"विशेषज्ञ" न रहकर मिली बड़ी आज़ादी

24 जनवरी, 2022

जांग वे, चीन

मैं एक अस्पताल में डिप्टी चीफ़ ऑर्थोपेडिस्ट के रूप में काम किया करती थी, चालीस साल तक मैंने पूरी लगन से यह काम किया, हड्डियों की बीमारी के बारे में बहुत अनुभव हासिल किया। मरीज़ और सहयोगी, दोनों मेरी चिकित्सकीय विशेषज्ञता के लिए मेरा बहुत आदर करते थे, मैं जहां भी जाती, लोग मुझे आदर और सम्मान देते। मुझे लगा मैं एक ख़ास इंसान हूँ, सबसे ऊपर। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के बाद, मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन जो कलीसिया में अगुआ और उपयाजक के रूप में काम करते थे, वे सभाओं में संगति करके समस्याएँ सुलझाने में मदद करते, कुछ लोग लेख लिखते या वीडियो बनाते। मुझे सच में उनसे ईर्ष्या होती, लगता कि उनके काम के लिए उनकी सराहना होती होगी। मेज़बानी करने या सामान्य मामलों को देखने जैसे कामों को छोटा और बेकार मानकर मैं इन्हें नीची नज़र से देखती, मैं सोचती, "मैं ऐसा काम कभी नहीं करूंगी। समाज में मेरी प्रतिष्ठा है, अच्छी शिक्षा भी हासिल की है। अगर मुझे कोई काम करना है, तो वह मेरे रुतबे के लायक होना चाहिए।"

2020 के चीनी नववर्ष के बाद, कलीसिया के एक अगुआ ने मुझे बुलवाकर कहा, "लेखन का काम करने वाली कुछ बहनों के पास रहने के लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं है। एक विश्वासी के रूप में आपका उतना नाम नहीं है, इसलिए आपका घर ज़्यादा सुरक्षित रहेगा। आप उनकी मेज़बानी करेंगी?" मैंने सोचा, "मुझे कोई काम करने में खुशी होगी, लेकिन मुझ जैसी ऊंचे दर्जे की डिप्टी चीफ़ फिजिशियन, एक पेशेवर, मेज़बान का काम करे, सारा दिन गर्म चूल्हे पर खाना बनाती रहे, मेज़ के इर्द-गिर्द दौड़ती फिरे— क्या मैं एक आया जैसी नहीं बन जाऊंगी?" मुझे अच्छा नहीं लगा। क्या मेज़बानी के काम से ज़्यादा मान-सम्मान वाला कोई दूसरा काम नहीं है? जो भी हो, मुझे लगा मेरे पास थोड़े रुतबे वाला काम होना चाहिए, या ऐसा काम होना चाहिए जिसके लिए कोई हुनर ज़रूरी हो। इसके बिना, मुझे लगा जैसे मुझे निचले दर्ज़े पर उतार दिया गया है! क्या मेज़बानी करना मेरी प्रतिभा को बरबाद करना नहीं है? अगर मेरे परिवार और मित्रों को पता चल गया कि मैंने एक विशेषज्ञ का शानदार पद छोड़कर घर बैठे दूसरों के लिए खाना बनाने का काम पकड़ लिया है, तो क्या वे हंस-हंस कर लोटपोट नहीं हो जायेंगे? मैंने इस बारे में जितना सोचा उतनी ही ज़्यादा दुखी हो गयी। मेरा ख़याल था कि कलीसिया को इसकी तुरंत ज़रूरत है, इसलिए सच में मेरी पसंद का काम न होने पर भी, ऐसे अहम वक्त पर मैं इनकार नहीं कर सकती थी—ऐसा करती तो इंसानियत नहीं दिखाती। बाद में मुझे लगा कि मुझमें अब भी आध्यात्मिक कद की कमी है और मुझे सत्य की उतनी समझ नहीं है, इसलिए लेखन के काम में लगे हुए भाई-बहनों से मिल-जुलकर, मैं उनसे सीख सकूंगी, फिर शायद उनके साथ काम करने के बजाय मेरा तबादला कर दिया जाए। मैंने अनुमान लगाया कि मेज़बानी का काम अस्थाई होगा। साथ ही, महामारी के ऐसे गंभीर हालात में, काम करने के लिए अस्पताल सबसे बुरी जगह है, अब मैं वहां काम नहीं करना चाहती। इसलिए मैंने इस्तीफा दे दिया और खुशी से मेज़बानी का काम करने लगी।

मैं हमेशा काम में व्यस्त रहती थी, इसलिए मैंने कभी ज़्यादा खाना नहीं बनाया था। मैं दिल लगा कर खाना बनाना सीखने लगी, ताकि बहनें लज़ीज़ खाना खा सकें। लेकिन खाना बना देने के बाद, मैं कभी खाना टेबल तक नहीं ले जाना चाहती थी। मुझे लगता यह एक वेटर का काम है। अस्पताल में जब खाना खाती थी, तो कोई-न-कोई मेरे लिए तैयार खाना ले आता, किसी भी वार्ड में जाती, तो सहयोगी मुझसे खड़े होकर बात करते। मैं जहां कहीं भी जाती, मुझे बड़े आदर से देखा जाता। लेकिन अब दिन-रात मुझे तेल के धब्बों वाले कपड़े पहनकर ऊपर एप्रन चढ़ाना पड़ता, तेल से सने हुए बर्तनों और कड़ाहियों को घिसने में अपना वक्त बिताना होता, जबकि उन बहनों को साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर कंप्यूटरों के सामने बैठने का मौक़ा मिलता। मुझे सच में पीड़ा होती, बहुत दुख होता। इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया : "दिमाग वाले लोग शारीरिक श्रम करने वालों पर शासन करते हैं।" और "चोर-चोर मौसेरे भाई।" खाना बनाना और मेज़बानी करना शारीरिक काम है, दूसरे कामों के मुकाबले यह एक अलग दर्जे का काम है। इस बारे में सोचकर मैं बहुत ज़्यादा परेशान हो गयी, मैं बोझिल महसूस करने लगी, मानो कोई भारी वज़न मुझे नीचे दबा रहा हो। मैं यह काम लंबे समय तक नहीं करना चाहती थी। मैंने सोचा, "मैंने चिकित्सा के शोधपत्र लिखे हैं, अपने क्षेत्र में सराहना पायी है। ऐसा नहीं है कि मुझे लेखन कला नहीं आती। अगर मैं गवाही वाले कुछ अच्छे लेख लिख सकूं, तो शायद अगुआ मेरी प्रतिभा को पहचानकर मुझे उस काम पर लगा दें। फिर हो सकता है मुझे यह मेज़बानी का काम न करना पड़े?" मैं सुबह जल्दी उठने लगी, देर रात तक जागने लगी, अपने अनुभवों के बारे में लेख लिखने लगी। जब बहनों ने पढ़कर कहा कि ये बुरे नहीं हैं। उत्साहित होकर मैंने ये लेख अगुआ को भेज दिये, मगर बहुत इंतज़ार के बाद भी मुझे लेखन का काम नहीं दिया गया। मैं बहुत निराश हो गयी, धीरे-धीरे लेख लिखने को लेकर मेरा उत्साह गायब हो गया। फिर कुछ ही दिनों में मैंने सुना कि कलीसिया को वीडियो बनाने के लिए कुछ और लोगों की ज़रूरत है, मैंने सोचा, "वीडियो बनाना एक ऐसा काम है जिसमें कुछ हुनर चाहिए। अब मेरे सामने एक मौक़ा है— अगर मैं कंप्यूटर पर बेहतर काम कर सकूं, तो मुझे प्रतिभाशाली और हुनरमंद माना जाएगा।" एक बार फिर, मैं जल्दी उठने लगी, देर से सोने लगी, ताकि कुछ वीडियो बनाने की कलाएं सीख सकूं। लेकिन उम्र में बड़ी होने के कारण मैं युवा लोगों की तरह तेज़ी से काम नहीं कर पाती थी। मैं ठीक से काम नहीं कर पायी। इस उम्मीद पर भी पानी फिर गया। मैं बहुत निराश हो गयी, मानो कोई अच्छा ऊंचे दर्जे का काम मेरे नसीब में है ही नहीं, मैं ऐसी मज़दूरी में फंस कर रह गयी हूँ। मुझे लगा, मेरी अनदेखी हो रही है। कुछ दिन तक मैं ठीक से खाना नहीं खा पायी, सो नहीं पायी, खाना बनाते समय भूल जाती कि मैं क्या कर रही हूँ। किसी भी चीज़ पर मेरा ध्यान नहीं टिकता। कभी-कभी सब्ज़ियाँ काटते समय मैं उंगली काट लेती, या हाथ जला बैठती। हाथ से छूटकर बर्तन-थालियाँ फर्श पर गिर जातीं, भयानक शोर होता, जिससे मैं चौंक जाती। जब भी बहनें शोर सुनतीं, अपना काम छोड़कर सफाई में मेरी मदद के लिए दौड़ी आतीं। मुझे यह देख बहुत बुरा लगता कि मैं काम से उनका ध्यान बंटा रही हूँ। इस मुसीबत में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, अब मुझे मेज़बानी के काम में लगाया गया है। मुझे यह बहुत नीचा लगता है। मेरे साथ गलत हुआ है, मैं इसमें मन नहीं लगा सकती। नहीं जानती यह काम कैसे संभालूं। मुझे रास्ता दिखाओ।"

उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, 'हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे दिए गए इस काम को, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, कर्तव्य कैसे कहा जा सकता है? इस कर्तव्य को मैं स्वीकार नहीं कर सकता; यह मेरा कर्तव्य नहीं है। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच ख़ास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या ख़ास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।' क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीज़ को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है। जैसे ही तुम सोच-विचारकर चुनने का प्रयास करते हो, तुम सच्ची स्वीकृति के लिए सक्षम नहीं रह जाते। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है; जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। इस अंश ने मेरे दिल को चीर दिया। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सही हालत को प्रकट कर दिया। मैंने सोचा था कि मैं एक रुतबे और मान-सम्मान वाली विशेषज्ञ हूँ, इसलिए जहां भी जाऊं, मुझे आगे रखकर मेरा सम्मान किया जाना चाहिए। मैं इसका फायदा उठाकर भीड़ में अलग दिखना चाहती थी। जब मुझे मेज़बानी के काम पर लगाया गया, तो मुझे लगा मेरा दर्ज़ा गिरा दिया गया है, मेरे साथ अन्याय हुआ है। लेकिन परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन ने मुझे समझाया कि वास्तव में मेज़बानी के काम को मैं नीची नज़र से इसलिए देखती थी, क्योंकि परमेश्वर के घर में अपने काम को मैं एक अविश्वासी के नज़रिये से देख रही थी। काम को ऊंचा या नीचा मान कर उसका दर्ज़ा तय कर रही थी। अगर मुझे नाम कमाने का मौक़ा मिलता, तो वह काम मैं खुशी से करती, मगर परदे के पीछे वाले कामों को मैं नीची नज़र से देखती। यह नज़रिया मुझे अपना काम करने से रोके हुए था, यहाँ तक कि मैं उसे छोड़ देना चाहती थी। अपने काम में मैं परमेश्वर की इच्छा का ज़रा भी ख्याल नहीं कर रही थी, बल्कि साफ़ तौर पर बस यही चाहती थी कि खुद अच्छी लगूं, शोहरत और रुतबे के पीछे भागती रहूँ। परमेश्वर एक सृजित प्राणी का काम करने का मौक़ा देकर मुझे ऊपर उठा रहा था, यह मेरे लिए उसका आदेश था, लेकिन मैं निजी पसंद के आधार पर काम चुन रही थी। ऐसा पूरी तरह से अनुचित था। इसका एहसास होने पर, मुझे लगा कि मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ, मैंने मन-ही-मन संकल्प लिया कि मैं अपना काम दिल लगाकर ठीक ढंग से करूंगी।

इसके बाद, मैं सोच-समझकर परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने लगी, अपनी हालत को ध्यान में रखकर प्रार्थना की, तब जाकर मैं बिना किसी संकोच के मेज़बानी कर सकी। लेकिन इसके बाद हुई घटना ने मुझे फिर से हिलाकर रखा दिया। मेरी मेज़बानी में रही एक बहन कलीसिया की अगुआ चुनी गयी, मैंने सच में उससे ईर्ष्या महसूस की। मैंने सोचा, "मैं देख सकती हूँ कि लेखन के काम में लगे हुए लोग कितने अनमोल हैं। वे नाम कमा सकते हैं, अगर अच्छा काम करें तो अगुआ भी बन सकते हैं। लेकिन मेज़बानी के काम में लगे किसी व्यक्ति का भविष्य क्या होगा? मैं हमेशा एप्रन पहने रहती हूँ, जिस पर तेल के छींटे गिरते रहते हैं, धुएं की बदबू आती है, जब मैं खाने का सामान खरीदने जाती हूँ, तो हर बार यह डर सताता रहता है कि कोई जान-पहचान वाला मिलकर यह न पूछ ले कि मैं चिकित्सा के अपने ज्ञान का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रही हूँ। मैं दीवारों के साथ चलते हुए अपना सिर झुकाकर दुबक जाना चाहती। घर लौटते तक आराम से साँस नहीं ले पाती। पहले मैं जहाँ भी जाती केंद्र में रहती, अक्सर मंच पर होती। लोगों को भाषण देती रहती। सभी लोग मुझसे हाथ मिलाना चाहते। लेकिन अब मैं नहीं चाहती कि कोई भी मुझे देखे। अब चोरी-छिपे सिर्फ सब्ज़ियाँ खरीदने जाती हूँ।" मैं बहुत ज़्यादा परेशान हो गयी, दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा को अपने दिमाग से निकाल नहीं पायी। "विशेषज्ञ," "निदेशक," और "प्रोफ़ेसर" के नाम से पुकारा जाना याद आ रहा था। मैं अगुआओं की सराहना, सहयोगियों की प्रशंसा और मरीज़ों की कतार के बारे में याद किये बिना नहीं रह सकी। लगा जैसे जीने का वह एक खास तरीका था। मैंने उस अमरपक्षी जैसा महसूस किया जिसे मुर्गी में तब्दील कर दिया गया हो, सोचने लगी कि मुझे उस काम से भला कब छुटकारा मिलेगा। मैं थोड़ी ईर्ष्या महसूस किये बिना नहीं रह सकी, बहनों को आनंद से खाना खाते हुए देखकर भी मैं गले के नीचे कुछ भी नहीं उतार पाती। मेरा वज़न बहुत गिर गया। फिर अचानक एक दिन अस्पताल के निदेशक ने मुझे फोन किया, कहा कि महामारी अब काबू में है, और पूछा कि क्या मैं अपने काम पर लौटना चाहती हूँ। मैं फिर से परेशान हो गयी, सोचने लगी दोबारा काम करूंगी तो अच्छा रहेगा, फिर से प्रतिष्ठा का जीवन जी सकूंगी, एक "विशेषज्ञ" का तमगा लगा सकूंगी। लेकिन मुझे मालूम था कि मेज़बानी का काम महत्वपूर्ण है, और मुझे बहनों की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा। अगर मैं अपने काम पर लौट गयी, तो उनकी मेज़बानी नहीं कर पाऊँगी। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मैं कभी मेज़बानी के इस काम में मन नहीं लगा सकी। मैं अपने अतीत को नहीं छोड़ पा रही हूँ। खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करो, मन लगाने में मेरी मदद करो।"

अपनी खोज के दौरान, परमेश्वर के वचनों में मुझे यह अंश मिला : "इस बात पर विचार करो कि तुम लोगों को किसी व्यक्ति के सामाजिक मूल्य, सामाजिक रुतबे या पारिवारिक मूल को किस तरह देखना चाहिए। कौन-सा रवैया रखना सबसे उपयुक्त है? सबसे पहले तो लोगों को परमेश्वर के वचनों को देखकर यह जानना चाहिए कि वह उन्हें कैसे देखता है। केवल इसी तरह से व्यक्ति सत्य की समझ प्राप्त कर सकता है, और केवल तभी व्यक्ति वे चीजें करने से बच सकता है, जो सत्य के विपरीत हैं। तो फिर, परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिवार के मूल, सामाजिक रुतबे और शिक्षा के स्तर या उसके द्वारा प्राप्त किए गए धन को कैसे देखता है? अगर तुम सभी चीजों के आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करते, और उससे कुछ भी ग्रहण करने के लिए उसके पक्ष में खड़े नहीं हो सकते, तो निश्चित रूप से इन मामलों पर तुम्हारे विचारों और परमेश्वर के इरादों के बीच अंतर होगा। अगर यह दूरी बड़ी नहीं है और भटकाव मामूली है, तो कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन अगर वे परमेश्वर के इरादों के पूर्णत: विरुद्ध हैं, तो वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वह किसी व्यक्ति को कितना कुछ देता है, इस पर अंतिम निर्णय उसी का होता है, और समाज में तुम्हारा स्थान उसी के द्वारा निर्धारित किया जाता है, लोगों द्वारा नहीं। अगर उसने किसी व्यक्ति को गरीब बनाया है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि उस व्यक्ति के पास उद्धार की कोई आशा नहीं है? अगर उसका सामाजिक मूल्य या उसका सामाजिक रुतबा निम्न है, तो क्या परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा? अगर उसकी सामाजिक रुतबा कम है, तो क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर उसे कम सम्मान देता हो? यह जरूरी नहीं है। तो वास्तव में क्या चीज मायने रखती है? मायने रखता है वह मार्ग जिस पर वह व्यक्ति चलता है, उसकी खोजें और सत्य और परमेश्वर के प्रति उसका दृष्टिकोण। अगर व्यक्ति बहुत निम्न सामाजिक दर्जे का है और गरीब और अशिक्षित है, लेकिन परमेश्वर पर अपनी आस्था में बहुत व्यावहारिक और जमीन से जुड़ा हुआ है, सत्य से प्रेम करता है, और सकारात्मक चीजें पसंद करता है, तो परमेश्वर की निगाह में ऐसे व्यक्ति का मूल्य निम्न है या उच्च? वह कुलीन है या नीच? वह अनमोल है। इस प्रकार, इस दृष्टिकोण से देखने पर, व्यक्ति का मूल्य या उसकी श्रेष्ठता क्या चीज निर्धारित करती है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। अगर वह तुम्हें योग्य और कीमती समझता है, तो तुम श्रेष्ठ उपयोग के लिए सोने या चाँदी से बने बर्तन होगे। लेकिन अगर परमेश्वर तुम्हें अयोग्य और नीच मानता है, तो चाहे तुम्हारी शिक्षा का स्तर, सामाजिक रुतबा या जातीय प्रतिष्ठा कितनी भी ऊँची क्यों न हो, तुम्हारी हैसियत फिर भी ऊँची नहीं होगी। भले ही बहुत-से लोग तुम्हारा समर्थन, प्रशंसा और सराहना करें, फिर भी तुम एक नीच व्यक्ति होगे। तो फिर ऐसा क्यों है कि उच्च सामाजिक रुतबे वाला 'श्रेष्ठ' व्यक्ति—जिसकी बहुत लोग प्रशंसा और सम्मान करते हैं, और जो बहुत प्रतिष्ठित है—ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा नीच क्यों माना जाता है? क्या परमेश्वर सीधे-सीधे मानवता से उलट चलता है? बिलकुल नहीं। परमेश्वर के मूल्यांकन के अपने मापदंड हैं, और मूल्यांकन के उसके मापदंड सत्य हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक)')परमेश्वर के वचन मुझे प्रबुद्ध करने वाले थे। चीज़ों को परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य के नज़रिये से न देखना, और अपने काम को ऊंचे या निचले दर्ज़े और रुतबे के शैतानी नज़रिये से आंकना ही मेरी तकलीफों की जड़ थी। मैंने अपनी कामयाबी को मापने के लिए हमेशा सामाजिक रुतबे, शोहरत, शिक्षा और पेशेवर उपलब्धियों के पैमाने का इस्तेमाल किया। इस प्रकार के नज़रियों के काबू में रहकर, मैं खुद को सच में बहुत ऊंची और सम्मानित समझती थी, सोचती थी कि मैं एक विशेषज्ञ हूँ जिसके पास रुतबा और एक अच्छा पद है, मैं बहुत ख़ास हूँ, ऊंचे पायदान पर हूँ। आस्था हासिल करने के बाद भी मेरा नज़रिया यही था, अगुआ, कार्यकर्ता, और ज़्यादा हुनर वाले कामों को मैं ऊंचा आंकती थी, जबकि मेज़बानी और सामान्य मामले संभालने के बिना हुनर वाले कामों को नीची नज़र से देखती थी। मुझे लगा ये काम निचले दर्ज़े के हैं और मुझ जैसी इंसान के लिए ठीक नहीं। मैं पहले जैसी ही प्रतिष्ठा का आनंद लेना चाहती थी। ऐसा ऊँचे या नीचे दर्ज़े को लेकर मेरे इस नज़रिये के कारण था कि मेरा फ़ायदा उठाया जा रहा है, खाना या सोना दूभर हो गया था और तनाव के कारण मेरा वज़न घट रहा था। यह बहुत दर्दनाक था। लेकिन परमेश्वर के वचनों से उजागर होकर और न्याय पाकर मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझा। उसे इसकी परवाह नहीं कि किसी का रुतबा कितना ऊंचा या नीचा है, या उसके क्या गुण हैं या उसके पास कौन-सी डिग्रियां हैं। वो बस यही देखता है कि क्या वह इंसान सत्य का अनुसरण करता है; उसे बस यही परवाह है कि वह किस रास्ते पर है। भले ही किसी के पास कोई भी पद, डिग्रियां या शोहरत हो, सत्य के बिना परमेश्वर की नज़र में वह निचले दर्जे का होता है। जो कोई भी सत्य का अनुसरण कर उसे हासिल करता है, वह मूल्यवान होता है, रुतबा हो या न हो, परमेश्वर उसे धन्य कर देता है। मैंने जान लिया कि चाहे कितने भी लोग मेरा आदर करते रहे हों, मेरा दर्ज़ा चाहे जितना भी ऊंचा रहा हो, अगर मैं परमेश्वर को समर्पित न हो सकी, और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य न निभा सकी, तो मैं निहायत बेकार हूँ।

बाद में मैंने इस पर और अधिक विचार किया। मेरा नज़रिया सही नहीं है, यह जानने के बाद भी मैं और ज़्यादा मान-सम्मान वाले काम के पीछे भागने से खुद को क्यों नहीं रोक सकी? इस बारे में सोच-विचार करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्‍य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से जो प्रकट होता है, उससे मैं समझ सकी कि शैतान मुझे आहत कर रहा है, शोहरत और लाभ के आगे मजबूर कर रहा है, मुझे पूरी तरह से बंदी बनाये हुए है। बचपन से ही, मेरे मन में माता-पिता की बिठायी, स्कूल में पढ़ायी, और समाज में हो रही बातों का प्रभाव पड़ा था। शैतान के फलसफे और भ्रांतियाँ मेरे रग-रग में गहरे समा गयी थीं। ऐसी बातें जैसे कि "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," "एक इंसान की पहचान उसके जीवन की उपलब्धियों से होती है," "दिमाग वाले लोग शारीरिक श्रम करने वालों पर शासन करते हैं," ऐसे ज़हर बहुत पहले ही मेरे दिल में घर कर चुके थे। मैं "विशेषज्ञ," "प्रख्यात डॉक्टर," और "निदेशक" होने के सम्मान को हमेशा क्यों याद करती रहती थी, क्यों यह सोचकर कि मैं सबसे अलग और सबसे ऊपर हूँ, इसका फायदा उठाना चाहती थी? क्योंकि मैंने जीवन में अनुसरण के लिए शोहरत और रुतबे को सही माना था, लगा कि इनके होने पर मुझे दूसरों की सराहना और समर्थन मिल सकेगा। इसलिए चाहे स्कूल में हो, बाहर समाज में हो, या परमेश्वर के घर में, मैंने दर्ज़े और रुतबे को सबसे आगे रखा, विशेषज्ञता हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की, इस उम्मीद से कि चाहे किसी भी समूह में रहूँ, मैं सबसे ऊपर पहुँच जाऊंगी। मुझे लगा कि ऐसे जीवन से ही मैं अपना सच्चा मूल्य हासिल कर पाऊँगी। जब मुझे यह नहीं मिल पाया, तो भविष्य अंधकारमय लगने लगा और मुझे भयंकर कष्ट हुआ। शोहरत और रुतबे की बेड़ियों ने मुझे पूरी तरह से काबू में कर लिया था, मेरे न चाहने पर भी मुझे परमेश्वर से दूर करके उसे धोखा देने का काम करवाया था। मैंने एक और बात सीखी कि मेज़बानी का काम भले ही बड़ा न लगे, लेकिन उन हालात ने ही अनुसरण को लेकर अपने गलत नज़रियों से मेरी पहचान करायी थी, अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं सत्य का अनुसरण शुरू कर पायी थी, शोहरत और लाभ के बंधनों से मुक्त हो पायी थी। एक बार जब मैंने परमेश्वर के नेक इरादों को समझ लिया, तो मैंने उसका दिल से धन्यवाद किया, मुझे बहुत पछतावा हुआ, मैंने खुद को दोषी माना। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मेरे भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाले हालात बनाने, मुझे मेरे गलत अनुसरण से बचाकर बाहर निकालने के लिए धन्यवाद। मैं प्रायश्चित करके शोहरत और रुतबे के पीछे भागना बंद करना चाहती हूँ। मैं तुम्हें संतुष्ट करने के लिए मेज़बानी का काम पूरे लगन से करना चाहती हूँ।" मैंने अस्पताल के ऑफ़र को ठुकरा दिया।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े। "परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो महान हो, मशहूर हो, अभिजात हो, या संसार को हिला देने वाला हो? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए? उसे ऐसा व्यक्ति चाहिए, जिसके पैर दृढ़ता से ज़मीन पर रखे हों, जो परमेश्वर का एक योग्य प्राणी बनना चाहता हो, जो एक प्राणी का कर्तव्य निभा सकता हो, और जो इंसान बना रह सकता हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्‍य की खोज करके और परमेश्‍वर पर निर्भर रहकर ही भ्रष्‍ट स्‍वभावों से मुक्त हुआ जा सकता है')। "अंतत:, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं होता कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर होता है कि उन्होंने सत्य को समझा और हासिल किया है या नहीं, और वे परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं और एक सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक है, और यही वह सिद्धांत है, जिससे वह पूरी मानवजाति को मापता है। यह सिद्धांत अपरिवर्तनीय है, और तुम्हें यह याद रखना चाहिए। कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ने या किसी अवास्तविक चीज़ का अनुसरण करने की मत सोचो। उद्धार पाने वाले सभी लोगों से अपेक्षित परमेश्वर के मानक अपरिवर्तनीय हैं; वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के प्रति जो प्रवृत्ति होनी चाहिए मनुष्य की')। मैंने समझ लिया कि परमेश्वर घमंडी लोगों को नहीं चाहता, बल्कि उसे सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकने वाले अच्छे ज़मीनी लोग चाहिए। बाहर दुनिया में मेरा रुतबा था, लेकिन सत्य की मेरी समझ खोखली थी। अगुआई और लेखन, दोनों कामों का सत्य से नाता है, इसलिए यह सिर्फ़ रुतबे और ज्ञान वाले किसी इंसान के बस की बात नहीं है। मुझे उचित ढंग से सोचकर वही काम करना होगा जिसके कि मैं काबिल हूँ। मेरे पास एक घर है जो मेज़बानी के लिए बहुत अच्छा है, इसलिए मुझे बस एक मेज़बान की तरह सेवा करके सत्य का अनुसरण करना चाहिए। बस यही एक उचित बात है। अलग-अलग कामों में एकमात्र असली फ़र्क सिर्फ नाम और कार्य का होता है। किसी इंसान की पहचान और एक सृजित प्राणी के रूप में उसका सार नहीं बदलते। मैं खुद को बहुत ऊंचा समझती थी, लगता था मैं बड़ी नामवर हूँ। मैं हमेशा खुद को एक विशेषज्ञ मानती थी, एक प्रसिद्ध डॉक्टर, मानो मैं बाकी सब लोगों से ऊपर थी। मैं सोचती थी कि मेज़बानी करना निचले दर्जे का काम है, मैं चमकने वाला काम चाहती थी। हमेशा दूर के ढोल सुहावने होते हैं—मैं ध्यान लगाकर अपना काम नहीं कर पाती थी। घमंड में चूर, नासमझ, मैं मन-ही-मन परमेश्वर के ख़िलाफ़ हो गई। मैंने अय्यूब के बारे में भी सोचा। पूरब के लोगों के बीच उसका कितना ज़बरदस्त रुतबा था, लेकिन उसने कभी रुतबे पर ध्यान नहीं दिया, न ही उससे मिलने वाले गौरव की परवाह की। रुतबा हो या न हो, उसने परमेश्वर का उत्कर्ष किया। अय्यूब समझदार था। इसीलिए परमेश्वर ने उसके मानकों पर खरे उतरने वाले अय्यूब की, एक सृजित प्राणी के रूप में प्रशंसा की। मैं तो अय्यूब की ज़रा भी बराबरी नहीं कर सकती, लेकिन मैं उसकी मिसाल पर चलना चाहती थी, उन बातों को छोड़कर परमेश्वर के मानकों पर खरी उतरने की कोशिश करना चाहती थी। उनके पीछे भागना छोड़ने के बाद, मेरी सोच भी बदल गयी। मैं समझ गयी कि हर काम महत्वपूर्ण और ज़रूरी है। मेज़बान बनने वाले लोगों के बिना, भाई-बहनों के पास सुरक्षित रूप से अपना कर्तव्य निभाने के लिए अच्छी जगह नहीं होगी। उसके बाद से, मैंने खुद की इच्छाओं का त्याग करने का दिल से प्रयास किया, अच्छा खाना बनाने और बहनों की सुरक्षा का ध्यान रखने की सच्ची कोशिश की, ताकि वे सुकून के साथ अपना कर्तव्य निभा सकें। समय बीतने के साथ, मुझे अब ऐसा नहीं लगा कि हम लोगों के बीच रुतबे में कोई फ़र्क है, खाना बनाते समय मैं भजन गुनगुनाती, और परमेश्वर के क़रीब आती। सारा काम निपटा लेने के बाद मैं परमेश्वर के वचन पढ़ती, मन को शांत करके उन कार्यों पर विचार करती जो परमेश्वर ने मेरे भीतर किये हैं, जो कुछ मैंने हासिल किया है, फिर कुछ गवाही वाले लेखों पर काम करती। हर दिन सच में संतोष देने वाला लगता। शायद यही जीवन जीने का शांतिपूर्ण मार्ग है, यह मन को आज़ाद कर देता है।

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