई कि मैंने भावनाओं के वशीभूत होकर अपनी गवाही नहीं खोई थी। मुझे शांति और स्थिरता का एहसास हुआ।
इस अनुभव से, मुझे इस बात की स्पष्ट समझ प्राप्त हुई कि परमेश्वर इंसान के प्रकृति सार और समग्र व्यवहार के आधार पर तय करता है कि किसे बचाना है और किसे बहिष्कृत करना है। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। हमें लोगों के साथ अपने व्यवहार में अपने भावनात्मक लगाव को हावी नहीं होने देना चाहिए, बल्कि हमारे कार्य-कलाप परमेश्वर के वचनों, सत्य सिद्धांतों पर आधारित होने चाहिए। केवल यही चीज परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। मैं परमेश्वर की सच में आभारी हूँ कि मैंने यह नई समझ प्राप्त की और ये लाभ अर्जित किए हैं।
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