बेमन से काम करने के कारण हुआ नुकसान
अक्टूबर 2021 में, मैंने नए सदस्यों का सिंचन करना शुरू किया। हफ्ते भर में ही समझ आ गया, अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मुझे दर्शन के सत्य को समझना होगा, उनकी समस्याएं हल करने के लिए सत्य पर संगति करने का अभ्यास भी करना होगा, मगर सत्य को लेकर मेरी समझ उथली थी, चैट करने में भी अच्छी नहीं थी। मुझे यह काम बहुत मुश्किल लगा। टीम अगुआ चाहती थी कि मैं नए सदस्यों की समस्याएँ जल्द से जल्द हल करूँ, पर ऐसा कर पाना मुझे बेहद मुश्किल लगा। सभी नए सदस्यों की बहुत-सी समस्याएँ थीं, उन्हें हल करने के लिए, मुझे बहुत-से सत्य और स्पष्ट संगति करने का तरीका खोजने की जरूरत थी। इसमें काफी मेहनत लगती। मैंने टीम अगुआ से कहा, मुझमें काबिलियत की कमी है, मैं इसे अच्छे से नहीं कर सकती। टीम अगुआ ने मेरे साथ संगति करते हुए कहा कि मुझे अपने कर्तव्य का बोझ उठाना चाहिए और कष्ट उठाने से डरना नहीं चाहिए। उनकी संगति सुनकर मैंने न चाहते हुए भी हामी भर दी, पर मैं दिल से, कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। सभाओं में, मैं हमेशा की तरह नए सदस्यों के साथ संगति करती रही, उनके संघर्ष न समझने के कारण, संगति में इधर-उधर की बातें करती जिससे कोई नतीजे नहीं मिले, और नियमित सभा में आने वाले नए सदस्यों की संख्या कम हो गई। जब टीम अगुआ को समस्याएं दिखीं, तो उन्होंने फौरन मुझसे उनकी मदद करने को कहा। मगर मैंने सोचा, "सुसमाचार कर्मी दर्शन के सत्य के बारे में पहले ही उनके साथ काफी संगति कर चुके हैं, अगर वे अभी भी सभाओं में नहीं आ रहे, तो मेरे जाने से क्या हो जाएगा? वे सभी नए सदस्य कुछ दिनों से सभाओं में नहीं आ रहे थे, तो उनके पास जाकर संगति करने में यकीनन काफी वक्त लगेगा, जो बड़ा थकाऊ काम होगा।" यह सोचकर, मैंने बस हाल-चाल जानने के लिए उन्हें कुछ संदेश भेज दिए, जिन लोगों ने जवाब नहीं दिया उन पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। जिन लोगों को ज्यादा समस्याएं थीं, उनसे आखिर में संगति करने की सोची, या बहाने बनाकर सुसमाचार कर्मियों के हवाले कर दिया। जल्दी ही, कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना ही बंद कर दिया, क्योंकि उनकी समस्याएं नहीं सुलझीं। नए सदस्यों को सभाओं में न आते देख मुझे अपराध-बोध होता, मैं परेशान हो जाती सोचती कि उनकी समस्याएँ हल करने के लिए मुझे ज्यादा कीमत चुकानी चाहिए। मगर इसमें होने वाली परेशानी के बारे में सोचकर कुछ न करती।
मुझे एक नए सदस्य की याद आई, जो पहले कैथलिक थी, अंत के दिनों में परमेश्वर के देहधारण और कार्य को लेकर धारणाएं होने के कारण उसने सभाओं में आना बंद कर दिया। मैंने उसे कितने ही कॉल या मैसेज किये, पर उसने अनदेखा कर दिया। दो दिन बाद, उसने मुझे यह संदेश भेजा : "मैं एक कैथलिक परिवार में पैदा हुई हूँ। बचपन से ही कैथलिक रही हूँ, अब तो 64 साल हो गए। मैं सिर्फ प्रभु यीशु में विश्वास कर सकती हूँ—सर्वशक्तिमान परमेश्वर में नहीं।" मैंने जवाब दिया : "सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के लिए अंत के दिनों में प्रभु के प्रकटन और कार्य को स्वीकारना होगा।" मगर उसने जवाब नहीं दिया। मेरी संपर्क की कोशिशों को अनदेखा कर दिया। फिर मैंने इस समस्या का हल टीम अगुआ पर छोड़ दिया। मुझे हैरानी हुई जब उन्होंने इससे जुड़े ईश-वचन भेजे और समस्या का हल करने के लिए सत्य खोजने को कहा। मैंने देख कि मुझे बहुत सत्य से लैस होना था नतीजे पाने के लिए संगति का तरीका जानना था, यह सब बहुत थकाने वाला लगा। नई सदस्य मेरे मेसेजों का जवाब नहीं दे रही थी, अगर मैं सब जानने-समझने में समय लगा भी दूँ, तब भी शायद वह मेरी संगति न सुने, तो मैंने उसे किनारे करके अनदेखा कर दिया। एक और नई सदस्य हर रोज काम में बहुत व्यस्त रहती थी, सभाओं में बुलाती, तो उसके पास कभी वक्त न होता। पहले-पहल तो मैं उसे रोज परमेश्वर के वचन और भजन भेजती थी, मगर हर बार उसका जवाब एक ही होता—"आमीन" और वह सभाओं में न आती। मैंने उसे परमेश्वर के वचन भेजना बंद कर दिया। मुझे लगा वह काम में बहुत व्यस्त है और यह उसकी हकीकत है, मैंने कितना भी वक्त लगाया, उसकी समस्या हल नहीं कर पाई। मैं जानती थी मुझे उसकी परेशानियां देखते हुए सभा का समय तय करना चाहिए, फिर धारणाओं पर संगति के लिए ईश-अंश ढूँढने चाहिए, नतीजे पाने का यही तरीका है। मुझे लगा ऐसा करना बेहद मुश्किल और थकाऊ है, मैं यह कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। लेकिन अगर मैंने संगति नहीं की और अगुआ को पता चला, तो वह वास्तविक कार्य न करने पर मेरा निपटान करेगी। तो मैंने मजबूर होकर नए सदस्य के साथ थोड़ी संगति की, मगर उसे सभाओं में न आता देखकर, मुझे लगा कि उसे सत्य की लालसा नहीं है, मेरी तरफ से कोशिश में कोई कमी नहीं है। मैंने उस पर भी ध्यान देना बंद कर दिया। मैं अपने कर्तव्य को बेमन से करती रही, सभी मुश्किलों से जी चुराती रही। नए सदस्यों की वास्तविक मुश्किलों या धारणाओं से सामना होने पर, मैं उन्हें हल करने का तरीका सोचने की जहमत नहीं उठाती थी, मैं बस उन्हें टीम अगुआ के हवाले कर देती थी। कुछ महीने बाद, गिने-चुने नए सदस्य ही सामान्य रूप से सभा में आ रहे थे। समस्या का पता चलने पर कलीसिया अगुआ ने मेरा निपटान किया। उन्होंने कहा मैं अपने कर्तव्य में अनमनी हूँ और मुझे फौरन खुद को बदलना चाहिए। मैंने कसम खाई कि मैं देह-सुख को त्यागकर नए सदस्यों का अच्छे से सिंचन करूंगी। मगर बहुत-सी समस्याओं वाले नए सदस्यों से सामना हुआ, तो मैं उनकी समस्याएं हल करने के लिए कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी। इसके बजाय, मैंने कहा मुझमें काबिलियत नहीं है, मैं इस कर्तव्य के लायक नहीं हूँ। मैं बेमन से काम करती रही, कोई सुधार या कर्तव्य में नतीजे हासिल नहीं किए, अगुआ मुझसे कठोरता से निपटी : "तुम अपने कर्तव्य में मन नहीं लगाती। नए सदस्यों की मुश्किलों के बारे में कभी नहीं पूछती, उनके बारे में थोड़ा-बहुत जानने के बाद भी समस्याएं दूर नहीं करती। यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? तुम बस नए सदस्यों का नुकसान कर रही हो। अगर तुम नहीं बदली, तो बर्खास्त कर दी जाओगी!" ऐसे निपटान होने और चेतावनी दिए जाने पर, मुझे डर भी लगा और अपराध-बोध भी हुआ। मैं आत्मचिंतन करने लगी : मैं यह कर्तव्य अच्छे से क्यों नहीं निभा पाई, मुझे ये हमेशा बेहद मुश्किल क्यों लगा?
अपने भक्ति-कार्य में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "कुछ लोगों के पास अपना कर्तव्य निभाते समय कोई सिद्धांत नहीं होता, वे हमेशा अपने रुझानों पर चलते हैं और मनमाने ढंग से कार्य करते हैं। यह जल्दबाजी और लापरवाही है, है न? ये लोग परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं, है न? और क्या तुम लोगों ने कभी इस पर विचार किया है कि इसके क्या परिणाम होते हैं? अगर तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हारे पास अंतःकरण न हो, अगर तुम अपने सभी कार्यों में बेअसर हो, अगर तुम अपने पूरे दिल और अपनी पूरी ताकत से कार्य करने में पूरी तरह से असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर पाओगे? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य अनिच्छा से निभाते हैं, और वे उसे जारी नहीं रख पाते। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठा पाते, और हमेशा महसूस करते हैं कि कष्ट उठाने से उनका बड़ा नुकसान हुआ है, न ही वे कोई कठिनाई हल करने के लिए सत्य खोजते हैं। क्या इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर तुम अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हो? क्या तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें लापरवाह और अनमना होना ठीक है? क्या यह तुम्हारे अंतःकरण के दृष्टिकोण से स्वीकार्य होगा? मनुष्य के मानदंड के अनुसार मापा जाए, तो भी यह असंतोषजनक है—तो क्या इसे कर्तव्य का संतोषजनक प्रदर्शन माना जा सकता है? अगर तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम कभी सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। यहाँ तक कि तुम संतोषजनक सेवा भी प्रदान नहीं कर सकते। तो फिर, तुम परमेश्वर का अनुमोदन कैसे प्राप्त कर सकते हो? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभाते समय कठिनाई से डरते हैं, वे बहुत आलसी होते हैं, वे दैहिक सुविधाओं के लिए लालायित रहते हैं, और विशेषज्ञ कौशल सीखने का कभी कोई प्रयास नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचनों के सत्यों पर विचार करने की कोशिश करते हैं; उन्हें लगता है कि इस तरह लापरवाह होने से परेशानी से बचा जा सकता है : उन्हें कुछ भी पता करने या किसी से सवाल पूछने की जरूरत नहीं होती, उन्हें अपने दिमाग का इस्तेमाल करने या सोचने की जरूरत नहीं होती—वास्तव में इससे बहुत प्रयास करने से बचा जा सकता है, उन्हें कोई शारीरिक कठिनाई नहीं उठानी पड़ती, फिर भी वे कार्य पूरा करने में सफल रहते हैं। और अगर तुम उनसे निपटते हो, तो वे विद्रोही होकर बहाने बनाते हैं : 'मैं आलस नहीं कर रहा था या काम से जी नहीं चुरा रहा था, काम हो गया था—तुम इतनी मीन-मेख क्यों निकाल रहे हो? क्या यह सिर्फ मीन-मेख निकालना नहीं है? इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर मैं पहले ही अच्छा काम कर रहा हूँ, तुम संतुष्ट कैसे नहीं हो?' क्या तुम लोग सोचते हो कि ऐसे लोग आगे कोई प्रगति कर सकते हैं? अपना कर्तव्य निभाते समय वे लगातार अनमने रहते हैं, और फिर भी ढेरों बहाने पेश कर देते हैं, और जब समस्याएँ आती हैं तो वे किसी को बोलने नहीं देते। यह कौन-सा स्वभाव है? यह शैतान का स्वभाव है, है न? ऐसे स्वभाव का अनुसरण करके लोग क्या अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभा सकते हैं? क्या वे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है)। परमेश्वर कई लोगों को कर्तव्य में बेहद आलसी होने, हमेशा दैहिक सुख की लालसा रखने, निष्ठावान न होने और व्यस्तता से संतुष्ट रहने को लेकर उजागर करता है। ऐसे तुम अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा सकते। मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य में नतीजे हासिल न कर पाने की वजह काबिलियत की कमी नहीं, बस मेरा आलसी होना और कर्तव्य में कष्ट उठाने से डरना थी। मुझे लगता था नए सदस्यों के सिंचन में मुझे बहुत से सत्य जानने होंगे, उनकी समस्याएं हल करने का तरीका सीखना होगा, जो बड़ा ही थकाऊ काम होगा, इसलिए मैं लापरवाही करती रही। टीम अगुआ चाहती थीं कि मैं नए सदस्यों की समस्याएं जल्द दूर करूं, कड़ी मेहनत से मैं ऐसा कर भी सकती थी। मगर जब देखा कि इसमें काफी वक्त लगेगा और मेहनत करनी होगी, तो मैंने इसे टीम अगुआ और सुसमाचार कर्मियों पर डाल दिया। मैं जानती थी नए सदस्यों के सभाओं में न आने की वजह उनकी धारणाएं थीं या फिर वे मुश्किलों का सामना कर रहे थे, फिर भी मैं उदासीन बनी रही। दूसरों ने समाधान के रास्ते बताये, तब भी मैं बेपरवाह रही। कभी-कभी मैं नए सदस्यों को परमेश्वर के वचन या भजन भेज देती थी, पर कुछ दिन बाद खोज-खबर न लेती, अनदेखा कर देती थी। मैंने देखा कि मैं आलसी और देह-सुख की लालची इंसान थी, अपने कर्तव्य के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं थी। मैं कलीसिया में धूर्त बनकर बस जैसे-तैसे काम कर रही थी। परमेश्वर के लिए मैं घिनौनी थी!
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक ख़राब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, 'किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!' यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालांकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए उजागर करके बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो पाते हो, तो वे तुम्हारे निकाले जाने के स्तर तक नहीं बढ़ेंगे। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने बाहर न निकाले जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य का अंतस्तल देखता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिलकुल भी भरोसा नहीं कर सकता। ... भरोसेमंद लोग वे लोग होते हैं जिनमें मानवता होती है, और जिन लोगों में मानवता होती है उनमें अंतःकरण और समझ होती है, और उनके लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना बहुत आसान होना चाहिए, क्योंकि वे अपने कर्तव्य को अपना दायित्व मानते हैं। अंतःकरण या समझ से रहित लोगों का अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाना निश्चित है, और उनका कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी का कोई बोध नहीं होता। दूसरों को हमेशा उनकी चिंता करनी पड़ती है, उनकी निगरानी करनी पड़ती है और उनकी प्रगति के बारे में पूछना पड़ता है; वरना उनके कर्तव्य निभाते समय चीजें गड़बड़ा सकती हैं, कार्य करते समय चीजें गलत हो सकती हैं, जिससे भारी परेशानी होगी। संक्षेप में, लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय हमेशा अपने आप पर विचार करना चाहिए : 'क्या मैंने इस कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा किया है? क्या मैंने दिल लगाकर काम किया? या मैंने इसे जैसे-तैसे ही पूरा किया?' अगर तुम हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो, तो तुम खतरे में हो। कम से कम, इसका यह मतलब है कि तुम्हारी कोई विश्वसनीयता नहीं है, और लोग तुम पर भरोसा नहीं कर सकते। ज्यादा गंभीर रूप में, अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा बेमन से काम करते हो, और अगर तुम हमेशा परमेश्वर को धोखा देते हो, तो तुम बड़े खतरे में हो! जान बूझकर धोखेबाज़ बनने के दुष्परिणाम क्या हैं? हर कोई देख सकता है कि तुम जानबूझकर अपराध कर रहे हो, कि तुम किसी और चीज के अनुसार नहीं, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रहे हो, कि तुम लापरवाह और अनमने होने के सिवाय कुछ नहीं हो, कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते—जो तुम्हें मानवता से वंचित कर देता है! अगर यह तुममें पूरी तरह प्रकट होता है, अगर तुम बड़ी गलतियाँ करने से बचते हो, लेकिन छोटी गलतियाँ निरंतर करते रहते हो, और आद्योपांत पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम दुष्टों में से एक हो, गैर-विश्वासी हो, और तुम्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इस तरह के परिणाम जघन्य हैं—तुम पूरी तरह से उजागर हो गए हो और एक गैर-विश्वासी और दुष्ट व्यक्ति के रूप में बाहर निकाल दिए गए हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। "तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दण्डित किया जाना चाहिए। इसे स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकार किया गया है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए; यह उनका सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो, और तुम यहूदा से भी अधिक शोकजनक हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन का सामना करके, मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही करने वालों के प्रति परमेश्वर की नफरत और क्रोध को महसूस किया। ऐसे लोगों में जमीर, समझ, चरित्र और गरिमा नहीं होती, वे बिल्कुल भी भरोसे लायक नहीं होते। अगर ऐसे लोग पश्चात्ताप न करें, तो वे कुकर्मी और गैर-विश्वासी होते हैं, उन्हें निकाल दिया जाना चाहिए। नए सदस्यों का सिंचन एक अहम कार्य है। उन्होंने अभी-अभी परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकारा है, सच्चे मार्ग पर जड़ें जमाने के लिए अभी उन्हें और सिंचन की जरूरत है, ताकि शैतान उन्हें चुरा न सके। परमेश्वर के कार्य को स्वीकारना इंसान के लिए आसान या सहज नहीं होता, कई लोगों को सिंचन कार्य और उनकी मदद करने में, कीमत चुकानी पड़ती है। तभी उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाया जा सकता है। सिंचन-कर्मी होने के नाते, नए सदस्यों का सिंचन मेरी जिम्मेदारी थी। नए सदस्यों की मुश्किलें देख मुझे फौरन सत्य खोजकर इन समस्याओं को हल करना चाहिए था। इसके बजाय, मैंने मुश्किल कार्यों को टाल दिया और लापरवाही की। नए सदस्यों की मुश्किलों में से, मैं वही समस्याएँ चुनती थी जिन्हें हल करना आसान होता था, और मुश्किल मसलों को अनदेखा कर देती थी। इतना ही नहीं, मैं अपने कर्तव्य में धूर्त और गैर-जिम्मेदार थी, जिस कारण कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना बंद कर दिया और कुछ ने सभा ही छोड़ दी, पर मैंने यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा कि उनमें सत्य की लालसा नहीं थी, कहा कि मुझमें काबिलियत नहीं थी इसलिए समस्याएँ हल नहीं हुईं ताकि दूसरों को धोखा दूँ, लापरवाही के लिए दोषी न दिखूँ। क्या मैं अपना कर्तव्य बॉस की सेवा कर रहे अविश्वासी की तरह नहीं निभा रही थी? मैं जमीर या जागरूकता के बिना छल-कपट कर रही थी, जैसे-तैसे दिन गुजार रही थी। इतने सालों की आस्था के बाद भी मैंने बेफिक्र होकर परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश की। मैं बेहद धूर्त और कपटी थी! मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकारा, मैं हर दिन कार्य में व्यस्त रहती थी, मॉम-डैड मेरी आस्था में बाधक बन जाते थे। मैं बहुत परेशान रहती थी, मैंने सभाओं में जाना बंद करना चाहा। मगर भाई-बहन धैर्य से बार-बार मेरे साथ सत्य पर संगति करते और मेरी सुविधा के हिसाब से सभाएं रखते थे। कभी-कभी व्यस्तता के कारण मैं सभा में नहीं आ पाती थी, तो भाई-बहन बाइक पर लंबा सफर तय कर मेरे साथ परमेश्वर के वचन पर संगति करने आते, ताकि मेरी मदद और सहयोग कर सकें। तभी मैं परमेश्वर के कार्य को जान सकी, और देख सकी कि सत्य खोजकर ही हमें बचाया जा सकता है। फिर मैंने सभाओं में आना और कर्तव्य निभाना शुरू किया। कलीसिया हमेशा इस पर जोर देती है कि नए सदस्यों के सिंचन में धैर्य रखना और उनकी परेशानियों पर विचार करना जरूरी है, हमें उन्हें सभाओं में आने के लिए प्रेरित करना होगा ताकि वे जल्द सत्य के मार्ग पर अपनी नींव रख सकें। मैंने देखा, परमेश्वर के दिल में हमारे लिए बहुत दया और प्रेम है, वह हर मुमकिन तरीके से हमें बचाता है। वह सच्चे मार्ग की जांच कर रहे इंसानों के प्रति बेहद ईमानदार है। जरा सी भी उम्मीद बाकी होगी तो वह हार नहीं मानेगा। जहाँ तक मेरी बात है, मैं उदासीन थी, नए सदस्यों के प्रति जरा भी जिम्मेदार नहीं थी। मुझे उनके जीवन की कोई परवाह नहीं थी, जिससे उनकी समस्याएँ जल्दी हल नहीं हो रही थीं, कुछ तो सभाओं में आना ही नहीं चाहते थे। मेरा बर्ताव देखें, तो यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं कुकर्म करके परमेश्वर को मूर्ख बनाना और धोखा देना चाहती थी! इसका एहसास होने पर मैंने कसूरवार महसूस किया, मानवता न होने के कारण मुझे खुद से नफरत हुई।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? ... मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों की ऐसी कड़ी फटकार सुनकर, मैंने बहुत दोषी महसूस किया। हमारे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करके बदलने और हमें उद्धार का मौका देने के लिए परमेश्वर ने ईमानदारी से हमें बहुत-से सत्य दिए हैं, सत्य के हर पहलू पर उसने हमारे साथ अच्छे से संगति की है ताकि हम उसे समझ सकें। परमेश्वर ने हमारे लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मानवता युक्त इंसान को सत्य खोजने की कोशिश करनी चाहिए और अपने कर्तव्य में समर्पित होना चाहिए। मगर मुझमें बिल्कुल भी जमीर नहीं था। मैं सत्य नहीं खोज रही थी, मुझे बस शारीरिक सुख की चाह थी, मैं अभी भी इन शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, जैसे "ऑटोपायलट पर जीवन जीएँ," "चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो।" मैंने सोचा जब तक हम धरती पर हैं हमें अच्छे से अपना ख्याल रखना है और अपने आप पर ज्यादा बोझ नहीं डालना। हमें बेफिक्र होकर खुशी से जीवन जीना चाहिए। मैं इस शर्त पर अपना कर्तव्य निभा रही थी कि मुझे दैहिक कष्ट और थकान न सहनी पड़े। मुझे जो आसान लगता वही काम करती। जहाँ भी मुझे ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता, वहाँ मैं प्रतिरोधी होकर भाग जाती थी, मैं या तो समस्या किसी और पर छोड़ देती या उसे टाल देती, अनदेखा कर देती। मैंने कर्तव्य गंभीरता से नहीं निभाया, तो कुछ नए सदस्यों की समस्या हल नहीं हुई और उन्होंने सभाओं में आना बंद कर दिया। इतना सब होने के बाद मैंने देखा कि उन शैतानी फलसफों ने मुझे और ज्यादा दुष्ट बना दिया था। मैं एक सूअर जैसी थी, बस आराम चाहती और सत्य नहीं खोजती थी, मैंने अपने कर्तव्य का कबाड़ा कर दिया, मुझे उसकी जरा भी परवाह नहीं रही। मैं अपने कामों में लापरवाही की, जो सत्य मुझे सीखने चाहिए थे मैंने नहीं सीखे, अपनी जिम्मेदारी भी नहीं निभायी। क्या मैं बिल्कुल बेकार नहीं थी? मैंने अनुभव किया कि शारीरिक सुख की चाह मुझे नुकसान पहुँचा रही थी और मैं अपने उद्धार का मौक़ा खो रही थी। कर्तव्य में मुश्किलों का सामना करना परमेश्वर पर भरोसा करके सत्य खोजने का एक अच्छा मौका है। कठिनाइयां मुझे सत्य खोजने और कर्तव्य में सिद्धांतों का पालन करने को मजबूर करती थीं, जो मेरे लिए सत्य खोजने और जीवन प्रवेश के अच्छे रास्ते थे। मगर मैं इन्हें बाधा और बोझ समझकर इनसे पल्ला झाड़ना चाहती थी। इसका एहसास होने पर, मुझे अपने देह-सुख पर बहुत पछतावा हुआ, मैंने सत्य जानने के बहुत से मौके खो दिए। मैं नहीं चाहती थी कि लापरवाही करती रहूँ। मुझे देह-सुख त्यागकर दिल से अपना कर्तव्य निभाना था।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे कर्तव्य में मन न लगाने के परिणामों की बेहतर समझ हुई। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मान लो, एक काम है, जिसे एक व्यक्ति द्वारा एक महीने में पूरा किया जा सकता है। अगर इस काम को करने में छह महीने लगते हैं, तो क्या इनमें से पाँच महीने घाटा नहीं दर्शाते? जब सुसमाचार फैलाने की बात आती है, तो कुछ लोग सच्चे मार्ग पर विचार करने के इच्छुक होते हैं और उन्हें धर्मांतरित करने के लिए सिर्फ एक महीने की आवश्यकता होती है, जिसके बाद वे कलीसिया में शामिल हो जाते हैं और उनका सिंचन और पोषण जारी रहता है। उनकी नींव पड़ने में कुल छह महीने लगते हैं। लेकिन अगर सुसमाचार फैलाने वाले व्यक्ति का रवैया उदासीनता और लापरवाही का है, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं है, और व्यक्ति को धर्मांतरित करने में आधा साल लग जाता है, तो क्या यह आधा साल उनके जीवन के लिए नुकसान नहीं है? अगर वे बड़ी आपदा का सामना करते हैं और उनकी नींव नहीं पड़ी है, तो वे खतरे में होंगे, और क्या तुम पर उनका कोई कर्ज नहीं होगा? इस तरह का नुकसान वित्तीय रूप से या धन का उपयोग करके नहीं मापा जाता। तुमने सत्य की उनकी समझ आधे साल के लिए स्थगित कर दी, तुमने उन्हें नींव स्थापित करने और अपना कर्तव्य निभाने में आधे साल की देरी करवा दी। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या अगुआ और कार्यकर्ता इसकी जिम्मेदारी लेने में सक्षम हैं? किसी व्यक्ति में किसी अन्य के जीवन की जिम्मेदारी वहन करने की क्षमता नहीं होती" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया वह परेशान करने वाला था। मैं झूठी अगुआ थी जो वास्तविक कार्य नहीं करता, अपने कार्य में बेपरवाह और गैर-जिम्मेदार रहता है, जिस कारण नए सदस्य सभा में नहीं आते, कुछ तो सभा ही छोड़ देते हैं क्योंकि उनकी समस्याएं हल नहीं होतीं। नए सदस्यों का इस तरीके से सिंचन उनका नुकसान नहीं कर रहा था? भले ही कुछ ने आस्था नहीं छोड़ी, पर उनके जीवन को नुकसान पहुँचा क्योंकि वे धारणाओं से चिपके रहकर लंबे समय तक सभा में नहीं आये। मैं इस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती थी। अगर मुझे देह-सुख की इतनी चिंता न होती, मैंने कीमत चुकाई होती, और गंभीरता से हर नए सदस्य की समस्या को हल किया होता, तो शायद उनमें से कुछ सच्चे मार्ग पर अपनी जड़ें जमा पाते और जल्दी सत्य सीखते, वे कलीसिया का जीवन जीते, कर्तव्य निभाते, अच्छे कर्म करते, और जो कुछ हुआ वह नहीं होता। मगर अब बातें बनाने का वक्त नहीं था। सभाओं में न आने वाले नए सदस्यों के बारे में सोचकर मुझे बहुत दुख और अपराध-बोध हुआ, मैं परमेश्वर की अत्यधिक ऋणी थी। यह एक अपराध था, मैंने अपने कर्तव्य को कलंकित किया था! मैं भय और पछतावे से भरी हुई थी। लगा कि मैंने बड़ी समस्याएं खड़ी कर दी हैं। रोते-रोते, मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं हमेशा आराम खोजती हूँ, अपने कर्तव्य में मन नहीं लगाती, तुम्हें इससे घृणा है। मैं पश्चात्ताप कर व्यावहारिक कार्यों से अपने अपराधों का हर्जाना चुकाना चाहती हूँ। मेरे दिल को जाँचो, अगर मैंने बेमन से काम करना जारी रखा, तो मुझे ताड़ना दो, अनुशासित करो।"
फिर मैंने उन नए सदस्यों को खोजा जो निराश और कमजोर होकर सभाओं में नहीं आते थे, उनकी समस्याएँ हल करने के लिए मैं परमेश्वर के वचन खोजने लगी। मैंने उन बहनों से भी मदद माँगी जो सिद्धांतों और नजरिये पर सिंचन करने में अच्छी थीं। फिर मैंने धार्मिक धारणाएं रखने वाली उस नई सदस्य को ढूँढा जो सभा में नहीं आती थी। मैंने उसे कई मेसेज भेजे, पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। मेरा उत्साह कम होने लगा सोचा इसे भूल ही जाना चाहिए। वैसे भी उसने ही जवाब नहीं दिया—ये तो सच ही था। मैंने उस नए सदस्य को भी एक मेसेज भेजा जो व्यस्त रहता था, पर उसने सभा में आने से इंकार कर दिया, तो मैं उसकी मदद के लिए कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर से की गई अपनी प्रार्थना और उसके इन वचनों को याद किया : "जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें 'दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना' को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो औरबिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें इन बातों पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए: इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं विश्वास के नाकाबिल बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य के निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं उस आदेश के अनुरूप रहने में विफल हो रहा हूँ, जो परमेश्वर ने मुझे सौंपा है? तुम्हें इसी तरह आत्म-मंथन करना चाहिए। अगर तुम जान जाते हो कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो और विश्वासघाती हो, और तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, 'मुझे उस क्षण लगा था कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में लापरवाह और असावधान था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!' तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह लापरवाह और असावधान होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने देना चाहिए और ताड़ना देने देनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति व्यक्ति की ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी वह वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है। जब व्यक्ति का विवेक साफ होता है और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उसका रवैया बदल जाता है, तभी वह खुद को बदलता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन करने में ही आगे का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों से मैं देख पायी कि अच्छी तरह कर्तव्य निभाना इतना भी मुश्किल नहीं, हमें ईमानदार बनकर, परमेश्वर की जांच को स्वीकारना होगा, हम जो जानते हैं, जो कर सकते हैं उसमें पूरी मेहनत करनी होगी, हमें छल-कपट या लापरवाही नहीं करनी होगी, कर्तव्य निभाने के लिए हमारा रवैया ऐसा ही होना चाहिए। मैंने संकल्प लिया कि मैं फिर से परमेश्वर को निराश नहीं करूंगी। मुझे परमेश्वर को अपना पश्चात्ताप दिखाना था, अपनी मेहनत और ईमानदारी दिखानी थी, अगर वे नए सदस्य मेरी मदद और सहयोग के बाद भी सभाओं में नहीं आए, तो कम-से-कम जिम्मेदारी पूरी करने पर मैं दोषी महसूस नहीं करूंगी।
मैंने अभ्यास का मार्ग खोज रही एक और बहन से बात की, और धार्मिक धारणाएँ रखने वाली उस नई सदस्य को भी खोजा। मैंने उसे अपनी आस्था के मार्ग के बारे में खुलकर बताया। मुझे हैरानी हुई जब उसने मेरे मेसेजों का जवाब दिया। उसे सभाएँ बहुत अच्छी लगती थीं, पर उसकी कुछ धारणाओं और उलझनों का हल नहीं हुआ था। इस नई सदस्य के दिल की बातों से मैं बहुत द्रवित हो गई और उसकी धारणाओं को लेकर संगति की। अंत में, वह सभाओं में आने के लिए मान गई और जल्द ही एक कर्तव्य भी निभाने लगी। यह सब होने पर मैंने जो महसूस किया उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। मैं खुश भी थी और दुखी भी। परमेश्वर के वचनों से मिले प्रबोधन से मैं खुद को जान पाई और कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदल पाई, इसके बिना मैं और अपराध करती। इसके बाद, मैंने काम में व्यस्त नई सदस्य को दोबारा खोजा। पहले, मैं उसकी परेशानियों को समझे बिना ही उसे सभाओं में आने के लिए कहती रहती थी। इस बार, मैंने उसके हालात के आधार पर मदद के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति की, और सभाओं का समय उसी के हिसाब से तय किया। जब उसके पास सभा में आने का समय नहीं होता, तो मैं उसके खाली वक्त में उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती, धैर्य से संगति करती। फिर वह मेरे सामने खुलकर परमेश्वर के वचनों पर बात करने के लिए राजी हो गई। उसने मुझे खुशी से यह भी बताया कि चाहे जो हो जाए, वह सभाओं में आना या परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना बंद नहीं करेगी। इसके बाद से, उसने एक भी सभा नहीं छोड़ी, व्यस्तता के बावजूद वह परमेश्वर के वचनों पर विचार के लिए समय निकाल लेती थी। बाद में, मैंने और नए सदस्यों का सहयोग किया, उन्हें सभा में वापस लेकर आई। अपना रवैया ठीक करने, परमेश्वर पर भरोसा रखने, और सच्चा प्रयास करने पर, मुझे कर्तव्य में बेहतर नतीजे मिलने लगे।
पहले मैं अपने कर्तव्य में हमेशा कपटी और अनमनी रहती थी। भले ही मैंने कोई शारीरिक कष्ट नहीं सहा, पर मुश्किलों में जी रही थी। मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं समझ सकी, अपने कर्तव्य में कुछ भी हासिल नहीं कर पा रही थी, मुझमें जरा भी प्रबुद्धता नहीं थी, मुझे हमेशा इस बात की फिक्र रहती थी कि परमेश्वर मुझे छोड़ देगा, निकाल देगा। मैं बहुत निराश और दुखी थी। कर्तव्य में दिल लगाने के बाद, मैं परमेश्वर की मौजूदगी और मार्गदर्शन को महसूस कर पाई। मैंने अपने कर्तव्य में प्रगति की, मुझे शांति और सुकून भी मिला। मैंने अनुभव किया कि कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया महत्वपूर्ण है। परेशानियों का सामना करके, वास्तविक कीमत चुकाकर और परमेश्वर की इच्छा पूरी करके ही हमें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता मिल सकती है और हम कर्तव्य में लाभ पा सकते हैं।
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