परमेश्वर के हृदय को समझने से भ्रांतियाँ दूर हो सकती हैं

20 सितम्बर, 2019

चेन गांग, हेबेई प्रांत

परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परमेश्वर की सर्वोच्चता, महानता, पवित्रता, सहनशीलता, प्रेम, इत्यादि—परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के इन सब विभिन्न पहलुओं के हर विवरण को हर उस समय व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिलती है, जब वह अपना कार्य करता है, मनुष्य के प्रति उसकी इच्छा में मूर्त रूप दिया जाता है और प्रत्येक व्यक्ति में पूर्ण एवं प्रतिबिंबित होते हैं। चाहे तुमने इसे पहले महसूस किया हो या नहीं, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की हर संभव तरीके से देखभाल कर रहा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को स्नेह देने और प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा को जगाने के लिए अपने निष्कपट हृदय, बुद्धि एवं विभिन्न तरीकों का उपयोग कर रहा है। यह एक निर्विवादित तथ्य है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मैंने जाना कि उसका हर कार्य प्रेम, करुणा और हमारे लिए उसकी परवाह से ओत-प्रोत है। परमेश्वर के सभी कार्य हमारे लिये बहुत ही लाभदायक हैं, वे कार्य ऐसे हैं जिनकी हमें सर्वाधिक आवश्यकता है; अगर हम इन्हें गंभीरतापूर्वक खोजेंगे, उनका अनुभव करेंगे, तो हम परमेश्वर के प्रेम को महसूस करेंगे। लेकिन, परमेश्वर के स्वभाव और सार से अनजान होने के कारण, मैं परमेश्वर के प्रति अक्सर गलतफहमी, संदेह, और रक्षात्मक स्थिति में जीता रहा, जिसकी वजह से मैं उसे अपना हृदय समर्पित न कर सका। जब भी कोई काम होता, मैं उससे बचने की या उसे नकारने की कोशिश करता। उसका नतीजा यह हुआ कि मैंने सत्य को पाने के बहुत से अवसर गँवा दिए। कुछ समय पहले, जब मेरा सामना वास्तविक परिस्थितियों से, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से हुआ, तो उनके कारण मुझे अपनी शैतानी प्रकृति का थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ, साथ ही मुझे परमेश्वर की सुंदरता और अच्छे सार की कुछ वास्तविक समझ भी प्राप्त हुई; तब जाकर मैं परमेश्वर के विषय में अपनी कुछ गलतफहमियों से छुटकारा पा सका।

परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, जब भी मैं सुनता या देखता कि किसी अगुवा को उसके काम से बर्ख़ास्त करके किसी और को रख लिया गया है या बहुत अधिक बुरे काम करने की वजह से उसे निकाल दिया गया है, तो मेरे मन में ऐसे भाव आते जिन्हें मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मैं सोचने पर विवश हो जाता कि, "एक अगुवा की भूमिका में रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है; अगर एक अगुवा किसी काम को ठीक तरीके से न करे तो उसे बर्ख़ास्त किया जा सकता है या उसकी जगह किसी और को रखा जा सकता है। बल्कि उस पर तो निष्कासित किये जाने और हटाए जाने का ख़तरा भी बना रहता है। ऐसा लगता है, ओहदा जितना ऊँचा होता है, जोखिम उतना ही अधिक होता है। इस कहावत में कुछ तो सच्चाई है, 'शिखर पर इंसान अकेला होता है।' और 'इंसान जितनी ऊँचाई से गिरता है, उसे उतनी ही गहरी चोट लगती है।' मेरा ख़्याल है छोटे ओहदे पर काम करना थोड़ा ज़्यादा सुरक्षित होता है; अगर मेरे ओहदे को बड़ा या छोटा न किया जाए, तो मैं ख़ुश हूँ। उस स्थिति में मैं ज़्यादा बुराइयाँ करने, उजागर होने और हटाए जाने से बच सकता हूँ। ऐसे में अंत तक आस्था भी बनी रहती है और कोई गड़बड़ी भी नहीं होती।" उसके बाद, कलीसिया जब भी मुझे तरक्की देना चाहती या मेरे चुनाव में भाग लेने का प्रबंध करती, मैं दुनिया भर के बहाने बनाता और अस्वीकार कर देता। धीरे-धीरे, मेरे और परमेश्वर के बीच एक गहरी खाई बन गई। उस साल अप्रैल महीने में, मेरे अगुवा ने मुझसे पूछा, "भाई, जल्दी ही हमारे ज़िले के वार्षिक चुनाव होने वाले हैं। इस बारे में आपका क्या विचार है?" जल्द ह चुनाव होने की बात सुनकर, मैं घबरा गया और मुझे समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दूँ। मुझे उन भाइयों का ख़्याल आया जिन्हें वास्तविक काम न कर पाने के कारण बर्खास्त करके उनकी जगह दूसरों को रख लिया गया था। वे लोग आज तक अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर पाए। मुझे यही डर था, अगर मुझे चुन लिया गया, और समय आने पर मैं कोई वास्तविक कार्य पूरा नहीं कर पाया, तो शायद मेरी भी यही नियति होगी। फिलहाल मेरा काम ठीक-ठाक चल रहा था; न सिर्फ मेरे पास काम था, बल्कि मुझे इस बात की चिंता भी नहीं थी कि मेरे हाथ से ओहदा निकल जाएगा और किसी और को रख लिया जाएगा। यह सब सोचते हुए, मैंने अपने अगुवा को तपाक से उत्तर दिया, "मेरे अंदर हर तरह की बहुत सारी कमियाँ हैं। हमारे भाई-बहनों के साथ सभाओं में मैं तनाव में आ जाता हूँ। अच्छा होगा कि मैं उसी काम को करता रहूँ जो मैं फ़िलहाल कर रहा हूँ ताकि मुझे और अभ्यास हो जाए। इसलिये, मैं इस चुनाव में हिस्सा नहीं लेना चाहूँगा।" चुनावों के प्रति मेरे उदासीन रुख़ को देखकर, मेरे अगुवा ने और कई बार मुझसे बातचीत की ताकि मैं आगामी चुनावों में भाग लूँ, लेकिन मैंने हर बार बड़ी विनम्रता से इंकार कर दिया।

कुछ दिनों के बाद एक शाम, मैंने अपने अगुवाओं से मिलना चाहा, क्योंकि मुझे उनसे कुछ बात करनी थी। वे लोग उच्च-स्तर के अगुवाओं का एक पत्र पढ़ रहे थे, जो चुनाव से संबंधित था। मैं इतना बेचैन हो गया, लगा मेरा कलेजा मुँह को आ रहा है। मैंने सोचा, "मुझे भागकर कहीं छिप जाना चाहिये, वरना ये लोग फिर से मुझे चुनाव लड़ने के लिये कहेंगे।" मैं बाथरूम में छिपकर वक्त काटने लगा। मैं बदन पर खुजली कर रहा था कि तभी मैंने एक फोड़े को खुजला दिया, और मेरा पूरा हाथ ख़ून में सन गया। मैंने फ़ौरन उसे तौलिये से पोंछा और ज़ख़्म को दबाकर रखा, लेकिन थोड़ी देर में पूरा तौलिया ख़ून में भर गया। यह देखकर मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अगर ख़ून बहना बंद नहीं हुआ तो क्या होगा? मैं ज़ख़्म दबाए तेज़ी से कमरे की ओर भागा ताकि अगुवाओं को दिखाकर पूछ सकूँ कि ख़ून बंद करने के लिए क्या करूँ। एक भाई बोला, "अरे, यह तो बहुत ख़ून बह रहा है; यह ऐसे नहीं रुकेगा। तुम इसे जितना ज़्यादा पोंछोगे, यह उतना ही ज़्यादा बहेगा!" यह सुनकर, मैं और परेशान हो गया: क्या यह वाकई इतना गंभीर है? एक छोटे से ज़ख़्म से इतना ख़ून कैसे बह सकता है? अगर ख़ून बहना बंद नहीं हुआ, तो क्या अगले दिन तक मेरे शरीर से सारा ख़ून निकल जाएगा? मेरे अंदर भय, बेचैनी, और बेबसी की एक लहर दौड़ गई। मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ। ऐसा लगा जैसे हवा ही जम जाएगी। तभी मुझे ऐसा लगा जैसे दिन भर जो हुआ है, वह अचानक और बेमतलब नहीं हुआ। मुझे फ़ौरन अपनी हरकतों पर गौर करना चाहिये ताकि मैं अपने आपको बेहतर ढंग से जान सकूँ! मैं शांत होकर विचार करने लगा कि मैंने हाल ही के दिनों में, कहीं परमेश्वर को नाराज़ तो नहीं कर दिया। लेकिन पूरी कोशिश करके भी, मैं इस बात का पता नहीं लगा पाया। तब मुझे परमेश्वर के कथनों का एक अंश याद आया: "जब लोग परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो हो सकता है, ऐसा किसी एक घटना या किसी एक बात की वजह से न होकर उनके रवैये और उस स्थिति के कारण हो, जिसमें वे हैं। यह एक बहुत ही भयावह बात है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII)। परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन मुझे सत्य की खोज के लिये उसके सामने लाया: "हे परमेश्वर! मैं कितना अंधा और मूर्ख हूँ। मैं सोच भी नहीं सकता कि मैंने आपको नाराज़ करने के लिये क्या किया है। कृपया, मुझे राह दिखाइये; मुझ पर अपनी इच्छा प्रकट कीजिये, ताकि मैं अपने ज़िद्दीपन और विरोध को पहचान सकूँ। मैं आपके सामने प्रायश्चित करना चाहता हूँ।" प्रार्थना समाप्त करने के बाद, मुझे थोड़ी शांति मिली, और मैं अपने पिछले कृत्यों और सोच पर चिंतन करने लगा और विचार करने लगा कि मैं परमेश्वर की इच्छा से कहाँ भटक गया। तभी मुझे ख़्याल आया कि मैं किस ढंग से व्यवहार कर रहा था, चुनाव को लेकर मेरा रवैया कैसा था: मेरे अगुवा लगातार कोशिश कर रहे थे और राय दे रहे थे कि मैं चुनावों में हिस्सा लूँ, लेकिन मैं हमेशा अपनी ही बात पर अड़ा रहा; मुझे डर था कि अपने ख़राब काम की वजह से मैं सबके सामने कहीं उजागर न हो जाऊँ। मैं चुनाव में भाग न लेने के लिये लगातार कोई न कोई बहाने बनाता रहा। मेरा रवैया समर्पित होकर स्वीकार करने का नहीं था। मुझे अच्छी तरह से पता था कि कार्य व्यवस्थाओं को सुचारु रूप से लागू करने के लिये कलीसिया की ओर से आयोजित प्रजातांत्रिक चुनाव आवश्यक हैं; यह परमेश्वर के परिवार के कार्य का एक अहम हिस्सा है, इसमें परमेश्वर की इच्छा का समावेश है। लेकिन, मैंने बिल्कुल भी सत्य की खोज नहीं की; अपने हितों की रक्षा के लिये, मैं लगातार चुनावों को टालता रहा और लड़ने से इंकार करता रहा। परमेश्वर को अपना शत्रु बनाने वाले मेरे इस व्यवहार ने मुझे परमेश्वर की नज़र में घृणा और नफ़रत का पात्र बना दिया था, यहाँ तक कि मेरी इस हरकत ने उसे आहत और मायूस महसूस कराया था। मेरा अचानक इस तरह की समस्या से रूबरू होना, परमेश्वर का मुझे अनुशासित करने का एक तरीका था। इस बात का एहसास होने पर, मुझे समझ आया कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव इंसानों के द्वारा अपमानित किये जाने को बर्दाश्त नहीं करेगा। इसलिये, मैं अपनी इस त्रुटिपूर्ण दशा को सुधारकर, परमेश्वर के आगे प्रायश्चित करना चाहता था। अत: मैंने जो आत्म-मंथन किया था, उसका सारा विवरण, शुरू से लेकर आख़िर तक, अपने अगुवाओं को दे दिया। मेरी बात सुनने के बाद, भाई ने मुझसे सहभागिता की और यह बताया कि जब उसने चुनाव में भाग लिया था तो उसका क्या रवैया था, उसने क्या प्रकाशन पाया था। परमेश्वर का धन्यवाद! इस घटना से मैंने एक सबक सीखा। एक घण्टे के बाद, मेरे ज़ख़्म से ख़ून बहना बंद हो गया। इससे मुझे एहसास हुआ कि जब मैं भ्रष्टता और ज़िद्दीपन की स्थिति में था, तो उस वक्त परमेश्वर ने मुझे अपना धार्मिक, नाराज़ न किये जा सकने योग्य स्वभाव दिखाया था; जब मैं सत्य की खोज की कामना से उसकी शरण में आया, तब उसने मेरे सामने अपना मुस्कराता हुआ चेहरा प्रकट किया, और मैंने यह अनुभव किया कि परमेश्वर का स्वभाव सुस्पष्ट और सजीव है।

बाद में, मैंने इस पर मंथन किया कि जब भी कलीसिया के चुनाव होते, तो मेरी कोशिश होती कि मैं किसी न किसी बहाने उनको टाल दूँ। मैं इस डर से चुनाव नहीं लड़ना चाहता था, कि कहीं अगुवा के पद पर मेरा चयन हो गया और मैंने परमेश्वर के विरुद्ध कुछ कर दिया, तो मुझे बर्ख़ास्त कर दिया जाएगा, हटा दिया जाएगा। मेरे दिमाग में हमेशा ऐसे विचार क्यों आते रहते थे? अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान, मैंने ध्यान से इस विषय पर परमेश्वर के वचनों की खोज की, ताकि मैं उन्हें खा-पी सकूँ। एक दिन मैंने परमेश्वर का यह कथन पढ़ा: "कुछ लोग कहते हैं, 'परमेश्वर की उपस्थिति में उस पर विश्वास करना—यह अपनी कथनी और करनी के प्रति बहुत ही सतर्क रहना है! यह चाकू की धार पर जीने की तरह है!' दूसरे लोग कहते हैं, 'परमेश्वर में विश्वास करना अविश्वासियों के इस कथन के समान है, "राजा के साथ होना एक शेर के पास होने के समान है।" यह बहुत भयानक है! अगर तुम कोई एक बात गलत कहते या करते हो, तो तुम्हें हटा दिया जाएगा; तुम्हें नरक में डाल कर नष्ट कर दिया जाएगा!' क्या ऐसे कथन सही हैं? 'राजा के साथ होना एक शेर के पास होने के समान है,' इस कथन का इस्तेमाल कहां किया जाता है? और 'कथनी और करनी के प्रति बहुत ही सतर्क रहने' का क्या मतलब है? 'चाकू की धार पर जिंदगी जीने' का क्या अर्थ है? तुम सबको यह जानना चाहिए कि इन कथनों का वास्तविक अर्थ क्या है; ये सभी बहुत बड़े खतरे का संकेत देते हैं। यह किसी इंसान का शेर या बाघ को वश में करने जैसा है: हर दिन कथनी और करनी के प्रति सतर्क रहने या चाकू की धार पर जिंदगी जीने जैसा है; वे कथन इसी तरह की स्थिति को दर्शाते हैं। बाघ या शेर की यह भयानक प्रकृति किसी भी पल उग्र हो सकती है। ये निर्दयी जानवर हैं जिनका इंसानों से कोई स्नेह नहीं है, चाहे कितने सालों तक वे इंसानों के बीच रहे हों। अगर वे तुमको खाना चाहते हैं, तो वे तुमको खा लेंगे; अगर वे तुमको नुकसान पहुंचाना चाहते हैं, तो वे तुमको ज़रूर नुकसान पहुंचाएंगे। इस तरह, परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, इसे समझाने के लिए क्या ऐसी कहावतों का इस्तेमाल करना सही है? क्या तुम सब कभी-कभी इस तरह से नहीं सोचते हो? 'परमेश्वर में विश्वास करना वाकई कथनी और करनी के प्रति सतर्क रहना है; कि परमेश्वर का क्रोध एक पल में भड़क सकता है। वो किसी भी समय क्रोधित हो सकता है, और वह किसी भी व्यक्ति को कभी भी उसके पद से हटा सकता है। परमेश्वर जिसे भी नापसंद करता है उसे उजाकर करके हटा दिया जाएगा।' क्या ऐसी ही बात है? (नहीं।) ऐसा लगता है कि तुम सब इसका अनुभव ले चुके हो और तुम इसे समझते हो, इसलिए तुम धोखा नहीं खाओगे। यह एक भ्रांति है; ऐसी बात कहना पूरी तरह से बेतुका है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "कुछ लोग कहते हैं, 'अगुवा मत बनो, और रुतबा मत रखो। जैसे ही लोगों को रुतबा हासिल होता है, वे खतरे में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर उन्हें उजागर कर देगा! एक बार जब उन्हें उजागर कर दिया जाता है, तो वे सामान्य विश्वासी होने के योग्य भी नहीं रहेंगे, और उनके पास बचाये जाने का अवसर भी नहीं होगा। परमेश्वर न्यायप्रिय नहीं है!' ये क्या बात हुई? सबसे अच्छी स्थिति में, यह परमेश्वर के प्रति गलत समझ को दर्शाता है; सबसे बुरी स्थिति में, यह परमेश्वर के विरुद्ध ईश-निंदा है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। पँक्ति-दर-पँक्ति, परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहराई तक द्रवित कर दिया, क्योंकि उनमें बिल्कुल मेरी स्थिति का ही वर्णन था। दरअसल मैंने दो टूक स्वर में यह नहीं कहा था कि परमेश्वर में विश्वास रखना "शेर के समीप होना है" या "तलवार की धार पर चलना है," लेकिन कलीसिया के चुनावों के प्रति अपने रवैये को देखूँ तो, मैं पूरी तरह से रक्षात्मक था, भ्राँतियों से भरा हुआ था। इससे ज़ाहिर होता है कि यह उसी प्रकार की स्थिति थी जिसमें मैं जी रहा था। मैंने कुछ भाई-बहनों की तकलीफ़ों को देखा था, अगुवाई के पद से बर्ख़ास्त कर दिए जाने पर उन्हें पीड़ा से गुज़रते देखा था, कुछ को तो कई गलत काम करने पर निकाल ही दिया गया था। यह सब देखकर, मैं हमेशा अगुवा के तौर पर काम करने से बचता रहा था, एक निश्चित दूरी बनाए रखना चाहता था, क्योंकि मेरे ख़्याल से, अगुवाई के साथ ओहदा आता था, और उसके साथ उजागर होने और हटा दिये जाने का ख़तरा भी आता था। मेरी स्थिति तो यह थी कि मैं अपना काम करते समय भी बहुत ही ज़्यादा सतर्क और डरा-सहमा रहता था, चुनावों के प्रति मेरी रुचि कभी नहीं रही। मैं हमेशा इस बात से भयभीत रहता था कि अगर अगुवा के तौर पर मेरा चयन हो गया, और मैंने कोई गलती कर दी, तो शायद मुझे बर्ख़ास्त कर दिया जाएगा, हटा दिया जाएगा। मैं परमेश्वर को उसी तरह देखता था, जैसे मैं चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारियों को देखता था जिनके पास सत्ता थी; मेरी हिम्मत नहीं होती थी कि मैं परमेश्वर के ज़्यादा नज़दीक जाऊँ या उसे उकसाऊँ। मैं मान चुका था कि अगर किसी ने उसे नाराज़ किया, तो यकीनन उस व्यक्ति को भयंकर आपदा झेलनी पड़ेगी। मैंने तो यहाँ तक सोच लिया था कि जिन भाई-बहनों को बर्ख़ास्त किया गया है और हटाया गया है, उन्होंने अगुवाई का पद लेकर ख़ुद ही अपने लिये मुसीबत बुलाई थी। मैंने दरअसल परमेश्वर के परिवार के प्रशासनिक ढाँचे में "अगुवा" के पद को, लोगों को उजागर करने और हटाने के एक तरीके के रूप में देखा था। अब जाकर, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे पता चला कि मैं जिन विचारों को पकड़कर बैठा था, वे इस बात को उजागर करते थे कि मेरे पास परमेश्वर के पवित्र सार का ज़रा-सा भी ज्ञान नहीं था। परमेश्वर के बारे में मेरी ये सारी अटकलबाज़ियाँ पूर्ण रूप से परमेश्वर की निंदा करने वाला निकृष्ट कार्य था। इस एहसास के बाद, मेरा डर लगातार बना रहा, मैंने परमेश्वर के आगे झुककर प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! हालाँकि मैं बरसों से आपका अनुसरण करता रहा हूँ, लेकिन आपको जानता नहीं हूँ। आपने भाई-बहनों के मुँह से मेरे चुनावों में हिस्सा लेने की बात कहलवाकर, मुझे प्रशिक्षण के, शुद्धिकरण और रूपांतरण के अवसर प्रदान किए थे—लेकिन मैंने समझने के बजाय, उन्हें अस्वीकार किया, उनसे बचने की कोशिश की, मैंने पूरी तरह से रक्षात्मक होकर, आपके प्रति भ्राँतियाँ पाल लीं। मैंने आपको बिल्कुल भी परमेश्वर के रूप में नहीं देखा। मेरा वह नज़रिया किसी नास्तिक का नज़रिया था—सचमुच शैतानी नज़रिया! हे परमेश्वर! अगर आपने मुझे इस ढंग से उजागर न किया होता, तो मैंने कभी भी अपनी समस्याओं पर विचार न किया होता, मैं प्रतिरोध और गलतफहमियों की स्थिति में ही जीता रहता। यदि मेरी वही स्थिति बनी रहती, तो मैं आपकी दृष्टि में घृणा का, नफ़रत का पात्र होता और आप मुझे ठुकरा देते। हे परमेश्वर! अब मैं प्रायश्चित करने को तैयार हूँ। कृपया, आप मुझे सत्य की समझ प्रदान करें और अपनी इच्छा से संबंधित मेरा मार्गदर्शन करें..."

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के और वचनों को पढ़ा: "जैसे ही लोगों को रुतबा हासिल होता है—चाहे वे जो कोई भी हों—तब वे क्या मसीह विरोधी बन जाते हैं? (अगर वे सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे मसीह विरोधी बन जाएंगे, लेकिन अगर वे सत्य की खोज करते हैं, तो वे मसीह विरोधी नहीं बनेंगे।) इस तरह, यह शुद्ध सत्य नहीं है। तो क्या, जो लोग मसीह विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं, वे अंत में रुतबे के जाल में फंस जाते हैं? ऐसा तब होता है जब लोग सही मार्ग पर नहीं चलते हैं। उनके पास अनुसरण करने के लिए एक अच्छा मार्ग है, फिर भी वे इसका अनुसरण नहीं करते हैं; इसके बजाय, वे बुराई के मार्ग का अनुसरण करते हैं। यह उसी तरह है जैसे कि लोग खाना खाते हैं: कुछ लोग ऐसा खाना नहीं खाते हैं जो उनके शरीरों को स्वस्थ रख सकता है और उनके सामान्य जीवन को बनाये रख सकता है, इसके बजाय वे नशीली चीज़ों का सेवन करते हैं। अंत में, उनको नशे की आदत लग जाती है और ये उन्हें मार डालती है। क्या लोग इस विकल्प को खुद ही नहीं चुनते हैं?" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। फिर मैंने एक और सहभागिता पढ़ी जिसमें कहा गया था, "इतने सारे लोग अपने पद और सामर्थ्य के साथ हर प्रकार की दुष्टता करते हुए उजागर क्यों हो रहे हैं? यह इस वजह से नहीं है कि उनका पद उन्हें आहत करता है। मूलभूत समस्या मनुष्य की प्रकृति का सार है। एक पद वास्तव में लोगों को उजागर कर सकता है, किन्तु यदि एक दयालु व्यक्ति के पास ऊँचा पद है, तो वह विभिन्न दुष्टता नहीं करेगा" (ऊपर से संगति)। परमेश्वर के वचनों और इस सहभागिता से मुझे कुछ बातों का एहसास हुआ। मुझे पता चला कि जिन सह-कर्मियों और अगुवाओं को बर्ख़ास्त किया गया और हटाया गया था, उसका कारण उनका अगुवा का ओहदा नहीं था, बल्कि उनका अपने काम के दौरान सत्य का अनुसरण करने में लगातार नाकाम होना या सही मार्ग पर न चलना था; इसलिये उन्हें उजागर करके निष्कासित कर दिया गया था। मैं अपने आस-पास के उन अगुवाओं और सहकर्मियों के बारे में सोचने लगा जिन्हें उजागर किया गया था। एक भाई ख़ास तौर से अभिमानी था। उसने सिद्धांतों के आधार पर अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया था। उसने खुले तौर पर उन लोगों को अगुवा का कार्य करने के लिये प्रोत्साहित किया जिनके पास प्रतिभा थी और जो गुण-सम्पन्न तो थे, लेकिन जिनमें सत्य की वास्तविकता नहीं थी। उसने भाई-बहनों के बार-बार याद दिलाने और उनके सहयोग को नज़रअंदाज़ किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उसके कारण कलीसियाई जीवन में विघ्न आया, भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में रुकावट आई। यह भाई अपने मत पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा करके चल रहा था, उसे अपने पर इस हद तक विश्वास था कि उसने अपने सहकर्मियों की सलाह को भी नज़रंदाज़ कर दिया। उसने कलीसिया के धन और मूल्यवान चीज़ों को एक ऐसे घर में रखने पर ज़ोर दिया जिसमें सुरक्षा-जोखिम था। नतीजा यह हुआ कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सब-कुछ ज़ब्त कर लिया। एक और बहन थी जो अपनी हैसियत को लेकर बहुत सजग रहती थी। एक सहकर्मी के तौर पर काम करते वक्त, वह हर एक की रचनात्मक आलोचना को स्वीकार नहीं कर पाती थी। यहाँ तक कि जिन भाई-बहनों ने उसे सलाह दी, उनसे वो उलझ पड़ी । उसने उनके ख़िलाफ जवाबी कार्रवाई की। कितनी ही बार उसने अपने वरिष्ठों से सहभागिता और सहायता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अंतत:, उसे चेतावनी दी गई, मगर सत्य को स्वीकार करना तो दूर, उसने ख़ुद को जानने के लिये अपनी हरकतों पर आत्म-चिंतन तक नहीं किया; उसने कभी प्रायश्चित नहीं किया, न स्वयं में कोई बदलाव किया, बल्कि वह हठपूर्वक मसीह-विरोधी की राह पर ही चलती रही... नाकामी की इन मिसालों से मुझे समझ में आ गया कि कलीसिया ने किसी को भी बिना किसी मज़बूत आधार के, न तो बर्ख़ास्त किया था, न ही हटाया था। जिस ढंग से इन बर्ख़ास्त किए और हटाए गये लोगों ने लगातार व्यवहार किया था, उसका सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने के बाद ही, मैं समझ पाया कि उनमें से ज़्यादातर लोग स्वभाव से बहुत ही ज़िद्दी थे। उन्होंने कलीसिया के काम को कभी भी सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं किया था। उन सब लोगों ने अपनी मनमर्ज़ी से कार्य किया था, जिसकी वजह से कलीसिया के काम में बाधाएँ और परेशानियाँ आईं। इससे अन्य भाई-बहनों को भी जीवन प्रवेश हासिल करने में गंभीर रुकावटों का सामना करना पड़ा। आख़िकार, उन्हें बर्ख़ास्त करना पड़ा और हटाना पड़ा। ज़ाहिर है, बर्ख़ास्त किये जाने से पहले, परमेश्वर ने ऐसे लोगों को प्रायश्चित के पर्याप्त अवसर दिए गये थे, कितनी ही बार भा‌ई-बहनों ने उन्हें सहायता और समर्थन दिया था; लेकिन उन्होंने एक बार भी अपने आपको बदलने की इच्छा नहीं दिखाई। बल्कि उन लोगों ने कलीसिया के कार्य में गंभीर बाधा उपस्थित की, परेशानी पैदा की और रुकावट डाली, तब जाकर उन्हें बर्ख़ास्त किया गया और हटाया गया। इसके लिये वे स्वयं ज़िम्मेदार थे, है न? क्या यह कड़वा फल उनकी अपनी ही लगातार की गई हरकतों की पैदाइश नहीं था? हालाँकि, उनकी नाकामी और पतन से, मैं उनके द्वारा लिए गए गलत मार्ग को समझ नहीं पाया था, या मैं परमेश्वर के प्रति उनके विरोध के स्रोत को साफ़ तौर पर देख नहीं पाया था। फलस्वरूप, मैंने अपनी हरकतों पर आत्म-चिंतन नहीं किया, न ही उनकी मिसाल को अपने लिये एक चेतावनी के रूप में लिया। मैं यह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता, जिसके कारण मैं अपने अंदर परमेश्वर-भीरु श्रद्धा को विकसित नहीं कर पाया जो मुझे उन लोगों के पदचिह्नों पर चलने से रोकती; बल्कि, मैंने परमेश्वर के प्रति गलतफ़हमियों और रक्षात्मक रवैये को बढ़ावा दिया था। मैंने सारी अधार्मिकता उठाकर परमेश्वर पर डाल दी थी। मैंने देखा कि मैं वाकई अज्ञानी और अंधा था, घृणा-योग्य और दयनीय था, मैंने परमेश्वर को भयंकर चोट पहुँचाई थी। मुझे याद आया कि अब कलीसिया में एक ऐसे लोगों का समूह था, जिसके पास कोई ऊँचा ओहदा नहीं था, फिर भी वह लगातार सत्य का अनुसरण करने में नाकाम हो रहा था, कलीसिया के काम में बाधाएँ और परेशानियाँ पैदा कर रहा था, उसने अपने कर्तव्यों का निर्वाह ठीक ढंग से नहीं किया था; उसी तरह, परमेश्वर ने समूह के उन लोगों को भी उजागर करके हटा दिया। इसका एहसास होने पर यह बात मेरी समझ में और भी अच्छी तरह से आ गई कि परमेश्वर का अनुसरण करते वक्त, हम उजागर करके हटाए जाते हैं या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि हम क्या काम कर रहे हैं या हम किस ओहदे पर हैं। अगर हम सत्य का अनुसरण न करें या हम अपने स्वभाव में रूपांतरण के मार्ग पर न चलें, तो फिर हम किसी भी ओहदे पर हों या न हों, हमारे स्वभाव पर शैतान द्वारा कब्ज़ा किए जाने का जोखिम होता है, और हम किसी भी समय ऐसा कुछ कर सकते हैं जो परमेश्वर को नाराज़ कर देगा या उसका विरोध करेगा जिसके कारण हम बर्ख़ास्त कर दिए जाएँगे और हटा दिए जाएंगे। यह परमेश्वर के इन वचनों की सटीक पुष्टि है: "एक अपरिवर्तित स्वभाव का होना परमेश्वर के साथ शत्रुता में होना है।" मैं परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के लिये आभारी हूँ, जिससे कि मैं अपने गलत विचारों को समझ पाया, पहचान पाया, साथ ही परमेश्वर में आस्था रखने के दौरान सत्य के अनुसरण के महत्व को सराहा और मैंने अपने स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास किया। साथ ही, मुझे इस बात का भी एहसास हो गया कि मेरा अपनी भ्रांतियों और कल्पनाओं में जीना कितना बेहूदा और बेतुका था।

बाद में, मैंने एक सहभागिता में, एक और अंश पढ़ा जो इस प्रकार था: "मैंने एक भाई से पूछा, 'क्या आपने पिछले कुछ सालों में कोई प्रगति की है?' उसने कहा, 'मैंने सबसे ज़्यादा प्रगति तब की जब मेरा निष्कासन हुआ।' उसकी सबसे ज़्यादा प्रगति निष्कासन के बाद क्यों हुई? उसने यकीनन बड़ी ज़रूरत के साथ परमेश्वर से प्रार्थना की थी, उसने अपनी हरकतों पर आत्म-चिंतन करने और स्वयं को जानने के लिये काफ़ी समय बिताया था। वह प्रायश्चित भी करने को तैयार था, वह नहीं चाहता था कि उसे परमेश्वर द्वारा नकार दिया जाए। परमेश्वर से गंभीरता से प्रार्थना करके उसे बड़ी मात्रा में प्रबोधन, प्रकाशन और आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ; उसे समझ में आ गया कि इतने बरसों तक उसने क्या हरकतें की थीं और उसने किस ढंग से व्यवहार किया था, वह किस मार्ग पर चल रहा था। इन नकारात्मक सबक के अनुभवों के ज़रिये, उसे एहसास हो गया कि उसे परमेश्वर में कैसे विश्वास रखना चाहिये और कैसे सत्य का अनुसरण करना चाहिये। उसके बाद, उसने परमेश्वर के आगे सच्चा प्रायश्चित किया। वह सत्य के अनुसरण के लिये मेहनत करने, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पण करने और उसके आयोजन के प्रति झुकने को तैयार हो गया। इस तरह, परमेश्वर में उसके विश्वास की यात्रा का नवीकरण हो गया, और उसने औपचारिक तौर पर आस्था के पथ पर कदम बढ़ा दिए। इसलिये, आप सवाल कर सकते हैं कि क्या इस निष्कासन का कोई लाभ है, और क्या यह वाकई लोगों को उद्धार देने का एक तरीका है" (ऊपर से संगति)। इस सहभागिता से, मैं परमेश्वर द्वारा लोगों को दी जाने वाली चरम करुणा और उद्धार को देख पाया । कुछ लोगों को कलीसिया ने उनकी दुष्ट हरकत के कारण निष्कासित कर दिया था, लेकिन अगर वे लोग सच्चे मन से प्रायश्चित करते और वे परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना को स्वीकार करने और उसके आगे समर्पित होने, स्वयं को बेहतर ढंग से जानने, आत्म-चिंतन करने, और सत्य का अनुसरण करने को तैयार थे, तो अब भी उनके उद्धार की आशा थी। साथ ही, मुझे यह बात भी समझ में आ गई कि परमेश्वर का कठोर न्याय, लोगों से निपटने का तरीका, उन्हें परिष्कृत, और अनुशासित करना भी उन लोगों के लिये उद्धार है जो सच्चा प्रायश्चित करते हैं; इनका उद्देश्य लोगों को आत्म-चिंतन करने योग्य बनाना और अपनी शैतानी प्रकृति को समझने योग्य बनाना है जिसके कारण वे परमेश्वर का विरोध करते थे और उसे अपना शत्रु समझते थे। इनका उद्देश्य उन्हें सचमुच स्वयं से घृणा करने और अपने देह-सुख को त्यागने योग्य बनाना है ताकि उनमें परमेश्वर के प्रति भय-युक्त श्रद्धा उत्पन्न हो और वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ें। जिन लोगों में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था है और जो सत्य का अनुसरण करते हैं, वे चाहे किसी भी अनुभव से क्यों न गुज़रे हों—चाहे उन्हें बर्ख़ास्त किया गया हो, हटाया गया हो, या निष्कासित किया गया हो—इनमें से कुछ भी उन्हें उजागर करना या हटाना नहीं था, बल्कि ये चीज़ें परमेश्वर में उनकी आस्था के मार्ग में एक क्रांतिकारी परिवर्तन थीं! अनजाने में ही, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आ गया: "असफल होना और कई बार नीचे गिरना कोई बुरी बात नहीं है; न ही उजागर किया जाना कोई बुरी बात है। चाहे तुम्हारा निपटारा किया गया हो, तुम्हें काटा-छाँटा गया हो या उजागर किया गया हो, तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए : उजागर होने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारी निंदा की जा रही है। उजागर किया जाना अच्छी बात है; यह स्वयं को जानने का सबसे अच्छा अवसर है। यह तुम्हारे जीवन अनुभव को गति दे सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। यदि तुम्हें अपने अंदर की चीज़ों के बारे में पता चल जाये, तुम्हारे भीतर छिपी उन गहरी बातों के हर पहलू का भी पता चल जाये, जिन्हें पहचानना मुश्किल है और जिनका पता लगाना कठिन है, तो यह अच्छी बात है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास जगेगी और तुम वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। जब मैंने इस पर विचार किया, तो मुझे परमेश्वर की इच्छा की और भी गहरी समझ प्राप्त हुई: वह चाहे हम पर प्रहार करे, हमें अनुशासित करे, हमें बर्ख़ास्त करे, हमें निष्कासित करे, वह जो कुछ भी करता है, सब हमारे व्यवहार और भ्रष्ट सार के आधार पर ही तय होता है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसका उद्देश्य लोगों को शुद्ध और रूपांतरित करना होता है; हमारे लिये, ये सारी चीज़ें उद्धार हैं, और बहुत ही लाभदायक हैं। मैं शुरू से ही, अगुवा होने के दायित्व को भयभीत होकर देखता था क्योंकि अगुवाओं को ही उजागर किया गया था, बर्ख़ास्त किया गया था, और हटा दिया गया था। इसलिये यह मेरे लिये एक चेतावनी थी कि ओहदे के साथ आने वाले दायित्व को कभी स्वीकार मत करो। ऐसा करके, मैं पतन या नाकामी से बच जाऊँगा, न ही मुझे पीड़ादायक शुद्धिकरण में जीना पड़ेगा। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में हमारा न्याय, ताड़ना, हमें परिष्कृत और अनुशासित करना शामिल है, लेकिन साथ ही इसमें सहिष्णुता, धैर्य और हम सबके लिये महानतम प्रेम भी शामिल है। इन चीज़ों को मैंने पहले कभी नहीं देखा था, बल्कि मैं परमेश्वर के प्रति गलतफ़हमी और अटकलबाज़ी में जी रहा था जो कि मेरी ही धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित थीं। मैं चुनावों में भाग लेने को तैयार नहीं था, अगुवाई का दायित्व निभाने को तो मैं बिल्कुल ही तैयार नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि मैंने सत्य को प्राप्त करने और परमेश्वर को जानने के बहुत से अवसरों को गँवा दिया था। अब जाकर मैं समझ पाया कि मेरी पहले की धारणाएँ "शिखर पर अकेलापन है" और "इंसान जितनी ऊँचाई से गिरता है, उसे उतनी ही गहरी चोट लगती है।" शैतान के बेतुके विचार हैं जो कि मेरे सत्य की खोज के मार्ग में और परमेश्वर को जानने में सबसे बड़ी बाधा बन गये। मैंने परमेश्वर को उसकी प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के लिये धन्यवाद दिया, जिसकी वजह से मैं उसके विषय में अपनी कुछ ख़ास गलतफ़हमियों से मुक्त हो पाया। साथ ही, मैं यह भी समझ पाया कि मैं वाकई कितना घृणित, घिनौना, प्रतिकूल, और अज्ञानी था!

बाद में, जब मैंने आत्म-विश्लेषण किया तो मैं सोच रहा था कि मैं परमेश्वर के प्रति इतना रक्षात्मक क्यों था और ऐसा करने के लिये मैं किस प्रकृति से नियंत्रित हो रहा था। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसमें लिखा था, "और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। मैंने एक सहभागिता भी पढ़ी जिसमें लिखा था, "जो लोग परमेश्वर के प्रति रक्षात्मक होते हैं, वे परीक्षण के समय विश्वासघाती, स्वार्थी, और नीच होते हैं। वे केवल अपने बारे में ही सोचते हैं, उनके दिलों में परमेश्वर के लिये कोई स्थान नहीं होता। ऐसे लोग परमेश्वर के विरुद्ध संघर्ष में लिप्त रहते हैं। जैसे ही ये लोग किसी समस्या का सामना करते हैं, परमेश्वर के प्रति रक्षात्मक हो जाते हैं, परमेश्वर को जाँचने लगते हैं, सोचने लगते हैं, 'इससे परमेश्वर का क्या तात्पर्य था? उसने मेरे साथ ऐसा क्यों होने दिया?' फिर वे परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश करते हैं। क्या ऐसे लोगों की मंशा गलत नहीं है? क्या ऐसे लोगों के लिये सत्य का अनुसरण करना आसान है? बिल्कुल नहीं। ये सामान्य लोग नहीं होते; इनकी प्रकृति शैतानी होती है। ये लोग किसी के साथ भी मिलकर नहीं चल सकते" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। परमेश्वर के वचनों और इस सहभागिता ने परमेश्वर के विरुद्ध मेरी रक्षात्मक प्रवृत्ति की समस्या के मूल को और परमेश्वर के बारे में मेरी अटकलबाज़ी को उजागर कर दिया। चूँकि मैं प्रकृति से बहुत ही चालाक था, इसलिये जब भी कलीसिया मुझे विकसित करने और तरक्की देने की कोशिश करती, मैं न केवल अपने लिये परमेश्वर के प्रेम को ग्रहण करने या उसके श्रमसाध्य इरादों को समझने में नाकाम रहा, बल्कि उल्टे यह मान बैठा कि अगुवाई के दायित्व का निर्वाह करना बहुत ही ख़तरनाक है। मुझे लगा कि एक बार ओहदा मिल जाने पर अगर मुझसे कोई दुष्टता हो गयी, तो मुझ पर लगातार बर्ख़ास्त किये जाने और हटाए जाने का ख़तरा मंडराता रहेगा। मैंने विचार किया कि मैं कैसे परमेश्वर द्वारा बनाए गये स्वर्ग, धरती और सारी चीज़ों से लेकर चमकती धूप और वर्षा का आनंद ले रहा हूँ, साथ ही, परमेश्वर के अनेक कथनों के सिंचन और पोषण का आनंद भी ले रहा हूँ, फिर भी मैंने कभी प्रेम और उद्धार के उस सुख को प्राप्त करने का ज़रा भी प्रयास नहीं किया जो इंसानों के लिये परमेश्वर के पास है। मैं हमेशा उसके प्रति रक्षात्मक रहा हूँ। मैंने उसे नुकसान पहुँचाया है, संदेह किया है कि परमेश्वर भी इंसान जितना ही क्षुद्र है, उसमें हमारे लिए न कोई दया है, न प्रेम है। मैं सचमुच कपटी और घृणा-योग्य रहा हूँ, मैंने अपने जीवन में कभी ज़रा-सी भी इंसानियत नहीं दिखाई। तभी, मेरे भीतर अपराध-बोध पैदा हुआ, और मैंने फिर से परमेश्वर के वचनों को याद किया: "परमेश्वर चुपचाप मनुष्य के लिए सब कुछ कर रहा है, वह यह सब अपनी ईमानदारी, निष्‍ठा एवं प्रेम के ज़रिए खामोशी से कर रहा है। लेकिन वह जो भी करता है, उसे लेकर उसे कभी शंकाएँ या खेद नहीं होते, न ही उसे कभी आवश्यकता होती है कि कोई उसे किसी रीति से बदले में कुछ दे या कभी मानवजाति से कोई चीज़ प्राप्त करने के उसके इरादे हैं। वह सब कुछ जो उसने हमेशा किया है उसका एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह मानवजाति के सच्चे विश्वास एवं प्रेम को प्राप्त कर सके" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। "परमेश्वर ने मानवजाति की सृष्टि की; इसकी परवाह किए बगैर कि उन्हें भ्रष्ट किया गया है या वे उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर मनुष्य से अपने सबसे अधिक दुलारे प्रियजनों के समान व्यवहार करता है—या जैसा मानव कहेंगे, ऐसे लोग जो उसके लिए अतिप्रिय हैं—और उसके खिलौनों जैसा नहीं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। "आरंभ से लेकर आज तक, केवल मनुष्य ही परमेश्वर के साथ बातचीत करने में समर्थ रहा है। अर्थात्, परमेश्वर के सभी जीवित जीव-जंतुओं और प्राणियों में, मनुष्य के अलावा कोई भी परमेश्वर से बातचीत करने में समर्थ नहीं रहा है। मनुष्य के पास कान हैं जो उसे सुनने में समर्थ बनाते हैं, और उसके पास आँखें हैं जो उसे देखने देती हैं; उसके पास भाषा, अपने स्वयं के विचार, और स्वतंत्र इच्छा है। वह उस सबसे युक्त है जो परमेश्वर को बोलते हुए सुनने, और परमेश्वर की इच्छा को समझने, और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के लिए आवश्यक है, और इसलिए परमेश्वर अपनी सारी इच्छाएँ मनुष्य को प्रदान करता है, मनुष्य को ऐसा साथी बनाना चाहता है जो उसके साथ एक मन हो और जो उसके साथ चल सके। जब से परमेश्वर ने प्रबंधन करना प्रारंभ किया है, तभी से वह प्रतीक्षा करता रहा है कि मनुष्य अपना हृदय उसे दे, परमेश्वर को उसे शुद्ध और सुसज्जित करने दे, उसे परमेश्वर के लिए संतोषप्रद और परमेश्वर द्वारा प्रेममय बनाने दे, उसे परमेश्वर का आदर करने और बुराई से दूर रहने वाला बनाने दे। परमेश्वर ने सदा ही इस परिणाम की प्रत्याशा और प्रतीक्षा की है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के कथनों की पँक्तियों और वचनों में, इंसान के लिये उसका प्रेम, देखभाल, आशा और आकांक्षाएँ प्रकट हुई हैं। परमेश्वर इंसानों को एक माँ की तरह दुलारता है, हम में से हर एक से वह सच्चा प्रेम करता है, अच्छी तरह से हमारी देखभाल करता है। जिन लोगों का परमेश्वर की इच्छा के साथ तालमेल है, ऐसे लोगों के समूह को प्राप्त करने के लिये, परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया है, उसने भयंकर अपमान सहा है, इंसान के छुटकारे और उद्धार के लिये हद दर्जे की कीमत चुकाई है। परमेश्वर के प्रति दिखाए गये हमारे ज़िद्दीपन, विरोध, गलतफ़हमियों और शिकायतों के बावजूद, वह चरम सहिष्णुता और धैर्य के साथ, ख़ामोशी से इंसान के लिए उद्धार का कार्य जारी रखे हुए है। परमेश्वर हमारे मध्य सत्य व्यक्त करने, हमारा सिंचन करने, हमें पोषण देने और हमारा मार्गदर्शन करने आया है। उसे उम्मीद है कि शायद एक दिन हम इंसानों को बचाने के उसके नेक इरादों को समझ सकेंगे और परमेश्वर को अपना दिल समर्पित करेंगे, उसके न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पण करेंगे, हम अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करेंगे, और ऐसे इंसान बनेंगे जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचा लिया गया है और जिनमें उसके प्रति श्रद्धा है और जो बुराई से दूर हैं। मैं देख पाया कि परमेश्वर का सार बहुत ही सुंदर और अच्छा है, इंसान के लिये उसका प्रेम बहुत ही सच्चा है! जबकि मैं इतना अंधा और बेवकूफ़ था। परमेश्वर के अच्छे इरादों को समझने की तो बात ही दूर, मुझे उसके बारे में ज़रा-सा भी ज्ञान नहीं था; मैं परमेश्वर के प्रति रक्षात्मक था और गलतफ़हमियाँ पाले हुए था, पत्थर-दिल बनकर बार-बार उसके उद्धार को नकार रहा था, परमेश्वर को ऐसे टाल रहा था, उससे ऐसे दूरी बना रहा था जैसे वह कोई शत्रु हो। मैं उसे दुख-दर्द के सिवा कुछ नहीं दे रहा था। लेकिन, परमेश्वर ने मेरे ज़िद्दीपन, मूर्खता, और अज्ञानता पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उसने एक ऐसे परिवेश का निर्माण किया जिसमें मैं शुद्ध और अनुशासित हो जाऊँ। उसने मुझे अपने वचनों के ज़रिये भी प्रबुद्ध किया, मार्गदर्शन दिया, इस तरह मुझे अपने प्रति रक्षात्मक रवैये और गलतफहमी से मुक्त किया और इस योग्य बनाया कि मैं उसे अपना दिल समर्पित कर सकूँ। परमेश्वर के प्रेम ने मुझे शर्मिंदा कर दिया। यह समझने के बाद, मैं परमेश्वर के आगे दण्डवत किए बिना न रह सका औरे मैंने कहा, "हे परमेश्वर! मैंने आप में आस्था रखने का दावा तो किया, लेकिन, मैं आपको किंचित-मात्र भी नहीं जानता हूँ। मैं हर तरह से, आपके प्रति रक्षात्मक रवैया अख़्तियार किए रहा और आपको गलत समझता रहा। मैं वाकई बेहद विश्वासघाती हूँ; मैं आपको लगातार आहत करता रहा हूँ, मैं इस लायक नहीं कि आपके सामने आ सकूँ। हे परमेश्वर! आज आपके न्याय और ताड़ना ने मुझे लोगों का उद्धार करने के इरादों का एहसास करा दिया, और आपने मुझे थोड़ा-थोड़ा करके उन मिथ्या-धारणाओं से मुक्त कर दिया जो मैं आपके प्रति अपने मन में पाले हुए था। हे परमेश्वर! अब मैं सत्य को प्राप्त करने और पूर्ण किये जाने के अवसर को और अधिक गँवाना नहीं चाहता। मैं केवल आपके प्रेम का प्रतिदान देने के लिये सत्य का अनुसरण और अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहता हूँ!" प्रार्थना समाप्त करने के बाद, मैंने स्वयं को परमेश्वर के बहुत करीब पाया। अब मेरी कामना थी कि मैं उसे संतुष्ट करने के तरीके की खोज करूँ।

कुछ दिनों के बाद, मेरे अगुवाओं ने मुझसे आगामी चुनावों के बारे में फिर से सहभागिता की, उन्हें उम्मीद थी कि शायद मैं उसमें भाग ले लूँ। मैं जानता था कि परमेश्वर ने प्रायश्चित के लिये ही मुझे यह अवसर उपलब्ध कराया है, और मैं चाहता था कि मैं इस अवसर को हाथ से न जाने दूँ। इसलिये मैं उन्हें प्रसन्नता से "हाँ" कह दी। मैंने अपनी उन गलतफहमियों और रक्षात्मक रवैये को त्याग दिया था जिन्होंने मुझे परमेश्वर से विमुख किया हुआ था। इसके बाद जब मैंने चुनाव लड़ा, तो भाई-बहनों ने मुझे अगुवाई का दायित्व निभाने के लिये चुन लिया। उस पल, मैं भावुक हो गया, और मेरी आँखों से कृतज्ञता के आँसू बह निकले। मुझे मन ही मन पता था कि यह सब परमेश्वर का प्रेम है जो उसने मुझ पर बरसाया है। अब मैं केवल सत्य का अनुसरण करने, अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए कड़ी मेहनत करना चाहता था और वास्तविक कार्य करना चाहता था ताकि परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान दे सकूँ।

अब जब मैं पलटकर इस अनुभव पर विचार करता हूँ, तो मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन ने ही, थोड़ा-थोड़ा करके, मुझे परमेश्वर के बारे में गलतफ़हमियों से मुक्त किया और मुझे उसके स्वभाव की महानता और श्रेष्ठता की सराहना का अवसर प्रदान किया। जब तक परमेश्वर उद्धार-कार्य कर रहा है, तब तक हम में चाहे जितना ज़िद्दीपन, भ्रष्टता, या विरोध उजागर हो, अगर हमारे अंदर बदलने की थोड़ी-सी भी इच्छा है, तो परमेश्वर हमारा त्याग नहीं करेगा। बल्कि, वह हम में से हर एक का अधिकतम उद्धार करेगा। हालाँकि परमेश्वर के वचनों में न्याय और निंदा होती है, लेकिन वह हमें सदा एकदम सच्चा प्रेम और उद्धार प्रदान करता है; यही एकमात्र रास्ता है जिससे हम अपनी भ्रष्टता और दुष्टता से और भी भयंकर घृणा कर सकते हैं, सत्य का अनुसरण करने के लिये मेहनत कर सकते हैं और स्वभाव में रूपांतरण प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परमेश्वर का सार मनुष्य के विश्वास मात्र के लिए नहीं है; इससे भी बढ़कर यह मनुष्य के प्रेम के लिए है। परंतु परमेश्वर में विश्वास करने वालों में से बहुत-से लोग यह 'रहस्य' खोज पाने में अक्षम हैं। लोग परमेश्वर से प्रेम करने का साहस नहीं करते, न ही वे उसे प्रेम करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने कभी खोजा ही नहीं कि परमेश्वर के विषय में प्रेम करने लायक कितना कुछ है; उन्होंने कभी जाना ही नहीं कि परमेश्वर वह परमेश्वर है जो मनुष्य से प्रेम करता है, और परमेश्वर वह परमेश्वर है जो मनुष्य द्वारा प्रेम किए जाने के लिए है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग सदैव उसके प्रकाश के भीतर रहेंगे)। परमेश्वर का सार सुंदर और नेक है, उसके बारे में प्रेम करने के लिये अनेक चीज़ें हैं। दरअसल हमें इसे अनुभव के ज़रिये समझने और साकार करने की ज़रूरत है। अब से, परमेश्वर ने मेरे लिये जिस परिवेश का प्रबंध किया है, उसमें रहकर, मैं सत्य की खोज में और अधिक समय बिताना चाहता हूँ, मैं परमेश्वर की इच्छा की थाह पाने का प्रयास करना चाहता हूँ, मैं परमेश्वर के और भी प्रिय गुणों का पता लगाना चाहता हूँ, परमेश्वर को जानने की कोशिश करना चाहता हूँ ताकि मैं यथाशीघ्र अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़कर परमेश्वर के अनुकूल बन सकूँ।

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