झूठे अगुआ की रिपोर्ट करना : एक मुश्किल राह
जुलाई 2019 की बात है, मैं भाई-बहनों द्वारा कलीसिया की नई-नई अगुआ चुनी गई थी, और बहन लिन मेरी पार्टनर थी। बहन लिन मुझसे ज़्यादा समय से आस्थावान थी, वो कई वर्षों से अगुआ भी थीं। मैंने सोचा, "उनके पास ज़रूर सत्य की कुछ वास्तविकताएँ होंगी। आगे चलकर, मुझे उनके साथ खोजना और कलीसिया का काम करना होगा।" मुझे हैरानी तब हुई जब मैंने उन्हें सभाओं में ज़्यादातर सैद्धांतिक बातें करते देखा, वो कभी अपनी भ्रष्टता का विश्लेषण नहीं करती थीं। खुद को ऊँचा उठातीं और दिखावा करती थीं, अपने कर्तव्य के बारे में बताना, दूर-दूर की यात्राओं और जो कष्ट सहे उनका बखान करना, और जब उनसे निपटा गया, तो कैसे कर्तव्यों पर डटे रहकर उन्होंने परमेश्वर की इच्छा पूरी की। भाई-बहन उनकी संगति से भावुक होकर आंसू बहाने लगते थे, और उदास स्वर में कहते, "अगर हमने अपने कर्तव्य ठीक से निभाए होते, तो आपके साथ निपटा नहीं जाता।" ये सब देखकर मैं चौंक गई। मैंने सोचा, "क्या ऐसी संगति लोगों की प्रशंसा पाने और अपनी पूजा करवाने के लिए किया गया दिखावा नहीं है?" एक बार मैंने उन्हें उनके व्यवहार के बारे में चेताया था। मैंने कहा, "आप ऐसी संगति सेअपना उत्कर्ष और दिखावा कर रही हैं।" उनकी नाराज़गी भरे उत्तर ने मुझे चकित कर दिया, "मैं अपना उत्कर्ष और दिखावा कैसे कर रही हूँ? मैंने जो कुछ कहा वह सच है। अगर वह गलत है, तो मुझे कैसे संगति करनी चाहिए?" उनका यह रवैया देखकर मैंने बस इतना कहा, "आपको परमेश्वर के वचन पढ़कर आत्म-चिंतन करना चाहिए।"
कुछ ही समय बाद, मुझे बताए बिना, बहन लिन ने एक अप्रशिक्षित बहन को सुसमाचार का प्रचार के काम में लगा दिया, और जो बहन प्रचार में प्रशिक्षित थी उसे किसी दूसरे काम में लगा दिया, इससे सीधे तौर पर सुसमाचार कार्य की प्रगति पर असर पड़ा। कुछ दिनों के बाद, वास्तविक पृष्ठभूमि पर विचार किए बिना, बहन लिन ने एक नवविश्वासी को, जो सत्य मार्ग में अभी कच्चा था, सुसमाचार का प्रचार करने भेज दिया। वह इतना परेशान हो गया कि विश्वास त्याग्ने ही वाला था। वो तो अच्छा हुआ उसे सही समय पर सिंचन उपयाजक की मदद मिल गई और नवविश्वासी की स्थिति संभल गई। जब मुझे पता चला, तो मैंने उन्हें फिर चेताया कि हमारे सिद्धांत होने चाहिए, मनमाने ढंग से कार्य नहीं करना चाहिए, और कुछ भी तय करने से पहले अपने पार्टनर से बात करनी चाहिए। लेकिन उन्होंने नकार दिया, ज़िम्मेदारी से इनकार कर दिया और अपना बचाव किया। उन्होंने आत्म-चिंतन करने या खुद को जानने का प्रयास नहीं किया। ख्याल आया कि उनकी संगति हमेशा सैद्धांतिक होती थी, वह मनमाने ढंग से काम करतीं और सत्य के सिद्धांत नहीं खोजती थीं। उनके झूठी अगुआ होने की बात से निश्चित होकर, मैं अपने अगुआ को इसकी रिपोर्ट करना चाहती थी, लेकिन थोड़ी हिचकिचाहट भी थी। मैंने सोचा, "बहन लिन बरसों से अगुआ रही हैं। हाल ही में, हमारे अगुआओं ने उनकी तरक्की को लेकर चर्चा की थी। अगर मैं रिपोर्ट कर उन्हें एक झूठी अगुआ कहूँ, तो क्या हमारे अगुआ यह नहीं कहेंगे कि मैं बहुत अहंकारी हूँ, और अगुआ बनते ही दूसरों पर आँख मूंदकर आरोप लगा रही हूँ? अगर बहन लिन को पता चला कि मैंने उनकी रिपोर्ट की है, तो वह अगुआओं के बीच मेरे बारे में नकारात्मक बातें फैला सकती हैं। ऐसा हुआ तो क्या अगुआ मुझे बर्खास्त कर देंगे?" ये सोचने के बाद, मैंने उनकी रिपोर्ट करने का विचार त्याग दिया। लेकिन अगर मैंने रिपोर्ट नहीं की, तो वह अगुआ बनी रहेंगी, इससे भाई-बहनों और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचेगा। उन दिनों मैं बहुत दुविधा और अनिश्चिय की स्थिति में थी कि क्या करूँ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की हे परमेश्वर मुझे अपनी इच्छा समझाओ और अभ्यास का मार्ग दो।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। "अगुआओं और कार्यकर्ताओं की श्रेणी के लोगों के उद्भव के पीछे क्या कारण है और उनका उद्भव कैसे हुआ? एक विराट स्तर पर, परमेश्वर के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, जबकि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर, कलीसिया के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उनकी आवश्यकता है। ... उनके और अन्य लोगों के कर्तव्यों में जो अंतर है, वह उनके एक विशिष्ट गुण से जुड़ा हुआ मामला है। यह विशिष्ट गुण क्या है? अगुआई के कार्य को विशिष्ट रूप से दर्शाया जाता है। उदाहरण के लिए, लोगों का एक समूह है जिसकी अगुआई एक व्यक्ति कर रहा है; अगर इस व्यक्ति को 'अगुआ' या 'कार्यकर्ता' कहा जाता है, तो समूह के अंदर इनका कार्य क्या है? (अगुआई का कार्य।) इस व्यक्ति की अगुआई का उन लोगों पर जिनकी वह अगुआई कर रहा है और कुल मिलाकर पूरे समूह पर क्या प्रभाव पड़ता है? वह समूह की दिशा और उसके मार्ग को प्रभावित करता है। इसका निहितार्थ यह है कि अगर अगुआ के पद पर आसीन यह व्यक्ति गलत मार्ग पर चलता है, तो इसके कारण, बिल्कुल कम-से-कम, उसके नीचे के लोग और पूरा समूह सही मार्ग से हट जाएगा; इससे भी अधिक, यह आगे बढ़ते हुए उस पूरे समूह की दिशा, साथ ही उसकी गति और चाल को बाधित कर सकता है या पूरी तरह रोक सकता है। इसलिए जब लोगों के इस समूह की बात आती है, तब वे जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं और उनके द्वारा चुने गए मार्ग की दिशा, सत्य की उनकी समझ की सीमा और साथ ही परमेश्वर में उनका विश्वास न सिर्फ स्वयं उनको, बल्कि उनकी अगुआई के दायरे के भीतर सभी भाइयों और बहनों को प्रभावित करता है। अगर अगुआ सही व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति जो सही मार्ग पर चल रहा है और सत्य का अनुसरण और अभ्यास करता है, तो उसकी अगुआई में चल रहे लोग अच्छी तरह खाएँगे और पिएँगे और अच्छी तरह तलाश करेंगे, और, साथ ही साथ, अगुआ की व्यक्तिगत प्रगति दूसरों को निरंतर दिखाई देगी। तो, वह सही मार्ग क्या है जिस पर अगुआ को चलना चाहिए? यह है दूसरों को सत्य की समझ और सत्य में प्रवेश की ओर ले जाने, और दूसरों को परमेश्वर के समक्ष ले जाने में समर्थ होना। गलत मार्ग क्या है? यह है बार-बार स्वयं अपने को ऊँचा उठाना और स्वयं अपनी गवाही देना, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि तथा लाभ के पीछे भागना, और कभी भी परमेश्वर की गवाही न देना। इसका उनके नीचे के लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? (यह उन लोगों को उनके समक्ष ले आता है।) लोग भटककर परमेश्वर से दूर चले जाएँगे और इस अगुआ के नियंत्रण में आ जाएँगे। अगर तुम लोगों को अपने समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करते हो, तो तुम उन्हें भ्रष्ट मनुष्यजाति के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो, और तुम उन्हें परमेश्वर के समक्ष नहीं, शैतान के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो। लोगों को सत्य के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना है। अगुआ और कार्यकर्ता चाहे मार्ग सही पर चलें या गलत मार्ग पर, उनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने सत्य नहीं समझा होता है, तो वे आँखें मूँदे अनुसरण करते हैं। उनका अगुआ भला हुआ तो वे उसका अनुसरण करेंगे; उनका अगुआ बुरा हुआ तो भी वे उसका अनुसरण करेंगे—वे भेद नहीं करते। वफादार किस रास्ते पर चलते हैं, इसका सीधा संबंध उस मार्ग से होता है जिस पर अगुआ और कार्यकर्ता चलते हैं, और वे उन अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं द्वारा अलग-अलग मात्राओं में प्रभावित हो सकते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। मैंने परमेश्वर के वचनों में देखा कि एक अगुआ जो मार्ग अपनाता है, उसका सत्य का अनुसरण करना, न करना, बस उसे ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि सीधे पूरी कलीसिया के काम को और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर भी असर डालता है। जब कलीसिया का अगुआ सत्य का अनुसरण कर सही मार्ग पर चलता है, तो भाई-बहन भी उससे लाभ उठा सकते हैं और उनके लिए उद्धार के मार्ग पर चलना आसान हो जाता है। लेकिन अगर कलीसिया के अगुआ सत्य का अनुसरण कर सही मार्ग पर नहीं चलते, तो वे सत्य समझने या परमेश्वर के वचनों की वास्तविकताओं में प्रवेश करने में लोगों का मार्गदर्शन नहीं कर सकते, और परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालते हैं। मैंने बहन लिन के बारे में सोचा, कोई बात होने पर वह सत्य नहीं खोजती, उन्होंने आत्म-चिंतन भी नहीं किया। वह भाई-बहनों की समस्याएँ दूर नहीं कर पाईं। वह अपने कर्तव्यों और सभाओं में सिर्फ सैद्धांतिक बातें बोलती थीं, अपना उत्कर्ष और दिखावा करती थीं, भाई-बहनों से अपनी पूजा-प्रशंसा करवाती थीं। अपने कर्तव्यों में, वह अभिमानी, आत्म-तुष्ट और मनमानी थीं, उन्होंने कभी सही सलाह नहीं मानी। अगर उन्हें तत्काल हटाया न गया, तो वो परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालेंगी और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाएँगी। ऐसी झूठी अगुआ का हमारी कलीसिया में होना भाई-बहनों के लिए एक मुसीबत थी। मुझे याद आया कि मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना कर कसम खाई थी कि मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करूँगी और अपना काम पूरी ईमानदारी से करूँगी, लेकिन जब सत्य का उल्लंघन और कलीसिया के हितों को नुकसान होने लगा, तो मैं अपने हितों की रक्षा के लिए एक डरपोक चूहे की तरह अपने बिल में जा घुसी। मैं जानती थी बहन लिन अहंकारी थी, मनमाने ढंग से काम करती और सत्य को नकारती थी, जिससे परमेश्वर के घर के काम पर असर पड़ा है। मुझे तुरंत अपने अगुआ को रिपोर्ट करनी चाहिए थी, लेकिन मैंने तो खुद को बचाने की कोशिश की, क्योंकि मुझे डर था कि बहन लिन को पता चला तो वह मेरे बारे में बुरा बोलेगी और हमारे अगुआ मुझे हटा देंगे। एक झूठी अगुआ परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालती रही और मैं रक्षा करने के बजाय, तमाशा देखती रही। मैं स्वार्थी और नीच थी। मुझमें ज़मीर था ही नहीं! मैं अब और स्वार्थी नहीं बन सकती थी। मुझे सत्य का अभ्यास करना था, न्याय की भावना से युक्त होना था, परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर उसके घर के हितों की रक्षा करनी थी। यह एहसास होने, मैंने अपने अगुआओं को रिपोर्ट करने का फैसला किया।
एक दिन अपने अगुआओं के साथ एक सभा में, मैंने बहन लिन का व्यवहार विस्तार से बताया। जब मैंने अपनी बात खत्म की, तो मैं चौंक गई जब मेरी एक अगुआ ने मसीह-विरोधी को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े, बुरी तरह से मेरी काट-छाँट और मेरा निपटारा किया, उन्होंने कहा कि मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूँ और रुतबा चाहती हूँ, अगुआ के पद ने मुझे सत्ता का भूखा बना दिया है। उन्होंने मुझसे आत्म-चिंतन करने और बहन लिन के साथ कलीसिया के काम को अच्छी तरह संभालने को कहा। दूसरी अगुआ ने कहा कि बहन लिन क्षमतावान हैं, व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम हैं। यह सब सुनकर मैं दंग रह गई। मैंने सोचा, "यह परिणाम कैसे हो सकता है? मैंने उन्हें जो कुछ भी बताया वह सच था, लेकिन वे बिना जांच-पड़ताल किए आँख मूँदकर मुझसे निपटीं। यह समस्या का समाधान करना नहीं है।" पहले तो मैं उन्हें बहन लिन के बारे में और बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, अगर मैं कुछ और कहूँगी, तो अगुआ कहेंगे कि मैं आत्म-चिंतन कर सत्य नहीं स्वीकारना चाहती, फिर मुझे बर्खास्त कर दिया तो क्या करूँगी? यह सोचकर मैंने बात आगे नहीं बढ़ाई।
एक दिन, एक बहन ने मुझे बताया कि बहन लिन ने सुसमाचार कार्य के निरीक्षक के रूप में बस अपने अधीनस्थ लोगों से ज़बर्दस्ती सुसमाचार फैलाने का काम करवाया और कुछ नहीं किया। लोगों की खराब स्थिति या कठिनाइयों में, उन्होंने संगति कर उन्हें हल नहीं किया, इससे सुसमाचार के काम पर बुरा असर पड़ा। वह चाहती थी मैं जल्द से जल्द बहन लिन से संगति करूँ। मैंने सोचा, "एक अगुआ का सबसे महत्वपूर्ण कार्य परमेश्वर के वचनों पर संगति कर भाई-बहनों की कठिनाइयों को दूर करना है। बहन लिन लगातार उपदेश देती रहती हैं, लेकिन वास्तविक समस्या नहीं सुलझातीं। क्या उनकी संगति केवल खोखले सिद्धांत नहीं है?" तो, मैं इस समस्या पर चर्चा करने के लिए सीधे बहन लिन के पास गई। मैं हैरान रह गई जब मेरी बात सुनकर वह मुझ पर चढ़ बैठीं, "कौन कहता है मैं व्यावहारिक समस्याएँ नहीं सुलझाती? किसने कहा? कौन है वो? ..." वो न सत्य मानती थी, न आत्म-चिंतन कर खुद को समझती थी। उनकी पहली प्रतिक्रिया थी समस्या बताने वाले का पता लगाना। मुझे पक्का यकीन हो गया कि वह झूठी अगुआ हैं। अगर वह अपना काम करती रहीं, तो परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचाएँगी और उसमें देरी करेंगी। इसकी सूचना मैं अपने अगुआओं को देना चाहती थी। पर रिपोर्ट करने पर पहले जो हुआ, वो याद आया। बहन लिन को हटाने के बजाय अगुआओं ने मेरा ही निपटारा कर दिया था। अगर मैंने फिर उन्हें सूचना दी, तो क्या अगुआ यह नहीं सोचेंगे कि मैं जानबूझकर बहन लिन के काम में समस्याएँ ढूँढ़ रही हूँ? उन्हें लगेगा कि मैं सही इंसान नहीं हूँ, मैं एक अच्छी पार्टनर नहीं बन सकती। वे परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालने के लिए मेरी निंदा करेंगे, मुझे मेरे काम से हटा देंगे और आध्यात्मिक चिंतन के लिए भेज देंगे। ये सब सोचकर, मैं फिर चिंता में पड़ गई। लेकिन रिपोर्ट न करने से भी मुझे चैन नहीं मिल रहा था, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि बहन लिन झूटी अगुआ हैं, उन्हें उजागर कर मुझे उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, लेकिन मैं हमेशा अंधेरी ताकतों से विवश हो जाती हूँ। मुझे डर है कि मेरा निपटारा कर काम से हटा दिया जाएगा। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं खुद को जानूँ।"
भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के एक वीडियो पाठ से मुझे बहुत मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्य स्वार्थी और कृपण स्वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्या लेना-देना है? मैं क्यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्हारे अवचेतन मस्तिष्क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्होंने तुम्हारे हृदय में स्थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्य के भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव हैं। ... तुम वास्तव में जो सोचते हो, वह कभी नहीं कहते। वह सब तुम्हारे दिलो-दिमाग में पूर्व-संपादित होता है। तुम्हारी हर बात झूठ होती है, तथ्यों के विपरीत होती है, वह सब तुम्हारे झूठे बचाव में, तुम्हारे फायदे के लिए होता है। कुछ लोग झांसे में आ जाते हैं और तुम्हारे लिए यह काफी होता है : तुम्हारे शब्द और कार्य अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। तुम्हारे दिल में यही है, ये तुम्हारे स्वभाव हैं। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभावों के नियंत्रण में हो। अपनी कथनी-करनी पर तुम्हारा कोई जोर नहीं चलता। तुम चाहकर भी सच नहीं बोल पाते या यह नहीं बता पाते कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो; चाहकर भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते; चाहकर भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर पाते। तुम जो भी कहते, करते और अभ्यास में लाते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ आलसी और बेपरवाह हो। स्पष्ट रूप से, तुम अपने शैतानी स्वभाव से पूरी तरह बंधे हुए हो और उसके काबू में हो। हो सकता है, तुम सत्य को स्वीकार करना और उसके लिए प्रयास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर नहीं है : तुम भ्रष्ट देह की एक कठपुतली के सिवाय कुछ नहीं हो, तुम शैतान के साधन बन गए हो, तुम वही कहते और करते हो, जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे कहता है। अपने दिल में तुम सोचते हो, 'मैं इस बार कड़ी मेहनत करने वाला हूँ, और मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा। मुझे दृढ़ रहना है और उन लोगों को फटकारना है, जो परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालते हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति गैरजिम्मेदार हैं। मुझे यह जिम्मेदारी सँभालनी चाहिए।' तो बड़ी मुश्किल से तुम हिम्मत जुटाते और बोलते हो। नतीजतन, जैसे ही दूसरा व्यक्ति मेज पीटता और क्रोधित होता है, तुम पीछे हट जाते हो। क्या तुम वास्तव में प्रभारी हो? तुम्हारा दृढ़ निश्चय और संकल्प किस काम आया? वे बेकार रहे। तुम निश्चित रूप से कई बार ऐसी परिस्थितियों का सामना कर चुके हो। पहली मुश्किल में तुम यह कहकर बहाना बनाते हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते। अपने आपको सत्य-प्रेमी न मानते हुए, यह सोचते हुए कि तुम्हें एकदम से हटा दिया गया है, तुम हार मान लेते हो। यह सच है कि तुम्हें सत्य से प्रेम नहीं है, लेकिन क्या तुम सत्य का अनुसरण करते रहे हो? क्या तुम सत्य का अभ्यास करते रहे हो? इतने सालों तक उपदेश सुनकर क्या तुमने कुछ नहीं समझा है? तुम सत्य का लेशमात्र भी अभ्यास क्यों नहीं कर पाते? तुम कभी सत्य की खोज नहीं करते, सत्य का अभ्यास तो तुम और भी कम करते हो। तुम बस प्रार्थना करते रहते हो, अपना निश्चय दृढ़ करते हो, संकल्प करते हो और शपथ लेते हो। यह सब करके तुम्हें क्या मिला है? तुम अब भी हर बात का समर्थन करने वाले व्यक्ति ही हो; तुम किसी को नहीं उकसाते और न ही किसी को नाराज करते हो। अगर कोई बात तुम्हारे मतलब की नहीं है, तो तुम उससे दूर ही रहते हो, और सोचते हो : 'मैं उन चीजों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा जिनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, इनमें कोई अपवाद नहीं है। अगर कोई चीज़ मेरे हितों, मेरे रुतबे या मेरे आत्म-सम्मान के लिए हानिकारक है, मैं उस पर कोई ध्यान नहीं दूँगा, इन सब चीज़ों पर सावधानी बरतूंगा; मुझे बिना सोचे-समझे काम नहीं करना चाहिए। जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है और मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ!' तुम पूरी तरह से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से नफ़रत करने वाले अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में हो। वे तुम्हें ज़मीन पर गिरा रहे हैं, ये तुम्हारे लिये इतने कठोर हो गये हैं कि तुम सुनहरे छल्ले वाले सुरक्षा कवच को पहनकर भी इसे बरदाश्त नहीं कर सकते। भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में रहना हद से ज़्यादा थकाऊ और कष्टदायी है!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों से जाना कि मैं बहन लिन की रिपोर्ट इसलिए नहीं कर पाई क्योंकि मैं बहुत स्वार्थी और धोखेबाज़ हूँ। जब कुछ बुरा होता है, तो मैं कलीसिया के काम को छोड़ अपने हित की सोचती हूँ। मैं बहन लिन को एक झूठी अगुआ के तौर पर पहचान गई थी। अगर उन्हें तत्काल नहीं बदला गया, तो वह कलीसिया के काम का और नुकसान करेंगी, मुझे उन्हें उजागर करते रहना चाहिए था, लेकिन मुझे डर था कि अगर मेरी रिपोर्ट नाकाम रही, तो मेरा निपटारा कर मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता है, इसलिए मैं खुद को बचाने के लिए सबकुछ अनदेखा करती रही। हर चीज में, मैंने अपने हितों की रक्षा और परमेश्वर के घर के हितों की उपेक्षा की। मैं वास्तव में बहुत स्वार्थी और नीच थी। मैं भाई-बहनों को तो नुकसान पहुँचा ही रही थी, परमेश्वर के आदेश से भी धोखा कर रही थी। कौन कह सकता है कि मैंने ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन किया? मैं शैतान के साथ खड़ी होकर झूठे अगुआ के सहयोगी के रूप में काम कर रही थी। हालाँकि देखने में तो मैं कोई बड़ी बुराई नहीं कर रही थी, एक झूठी अगुआ परमेश्वर के घर के काम में बाधा डाल रही थी, लेकिन मैंने सत्य का अभ्यास या परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा नहीं की। बल्कि मैं एक झूठे अगुआ को नुकसान पहुँचाते बर्दाश्त करती रही। मैंने जो किया वह बहन लिन के कलीसिया के काम में बाधा डालने से अलग कैसे था? क्या इसने मुझे भी झूठी अगुआ नहीं बना दिया? यह सोचते ही, मैंने जल्दी से परमेश्वर से पश्चाताप करते हुए प्रार्थना की, कहा कि मैं स्वार्थी, नीच बनी रहकर, अब केवल अपने हितों की रक्षा नहीं करना चाहती, मैं डटकर सत्य का अभ्यास करना और फिर से बहन लिन की रिपोर्ट करना चाहती हूँ।
फिर मैंने कई कलीसिया उपयाजकों और कलीसिया के काम की प्रभारी बहन शाओ के साथ एक सभा का आयोजन किया। मैंने उन्हें बहन लिन के व्यवहार के बारे में बताया और कहा कि वे सिद्धांतों के अनुसार समझें और देखें कि हमें मामले को कैसे संभालना चाहिए। जब मैंने अपनी बात कहली, तो सिंचन उपयाजक ने भी बहन लिन की कुछ समस्याएँ बताईं। उस समय, बहन शाओ ने बस इतना कहा कि वह मामले की जाँच करेंगी और फिर सभा जल्दी समाप्त हो गई। पहले तो मुझे लगा कि मैंने समस्या स्पष्ट कर दी है और बहन लिन को जल्द ही बदल दिया जाएगा। लेकिन मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मुझे बुरी तरह से काटा-छाँटा और निपटाया जाएगा। एक दिन, बहन शाओ मुझसे अकेले में बात करने आईं। उन्होंने कहा कि अगर मुझे कोई समस्या है तो मुझे उनके पास आना चाहिए, कलीसिया के बाकी उपयाजकों से बहन लिन के बारे में बात नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं पवित्र आत्मा के कार्य से युक्त व्यक्ति को दबा रही हूँ, एक गुट बनाकर कलीसिया के जीवन को बाधित कर रही हूँ। और कहा कि मैं लोगों को विकास की दृष्टि से देखूँ, न कि उन पर दोष मढ़ूँ। आखिर में उन्होंने मुझसे पूछा, "आपने झूठी अगुआ के रूप में उनकी रिपोर्ट की, तो क्या आपके मन में कोई बेहतर विकल्प है? अगर नहीं है, तो वह अगुआ के रूप में काम करती रहेंगी। हम पहले ही इसकी जांच कर चुके हैं। बहन लिन में एक अगुआ के तौर पर काम करने की भरपूर क्षमता है...।" उनकी बात सुनते ही मेरा दिल बैठ गया। यह भी समझ नहीं आया कि बात कैसे खत्म करूँ। मैं घर जाकर रात भर सुबकती रही। पता नहीं इस माहौल का अनुभव कैसे करूँ। सोचा, "हालात मुश्किल क्यों होते जा रहे हैं? मेरी हर बात सच है और ये समस्याएँ एकदम स्पष्ट हैं। गंभीरता से इस मुद्दे की जाँच करके पता क्यों नहीं लगाते? मैं जब भी बहन लिन की रिपोर्ट करती हूँ, तो हर कोई मुझसे निपटता और मुझे उजागर क्यों करता है?" मुझे लगा मेरे साथ गलत हुआ है। मुझे एहसास हुआ कि उनकी नज़र में व्यवधान पैदा करने वाली मैं हूँ। यानी हमारे अगुआ मुझे ही मेरे कर्तव्यों से बर्खास्त कर देंगे? यानी मेरे लिए स्थितियों में सुधार की कोई संभावना नहीं है? अगर ऐसा है, तो मेरे लिए इस माहौल से बाहर निकलना ही बेहतर है। मैंने सोचा, "मैं अगुआ पद छोड़ दूँगी। यह ज़्यादा ही कष्टकारी है।" यह सोचकर मैंने त्यागपत्र देने का निश्चय किया। मैं त्यागपत्र देने की तैयारी कर ही रही थी कि मुझमें आत्म-ग्लानि का भाव आया। इन कष्टकारी पलों में, मैंने फिर से रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की। कहा, "परमेश्वर, मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ। मुझे अपनी इच्छा समझा और अभ्यास का मार्ग दिखा।"
प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, इससे मैं समझ पाई कि हमें अगुआओं और कर्मियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "एक अगुआ या कार्यकर्ता के साथ व्यवहार करने के तरीके के बारे में लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? अगर अगुआ या कार्यकर्ता जो करता है वह सही है, तो तुम उसका पालन कर सकते हो; अगर वह जो करता है वह गलत है, तो तुम उसे उजागर कर सकते हो, यहाँ तक कि उसका विरोध कर सकते हो और एक अलग राय भी ज़ाहिर कर सकते हो। अगर वह व्यावहारिक कार्य करने में असमर्थ है, और खुद को एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह विरोधी के रूप में प्रकट करता है, तो तुम उसकी अगुआई को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हो, तुम उसके ख़िलाफ़ शिकायत करके उसे उजागर भी कर सकते हो। हालाँकि, परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग सत्य को नहीं समझते और विशेष रूप से कायर हैं, इसलिए वे कुछ करने की हिम्मत नहीं करते। वे कहते हैं, 'अगर अगुआ ने मुझे निकाल दिया, तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा; अगर उसने सबको मुझे उजागर करने और मेरा त्याग करने पर मजबूर कर दिया, तो मैं परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर पाऊँगा। अगर मैंने कलीसिया को छोड़ दिया, तो परमेश्वर मुझे नहीं चाहेगा और मुझे नहीं बचाएगा। कलीसिया परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है!' क्या सोचने के ऐसे तरीके उन चीजों के प्रति ऐसे व्यक्ति के रवैये को प्रभावित नहीं करते हैं? क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है कि अगर अगुआ ने तुमको निकाल दिया, तो तुमको बचाया नहीं जायेगा? क्या तुम्हारे उद्धार का प्रश्न तुम्हारे प्रति अगुआ के रवैये पर निर्भर है? इतने सारे लोगों में इतना डर क्यों है? अगर कोई झूठा अगुआ या कोई मसीह विरोधी व्यक्ति तुम्हें धमकी देता है, और तुम इसके ख़िलाफ़ ऊँचे स्तर पर जाकर आवाज़ नहीं उठाते और यहाँ तक कि यह गारंटी भी देते हो कि इसके बाद से तुम अगुआ की बातों से सहमत होगे, तो क्या तुम बर्बाद नहीं हो गये? क्या इस तरह का व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है? तुम न केवल ऐसे दुष्ट व्यवहार को उजागर करने की हिम्मत नहीं करते जो शैतानी मसीह विरोधियों द्वारा किया जा सकता है, बल्कि इसके विपरीत, तुम उनका आज्ञापालन करते हो और यहाँ तक कि उनके शब्दों को सत्य मान लेते हो, जिनके प्रति तुम समर्पित होते हो। क्या यह मूर्खता का प्रतीक नहीं है? फिर, जब तुम्हें क्षति पहुँचती है, तो क्या तुम इसी के योग्य नहीं हो? क्या तुम्हें परमेश्वर के कारण क्षति पहुँची है? तुमने स्वयं ही अपने लिए ऐसा चाहा था। तुमने एक मसीह-विरोधी को अपना अगुआ बनाया, और उसके साथ ऐसा व्यवहार किया मानो वह कोई भाई या बहन हो—और यह तुम्हारी गलती है। किसी मसीह-विरोधी के साथ कैसा रवैया अपनाया जाना चाहिए? उसे बेनकाब करना चाहिए और उसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। यदि तुम इसे अकेले नहीं कर सकते, तो कई लोगों को एक साथ आना होगा और उसके बारे में बताना होगा। यह पता लगने पर कि उच्च पदों पर आसीन कुछ अगुआ और कार्यकर्ता मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहे थे, भाइयों और बहनों को कष्ट दे रहे थे, वास्तविक कार्य नहीं कर रहे, और पद के लाभ का लालच कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने उन मसीह-विरोधियों को हटाने के लिए एक याचिका पर हस्ताक्षर किए। इन लोगों ने कितना अद्भुत काम किया! यह दिखाता है कि कुछ लोग सत्य को समझते हैं, उनमें थोड़ी महानता बची है, और वे शैतान द्वारा न तो नियंत्रित हैं और न ही धोखा खाए हुए हैं। यह इस बात को भी साबित करता है कि मसीह-विरोधियों और झूठे अगुओं का कलीसिया में कोई प्रमुख स्थान नहीं है, और वे जो कुछ कहते या करते हैं उसमें अपने असली चेहरे को स्पष्ट दिखाने की उनमें हिम्मत नहीं होती। यदि वे अपना चेहरा दिखाते हैं, तो उनकी निगरानी करने, उनको पहचानने, और उन्हें अस्वीकार करने के लिए लोग मौजूद हैं। अर्थात, जो लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं, उनके लिए किसी व्यक्ति का पद, प्रतिष्ठा, और अधिकार ऐसी चीज़ें नहीं हैं जो उनके हृदय को प्रभावित कर दें; सत्य को समझने वाले सभी लोगों के अंदर विवेक होता है और वे इस बात पर पुनर्विचार करते और सोचते हैं कि लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, और साथ ही उन्हें अगुआ और कार्यकर्ताओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। वे यह सोचना भी शुरू करते हैं कि लोगों को किसका अनुसरण करना चाहिए, किन व्यवहारों से लोगों का अनुसरण होता है, और किन व्यवहारों से परमेश्वर का अनुसरण होता है। कई वर्षों तक इन सत्यों पर विचार करने, और उपदेशों को अकसर सुनने के बाद, वे अनजाने में परमेश्वर में विश्वास करने से जुड़े सत्यों को समझने लगे हैं, और इसलिए उन्हें कुछ कद हासिल हुआ है। वे परमेश्वर में विश्वास करने के सही रास्ते पर निकल पड़े हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं')। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार कर महसूस किया अगुआओं और कर्मियों के साथ व्यवहार करते समय हमें सत्य के सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, न कि आंख मूंदकर उनकी बात माननी चाहिए। जब वे सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप काम करें, तो हमें उनका समर्थन कर सहयोग करना चाहिए। लेकिन व्यावहारिक काम न करने वाले झूठे अगुआओं को उजागर कर उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए और निकाल देना चाहिए। पहले जब मैं भाई-बहनों के साथ संगति करती थी, तो मैं कहा करती थी कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन है, झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है। आखिरकार उन्हें उजागर करके हटा दिया जाएगा। लेकिन जब वाकई एक झूठी अगुआ सामने आई, तो उसे उजागर कर रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं हुई, इस गलतफहमी में जीती रही कि अगुआओं को नाराज़ किया तो, वो मुझे दबाएँगे, सज़ा देंगे और मुझे मेरे काम से हटा देंगे, इस तरह मेरे उद्धार की सारी उम्मीदें खत्म हो जाएँगी। खुद को बचाने के लिए, मैं युद्ध का मैदान छोड़कर भागते सैनिक की तरह समझौता करना, पीछे हटना और इस्तीफा देना चाहती थी। यह कोई गवाही न बनकर मेरी कायरता बन सकती थी। मेरी नियति परमेश्वर के हाथों में है। मेरा उद्धार भी उसी के हाथों में है, जो इससे तय होता है कि मैंने सत्य का अभ्यास करके अपना जीवन-स्वभाव बदला है या नहीं, न कि कोई अगुआ तय करता है। परमेश्वर के घर में सत्य और मसीह का शासन है, और झूठे अगुआ की रिपोर्ट करना परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना है, जो एक सकारात्मक और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार है। अगर अगुआ मेरा निपटारा या मुझे बर्खास्त कर भी दे, तो भी मेरा मानना है कि परमेश्वर हर चीज़ की जाँच करता है और देर-सबेर सच सामने आ ही जाएगा। परमेश्वर झूठे अगुआओं को कलीसिया में इसलिए आने देता है ताकि हम वास्तविक समझ विकसित कर सकें और उनके हाथों धोखा न खाएँ या विवश न हों। ताकि हम सत्य का अभ्यास करें, डटकर झूठे अगुआओं को उजागर कर सकें, और शैतान से लड़ें, क्योंकि परमेश्वर को राज्य में योग्य सैनिक चाहिए, जो शैतान की दुष्ट ताकतों के सामने परमेश्वर की गवाही दे सकें। एक कलीसिया अगुआ के रूप में, मेरा कर्तव्य कलीसिया के काम की रक्षा करना था, भाई-बहनों को झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों से बचाना था, सत्य समझने और पहचान कर पाने में उनका मार्गदर्शन करना था, ताकि वे झूठे अगुआओं को पूरी तरह नकार सकें। इन बातों को समझ लेने पर मुझे अपने अगुआओं के हाथों विवश होने के बजाय, जब जरूरी हो झूठे अगुआ की रिपोर्ट करनी चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "परमेश्वर, मैं गलत थी। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ, अपनी रक्षा करते हुए भागना नहीं चाहती। मैं यह मामला तेरे हाथों में सौंपती हूँ। अगर फिर मौका मिला, तो मैं इस झूठी अगुआ की रिपोर्ट करूँगी। मुझे राह दिखा।"
उसके कुछ दिन बाद ही, अहंकार, मनमानी और व्यावहारिक काम न करने की वजह से मेरे वरिष्ठ अगुआओं को एक-एक करके हटा दिया गया। तो मैंने तुरंत बहन लिन के व्यवहार की सूचना नवनिर्वाचित अगुआओं को दी। उसी समय भाई-बहनों ने भी मेरे पास आकर बहन लिन के व्यवहार का मूल्यांकन करने के लिए मेरे साथ संगति की, हमने सर्वसम्मति से तय किया कि वह झूठी अगुआ हैं और उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए। जब मैंने देखा कि भाई-बहनों ने बहन लिन को पहचान लिया है, और वे डटकर परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के लिए तैयार हैं, तो मुझे शर्म आई, क्योंकि मुझे लगा कि मैंने लापरवाही की। अगर मैं बहन लिन को उजागर कर उनकी रिपोर्ट करना जारी रखती, तो शायद भाई-बहन उन्हें पहले ही पहचान चुके होते। जब मैंने अगुआओं को उन्हें जल्दी ही हटा देने की बात करते सुना, तो मैं भावुक होकर रो ही पड़ी थी।
कुछ दिनों बाद ही, बहन लिन को बर्खास्त कर दिया गया, कलीसिया ने एक नई अगुआ चुन ली, और कलीसिया का काम फिर से सामान्य हो गया। बहन लिन के बर्खास्त होने के कुछ दिन बाद ही, हमारी कलीसिया के काम की देखरेख करने वाली बहन शाओ को भी अहंकारी स्वभाव, काम में लापरवाही और एक झूठे अगुआ को बचाने के लिए, बर्खास्त कर आत्म-चिंतन करने के लिए घर भेज दिया गया, ये परिणाम देखकर, मैंने मन ही मन परमेश्वर की धार्मिकता की स्तुति की, लेकिन मुझे और भी ज़्यादा शर्म आई। अपने हितों की खातिर, मैंने परमेश्वर के घर के हितों को ताक पर रख दिया था। जब झूठे अगुआ की मेरी रिपोर्ट दबा दी गई थी, तो मैं विश्वासघाती बनकर भाग जाना चाहती थी, मैं सिद्धांतों पर नहीं टिकी रही। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की कोई समझ नहीं थी। मैं एकदम अज्ञानी थी।
इस अनुभव के बाद ही मैं परमेश्वर के घर और दुनिया के अंतर को समझ पाई। दुनिया में हर कोई शैतानी लौकिक फलसफे के सहारे जीता है, ऐसे कपटी चाटुकार ही फलफूल सकते हैं। लेकिन परमेश्वर के घर में सत्य, मसीह और धार्मिकता का बोलबाला होता है। भले ही झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी कुछ समय सत्ता में रहें, लेकिन अंत में उन्हें आधार नहीं मिलता। सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना और सिद्धांत के आधार पर कार्य करना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने का एकमात्र तरीका है।
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