गलत व्यक्ति को चुनने के बाद आत्म-चिंतन
2020 की गर्मियों में, मैं कलीसिया की पाठ्य सामग्री के काम की प्रभारी थी। एक दिन, मैंने देखा कि यांग कैन संवाद में निपुण थी और वह एक बढ़िया लेखिका थी। सत्य पर संगति में उसकी सोच स्पष्ट थी और वह कर्तव्य में भी जोशीली थी। मैं उसे पाठ्य सामग्री के काम के लिए चुनना चाहती थी। थोड़ी जाँच-पड़ताल के बाद मैंने पाया कि ज्यादातर भाई-बहनों को उसका स्वभाव अहंकारी लगता था, वह हमेशा चाहती थी कि लोग उसी की सुनें, उसके साथ सहयोग करना मुश्किल था, मगर उसे काट-छाँट और निपटान मंजूर था, वह आत्म-चिंतन कर खुद को जान सकती थी। मैंने मन-ही-मन सोचा, "भले ही वह थोड़ी घमंडी हो, अगर उसे काट-छाँट और निपटान मंजूर है, तो देर-सवेर बदल ही जाएगी, इसलिए कोई बड़ी समस्या नहीं होनी चाहिए।" ऐसा सोच, मैंने उसके लिए पाठ्य सामग्री के काम की व्यवस्था की। अपनी सोच की पुष्टि के लिए जब मैं यांग कैन से मिली, तो उसकी समझ जानने के लिए मैंने उसे घमंडी होने और दूसरों के सुझाव न मानने को लेकर उजागर किया, और संगति की कि यह मसीह-विरोधी का मार्ग था। चेहरे पर पछतावा दिखाते हुए वह बोली, "बहन, आपने संगति न की होती, तो मैं नहीं समझ पाती कि यह मसला कितना गंभीर है। हाँ, मैं घमंडी प्रकृति की हूँ—पछतावा करना चाहती हूँ।" उसमें थोड़ी जागरूकता और थोड़ा पछतावा-सा देखकर, मैंने तय माना कि यांग कैन के साथ कोई बड़ी समस्या नहीं थी। साथ ही, वह अपने कर्तव्य में जोशीली थी, तो मैंने उसे टीम अगुआ चुन लिया। लेकिन कुछ वक्त बाद मैंने देखा कि जिस काम का वह प्रबंधन कर रही थी वह ज्यादा असरदार नहीं रहा था। एक सहकर्मी, बहन ली शिनमिंग देखने गई कि आखिर क्या चल रहा है, उसने देखा कि यांग कैन और एक दूसरी बहन मिल-जुल कर काम नहीं कर पा रही थीं। लेकिन थोड़ी संगति के जरिए यांग कैन को थोड़ा आत्म-बोध हासिल हुआ। मैंने इस मामले को ज्यादा बड़ा नहीं माना। एक बार एक सभा में मेरी अगुआ ने मुझे चेताया, कि यांग कैन काफी घमंडी थी और हमेशा चाहती थी कि लोग उसी की सुनें, वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी, और उसने पहले गंभीर अपराध किए थे। वे चाहती थीं कि मैं यांग कैन के काम की ज्यादा खोज-खबर लूं और उसकी निगरानी करूँ, उन्होंने उसके कामकाज को लेकर जानकारी माँगी। लेकिन तब मैं बहुत आत्म-तुष्ट थी, तो अगुआ से विश्वास के साथ बोली, "सच है कि यांग कैन बहुत घमंडी है, लेकिन उसे काट-छाँट और निपटान मंजूर है, इसलिए वह सही इंसान है।" मैंने अगुआ को उस वक्त का लेखा-जोखा भी दिया, जब मैंने यांग कैन का निपटान किया था। इसके बाद, मैंने अगुआ की चेतावनी को ज्यादा अहमियत नहीं दी।
कुछ महीने बाद देखा कि यांग कैन के प्रभार वाला काम ज्यादा आगे नहीं बढ़ा था। जब मैं उसकी जाँच करने गई, तो यांग कैन ने मुझसे शिकायत की कि टीम की एक सदस्य बहन लिन लैन कमजोर काबिलियत वाली थी और अब भी सिद्धांत नहीं समझ पाती थी। यांग कैन को हर समस्या में उसकी मदद करनी पड़ती थी, जिसमें उसका बहुत वक्त जाया होता था, और वह तेजी से काम नहीं करवा पाती थी। इसी कारण से काम में देर हो रही थी। यह सुनकर मुझे लगा कि नतीजे कमजोर होने के पीछे जरूर लिन लैन की समस्या होगी। बाद में, शिनमिंग ने कहा, "इस टीम के काम से कभी कोई नतीजा नहीं निकलता। यांग कैन टीम अगुआ है, तो क्या समस्या उसके साथ नहीं है?" उसकी बात से मैं बिल्कुल सहमत नहीं थी। मैंने कहा, "यांग कैन बहुत घमंडी है, लेकिन उसे काट-छाँट और निपटान मंजूर है, उसे सिद्धांतों की अच्छी समझ है, और वह कर्तव्य का बोझ उठाती है। शायद उसकी समस्या से नतीजे कमजोर नहीं हुए होंगे। लिन लैन में काबिलियत नहीं है, इसलिए वही काम की तरक्की रोके हुए है। अगर हम स्टाफ में सही बदलाव करें, तो यांग कैन अपनी खूबियों का इस्तेमाल कर सकती है, फिर काम में जरूर सुधार होगा।" मेरे सहकर्मी यांग कैन को ठीक से नहीं जानते थे, इसलिए मेरी बात सुनकर वे लिन लैन के तबादले को राजी हो गए। फिर जल्दी ही मैंने यांग कैन को कुछ भाई-बहनों के साथ काम पर भेज दिया जिन्होंने अभी हाल ही में पाठ्य सामग्री के काम का प्रशिक्षण लेना शुरू किया था, ताकि वह उनके काम में मार्गदर्शन कर सके। मैंने सोचा कि अगर कुछ समय तक यांग कैन को इन भाई-बहनों को प्रशिक्षित करने दिया जाए, तो वे जरूर अपने काम में आगे बढ़ेंगे।
एक महीने बाद, हमने देखा कि वे सभी कम काबिलियत होने की बात कहकर अपने कर्तव्य में निराश और निष्क्रिय हो गए थे। काम बेहतर करना तो दूर, उनकी कार्यकुशलता भी गिरती जा रही थी। मैं बड़े पसोपेश में थी। यांग कैन के आने से पहले, सारे भाई-बहन बहुत उत्साहित थे, तो उसके आने के बाद, वे इतने उदास क्यों हो गए थे? फिर, शिनमिंग को लगा कि यांग कैन के साथ कोई समस्या थी, उसने मुझसे पूछा कि वह कैसी इंसान थी। लेकिन मैं अब भी अड़ी रही कि यांग कैन सत्य को स्वीकारने वाली इंसान है। फिर शिनमिंग ने आगे कहा, "वह आपके सामने काट-छाँट और निपटान मंजूर कर सकती है, लेकिन जब हम उसकी समस्याएँ बताते हैं, तो कभी-कभी वह बहुत प्रतिरोधी हो जाती है।" मुझे हैरानी हुई : क्या यांग कैन की झूठी छवि ने मुझे गुमराह कर दिया था? इसलिए, जल्दी ही मैंने बहन शिन यी को वहाँ के हालात की बारीकी से जाँच करने को कहा। उसने देखा कि यांग कैन, टीम पर हमेशा अपना अधिकार चलाती थी, अगर कोई अलग विचार रखता, तो वह उनके नजरिए को नकारने में कोई कसर न छोड़ती, और अंत में वे सब उसी का कहा मानते थे। कुछ समय बाद, सभी भाई-बहनों के विचार खारिज कर दिए जाने के कारण, उन सबको लग रहा था कि उनकी काबिलियत उस कर्तव्य के लिए बहुत कम थी, और वे कार्य की चर्चाओं में कोई दूसरी राय देने के बजाय बस यांग कैन की सुनते रहते थे। यांग कैन तो आत्म-चिंतन कर ही नहीं रही थी, वह अक्सर शिकायत भी करती थी कि उस पर बहुत दबाव था और काम की फिक्र सिर्फ उसे ही थी, जिससे उन लोगों को महसूस हो रहा था कि काम के बेअसर होने का कारण वे ही हैं, इससे वे और ज्यादा उदास महसूस कर रहे थे। शिन यी ने कहा कि यांग कैन हमेशा ऐसा ही करती थी। यह सब सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। उसकी बातें मुँह पर एक-के-बाद-एक तमाचे जैसी लगीं। मुझे एहसास हुआ कि यांग कैन ने मुझे गुमराह कर धोखा देने के लिए झूठा नाटक किया था। उसमें सच्चा आत्म-बोध था ही नहीं, और वह ऐसी नहीं थी जो सत्य को स्वीकार करे। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि पाठ्य सामग्री के काम में नतीजों की कमी पूरी तरह से मेरे ही कारण हुई, क्योंकि मैं अंधी थी, मुझमें विवेक नहीं था और मैंने गलत इंसान को चुना था। इसके बाद यांग कैन का बर्ताव देखकर, सहकर्मियों और मैंने उसे बर्खास्त कर दिया।
यांग कैन की बर्खास्तगी के बाद, मैंने अपनी नाकामी के असली कारण पर आत्म-चिंतन शुरू किया। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा। "तो किसी को सत्य से प्रेम है या नहीं, इसे कैसे मापा जाना चाहिए? यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे आम तौर पर क्या प्रकट करते हैं और वे सत्य की वास्तविकता को जीते हैं या नहीं, क्या वे जो कहते हैं वही करते हैं, क्या उनकी कथनी और करनी में समानता है। अगर वे जो कहते हैं वह सुसंगत और सुखद लगता है, लेकिन वे वैसा करते नहीं, उसे जीते नहीं, तो इसमें वे एक फरीसी बन जाते हैं, वे पाखंडी होते हैं और सत्य से प्रेम करने वाले बिल्कुल नहीं होते। सत्य के बारे में संगति करते हुए कई लोग बहुत सुसंगत लगते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि कब उनका भ्रष्ट स्वभाव उफन पड़ता है। क्या ये वे लोग हैं, जो खुद को जानते हैं? अगर लोग खुद को नहीं जानते, तो क्या वे सत्य को समझने वाले लोग होते हैं? वे सभी, जो स्वयं को नहीं जानते, वे सत्य को न समझने वाले लोग हैं, और जो आत्म-ज्ञान के खोखले शब्द बोलते हैं उनमें झूठी आध्यात्मिकता होती है, वे झूठे होते हैं। ... तो यह आँकने का आधार क्या होना चाहिए कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं या नहीं? इसका आधार केवल उनके मुँह से निकलने वाली बातें नहीं होनी चाहिए। तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि उनमें वास्तव में क्या प्रकट होता है, जिसका सबसे सरल तरीका यह देखना है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं—यही सबसे महत्वपूर्ण है। सत्य का अभ्यास करने की उनकी क्षमता साबित करती है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, क्योंकि जो लोग वास्तव में खुद को जानते हैं, वे पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, और जब लोग पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, तभी वे वास्तव में खुद को जानते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति यह जान सकता है कि वह धोखेबाज है, कि वह तुच्छ षड्यंत्रों और साजिशों से भरा हुआ है, और वह यह भी बता सकता है कि दूसरे कब धोखेबाजी दिखाते हैं। ऐसे मामले में, उसके यह कहने के बाद कि वह कुछ मामलों में धोखेबाज रहा था, देखो कि वह वास्तव में पश्चात्ताप करता और अपनी धोखेबाजी छोड़ता है या नहीं। और अगर वह फिर से धोखेबाजी करता है, तो देखो कि क्या वह ऐसा करने पर तिरस्कार और शर्मिंदगी महसूस करता है या नहीं, वह ईमानदारी से पश्चात्ताप करता है या नहीं। अगर उसमें शर्मिंदगी का भाव नहीं है, पश्चात्ताप बिलकुल भी नहीं है, तो उसका आत्मज्ञान सतही, और लापरवाही से भरा है। वह सिर्फ बेमन से काम कर रहा है; उसका ज्ञान सच्चा नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर, मुझे एहसास हुआ कि मुझमें अहम पदों के लिए लोगों को परखने और चुनने की काबिलियत नहीं थी। दूसरों को लेकर हमारी परख सिर्फ उनकी बताई समझ पर आधारित नहीं हो सकती। अहम बात यह देखना है कि वे सामने आए मसलों को किस तरह देखते हैं और क्या करते हैं। सत्य से सचमुच प्रेम करने वाले लोग सत्य को स्वीकार सकते हैं, जब समस्याएं आती हैं तो वे सत्य खोज कर आत्म-चिंतन कर सकते हैं, और सच्चाई जानने के बाद प्रायश्चित्त कर बदल सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे मीठा-मीठा बोल सकते हैं, मगर सत्य पर जरा भी अमल किए बिना मनमानी कर सकते हैं। उनकी समझ जितनी भी अच्छी या गहरी लगे, वह बिल्कुल झूठी होती है। ठीक फरीसियों की तरह—उनकी बातें बड़ी अच्छी और ऊँची लगती थीं, लेकिन दिल से उन्हें सत्य अच्छा नहीं लगता था। वे परमेश्वर के वचनों पर अमल नहीं करते थे, परमेश्वर की आज्ञाओं का बिल्कुल भी पालन नहीं करते थे। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो उन्होंने अपने रुतबे और आजीविका को बचाने के लिए पागलों की तरह उसका प्रतिरोध और निंदा की। आखिरकार, उन्होंने उसे सूली पर चढ़वा कर एक जघन्य पाप किया। साफ तौर पर, फरीसी जिस आध्यात्मिक ज्ञान की बातें करते थे, वह सिर्फ दूसरों को सुनाने के लिए था, दूसरों की सराहना और आदर पाने के लिए था। यह पूरी तरह झूठा था।
यांग कैन के साथ अपने मेलजोल में, मुझे लगा कि वह सत्य को स्वीकार सकती है, क्योंकि वह मानने को तैयार थी कि वह अहंकारी प्रकृति की है, और कहती थी कि वह प्रायश्चित्त करने को तैयार है। लेकिन असल में, वह ऐसा सिर्फ मेरे सामने कहती थी, ताकि मैं सोचूँ कि वह काट-छाँट और निपटान झेल सकती है। वह सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबा बनाए रखने के लिए ऐसा दिखावा करती थी, मेरी आँखों में धूल झोंक कर मुझे बेवकूफ बनाने के लिए झूठी छवि बनाती थी। दरअसल वह सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारती थी। पछतावा और बदलाव तो दूर की बात थी, उसमें जरा-सा भी आत्म-बोध नहीं था। इसलिए वह जहां भी जाती, प्रभारी बनाकर सबसे अपनी बात मनवाना चाहती थी। उसके साथ कोई भी काम नहीं कर पाया था, जिससे उनका काम बेतरतीब हो गया था। उसने इसका दोष भी यह कहकर किसी और पर डाल दिया कि दूसरी बहन में काबिलियत नहीं थी, ताकि मुझे लगे कि उस बहन के कारण काम खराब हो रहा था। उसकी हर कथनी और करनी दिखावे के लिए थी, पूरी तरह छलने के लिए थी, लेकिन मैं मूर्ख और अंधी थी, समझदार भी नहीं थी। पूरी तरह से उसकी झूठी बातों के फेर में पड़ गई थी, इसलिए मैंने उस बहन का तबादला कर दिया, और समझा कि यांग कैन एक जिम्मेदार इंसान थी और अपने कर्तव्य का बोझ उठाती थी। इससे आखिरकार कलीसिया का कार्य पिछड़ गया। मैं हर तरह से अंधी थी! इसका एहसास होने पर मुझे गहरा पछतावा हुआ, दोषी होने का बोध हुआ, खास तौर पर जब मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : "सभी नकली अगुआ अंधे होते हैं। उन्हें कोई समस्या नजर नहीं आती। वे नहीं बता सकते कि कौन दुष्ट व्यक्ति या गैर-विश्वासी है। जब कोई कलीसिया के काम में दखल देता या उसे बाधित करता है, तो वे अनजान रहते हैं, यहाँ तक कि मूर्खों को महत्वपूर्ण पद भी दे देते हैं। नकली अगुआ जिन्हें पदोन्नत करते हैं, उन सभी पर बहुत भरोसा करते हैं, उन्हें सहर्ष महत्वपूर्ण कार्य सौंपते हैं। नतीजतन, ये लोग कलीसिया का काम अस्त-व्यस्त कर देते हैं, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को गंभीर क्षति पहुँचती है—जबकि नकली अगुआ इसके बारे में कुछ न जानने का दिखावा करते हैं। ... गलत व्यक्ति का उपयोग करके उन्होंने पहले ही एक बड़ी गलती कर दी होती है, जिसके बाद वे कभी प्रश्न न पूछकर, ज्यादा जानने की कोशिश न करके, या उस व्यक्ति के काम की जाँच न करके अपनी गलती और बढ़ा लेते हैं; वे निरीक्षण या निगरानी तक नहीं करते हैं। वे केवल इतना करते हैं कि उस व्यक्ति का अनियंत्रित ढंग से काम करना सहन करते हैं। नकली अगुआ ऐसे ही काम करते हैं। जब भी किसी काम में लोगों की कमी होती है, नकली अगुआ सहर्ष किसी को इसकी जिम्मेदारी देने की व्यवस्था कर देते हैं, और बस, उनका काम खत्म हो जाता है; वे कभी कार्य का निरीक्षण नहीं करते, न ही वास्तव में उस व्यक्ति से मिलने जाते हैं, न उसकी निगरानी करते हैं, और न ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं। कुछ क्षेत्रों में स्थिति उससे मिलने और बातचीत करने के लिए अनुकूल नहीं होती, लेकिन तुम्हें उसके काम के बारे में पूछताछ करनी चाहिए, और यह पूछने का तरीका खोजना चाहिए कि वह क्या कर रहा है और कैसे कर रहा है : भाई-बहनों या उसके किसी करीबी से पूछो। क्या यह किया जा सकता है? लेकिन नकली अगुआ तो कोई सवाल तक नहीं पूछते, वे इतने आश्वस्त रहते हैं। उनका काम सभा करना और सिद्धांत बघारना होता है, और जब सभा समाप्त हो जाती है और कार्य-व्यवस्थाएँ कर दी जाती हैं, तो वे और कुछ नहीं करते; वे यह देखने नहीं जाते कि उनके द्वारा चुना गया व्यक्ति वास्तविक कार्य करने में सक्षम है या नहीं। शुरुआत में, तुम इस व्यक्ति को नहीं समझ पाए, बल्कि उसकी क्षमता, उसके व्यवहार और जोश के आधार पर तुम्हें लगा कि वह इस कार्य के लिए उपयुक्त है, इसलिए उसका इस्तेमाल किया—और इसमें कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि कोई नहीं जानता कि लोग कैसे निकलेंगे। लेकिन जब तुम उसे पदोन्नत करते हो, तो क्या तुम्हें यह नहीं देखना चाहिए कि वह वास्तविक काम करता हैं या नहीं, वह कैसे काम करता है, और वह धूर्त, आलसी और लापरवाह होने की कोशिश तो नहीं कर रहा? तुम्हें ठीक यही करना चाहिए, लेकिन तुम इसमें से कुछ नहीं करते, तुम कोई जिम्मेदारी नहीं लेते—जो एक नकली अगुआ होना है, तुम्हें बदल दिया जाना चाहिए और बाहर कर दिया जाना चाहिए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन इस किस्म के झूठे अगुआ को उजागर करते हैं जो व्यावहारिक कार्य नहीं करता, जो बेपरवाह है, दूसरों को तरक्की देने और प्रशिक्षित करने में सिद्धांतों का पालन नहीं करता, और सिद्धांतों पर खरे न उतरने वाले लोगों को बेतरतीबी से अहम कामों में लगा देता है। वे सचमुच गैर-जिम्मेदार भी होते हैं, और गलत व्यक्ति को नियुक्त कर उनकी निगरानी नहीं करते, उनके काम की खोज-खबर नहीं लेते; बस किसी को नियुक्त कर देने के बाद वे आगे बढ़ जाते हैं। इससे कलीसिया का कार्य बाधित होता है। अपने किए हर काम को लेकर मुझे बहुत बुरा लगा। क्या मैं झूठी कार्यकर्ता नहीं थी जिसमें समझ और अंतर्दृष्टि तो थी ही नहीं, असली काम भी नहीं करती थी? यांग कैन साफ तौर पर मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने वाली एक अहंकारी इंसान थी, टीम के काम में बाधा डालती थी, भाई-बहनों पर हमला कर उन्हें बेबस करती थी। लेकिन मुझे इसकी भनक भी नहीं थी, मैं उसकी हर बात पर यकीन कर उसकी ढाल की तरह काम कर रही थी, उसे कलीसिया के कार्य को बिगाड़ने और बाधित करने देती थी। आँखें खुली रखकर भी मैं अंधी थी! शुरू में मैंने समझदारी न दिखाकर यांग कैन को चुना, लेकिन उसका कामकाज निरंतर कमजोर होने पर भी, मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसका काम देखकर हालात को नहीं जाना, अगुआ और सहकर्मियों के जिक्र करने पर भी मैंने इस पर ज्यादा नहीं सोचा, और इसके बजाय अपनी ही आँखों पर भरोसा करना पसंद किया। इससे कई महीनों तक काम बहुत कमजोर रहा, आगे नहीं बढ़ पाया। इससे भी बुरा यह था कि यांग कैन के प्रभार वाले कार्य के खराब होने की मुझे पूरी जानकारी थी, फिर भी मुझे लगा कि वह प्रतिभाशाली थी, और मैंने नए लोगों के प्रशिक्षण का काम उसे सौंप दिया। नतीजतन, उसके नीचा दिखाने की हरकतों और हमलों के कारण, भाई-बहन गलतफहमियों और निराशा की हालत में जी रहे थे, और उनके काम पर बुरा असर पड़ रहा था। अगर मुझे जरा भी जिम्मेदारी महसूस होती, सत्य खोजने की इच्छा होती, तो मैंने यांग कैन के काम की खोज-खबर ली होती, उसकी निगरानी की होती, और उसकी समस्याओं का पता चलने में इतना वक्त नहीं लगा होता। इससे काम को बहुत नुकसान पहुँचा। जिम्मेदारी की सच्ची भावना रखने वाला और परमेश्वर का भय मानने वाला कोई भी अगुआ या कार्यकर्ता दायित्व का बोझ उठाता है और सिद्धांतों के अनुसार काम करता है। वे किसी को तरक्की देने या नियुक्त करने में सावधानी बरतते हैं, उस व्यक्ति की अच्छे से जाँच करते हैं, और फिर काम में उसकी योग्यता देखने के लिए उसके काम की निगरानी करते हैं। खास तौर पर जब उन्हें पक्का यकीन नहीं होता, तो चीजों को ज्यादा बारीकी से देखते हैं, निगरानी करते हैं, और जैसे ही वे किसी को काम के लिए सही नहीं पाते हैं, तो उसका तबादला कर देते हैं या बर्खास्त कर देते हैं। इससे गलत चयन के कारण कलीसिया के कार्य को हानि नहीं हो पाती। लेकिन यांग कैन का मेरा चयन सिद्धांतों के खिलाफ था, इसके बाद भी, मैंने उसके काम की खोज-खबर नहीं ली या निगरानी नहीं की। मैंने कर्तव्य में लापरवाही की, मैं गैर-जिम्मेदार थी। मैं परमेश्वर के वचन द्वारा उजागर उस किस्म की झूठी कार्यकर्ता थी जो व्यवहारिक कार्य नहीं करती।
इसके बाद काफी समय तक मैं परेशान रही। मुझे मालूम था कि यांग कैन बहुत घमंडी थी, फिर मैं उसके काम की निगरानी क्यों नहीं कर रही थी? सबकी चेतावनियों के बावजूद मैंने उस पर इतना भरोसा क्यों किया? मैंने इसके हर पहलू पर बार-बार सोचा। फिर एक दिन, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के इस अंश पर पड़ी। "झूठे अगुआ की यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? रूप-रंग से लोगों को आँकने के बजाय परमेश्वर उनके दिलों पर लगातार नजर रखता है—तो नकली अगुआओं को दूसरों को आँकते और उन पर भरोसा करते समय इतना लापरवाह क्यों होना चाहिए? नकली अगुआ बहुत घमंडी होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, 'जब मैंने इस व्यक्ति को खोजा था, तो मैं गलत नहीं था। कोई गड़बड़ नहीं हो सकती; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करे, मस्ती करना पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?' यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या यह तुम्हारा विशेष कौशल है? तुम उस व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसकी प्रकृति और सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनकी प्रकृति और सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? उनके साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर तुम प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते हो और ऐसे लोगों को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या तुम अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? उतावले नहीं हो जाते हो? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। "यदि तुम्हारा रवैया हठपूर्वक आग्रह करना, सत्य को नकारना, औरों के सुझाव न मानना, सत्य न खोजना, केवल अपने आपमें विश्वास रखना और मनमर्जी करना है—यदि यह तुम्हारा रवैया है और तुम्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर क्या करता है या क्या अपेक्षा करता है, तो परमेश्वर की प्रतिक्रिया क्या होगी? वह तुम पर ध्यान नहीं देता। वह तुम्हें दरकिनार कर देता है। क्या तुम हठधर्मी नहीं हो? क्या तुम अहंकारी नहीं हो? क्या तुम हमेशा खुद को ही सही नहीं मानते हो? यदि तुममें आज्ञाकारिता नहीं है, यदि तुम कभी खोज नहीं करते, यदि तुम्हारा हृदय पूरी तरह से बंद है और परमेश्वर का विरोधी है, तो परमेश्वर तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं देता। परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देता? जब तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए बंद है, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रबोधन ग्रहण कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की फटकार को महसूस कर सकते हो? लोग जब दुराग्रही होते हैं, जब उनकी शैतानी और बर्बर प्रकृति काम करने लगती है, तो वे परमेश्वर के किसी भी कार्य को महसूस नहीं कर पाते, उस सबका कोई फायदा नहीं होता—तो परमेश्वर बेकार का काम नहीं करता। यदि तुम्हारा रवैया ऐसा अड़ियल और विरोधी है, तो परमेश्वर तुमसे छिपा रहता है, परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता। अगर तुम इस हद तक अड़ियल और विरोधी हो और इतनी सीमित सोच वाले हो, तो परमेश्वर कभी भी तुममें कुछ भी जबरन नहीं करेगा, या तुम पर कुछ भी लादेगा नहीं, वह कभी भी तुम्हें बार-बार प्रेरित करने और प्रबुद्ध करने की कोशिश नहीं करेगा—परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। वह इस प्रकार कार्य क्यों नहीं करता? मुख्यतः क्योंकि परमेश्वर ने तुममें एक खास तरह का स्वभाव देख लिया है, एक पाशविकता देखी है जो सत्य से ऊबती है और विवेक से परे है। तुम्हें क्या लगता है, जब किसी जंगली जानवर की पाशविकता काम कर रही हो, तो क्या लोग उसे काबू में कर सकते हैं? क्या उस पर चीखना-चिल्लाना किसी काम आता है? क्या तर्क करने या उसे सुकून देने से कोई लाभ है? क्या लोग उसके नजदीक भी जाने की हिम्मत कर सकते हैं? इसका वर्णन करने का एक अच्छा तरीका है : जंगली जानवर विवेक से परे है। जब लोगों की पशुता काम कर रही होती है और वे विवेक से परे हो जाते हैं, तो परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देता। जब तुम विवेक से परे हो, तो परमेश्वर तुमसे और क्या कहेगा? और कुछ भी कहना बेकार है। जब परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देता, तो तुम आशीष पाते हो या कष्ट उठाते हो? तुम्हें कोई लाभ मिलता है या नुकसान उठाते हो? निस्संदेह तुम्हें नुकसान होगा। और इसका कारण कौन है? (हम खुद।) तुम्हीं ने ये हालात पैदा किए। किसी ने तुम्हें यह सब करने के लिए मजबूर नहीं किया और फिर भी तुम परेशान हो। क्या यह मुसीबत तुमने खुद पैदा नहीं की है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता, तुम परमेश्वर को महसूस नहीं कर पाते, तुम्हारे मन में अंधेरा होता है, तुम्हारा जीवन संकट में पड़ गया है—तुमने यह मुसीबत खुद बुलाई है, तुम इसी लायक हो!" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)।
परमेश्वर के वचनों ने ठीक मेरी ही हालत का खुलासा किया था। मैं कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत खोज ही नहीं रही थी। मैं आत्म-तुष्ट, अहंकारी और दुराग्रही थी। मुझे बार-बार चेताया गया था लेकिन मैंने नहीं सुनी, और अड़ियल होकर अपने ही विचारों से चिपकी रही। मैं बहुत नासमझ थी। इससे पहले मैं यांग कैन को बिल्कुल नहीं जानती थी, उसके बारे में दूसरों के आकलनों को सुनकर भी, यह सोचकर कि वह सिर्फ घमंडी स्वभाव की थी जो कोई बड़ी बात नहीं थी, मैं अपनी ही कल्पनाओं पर चली। मैंने संगति कर उसे उजागर किया, तो उसे यह स्वीकारते और पछतावा करते देख मुझे लगा कि उसने सत्य को स्वीकार कर लिया था। मैं अपनी आँखों पर बहुत भरोसा करती थी और सत्य खोजने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : "रूप-रंग से लोगों को आँकने के बजाय परमेश्वर उनके दिलों पर लगातार नजर रखता है—तो नकली अगुआओं को दूसरों को आँकते और उन पर भरोसा करते समय इतना लापरवाह क्यों होना चाहिए? नकली अगुआ बहुत घमंडी होते हैं, है न?" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर सृजन का प्रभु है, वह हर चीज के भीतर देख सकता है। वह लोगों के रूप-रंग पर नहीं जाता। मैं तो बस एक भ्रष्ट इंसान हूँ, जिसके पास कोई सत्य नहीं है, किसी भी चीज की अंतर्दृष्टि नहीं है, मगर मैं बहुत अहंकारी थी, थोड़ा-सा देख उस पर यकीन कर लिया, यांग कैन पर बेपरवाही से भरोसा किया, और उसे टीम अगुआ के रूप में तरक्की दे दी। मुझे जितना भी चेताया गया हो या उसका काम जितना भी बुरा क्यों न रहा हो, मुझे यकीन था कि मैंने उसे गलत नहीं परखा होगा। इससे कई महीनों तक काम अटका रहा। मैं बहुत अहंकारी और दुराग्रही थी। यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं सिर्फ कुकर्म कर रही थी! लोग शैतान द्वारा गहराई तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं, और हमारा स्वभाव गहराई तक भ्रष्ट है। सत्य हासिल कर अपना स्वभाव बदलने से पहले, हम अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं। हम अहंकारी और कपटी हैं, और बिल्कुल भरोसे के लायक नहीं हैं। इंसान की प्रकृति और सार कैसे होते हैं, इस पर सोचें तो अगर हम सत्य को नहीं समझते और लंबे समय से उसे न जानते हों, तो बताना बहुत मुश्किल है। लेकिन मैं अहंकारी और आत्म-तुष्ट थी। मैं सत्य को नहीं समझती थी, लोगों को भीतर से नहीं देख सकती थी, लेकिन मैं अड़ियल होकर अपने नजरिए और कल्पनाओं से चिपकी हुई थी। लोगों ने मुझे जितना भी चेताया हो, मैंने उनकी बात मानने से मना कर दिया। मैं बस अपनी मनमानी करती रही। मैं बहुत नासमझ थी। मैंने परमेश्वर की वह बात याद की कि फरीसी "हठधर्मी एवं अभिमानी थे और सत्य का पालन नहीं करते थे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को नया बना चुका होगा)। परमेश्वर के कार्य को लेकर वे धारणाओं और कल्पनाओं से सराबोर थे। जब प्रभु यीशु कार्य करने प्रकट हुआ, तो वे अड़ियल होकर अपनी धारणाओं के साथ चिपके रहे। प्रभु यीशु के कार्य और वचन जितने भी अधिकार और सामर्थ्य से भरपूर क्यों न हों, वे उसे बिल्कुल नहीं मानते थे, बल्कि पागलों की तरह नकारकर निंदा करते थे, और आखिरकार उन्होंने उसे सूली पर चढ़ा दिया। उनके अड़ियलपन, अहंकार, और नासमझी ने उन्हें परमेश्वर के कार्य को मानने से रोका और उनसे परमेश्वर की निंदा और प्रतिरोध करवाया, और अंत में परमेश्वर से उन्हें दंडित और शापित करवाया। फिर मैंने समझ लिया कि जो स्वभाव मैंने दिखाया, वह फरीसियों जैसा ही था, मैं परमेश्वर के प्रतिरोध के फरीसियों वाले मार्ग पर थी। अगर मैंने अपने अहंकारी और दुराग्रही स्वभाव का समाधान नहीं किया, तो यह मुझसे परमेश्वर का प्रतिरोध करवाएगा, देर-सवेर मैं परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करूँगी और वह मुझे त्याग कर छोड़ देगा। इसका एहसास होने पर मुझे बहुत डर लगा, मैंने शीघ्र प्रार्थना की, अपना पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त किया।
फिर मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : "चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें सीखना चाहिए कि सत्य की खोज और उसका पालन कैसे करना है; अगर वह सत्य के सिद्धांतों के अनुसार है, तो सही है। भले ही किसी बच्चे या किसी साधारण युवा भाई-बहन के शब्द हों, लेकिन अगर वे सत्य के अनुसार हैं, तो तुम्हें उन्हें स्वीकार कर उनका पालन करना चाहिए, और इस प्रकार कार्य करने का परिणाम अच्छा, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होगा। यह है कि तुम्हारा मकसद क्या है, और चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके क्या हैं। अगर चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके मनुष्य की इच्छा से, मनुष्य के विचारों और धारणाओं से, शैतान के फलसफों से उत्पन्न हुए हैं, तो तुम्हारे सिद्धांत और तरीके अव्यावहारिक हैं, और उनका अप्रभावी होना तय है, क्योंकि तुम्हारे सिद्धांतों और विधियों का मूल गलत है, और वे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं हैं। अगर तुम्हारे विचार सत्य के सिद्धांतों के अनुसार हैं, और तुम चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार सँभालते हो, तो तुम्हारा उन्हें ठीक से सँभालना निश्चित है, और भले ही उस समय लोग न स्वीकारें, या फिर धारणाएँ रखें या विरोध करें, कुछ समय बाद तुम्हें स्वीकारा जाएगा। जो चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार होती हैं, उनके नतीजे हमेशा बेहतर होते जाते हैं; जो चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं होतीं, वे उस समय लोगों की धारणाओं के अनुरूप हो सकती हैं, लेकिन उनके परिणाम बदतर होंगे, और तमाम लोग इसकी पुष्टि करेंगे। तुम जो कुछ भी करते हो, वह मानवीय विवशताओं या तुम्हारे अपने चित्रण के अनुसार नहीं होना चाहिए; पहले तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए, और फिर सभी को एक-साथ जाँच और संगति करनी चाहिए। और संगति का उद्देश्य क्या है? यह ठीक परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य करना है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का मार्ग)। इस अंश को पढ़ने से मुझे आगे का रास्ता मिला। किसी समस्या का सामना करते समय हमें सत्य खोजना चाहिए। हम अहंकारी नहीं हो सकते, या अपनी निजी धारणाओं या कल्पनाओं के अनुसार कर्म नहीं कर सकते। हमें खुद को अलग रखकर लोगों की राय लेनी चाहिए, दूसरों की सुननी चाहिए, सत्य के सिद्धांतों के आधार पर काम करने चाहिए। सिर्फ इस तरह काम करके ही हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन मिल सकता है, काम में नतीजे हासिल हो सकते हैं। ऐसा करने से यह भी पक्का हो सकता है कि हम कुकर्म न करें, परमेश्वर का प्रतिरोध न करें। इस नाकामी से मैंने एक सबक सीखा, और कोई समस्या आने पर दूसरों के सुझाव माँगने और अपनी ही राय और विचारों से चिपके न रहने के लिए परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम किए।
जल्दी ही हमने देखा कि जब से वांग जुआन की सुपरवाइजर के रूप में तरक्की हुई थी, उसकी टीम का काम अच्छी तरह आगे नहीं बढ़ रहा था। कुछ सहकर्मियों और मैंने इस पर चर्चा की। शिन यी को लगा कि कहीं ऐसा वांग जुआन के कारण तो नहीं था। मैं सोच रही थी कि भले ही वांग जुआन थोड़ी अहंकारी थी, मगर उसमें सत्य के लिए ललक दिखाई देती थी, और जब उसका कोई मसला बताया जाता, तो वह बड़ी ईमानदारी दिखाती थी। मुझे लगा कि उसके साथ कोई समस्या नहीं थी। मैं अपनी राय बताने ही वाली थी कि मुझे अपनी पहले की नाकामी से सीखा सबक याद आया। जैसा कि शिन यी ने कहा था शायद वांग जुआन के साथ कोई समस्या होगी, और मुझे सच नहीं मालूम था, इस मामले पर यकीन से कुछ नहीं कह सकती थी, तो मैं अहंकारी और अड़ियल नहीं हो सकती थी। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "अगर लोग परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध और निर्देशित होना और उसके अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हैं, तो उनका रवैया किस तरह का होना चाहिए? उनमें परमेश्वर के सामने अक्सर खोजने और आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए। चाहे तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हो, या अपने सामने आई किसी विशेष समस्या से निपट रहे हो, तुममें खोज और आज्ञाकारिता का रवैया होना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। हालत को पूरी तरह समझे बिना, मैं आँखें बंद कर फैसला नहीं कर सकती कि काम के कमजोर नतीजे वांग जुआन के कारण थे। मुझे हालात की वास्तविक समझ हासिल करनी होगी और सबके सुझाव सुनने होंगे, तब सिद्धांत के आधार पर निर्णय करना होगा। बाद में, व्यावहारिक पूछताछ कर और दूसरे सहकर्मियों के साथ जरूरी सत्य पर संगति कर मैंने जाना कि वांग जुआन का स्वभाव अहंकारी, कुटिल, और कपटी था। अपनी शोहरत और रुतबा बनाए रखने के लिए, दूसरों के साथ कार्य की चर्चाओं में वह अपनी अहंकारी राय देकर अपने पेशेवर ज्ञान का दिखावा करती थी, ताकि दूसरों के नजरियों को चोरी-छिपे पलटकर उनसे अपनी बात मनवा ले। दूसरे उसे तानाशाह न कहें, इसके लिए वह झूठी विनम्रता से कहती, "पता नहीं मैं सही हूँ या नहीं," या "शायद मैं सही नहीं हूँ," जिससे सभी यह सोचें कि उसे पता है वह क्या कर रही थी, आँखें बंद कर उसके साथ चलें, और वही करें जो वह चाहती थी। नतीजतन उनका काम हमेशा अटक जाता और वे कहीं न पहुँच पाते। हालाँकि ऐसा लगता था कि वांग जुआन सभी की राय माँगती थी, मगर अपने दिल में वह सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारती थी। वह अपनी तानाशाही प्रकृति को छिपाने के लिए झूठा दिखावा करती थी, ताकि दूसरों को गुमराह कर उन पर काबू पा सके और अपनी बात मनवा सके। बाद में, हमने काम में अपनी खूबियों का सहारा लेने के बारे में परमेश्वर के वचन पढ़े, जिनमें और स्पष्ट बताया गया था कि वांग जुआन को सिद्धांतों की जरा भी समझ नहीं थी। वह दिखावे के लिए अपनी वाक्पटुता, अच्छी याददाश्त और सिद्धांत याद रखने की खूबियों का इस्तेमाल करती थी, लेकिन असलियत में, उसके पास अभ्यास के कोई मार्ग नहीं थे। काम में उसके एक-जैसे प्रदर्शन के आधार पर, हमने देखा कि वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी, और हमने सिद्धांतों के अनुसार उसे बर्खास्त कर दिया। उसकी बर्खास्तगी के बाद, टीम के कामकाज की रुकावटें जल्दी दूर हो गईं, और उनका काम आगे बढ़ने लगा।
इस अनुभव से मैंने सच में समझ लिया कि कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत न खोजने और अपने कर्मों में सिर्फ अपने अहंकारी स्वभाव पर भरोसा करने का अर्थ है कि हम कभी भी कुकर्म और परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसके स्वभाव को अपमानित कर सकते हैं। मैं सत्य खोजने और परमेश्वर के वचन के अनुसार लोगों और चीजों को देखने का महत्व भी समझ सकी। गलत काम करने से बचने और कर्तव्य में परमेश्वर को संतुष्ट करने का यही एकमात्र मार्ग है। परमेश्वर का धन्यवाद!
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