अब मैंने मिल-जुलकर कर्तव्य निभाना सीख लिया है

24 जनवरी, 2022

यह नवंबर 2019 की बात है, मैं बहन झाऊ के साथ अगुआ का कर्तव्य निभा रही थी। सभी काम अच्छे से और समय पर पूरे करने के लिए, बड़े अगुआओं ने काम की जिम्मेदारियां हम दोनों के बीच बाँट दी। मेरा काम मुख्य रूप से नए सदस्यों का सिंचन करना था, जबकि बहन झाऊ के पास वीडियो के काम की जिम्मेदारी थी। उस दौरान, मैंने देखा कि नए सदस्यों का सिंचन कार्य ठीक से नहीं हो रहा है, मुझे काफी दबाव महसूस हो रहा था और अपनी जिम्मेदारी न निभा पाने का डर भी था। मगर फिर मुझे याद आया कि यह काम कितना जरूरी है, और अगर मैं इस मुश्किल काम में थोड़ी सफलता हासिल कर पाई, तो बड़े अगुआओं को मेरी काबिलियत दिख जाएगी, और भाई-बहन पहले से ज्यादा मेरी इज्जत करने लगेंगे, तो मैं इस काम के लिए राजी हो गई। फिर, मैं अक्सर नए सदस्यों का सिंचन करने वालों से मिलकर, उनके कामों में आ रही समस्याओं को हल करने में उनकी मदद करने लगी, मुझे जिनमें भी काबिलियत दिखती, उनके सिंचन और पोषण पर अच्छे से ध्यान देती। कुछ समय बाद, सिंचन कार्य में सुधार होने लगा। एक दिन, किसी बहन ने मुझे बताया कि उनके पास वीडियो बनाने के लिए ज्यादा लोग नहीं थे, इसलिए काम में थोड़ी परेशानी आ रही थी, जिसे फौरन हल करना ज़रूरी था। मैंने मन ही मन सोचा : "इस समस्या को जल्द से जल्द हल करना होगा, मगर अभी सिंचन कार्य को भी आगे बढ़ाना बहुत जरूरी है, अगर मैंने अपना सारा समय वीडियो के काम में लगा दिया और समय रहते नए सदस्यों की समस्याएं हल नहीं हुईं, और वो छोड़कर चले गए, तो इससे सिंचन कार्य पर बुरा असर पड़ेगा। अगर ऐसा हुआ, तो क्या बड़े अगुआ मुझे नाकारा नहीं समझने लगेंगे? वैसे भी, वीडियो के काम की जिम्मेदारी बहन झाऊ पर है, अगर मैंने इस समस्या को हल करने में उनकी मदद की, तो सारा श्रेय उन्हें ही जाएगा, मेरा तो कहीं नाम भी नहीं होगा।" यह सोचकर, मैंने उस बहन की बात पर ध्यान नहीं दिया, और इधर-उधर की बातें करके वहाँ से निकल गई। वापस आने पर, मैंने बहन झाऊ से इस बारे में बात की, मगर उनके मन में कोई सही नाम नहीं आया, इसलिए वो फैसला नहीं कर पाई। फिर काम में देरी हो गई, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त लोग नहीं थे। उस समय भी, मैंने इस मामले की गंभीरता की परवाह नहीं की, और इसे बहन झाऊ की ही जिम्मेदारी समझती रही, जिससे मेरा कोई सीधा संबंध नहीं था। एक दिन बहन झाऊ ने मुझसे कहा : "मैंने देखा है कि आप केवल अपने काम पर ही ध्यान देती हैं, दूसरों के काम से आपको कोई मतलब नहीं रहता।" उन्हें ऐसा कहते सुन, मैंने मन ही मन सोचा : "अगर तुम्हारे हिस्से का काम मैं करने लगी, तो भी सारा श्रेय तुम्हें ही जाएगा, और सभी को सिर्फ तुम ही दिखोगी, मैं नहीं, आखिर तुम्हारा काम मैं क्यों करूँ?" मैंने उस समय भी उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया।

कुछ दिनों बाद ही, हमारे अगुआ ने मुझसे कहा : "वीडियो के काम में थोड़ी समस्याएं आ रही हैं और उन समस्याओं को अब तक हल नहीं किया गया है। मुझे याद है कि आपने पहले भी वीडियो बनाए हैं, और इसमें आपको काफी अनुभव भी है। अब से वीडियो का काम आप ही संभालेंगी; सिंचन कार्य की जिम्मेदारी बहन झाऊ की होगी।" यह सुनकर, मैं थोड़ी परेशान हो गई : मैंने सिंचन कार्य पर इतनी मेहनत की थी, मगजपच्ची और सोच-विचार किया था, इसमें सुधार लाना कोई आसान काम नहीं रहा था। अब जब वीडियो बनाने की जिम्मेदारी मुझे दी जा रही है, तो मेरी मेहनत का सारा फल बहन झाऊ को मिल जाएगा। वैसे भी, अच्छे वीडियो बनाना बहुत मुश्किल होता है। अगर मैंने यह काम सही से नहीं किया, तो सब क्या सोचेंगे? क्या वो मुझे अयोग्य समझने लगेंगे? लेकिन फिर मैंने इस पर दोबारा विचार किया : "शुरुआत में, सिंचन कार्य में भी अच्छे नतीजे नहीं दिख रहे थे। मगर फिर मेरी कड़ी मेहनत से क्या उसमें सुधार नहीं हुआ था? अगर मैंने वीडियो बनाने के काम में भी सुधार कर दिया, तो क्या इससे मेरी काबिलियत का पता नहीं चलेगा?" इसलिए, मैं इस काम के लिए राजी हो गई। इसके बाद मैं वीडियो बनाने में जी-जान से जूट गई, और इस काम के लिए नए लोगों को ढूँढने लगी। जब भी भाई-बहनों को कोई समस्या आती, तो मैं उन समस्याओं का हल निकालने के लिए उनके साथ सहभागिता करती। कुछ समय बाद, वीडियो के काम में भी सुधार होने लगा, अपने काम को लेकर सभी लोगों का उत्साह भी खूब बढ़ गया। इस दौरान, कुछ भाई-बहनों ने मुझसे नए सदस्यों के सिंचन के बारे में पूछा। मुझे लगा कि यह काम तो अब मेरी जिम्मेदारी नहीं था। अगर मैंने इन मामलों को सुलझा भी दिया, तो मुझे कोई श्रेय नहीं मिलेगा, इसलिए मैंने घुमा-फिराकर गोलमोल जवाब दे दिया। एक दिन, बहन झाऊ ने मुझसे कहा कि सिंचन कार्य में कुछ ऐसी समस्याएं आ रही हैं जिन्हें हल करना उनको नहीं आता। तब मुझे याद आया कि इन समस्याओं का सामना तो मैंने भी किया था। मैं इन्हें हल करने में उनकी मदद करना चाहती थी, पर फिर मैंने सोचा कि अगर उन्होंने इन समस्याओं को हल कर लिया, तो सारा श्रेय उन्हें ही मिलेगा, मुझे नहीं। मैंने उनसे कहा कि मुझे जब समय मिलेगा तो मैं इन समस्याओं को हल कर दूँगी, मगर फिर मैं व्यस्त हो गई और इस बात को भूल गई। वह समस्या हल नहीं हो पाई, जिसके कारण सिंचन कार्य पर बुरा असर पड़ा।

एक दिन, बड़े अगुआ हमारे काम के बारे में जानने आए, उन्होंने देखा कि मेरा सारा ध्यान सिर्फ अपने काम पर था, दूसरों के काम पर नहीं। उन्होंने कठोरता से मेरा निपटान करते हुए कहा कि एक कलीसिया अगुआ का सिर्फ अपने मूल काम से मतलब रखना और दूसरे काम पर ध्यान न देना सिर्फ अपने से मतलब रखने, स्वार्थ, नीचता और बुरी इंसानियत को दर्शाता है। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई, जैसे मेरे साथ गलत हुआ हो। मैंने मन ही मन सोचा : "मैंने हर दिन अपने काम में इतना समय खपाया और इतना प्रयास किया, इतनी कड़ी मेहनत की, कभी लापरवाही नहीं बरती। अगर उन्हें मेरी तारीफ नहीं करनी थी, तो न करते, मगर वो ऐसा कैसे कह सकते हैं कि मैं स्वार्थी, नीच और बुरी इंसानियत वाली हूँ?" जब मैं घर पहुँची, तो फूट-फूटकर रोने लगी। दुखी मन से मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे, परमेश्वर! ऐसी काट-छाँट और निपटान के बाद, मेरा मन दुखी है, मेरे साथ बहुत गलत हुआ है, मैं तुम्हारे इरादे नहीं समझ पा रही हूँ, मुझे राह दिखाओ ताकि मैं खुद को जान सकूँ।"

फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "विवेक और सूझ-बूझ दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं? ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। जब कभी वे कोई काम करते हैं तो किस बारे में सोचते हैं? उनका पहला विचार होता है, 'अगर मैं यह काम करूंगा तो क्या परमेश्वर को पता चलेगा? क्या यह दूसरे लोगों को दिखाई देता है? अगर दूसरे लोग नहीं देखते कि मैं इतना ज्यादा प्रयास करता हूँ और मेहनत से काम करता हूँ, और अगर परमेश्वर भी यह न देखे, तो मेरे इतना ज़्यादा प्रयास करने या इसके लिए कष्ट सहने का कोई फायदा नहीं है।' क्या यह स्वार्थ नहीं है? साथ-ही-साथ, यह एक बहुत नीच किस्म का इरादा है। जब वे ऐसी सोच के साथ कर्म करते हैं, तो क्या अंतरात्मा कोई भूमिका निभाती है? क्या इसमें अंतरात्मा का कोई भाग होता है? यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं। ऐसे इंसान के कर्म और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं: जब भी सम्मान या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका आता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब सम्मान पाने का कोई मौक़ा नहीं होता, या जैसे ही दुख का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नज़रों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में ज़मीर और विवेक होता है? क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के इंसान का ज़मीर किसी काम का नहीं होता, उसे कभी भी आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता। तो, क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "शैतान के खेमे में, चाहे वह कोई छोटा कार्यालय हो या कोई बड़ा‌ संगठन, जनता के बीच हो या सरकारी स्तर पर, लोग किस वातावरण में कार्य करते हैं? उनके कार्यों के सिद्धांत और दिशानिर्देश क्या होते हैं? प्रत्येक व्यक्ति अपने हिसाब से काम करता है; हर कोई अपने रास्ते पर चलता है। वे अपने हित में और अपने आप ही कार्य करते हैं। जिस किसी के पास अधिकार होता है उसी का निर्णय अंतिम होता है। वे दूसरों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि जैसा वे चाहते हैं वैसा ही करते हैं, प्रसिद्धि, धन और हैसियत के लिए संघर्ष करते हैं। यदि तुम लोग न तो सत्य समझो और न ही उस पर अमल करो, तो क्या तुम, ऐसी स्थिति में, जहाँ तुम्हें परमेश्वर के वचन प्रदान नहीं किए गए हैं, उनसे अलग होगे? बिल्कुल नहीं—तुम बिल्कुल उनके जैसे ही होगे। तुम लोग उसी तरह लड़ोगे जैसे अविश्वासी लड़ते हैं। तुम लोग उसी तरह संघर्ष करोगे जैसे अविश्वासी संघर्ष करते हैं। सुबह से लेकर रात तक तुम ईर्ष्या और विवाद करोगे, साजिश और षड्यंत्र रचोगे। इस समस्या की जड़ क्या है? यह सब इसलिए होता है क्योंकि लोग भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में होते हैं। भ्रष्ट स्वभाव का शासन शैतान का शासन है; भ्रष्ट मानवता बिना किसी अपवाद के, शैतानी स्वभाव में जीती है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मैं कितनी स्वार्थी और मतलबी इंसान थी। मैं जानती थी कि काम को इसलिए बाँटा गया था ताकि उसे अच्छे से पूरा किया जा सके, इसलिए नहीं कि हम सिर्फ अपने काम पर ध्यान दें। अगर मेरे सहकर्मी को कोई समस्या आती है, तो उसे हल करने में मदद करना मेरा काम है, ऐसा करने के बजाय, अपनी साख और रुतबे की खातिर, मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देती रही। दूसरे काम की समस्याएं पता चलने के बाद भी, मैंने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं बेहद स्वार्थी और नीच थी। जब मुझ पर सिंचन कार्य की जिम्मेदारी थी, तो मैं जानती थी कि वीडियो बनाने के लिए लोग ढूंढना आसान नहीं था, मगर मुझे लगा कि इन परेशानियों को हल करने के बाद भी, इनका श्रेय मुझे नहीं मिलेगा। मैंने उस मामले को गंभीरता से नहीं लिया और बस गोलमोल बातें करके छोड़ दिया। आखिर में वीडियो टीम के लिए पर्याप्त लोग नहीं मिले और काम को काफी नुकसान हुआ। जब वीडियो बनाने की जिम्मेदारी मुझ पर आई, तब बहन झाऊ ने मुझे बताया कि सिंचन कार्य में थोड़ी समस्या आ रही थी। मैं उन्हें फौरन ही इसका हल बता सकती थी, लेकिन यहसोचकर कि अगर उन्होंने समस्याओं को हल कर लिया, तो मेरे हिस्से का श्रेय भी उन्हें मिल जाएगा मैंने उनके साथ सहभागिता नहीं की। इसी कारण से, उन समस्याओं का हल नहीं निकल सका और काम में देरी हो गई। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर मुझे सबकी स्वीकृति मिलेगी, यही सोचकर मैंने कड़ी मेहनत की थी। बहन झाऊ को अपने काम में कुछ समस्याएं आ रही थीं और उन्हें मदद की ज़रूरत थी, लेकिन मुझे तो इन बातों से कोई मतलब ही नहीं था, जिसके कारण परमेश्वर के घर के काम को नुकसान हुआ। मैं सचमुच स्वार्थी थी, मुझमें इंसानियत नाम की चीज नहीं थी। अगर बड़े अगुआओं ने कठोरता से मेरे साथ काट-छाँट और निपटान नहीं किया होता, तो मैं अब भी अपने बर्ताव को नहीं समझ पाती, और यही सोचती रहती कि अपना काम अच्छे से करते रहना ही, अपनी जिम्मेदारी उठाना और ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना होता है। मैं वास्तव में खुद को कभी नहीं जान पाती।

कुछ समय बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मैं अपनी समस्या को ज्यादा गहराई से समझ पाई। "मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में विचार नहीं करते। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि कहीं उनके अपने हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, और केवल उन्हीं कामों के बारे में सोचते हैं जो उनके सामने होते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया के काम ऐसी चीजें हैं जिन्हें वे अपने खाली समय में करते हैं, और उनसे हर काम कह-कहकर करवाना पड़ता है। अपने हितों की रक्षा करना ही उनका असली काम होता है, यही उनका मनपसंद असली धंधा होता है। उनकी नजर में परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश से जुड़ी किसी भी चीज का कोई महत्व नहीं होता। अन्य लोगों को अपने काम में क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं, वे किन मुद्दों की पहचान करते हैं, उनके शब्द कितने ईमानदार हैं, मसीह-विरोधी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल ही नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। वे कलीसिया के मामलों से पूरी तरह से उदासीन होते हैं, फिर चाहे वे मामले कितने भी गंभीर क्यों न हों। अगर समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे अनिच्छा से और लापरवाही से ही उसमें हाथ डालते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनसे निपटता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। कलीसिया के काम के प्रति, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण बातों के प्रति वे उदासीन और बेखबर बने रहते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और पूछने पर टालमटोल करते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता का प्रकटीकरण है, है न? इसके अलावा, वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते रहते हैं कि क्या इससे उनका प्रोफाइल उन्नत होगा; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे उसमें सिर्फ अपना भला ही देखते हैं। समूह में वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। उन्हें केवल इसी बात की चिंता रहती है कि कितने लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और उनके अनुयायी कितने हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते, वे कभी इस बारे में बात नहीं करते कि अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांत के अनुसार कैसे काम करें, क्या वे वफादार रहे हैं, क्या उन्होंने अपने दायित्व पूरे किए हैं, कहीं वे भटक तो नहीं गए। वे इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते कि परमेश्वर का घर क्या कहता है और परमेश्वर की इच्छा क्या है। वे केवल अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए कार्य करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')। परमेश्वर ने यह खुलासा किया था कि मसीह-विरोधी खास तौर पर स्वार्थी और नीच होते हैं। वे अपने कर्तव्यों में केवल अपने फायदे पर ही ध्यान देते हैं, और वही कहते या करते हैं जिससे उनकी साख और रुतबा बढ़े। वे कभी कलीसिया के पूरे काम के बारे में नहीं सोचते, उनमें जरा सी भी अंतरात्मा नहीं होती। मैंने देखा कि मेरा बर्ताव और मेरी सोच बिल्कुल एक मसीह-विरोधी जैसी थी। मैं सोचती थी कि केवल अपने हिस्से का काम अच्छे से करना और अपने हितों पर ही ध्यान देना सही है, और यह कि दूसरों के काम में हाथ बँटाने से उनका ही भला होगा। मुझे लगता था कि अपना काम छोड़कर दूसरों की मदद करना और वो भी बिना किसी श्रेय के, सरासर बेवकूफी थी। इसलिए, बहन झाऊ और मेरे बीच काम का बँटवारा होने के बाद, मैंने कभी बहन झाऊ द्वारा बताई गई समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया और न ही उन्हें हल करने के बारे में सोचा। मेरा सारा ध्यान सिर्फ अपना काम अच्छे से पूरा करके सराहना और श्रेय पाने पर ही रहता था। देखा जाए तो, क्या मैं वास्तव में सत्य का अभ्यास करते हुए अपने कर्तव्य निभा रही थी? मैं सिर्फ अपना रुतबा बनाए रखना और अपने काम से मतलब रखना चाहती थी। मैं सिर्फ इन शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों।" मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी। मैं काम के बँटवारे को अपनी काबिलियत दिखाने का मौका समझ बैठी थी, जिस काम की जिम्मेदारी मुझ पर थी उस पर मेहनत करने में मैं कोई कसर नहीं छोडती थी, पर मैं परमेश्वर के घर के समूचे हितों के बारे में नहीं सोचती थी, और न ही खुद को परमेश्वर के घर का एक हिस्सा समझती थी, अपनी बहन के साथ मिलजुलकर काम करने की भी कोशिश नहीं करती थी। मेरे इस बर्ताव के कारण परमेश्वर के घर के काम में रुकावट आई थी। मैंने देखा कि मैं शैतान की तरह काम कर रही थी और मेरे हर काम में इंसानियत की कमी थी! असल में, परमेश्वर के घर का काम करते समय इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसका श्रेय किसे मिलेगा। अपने हिस्से की जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाना हमारा कर्तव्य है। अगर किसी दूसरे के काम में कोई समस्या आती है तो परमेश्वर के घर का सदस्य होने के नाते हमें उस पर ध्यान देकर उसे हल करना चाहिए। मैं एक कलीसिया की अगुआ हूँ, इसलिए कलीसिया का सारा काम मेरे काम का ही हिस्सा है, यही मेरी जिम्मेदारी और कर्तव्य है। अगर कोई भी काम अच्छे से पूरा नहीं होता तो उसकी जिम्मेदारी भी मुझ पर ही होगी। मगर मैं इन बातों पर ध्यान देने के बजाय अपनी साख और रुतबे के बारे में ही सोचती रही और अपने काम से मतलब रखती रही। इस तरह मैं परमेश्वर का विरोध करने वाले मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रही थी, जो हमें परमेश्वर की अस्वीकृति और उसके द्वारा हटा दिए जाने के रास्ते पर ले जाता है। इसका एहसास होने पर, मुझे सच्चे दिल से ऐसा लगनेमहसूस होने लगा कि परमेश्वर ने अगुआओं के जरिए मुझे मेरी समस्या दिखाई; यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था!

कुछ समय बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अभ्यास का रास्ता मिल गया। "लोगों को उनके स्‍वार्थों को त्‍यागने के लिए तैयार करना सबसे मुश्किल काम है। ज्‍़यादातर लोग मुनाफ़े के सिवा और कुछ नहीं चाहते; लोगों के स्‍वार्थ ही उनके जीवन हैं, और उन्‍हें उन चीज़ों को त्‍यागने के लिए तैयार करना उनको जीवन त्‍याग देने को बाध्‍य करने के बराबर है। तब तुम्‍हें क्‍या करना चाहिए? जिन स्‍वार्थों से तुम प्रेम करते हो तुम्‍हें उनसे छुटकारा पाना, उनको तज देना, और उनसे अलग हो जाने की पीड़ा को भोगना और सहना सीखना अनिवार्य है। एक बार जब तुम यह पीड़ा सह लोगे और अपने कुछ स्‍वार्थों को तज दोगे, तुम थोड़ी-सी राहत और कुछ मुक्ति का अनुभव करने लगोगे, और इस तरह तुम अपने शरीर पर विजय प्राप्‍त कर लोगे। लेकिन, अगर तुम अपने स्‍वार्थों से चिपके रहते हो और यह कहते हुए उन्हें छोड़ने में विफल रहते हो कि 'मैंने छल-कपट किया है, तो क्‍या हुआ? परमेश्‍वर ने तो मुझे सज़ा नहीं दी, फिर लोग मेरा क्‍या बिगाड़ सकते हैं? मैं कुछ भी नहीं त्‍यागूँगा!' जब तुम कुछ भी नहीं त्‍यागते, तो इससे किसी का कोई नुकसान नहीं होता; ये तो तुम हो जो अन्‍तत: घाटे में होते हो। जब तुम स्‍वयं अपने भ्रष्‍ट स्‍वभाव को पहचान लेते हो, तो यह, वस्‍तुत:, तुम्‍हारे लिए ही प्रवेश करने, प्रगति करने, और बदलने का सुअवसर होता है; यह तुम्‍हारे लिए परमेश्‍वर के समक्ष उपस्थित होने का और उसके परीक्षण और उसके न्‍याय और उसकी ताड़ना को स्‍वीकार करने का सुअवसर होता है। यही नहीं बल्कि यह तुम्‍हारे लिए उद्धार हासिल करने का भी सुअवसर होता है। अगर तुम सत्‍य की खोज करना बन्‍द कर देते हो, तो यह उद्धार हासिल करने और न्‍याय तथा ताड़ना को स्‍वीकार करने का अवसर गँवा देने के बराबर है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है')। "जब तू कार्यों को करते हुए अपनी स्वयं की स्वार्थी इच्छाओं या अपने स्वयं के हितों के बारे में विचार नहीं करता है, और इसके बजाय हर समय परमेश्वर के घर के कार्य पर विचार करता है, परमेश्वर के घर के हितों के बारे में लगातार सोचता रहता है, और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाते हो, तब तुम परमेश्वर के समक्ष अच्छे कर्मों का संचय करोगे। जो लोग ये अच्छे कर्म करते हैं, ये वे लोग हैं जिनमें सत्य की वास्तविकता होती है; इन्होंने गवाही दी है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने समझा कि अगर हम सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते रहेंगे और सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करेंगे, तो आखिर में हम सत्य को पाने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का मौका खो बैठेंगे। वहीं दूसरी तरफ, अपने निजी हितों के बारे में भूलकर दूसरों की मदद करना, और परमेश्वर के घर के सारे काम को पूरा करने में अपना थोड़ा योगदान देना, कोई बेवकूफी नहीं, बल्कि एक अच्छा कर्म है और परमेश्वर इसकी सराहना करता है। साथ ही, भले ही कोई काम मेरी जिम्मेदारी का हिस्सा हो या न हो, मुझे उसे पूरा करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। केवल ऐसा करके ही मैं परमेश्वर की इच्छा का मान रख सकती हूँ। इसके बाद से, जब भी मुझे अपने साथी के काम में कोई समस्या नजर आती, तो मैं उसे हल करने के लिए उसके साथ सहभागिता करती, अच्छे सुझाव देती और योजनाएँ सुझाती, और जब भी मुझे ऐसा लगता कि मेरी साथी बहन को अपने काम में कोई समस्या आ रही है, तो उसका हल ढूँढने के लिए मैं पूरे जी-जान से उसके साथ सहभागिता करती, और परमेश्वर के घर के सभी कामों को अपनी जिम्मेदारी और अपना काम समझती। इस तरह अभ्यास करके, मेरे मन को शांति और सुकून का एहसास हुआ। हालांकि, अब भी कभी-कभार मैं स्वार्थ भावना से अपने खुद के काम पर ज्यादा ध्यान देना चाहती हूँ, और अपने साथी के काम को अनदेखा करना चाहती हूँ। ऐसा होने पर, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी इन गलत मंशाओं को त्याग देती हूँ। वैसे भी, परमेश्वर का घर तो एक ही है, उसे बाँटा नहीं जा सकता। अपना कर्तव्य पूरा करने में किसी बहन की मदद करना कोई अलग काम नहीं है, न ही यह मेरे काम के दायरे के बाहर है, यही मेरी जिसम्मेदारी और कर्तव्य है। इन बातों को ध्यान में रखकर ही, मैं अपने खुद के हितों को भूलकर अपनी बहन के साथ बढ़चढ़कर काम कर पाई। फिर, हम एक मन से साथ-साथ काम करने लगीं, और कलीसिया का सारा काम अच्छे से होने लगा। नए सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी और हमने दो नई कलीसियाओं की भी नींव रखी। मैंने सच्चे मन से परमेश्वर की अगुआई के लिए उसका धन्यवाद किया।

इस अनुभव से मुझे सचमुच यह एहसास हुआ कि साथ मिलकर काम करते वक्त, अगर हम अपने स्वार्थी इरादों, और अपने निजी हितों को भूलकर, एक मन से काम करने लगें, और मिल-जुलकर परमेश्वर के घर के काम की रक्षा करने लगें, तो हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन भी मिलेगा और आशीषषें भी। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के कारण ही मैं इस बात को समझ पाई, अब मैं खुद को बदलकर, सत्य का अभ्यास करते हुए एक सच्चे इंसान की तरह जी रही हूँ! परमेश्वर का धन्यवाद!

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