मैं ये पढ़ाई नहीं करूंगा
मेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। मेरे माँ-बाप किसान हैं। हमारा परिवार सब्जियां और चावल उगाकर रोजी-रोटी कमाता है। मैं हमेशा से पढ़ाई में अच्छा था, इसलिए माँ-बाप मेरी पढ़ाई में काफी सहयोग करते थे, वो चाहते थे कि मैं आगे चलकर कामयाब बनूँ। उन्हें उम्मीद थी कि मेरी नौकरी परिवार की गरीबी दूर कर देगी। उस वक्त, क्योंकि हम गरीब थे, तो मेरे माँ-बाप अक्सर उधार लेकर स्कूल की फीस भरते थे, मेरे दादा जी ने भी अपने खर्चों से मेरे लिए पैसे जमा किए थे, मेरी बहन मेरी ट्यूशन की फीस देने के लिए पार्ट टाइम काम करती थी। गरीबी दूर करने के लिए मेरे पूरे परिवार की उम्मीदें मुझ पर टिकी थीं। मैं जब अपने माँ-बाप को खेत में कड़ी मेहनत करते देखता, तो मुझे इस तरह जीना बहुत मुश्किल लगता था, तो मैंने मेहनत से पढ़कर सबसे अलग बनने का संकल्प लिया, ताकि मेरे परिवार की गरीबी खत्म हो जाए। मैंने परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए अधिक मेहनत की, अक्सर रात भर जागकर पढ़ता रहता था। बाद में, मेरी इच्छा पूरी हुई और मैं यूनिवर्सिटी गया। इसके बाद, मैंने एक दूसरा लक्ष्य बना लिया, मैं एक प्रोफेसर बनकर बेहतर भविष्य चाहता था।
ग्रेजुएशन के बाद, मैंने पीएचडी की और यूनिवर्सिटी में ही शोध कार्य करने लगा। तब, मेरे माँ-बाप अक्सर मुझे फोन करके याद दिलाते थे, "परमेश्वर से प्रार्थना करते रहो और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।" मेरे पिता ने मुझसे यह भी पूछा, "तुम्हारी यूनिवर्सिटी में कोई कलीसिया है? तुम्हें कलीसिया भी जाना चाहिए।" क्योंकि मेरा लगभग सारा वक्त शोध में निकल जाता था, मेरे पास सभाओं में जाने का समय नहीं बचता था, मैं घर पर ही बाइबल पढ़ना और प्रार्थना करना चाहता था। शोध के दौरान, कई शैक्षणिक वाद-विवाद होते थे। जब दूसरे लोग परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता के साथ वैज्ञानिक सिद्धांतों पर वाद-विवाद करते, तो एक वैज्ञानिक शोधकर्ता होने के नाते, मैं न चाहकर भी हर बात को समझाने के लिए वैज्ञानिक नजरिए का इस्तेमाल करता था। मुझे पता भी नहीं चला और मेरा दिल परमेश्वर से दूर होने लगा, मैंने बाइबल पढ़ना और प्रार्थना करना कम कर दिया, मैं अक्सर अंदर से थका हुआ और खोखला महसूस करता था। मैं कभी-कभी हफ्ते के अंत में आराम के लिए सहकर्मियों के साथ बीच, रिसॉर्ट या पार्क चला जाता था, इस उम्मीद में कि मेरे काम का बोझ थोड़ा हल्का हो जाए, पर आखिर में, अंदर से खोखला ही महसूस करता, कोई शांति या खुशी नहीं मिलती। साल 2020 की शुरुआत में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके उसके करीब आने का संकल्प लिया, उससे राह दिखाने और मेरा जीवन बदलने को कहा, क्योंकि उस खोखलेपन में जीना मेरे लिए वाकई बहुत थकाऊ हो गया था।
जल्दी ही, मैं फेसबुक पर एक बहन से मिला उसने मुझे एक ऑनलाइन सभा में बुलाया। तब, उसने कुछ ऐसा कहा जिससे मुझे बहुत प्रेरणा मिली। उसने कहा कि परमेश्वर के वचन पढ़ना और परमेश्वर के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना बहुत जरूरी है। मैं उस बहन की बात से सहमत था। मैंने ईसाई होने के बावजूद अपना सारा वक्त वैज्ञानिक शोध में लगा दिया, कभी परमेश्वर की आराधना नहीं की, प्रार्थना करना या बाइबल पढ़ना शायद ही कभी हो पाता था। मुझे लगा कि परमेश्वर के साथ मेरा संबंध सामान्य नहीं था, मैं परमेश्वर के करीब आना चाहता था, तो खुशी-खुशी ऑनलाइन सभा में शामिल हो गया। परमेश्वर के वचन पढ़कर और भाई-बहनों की संगति सुनकर, मैंने जाना कि अंत के दिनों में, परमेश्वर अपने वचन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में व्यक्त करता है, उसने हमारे लिए पुस्तक खोल दी है, इस बार परमेश्वर लोगों के न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने आया है ताकि मानवजाति को पाप से पूरी तरह बचाया जा सके। कई सभाओं के बाद, मुझे यकीन हो गया था कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है। तब मैं बहुत उत्साहित था, और खुशी-खुशी परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार लिया। करीब दो महीने बाद, मैंने कलीसिया में कर्तव्य निभाना शुरू किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगा।
एक दिन, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मुझे आज भी याद है। वचनों के इस अंश ने मेरे दिल को झकझोर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "क्या ज्ञान ऐसी चीज़ है, जिसे हर कोई सकारात्मक चीज़ मानता है? लोग कम से कम यह तो सोचते ही हैं कि 'ज्ञान' शब्द का संकेतार्थ नकारात्मक के बजाय सकारात्मक है। तो हम यहाँ क्यों उल्लेख कर रहे हैं कि शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग करता है? क्या विकास का सिद्धांत ज्ञान का एक पहलू नहीं है? क्या न्यूटन के वैज्ञानिक नियम ज्ञान का भाग नहीं हैं? पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण भी ज्ञान का ही एक भाग है, है न? (हाँ।) तो फिर ज्ञान क्यों उन चीज़ों में सूचीबद्ध है, जिन्हें शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है? तुम लोगों का इस बारे में क्या विचार है? क्या ज्ञान में सत्य का लेश मात्र भी होता है? (नहीं।) तो ज्ञान का सार क्या है? मनुष्य द्वारा प्राप्त किए जाने वाले समस्त ज्ञान का आधार क्या है? क्या यह विकास के सिद्धांत पर आधारित है? क्या मनुष्य द्वारा खोज और संकलन के माध्यम से प्राप्त ज्ञान नास्तिकता पर आधारित नहीं है? क्या ऐसे किसी ज्ञान का परमेश्वर के साथ कोई संबंध है? क्या यह परमेश्वर की उपासना करने के साथ जुड़ा है? क्या यह सत्य के साथ जुड़ा है? (नहीं।) तो शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग कैसे करता है? मैंने अभी-अभी कहा कि इसमें से कोई भी ज्ञान परमेश्वर की उपासना करने या सत्य के साथ नहीं जुड़ा है। कुछ लोग इस बारे में इस तरह सोचते हैं : 'हो सकता है, ज्ञान का सत्य से कोई लेना-देना न हो, किंतु फिर भी, यह लोगों को भ्रष्ट नहीं करता।' तुम लोगों का इस बारे में क्या विचार है? क्या तुम्हें ज्ञान के द्वारा यह सिखाया गया है कि व्यक्ति की खुशी उसके अपने दो हाथों द्वारा सृजित होनी चाहिए? क्या ज्ञान ने तुम्हें यह सिखाया कि मनुष्य का भाग्य उसके अपने हाथों में है? (हाँ।) यह कैसी बात है? (यह शैतानी बात है।) बिलकुल सही! यह शैतानी बात है! ज्ञान चर्चा का एक जटिल विषय है। तुम बस यह कह सकते हो कि ज्ञान का क्षेत्र ज्ञान से अधिक कुछ नहीं है। ज्ञान का यह क्षेत्र ऐसा है, जिसे परमेश्वर की उपासना न करने और परमेश्वर द्वारा सब चीज़ों का निर्माण किए जाने की बात न समझने के आधार पर सीखा जाता है। जब लोग इस प्रकार के ज्ञान का अध्ययन करते हैं, तो वे यह नहीं देखते कि सभी चीज़ों पर परमेश्वर का प्रभुत्व है; वे नहीं देखते कि परमेश्वर सभी चीज़ों का प्रभारी है या सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है। इसके बजाय, वे जो कुछ भी करते हैं, वह है ज्ञान के क्षेत्र का अंतहीन अनुसंधान और खोज, और वे ज्ञान के आधार पर उत्तर खोजते हैं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अगर लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करेंगे और इसके बजाय केवल अनुसंधान करेंगे, तो वे कभी भी सही उत्तर नहीं पाएँगे? वह सब ज्ञान तुम्हें केवल जीविकोपार्जन, एक नौकरी, आमदनी दे सकता है, ताकि तुम भूखे न रहो; किंतु वह तुम्हें कभी भी परमेश्वर की आराधना नहीं करने देगा, और वह कभी भी तुम्हें बुराई से दूर नहीं रखेगा। जितना अधिक लोग ज्ञान का अध्ययन करेंगे, उतना ही अधिक वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने, परमेश्वर को अपने अध्ययन के अधीन करने, परमेश्वर को प्रलोभित करने और परमेश्वर का विरोध करने की इच्छा करेंगे" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V)। परमेश्वर के वचन मेरे दिल को चीर गए। मैं हमेशा यही सोचता था कि मैं एक ईसाई परिवार में पैदा हुआ। बचपन से ही परमेश्वर में विश्वास किया, भले ही मैंने विज्ञान पढ़ा हो और वैज्ञानिक शोध किया हो, पर इस शोध कार्य का मकसद सिर्फ एक अच्छी नौकरी पाकर, अपना जीवन बदलना और सबसे अलग मुकाम हासिल करना था। मैंने ये नहीं सोचा कि क्या मैं परमेश्वर को ठुकराने या उसका विरोध करने लगा था। परमेश्वर के वचन के प्रकाशन से मैं समझा कि मेरी सोच गलत थी। विज्ञान और ज्ञान सत्य नहीं हैं, ये सकारात्मक नहीं हैं। नास्तिकता, भौतिकवाद, और विकासवाद जैसे सिद्धांत, परमेश्वर विरोधी ये सारी चीजें शैतान से आती हैं। शैतान वैज्ञानिक ज्ञान के इस्तेमाल से लोगों को भ्रष्ट करता है, उनके दिलों को परमेश्वर से दूर कर उसके अस्तित्व को नकारने वाला बना देता है। मैं हर दिन इस वैज्ञानिक ज्ञान की बातें पढ़ता था, पर इसने मुझे गुमराह कर परमेश्वर से दूर कर दिया, इससे मुझे कभी सत्य हासिल नहीं होता। अपनी शोध के दौरान, मेरा मन नास्तिक विचारों और हर तरह के सिद्धांतों, न्यूटन के नियम, गुरुत्वाकर्षण आदि जैसी चीजों से पूरी तरह भरा रहता था। कैसे समझाऊं? ये ऐसे सिद्धांत थे जिनके जहर ने मुझे भ्रष्ट कर दिया। ब्रह्मांड में क्या चल रहा है, यह जानने और पता लगाने के लिए मैं हर दिन इन नियमों और फॉर्मूलों का इस्तेमाल किया करता था। जैसे-जैसे पढ़ता गया, मुझे लगने लगा कि वैज्ञानिक सिद्धांतों से सब समझाया जा सकता है। अनजाने में, मैं परमेश्वर की सृष्टि और संप्रभुता को ठुकराने लगा, मेरा दिल उससे बहुत दूर जा चुका था। अगर मैं यह पढ़ाई जारी रखता हूँ, तो ये सिद्धांत मुझे खोखला करते रहेंगे, और मैं शैतान के प्रभाव में रहते हुए परमेश्वर का विरोध करता रहूँगा। जब मुझे एहसास हुआ कि कैसे वैज्ञानिक ज्ञान मुझमें जहर भर रहा था, तब लगा कि मुझे शोध छोड़ देनी चाहिए, पर मुझे चिंता होने लगी कि अगर मैंने सचमुच ऐसा किया तो मेरे भविष्य का क्या होगा। मेरे दिल में इस बात को लेकर काफी संघर्ष चल रहा था कि मैं अपनी शोध जारी रखूँ या इसे छोड़कर कुछ और करूँ। सोचने लगा कि गरीबी से छुटकारा पाने की कोशिश में मैं कितना व्यस्त था। रुतबा और अच्छा भविष्य पाने की कोशिश में काफी वक्त और मेहनत लगा कर चुका था, पर मुझे कभी असली खुशी नहीं मिली। बल्कि, मैं अक्सर खोखला और पीड़ित महसूस करता था। मैं ऐसा जीवन नहीं चाहता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाया, जिससे मेरा जीवन पहले से बहुत बदल गया। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के जितने वचन पढ़े, उतनी ही आध्यात्मिक मुक्ति मिली। मैं परमेश्वर के और करीब आ गया, पहले से ज्यादा शांत और सुरक्षित महसूस करने लगा, यह मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव था। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं यह भी समझ गया कि शैतान ने ही मुझे गहराई तक भ्रष्ट किया था, मैंने जाना कि सत्य और जीवन की खोज ही सबसे सार्थक चीजें हैं। यह सोचकर, मैंने सत्य की खोज करने और अपना कर्तव्य निभाने में ज्यादा वक्त देने का फैसला किया।
उसके बाद, मैंने अपने माँ-बाप और भाई-बहनों के साथ सुसमाचार साझा किया। मैंने उन्हें बताया कि प्रभु यीशु अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने लौट आया है, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने हमें शुद्ध करने और पाप के बंधन से बचाने के लिए बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं। मैंने उन लोगों को यह भी बताया, "मैं परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार कर उसके कई वचन समझ पाया हूँ, मैंने शुद्ध होकर बचाए जाने का मार्ग भी पा लिया है, पर अभी भी बहुत-से विश्वासी हैं जिन्हें प्रभु की वापसी के सुसमाचार के बारे में नहीं पता। मैं उन्हें यह सुसमाचार सुनाना चाहता हूँ।" मैंने कहा कि जैसे दादाजी गाँव-गाँव जाकर प्रभु यीशु का सुसमाचार सुनाया करते थे, वैसे ही मैं भी उनके मार्ग पर चलकर अपना वक्त और ऊर्जा ज्यादा लोगों को राज्य का सुसमाचार सुनाने में लगाना चाहता हूँ। मुझे लगा कि मेरे माँ-बाप मेरा सहयोग जरूर करेंगे, पर जब मेरी माँ रोने लगी तो मुझे बहुत हैरानी हुई। उन्हें रोते देख मैं भी बड़ा दुखी हुआ। मेरी पढ़ाई के लिए मेरे माँ-बाप ने जितने पैसे खर्च किए थे उसके बारे में सोचकर बड़ी पीड़ा हुई। उन्हें उम्मीद थी कि मैं एक अच्छी नौकरी करके उनकी और अपने परिवार की देखभाल करूँगा। अगर मैं अपना सारा समय सुसमाचार साझा करने में लगा दूंगा, तो मुझ पर की गई उनकी सारी मेहनत बर्बाद चली जाएगी, यही सोचकर वे इतने दुखी थे। इसका एहसास होने पर मैं भी रोने लगा। मैं उन्हें दुखी नहीं करना चाहता था, बस अपना कर्तव्य निभाना और सुसमाचार साझा करना चाहता था। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे और आस्था देने की विनती की, ताकि मैं अपनी गवाही मैं डटा रह सकूं। तभी, मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया, "परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिलकुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन के विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरा जीवन परमेश्वर की देन है, मैं जिस परिवार में पैदा हुआ और मेरे माँ-बाप, सब परमेश्वर की व्यवस्था थी। मेरे माँ-बाप का मेरी खातिर सब कुछ करना भी परमेश्वर की व्यवस्था ही थी। पहले, मैं हमेशा सोचता था कि उन्होंने यह सब मेरे लिए किया, और मुझे अपने उनकी इच्छा पूरी करने और अपने आदर्शों के लिए जीना है, मुझे इज्जत और रुतबा पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। मगर परमेश्वर के वचन ने मुझे एहसास दिलाया कि मेरे माँ-बाप मेरा जीवन नहीं चलाते थे। मैं कब क्या करूँगा, या जीवन में मेरी भूमिका क्या होगी—यह सब परमेश्वर की व्यवस्था थी। मैं पढ़ाई करके अपनी किस्मत बदलना चाहता था, ताकि मेरा परिवार अच्छा जीवन जी सके। उस वक्त, मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता का कोई ज्ञान नहीं था। अब, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर, और उसके वचन पढ़कर, मैं समझ गया था कि इंसान की किस्मत परमेश्वर के हाथ में है। मेरे माँ-बाप और मेरा परिवार कल कैसा जीवन जीएंगे और उनकी किस्मत कैसी होगी, यह भी परमेश्वर के हाथों में था, ये परमेश्वर की व्यवस्थाएं थीं जिन्हें मैं नहीं बदल सकता। इंसान को परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकार कर उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं को मानना चाहिए। यह समझ आने पर, अपने माँ-बाप को मेरे लिए रोते देखकर भी मैं शांत रह पाया। उस वक्त मुझे यह भी एहसास हुआ कि परमेश्वर के करीब आकर, सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाकर, सुसमाचार साझा कर और परमेश्वर की गवाही देकर ही हम सबसे सार्थक और मूल्यवान जीवन जी सकते हैं। भले ही अब मेरे माँ-बाप मुझे न समझें, पर मैं अपना कर्तव्य नहीं छोड़ सकता था। मैं हर हाल में, परमेश्वर पर भरोसा करके और उसके हाथों सब कुछ सौंपकर आगे बढ़ना चाहता था।
मैंने फैसला कर लिया कि अब अपनी पढ़ाई छोड़कर, तहेदिल से परमेश्वर का अनुसरण करूँगा, अपना कर्तव्य निभाऊंगा। पहले, मैंने अपने टीचर को इस बारे में संदेश भेजा। टीचर ने बहुत हैरान होकर पूछा, "तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या पैसे की कोई परेशानी है?" फिर उन्होंने मुझे यूनिवर्सिटी के एक फंडिंग प्रोग्राम के बारे में भी बताया, वह बड़ा ही दुर्लभ अवसर था, उन्होंने कहा वो मेरी मदद करना चाहते हैं। वो तो मिलकर मुझसे बात भी करना चाहते थे, पर मैं अपना मन बना चुका था, इसलिए मैं न तो उनसे मिला, न ही उन्हें वापस फोन किया। मेरे टीचर ने मुझे एक और चिट्ठी भेजी। वो मेरे फैसले की वजह जानना चाहते थे। उनकी चिट्ठी पढ़कर, मैं उधेड़बुन में पड़ गया, आखिर में मैंने कोई जवाब नहीं भेजा। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के इस अंश को याद किया, "परमेश्वर द्वारा मनुष्य के भीतर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय हस्तक्षेप से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज़, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाज़ी है, और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब को आजमाया गया था : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ दाँव लगा रहा था, और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे, और मनुष्यों का हस्तक्षेप था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाज़ी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है। ... जब परमेश्वर और शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में संघर्ष करते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए, और किस प्रकार उसकी गवाही में अडिग रहना चाहिए? तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि ये सब शैतान के प्रलोभन थे। जब मैंने परमेश्वर का अनुसरण कर कर्तव्य निभाने का फैसला किया, शैतान जानता था मुझे अब भी पैसे, इज्जत, और लाभ की चाह थी, इसलिए उसने इनसे मुझे बहलाने की कोशिश की ताकि मैं अपना कर्तव्य त्याग दूँ। मैंने याद किया कि कैसे अय्यूब की पत्नी ने उसे परमेश्वर को ठुकराने का प्रलोभन दिया था। देखने से लगता था जैसे लोग अय्यूब से बात कर रहे थे, पर असल में यह परमेश्वर के खिलाफ शैतान की लड़ाई थी। फिर मैंने सोचा, देखने पर लग रहा था जैसे मेरे टीचर मुझे यूनिवर्सिटी में रखकर नया प्रोजेक्ट दिलाना चाहते थे, पर असल में यह शैतान की चाल थी। परमेश्वर मुझे जीवन के सही मार्ग पर वापस लाना चाहता था। शैतान मुझे हर तरह से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने का लालच दे रहा था, पर मैं बहकावे में नहीं आ सकता। इस हालात का अनुभव करने के लिए मुझे परमेश्वर पर निर्भर रहना होगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर! मुझे आस्था दो ताकि मैं अपनी गलत इच्छाओं को त्याग सकूं। इस अहम घड़ी में, मैं तुम्हारे लिए गवाही देना चाहता हूँ।" इस तरह प्रार्थना करके, मैंने बहुत सुरक्षित महसूस किया। दो दिन बाद, मैसेज भेजकर मैंने टीचर को अपना फैसला बता दिया और यह भी कि मैं शोध छोड़ रहा हूँ। वह मैसेज भेजकर मेरे कंधों से बहुत बड़ा बोझ उतर गया और मुझे बहुत सुकून मिला। फिर, मैंने इन बातों पर सोचना बंद कर दिया। मैं बस अपने भाई-बहनों के साथ सुसमाचार साझा करने और अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने के बारे में सोचने लगा।
कुछ महीनों बाद, मैंने अपने माँ-बाप को बताया कि मैं अपनी पढ़ाई छोड़ रहा हूँ, परमेश्वर का कार्य पूरा होने वाला है, तो मुझे जल्दी-जल्दी सुसमाचार साझा करना होगा, ताकि ज्यादा लोग परमेश्वर का उद्धार पा सकें। वो नहीं समझे, लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने और कर्तव्य निभाने का मेरा फैसला देख, उन्होंने और कुछ नहीं कहा। अपना कर्तव्य निभाते हुए, धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य निभाकर ही हम ज्यादा सत्य हासिल कर सकते हैं, और सत्य ही जीवन की सबसे कीमती चीज है। यह सब समझ आने पर, मैं अपना कर्तव्य निभाने को और अधिक तत्पर हो गया, अपने परिवार और भविष्य को लेकर मेरी चिंता बहुत कम हो गई, मैंने सब कुछ परमेश्वर पर छोड़कर उसके आयोजन और व्यवस्था पर भरोसा करना सीख लिया। अब, मैं बस यही सोचता हूँ कि ज्यादा लोगों को परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार कैसे साझा करूं, ताकि जो लोग शैतान के प्रभाव में जीते हैं, जिन्हें उसने बेवकूफ बनाकर नुकसान पहुंचाया है, वे परमेश्वर की वाणी सुनकर परमेश्वर के पास वापस आएं, और अंत के दिनों में उसका उद्धार पाएं।
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