मैं अपने कर्तव्य में हमेशा इतनी सतर्क क्यों रहती हूँ?

05 फ़रवरी, 2023

मार्च 2021 में, मैं कलीसिया में ग्राफिक डिजाइनर का काम कर रही थी। मैं अपने कर्तव्य में अहंकारी थी, दूसरों के साथ मिलकर काम नहीं करती थी, मैंने काम में रुकावट डाली, तो मुझे बर्खास्त कर दिया गया। दो महीने बाद, एक सुपरवाइजर ने फिर से मुझे तस्वीरें बनाने का काम सौंपा। मुझे बड़ी खुशी हुई, पर थोड़ी परेशान भी थी। वापसी के बाद, अगर मेरे अहंकारी स्वभाव से काम फिर रुका, तो क्या मुझे पूरी तरह उजागर करके निकाल नहीं दिया जाएगा? ऐसा हुआ तो मेरा क्या होगा? मैंने मन में कहा : "वापस जाकर, मुझे हर बात पर खास ध्यान देना होगा। मैं फिर से अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार काम नहीं कर सकती।"

काम की शुरुआत में, बहनों ने देखा कि मुझे ग्राफिक्स का अनुभव था, तो वे समस्याएँ लेकर मेरे पास ही आने लगीं, और मैं उन्हें हल करने की पूरी कोशिश करती थी। अगर कभी मैं ज्यादा बोलने लगती, तो ख्याल आता : "इतना ज्यादा बोलकर क्या मैं दिखावा कर रही हूँ? मैंने कुछ गलत कह दिया तो क्या होगा? एक बहन ने कहा था कि जब मैं समूह अगुआ थी, तो अपने अनुभव पर ही भरोसा करती थी, सिद्धांत खोजने के बजाय अपने अनुभव से काम करती थी। इसलिए कुछ तस्वीरों को दोबारा बनाना पड़ा था, जिससे देरी हुई। अब अगर मैंने इस बहन को गलत निर्देश देकर काम में रुकावट डाली, और सुपरवाइजर को पता चला तो क्या वो मुझे बर्खास्त कर देंगी? रहने दो। मैं ज्यादा बोलूँगी ही नहीं ताकि न कुछ गलत कहूँ, न मेरी जिम्मेदारी हो।" एक बार हम तस्वीर के डिजाइन कॉन्सेप्ट पर कुछ चर्चा कर रहे थे। उस पर गौर करने के बाद, कम्पोजिशन का कॉन्सेप्ट बेतुका लगा। मगर मैंने कुछ नहीं कहा और सोचा : "कॉन्सेप्ट में समस्याएँ होना बहुत बड़ी बात है, इससे पूरी तस्वीर को फिर से डिजाइन और एडजस्ट करना पड़ेगा। क्या मुझे कुछ कहना चाहिए? अगर मैंने कुछ नहीं कहा और कोई समस्या हो गई तो तस्वीर फिर से बनानी पड़ेगी। हम दो दिन से इस तस्वीर पर चर्चा कर रहे हैं। अगर अभी इसमें कोई समस्या निकाली, तो बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी? कि मैं सबका ध्यान अपनी ओर खींचकर परेशानी खड़ी कर रही हूँ? मेरा सुझाव गलत हुआ तो? इससे काम की प्रगति में देरी नहीं होगी? सुपरवाइजर को पता चला तो कहीं वे यह न कहें कि मैंने पश्चाताप नहीं किया?" तब मैं संकोच में पड़ गयी थी, मैंने कुछ कहने की हिम्मत नहीं की। कुछ दिनों बाद, हमने ड्राइंग प्रपोजल पूरा कर लिया, जब सुपरवाइजर ने देखा तो कहा, कॉन्सेप्ट में समस्याएँ हैं, फिर से डिजाइन करना होगा। यह सुनकर मेरा दिल सहम गया, मैंने सोचा, "अगर मैंने समय रहते इस समस्या बताई होती तो सभी संगति करके इसे हल कर पाते, समय बर्बाद न होता।" मुझे बहुत पछतावा हुआ, मगर फिर मैंने सोचा : "उस वक्त मुझे पूरा यकीन नहीं था कि मेरा सुझाव सही है या नहीं, तो शायद मेरा चुप रहना इतनी बुरी बात भी नहीं थी?" यही सोचकर रह गई। मैंने ज्यादा विचार या चिंतन नहीं किया और इसे अनदेखा कर दिया।

जब भी समूह में समस्याओं पर चर्चा होती और राय मांगी जाती, तो मैं बेहद चौकन्नी रहती, डरती कि कहीं मेरी राय दूसरों से अलग न हो, वरना सब मुझे अहंकारी कहेंगे, सोचेंगे कि मैं सुझाव नहीं मानती। तो सुझाव देते वक्त मैं हमेशा यह कहती : "ये मेरी अपनी राय है, जो गलत भी हो सकती है। आप खुद ही देख लें।" कभी-कभार बहनें मेरी बनाई तस्वीरों पर सुझाव देतीं, तो मुझे साफ पता होता था कि कुछ सुझाव सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे। मगर डरती थी कि सुझाव नहीं माने, तो वे मुझे अहंकारी और अपनी राय से चिपकी रहने वाली कहेंगी। इसलिए मैं न चाहकर भी उनके सुझाव मान लेती थी, ताकि अगर कोई गलती मिले तो मैं जिम्मेदार न रहूँ। बदलाव के बाद पता चला कि कुछ सुझाव सही नहीं थे, तो तस्वीर दोबारा बनानी पड़ी, जिससे देरी हो गई। यही स्थिति थी। मैं काम से रोज भागती थी, शारीरिक और मानसिक रूप से थक जाती थी। मगर सुपरवाइजर और बहनों को यह दिखाने के लिए कि मैं बदल चुकी हूँ, सावधानी बरतना ही बेहतर लगा। इसके बाद से मैं अपना कर्तव्य इसी तरह निभाती रही। मगर समूह की ग्राफिक तस्वीरों में हमेशा समस्याएं आने लगीं और हमें बार-बार दोहराना पड़ता। हमारे काम की प्रभाविता गिरती चली गई, तब जाकर मेरे सुन्न पड़े दिल को एहसास हुआ कि शायद मेरी मनोदशा सही नहीं हैं, मुझे आत्मचिंतन की जरूरत है। मैंने परमेश्वर से मुझे प्रबुद्ध करने को कहा, ताकि अपनी समस्याएँ समझूँ।

एक सभा में, मैंने ईश-वचनों का यह अंश पढ़ा, जिससे मैं अपनी मनोदशा समझी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम लोगों के सामने समस्याएँ आती हैं, तो तुम्हारे द्वारा उन्हें अनदेखा किए जाने की संभावना होती है, यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो। कुछ समस्याएँ होती हैं, जिन्हें हल करने में तुम सक्षम होते हो लेकिन करते नहीं, और जिन समस्याओं को हल करने में तुम अक्षम होते हो, उनकी सूचना भी तुम वरिष्ठों को नहीं देते, मानो उनका तुमसे कुछ लेना-देना न हो। क्या यह अपने कर्तव्य की अवहेलना नहीं है? कलीसिया के कार्य के साथ इस तरह पेश आना बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य है या मूर्खतापूर्ण? (मूर्खतापूर्ण।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता विश्वासघाती नहीं होते? क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जब वे अपने सामने आई समस्याएँ नजरअंदाज कर देते हैं, तो क्या यह ये नहीं दर्शाता कि वे हृदयहीन और विश्वासघाती हैं? विश्वासघाती लोग सबसे मूर्ख लोग होते हैं। तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याएँ सामने आने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और समस्याएँ हल करने के लिए तुम्हें सत्य तलाशने के तरीके खोजने चाहिए। विश्वासघाती व्यक्ति मत बनो। अगर तुम जिम्मेदारी से बचते हो और समस्याएँ आने पर उससे पल्ला झाड़ लेते हो, तो अविश्वासी भी तुम्हारी निंदा करेंगे। क्या तुम्हें लगता है, परमेश्वर का घर निंदा नहीं करेगा? परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसे व्यवहार को तिरस्कृत और अस्वीकृत करते हैं। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज और चालाक लोगों से घृणा करता है। अगर तुम एक विश्वासघाती व्यक्ति की तरह कार्य करते हो और छल करने का प्रयास करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें बिना सजा दिए छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और विश्वासघाती लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। क्षणिक अज्ञान समझ में आता है, लेकिन सत्य को स्वीकार करने से एकदम इनकार कर देना, बदलने से हठपूर्वक इनकार करना है" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि जो अपने काम में गैर-जिम्मेदार होते हैं और समस्या आने पर जिम्मेदारी से दूर भागते हैं, वे बहुत कपटी होते हैं। वचनों पर चिंतन करके मैंने जाना कि मेरी मनोदशा भी ऐसी ही थी। मैं अपने कर्तव्य को लेकर जिम्मेदार या वफादार नहीं थी, जब भी किसी समस्या में जिम्मेदारी उठाने, अपनी राय देने या फैसला करने की बात आती, तो मैं भागने लगती, और छल-कपट से काम लेती। समस्याएँ सामने आने पर, मैं चुप रहती, बहाने बनाती या फिर कुछ अस्पष्ट-सा कह देती। ग्राफिक्स का काम वापस मिलने पर, मुझे डर था कहीं भाई-बहन यह न कहें कि मेरा अहंकारी स्वभाव अब तक नहीं बदला है। डरती थी मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण फिर से रुकावटें आएंगी, मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। तो मैं अपनी कथनी-करनी में बहुत चौकन्नी हो गई, झूठ का मुखौटा पहने रही। जब बहनें मुझसे कोई सवाल करतीं, तो कुछ गलत कह देने या जिम्मेदार ठहराये जाने के डर से मैं उनसे बचने के लिए बहाने बनाती थी। जब समूह में चर्चा में सबकी राय एक जैसी नहीं होती, तो मैं ज्यादातर चुप रहकर हवा के रुख के साथ बहती। मैं समस्याएँ साफ देख पा रही थी, मगर इस डर से कि कहीं लोग न सोचें कि मैं अहंकारी हूँ, दूसरों का ध्यान खीचती हूँ, मैं समस्याओं पर अपनी राय देने के बजाय सारा काम फिर से करती रही। मैंने मिलकर चर्चा नहीं की। मैं बहुत स्वार्थी थी। जब बहनें मेरी तस्वीरों पर सुझाव देतीं, तो उनके सुझाव सिद्धांतों के अनुरूप न होने पर भी, मैं उनसे सहमत होकर उनकी बात मान लेती थी, क्योंकि मुझे अहंकारी कहलाये जाने का डर था। जिम्मेदारी मेरी न हो, तो मुझे गलतियां करने और दोबारा काम करने की कोई चिंता नहीं थी। अपने हर काम में मैं सिर्फ अपने फायदे देखती थी, जिम्मेदारी उठाने से डरती थी। मैं बहुत धूर्त थी! परमेश्वर हमारे दिलों में झांकता है, क्योंकि मैं कर्तव्य में इतनी स्वार्थी, धूर्त, और गैर-जिम्मेदार थी, मुझे भला पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन क्यों मिलता? मैं अपने कर्तव्य में कम से कम प्रभावशाली होती गई। यह मेरे लिए परमेश्वर का खुलासा था।

तब, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अगर लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो उनमें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति होगी, और वे सत्य का अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं। वे उसे त्याग सकते हैं जिसे त्यागना चाहिए, और उसे छोड़ सकते हैं जिसे छोड़ना चाहिए। विशेष रूप से, जो चीजें तुम्हारी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से संबंधित हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। अगर तुम उन्हें नहीं छोड़ते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और तुममें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे साथ चीजें होती हैं, तो तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। अगर, ऐसे समय में, जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, तुम्हारा हृदय हमेशा स्वार्थी होता है और तुम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ पाते, तो तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाओगे। अगर तुम किसी भी परिस्थिति में सत्य की तलाश या उसका अभ्यास नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम सत्य प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और स्वार्थ के पीछे दौड़ते रहते हैं। कलीसिया उनके लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करे, वे हमेशा यह सोचते हुए उसके बारे में विचार करते हैं, 'क्या इससे मुझे लाभ होगा? अगर होगा, तो मैं इसे करूँगा; अगर नहीं होगा, तो मैं नहीं करूँगा।' ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता—तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? निश्चित रूप से नहीं निभा सकता। भले ही तुम बुराई न करते हो, फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और कुछ भी तुम पर आ पड़े, तुम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत, अपने स्वार्थ और जो तुम्हारे लिए अच्छा है, उसकी परवाह करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है, और तुम स्वार्थी और नीच हो। इस तरह का व्यक्ति अपने लिए कुछ अच्छा या लाभदायक पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, सत्य या परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए नहीं। इसलिए, इस प्रकार के लोग गैर-विश्वासी होते हैं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे सत्य की खोज और अभ्यास कर सकते हैं, क्योंकि वे अपने हृदय में जानते हैं कि मसीह सत्य है, और उन्हें परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और परमेश्वर पर उसकी अपेक्षाओं के अनुसार विश्वास करना चाहिए। अगर तुम अपने साथ कुछ होने पर सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत और इज्जत पर विचार करते हो, तो ऐसा करना कठिन होगा। इस तरह की स्थिति में प्रार्थना, खोज और आत्मचिंतन करके और आत्म-जागरूक होने से सत्य से प्रेम करने वाले लोग उसे छोड़ पाएँगे जो उनके हित में है या जो उनके लिए अच्छा है, और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होंगे। ऐसे लोग वे होते हैं, जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास और सत्य से प्रेम करते हैं। और जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन में प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्चे अनुभवों और गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभव और गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें उजागर कर बाहर कर दिया जाएगा। अनुभवों और गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने के लिए बाध्य हैं; वे कुछ भी ठीक से नहीं कर सकते। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे गैर-विश्वासियों में से एक हैं, वे दुष्ट हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा अंत निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा अंत यह है कि तुम नरक में जाओगे, तुम्हें दंडित किया जाएगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण सत्य को व्यवहार में लाना है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं अंदर तक हिल गई। पहले, मुझे लगता था अपने विचार व्यक्त न करना और हालात से समझौता कर लेना कोई बड़ी बात नहीं थी। मगर वचन पढ़कर समझी कि समस्याओं का सामना होने पर सिर्फ अपने बारे में सोचना और स्वार्थी मंशाएं रखना, कलीसिया और अपने हितों में टकराव होने पर हमेशा अपना बचाव करना, और सत्य का अभ्यास करने के बजाय कार्य को नुकसान पहुँचने देना बड़ी दुष्टता है! हर तस्वीर को डिजाइन करने से लेकर बनाने तक में कितना समय और कितनी मेहनत लगती थी, फिर भी मैंने समस्या नहीं बताई, इससे हमें दोबारा काम करना पड़ा और प्रगति में देरी हो गयी। क्या यह काम बिगाड़ना नहीं था? मेरे बुरे कर्म इकठ्ठा हो रहे थे, अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो बर्बाद हो जाऊँगी। यह बात समझ आने पर मैं डर गई, मुझे एहसास हुआ कि समस्याएं आने पर खुद की इच्छाओं को त्यागकर सत्य का अभ्यास करना बेहद जरूरी होता है!

मैंने ईश-वचनों का एक अंश पढ़ा : "अगर तुम कहो, 'मसीह-विरोधी एकचित्त और हठी होते हैं। मैं मसीह-विरोधी बनने से डरता हूँ और मसीह-विरोधी के मार्ग पर नहीं चलना चाहता। इसलिए मैं तब तक प्रतीक्षा करूँगा, जब तक सभी अपनी राय व्यक्त नहीं कर देते, फिर मैं उसे सारांशित कर एक ऐसा निष्कर्ष निकालने का तरीका खोजूँगा, जो बीच का रास्ता अपनाता हो।' क्या यह ठीक है? (नहीं।) यह ठीक क्यों नहीं है? अगर परिणाम सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप न हुआ, तो भले ही तुम ऐसा करो, पर क्या यह प्रभावी होगा? क्या परमेश्वर इससे संतुष्ट होगा? अगर यह प्रभावी न हुआ और परमेश्वर इससे संतुष्ट नहीं हुआ, तो समस्या गंभीर होगी। अगर तुम चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं करते, अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रहते हो, और शैतानी फलसफे के अनुसार काम करते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रति बेवफा हो, और परमेश्वर को धोखा दे रहे हो! लोगों द्वारा तुम पर मसीह-विरोधी होने का संदेह और विश्वास किए जाने से बचने के लिए, तुम वे जिम्मेदारियाँ भी पूरी करने में सक्षम नहीं हो, जिन्हें पूरा करने की तुमसे अपेक्षा की जाती है; तुम 'बीच की स्थिति खोजने' के शैतानी दर्शन का उपयोग करते हो। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाया है और कलीसिया के कार्य को प्रभावित किया है। क्या यह सिद्धांतहीनता नहीं है? क्या यह स्वार्थ और नीचता नहीं है? तुम अगुआ और कार्यकर्ता हो; तुम जो करते हो, उसमें तुम्हें सिद्धांतयुक्त होना चाहिए। तुम जो कुछ भी करते हो, वह प्रभावी और कुशल होना चाहिए। वह करो जो परमेश्वर के घर के लिए हितकर हो, और वह करो जो सत्य के सिद्धांतों के अनुसार हो" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा, वह नहीं चाहता कि हम उजागर करके निकाले जाने के डर से निष्क्रिय और चौकन्ने रहें। वह चाहता है हम अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाएं और अपने हर काम में सत्य के सिद्धांत खोजें। इस तरह कलीसिया के कार्य का फायदा होता है, और हम जिम्मेदारी पूरी करते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, जब मैं डिजाइन का काम करने वापस आई, तो मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का वादा किया, मगर जब जिम्मेदारी उठाने की बारी आई, तो मैं बेहद चौकन्नी हो गई। लोग मुझे अहंकारी और दंभी न कहें, इस डर से समस्याएँ दिखने पर भी मैं चुप रही, अपनी जिम्मेदारियाँ तक पूरी नहीं की, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान हुआ। क्या यह परमेश्वर को मूर्ख बनाना, धोखा देना नहीं था? मैंने यह भी समझा कि समस्याएँ आने पर दूसरों से अलग विचार होना सामान्य है, अगर मेरा इरादा कलीसिया के कार्य के लिए बेहतर सोचना, सत्य खोजना, सिद्धांतों से कर्तव्य निभाना है, तो मुझे अपने विचार बताने चाहिए। यह गंभीरता से कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाना है, न कि दूसरों का ध्यान खींचना या रुकावटें खड़ी करना। अगर मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण कुछ गलत होने पर, मुझमें उसे कबूल करने की हिम्मत हो, दूसरों की संगति और सुधारों को स्वीकार कर खुद को बदल लूँ, तो कलीसिया पल भर की भ्रष्टता के लिए मुझे बर्खास्त नहीं करेगी। ये बातें समझने के बाद, मुझे कर्तव्य निभाते वक्त सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली बातों का पता चलता, तो मैं सक्रियता से सबके साथ उन बातों पर चर्चा करती। इस तरह अभ्यास करने से, काम में भटकाव और गलतियाँ कम होने लगीं। एक बार, हम तस्वीर के डिजाइन कॉन्सेप्ट पर चर्चा कर रहे थे, मैंने देखा कि सोर्स सामग्री और थीम के बीच तालमेल नहीं था, और थीम ज्यादा स्पष्ट नहीं थी। मैंने सोचा, "यह बड़ी समस्या हो सकती है, अगर ऐसा हुआ, तो तस्वीर के डिजाइन का पूरा प्रस्ताव ही बेकार हो जाएगा।" मैं बहुत संकोच में पड़ गयी, "अगर मैंने कुछ गलत कह दिया तो बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी? जाने दो, मैं यह जोखिम नहीं उठाने वाली।" मगर मुझे यह चिंता भी थी, "अगर वाकई सिद्धांत से जुड़ी कोई समस्या है, तो इसे सुधारने में वक्त लगेगा। क्या इससे देरी नहीं होगी?" यह सोचकर, मैंने अपनी राय सामने रखी। थोड़ी चर्चा के बाद, बहनें मेरे विचार से सहमत हो गईं। फिर हमने तस्वीर में सुधार करने के लिए सुपरवाइजर को अपने सुझाव भेजे। हमारे सुझाव देखकर, सुपरवाइजर ने कहा कि पहले का डिजाइन कॉन्सेप्ट भी ठीक ही है, बस सोर्स की सामग्री में थोड़ा-सा फेर-बदल करना होगा। यह सुनकर, मेरा दिल जोर से धड़कने लगा : "क्या मेरी राय फिर से समस्या खड़ी कर सकती है? सुपरवाइजर अब मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी कि बर्खास्त किये जाने के बाद भी मैं अहंकारी और दंभी हूँ, बदली नहीं हूँ?" मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं ईमानदारी से अपनी समस्याओं का सामना करना चाहती हूँ। मैंने सुपरवाइजर से बात करके अपने सुझाव बताने और इन समस्याओं से जुड़े सिद्धांत खोजने की पहल की। सुपरवाइजर ने हमारे साथ विस्तार से संगति की। इसे सुनकर मेरा दिल रौशन हो गया, मैं अपनी कमियों को समझ पाई। मैंने देखा कि सुपरवाइजर ने मेरा निपटान नहीं किया। बल्कि, धैर्य से हमारे साथ संगति की। मुझे थोड़ा दुख हुआ : मैं सबके साथ हमेशा चौकन्नी रहती, परमेश्वर के घर में सतर्क रहती, क्योंकि मुझे भ्रष्टता दिखाने पर बर्खास्त करके निकाले जाने का डर था, जबकि परमेश्वर का घर लोगों से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार पेश आता है, गलती होने पर फौरन उनका निपटारा या उन्हें बर्खास्त नहीं करता। अगर सिद्धांत न समझने के कारण कार्य में गलतियाँ हों, और संगति के बाद गलती सुधारने पर, तुम्हें बर्खास्त या निकाला नहीं जाएगा। अगर तुम अहंकारी और दंभी हो, शोहरत और रुतबे के लिए अपनी राय पर अड़े रहते हो, सत्य के सिद्धांत नहीं खोजते और कार्य को नुकसान पहुंचाते हो, तब काट-छाँट और निपटान होगा। स्थिति गंभीर हुई, तो तुम्हें निकाला या बर्खास्त किया जाएगा। मैंने अपनी बर्खास्तगी को याद किया। मैंने ग्राफिक्स में लंबे समय तक काम किया था, मुझे अनुभव पर भरोसा था। दूसरों के साथ समस्याओं पर चर्चा करते हुए मैं अहंकारी बन अपनी राय पर अड़ी रहती थी। मैंने न तो दूसरों की राय मानी और न ही सत्य खोजा। इस वजह से कुछ तस्वीरों को दोबारा बनाना पड़ा, कुछ को फेंकना पड़ गया। नाकाम और उजागर होने पर, मैंने भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने के लिए सत्य नहीं खोजा। बल्कि, आशंकाएं और गलतफहमी पालती रही। मैंने न तो अपना कर्तव्य निभाया, न ही सत्य खोजा! फिर, मैंने इस पर भी विचार किया कि इतनी चौकन्नी होने, आशंकाएं और गलतफहमी पालने को कैसे हल किया जाए। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। "कुछ लोग कार्य करते समय अपनी इच्छा का अनुसरण करते हैं। वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने पर वे केवल मौखिक रूप से यह स्वीकार करते हैं कि वे अभिमानी हैं, और उन्होंने केवल इसलिए भूल की क्योंकि वे सत्य से अनभिज्ञ हैं। लेकिन अपने दिलों में वे अभी भी शिकायत करते हैं, 'कोई और ज़िम्मेदारी उठाने आगे नहीं आता है, बस मैं ही ऐसा करता हूँ, और अंत में, जब कुछ गलत हो जाता है, तो वे सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर डाल देते हैं। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं है? मैं अगली बार ऐसा नहीं कर सकता, इस तरह आगे नहीं आ सकता। बाहर निकली हुई कील ही ठोकी जाती है!' इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह पश्चात्ताप का रवैया है? (नहीं)। यह कैसा रवैया है? क्या वे अविश्वसनीय और धोखेबाज नहीं बन जाते? अपने दिलों में वे सोचते हैं, 'मैं भाग्यशाली हूँ कि इस बार यह आपदा में नहीं बदला। दूसरे शब्दों में, अनुभव सिखाता है। मुझे भविष्य में और अधिक सावधान रहना होगा।' वे सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि मामले को देखने और संभालने के लिए अपने ओछेपन और धूर्त योजनाओं का प्रयोग करते हैं। क्या वे इस तरह सत्य हासिल कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया है। पश्चात्ताप करते समय सबसे पहले की जाने वाली चीज यह समझना है कि तुमने क्या गलत किया है; यह देखना है कि तुम्हारी गलती कहाँ है, समस्या का सार क्या है, और तुमने कैसा स्वभाव प्रकट किया है; तुम्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए, फिर सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। सिर्फ यही पश्चात्ताप का रवैया है। दूसरी ओर, यदि तुम व्यापक रूप से शातिर तरीकों पर विचार करते हो, तुम पहले की तुलना में अधिक धूर्त बन जाते हो, तुम्हारी तरकीबें और भी अधिक चालाकी भरी और गुप्त होती हैं, और तुम्हारे पास चीजों से निपटने के और भी तरीके होते हैं, तो समस्या सिर्फ़ धोखेबाज़ होने जितनी सरल नहीं है। तुम छलपूर्ण साधनों का उपयोग कर रहे हो और तुम्हारे पास ऐसे रहस्य हैं जिन्हें तुम प्रकट नहीं कर सकते। यह बुराई है। न सिर्फ तुमने पश्चात्ताप नहीं किया है, बल्कि तुम और ज्यादा धूर्त और धोखेबाज बन गए हो। परमेश्वर देखता है कि तुम हठी और दुष्ट हो, एक ऐसा व्यक्ति जो सतही तौर पर यह मानता है कि वह गलत था, और निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने को स्वीकारता है, लेकिन वास्तव में जिसमें पश्चात्ताप का रवैया लेशमात्र भी नहीं होता। हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि जब यह घटना हो रही थी या उसके बाद, तुमने सत्य नहीं खोजा, और तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं किया। तुम्हारा रवैया समस्या हल करने के लिए शैतान के फलसफे, तर्क और तरीकों का उपयोग करने का है। वास्तव में तुम समस्या से बचकर निकल रहे हो और उसे साफ-सुथरे पैकेज में लपेट रहे हो, ताकि दूसरे समस्या का कोई नामोनिशान न देख पाएँ, उन्हें कोई सुराग न मिले। अंत में, तुम्हें लगता है कि तुम बहुत सयाने हो। ये वे चीज़ें हैं जो परमेश्वर को नज़र आती हैं, बजाय इसके कि तुम वास्तव में आत्म-चिंतन करो, पाप स्वीकारो और पश्चात्ताप करो, उस मामले के सामने ही, जो आ पड़ा है, फिर सत्य की तलाश करो और सत्य के अनुसार अभ्यास करो। तुम्हारा रवैया सत्य की तलाश या उसका अभ्यास करने का नहीं है, न ही यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने का है, बल्कि समस्या को हल करने के लिए शैतान की तरकीबों और तरीकों का उपयोग करने का है। तुम दूसरों को अपने बारे में एक ग़लत धारणा देते हो और परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का विरोध करते हो, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिन परिस्थितियों का आयोजन किया है, उनके प्रति रक्षात्मक और टकरावपूर्ण होते हो। तुम्हारा दिल पहले से ज्यादा अवरुद्ध और परमेश्वर से अलग है। इस तरह, क्या इसमें से कोई अच्छा परिणाम आ सकता है? क्या तुम अभी भी शांति और आनंद का लाभ उठाते हुए प्रकाश में रह सकते हो? नहीं रह सकते। अगर तुम सत्य और परमेश्वर से दूर हो जाते हो, तो तुम निश्चित रूप से अँधेरे में गिरोगे और रोते हुए दाँत पीसोगे। क्या ऐसी स्थिति लोगों में व्याप्त है? (हाँ।) कुछ लोग अक्सर यह कहते हुए खुद को धिक्कारते हैं, 'इस बार मेरे साथ निपटा गया था। अगली बार, मुझे अधिक सयाना और सावधान बनना होगा। सयाना बनना जीवन की नींव होती है—और जो लोग सयाने नहीं होते हैं, वे बेवकूफ़ होते हैं।' यदि तुम इस तरह से खुद का मार्गदर्शन कर रहे हो और खुद को धिक्कार रहे हो, तो क्या तुम कभी भी, कहीं भी पहुँच पाओगे? क्या तुम सत्य को हासिल कर पाओगे? यदि कोई समस्या तुम पर आ पड़ती है, तो तुम्हें सत्य का एक पहलू खोजना और समझना चाहिए और सत्य के उस पहलू को प्राप्त करना चाहिए। सत्य को समझने से क्या हासिल हो सकता है? जब तुम सत्य के एक पहलू को समझते हो, तो तुम परमेश्वर की इच्छा के एक पहलू को समझ लेते हो; तुम यह समझ लेते हो कि परमेश्वर ने तुम्हारे साथ यह चीज क्यों की, क्यों वह तुमसे ऐसी माँग करेगा, क्यों वह तुम्हें इस तरह से ताड़ना देने और अनुशासित करने के लिए परिस्थितियों का आयोजन करेगा, क्यों वह तुम्हारी काट-छाँट करने और तुमसे निपटने के लिए इस मामले का उपयोग करेगा, और क्यों तुम इस मामले में गिरे, असफल हुए, और उजागर किए गए हो। यदि तुम इन चीजों को समझते हो, तो तुम सत्य की तलाश करने में सक्षम होंगे और जीवन-प्रवेश हासिल करोगे। यदि तुम इन चीजों को नहीं समझते और इन तथ्यों को स्वीकार नहीं करते, बल्कि इनका विरोध और प्रतिरोध करने, अपनी गलतियाँ छिपाने के लिए अपनी ही तरकीबों का उपयोग करने और एक झूठे चेहरे के साथ अन्य सभी का और परमेश्वर का सामना करने पर, ज़ोर देते हो, तो तुम सत्य को हासिल करने में हमेशा असमर्थ रहोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। गलतफहमी पालने की समस्या सुलझाने के लिए संबंधित मामलों में सत्य को समझना चाहिए। नाकामी और बाधाओं का सामना होने पर, अगर समस्याएँ हल करने के लिए सत्य नहीं खोजोगे, झूठा दिखावा करने के तरीके ढूँढने में लग जाओगे, अपने घिनौने और मक्कार तरीकों से समस्याएँ हल करने की कोशिश करोगे, तो यह सिर्फ धोखेबाजी ही नहीं, एक दुष्ट स्वभाव भी होगा। ऐसे इंसान को सत्य नहीं मिलेगा। मुझे याद है जब मैं बर्खास्त हुई थी, तब अगुआ ने मेरे अहंकार, दंभ, और दूसरों की राय न सुनने की आदत को उजागर किया था। उस वक्त तो मैंने इसे मान लिया, पर बाद में, अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने के लिए सत्य नहीं खोजा। काम करने वापस आई, तो मन में अहंकार के कारण कलीसिया के कार्य में रुकावट डालने पर निकाले जाने का डर बैठा था, तो मैंने इन शैतानी फलसफों को अपना लिया, जैसे "खुद को बचाओ, केवल आरोप से बचने का रास्ता सोचो," और "अफसोस करने से अच्छा है सुरक्षित रहना"। मैं अपनी राय या अलग सुझाव शायद ही कभी देती थी, कोई बात हो जाती तो मैं पहले कुछ नहीं कहती थी। मैं पहले से ज्यादा धूर्त बन गई। एक डिजाइन प्रस्ताव में समस्याएँ देखकर मैंने कुछ नहीं कहा। कुछ बहनों के सुझाव सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे, फिर भी चुप रही। बाहर से मैं आज्ञाकारी दिखती थी, पर मैंने सच में पश्चात्ताप नहीं किया था। मैं सिर्फ समर्पण करने और बदलने का दिखावा कर रही थी। क्या मैं भाई-बहनों और परमेश्वर को धोखा नहीं दे रही थी? तब लगा कि बर्खास्त होने के बाद मैंने न केवल पश्चात्ताप नहीं किया, बल्कि लगातार जोड़-तोड़ और छल-कपट करती रही, अपने बचाव के तरीके सोचती रही, और अपना भ्रष्ट स्वभाव छिपा रही थी। मैं और धूर्त बन गई थी। मेरा स्वभाव बुरा था। मुझे लगता था मैं समझदार हूँ, छल-कपट से अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाने से बचाना चाहती थी। मगर अनुभव से मैंने जाना कि इंसान की मेहनत उसके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं हरा सकती, न ही शैतानी फलसफों पर भरोसा करके या मुखौटा लगाकर इसे हल किया जा सकता है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, काट-छाँट और निपटान से ही, थोड़ा बदलाव आ सकता है। परमेश्वर हमें भ्रष्टता दिखाने देता है, वह जानता है हम अपने कर्तव्य में नाकाम भी होते हैं, पर वह नहीं चाहता कि समस्याएँ आने पर हम खुद को छिपाएँ या दिखावा करें। बल्कि, वह चाहता है हम सरल और खुले बनें, ठीक से समस्याओं का सामना करें, और पश्चात्ताप करके बदल सकें। परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद, मैं अब निष्क्रिय नहीं रही, गलतफहमी भी न रही, मैं सत्य का अभ्यास कर पश्चात्ताप करना चाहती थी। फिर, ईश-वचनों का एक अंश पढ़कर अभ्यास का मार्ग समझी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तब तुम अपने स्वेच्‍छाचार और अविवेक का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर, मान लो, तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं; तो यह तय करने से पहले कि क्या करना है, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हें कम से कम इस बारे में तुम क्या सोचते और मानते हो, इसके संबंध में सभी के साथ संगति करनी चाहिए, और सभी से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि तुम्हारे विचार और योजनाएँ सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और सभी से अंतिम बार जाँच लेने को कहना चाहिए। मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोण पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य को जानने की कोशिश कर सकते हो; मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने के लिए यह पहला क़दम है जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। दूसरा क़दम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य की खोज करने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्‍वर की इच्‍छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्‍हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर तय करो कि काम कैसे करना है। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि अगर चर्चा के वक्त तुम्हारे पास कोई सुझाव और राय हो, तो सत्य खोजने वाला दिल भी होना चाहिए। अपनी राय व्यक्त करना दूसरों पर बात मनवाने का दबाव डालना नहीं है। यह चर्चा के लिए अपनी राय सामने रखना है, ताकि सब मिलकर सत्य के सिद्धांत खोज सकें। यही एकमात्र सही नजरिया है। ऐसा व्यवहार ही कलीसिया के कार्य की रक्षा करता है। अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार काम करोगे, तो तुम मनमानी कर दूसरों को अपनी बात मानने पर मजबूर कर सकते हो, क्योंकि तुममें परमेश्वर का भय या आज्ञाकारिता नहीं। इसके बाद, भाई-बहनों के साथ कॉन्सेप्ट पर चर्चा करते हुए, मैं अपनी हर राय और सुझाव पर खुलकर संगति करने लगी, मेरा सुझाव सही है, ये जानकर भी मैं उससे चिपके नहीं रहती थी। जब हमारे सुझाव अलग होते, तो मैं प्रार्थना करके सत्य खोजती। सिद्धांतों के अनुरूप बातों को मैं विनम्रता से स्वीकारती। मगर सिद्धांतों के अनुरूप न होने पर, मैं दृढ़ता से संगति और चर्चा करती। ईश-इच्छा के अनुसार कर्तव्य निभाने का यही मार्ग है।

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, जिनसे आशंकित और कपटी होने की समस्या हल करने का तरीका और स्पष्ट हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। "ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? पहली तो यह कि परमेश्वर के वचनों पर कोई संदेह न करना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियों में से एक है। इसके अलावा, ईमानदार व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है सभी मामलों में सत्य की तलाश और उसका अभ्यास करना; यह सबसे महत्वपूर्ण है। अगर तुम यह कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम परमेश्वर के उपदेशों को हमेशा अपने दिमाग़ के कोने में रखते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो, तो क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? तुम कहते हो, 'मेरी क्षमता कम है, लेकिन दिल से ईमानदार हूँ।' लेकिन, जब तुम्हें कोई कर्तव्य पूरा करने के लिए दिया जाता है, तो तुम पीड़ा सहने से या इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से पूरा नहीं किया तो तुम्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम इससे बचने के लिये बहाने बनाते हो और उसे पूरा करवाने के लिए दूसरों के नाम सुझाते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? बिलकुल भी ऐसा नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिये? उन्हें अपने कर्तव्यों को स्वीकार करना चाहिये और उसका पालन करना चाहिये, और फिर अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार उसे पूरा करने में पूरी तरह से समर्पित होना चाहिये, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करना चाहिये। यह कई तरीकों से व्यक्त क्या जाता है। एक तरीका यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य को ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिये, तुम्हें अपने दैहिक हितों के बारे में नहीं सोचना चाहिये, और अधूरे मन से इसके लिए तैयार नहीं होना चाहिये। अपने खुद लाभ के लिये जाल न बिछाओ। यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति है। दूसरा तरीका है अपना कर्तव्य पूरे दिल और पूरे सामर्थ्य के साथ निभाना, चीजों को ठीक से करना, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए पूरे समर्पण और प्रेम से अपना कर्तव्य निभाना। जब ईमानदार लोग अपना कर्तव्य निभाएँ, तो यही व्यक्त होना चाहिए। अगर तुम वह नहीं करते जो तुम जानते हो और जो तुमने समझा है, अगर तुम अपने सर्वोत्तम प्रयास का सिर्फ 50 या 60 प्रतिशत देते हो, तो तुम अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे, तुम सुस्त होने के तरीके तलाश रहे हो। क्या जो लोग धूर्तता से अपना कर्तव्य निभाते हैं, वे ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें बाहर कर देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान सेवाकर्ता भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा लापरवाह और अनमने होते हैं, जो हमेशा ढीले पड़ने के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं, उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, और वे सभी बाहर निकाल दिए जाएँगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। वचनों पर विचार करके, एहसास हुआ कि परमेश्वर का स्वभाव पवित्र और धार्मिक है। उसे ईमानदार लोगों से प्रेम है। ईमानदार लोगों का दिल परमेश्वर के लिए सच्चा होता है, परमेश्वर और अन्य लोगों के प्रति वे आशंकित रहकर सावधानी नहीं बरतते, वे परमेश्वर की जांच स्वीकारते हैं। अपने कर्तव्य में अस्थिर या कपटी नहीं होते, उन्हें जो करना चाहिए उसे करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। जिम्मेदारी उठाने की बात आने पर वे अपने निजी हितों की अनदेखी कर सिद्धांतों को कायम रखते हैं, परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए अपना कर्तव्य निभा पाते हैं। ऐसे कर्तव्य निभाने वालों को ही परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है, ऐसा इंसान ही सच में बुद्धिमान होता है! अपने हितों के लिए, समस्याएँ देखकर भी मैं चुप रहती थी, जिससे काम की प्रगति धीमी हो गई। भले ही मैं पूरी तरह इसके लिए जिम्मेदार नहीं लगती थी, पर यह असल में मेरे सत्य का अभ्यास न करने का नतीजा था। मैं सत्य के कई सिद्धांत नहीं समझती थी, समस्या का सिर्फ एक पहलू ही देख पाती थी, तो मेरे सुझावों में कमियाँ निकलना तो बिलकुल निश्चित था। मगर ईमानदार इंसान अपनी भ्रष्टता और कमियों से सही से पेश आता है, वह सत्य के साथ दूसरों की संगति और सुझावों को स्वीकार कर, अपनी कमियों का मूल्यांकन कर अहम सिद्धांतों को समझता है। अगर उनकी गलतियों से काम की प्रगति धीमी होती है, तो वे बहादुरी से उन्हें स्वीकार कर खुद को बदल पाते हैं। इसका एहसास होने पर, मेरा दिल रौशन हो गया, कर्तव्य में मुझे जिन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए, उनके बारे में सब स्पष्ट हो गया।

फिर, बहनों के साथ समस्याओं पर चर्चा करते हुए, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती, अपने इरादे ठीक कर सत्य के सिद्धांत-अनुसार अभ्यास करती। एक बार, मैं तीन बहनों के साथ एक तस्वीर के डिजाइन कॉन्सेप्ट पर चर्चा कर रही थी, तीनों का कहना था कि डिजाइन सही नहीं था, पर मेरी राय बिल्कुल अलग थी। मैंने मन-ही-मन सोचा : "तीनों बहनों की राय एक जैसी है। अगर मैंने उनसे अलग राय व्यक्त की, तो क्या वे मुझे अहंकारी कहेंगी? क्या मुझे चुप रहना चाहिए?" मगर उस तस्वीर का कॉन्सेप्ट एकदम नया था, थीम स्पष्ट थी। सिद्धांतों के अनुसार, वह सही था। अगर मैंने दूसरों की राय मान ली, तो क्या एक अच्छा डिजाइन प्रस्ताव बेकार नहीं हो जाएगा? मैंने सोचा कैसे ईमानदार लोग अपना कर्तव्य निभाकर सिद्धांतों को कायम रखते हैं। मैंने सबको अपनी राय और उनसे जुड़े सिद्धांत बताये। हमारी चर्चा से, सभी सहमत हो गए कि मेरी बात सिद्धांतों के ज्यादा अनुरूप थी। ऐसा होने पर, मैंने परमेश्वर के मार्गदर्शन का आभार माना, ऐसा सुकून महसूस किया जो सिद्धांतों से काम करने से मिलता है।

तो अब, बहुत ज्यादा चौकन्नी और सतर्क रहने की मेरी आदत छूट चुकी है। मैं सबके साथ अपनी राय पर चर्चा कर पाती हूँ, अब कर्तव्य निभाते वक्त मेरा दिल अधिक सच्चा और ईमानदार महसूस होता है। अब मैं अपना कर्तव्य और भी अच्छे से निभाती हूँ। यह ज्ञान और बदलाव की क्षमता ईश-वचनों से ही मिला है।

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