घमंडी स्वभाव के नतीजे

18 अक्टूबर, 2022

2006 में मैं हाई स्कूल का ही छात्र था। बाइबल पढ़ते समय, शिक्षक मुझसे अक्सर शुरुआती टिप्पणी देकर उपदेश देनेवाले पादरी का परिचय देने को कहते। वे कहते कि मेरी आवाज अच्छी और ऊँची है, मेरे बहुत-से सहपाठियों की आँखों में मेरे लिए सराहना होती, और मैं सोचता कि बाकियों से बेहतर हूँ। कॉलेज में, मैंने कुछ संवाद तकनीकें सीख ली थीं, जिससे मैं दूसरों के साथ बातचीत में बहुत सक्षम हो गया था। मुझे अक्सर श्रेष्ठता और अपने कौशल में गर्व का भान होता, सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मैं अपने मित्रों को सुसमाचार प्रचारित करने लगा। पहला व्यक्ति जिसे मैंने सुसमाचार पहुँचाया, वह होंडुरास का एक भाई था। उसने इसे स्वीकार कर लिया। मुझे बहुत खुशी हुई। फिर मैंने भारत के एक सहयोगी को सुसमाचार प्रचारित किया। उसने भी बड़ी जल्दी स्वीकार कर लिया। मुझे और भी ज्यादा खुशी हुई, लगा मुझमें सुसमाचार फैलाने की सच्ची काबिलियत और प्रतिभा थी। फिर मैं अपनी नौकरी छोड़ पूरे समय सुसमाचार फैलाने के काम में लग गया। सुसमाचार लेने वाले संभावित लोगों से संवाद में अच्छा होने और दूसरों की मदद कर पाने के कारण मुझे जल्द ही समूह अगुआ चुन लिया गया। पर्यवेक्षिका ने व्यवस्था की कि मैं हाल ही में सुसमाचार फैलाने का अभ्यास शुरू करनेवाली बहन आइलीन और अगाथा की मदद भी करूँ। मुझे लगा, मैं दूसरे भाई-बहनों से बेहतर था। एक बार बहन आइलीन और मैं एक संभावित सुसमाचार पानेवाले के साथ एक सभा में गए, मैंने पाया कि आइलीन स्पष्ट संगति नहीं करती थी, अक्सर भटक जाती थी। सभा के बाद मैंने गुस्से से उसे उसकी समस्या बताई। फिर आइलीन ने निराश होकर मुझसे कहा : "भाई, आप बहुत घमंडी हैं, बहुत से भाई-बहन आपके साथ काम नहीं करना चाहते।" मुझे लगा, मैंने अभी जो बात उससे कही, उसी कारण वह मेरी आलोचना कर रही थी, तो मुझे नहीं लगा कि मुझमें कोई समस्या थी। बाद में मैंने अगाथा और उसके कर्तव्य निर्वाह की देखरेख का काम किया, देखा, दोनों के साथ कुछ समस्याएँ थीं। मैंने उनकी मदद के लिए सत्य पर संगति नहीं की और बस अंदाजा लगाया कि दोनों कर्तव्य में कोई प्रगति नहीं कर रही थीं, और मैंने अपनी पर्यवेक्षिका से कह दिया कि वे सुसमाचार कार्य के लायक नहीं थीं। पर्यवेक्षिका ने मेरे घमंडी स्वभाव की ओर इशारा कर कहा कि मैं दूसरों की कमियों को सही ढंग से सँभालने के काबिल नहीं था। उन्होंने परमेश्वर के वचन के अनेक अंश भी भेजे जिनमें परमेश्वर ने लोगों के घमंडी स्वभाव का खुलासा किया था। मैंने अनदेखी की, लगा परमेश्वर के ये वचन मुझ पर लागू नहीं होते। इसके बाद मैंने लोगों को एक धर्मोपदेश सुनने के लिए बुलाया, और दूसरों से चर्चा किए बिना ही, परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की गवाही दी। मैंने जिन्हें प्रचारित किया, उनमें से कुछ मेरे साथ बात करना और मेरी संगति सुनना पसंद करते थे, इससे मैंने खुद को और ज्यादा प्रतिभाशाली मान लिया, और यह कि मुझे पर्यवेक्षिका की सुनने और लोगों से सहयोग करने की जरूरत नहीं थी, मैं खुद सुसमाचार प्रचारित कर सकता था और ठीक से कर्तव्य निभा सकता था। कुछ वक्त बाद ही मैंने पाया कि कुछ लोग सुसमाचार साझा करने के मानदंडों पर खरे नहीं उतरते थे, नतीजतन मेरा किया हुआ कुछ काम बेकार गया। पर्यवेक्षिका ने कहा मैं बहुत घमंडी था, मैं मनमानी कर रहा था और लोगों से सहयोग नहीं करता था, जिससे काम के कमजोर नतीजे मिल रहे थे। मेरे बर्ताव के कारण, मुझे समूह अगुआ पद से बर्खास्त कर दिया गया, और मेरा स्थान आइलीन को दे दिया गया। मैं यह हजम नहीं कर सका, सोचा, मेरी खूबियों के कारण मुझे बर्खास्त नहीं किया जाना चाहिए था। तब मैं इस व्यवस्था को सच में स्वीकार नहीं कर पाया, और प्रस्ताव रखा कि मैं यह कर्तव्य निभाना बंद कर दूँ। लेकिन तब मैं बहुत जिद्दी था, आत्म-चिंतन का ख्याल नहीं आया।

बाद में मुझे नए सदस्यों के सिंचन का काम सौंप दिया गया। जल्द ही मुझे दोबारा समूह अगुआ चुनकर बहन तेरेसी का साझीदार बना दिया गया। मैंने देखा कि सभाओं में तेरेसी की संगति कभी-कभी अधूरी होती थी, और कभी-कभी वह नए सदस्यों के मसले पूरी तरह से नहीं सुलझाती थी, तो मैं उसे नीची नजर से देखने लगा। सोचता, "क्या वह इस कर्तव्य के लायक है? समूह अगुआ के रूप में उसे नए सदस्यों की समस्याएँ सुलझाने में सक्षम होना चाहिए, और अब देखें तो अगर वह कुछ समय टीम सदस्य के तौर पर अभ्यास करे तो ठीक रहेगा।" मुझे और ज्यादा गुस्सा तब आया जब समस्याओं का सामना होने पर वह बाकी सबसे मदद माँगती, पर मुझसे नहीं। मैं सोचता, "मैं ये समस्याएँ सुलझाना जानता हूँ, क्या वह मेरे बजाय दूसरों से इसलिए पूछती है क्योंकि वह मेरा सम्मान नहीं करती?" बाद में एक कार्य बैठक में, पर्यवेक्षिका ने हमारे काम की कुछ समस्याओं के बारे में बताया। मैंने बहन तेरेसी के बर्ताव के बारे में सोचा, अपना असंतोष जाहिर किए बिना नहीं रह सका, और सबके सामने खुलकर बोल दिया, "क्या बहन तेरेसी एक समूह अगुआ के कार्य का बोझ उठा सकती है?" तेरेसी ने आहत लहजे में जवाब दिया : "मेरा यहाँ होना बेकार है। मैं समस्याएँ सुलझाने में भाई-बहनों की मदद नहीं कर सकती।" मैंने उसकी बात सुनकर सचमुच दोषी महसूस किया। बाद में बातचीत से लगा कि वह मेरे कारण लाचार थी। फिर भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। एक दूसरे मौके पर, मैंने देखा कि एक नए भाई के कर्तव्य में नतीजे नहीं मिल रहे थे, मुझे लगा कि वह इस काम के लायक नहीं था। लेकिन पर्यवेक्षिका की सलाह लेने के बजाय या किसी दूसरे से बात किए बिना, मैंने बस उसे बर्खास्त कर दिया। तब मैं सच में घमंडी था। केवल बाद में जाकर मैंने पाया कि उसे अपने कर्तव्य में दिक्कतें पेश आ रही थीं। मैंने उसकी हालत स्पष्ट समझे बिना ही उसे मनमाने ढंग से बर्खास्त कर दिया था। बर्खास्त होने के बाद भाई बहुत निराश हो गया था। जब पर्यवेक्षिका को पता चला तो उसने मुझसे पूछा, "किसी से भी चर्चा किए बिना आपने उसे क्यों बर्खास्त कर दिया? आप बहुत ज्यादा घमंडी हैं, अति आत्मविश्वासी हैं। हमेशा दूसरों को नीची नजर से देख उन्हें लाचार कर देते हैं, अपने इस निरंतर बुरे बर्ताव के कारण आप समूह अगुआ होने लायक नहीं हैं।" दोबारा बर्खास्त होकर मैं बिल्कुल मायूस हो गया था। मैंने खुद से पूछा, "मैंने किसी से क्यों नहीं पूछा? मैं वही क्यों करता हूँ, जो मैं चाहता हूँ? अगर मैंने थोड़ा खोजा होता, दूसरों से इस मामले पर चर्चा की होती, तो यह समस्या नहीं होती।" अगले कुछ दिनों में मेरे गले में खराश हो गई, उल्टी होने लगी, मैं काफी कमजोर हो गया। मुझे पता था, मैंने परमेश्वर का अपमान किया था और मैं नाखुश था।

बाद में मैंने अपनी हालत के बारे में एक बहन से बात की, और उसने परमेश्वर के वचन के दो-चार अंश भेजे। "आत्मतुष्ट मत बनो; अपनी कमियों को दूर करने के लिए दूसरों से ताकत बटोरो, और देखो कि दूसरे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे जीते हैं; और देखो कि क्या उनके जीवन, कर्म और बोल अनुकरणीय हैं। यदि तुम दूसरों को अपने से कम मानते हो, तो तुम आत्मतुष्ट और दंभी हो और किसी के भी काम के नहीं हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 22)। "यह मत सोचो कि तुम एक स्वाभाविक रूप से जन्मी विलक्षण प्रतिभा हो, जो स्वर्ग से थोड़ी ही निम्न, किंतु पृथ्वी से कहीं अधिक ऊँची है। तुम किसी भी अन्य से ज्यादा होशियार होने से बहुत दूर हो—यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर जितने भी विवेकशील लोग हैं, उनसे तुम्हारा कहीं ज्यादा मूर्ख होना आकर्षक है, क्योंकि तुम खुद को बहुत ऊँचा समझते हो, और तुममें कभी हीनता की भावना नहीं रही, मानो तुम मेरे कार्यों की छोटी से छोटी बात पूरी तरह समझ सकते हो। वास्तव में, तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसके पास विवेक की मूलभूत रूप से कमी है, क्योंकि तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं कि मैं क्या करने का इरादा रखता हूँ, और तुम इस बात से तो बिलकुल भी अवगत नहीं हो कि मैं अभी क्या कर रहा हूँ। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम जमीन पर कड़ी मेहनत करने वाले किसी बूढ़े किसान के बराबर भी नहीं हो, ऐसा किसान, जिसे मानव-जीवन की थोड़ी भी समझ नहीं है और फिर भी जो जमीन पर खेती करते हुए अपना पूरा भरोसा स्वर्ग के आशीषों पर रखता है। तुम अपने जीवन के संबंध में एक पल भी विचार नहीं करते, तुम्हें यश के बारे में कुछ नहीं पता, और तुम्हारे पास आत्म-ज्ञान तो बिलकुल भी नहीं है। तुम इतने 'इस सबसे ऊपर' हो!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो लोग सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हैं : क्या वे जानवर नहीं हैं?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं बहुत बेचैन हो गया। लगा कि परमेश्वर का वचन मुझे उजागर कर रहा है। मैं खुद को हमेशा गुणी और समझदार मानता था, दूसरों से ज्यादा प्रतिभाशाली। मुझमें उच्चता की भावना थी, खुद का बड़ा प्रशंसक था, दूसरों को हीन समझता था। मैंने देखा आइलीन और अगाथा की संगतियों में कमियाँ हैं, तो मैंने उन्हें नीची नजर से देखा, उनसे किनारा किया, सुसमाचार कार्य के लिए उन्हें नाकाबिल करार दिया, और उनसे साझेदारी नहीं करनी चाही। खासतौर से जब मैं अपने दम पर सुसमाचार फैला सकता था, तो लगा मैं ज्यादा प्रतिभाशाली था, स्वतंत्र रूप से काम पूरा कर सकता था, क्योंकि मुझे दूसरों से सहयोग की जरूरत नहीं थी। जब बहन तेरेसी के साथ मेरी साझेदारी हुई, तो लगा मैं उससे ज्यादा प्रतिभाशाली था, इसलिए मैंने उसे नीची नजर से देखा, सोचा, वह समूह अगुआ का कार्य संभालने में असमर्थ है। उस भाई को बर्खास्त करते समय भी मैंने मनमानी की। मैंने किसी से चर्चा किए बिना अपनी ही मर्जी से उसे बर्खास्त कर दिया, जिससे वह निराशा में चला गया। मैं इतना ज्यादा दंभी था, हमेशा मनमानी करता था, और दूसरों की राय जानने की कभी कोशिश नहीं करता था, क्योंकि मुझे लगता था कि भाई-बहन मेरे मुकाबले तुच्छ थे, मैं उनसे कहना चाहता था, "मैं तुमसे ज्यादा बेहतर और प्रतिभाशाली हूँ।" नतीजतन, मैं सिद्धांत खोजे बिना अपना कर्तव्य निभाता था, अपना ही कानून चलाता था, और ऐसे काम करता था, जिनसे भाई-बहनों का दिल दुखे। परमेश्वर के वचन ने मुझमें शर्मिंदगी जगाई, खासतौर से जब मैंने पढ़ा : "तुम अपने जीवन के संबंध में एक पल भी विचार नहीं करते, तुम्हें यश के बारे में कुछ नहीं पता, और तुम्हारे पास आत्म-ज्ञान तो बिलकुल भी नहीं है। तुम इतने 'इस सबसे ऊपर' हो!" परमेश्वर के वचन ने मेरे दिल में हलचल मचा दी। मैं खुद को हमेशा बहुत ऊँचा मानता था, कभी नहीं सोचता था कि जो कर रहा हूँ वह सही है या नहीं। मैं बहुत ज्यादा दंभी था। खेत जोतने वाले किसान परमेश्वर पर भरोसा करना जानते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसा होने पर मुझे पता नहीं था कि परमेश्वर की इच्छा खोजनी है। परमेश्वर का मेरे दिल में स्थान नहीं था। मुझे सच में खुद की समझ और ज्ञान नहीं था।

बाद में, बहन ने मुझे परमेश्वर के वचन के और अंश भेजे, जिससे मैं खुद को थोड़ा बेहतर जान सका। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभाव में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और सबसे अलग है, वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं, और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्‍वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं, और उनके दिलों में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। "मनुष्य का सृजन करते हुए, परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों को अलग-अलग क्षमताएँ देता है। कुछ लोग साहित्य में दक्ष होते हैं, कुछ चिकित्सा में, कुछ किसी कौशल के गहन अध्ययन में, कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान में, इत्यादि। लोगों की ये क्षमताएँ उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रदान की जाती हैं। इसमें डींग हाँकने वाले कोई बात नहीं। व्यक्ति के पास जो भी क्षमताएँ हों, उनका मतलब यह नहीं कि वह सत्य समझता है, और यह मतलब तो बिलकुल भी नहीं कि उसमें सत्य की वास्तविकता है। अगर कुछ क्षमताओं वाला व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाने में अपनी क्षमता इस्तेमाल करनी चाहिए। यह परमेश्वर को भाता है। अगर कोई अपनी क्षमताओं की डींग हाँकता है या परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए उनका इस्तेमाल करने की उम्मीद करता है, तो वह बहुत नासमझ है, और परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से नाखुश होता है। कुछ लोग, जो किसी अनुशासन में सक्षम होते हैं, परमेश्वर के घर आते हैं और उन्हें लगता है कि वे बाकी लोगों से बेहतर हैं। वे चाहते हैं उनसे विशेष व्यवहार किया जाए, उन्हें लगता है उनमें क्षमता है तो उनका जीवन अच्छा चलेगा। वे अपने अनुशासन को एक प्रकार की पूँजी मानते हैं। यह कितना अहंकारी होना है। तो फिर, ऐसे गुणों और क्षमताओं को क्या समझा जाए? अगर परमेश्वर के घर में उनका कोई उपयोग है, तो वह है मात्र एक साधन का, जिससे कर्तव्य अच्छी तरह निभाया जा सकता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। गुण और प्रतिभाएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, मनुष्य की क्षमताओं से ज्यादा कुछ नहीं होतीं, और सत्य से उनका संबंध तो बिलकुल भी नहीं होता। तुम्हारे गुणों और क्षमताओं का मतलब यह नहीं कि तुम सत्य समझते हो, और यह तो बिलकुल भी नहीं कि तुममें सत्य की वास्तविकता है। अगर तुम अपने गुण और क्षमताएँ अपने कर्तव्य में इस्तेमाल करते हो और वह कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, तो तुम उनका वहाँ उपयोग कर रहे हो जहाँ किया जाना चाहिए। परमेश्वर इसका अनुमोदन करता है। अगर तुम अपने गुणों और क्षमताओं का डींग हाँकने, अपनी गवाही देने, स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में इस्तेमाल करते हो, तो तुम्हारा पाप सचमुच एक बड़ा पाप है—तुम परमेश्वर का विरोध करने वाले प्रमुख अपराधी बन जाओगे। गुण परमेश्वर द्वारा दिए जाते हैं। अगर तुम अपने गुणों का इस्तेमाल कोई कर्तव्य निभाने या परमेश्वर की गवाही देने में नहीं कर सकते, तो तुम जमीर और विवेक से शून्य हो और तुम पर परमेश्वर का बहुत बकाया है। तुम एक जघन्य अवज्ञा कर रहे हो! लेकिन, तुम अपने गुणों और क्षमताओं का कितनी भी अच्छी तरह इस्तेमाल करो, इसका यह मतलब नहीं कि तुममें सत्य की वास्तविकता है। सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के साथ कार्य करने से ही व्यक्ति में सत्य की वास्तविकता हो सकती है। गुण और प्रतिभाएँ हमेशा गुण और प्रतिभाएँ ही रहती हैं; सत्य से उनका कोई संबंध नहीं। तुम्हारे पास चाहे जितने भी गुण और प्रतिभाएँ हों, और तुम्हारी प्रतिष्ठा और हैसियत चाहे जितनी भी ऊँची हों, वे कभी इस बात के द्योतक नहीं होते कि तुममें सत्य की वास्तविकता है। गुण और प्रतिभाएँ कभी सत्य नहीं बनेंगे; उनका सत्य से कोई संबंध नहीं है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग तीन))। परमेश्वर का वचन बहुत स्पष्ट है। हममें से हर किसी के पास अपनी खूबियाँ, कौशल और प्रतिभाएं हैं। लेकिन किसी इंसान के पास जो भी कौशल हो, इसका यह मतलब नहीं कि वे सत्य समझते हैं, या वे किसी दूसरे से बेहतर हैं परमेश्वर ने हमें जो खूबियाँ और प्रतिभाएँ दी हैं, वे बस हमारा कर्तव्य निभाने के साधन हैं। सत्य से उनका कोई संबंध नहीं। मुझे इन चीजों पर गर्व नहीं होना चाहिए। इसके बजाय मुझे इनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए था। लेकिन एक बार जब मैंने बोलने की कला में महारत पा ली, लोगों से आसानी से संवाद कर सका, तो ऊँचा महसूस करने लगा, लगा मैं इन चीजों का लाभ उठा सकता था। सोचा कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ, तो मैं और ज्यादा घमंडी और आक्रामक हो गया। जब मैंने अपना कर्तव्य निभाकर कुछ नतीजे हासिल किए, तो मैं और ज्यादा गर्वीला हो गया, किसी को भी महत्व नहीं दिया, सिर्फ खुद पर यकीन किया, यहाँ तक कि मैंने अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांतों को नहीं खोजा, न ही किसी के साथ सहयोग किया। जब पर्यवेक्षिका ने मेरे घमंडी स्वभाव का जिक्र किया तो मैंने उसकी अनदेखी की, तब भी खुद को सही और अच्छा माना। बर्खास्त होने के बाद भी मैंने बिल्कुल आत्म-चिंतन नहीं किया, बेशर्मी से सोचता रहा, कि मैं गुणी, प्रतिभाशाली था और अपना कर्तव्य सही ढंग से निभा सकता था। अपनी बर्खास्तगी से मैं प्रतिरोधी और रोषपूर्ण हो गया था, अपना कर्तव्य भी छोड़ना चाहता था। इस घमंडी स्वभाव के कारण मैं खुद को जान नहीं पाया, दूसरों की सलाह सुन नहीं पाया, और मुझे आत्मज्ञान नहीं हुआ। मेरी नजरों में कोई मेरे बराबर नहीं था, मेरे दिल में परमेश्वर का वास नहीं था! मेरा घमंड ही वह बुनियादी कारण था कि मैंने परमेश्वर के बनाए हर हालात में उसके खिलाफ विद्रोह कर प्रतिरोध किया। मेरे दिल में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं था, न मैंने उसकी आज्ञा मानी न मुझे उसका भय था। ऊपर से तो मैं अपना कर्तव्य निभा रहा था, लेकिन जब भी मेरे साथ कुछ होता, मैं न परमेश्वर से प्रार्थना करता, न उसे खोजता, और अपने कर्तव्य में मैं सत्य या सिद्धांतों को नहीं खोजता। मैं चीजों के लिए बस अपने घमंडी स्वभाव पर भरोसा करता, मनमानी और लापरवाही से काम करता, जिससे कलीसिया का कार्य बाधित होता। यह सच में बुराई करना था! अगर मेरे घमंडी स्वभाव पर रोक न लगती, तो देर-सवेर, मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करनेवाला मसीह-विरोधी बन जाता, और आखिरकार, परमेश्वर मुझे त्याग कर दंडित करता। परमेश्वर के वचन की प्रबुद्धता और रोशनी से मैंने इस सच्चाई को स्पष्ट देखा। हालाँकि मुझमें कुछ खूबियाँ थीं, पर मैं हमेशा अपने घमंडी स्वभाव के भरोसे काम करता था, सत्य या सिद्धांत नहीं खोजता था, मेरा काम बेअसर था। जाहिर है, मैं किसी दूसरे से जरा भी बेहतर नहीं था। मैंने बहन तेरेसी के बारे में सोचा, जो अपनी कमियाँ ठीक करने के लिए दूसरों के सुझावों को विनम्रता से मान लेती थी। उसका कर्तव्य ज्यादा बढ़िया नतीजे दे रहा था। मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। मुझमें बहन वाली खूबियाँ नहीं थीं। असल में कुछ न होकर भी मैं बहुत घमंडी था। अगर मैं अपनी खूबियों और प्रतिभाओं का लाभ उठाता रहता, परमेश्वर के वचन न सुनता, और अपने कर्तव्य में सत्य या सिद्धांतों को न खोजता, तो मुझमें चाहे जो खूबियाँ हों, परमेश्वर मुझे आशीष नहीं देता। न सिर्फ मैं कोई भी कर्तव्य ठीक से न कर पाता, आखिरकार मैं उद्धार का अपना मौका भी गँवा चुका होता।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा : "क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है। अपनी शक्तियों और फायदों या दोषों के प्रति लोगों का यही रवैया भी होना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य की वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। परमेश्वर के वचन से मैंने अभ्यास का एक मार्ग पाया। परमेश्वर के वचनों से मुझे खुद को जानना चाहिए, अपनी खूबियों और कमियों को सही ढंग से सँभालना चाहिए। इसके अलावा कोई भी पूर्ण नहीं होता, और जो चीजें मैं नहीं समझता, उनके लिए मुझे दूसरों की मदद लेना सीखकर उनके तरीकों और रास्तों का लाभ उठाना चाहिए। पहले मुझे हमेशा लगता था कि मैं हर किसी से ऊँचा हूँ, और मैं सबको नीची नजर से देखता था। लेकिन असलियत में सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं, और मैं खुद को इतना ऊँचा नहीं बनाए रख सकता। मुझे खुद को नीचे लाना होगा, भाई-बहनों के बराबर होकर बोलना और काम करना होगा, दूसरों की खूबियों और प्रतिभाओं के बारे में ज्यादा जानना होगा, मिल-जुलकर सहयोग करना होगा। अगर कोई सुझाव दे, तो मुझे सत्य और सिद्धांत खोजने चाहिए, हमेशा खुद को ही सही नहीं मानना चाहिए, क्योंकि मुझमें बहुत-सी कमियाँ हैं, खामियाँ हैं, गलत खयालात और नजरिए हैं, चीजों के बारे में मेरा नजरिया गलत है, और क्योंकि पवित्र आत्मा हमेशा सिर्फ एक ही इंसान के भीतर काम नहीं करता, वह दूसरे भाई-बहनों के भीतर भी काम कर सकता है।

बाद में हमारे कर्तव्यों में जब भाई-बहन अलग-अलग सुझाव देते, तो मैं उन्हें मानने की कोशिश करता। मुझे वह समय याद है, जब सुसमाचार फैलाते वक्त मैं लोगों को सिर्फ धर्मोपदेश सुनने के लिए बुलाता था, लेकिन बाद में अलग से उनकी मुश्किलों के बारे में नहीं पूछता था। मेरी पर्यवेक्षिका को मेरी समस्या का पता चला, और उन्होंने बताया कि अपने कर्तव्य में मैं बारीकियों पर मेहनत नहीं करता था। शुरू-शुरू में मैं उनकी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाता था, लगता कि मैं सबसे अच्छा करने की कोशिश पहले से कर रहा था, सभा के समय मैं उनकी समस्याएँ और मुश्किलें समझ लेता था, और उनसे एक-एक कर पूछने की जरूरत नहीं थी। यही नहीं, मैं पहले इसी तरह काम करता था और नतीजे बढ़िया मिलते थे, इसलिए मुझे पर्यवेक्षिका के कहे अनुसार करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन यह सोचकर मुझे एहसास हुआ कि मेरे घमंडी स्वभाव का दोबारा खुलासा हो रहा था, तो मैंने चुप होकर परमेश्वर से प्रार्थना की, और थोड़ा शांत होने में सफल हो गया। मेरी पर्यवेक्षिका काम में समस्याएँ बता रही थीं, और मुझे उनकी सलाह और मदद स्वीकार करनी चाहिए, ताकि मैं अपने कर्तव्य में और बेहतर नतीजे हासिल कर सकूँ। सोच-विचार के बाद मैंने संभावित सुसमाचार ग्रहणकर्ताओं से संवाद करना, उनके प्रति चिंता जताना, और उनकी मुश्किलों के बारे में पूछना शुरू किया, और फिर मैं उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढने की भरसक कोशिश करने लगा। इस तरह अभ्यास करने से मेरे सुसमाचार कार्य के नतीजों में काफी सुधार हुआ, और मैंने खुद को किनारे रख सत्य पर अमल करने का आनंद महसूस किया। इसके बाद भाई-बहन कोई छोटा-सा सुझाव भी देते, तो मैं उसे हमेशा स्वीकार कर लेता। हर बार इस तरह अभ्यास करने से मुझे भीतरी सुकून मिलता है, अपना कर्तव्य बेहतर निभाने में मदद मिलती है। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ!

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