मैं दूसरों से सहयोग करने से मना क्यों करती थी?
सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी संभालने के लिए कलीसिया में चुनाव था। भाई-बहनों ने जब मुझे चुना तो यह देखकर मैं हैरान रह गई। मैं काफी खुश थी। मुझे लगा, चुने जाने का मतलब है कि मुझमें काबिलियत है, मैं औरों से अधिक सक्षम हूँ। मैं थोड़ी घबराई भी थी, अगर अच्छा काम नहीं किया तो सबका विश्वास खो बैठूँगी, उन्हें लगेगा कि मैं निरीक्षण के योग्य नहीं हूँ। मैं भाई-बहनों को निराश नहीं करना चाहती थी। उन्होंने मुझे चुना था, तो मैं अपनी काबिलियत और क्षमता साबित करना चाहती थी कि मैं सुसमाचार कार्य आगे बढ़ा सकती हूँ। मैंने खुद को पूरी तरह काम में झोंक दिया। उस समय, बहन वांग मेरे काम की देखरेख कर रही थी, लेकिन मैं उससे इस बारे में चर्चा कम ही करती थी। मैं उसे कभी अपनी योजना न बताती, हमेशा अपने बलबूते पर काम करती थी। जब कभी वह मुझसे बात करना चाहती, तो वह मुझसे संपर्क न कर पाती और जब वह पूछती कि मैं कहाँ थी, तो मैं कोई बहाना बना देती, उसे अपने काम का कोई ब्योरा न देती। मैं सोचती, काम में थोड़ी सफल हो जाऊँ तो उसे सब बता दूँगी। तब वह मेरी काबिलियत और क्षमता की प्रशंसा करेगी कि मैं बिना किसी की मदद के अच्छा काम कर सकती हूँ। भाई-बहनों को भी मेरा चयन सही लगेगा कि मैं वह काम संभाल सकती हूँ। उस समय, हमारी टीम के भाई युनशियांग अपने काम में बड़ा जोशीला था, सुसमाचार कार्य में तो मुझसे अधिक प्रभावी था। जब बहन वांग ने उसके अच्छे काम की प्रशंसा की तो मैं बेचैनी हो गई। मैं निरीक्षक थी और वह महज एक आम कर्मचारी। काम में इतना जोश दिखाकर, क्या वह मुझे शर्मिंदा करना चाहता था? कहीं लोग उसे निरीक्षक तो नहीं बना देंगे? यह तो बड़े अपमान की बात होगी। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती।
एक बार, बहन वांग ने भाई युनशियांग और मुझे मिलकर एक काम करने को कहा। मैं अकेले काम करना चाहती थी, उसके साथ नहीं। लोग पहले ही काम में उसके लगन की प्रशंसा कर चुके थे, उसके साथ काम करूँगी, तो आधा श्रेय वही ले जाएगा, भाई-बहन भी शायद उसी का सम्मान करें। यह सोचकर, मैं अकेले ही काम करने लगी। मैं तुरंत अपनी उपलब्धियाँ बढ़ाना चाहती थी क्योंकि अगर मैं अच्छा काम करूँगी, तो हर कोई मुझे सराहेगा, मेरी प्रशंसा करेगा। उसके बाद मैं पूरे तन-मन से काम में जुट गई। लेकिन मेरी तमाम मेहनत, सारी ऊर्जा निष्फल सिद्ध हुई। मुझे परमेश्वर से शिकायत थी—मेरी तमाम मेहनत के बावजूद, वह मुझे आशीष क्यों नहीं देता? मेरी हालत बहुत खराब थी, मैं अब काम नहीं करना चाहती थी। बहन वांग को मेरी स्थिति का पता चला, तो उसने मेरे साथ सहभागिता की, "तुम्हें अच्छे परिणाम नहीं मिल रहे। कहीं काम के ढंग में कोई समस्या तो नहीं? समस्या का पता लगाकर उसमें सुधार लाओ। तुम हमेशा अकेले काम करना पसंद करती हो—यह काम करने का सही तरीका नहीं है। दूसरों के साथ मिलकर काम करो।" उसका मेरी समस्या बताना मुझे अच्छा नहीं लगा। समस्या मेरे तरीके में थी? मैंने पहले भी वैसे ही काम किया था, जो कि अच्छा था। यानी मेरा तरीका सही था—उसमें कुछ गलत नहीं था! इसलिए मैंने अपना ढंग बिल्कुल नहीं बदला। उस दौरान, अभ्यास के अच्छे मार्ग पर दूसरे मेरे साथ चाहे जैसे संगति करें, मैं उनकी बात सुनने और मानने को तैयार नहीं थी। मुझे लगता, अगर मैंने उनके कहे अनुसार किया और कुछ अच्छे परिणाम मिल गए, तो वो यही कहेंगे कि ये उपलब्धियां उनकी सलाह मानने से हासिल हुई हैं। तब सारा श्रेय वही ले जाएँगे—मेरी प्रशंसा कौन करेगा? मैं इस बात पर अड़ गई थी और अकेले ही काम करना चाहती थी। पलक झपकते ही दो सप्ताह बीत गए और मैं कुछ हासिल नहीं कर पाई। मैं बहुत दुखी थी। मैं हर दिन बिना थके काम कर रही थी, तो भी मुझे कोई परिणाम क्यों नहीं मिल रहे थे? समझ नहीं आ रहा था कि समस्या की जड़ क्या है, पर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। कुछ हफ्ते बाद, एक भाई ने मुझे फटकार लगाते हुए पूछा, "निरीक्षक होकर भी तुम मिलकर काम नहीं करती—हमेशा अकेले काम करती हो। ऐसे तुम क्या हासिल कर पाओगी? क्या इससे काम अटक नहीं जाता है?" उसकी बात मुझे बुरी लगी, लेकिन बाद में लगा कि वह सही था, यही बात थी। भाई-बहन मुझे बार-बार याद दिलाते कि मिलकर काम करना चाहिए, लेकिन मैं हर काम अकेले करती रही, जिससे काम के नतीजे नहीं मिले और उसमें देरी भी हो गई। लगा मैं ही दोषी हूँ और मैंने बदलाव लाना चाहा।
मैंने अपनी समस्या के बारे में अगुआ से बात की। उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : "अगर परमेश्वर के घर में लोग अपने खुद के दुनियावी फलसफों से जीते हैं, या एक-दूसरे के मिलकर रहने में अपनी खुद की धारणाओं, रुझानों, इच्छाओं, स्वार्थी मकसदों, खूबियों और होशियारी पर निर्भर करते हैं, तो यह परमेश्वर के सामने जीने का ढंग नहीं है, और वे आपसी एकता हासिल करने में अक्षम हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग शैतानी स्वभाव से जीते हैं तो वे एकता हासिल नहीं कर सकते। तो, इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? परमेश्वर उन पर काम नहीं करता। परमेश्वर के कार्य के बिना, अगर लोग अपनी खुद की मामूली-सी योग्यताओं और होशियारी पर, थोड़ी-सी महारत और हासिल की गई थोड़ी-सी जानकारी और हुनर पर निर्भर करते हैं तो परमेश्वर के घर में पूरी तरह इस्तेमाल किए जाने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, और वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने में परेशानियाँ महसूस करेंगे। परमेश्वर के कार्य के बिना तुम कभी भी परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर की अपेक्षाओं या अभ्यास के सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। तुम अपने कर्तव्यों को निभाने के रास्ते और सिद्धांतों को नहीं समझ पाओगे, और तुम कभी भी नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कैसे चलें, और कौन-से काम सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। अगर ये सब चीजें तुम्हें स्पष्ट नहीं होंगी तो तुम बस आँख मूंदकर नियमों का पालन और अनुसरण कर रहे होगे। अगर तुम अपने कर्तव्य ऐसे भ्रम के बीच निभाते हो तो तुम्हारा असफल होना निश्चित है। तुम कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सकोगे, और तुम्हारे कारण निश्चित ही परमेश्वर तुम्हें नापसंद और अस्वीकार कर देगा और तुम हटा दिए जाओगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में)। परमेश्वर के वचनों से एहसास हुआ कि मैं स्वार्थी बनकर अपनी इच्छा से काम नहीं कर सकती, अपने कौशल और तुच्छ चालबाजियों के भरोसे नहीं चल सकती। मुझे भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना होगा, चर्चा करके सभी के साथ एक सहमति बनानी होगी। वरना पवित्र आत्मा काम नहीं करेगा और परमेश्वर मेरे काम को आशीष नहीं देगा। लेकिन मेरा तो यह हाल था कि मैं जबसे निरीक्षक बनी थी, यही सोचती थी कि मैं विशेष हूँ, यानी अब मेरे पास शक्ति है। स्वच्छंद व्यक्ति की तरह पेश आते हुए भाई-बहनों से सहयोग नहीं कर रही थी ताकि सबसे अलग दिखूँ और लोगों से प्रशंसा और स्वीकृति पा सकूं। मैं अपनी निरीक्षक से भी काम पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं करती थी, उसे बिना बताए ही प्रोजेक्ट पर काम करती थी। कुछ हासिल करने के बाद ही मैं उसे बताना चाहती थी ताकि वह मेरी काबिलियत और क्षमता की प्रशंसा करे और उसे लगे कि मैं निरीक्षक के पद के योग्य हूँ। लेकिन सिद्धांत न खोजने के कारण मेरा काम निरर्थक रहा, मैं अनुचित भी थी, परमेश्वर से बहस कर उस पर आशीष न देने का आरोप लगा रही थी। यहाँ तक कि मैं काम छोड़ना चाहती थी। मैं कितनी बेवकूफ थी! अंतत: मुझे एहसास हुआ कि अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए अकेले काम करने, सिद्धांत न खोजने, औरों के साथ काम न करने से, काम कभी भी अच्छे से नहीं होगा। मेरे व्यवहार से परमेश्वर को घृणा थी और अगर मैं समय रहते नहीं बदली तो वह मुझे त्याग देगा। एहसास होते ही मैंने तुरंत प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं समझ गई हूँ कि अकेले काम करना, मिलकर काम न करना तुझे पसंद नहीं है। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं सही रास्ते पर आ जाऊँ और सबके साथ सद्भाव से काम करूँ।"
मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "'सौहार्दपूर्ण सहयोग' शब्दों को अक्षरशः समझना तो आसान है, लेकिन उन्हें व्यवहार में लाना मुश्किल है। इन शब्दों के व्यावहारिक पक्ष को जीना कोई आसान बात नहीं है। आसान क्यों नहीं है? (लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण।) सही कहा। इंसान के अंदर अहंकार, बुराई, अकर्मण्यता इत्यादि भ्रष्ट स्वभाव हैं और ये उसके सत्य के अभ्यास में बाधा डालते हैं। जब तुम दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो तुम्हारे अंदर हर तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, तुम सोचते हो : 'तुम चाहते हो कि मैं उस व्यक्ति के साथ सहयोग करूँ, लेकिन क्या वह इस योग्य है? अगर मैं किसी ऐसे व्यक्ति के साथ सहयोग करूँ जिसमें क्षमता की कमी हो, तो क्या लोग मुझे हिकारत से नहीं देखेंगे?' और कभी-कभी तुम यह भी सोच सकते हो, 'वह व्यक्ति इतना मूर्ख है कि मेरी बात ही नहीं समझता!' या 'मेरी बातों में विचारशीलता और अंतर्दृष्टि है। अगर मैंने उसे बताया और उसने उसे अपना लिया, क्या तब भी मेरी अलग पहचान बनेगी? मेरा प्रस्ताव सबसे अच्छा है। अगर मैं अपना प्रस्ताव बता दूँ और वह उसे ले उड़े, तो कौन जानेगा कि यह मेरा योगदान था?' ऐसे विचार और मत—ऐसी शैतानी बातें—आमतौर पर देखी-सुनी जाती हैं। अगर तुम्हारे विचार और राय ऐसी हो, तो क्या तुम लोगों के साथ सहयोग करने के इच्छुक हो? क्या तुम सौहार्दपूर्ण सहयोग कर पाओगे? यह आसान नहीं है; इसमें भी अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ हैं! 'सौहार्दपूर्ण सहयोग' बोलने में तो आसान हैं—मुँह खोला और फौरन बोल दिया। लेकिन जब उन पर अमल करने की बात आती है, तो तुम्हारे अंदर ही रुकावटें उभरकर आ खड़ी होती हैं। तुम्हारे विचार इधर-उधर डोलने लगते हैं। अगर कभी तुम्हारी मनोदशा अच्छी हुई, तो हो सकता है कि तुम दूसरों के साथ थोड़ी-बहुत संगति कर पाओ; लेकिन अगर तुम्हारी मनोदशा खराब हुई और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित करे, तो तुम इसका बिल्कुल अभ्यास नहीं कर पाओगे। कुछ लोग, बतौर अगुआ किसी के साथ सहयोग नहीं कर सकते। वे हमेशा दूसरों को हिकारत से देखते हैं, लोगों को पसंद-नापसंद करते हैं और अगर किसी में कमियाँ नजर आ जाएँ, तो वे उन लोगों की आलोचना कर उन पर हमला करते हैं। ये चीज अगुआओं को घटिया बना देती है और उन्हें हटा दिया जाता है। क्या वे 'सौहार्दपूर्ण सहयोग' शब्दों का अर्थ नहीं समझते? अच्छी तरह समझते हैं, बस उन्हें व्यवहार में नहीं ला पाते। वे उन्हें व्यवहार में क्यों नहीं ला पाते? क्योंकि वे हैसियत को बहुत अधिक महत्व देते हैं और उनका स्वभाव भी बहुत अहंकारी होता है। वे दिखावा करना चाहते हैं और जब हैसियत उनकी मुट्ठी में आ जाती है, तो वे उसे छोड़ना नहीं चाहते, उन्हें डर होता है कि वह किसी और के हाथ में पड़ जाएगी और उनके पास असल सत्ता नहीं बचेगी। वे डरते हैं कि लोग उन्हें छोड़ देंगे और उनका सम्मान नहीं करेंगे, उनकी बातों में कोई सामर्थ्य या अधिकार नहीं रह जाएगा। उन्हें इसी बात का डर होता है। उनका अहंकार कहाँ तक जाता है? वे समझ खो बैठते हैं और मनमानी करते हुए जल्दबाजी में कार्रवाई करते हैं। और इससे क्या होता है? न केवल उनका काम खराब होता है, बल्कि उनके क्रियाकलापों से व्यवधान और गड़बड़ी पैदा होती है, उन्हें हटाकर कहीं और लगा दिया जाता है। अच्छा बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति, जिसका स्वभाव ऐसा है, कहीं भी कर्तव्य निभाने योग्य होता है? मुझे लगता है कि ऐसे व्यक्ति को कहीं भी लगा दिया जाए, वह अपना काम ठीक से नहीं करेगा। वह किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकता—अच्छा, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह अकेले अपना काम अच्छे से कर सकता है? हरगिज नहीं। अगर वह अकेले अपना काम करेगा, तो उस पर और भी कम पाबंदियाँ होंगी, वह और भी अधिक मनमानी करेगा, हड़बड़ी के काम करेगा। तुम अपना काम अच्छे से कर सकते हो या नहीं, यह तुम्हारे कौशल, तुम्हारी क्षमता की गुणवत्ता, तुम्हारी मानवता, योग्यता या तुम्हारे हुनर का मामला नहीं है; यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य स्वीकार सकते हो और क्या उसे व्यवहार में ला सकते हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि अभिमानी स्वभाव के कारण लोग साथ मिलकर काम नहीं कर पाते। वह चाहता है कि हम सद्भाव से काम करें, दूसरों की मदद से अपनी कमियों की पूर्ति करें। इससे हम अपनी भ्रष्टता को भी काबू में रख सकते हैं। यह हमारे और हमारे काम के लिए फायदेमंद है। लेकिन मैं बहुत अभिमानी थी। सोचती थी मिलकर काम क्यों करूँ, मैं तो अकेले ही अच्छा काम कर सकती हूँ। मेरा मानना था कि अपनी काबिलियत दिखाने के लिए मुझे अकेले ही काम करना चाहिए, इसलिए मैं किसी के साथ काम करना या सुझाव मानना नहीं चाहती थी। मैं अकेले चमकना चाहती थी। मेरे काम में कोई दिशा नहीं थी, फिर भी मैंने उसे हल करने का प्रयास नहीं किया। जब बहन वांग ने बताया कि मेरे काम के परिणाम क्यों नहीं आ रहे और मेरा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए, तो मुझे पता था कि वह सही है, फिर भी उसकी बात नहीं मानी। मुझे डर था, अगर मैंने बात मानी और काम अच्छा हुआ, तो श्रेय दूसरे ले जाएँगे और मेरी प्रशंसा कोई नहीं करेगा। जब बहन वांग ने मेरे साथ काम करने के लिए भाई युनशियांग को लगाया, तो मुझे डर था कि वह मेरी चमक चुरा लेगा फिर जब हम कुछ हासिल कर लेंगे तो लोग उसका सम्मान करेंगे, निरीक्षक के तौर पर मैं नाकाबिल लगूँगी, एक आम सदस्य से भी बदतर दिखूंगी। तो अपना नाम और रुतबा बनाए रखने के लिए, मैं किसी और के बजाय अकेले ही काम करना चाहती थी। मैं कर्तव्य निर्वहन का दिखावा करके रुतबे के पीछे भाग रही थी, दिखावा करना चाहती थी। यह एक अहंकारी स्वभाव दिखाना था।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर, अगर तुम हर समय अपने तुम्हें दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि और रुतबे के चिंतन और आनंद में डूबे रहोगे, हमेशा अपना ही कार्य करते रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने की इच्छा रखोगे, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करना चाहोगे और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने की इच्छा रखोगे, यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को, एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह का व्यवहार करते हो, दूसरों के साथ काम करने की इच्छा नहीं रखते, अपनी सत्ता को कम नहीं करना चाहते और इसे किसी और के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि किसी और की चले, चाहते हो कि सबका ध्यान तुम पर रहे, यदि तुम अकेले सत्ता का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम एक मसीह-विरोधी हो" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सही स्थिति प्रकट कर दी। मैं अपना काम ऐसे करती थी जैसे यह कोई सरकारी पद हो। निरीक्षक बनकर, मैं बस अपने रुतबे के प्रभाव का सुख लेना चाहती थी। मैं किसी के साथ काम नहीं करना चाहती थी ताकि मैं दूसरों की प्रशंसा और स्वीकृति पा सकूँ, और लोग कहें कि मुझमें काबिलियत है मैं काम करने में सक्षम हूँ। इस डर से कि वे मेरी महिमा चुरा लेंगे, मेरा प्रभाव छीन लेंगे, मैं सब-कुछ अपने दम पर करना चाहती थी ताकि जब कुछ हासिल करूँ तो सारा श्रेय मुझे ही मिले और सबकी निगाहें मुझ पर हों। अपने नाम और रुतबे की रक्षा के लिए, मैं न तो हमारे पूरे काम के परिणामों का विचार करती, न ही किसी की मदद स्वीकारती। मैं बहुत अहंकारी थी! मैं एक भ्रष्ट इंसान हूँ, इसलिए मेरे काम में बहुत सारे विचलन, समस्याएँ और ऐसे पहलू तो होने ही हैं, जिन पर मैं विचार नहीं करती। लेकिन मैं घमंडी थी, खुद को श्रेष्ठ समझती थी, मानो मुझमें कुछ गलत नहीं है, मैं मिलकर काम नहीं करना चाहती थी। अगर ऐसे ही चलता रहता, तो शायद इससे कलीसिया का काम बाधित होता और मैं प्रायश्चित न करती, तो मसीह-विरोधी बन जाती। इस भयावह एहसास ने मुझे डरा दिया। मैं सच में बदलना चाहती थी, रुतबे की इच्छा त्यागकर, अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहती थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इनका पता लगा, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, अगर तेरा अनुभव उथला है, या अगर तू अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। तू जो भी करता है, उसमें तू अपनी स्वार्थी इच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करता। इसके बजाय, तू लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करता है। भले ही तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न निभा पाओ, पर तुम्हारा दिल सुधार दिया गया है; अगर, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम्हारा कर्तव्य मानक स्तर का होगा और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। यह है गवाही देना" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने स्पष्ट कर दिया कि कोई भी कर्तव्य व्यक्तिगत उद्यम नहीं होता, यह निजी हितों, या नाम और रुतबा पाने की इच्छापूर्ति के लिए नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि तुम्हें इसे पूरे दिल से करना चाहिए, हर चीज में परमेश्वर के घर के हितों की सोचनी चाहिए, निजी मंशाओं से दूषित नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं तो सिर्फ अपने नाम, पद की सोच रही थी, अपनी हैसियत के लिए काम कर रही थी, यानी मेरी प्रभावशीलता घट रही थी, और मैं सुसमाचार कार्य में देरी कर रही थी। मुझे अपने नाम और हैसियत के लिए काम करने के बजाय, हर चीज में कलीसिया के हितों के बारे में सोचना चाहिए। उसके बाद, मैंने अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत को दरकिनार कर लोगों के साथ काम करने का प्रयास किया, अच्छा कार्य और अपनी जिम्मेदारियाँ वहन करने पर ध्यान से सोचा। इसका अभ्यास करने पर बहुत शांति मिली।
एक बार मैं कुछ बहनों के साथ सुसमाचार प्रचार के लिए निकली, सुसमाचार सुनने वाले वाकई खोज करने को उत्सुक थे। मैंने सोचा, अगर मैं अकेला जाती, तो भाई-बहन मेरी संगति करने की योग्यताओं की तारीफ करते। मुझे उन बहनों के साथ आने का बहुत अफसोस हुआ। ऐसा ख्याल आते ही मैं समझ गई कि यह सोचने का गलत तरीका है। मैं फिर से नाम और हैसियत की सोच रही थी, अकेले काम करना चाहती थी। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं निजी हित त्यागने को तैयार थी। मेरी भावनाएँ धीरे-धीरे शांत हो गईं, मैं संगति करने और परमेश्वर की गवाही देने पर ध्यान देने लगी। परमेश्वर के मार्गदर्शन में, सात-आठ लोगों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकार लिया। मैं बहुत प्रेरित हुई और प्रभु यीशु के वचनों पर विचार किया, "फिर मैं तुम से कहता हूँ, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ" (मत्ती 18:19-20)। उस समय मुझे एहसास हुआ कि कोई भी पूर्ण नहीं होता, सबमें काबिलियत और कमजोरियां होती हैं। हमें सहयोग करना चाहिए, सबके साथ चर्चा कर एकदूसरे की कमजोरियाँ दूर करनी चाहिए ताकि धीरे-धीरे कार्य में गलतियाँ कम हो जाएँ, अधिक और अच्छा काम हो। अब जब मैं लोगों के साथ मिलकर काम कर रही हूँ, तो मैं देखती हूँ कि वे बहुत ही बारीकी से अपना काम करते हैं और सुसमाचार पाने वालों के प्रति सजग रहते हैं। मुझमें यह काबिलियत नहीं है। मैंने उनसे काफी कुछ सीखा है। जब मैं अपने काम में दिशाहीन हो जाती हूँ, तो मैं जरूरत के अनुसार उनके साथ मिलकर खोजती और चर्चा करती हूँ, इससे मुझे अपने काम में बेहतर परिणाम मिल रहे हैं। परमेश्वर का धन्यवाद! मैंने अनुभव किया है कि काम में सहयोग करना महत्वपूर्ण है।
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