चेहरे से मुखौटा हटाने का मार्ग

24 जनवरी, 2022

थोंगक्षिण, दक्षिण कोरिया

साल की शुरुआत में मुझे सिंचन कार्य की टीम अगुआ चुना गया, मेरे पास कई टीमों के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी थी। उस वक्त मैंने सोचा इस पद के लिए चुने जाने का मतलब है मेरे पास कुछ काबिलियत और क्षमता होगी, मुझे लगा सत्य और जीवन प्रवेश के बारे में मेरी समझ दूसरों से बेहतर है। लगा जैसे मुझे सत्य की गहरी समझ हासिल कर अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने में दिल लगाना चाहिए, ताकि सबको यही लगे कि मैं उस कर्तव्य को निभाने के काबिल हूँ।

पहले तो मुझे काम के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, तो अनजान चीज़ें सामने आने पर मैं अगुआ या अपने साथ काम करने वाले भाई-बहनों से पूछती। मैंने सोचा क्योंकि मैं उस कर्तव्य के लिए नई हूँ, तो जब कुछ चीज़ों के बारे में मुझे पता नहीं होता, लोग इसे समझेंगे, और ज़्यादा खोजने से मुझे तेज़ी से आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है, फिर लोगों के मन में मेरी छवि अच्छी बनेगी और उनको लगेगा कि मैं सचमुच ईमानदार हूँ। मगर मेरे सामने बहुत-सी समस्याएं आने लगीं फिर मुझे इनके बारे में पूछने में झिझक होने लगी। उस कर्तव्य को निभाते हुए कुछ समय हो गया था, ऐसे में अगर मैं लगातार इतने सारे सवाल पूछती रही तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या उन्हें लगेगा कि मुझमें काबिलियत नहीं है, मैं साधारण समस्याओं को भी हल नहीं कर सकती, और मैं टीम की अगुआ के तौर पर उस कर्तव्य को निभाने के काबिल नहीं थी? उसके बाद से कोई भी समस्या आने पर, मैं यह सोचने से खुद को नहीं रोक पाती थी कि मुझे उनसे सवाल पूछने चाहिए या नहीं, सवाल पूछना सही रहेगा या नहीं। मुझे डर था कि मेरी सोच लोगों को साधारण लगेगी। अगर मुझे लगता कि कुछ समस्याएं मुश्किल नहीं हैं, तो मैं कोई सवाल नहीं पूछती, बल्कि खुद ही उसका हल ढूंढने की कोशिश करती। इस तरह समस्याएं बढ़ती ही चली गईं और बहुत-सी समस्याओं का हल समय पर नहीं हो सका। इससे मेरी चिंता और भी ज़्यादा बढ़ गई: "क्या हर कोई यह सोचने लगेगा कि मैं टीम की अगुआ बनने के काबिल नहीं हूँ?" सभाओं के दौरान, खास तौर पर जब कोई अगुआ वहां होता, परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता करते समय मेरे मन में लगातार यही डर बना रहता था: "क्या मेरी सहभागिता व्यावहारिक है? क्या मेरी समझ सही है?" सहभागिता के बाद मैं हर किसी की प्रतिक्रिया पर ध्यान देती और अगर कोई मेरी कही बातों के आधार पर अपनी बात कहता, तो उसका मतलब होता मेरी सहभागिता दूसरों को छू रही है, इसमें रोशनी है, इससे पता चलता मुझे परमेश्वर के वचनों की स्पष्ट समझ है और मैं कर्तव्य निभा सकती हूँ। मगर सहभागिता के बाद किसी की प्रतिक्रिया नहीं आती, तो मुझे बुरा लगता। कुछ समय बाद, मेरा काम बहुत बोझिल लगने लगा। मेरे मन में वही बातें घूमती रहतीं जो मैंने कही थी और मुझे सुकून नहीं मिलता। मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती थी, मगर मन में हमेशा घबराहट होती थी, कुछ भी सीख या हासिल नहीं कर पा रही थी। अपने असली इरादे को मैं पूरी तरह भूल चुकी थी।

मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करते हुए खोजबीन की, और उसके वचनों का एक अंश पढ़ा। "लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएँ सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज को समझ सकती हैं, और हर चीज को पूरा कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं। हालांकि, मनुष्यों में एक कमजोरी है। जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे खुद को कितना 'सक्षम' समझते हैं, वे सभी अपने-आपको एक आकर्षक रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको बड़े व्यक्तित्वों के छद्म वेश में छिपा लेते हैं, दिखने में पूर्ण और निष्कलंक लगते हैं, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में, वे महान, शक्तिशाली, पूरी तरह से सक्षम, और कुछ भी कर सकने वाला समझा जाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे किसी मामले में दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। जब कुछ लोगों से कुछ करने के लिए कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि उन्हें पता है कि इसे कैसे करना है, जबकि वे वास्तव में कुछ नहीं जानते होते। बाद में, वे चुपके-चुपके इसके बारे में जानने और यह सीखने की कोशिश करते हैं कि इसे कैसे किया जाए, लेकिन कई दिनों तक इसका अध्ययन करने के बाद भी वे इसे समझ नहीं पाते; उन्हें इसका कुछ अता-पता नहीं चलता। यह पूछे जाने पर कि उनका काम कैसा चल रहा है, वे ढोंग करते रहते हैं, ताकि वे अपने दोषों और कमजोरियों को उजागर न कर बैठें, बजाय इसके वे यह कहते हैं कि वे जल्दी ही इसे समाप्त कर लेंगे। यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोग बहुत घमंडी होते हैं, उन्होंने अपना सारा विवेक खो दिया है! वे आम आदमी होना, सामान्य व्यक्ति होना, या केवल नश्वर जीव बनना नहीं चाहते। वे बस अतिमानव, या विशेष क्षमताओं या शक्तियों वाला व्यक्ति बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक कमजोरियों, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता और सामान्य मानवता के भीतर समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को इन्हें देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। ... इस तरह के लोग आसमान में उड़ते रहते हैं, है कि नहीं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। अपने व्यवहार में, अगर लोग इस तरह का मार्ग चुनते हैं—अपने पैर जमीन पर रखने के बजाय हमेशा अपना सिर आसमान में रखते हैं, हमेशा उड़ना चाहते हैं—तो फिर उनके सामने समस्याएँ आना निश्चित है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। इन वचनों पर विचार करके मुझे मेरी हालत की थोड़ी समझ आई। मैं अपने आपको कुछ ज़्यादा ही बड़ा समझती थी, सोचती थी मुझे सिंचन कार्य की टीम का अगुआ चुना गया है, इसका मतलब है कि मुझमें कुछ काबिलियत और कार्यक्षमता है। जब मैंने खुद को उस नज़रिये से देखा, तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे इसकी परवाह करने लगी, और मैं जल्द खुद को उस कार्य के काबिल साबित करना चाहती थी। इसलिए जब अधिक समस्याएं और परेशानियां आने लगीं, तो मैं उन्हें सामने लाना नहीं चाहती थी, बल्कि हमेशा डर लगा रहता था कि लोग मेरे बारे में जान लेंगे, कहेंगे मुझमें काबिलियत नहीं है, मैं उस काम के लायक नहीं हूँ। फिर मैंने चेहरे पर झूठ का मुखौटा लगा लिया, समस्याएं सामने आने पर मैं चुप रहती और खुद ही समस्या का हल ढूंढती। इस कारण मेरे काम की बहुत-सी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाया, जिससे हमारे काम में रुकावट आई और मेरी हालत पर भी असर पड़ा। मेरी सोच अब स्पष्ट नहीं रही मैं उन चीजों को भी नहीं समझ पा रही थी जिन्हें मैं आसानी से समझती थी। सभाओं में अपनी सहभागिता को लेकर मुझे हमेशा संदेह होता, डर लगता कि अगर मैं अच्छा नहीं बोली, तो लोग मेरे बारे में बुरा सोचेंगे। हर बार लगता कि मैं बेबस हूँ। मुझे एहसास हुआ कि सारा दोष मेरा ही था। मैं बहुत घमंडी और अविवेकी थी, अपने दोषों का सामना नहीं कर पा रही थी। हमेशा दिखावा करती थी ताकि दूसरे मेरे बारे में ऊँचा सोचें। वह कर्तव्य परमेश्वर के घर द्वारा दिया गया एक मौका था, ताकि मैं खुद को प्रशिक्षित कर सकूँ। इसका मतलब यह नहीं था कि मैं सत्य समझती थी या अच्छे से काम कर सकती थी। मेरे पास सत्य हासिल करने की थोड़ी क्षमता थी, मगर मैं बहुत-सी बातें नहीं समझती थी और मेरे पास कोई निजी अनुभव भी नहीं था। मुझमें कुछ भी खास नहीं था मगर मैं खुद को बड़ा समझती थी, दिखाने की कोशिश करती कि मैं उत्कृष्ट हूँ, मुझे सत्य की अच्छी समझ है। मैंने खुद को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया! अब, मेरे पाँव ज़मीन पर रहते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मैं पूछ लेती हूँ, जो अभ्यास का एकमात्र उचित और व्यावहारिक मार्ग है।

परमेश्वर के वचनों के एक अंश से मुझे कुछ व्यावहारिक तरीके समझ आए। परमेश्वर कहते हैं, "कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके प्रति खुला रुख अपनाना चाहिए और उनके बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। सत्य में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी निजी प्रतिष्ठा, अपने मान-सम्मान और ओहदे की खातिर, कुछ भी ढकने की, कोई संशोधन करने की, या कोई भी चालाकी करने की आवश्यकता नहीं है, और यह बात तुम्हारे द्वारा की गई किसी भूल पर भी लागू होती है; ऐसा व्यर्थ कार्य अनावश्यक है। यदि तुम ये सारी चीज़ें नहीं करते हो, तो तुम आसानी से और बिना थकान के, पूरी तरह से प्रकाश में, जियोगे। केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा पा सकते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। इस पर विचार करके मुझे एहसास हुआ कि चिंतामुक्त होकर अपना कर्तव्य निभाने का पहला कदम अपनी गलतियों के बारे में खुलकर बोलना और चेहरे पर झूठ का मुखौटा नहीं लगाना है। मुझे सत्य का अभ्यास करते हुए एक ईमानदार इंसान बनना होगा, मैंने देखा कि मैं सत्य को मुश्किल से समझने वाली एक भ्रष्ट इंसान थी, ज़ाहिर था कि मैं ज़्यादा नहीं समझती थी। ये बिल्कुल सामान्य बात थी। मुझे कोई दिखावा करने और अपनी छवि बचाने की ज़रूरत नहीं थी। सुकून से कर्तव्य निभाने का तरीका यही है कि मन में कोई सवाल होने पर मैं अहंकार को छोड़ दूँ, खुलकर बोलूँ और खोजबीन करूं। इस एहसास के बाद, मेरा दिल रोशन गया मैं उसका अभ्यास करने पर ध्यान देने लगी। जब मुझे किसी चीज़ के बारे में पक्का पता नहीं होता, तो मैं फौरन पूछ लेती, अपनी राय साझा करते वक्त मैं वही कहती जो मैं सोचती हूँ, उन बातों पर ही सहभागिता करती जो मुझे पता होती। जब मैंने इस पर अमल किया, तो धीरे-धीरे ऐसी बातें मेरी समझ में आने लगीं जो पहले नहीं समझ पाती थी, अब मैं अपने कर्तव्य में गलतियां ढूंढकर उन्हें ठीक कर पाती हूँ। मुझे मेरी निजी समस्याएं अच्छे से समझ आने लगीं। फिर मैंने खुद अनुभव किया कि जो मैं हूँ, उसी रूप में लोगों द्वारा देखा जाना अच्छी बात है, इससे सत्य के सिद्धांतों को समझने और अपनी गलतियों को जानने में मदद मिलती है। फिर मैंने खुद को आजाद महसूस किया और उसके बाद मैं सामान्य तरीके से अपना काम करने लगी।

जल्दी ही, जिन समूहों की जिम्मेदारी मुझ पर थी, वे कलीसियाई जीवन में अच्छे से आगे बढ़ने लगीं, भाई-बहन अपनी समस्याओं के बारे में मेरे साथ सहभागिता करना चाहते थे। लेकिन मैंने फिर से इस बात पर ध्यान देना शुरू कर दिया कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। एक बार सहकर्मियों की बैठक में एक अगुआ किसी कलीसिया की कुछ समस्याएं लेकर आई और हमसे हमारी राय पूछी। मैं सोच रही थी, "बहुत-से भाई-बहन यहां हैं, ऐसे में अगर मैं कुछ खास बातें साझा कर सकी, तो लोगों को लगेगा कि मैं बहुत काबिल हूँ।" लेकिन बहुत सोचने पर भी कुछ काम की बात दिमाग में नहीं आई। तभी अगुआ ने मेरी राय पूछी। मेरी जबान लड़खड़ाने लगी, फिर मैंने एक अस्पष्ट-सा सुझाव दे दिया। कुछ ही पल बाद, दो और बहनों ने अपनी सोच साझा की, उनके सुझाव मेरे सुझावों से उलट थे। उनकी बातें तर्कपूर्ण थीं और अगुआ उनसे सहमत थी। इससे मुझे बेचैनी महसूस होने लगी, मैंने सोचा मैं खुद को अच्छा तो दिखा नहीं पाई, बल्कि बुरी ही दिखने लगी। अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या उसे लगेगा कि मेरे पास इतनी साधारण बात पर भी कोई अंतर्दृष्टि नहीं है और मैंने कोई प्रगति नहीं की है? अगले कुछ दिनों में, मैं जिन समूहों के लिए जिम्मेदार थी, उन में कुछ समस्याएं सामने आईं। मैं उन्हें नहीं समझ पा रही थी, इसलिए मुझे फौरन मदद लेनी चाहिए थी। मगर फिर मैंने सोचा, अगर मैंने इतने सवाल पूछे तो क्या मेरी बनी-बनाई छवि खराब नहीं हो जाएगी? दूसरी ओर, मुझे पता था कि समस्याएं हल न होने पर हमारे काम में रुकावट आएगी, इसलिए मैंने एक जुगाड़ करने की सोची: मैं अलग-अलग लोगों से अलग-अलग सवाल पूछूंगी, इससे समस्याएं भी हल हो जाएंगी और ऐसा भी नहीं लगेगा कि मैं बहुत से सवाल पूछती हूँ और मुझे कुछ नहीं आता। इस तरह खुद को छिपाने से, मेरी स्थिति और अधिक खराब होने लगी। मेरी सोच और धुंधली हो गई, बहुत-सी चीज़ें समझने में दिक्कत होने लगी। फिर मैंने विचार किया तो पाया, चूंकि अब मैं उन चीज़ों को भी समझ नहीं पा रही जिन्हें पहले समझती थी, इसका मतलब समस्या मेरी अवस्था में है। फिर मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "परमेश्वर, जाहिर है मुझमें समस्याएं हैं, मगर मैं अपनी गलतियों के बारे में ईमानदारी से खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती। मैं हमेशा बड़े काम करना चाहती हूँ। कुछ न समझ पाने पर पूछना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों होता है? मेरी जबान बंद हो जाती है, इस तरह अपना कर्तव्य निभाना थका देता है। मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं अपनी भ्रष्टता समझकर खुद को बदल सकूँ।"

उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिसने मेरी स्थिति को उजागर कर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "गलतियाँ करना या ढोंग करना : इनमें से कौन-सी चीज स्वभाव से संबंधित है? (ढोंग करना।) ढोंग करना अभिमानी स्वभाव का अंग है, इसमें बुराई और विश्वासघात शामिल होता है, लोग इस चीज से घृणा करते हैं और परमेश्वर को भी इससे घृणा है। ... यदि तुम ढोंग करने या बहाने बनाने की कोशिश नहीं करोगे, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और मनुष्य की भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियों से आश्चर्यचकित नहीं होते, न ही तुम दूसरों की गलतियों पर शिकंजा कसते हो, बल्कि दोनों को संतुलित ढंग से देखते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और बेवकूफी की बातें नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं होते, वे पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। देखकर घृणा होती है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह काम करते रहते हो। लोगों को यह मसखरी का प्रदर्शन लगता है। क्या यह बेवकूफी नहीं है? यह सच में बेवकूफी ही है। मूर्ख लोगों में कोई अक्ल नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, फिर भी उन्हें न तो सत्य समझ में आता है, न ही वे चीजों की असलियत देख पाते हैं। वे हमेशा अहंकार से भरे रहते हैं और सोचते हैं कि वे बाकी सबसे अलग हैं, अधिक योग्य हैं—जो कि मूर्खता है। मूर्खों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, है न? जिन मामलों में तुम मूर्ख और नासमझ होते हो, वे ऐसे मामले होते हैं जिनमें तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, और तुम सत्य को नहीं समझते। सारा मामला यह है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। "जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा ऐसा ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे पर्दे के पीछे कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या करें, किसी को भी इसकी शिकायत करने या इसे उजागर करने की अनुमति नहीं होती। इतना ही नहीं, वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और सही हैं। यह शैतान का स्वभाव है। शैतान की प्रकृति के इस पहलू की मुख्य विशेषता क्या है? (धोखाधड़ी और छल।) और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को मजबूत करने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि उनके बारे में लोगों की राय अच्छी बने और लोग उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचा स्थान दें। यही होता है भ्रष्ट स्वभाव है। जो लोग इन चीजों को नहीं पहचानते, वे कभी अपने दोषों, कमियों और भ्रष्ट अवस्थाओं का उल्लेख नहीं करते, न ही कभी स्वयं को जानने की बात करते हैं। वे क्या कहते हैं? 'मैंने कई सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है। जब मैं कुछ करता हूँ, तो तुम लोग नहीं जानते कि मैं क्या सोच रहा होता हूँ, मैं उन बातों पर विचार करता हूँ कि मैं कौन-से काम करने योग्य हूँ!' क्या यह अहंकारी स्वभाव है? अहंकारी स्वभाव की मुख्य विशेषता क्या है? वे कौन-सा लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं? (लोगों से अपने बारे में अच्छी राय रखवाना।) लोगों से अपने बारे में अच्छी राय रखवाने का उद्देश्य खुद को उनके दिमाग में हैसियत दिलाना है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर मुझे समझ आया कि झूठ का मुखौटा लगाकर गलत काम करना, किसी काम को और बिगाड़ देता है। कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है, इसलिए कर्तव्य में सवाल पूछना और गलतियां करना बिल्कुल सामान्य बात है, मगर मुखौटा लगाने के पीछे अहंकार, कपट और दुष्टता के शैतानी स्वभाव होते हैं। हमेशा अपनी कमियों को छिपाना, लोगों को सिर्फ अपने अच्छे पहलू दिखाना ताकि वे आपके बारे में ऊँचा सोचें, आपकी प्रशंसा करें, परमेश्वर को इन बातों से और भी नफ़रत है। एक बुद्धिमान इंसान सही तरीके से अपनी कमियों का सामना कर सकता है और इससे उन कमियों की भरपाई कर सकता है। यह आगे बढ़ने का एक मौका है। मगर बेवकूफ और अज्ञानी लोग जिनमें खुद की समझ नहीं होती, अपनी कमियों को कभी स्वीकार नहीं कर सकते। वे बस एक झूठ का मुखौटा लगा लेते हैं, जिसका मतलब है कि समस्याएं कभी हल नहीं हो पाती हैं और वे जीवन में कभी प्रगति नहीं करते। अपने रवैये के बारे में फिर से सोचने पर, मुझे समझा कि मैं उन अज्ञानी, मूर्ख लोगों में से हूँ जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है। जब मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाने लगी, तो मुझे लगा कि मैं उतनी बुरी नहीं थी, मैं टीम की अगुआ बनने के काबिल थी। मैं समस्याएं हल कर सकती थी, इसलिए मैंने खुद को ऊँचा उठाया और खुद को ज़्यादा ही बड़ा समझ लिया। इसलिए जब ऐसी समस्याएँ आतीं, जिन्हें हल करने का तरीका मैं नहीं जानती थी, तो मैं सतर्क होकर दुविधा में पड़ जाती, डर लगता कहीं कोई गलत बात कहकर अपनी अच्छी छवि खराब न कर लूं। तब मैंने अपनी राय ज़्यादा ज़ाहिर न करने और ज़्यादा सवाल न पूछने का फैसला किया। जब मैंने कोई मदद मांगी भी, तो अपनी काबिलियत दिखाने के लिए मुश्किल सवाल ही चुनती, मैं नहीं चाहती थी हर कोई जाने कि मुझे कहां दिक्कत है। मैं खेल तक खेल गई, अलग लोगों से अलग सवाल किए, ताकि मुझे अनदेखा न किया जाए। मैं सचमुच अहंकारी और कपटी थी, मुझे खुद की समझ नहीं थी, अलग-अलग तरीके से दिखावा किया, ताकि लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें। मैं कितनी बेवकूफ़ थी, परमेश्वर और लोगों की घृणा के काबिल थी। मैंने अपना नाम और रुतबा बचाने के लिए अपनी कमियों को छिपाया, अपने कर्तव्य की समस्याओं को बिना सुलझाए ही छोड़ दिया। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डाली। मैं क्या सोच रही थी? मैं कितनी नीच और दुष्ट थी। दिखावा करके मैं कुछ समय तक अपने पद पर रह सकती थी, मगर परमेश्वर सब जांचता है, कलीसिया के काम में देरी करने और उसे धोखा देने के कारण, परमेश्वर कभी-न-कभी मुझे हटा ही देता। मसीह विरोधी खास तौर पर रुतबे को संजोते हैं, अपने रुतबे की खातिर परमेश्वर के घर के हितों को भी ताक पर रख देते हैं। मेरा स्वभाव और अनुसरण पर मेरे विचार, मसीह विरोधियों के विचार और स्वभाव से कैसे अलग थे? मैं सोच रही थी कि उस पद से मुझे क्या लाभ हुआ? इससे मैं अपनी कमियों को मानने या उनका सामना करने से कतराने लगी, मेरा विवेक खत्म हो गया। समस्याओं का सामना होने पर, मैंने सत्य की खोज न करके, एक मुखौटा लगा लिया और अधिक से अधिक कपटी बन गई। मैं मसीह विरोधी के मार्ग पर चल पड़ती, परमेश्वर की घृणा पाकर हटा दी जाती। इससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान होता और मैं तबाह हो जाती। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि उस मार्ग पर चलना कितना खतरनाक था। यह मेरे लिए एक चेतावनी थी कि मैं अब उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती।

अभ्यास के मार्ग के साथ मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, इससे मेरे मन और भी मुक्त हो गया। परमेश्वर कहते हैं, "कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा बढ़ावा दिया जाता है और उनका विकास किया जाता है; यह एक बड़ा अवसर है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? पहला सिद्धांत है सत्य को समझना, जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। अगर उन्हें सत्य की समझ न हो, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर खोजने के बाद भी वे नहीं समझते, तो वे किसी को ढूँढ़कर उससे पूछ सकते हैं और उसके साथ संगति कर सकते हैं; उन्हें लोगों के साथ तालमेल बिठाकर काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक खोज करना सीखना चाहिए। तभी वे समस्याएँ सही ढंग से हल कर पाएँगे, परमेश्वर के चुने हुए लोगों और कलीसिया के कार्य के लिए लाभकारी सिद्ध हो पाएँगे। क्योंकि तुम केवल उन्नयन और विकास के स्तर पर हो। तुम्हें हर चीज की समझ नहीं है। तो यह दिखावा मत करो कि तुम समझते हो; यह काम करने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका है। यदि तुम नहीं समझते, तो तुम किसी और से पूछ सकते हो, या दूसरों के साथ संगति कर सकते हो, या ऊपर वाले से पूछ सकते हो—इनमें से कुछ भी लज्जास्पद नहीं है। अगर तुम नहीं भी पूछोगे, तो भी ऊपर वाला जानता है कि तुम कुछ नहीं हो, तुम्हारे पास कुछ नहीं है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए। यही वह भाव है, जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है, जिसका अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा पालन किया जाना चाहिए। ये काम करने में कोई शर्म की बात नहीं है। अगर तुम्हें हमेशा यह लगता है कि चूँकि अब तुम अगुआ बन चुके हो, इसलिए अब भी सिद्धांत को न समझना और लगातार दूसरों से और ऊपर वाले से पूछते रहना शर्मनाक है—और नतीजतन, तुम दिखावा करते हो कि तुम समझते हो, जानते हो, यह काम कर सकते हो, तुम इस काम में अच्छे हो, और तुम्हें दूसरों के संकेतों और संगति की आवश्यकता नहीं है, किसी और के पोषण और सहायता की आवश्यकता नहीं है, तो यह खतरनाक है; देर-सवेर तुम्हें बदल दिया जाएगा, क्योंकि यह परमेश्वर के घर द्वारा उन्नयन और विकास की शर्तों के विपरीत है। तुम खुद को सक्षम मानते हो, लेकिन तुम्हें यह एहसास होना चाहिए कि वास्तव में तुम कुछ भी करने में सक्षम नहीं हो, तुम केवल सीखने और प्रशिक्षण पाने के स्तर पर ही हो। यही भाव तुम्हारे अंदर होना चाहिए। खोजना और संगति करना : यही वे चीजें हैं, जिनका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (5)')। इस अंश पर विचार करने पर मैंने जाना कि परमेश्वर का घर लोगों को तरक्की और पोषण देकर उन्हें अभ्यास करने का मौका देता है। इसका मतलब ये नहीं कि वे सत्य समझते हैं, कोई भी समस्या हल कर सकते हैं और परमेश्वर के इस्तेमाल के लायक हैं। अपने अभ्यास में उन्हें सभी तरह की वास्तविक समस्याओं का सामना करना होगा, अगर वे सत्य की खोज करते हुए सहभागिता करते रहे, तो धीरे-धीरे उन्हें सिद्धांतों के अलग-अलग पहलुओं की समझ होने लगेगी। फिर वे समस्याएं हल करते हुए अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। मैं जानती थी मुझे अच्छी तरह अपनी कमियों का सामना करते हुए खुद को समझना होगा, सत्य की खोज करनी होगी, समस्याएं आने पर विचार-विमर्श और सहभागिता करनी होगी, और अपना पूरा योगदान देना होगा। फिर अगर किसी दिन यह पता चल भी जाता है कि मेरे पास काबिलियत नहीं है, मैं उस काम के लायक नहीं हूँ, तो कम से कम मेरा ज़मीर बिल्कुल साफ होगा। इस पर विचार करने के बाद मुझे काफी सुकून महसूस हुआ। मुझे लगातार दिखावा करने और मुखौटा लगाने की नहीं, बल्कि ईमानदार बनने, अपनी कमजोरियों और कमियों का सामना करने की ज़रूरत थी।

उसके बाद हमारी टीम की चर्चाओं में, मैंने ईमानदारी से अपनी राय रखने की कोशिश की। पहले तो मुझे थोड़ा संकोच होता, डर लगता कहीं कोई गलत बात न कह दूँ, और लोगों को ऐसा न लगे कि मेरी समझ उथली है, मुझमें काबिलियत नहीं है। खास तौर पर जब ऐसी समस्याएं आतीं, जिन्हें मैं ठीक से नहीं समझती, तो उन पर मेरी राय बहुत साफ नहीं होती थी। मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगता: "क्या हर कोई मेरी असलियत समझ जाएगा?" मगर मैंने खुद को याद दिलाया कि यही मेरा वास्तविक स्तर है, अगर कोई मेरे बारे में नीचा सोचता है, तो कोई बात नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि मैं परमेश्वर के सामने ईमानदार बनी रहूँ, अपने विचार व्यक्त करना और चर्चाओं में हिस्सा लेना मेरा कर्तव्य है। यही जीने का एकमात्र शांतिपूर्ण तरीका है। उसके बाद, अपने कर्तव्य में कुछ समझ न आने पर, मैं जाकर दूसरों से उनके विचार पूछती। हालांकि, अभी भी कभी-कभार डर लगता है कि लोग मुझे नीची नज़र से देखेंगे। मगर ये सोचकर कि अपना मान बचाने के लिए अपने दोष छिपाने से परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुंच सकता है, मैं उस आवेग से मुंह मोड़ने की कोशिश करती और दूसरों से मदद मांगती। जब मैंने ऐसा किया, तो मुझे वे बातें समझ आने लगीं जो पहले समझ नहीं आती थीं, अब मुझे पहले से अधिक शांति और सुकून महसूस हुआ। कभी-कभी भाई-बहनों की समझ मेरे मुकाबले अधिक सटीक होती, तो मैं सोचने लगती कि कहीं कोई ऐसा तो नहीं सोच रहा कि मैं किसी काम की नहीं। मगर मैं समझ सकती थी कि यह चीज़ों को देखने का सही तरीका नहीं था। अपनी कमजोरी की भरपाई करने के लिए मुझे दूसरों की खूबियों से सीखना चाहिए। क्या ये एक खूबी नहीं है? जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मेरी घबराहट खत्म हो गई, और समय के साथ खुद को अधिक मुक्त महसूस करने लगी। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन की आभारी हूँ जिसने मुझे यह अनुभव कराया कि ईमानदार होना कितना सुकून और खुशी देता है, अब उसके वचनों पर अमल करने को लेकर मेरी आस्था और बढ़ गई है।

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