रुतबे के बंधन से मुक्ति
पिछले साल, हमारे कलीसिया की अगुआ, बहन लॉरा, को उनके पद से हटा दिया गया था क्योंकि वो कोई व्यावहारिक काम नहीं कर रही थीं। सबके साथ चर्चा करने के बाद, मुझे कलीसिया की अगुआ चुना गया। कलीसिया की अगुआ बनते ही, मुझे काफी दबाव महसूस होने लगा, क्योंकि मैं जानती थी कि मुझे नई ज़िम्मेदारियां मिली हैं, मगर साथ ही साथ, मैं बहुत खुश भी थी, क्योंकि रुतबा पाने की मेरी इच्छा पूरी हो गई थी। मैंने सोचा कि मुझे अपनी काबिलियत और काम करने की क्षमता के कारण अगुआ बनाया गया है। मैं पूरी मेहनत से अपना कर्तव्य निभाने लगी। कोई बात समझ नहीं आने पर, मैं आगे बढ़कर मदद मांगती और उसके बारे में अध्ययन करती। मैं अक्सर अपने भाई-बहनों का हाल-चाल पूछती और परमेश्वर के वचन खोजकर उनके साथ संगति करती। अक्सर कलीसिया में आये नए भाई-बहनों का सिंचन करने के लिए जाया करती। मुझे बहुत खुशी होती जब वे मुस्कुराकर कहते : "धन्यवाद, बहन।" उस वक्त, मैं एक पल के लिए भी आराम नहीं करना चाहती थी, मैं सारा काम खुद ही करना चाहती थी।
आखिर में, मेरी यूनिवर्सिटी की परीक्षा आ गई, तो मुझे अपना काम कम करना पड़ा। जब मैं अपनी परीक्षा ख़त्म करके सभा के लिए वापस लौटी, तो मैंने देखा कि मेरे बगैर भाई-बहनों ने थोड़ी प्रगति की थी। उनमें दो बहनें ऐसी भी थीं जो परमेश्वर के वचन खोजकर, समूह के भाई-बहनों की कुछ समस्याएं हल कर पाती थीं। ये अच्छी बात थी, मगर मुझे इस बात पर थोड़ा गुस्सा आ गया। मैंने सोचा कि अब भाई-बहनों को मेरी ज़रूरत नहीं है, अब वे अपनी समस्याओं को लेकर मेरे पास नहीं आएँगे। एक बार, मैं एक समूह की सभा में गई। उस समूह के भाई-बहनों को संगति करने में ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली थी, मगर इस बार मैंने देखा कि बहन ईवलिन सबके साथ बहुत अच्छे से घुल-मिल रही थीं। वे स्नेही और धैर्यवान थीं, वे भाई-बहनों को परमेश्वर के वचनों के बारे में उनकी समझ पर चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। उनके प्रोत्साहन और मार्गदर्शन से, सभी भाई-बहन आगे बढ़कर अपनी बात कह पा रहे थे, वे सभी उनके बहुत करीब हो गए थे। ये सब देखकर, मुझे निराशा होने लगी, क्योंकि मुझे लगा एक न एक दिन बहन ईवलिन मेरी जगह ले लेंगी। यह एक बड़ी समस्या लगने लगी। कुछ ही समय बाद, मैंने देखा कि किसी बहन ने सलाह मांगते हुए हमारे समूह में एक संदेश भेजा था। उनका सवाल था : "परमेश्वर के सामने अपने मन को कैसे शांत करें?" मैं जवाब देने की तैयारी कर रही थी कि बहन ईवलिन ने अपनी निजी समझ साझा करते हुए उन्हें परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश भेज दिए। मुझे उनके द्वारा खोजे गए अंश काफी उपयुक्त लगे और उनकी समझ बहुत व्यावहारिक लगी। उन्होंने अभ्यास का मार्ग भी बड़ी स्पष्टता से बताया था। मेरे पास कहने को कुछ नहीं था इसलिए मैं बहुत दुखी हो गई। समूह को संभालना मेरी ज़िम्मेदारी हुआ करती थी। भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों को मैं खोजा करती थी। मैं सोचने लगी, अगर वे इस तरह आगे बढ़कर सभी के सवालों के जवाब देती रहीं, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं उन्हें ऐसा तो नहीं लगेगा कि उनकी अगुआ उनके सवालों के जवाब नहीं दे पा रही और मैं बहन ईवलिन जितनी काबिल नहीं हूँ? अगर वे भाई-बहनों की मदद करने के लिए हमेशा इतनी उत्साहित रहेंगी, तो एक अगुआ के तौर पर सभी मुझे नकारा नहीं समझेंगे? इस बारे में सोच-सोचकर मुझे उनसे ईर्ष्या होने लगी। मैंने तो यह भी सोचा : "ऐसा नहीं चल सकता। मुझे तुमसे बेहतर काम करना होगा। मैं तुम्हें मुझसे आगे नहीं निकलने दूँगी।" लेकिन इसके बाद, मैं अपने कर्तव्य में लगातार गलतियां करने लगी। सबसे आसान कामों में भी मुझसे गलतियां होने लगीं। एक बार, मैंने एक संदेश लिखा जिसे मैं अन्य अगुआओं और पादरियों को हमारी सभा का समय याद दिलाने के लिए भेजना चाहती थी। मैंने गलती से यह संदेश नए समूह को भेज दिया। मुझे अपनी गलती का एहसास तब हुआ जब एक बहन ने मुझे फ़ोन करके इसके बारे में बताया। ये काफी खराब था, इसलिए मैंने फ़ौरन अपना संदेश मिटा दिया। भले ही ये कोई बड़ी बात नहीं थी, मगर मुझे इस बात से बहुत दुख हुआ। उस वक्त मैंने सोचा, मैं अगुआओं के समूह और नए समूह में अंतर कैसे नहीं कर पाई? तब मैंने खुद को नाकारा महसूस किया, जैसे मैं किसी काम की नहीं। उस वक्त मेरी यूनिवर्सिटी की परीक्षाएं भी चल रही थीं, इसलिए मैं अपने कर्तव्य को लेकर पूरी तरह समर्पित नहीं हो सकी। मैंने मन-ही-मन सोचा : "सब ख़त्म हो गया। मेरा पद अब किसी और को दे दिया जाएगा। मेरी जगह बहन ईवलिन ले लेंगी।" इसके बाद, मैं बहुत निराशा महसूस करने लगी। मैं अपने कर्तव्य बेपरवाही से करने लगी, कुछ भी करने में मन नहीं लगता था। ऐसा लगने लगा जैसे सभाओं में समय बीत ही नहीं रहा हो, सभाओं के दौरान मैं कभी-कभी फेसबुक चलाने लगती थी। मैं तो कुछ हास्य वीडियो भी देखने लगी जो मेरे जीवन के लिए किसी काम के नहीं थे। पहले मैं, सभाएं शुरू होने से पहले पूरी तैयारी करती थी, परमेश्वर के वचनों पर विचार करके अपना बोझ अच्छे से वहन करती थी, अपने भाई-बहनों की अनसुलझी समस्याओं पर विचार करके उनके साथ संगति करने के बारे में सोचती थी। मगर अब मैंने अपनी ज़िम्मेदारियां उठाना और परमेश्वर के वचनों पर विचार करना बंद कर दिया था। एक बार शाम की सभा से पहले, मैं कुछ कपड़े खरीदने चली गई। मगर देर हो गई और सभा शुरू होने के कुछ ही मिनटों पहले मैं घर पहुँची। सुबह, मैंने परमेश्वर के वचनों को ध्यान से नहीं पढ़ा था और ना ही उन्हें समूह में भेजा, ताकि अन्य भाई-बहन उन पर विचार कर सकें। तब, मैंने अपने मन को परमेश्वर से बहुत दूर पाया। इसलिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने उससे कहा : "सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मैं तुमसे बहुत दूर हो गई हूँ। मैं यह भी जानती हूँ कि अपने कर्तव्य को लेकर मेरा रवैया सही नहीं रहा है। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ, मगर मेरा हृदय बहुत कमज़ोर है। मुझे उम्मीद है तुम मेरी मदद करोगे।"
मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, जिनसे मुझे बहुत मदद मिली। परमेश्वर कहते हैं, "लोग अपने भीतर, गहराई में कुछ बुरी मनोदशा पाले रहते हैं, जैसे नकारात्मकता, दुर्बलता और अवसाद या भंगुरता; या लगातार हावी रहने वाली कोई तुच्छ मंशा; या हमेशा अपनी प्रतिष्ठा, स्वार्थ और अपने हितों को लेकर चिंता में घुलते रहते हैं; या फिर वे खुद को अयोग्य समझते हैं और कुछ विशिष्ट नकारात्मक मनोदशा में रहते हैं। जब तुम लगातार ऐसी मनोदशा में रहते हो, तो तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर तुम्हें पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने में मुश्किल होती है, तो तुम्हारे अंदर बहुत कम सकारात्मक भावनाएँ होंगी और तुम्हारे लिए सत्य को प्राप्त करना कठिन होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इस अंश को पढ़कर मेरी आँखें खुल गईं। परमेश्वर ने बिल्कुल सही तरीके से मेरी समस्याओं का ज़िक्र किया था। मैं निराशा में जी रही थी, अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी, क्योंकि मुझे चिंता थी कि कोई और मुझसे मेरा पद छीन लेगा। रुतबे पर खतरा होने से मैं डर गई, जिस कारण मैं कमज़ोर और परमेश्वर के साथ-साथ भाई-बहनों से भी दूरी महसूस करने लगी।
मैंने "अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (3)" में, परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से पहले लोग कई अवस्थाओं से गुजर चुके होते हैं। उदाहरण के लिए, लोगों में अकसर एक नकारात्मक स्थिति देखी जाती है : जब दूसरे लोग ज्यादा उत्पादक ढंग से अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं; जब दूसरों के परिवार उनके परिवारों से अधिक एकजुट होते हैं, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं; जब दूसरों की स्थितियाँ उनकी स्थितियों से बेहतर होती हैं या जब दूसरे उनसे ज्यादा सक्षम होते हैं, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं; और जब उन्हें थोड़ा जल्दी जगा दिया जाता है, जब उनके कर्तव्य थकाऊ होते हैं और जब वे थकाऊ नहीं होते तब भी, वे नकारात्मक हो जाते हैं। चाहे कुछ भी हो, वे नकारात्मक ही रहते हैं। ... नकारात्मकता का मतलब है कि लोगों के भीतर कोई समस्या है : वे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते और वे परमेश्वर के हर काम से लगातार असंतुष्ट बने रहते हैं; इसके अलावा, वे सत्य की जरा-सी भी खोज नहीं करते और न ही उसे व्यवहार में लाते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति प्रतिक्रियाशील क्यों रहेगा? क्या वे विवेकशून्य नहीं हैं? ऐसे विवेकशून्य लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया होता है? वह उन्हें दरकिनार करके अनदेखा कर देता है। तुम जैसा चाहे, कर सकते हो, और यदि चाहो तो विश्वास कर सकते हो; यदि तुम विश्वास करते हो और खोज करते हो, तो तुम प्राप्त कर सकते हो। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के साथ उचित व्यवहार करता है। यदि तुम्हारा दृष्टिकोण सत्य को स्वीकार न करने और समर्पित न होने का है, और यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो, तो तुम चाहे जिसमें विश्वास करो; साथ ही, यदि तुम छोड़ना चाहो, तो तुम तुरंत ऐसा कर सकते हो। यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, तो तुम कुछ भी करो, लेकिन कोई शर्मनाक दृश्य निर्मित न करो या अपने को ज्यादा फन्ने खाँ मत समझो, बल्कि तुरंत छोड़ दो, और जहाँ जाना चाहो जाओ। परमेश्वर ऐसे लोगों से रुकने का आग्रह नहीं करता। यही उसका रवैया है। यदि तुम—जो स्पष्ट रूप से एक सृजित प्राणी है—एक सृजित प्राणी की तरह व्यवहार नहीं करते, बल्कि हमेशा एक महादूत बनना चाहते हो, तो क्या परमेश्वर तुम पर ध्यान दे सकता है? यदि तुम—जो स्पष्ट रूप से एक साधारण व्यक्ति है—हमेशा विशेष और तरजीही व्यवहार चाहते हो, और हैसियत और साख वाला व्यक्ति बनना चाहते हो, जो सभी चीजों में दूसरों से अधिक उत्कृष्ट होता है, तो तुम अनुचित हो और तुममें समझ का अभाव है। परमेश्वर उन लोगों को कैसे देखता है, जिनमें समझ का अभाव होता है? उनके बारे में उसका आकलन क्या होता है? ऐसे लोग विवेकशून्य होते हैं!" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर ने स्पष्ट कर दिया कि मेरी नकारात्मकता और कमजोरी का कारण कुछ और नहीं, बल्कि अगुआ के पद को लेकर मेरा लगाव था। मैं उसे खोना नहीं चाहती थी। मैं अपने कर्तव्य से ज़्यादा अपने रुतबे से प्यार करती थी। मैं जो भी करती थी उसका मकसद सिर्फ़ अपने अगुआ के पद को बनाए रखना होता था। मैंने उस पल के बारे में सोचा जब मुझे अगुआ का पद मिला ही था। मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत की, इतनी कि मैंने एक पल के लिए आराम नहीं किया। क्योंकि खराब काम करने पर मुझे पद छोड़ना पड़ेगा। उन दो बहनों की प्रगति देखकर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था। मगर मुझे डर था कि अब भाई-बहनों को मेरी ज़रूरत नहीं पड़ेगी, इससे मेरे अगुआ के पद का कोई मतलब नहीं रह जाएगा और अब कोई मेरी प्रशंसा नहीं करेगा। खास तौर से ये देखकर कि बहन ईवलिन इतना अच्छा काम कर रही हैं, भाई-बहनों के सवालों के जवाब दे पा रही हैं और सभी उनके इतने करीब हैं, मुझे अपने रुतबे की चिंता और भी ज़्यादा सताने लगी। मैं बहुत निराश और कमज़ोर महसूस करने लगी, इस हद तक कि मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही करनी शुरू कर दी। परमेश्वर कहता है कि इस तरह के लोग विवेकहीन होते हैं। परमेश्वर इन लोगों पर ध्यान नहीं देता, ऐसे लोगों के लिए पवित्र आत्मा का कार्य हासिल कर पाना मुश्किल होता है। मैं बहुत डर गई, जब मुझे एहसास हुआ कि मैं भी इसी खतरनाक स्थिति में थी। परमेश्वर ये भी कहता है कि वह नकारात्मक लोगों को पसंद नहीं करता, क्योंकि वे सत्य स्वीकार नहीं कर पाते हैं। वे गलत इरादों के साथ जीते हैं और उन्हें बदलने या त्यागने में अक्षम होते हैं। अगर कोई इंसान ऐसी नकारात्मक स्थिति में जीता रहेगा, तो अंत में उसे अलग करके हटा दिया जाएगा। मुझे भी इन्हीं बातों का एहसास हुआ था। इसलिए, मैंने परमेश्वर के पास जाकर अपनी गलतियाँ स्वीकारीं और पश्चाताप के लिए प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर से कहा : "परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मैं गलत हूँ। मुझे उम्मीद है कि खुद को पहचानने में तुम मेरी मदद करोगे और मुझे मेरी निराशा से बाहर निकालोगे।"
कुछ समय बाद, एक सभा में किसी बहन ने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। उन वचनों से मुझे समझ आया कि हम क्यों शोहरत, समृद्धि, और रुतबे के पीछे भागते रहते हैं। "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI" के चौथे अंश में परमेश्वर कहते हैं, "शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियन्त्रण में रखने के लिए किस का उपयोग करता है? (प्रसिद्धि एवं लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है। अब शैतान की करतूतों को देखने पर, क्या उसकी भयानक मंशाएँ बिलकुल ही घिनौनी नहीं हैं? हो सकता है कि आज तुम लोग अब तक शैतान की भयानक मंशाओं की वास्तविक प्रकृति को नहीं देख पा रहे हो क्योंकि तुम लोग सोचते हो कि प्रसिद्धि एवं लाभ के बिना कोई जी नहीं सकता है। तुम सोचते हो कि यदि लोग प्रसिद्धि एवं लाभ को पीछे छोड़ देते हैं, तो वे आगे के मार्ग को देखने में समर्थ नहीं रहेंगे, अपने लक्ष्यों को देखने में समर्थ नहीं रह जायेँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, मद्धिम एवं विषादपूर्ण हो जाएगा। परन्तु, धीरे-धीरे तुम सभी लोग यह समझ जाओगे कि प्रसिद्धि एवं लाभ ऐसी भयानक बेड़ियाँ हैं जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वो दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियन्त्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का पूरी तरह से विरोध करोगे जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम उन सभी चीज़ों को फेंकने की इच्छा करोगे जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और तुम सच में उन सब से घृणा करोगे जिन्हें शैतान तुम तक लाया है। केवल तभी मानवजाति के पास परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम और लालसा होगी" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे एहसास हुआ कि शैतान इंसान को भ्रष्ट करने और धोखा देने के लिए शोहरत, समृद्धि, और रुतबे का इस्तेमाल करता है। यह अदृश्य जुआ है जिससे शैतान लोगों को बांधता है। मैं बचपन से ही शोहरत, समृद्धि, और रुतबे के जुए में बंधी हुई थी। स्कूल में मैं, दूसरों की प्रशंसा पाने और क्लास की लीडर बनने के लिए, बहुत मेहनत से पढ़ाई करती थी, क्योंकि मुझे अपने सहपाठियों से पीछे रह जाने का डर था। जब मैं परमेश्वर में विश्वास करने लगी और अगुआ बनी, तब मैंने अपना रुतबे और पद बनाए रखने के लिए कर्तव्य निभाने में बहुत मेहनत की। मुझे उन भाई-बहनों से बहुत ईर्ष्या होती थी जो मुझसे बेहतर थे। मुझे डर था कि वो लोग मुझसे आगे निकल जाएँगे और लोगों के दिलों में मेरा रुतबा नहीं रहेगा। और सबसे बुरी बात क्या हुई? जब मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहनों के बीच मैं उतनी भी काबिल नहीं थी कि मुझे हटाया न जा सके, तो मुझे लगने लगा जैसे रुतबा पाने की मेरी इच्छा अधूरी रह गई, इसलिए मैं अपने कर्तव्य में लापरवाही करने लगी, बस इसलिए कि मैं जो चाहती थी वो मुझे नहीं मिला। मुझे एहसास हुआ कि मेरे लिए, परमेश्वर की अपेक्षाएं, मेरा कर्तव्य, मेरी ज़िम्मेदारियां, कलीसिया का जीवन, ये सब कोई मायने नहीं रखते। मैं सब कुछ रुतबा पाने के लिए करती, मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं थी। मुझे यह भी एहसास हुआ कि शैतान हमें शोहरत, समृद्धि, और रुतबे के पीछे भगाना चाहता है। वो चाहता है कि हम ये सब पाने के लिए एक-दूसरे से लड़ें, परमेश्वर की अपेक्षाओं को भूलकर, उसे धोखा दें और उससे भटक जाएँ। यही शैतान का जाल है। इसका एहसास होने पर, मुझे खुद से नफरत होने लगी। मैं खुद को शोहरत, समृद्धि और रुतबे की चाह से मुक्त करना चाहती थी, ताकि मैं सच्चे मन से परमेश्वर के सामने जा सकूँ। फिर, मैंने ये भजन सुना "मैं हूँ बस एक अदना सृजित प्राणी" इससे मुझे बहुत प्रेरणा मिली। "हे परमेश्वर, चाहे मेरी हैसियत हो या न हो, अब मैं स्वयं को समझती हूँ। यदि मेरी हैसियत ऊँची है तो यह तेरे उत्कर्ष के कारण है, और यदि यह निम्न है तो यह तेरे आदेश के कारण है। सब-कुछ तेरे हाथों में है। मेरे पास न तो कोई विकल्प हैं न ही कोई शिकायत है। तूने निश्चित किया कि मुझे इस देश में और इन लोगों के बीच पैदा होना है, और मुझे पूरी तरह से तेरे प्रभुत्व के अधीन आज्ञाकारी होना चाहिए क्योंकि सब-कुछ उसी के भीतर है जो तूने निश्चित किया है। मैं हैसियत पर ध्यान नहीं देती हूँ; आखिरकार, मैं मात्र एक प्राणी ही तो हूँ। यदि तू मुझे अथाह गड्ढे में, आग और गंधक की झील में डालता है, तो मैं एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। यदि तू मेरा उपयोग करता है, तो मैं एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण बनाता है, मैं तब भी एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण नहीं बनाता, तब भी मैं तुझ से प्यार करती हूँ क्योंकि मैं सृष्टि के एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। मैं सृष्टि के परमेश्वर द्वारा रचित एक सूक्ष्म प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ, सृजित मनुष्यों में से सिर्फ एक हूँ। तूने ही मुझे बनाया है, और अब तूने एक बार फिर मुझे अपने हाथों में अपनी दया पर रखा है। मैं तेरा उपकरण और तेरी विषमता होने के लिए तैयार हूँ क्योंकि सब-कुछ वही है जो तूने निश्चित किया है। कोई इसे बदल नहीं सकता। सभी चीजें और सभी घटनाएँ तेरे हाथों में हैं" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। तब मुझे समझ आया कि आज परमेश्वर के घर में चाहे मैं जो भी काम करूँ, यह परमेश्वर का विधान है, उसके द्वारा किया उत्थान है। मुझे रुतबे को भूलकर, सृजित प्राणी की तरह, ईमानदारी से कर्तव्य निभाना चाहिए। यही सबसे सही मार्ग है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि परमेश्वर के घर में नीचे और ऊँचे रुतबे में कोई भेदभाव नहीं है—सबसे ज़रूरी है अपना कर्तव्य निभाना। इसका एहसास होने पर, मैं स्वतंत्र महसूस करने लगी। भविष्य में, मैं अपने रुतबे को भूलकर अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम प्रयास करूंगी।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के ये दो अंश पढ़े, जिनका मुझ पर काफी गहरा असर पड़ा। परमेश्वर कहते हैं, "भाइयों और बहनों के बीच सहयोग अपने तुम में, एक की कमज़ोरियों की भरपाई दूसरे की शक्तियों से करने की प्रक्रिया है। तुम दूसरों की कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हो और दूसरे तुम्हारी कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हैं। यही दूसरों की खूबियों से अपनी कमज़ोरियों की भरपाई करने और सामंजस्य के साथ सहयोग करने का यही अर्थ है। सामंजस्य में सहयोग करके ही लोग परमेश्वर के समक्ष धन्य हो सकते हैं, व्यक्ति इसका जितना अधिक अनुभव करता है, उसमें उतनी ही अधिक व्यावहारिकता आती है, मार्ग उतना ही अधिक प्रकाशवान होता जाता है, इंसान और भी अधिक सहज हो जाता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में')। "कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। परमेश्वर के वचनों के इन दो अंशों को पढ़कर, मैं उसके इरादे समझ पाई। परमेश्वर चाहता है कि अपना कर्तव्य निभाते हुए हम एक-दूसरे से सीखें और एक-दूसरे की कमियों की भरपाई करें। हमारा पद चाहे जो भी हो, हमें सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए। परमेश्वर के इरादों को समझने के बाद, मैंने उससे प्रार्थना की। मैं अपने रुतबे की चाह का त्याग करना सीखने लगी, मैंने किसी और के मुझसे आगे निकल जाने की परवाह करनी छोड़ दी। मैंने हर काम में अपना मन लगाना और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के बारे में सोचना सीख लिया। सभाओं में, मैं अन्य भाई-बहनों के साथ आगे बढ़कर संगति करने लगी। जब कोई और संगति कर रहा होता, तो मैं उसकी बातों पर ध्यान से सोचती और फ़ौरन रोशनी देने वाली सीख को नोट कर लेती। मैंने जाना कि मैं भाई-बहनों से बहुत कुछ सीख सकती हूँ। धीरे-धीरे, मैंने उन भाई-बहनों से ईर्ष्या करनी बंद कर दी, जो मुझसे ज़्यादा तेज़ी से प्रगति कर रहे थे या जो मुझसे ज़्यादा काबिल थे। मैं खुद का त्याग कर दूसरों से सीखने में भी सक्षम हुई। कुछ समय तक इसी तरह अभ्यास करने के बाद, मुझे बहुत शांति और सुकून महसूस होने लगा। मैंने खुद को परमेश्वर के ज़्यादा करीब पाया। मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने अपने वचनों से मेरा न्याय किया और मुझे उजागर किया। उसने मेरे भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने में मेरी बहुत मदद की। मुझे बचाने और प्रेम करने के लिए, परमेश्वर का धन्यवाद!
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