मसीह-विरोधी स्वभाव के बारे में मेरा थोड़ा ज्ञान

07 दिसम्बर, 2022

मैं 2021 में कलीसिया-अगुआ चुनी गई। कुछ समय तक, मुझे अपने सिंचन-कार्य में परेशानी हो रही थी। कुछ सिंचन-कर्मी नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे, और जब वे आते भी, तो शायद ही कभी संगति करते। मुझे समझ नहीं आया कि यह समस्या कैसे सुलझाऊँ, तो मैंने यह कठिनाई एक अगुआ, बहन लूसी को बताई। एक दिन उसने हमारे समूह में एक प्रचारक, भाई मैथ्यू को जोड़ा। मैं जानती थी कि वह सत्य मुझसे बेहतर समझता है, और उसने पहले मेरे काम में मेरी मदद की थी। लेकिन मैं उसे अपने समूह में शामिल होते देख बहुत खुश नहीं हुई, और मुझे पहला खयाल यह आया कि कहीं वह मेरे काम का निरीक्षण करने तो नहीं आया। मुझे चिंता हुई कि अगर उसने समस्याएँ पाकर मुझे उजागर कर दिया, तो मेरी नाक कट जाएगी, और दूसरे लोग मुझे अच्छा अगुआ नहीं समझेंगे, इसलिए मैं नहीं चाहती थी कि वह मेरा काम देखे। बाद में मैंने देखा कि बहन लूसी ने भाई मैथ्यू को कलीसिया के कई अन्य प्रमुख समूहों में शामिल किया था, और सभी भाई-बहनों ने उसका स्वागत करने वाले संदेश भेजे थे। इससे मैं और भी परेशान हो गई। मुझे लगा कि वह शायद मेरी जगह लेने आ रहा है।

उस शाम भाई मैथ्यू ने नए विश्वासियों की एक सभा में भाग लिया। उन्होंने उसकी संगति ध्यान से सुनी और उसके साथ उत्सुकता से बातचीत की, लेकिन मेरी संगति के प्रति उदासीन लगे। मुझे मैथ्यू से बहुत ईर्ष्या हुई और मेरी कुछ और कहने की इच्छा नहीं हुई। मुझे लगा, जैसे उसके वहाँ होने पर अब किसी को मेरी जरूरत ही नहीं रही। मैथ्यू की संगति सुनकर सब बहुत खुश हुए और बस परमेश्वर का धन्यवाद करते रहे। कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि उन्होंने पहले कभी सभाओं में इतना प्रबुद्ध महसूस नहीं किया, और उन्होंने उसकी संगति से बहुत-कुछ प्राप्त किया है। भाई-बहनों को यह कहते सुनकर मैं बहुत गुस्सा हुई और मुझे लगा, उन्होंने मेरी मौजूदगी पर ध्यान नहीं दिया, मानो मैंने उनके साथ कोई संगति साझा ही न की हो। मुझे अपमान महसूस हुआ, यहाँ तक कि भाई-बहनों पर नाराज भी हुई, मुझे लगा, वे वह सब-कुछ भूल गए हैं, जिस पर मैंने संगति की थी। सभा समाप्त करते हुए, मैथ्यू ने हमारे लिए कुछ बातों का सार प्रस्तुत किया। मैं बोलना नहीं चाहती थी, और मैं वाकई सभी को उसकी प्रशंसा करते हुए भी नहीं सुनना चाहती थी। मैं जल्दी से जल्दी सभा समाप्त कर इस सबसे दूर हो जाना चाहती थी। तभी मैथ्यू ने मुझसे पूछा कि सभा के बारे में मेरा क्या खयाल है। मैं चर्चा में भाग नहीं लेना चाहती थी, इसलिए मैंने बस बेमन से कुछ बातें कह दीं। फिर मैथ्यू ने कुछ समस्याओं के बारे में बात की, जो उसे पता चली थीं। उसने कहा कि मेरी संगति काफी साधारण और अस्पष्ट थी, दूसरों ने उसे नहीं समझा और किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी, इस तरह की सभा उपयोगी नहीं होती। उसे यह कहते सुनकर मुझे बहुत उपेक्षा महसूस हुई। वह मेरी समस्याएँ सामने क्यों लाया? वह खास तौर से मुझे निशाना बनाने ही आया है। अगर वह मुझे बरखास्त करने वाला है, तो उसे सीधे कहना चाहिए! मेरा मन मैथ्यू के प्रति पूर्वाग्रह से भर गया।

बाद में, भाई मैथ्यू ने सभाओं में नए विश्वासियों की समस्याओं से जुड़े परमेश्वर के वचनों के अंश खोजने का सुझाव दिया। हम संगति में और लचीलापन रख सकते हैं, और परमेश्वर के वचन समझाने के लिए कुछ उदाहरण या कथाएँ इस्तेमाल कर सकते हैं। मुझे लगा, इस तरह संगति करना बहुत विस्तार में जाना होगा और मैं दिल से असहमत थी, लेकिन बाकी सभी को उसके सुझाव बहुत पसंद आए। शाम को हम दोनों ने मिलकर एक और सभा की अध्यक्षता की, तो मुझे चिंता हुई कि मैथ्यू फिर मेरी आलोचना करेगा। मुझे खयाल आया कि मैं उसकी संगति की समस्याएँ नोट करके सभा समाप्त होते समय उनका जिक्र कर सकती हूँ। लेकिन मुझे यह देख हैरत हुई कि नए विश्वासियों को उस तरह की सभा पसंद आई, और संगति में उदाहरण देने से उन्हें परमेश्वर के वचन बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। यह एक कारगर सभा थी। मैं दोष नहीं ढूँढ़ पाई। लेकिन जब मैथ्यू ने उपस्थित लोगों से सवाल पूछे, तो उनमें से कुछ ने प्रतिक्रिया नहीं दी, जिससे अजीब स्थिति पैदा हो गई। मैं बहुत खुश हुई और लगा, आखिरकार मुझे उसकी एक समस्या मिल गई है। मैंने उसकी यह कमी नोट कर ली, ताकि मैं भी उसकी आलोचना सकूँ। जब मेरी संगति का समय आया, तो मैंने अपनी समझ से संगति के मुख्य बिंदु साझा करने की पूरी कोशिश करनी चाही, ताकि भाई मैथ्यू से आगे निकलकर दूसरों का सम्मान पाने का भरसक प्रयास कर सकूँ। लेकिन अनजाने ही मैं एक अलग विषय पर संगति करने लगी। मुझे लगा, यह भी बहुत अहम है, जिसे उन्हें समझना चाहिए, इसलिए मैं बोलती गई। सभा समाप्त करने के बाद भाई मैथ्यू ने यह कहते हुए फिर से मेरी समस्याएँ उजागर कीं, कि मैं अपनी संगति में विषय से हट गई थी, जिससे सभी के लिए उस दिन की सभा का मुख्य विषय समझना मुश्किल हो गया। उसने मुझे हमारी सभा के विषय पर गंभीरता से विचार करने की भी याद दिलाई। एक बहन ने भी कहा कि मेरी संगति बहुत लंबी थी, और वह मुख्य बात नहीं समझ पाई। यह सब सुनकर मैं दुख में डूब गई और रोए बिना नहीं रह सकी। मैं सोच रही थी, वह मेरी गलतियों के बारे में बात क्यों करता रहा? इसके बाद दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे अब भी मेरा सम्मान करेंगे? मैं उस समय भाई मैथ्यू से बहुत नाराज हुई और मुझे लगा, जैसे वह जानबूझकर मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है, वह चाहता है कि हर कोई मेरी कमियाँ देखे। मैं चाहती थी कि वह चला जाए, ताकि मुझे उसके साथ सभाओं में शामिल न होना पड़े। लेकिन मुझमें थोड़ी जागरूकता थी कि मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मुझे पता है कि इसमें मेरे सीखने के लिए एक सबक है, लेकिन मैं भाई मैथ्यू से बहुत नाराज हूँ। उसके सुझाव मानना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मुझे इस स्थिति को कैसे समझना चाहिए? परमेश्वर, शांत रहने में मेरी मदद और खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं तुम्हें ठेस न पहुँचा बैठूँ।"

अगले दिन, मैंने अपनी समस्या सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों की खोज की। मैंने कुछ अंश पढ़े। "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। "जैसे ही रुतबे, प्रतिष्ठा या नाम मिलने की बात आती है—उदाहरण के तौर पर, जब लोग सुनते हैं कि परमेश्वर के घर की तमाम प्रकार की प्रतिभाओं को पोषण देने की योजना है—हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई अपना नाम करना चाहता है और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए लड़ना चाहता है, और उन्हें इस पर शर्मिंदगी भी महसूस होती है, पर होड़ न करना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता। उन्हें तब ईर्ष्या और नफरत महसूस होती है जब कोई व्यक्ति भीड़ से अलग दिखता है, और वे चिढ़ जाते हैं, और उन्हें यह अनुचित लगता है। वे सोचते हैं, 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा दूसरे लोगों को कीर्ति क्यों मिलती है? कभी मेरी बारी क्यों नहीं आती?' उन्हें नाराज़गी महसूस होती है। वे इसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कर पाते। वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हैं, लेकिन जब फिर से उनका सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो वे इससे जीत नहीं पाते। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? जब लोग ऐसी स्थितियों में गिर जाते हैं, तो क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने इन भ्रष्ट स्वभावों को त्याग दिया है, तो क्या वह स्वतंत्र और मुक्त नहीं है? इस बारे में सोचो : प्रमुखता और लाभ की खातिर संघर्ष करने की स्थिति में पड़ने से बचने के लिए—इन भ्रष्ट स्थितियों से खुद को मुक्त करने के लिए, अपने आप को तनाव, रुतबे और प्रतिष्ठा के बंधनों से मुक्त करो—तुम्हें कौन-से सत्य समझने चाहिए? स्वतंत्रता और मुक्ति पाने के लिए तुममें सत्य की कौन-सी वास्तविकताएं होनी चाहिए? पहले तो तुम्हें यह देखना चाहिए कि शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए, उन्हें फंसाने, दुराचार देने, उन्हें नीचा दिखाने और पाप में डुबोने के लिए रुतबे और प्रतिष्ठा का उपयोग करता है; इसके अलावा, केवल सत्य को स्वीकार कर ही लोग त्याग कर सकते हैं, रुतबे और प्रतिष्ठा को दर-किनार कर सकते हैं। ... तुम्हें इन चीजों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें इन चीजों को दरकिनार पाना चाहिए, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतना ही ज़्यादा प्रकाश होगा, और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है, तो इसे आजमाकर देखो! अगर तुम इस तरह की भ्रष्ट स्थिति को बदलना चाहते हो, और इन चीज़ों से नियंत्रित नहीं होना चाहते, तो तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, इन चीजों का सार स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, और फिर इन्हें एक तरफ रख देना चाहिए, त्याग देना चाहिए। अन्यथा, तुम जितना अधिक संघर्ष करोगे, उतना ही अंधेरा तुम्हारे आस-पास छा जाएगा, तुम उतनी ही अधिक ईर्ष्या और नफरत महसूस करोगे, और कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा अधिक मजबूत ही होगी। कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा जितनी अधिक मजबूत होगी, तुम ऐसा कर पाने में उतने ही कम सक्षम होगे, जैसे-जैसे तुम चीज़ें प्राप्त नहीं कर पाओगे, तुम्हारी नफरत बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे तुम्हारी नफरत बढ़ती है, तुम्हारे अंदर उतना ही अंधेरा छाने लगता है। तुम्हारे अंदर जितना अधिक अंधेरा छाता है, तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन उतने ही बुरे ढंग से करोगे; तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन जितने बुरे ढंग से करोगे, परमेश्वर के घर के लिए तुम उतने ही कम उपयोगी होगे। यह एक आपस में जुड़ा हुआ, कभी न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र है। अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते, तो धीरे-धीरे तुम्हें निकाल दिया जाएगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन शक्की और ईर्ष्यालु व्यवहार का बहुत स्पष्ट वर्णन करते हैं। लोग अपने से बेहतर व्यक्ति से ईर्ष्या करते हैं, उसे नकारते हैं और उससे झगड़ा करते हैं। यह एक शैतानी स्वभाव है। मैं ठीक वैसी ही थी—बेहद ईर्ष्यालु। दूसरों को हमेशा भाई मैथ्यू की संगति और सुझाव स्वीकारते देख मैं उसके साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहती थी। इसने मुझे बुरी स्थिति में डाल दिया, दुखी कर दिया और अँधेरे में डाल दिया। भाई मैथ्यू के आने से पहले मैं हमेशा सभाओं की अध्यक्षता करती थी। सिंचन-कर्मी आकर अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे पूछते थे और वे सभी मेरी प्रशंसा करते थे। मुझसे इस बारे में ढेर सारे गुर लेते थे कि सभाओं में क्या संगति की जाए, और समस्याएँ हल करने में मदद पाने के लिए सभाओं में मेरी संगति की प्रतीक्षा करते थे। लेकिन बाद में, मेरी संगति से उनकी समस्याएँ हल न होतीं, इसलिए वे नए विश्वासियों के सिंचन में सुधार न कर पाते। निराश होकर वे सभाओं में बात न करना चाहते। भाई मैथ्यू ने आकर उन्हें सिंचन-कार्य के लिए असली मार्गदर्शन दिया और अभ्यास का मार्ग दिखाया, उन्हें असली मदद मिली, जिससे उन्हें लाभ हुआ। वे सब उसकी संगति सुनना चाहते थे। मुझे इससे खुश होना चाहिए था। मैं इसका इस्तेमाल अपनी समस्याओं और कमियों पर विचार करने के लिए कर सकती थी। लेकिन इसके बजाय, मैं न केवल आत्म-चिंतन करने में विफल रही, बल्कि सिर्फ नाम और हैसियत के लिए लड़ती रही। मुझमें स्पष्ट रूप से बहुत कमी थी और मैं व्यावहारिक काम नहीं कर पा रही थी, लेकिन मैं किसी और से सिंचन और सहायता नहीं चाहती थी। मैं कलीसिया में एकमात्र अगुआ रहना चाहती थी, ताकि हर कोई मेरा आदर करे और केवल मेरी ही सुने। मेरा ध्यान सिर्फ अपने नाम और हैसियत पर केंद्रित था, कलीसिया के काम पर बिलकुल नहीं। इस स्थिति ने मेरी हैसियत की इच्छा और भ्रष्टता पूरी तरह से उजागर कर दी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मुझे प्रबुद्ध करे, ताकि मैं वाकई आत्मचिंतन कर सकूँ।

तीन महीने बाद ऐसा ही कुछ हुआ, तो मैं हैरान रह गई। एक कार्य-सभा में भाई मैथ्यू ने मुझसे पूछा कि कलीसिया के नए सदस्यों का क्या हाल है। मैं थोड़ी गुस्सा हो गई। मैंने सोचा, एक प्रचारक के नाते उसे हर कलीसिया की स्थिति से परिचित होना चाहिए, तो वह मुझसे क्यों पूछ रहा है? और मुझे इतने सारे लोगों के सामने बोलने के लिए कहकर क्या वह जानबूझकर मुझे नीचा नहीं दिखा रहा, ताकि मैं मान लूँ कि मैं सिंचन-कार्य ठीक से नहीं कर सकती? मैंने कोई जानकारी साझा किए बिना उसके प्रश्न की त्वरित, तीखी प्रतिक्रिया दी, और कुछ परेशानियों का जिक्र करके उससे पूछा कि उन्हें कैसे सँभालना है। लेकिन यह बात कहते ही मुझे इसका पछतावा हुआ। मैं जानबूझकर भाई मैथ्यू के लिए चीजें मुश्किल बनाने की कोशिश कर रही थी, और ऐसा करना शर्मनाक है। मैं सोच रही थी कि जब उसने मेरी कमियाँ दूसरों के सामने उजागर कीं, तो मैं खुद पर काबू न रखकर उससे नाराज क्यों हो गई, यहाँ तक कि मैंने संगति में उसकी समस्याएँ नोट करनी चाही, ताकि बदला लेने के लिए उसे सबके सामने उजागर कर सकूँ। मैं जानती थी कि ऐसी स्थिति में रहना खतरनाक है, लेकिन पता नहीं क्यों मैं भाई मैथ्यू से इतनी गुस्सा थी। एक शाम, मैंने गवाही का एक निबंध पढ़ा, नाम था, "मेरी असलियत उजागर हो गई।" इसमें परमेश्वर के कुछ वचन उद्धृत किए गए थे, जिन्होंने मुझे इसकी बेहतर समझ दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब कोई मसीह-विरोधी किसी विरोधी पर आक्रमण करके उसे निकाल देता है, तो उसका मुख्य उद्देश्य क्या होता है? वे लोग कलीसिया में एक ऐसी स्थिति पैदा करने का प्रयास करते हैं जहाँ उनकी आवाज के विरोध में कोई आवाज न उठे, जहाँ उनकी सत्ता, उनकी अगुआई का दर्जा और उनके शब्द ही सर्वोपरि हों। सभी को उनकी बात माननी चाहिए, भले ही उनमें मतभेद हो, उन्हें इसे व्यक्त नहीं करना चाहिए, बल्कि इसे अपने दिल में पकने देना चाहिए। जो कोई भी उनके साथ खुले तौर पर असहमत होने का साहस करता है, वह मसीह-विरोधी का दुश्मन बन जाता है, वे सोचते रहते हैं कि किसी भी तरह उनके लिए हालात को मुश्किल बना दिए जाए और उन्हें निकाल बाहर करने के लिए बेचैन रहते हैं। यह उन तरीकों में से एक है जिसके जरिए मसीह विरोधी अपने रुतबे को मजबूत करने और अपनी सत्ता की रक्षा के लिए विरोध करने वालों पर हमला कर उन्हें अलग-थलग कर देते हैं। वे सोचते हैं, 'तुम्हारी राय मुझसे अलग हो सकती है, लेकिन तुम उसके बारे में मनचाही बातें नहीं बना सकते, मेरी सत्ता और हैसियत को जोखिम में तो बिल्कुल नहीं डाल सकते। अगर कुछ कहना है, तो मुझसे अकेले में कह सकते हो। यदि तुम सबके सामने कहकर मुझे शर्मिंदा करोगे, तो डाँट खाओगे, और मुझे तुम्हारा ध्यान रखना पड़ेगा।' यह किस प्रकार का स्वभाव है? मसीह-विरोधी दूसरों को खुलकर नहीं बोलने देते। अगर उनकी कोई राय होती है—फिर वह चाहे मसीह-विरोधी के बारे में हो या किसी और चीज के बारे में—उन्हें उसे अपने तक ही सीमित रखना चाहिए; उन्हें मसीह-विरोधी के चेहरे के भावों का ख्याल रखना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया, तो मसीह-विरोधी उन्हें शत्रु घोषित कर देगा, और उन पर आक्रमण कर उन्हें बाहर कर देगा। यह किस तरह की प्रकृति है? यह एक मसीह विरोधी की प्रकृति है। और वे ऐसा क्यों करते हैं? वे कलीसिया में किसी अन्य की आवाज उठने नहीं देते, वे कलीसिया में अपने विरोधी को को रहने नहीं देते, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को खुले तौर पर सत्य की संगति करने और लोगों की पहचान करने नहीं देते। वे सबसे ज्यादा इस बात से डरते हैं कि कहीं लोग उन्हें पहचानकर उजागर न कर दें; वे लगातार अपनी सत्ता और लोगों के दिलों में अपनी हैसियत को मजबूत करने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें लगता है हैसियत हमेशा बनी रहनी चाहिए। वे ऐसी कोई चीज बरदाश्त नहीं कर सकते, जो एक अगुआ के रूप में उनके गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत और मूल्य को धमकाए या उस पर असर डाले। क्या यह मसीह-विरोधी की दुष्ट प्रकृति की अभिव्यक्ति नहीं है? वे पहले से मौजूद अपनी ताकत से संतुष्ट नहीं होते, वे उसे भी मजबूत और सुरक्षित बनाकर शाश्वत सत्ता चाहते हैं। वे केवल लोगों के व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं करना चाहते, बल्कि उनके दिलों को भी नियंत्रित करना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों की पूरी कार्यशैली अपनी सत्ता और हैसियत की रक्षा के लिए होती है, यह पूरी तरह सत्ता से चिपके रहने की उनकी इच्छा का परिणाम है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दो : वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं)। मेरी हालत ठीक वैसी ही थी, जैसी परमेश्वर ने उजागर की थी। जब मैथ्यू ने मेरे दोष और कमियाँ प्रकट कीं, तो मैंने उसका खंडन कर उससे बदला लेना चाहा। ये मसीह-विरोधी व्यवहार हैं। मैंने पहले ही स्वीकार लिया था कि मुझे हैसियत से प्यार है और मैं घमंडी हूँ, लेकिन मुझे वास्तविक आत्मज्ञान नहीं था। अपने दिल की गहराई में मुझे लगता था कि कलीसिया-अगुआ होने का मतलब है कि मैं सक्षम और काबिल हूँ, और भले ही मेरे कर्तव्य में खामियाँ हों, फिर भी मैं कलीसिया का काम करने में सक्षम हूँ, और मुझे बरखास्त नहीं किया जाएगा। जब मैंने देखा कि भाई मैथ्यू को एक के बाद एक सभा-समूह में जोड़ा जा रहा है, तो मुझे लगा कि मेरा पद खतरे में है, मानो कोई प्रतिद्वंद्वी अचानक मेरी जगह लेने के लिए प्रकट हो गया हो। मुझे उससे नफरत थी, मैं उसे नकारती थी। मैंने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की कि भाई-बहनों को क्या चाहिए, न ही कलीसिया के काम पर विचार किया। मैंने अपना पद सुरक्षित रखने के लिए भाई मैथ्यू के साथ गुप्त रूप से लड़ाई लड़ी। यह एक दुष्ट स्वभाव था। उसने मेरी समस्याएँ बताईं, पर मैं उन्हें स्वीकार नहीं कर पाई, इसलिए उसके खिलाफ हो गई। यहाँ तक कि मैंने उससे बदला लेना और उसे बुरा दिखाना चाहा। जब उसने मेरी गलतियों की ओर फिर से ध्यान दिलाया, तो मैंने अपमानित महसूस किया और मैं उससे नाराज हो गई, यहाँ तक कि उसे वापस भेजना चाहा। लेकिन असल में वह सत्य को अमल में ला रहा था। मेरे काम में वाकई कई चूकें थीं, और मुझे बहुत सारे सिद्धांत समझ नहीं आए थे। इसीलिए वह मुझे काम करने का बेहतर तरीका सिखा रहा था। लेकिन उसका स्वागत करने के बजाय मैं उसकी समस्याएँ खोजने की कोशिश करती रही, ताकि सबके सामने उसकी आलोचना कर सकूँ। जब उसने मेरे काम के बारे में पूछा, तो मैंने उसके साथ कोई जानकारी साझा नहीं की, बल्कि जानबूझकर उसे खराब दिखाने वाले सवाल पूछे। पहले, मुझे लगता था कि मुझे उससे सिर्फ ईर्ष्या है। लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि मैं मसीह-विरोधी स्वभाव दिखा रही थी। मैं अपने नाम और हैसियत की रक्षा के लिए उस पर हमला कर उससे बदला लेना चाहती थी। अगर मुझे मौका मिलता तो शायद मैं कुछ और भी बुरा कर देती। जब मैंने अपना मसीह-विरोधी स्वभाव देखा, तो मुझे सदमा और भय दोनों लगे। मैं जान गई कि अगर मैं ऐसे ही चलती रही, तो परमेश्वर मुझे अवश्य त्याग देगा, क्योंकि परमेश्वर मसीह-विरोधियों को नहीं बचाएगा। मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैंने अगुआ का काम ठीक से नहीं किया है। मैंने अपने नाम और हैसियत के लिए पूरे दिल से लड़ाई लड़ी है और मैं हमला कर बदला लेने जैसी बुराई करने में भी सक्षम थी। मैंने अपने व्यवहार से शैतान की भूमिका निभाई है। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।"

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव थोड़ा और स्पष्ट रूप से देखने में मदद मिली। "अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव और सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसमें उनका पहला विचार अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : 'मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?' यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास हैसियत और प्रतिष्ठा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? हैसियत और प्रतिष्ठा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज के लिए वे दैनिक आधार पर प्रयास करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे इसे कभी दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश से पता चला कि मैं लगातार किसका अनुसरण कर रही थी, और मेरी प्रकृति और सार कैसा था। मैंने अपने नाम और हैसियत की ही सबसे ज्यादा परवाह की। दूसरों के साथ मेलजोल और अपने हर काम में मैं हमेशा अच्छा प्रभाव छोड़ने और दूसरों का सम्मान पाने की सोचती थी। बचपन से ही मुझे इसी तरह जीना सिखाया गया था, मैं हमेशा सबसे अच्छी बनने की कोशिश करती थी। हाई स्कूल में मैं अपनी कक्षा में सबसे निपुण, सबसे उत्कृष्ट छात्रा बनने के प्रयास में लगातार दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करती थी, ताकि दूसरे मेरी प्रशंसा और आदर करें। कलीसिया में आने के बाद भी मैं पूरी तरह से अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत पर ध्यान केंद्रित कर रही थी, हमेशा दूसरों की प्रशंसा चाहती थी। मुझे लगा कि कलीसिया ने मुझे कर्तव्य इसलिए सौंपा है, क्योंकि मुझमें विशेष क्षमताएँ हैं, मैं चीजें जल्दी और अच्छी तरह से कर सकती हूँ। बाद में जब मैं अगुआ बनी, तो और भी अहंकारी और अभिमानी हो गई। मैं संगति के जरिये हमेशा अपनी क्षमताओं कादिखावा करना चाहती थी, कर्तव्य में अपनी गलतियों के बारे में सीखने और उन्हें सुधारने पर ध्यान केंद्रित नहीं करती थी। जब भाई मैथ्यू ने मेरी कमियाँ बताईं, तो मुझे लगा कि मेरी नाक कट गई, और मैंने भाई-बहनों की प्रशंसा खो दी। मैं इसे स्वीकार नहीं सकती थी, इसलिए मैं उस पर हमला कर उससे बदला लेना चाहती थी। परमेश्वर के वचन खा-पीकर मैंने देखा कि जो कुछ भी मैंने किया, वह अपने नाम और हैसियत की रक्षा के लिए किया, जो परमेश्वर के लिए घृणास्पद है। मैंने परमेश्वर से मुझे इस भ्रष्ट स्वभाव से बचाने को कहा।

इसके बाद भाई-बहनों ने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। "अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं, और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्‍वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं, और उनके दिलों में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। "किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण या प्रतिष्ठित और कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को विशिष्ट समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना, और कभी भी अपनी भूलों एवं असफलताओं का सामना न कर पाना—अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; वह कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देता है, या अपने से बेहतर नहीं होने देता है—ऐसा उसके अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों को कभी खुद से श्रेष्ठ या ताकतवर न होने देना—यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना, और, ऐसा होने पर नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें उसके अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा बचाने वाला बना सकता है, दूसरों के मार्गदर्शन को स्वीकार करने, अपनी कमियों का सामना करने, तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में उस व्यक्ति के प्रति घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे करने में लापरवाह हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें उत्पन्न हो जाती हैं। अगर तुम धीरे-धीरे इन विवरणों की गहराई से पड़ताल कर पाते हो, उन्हें जानने में सफल हो जाते हो और उनकी समझ हासिल कर लेते हो, और अगर फिर तुम धीरे-धीरे इन विचारों को त्यागने में सक्षम हो जाते हो, और इन गलत धारणाओं, दृष्टिकोणों और व्यवहारों को त्याग पाते हो, और इनसे विवश नहीं होते; और यदि अपना कर्तव्य पालन करते समय तुम अपने लिए सही पद प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हो, तथा सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, एवं उस कर्तव्य का निर्वाह करते हो जो तुम कर सकते हो तथा जो तुम्हें करना चाहिए; तो कुछ समय के बाद, तुम अपने कर्तव्यों का बेहतर ढंग से निर्वाह करने में सक्षम हो जाओगे। यह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश है। यदि तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हो, तो दूसरों को प्रतीत होगा कि तुममें मानवीय समानता है, और लोग कहेंगे, 'यह व्यक्ति अपने पद के अनुसार आचरण करता है, और वह अपना कर्तव्य बुनियादी तरीके से निभा रहा है। ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाने में स्वाभाविकता पर, जल्दी क्रोध करने पर, या अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव पर भरोसा नहीं करते। वे संयम से कार्य करते हैं, उनके पास एक दिल है जो परमेश्वर को पूजता है, उन्हें सत्य से प्यार है, और उनके व्यवहार और भावों से यह पता चलता है कि उन्होंने अपने सुखों और प्राथमिकताओं का त्याग कर दिया है।' ऐसा आचरण करना कितना अद्भुत है! ऐसे अवसर पर जब दूसरे तुम्हारी कमियों को सामने लाते हैं, तो तुम न केवल उन्हें स्वीकार करने में सक्षम होते हो, बल्कि तुम आशावादी हो तथा अपनी कमियों एवं दोषों का आत्मविश्वास के साथ सामना करते हो। तुम्हारी मनोस्थिति बिल्कुल सामान्य है, एवं अत्याधिकता और जोशीलेपन से मुक्त है। क्या मानवीय समानता का होना यही नहीं होता? केवल ऐसे लोगों में ही अच्छी समझ होती है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन समस्या का मूल कारण उजागर करते हैं। हमारी बहुत सारी भ्रष्टता अहंकारी प्रकृति से उपजती है। अपने अहंकारी स्वभाव के कारण ही मैं भाई मैथ्यू से ईर्ष्या और उसकी अवज्ञा करती थी, और उसके सुझाव नहीं मानती थी। मैं अहंकार में जी रही थी और अपनी गलतियाँ नहीं देख पाती थी। हालाँकि उसके सुझाव मेरे लिए फायदेमंद थे, फिर भी मैं उन्हें स्वीकार नहीं करती थी। मैंने अपने नाम और हैसियत की रक्षा के प्रयास में उसकी मदद और मार्गदर्शन लेने से मना कर दिया। मैंने जरा भी नहीं सोचा कि मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए क्या करना चाहिए। काम में स्पष्ट रूप से कुछ कठिनाइयाँ थीं और मैं अच्छा काम नहीं कर रही थी, फिर भी मैं अहंकारी और अवज्ञाकारी थी। मुझमें वाकई कोई आत्म-जागरूकता नहीं थी। भाई मैथ्यू ने कई व्यावहारिक समस्याएँ बताईं, जो सभी मेरे कर्तव्य की खामियाँ थीं। मैंने उन्हें स्वीकार नहीं किया, न आत्मचिंतन किया, बल्कि उसकी मीनमेख निकाली। पर उसकी संगति वास्तव में व्यावहारिक और नए विश्वासियों के लिए सत्य समझने में मददगार थी, वह मेरी अध्यक्षता वाली पहले की संगतियों से ज्यादा मददगार और लाभदायक थी। इन तथ्यों के बावजूद, मैं यह नहीं स्वीकार पाई कि भाई मैथ्यू मुझसे ज्यादा कुशल है, बल्कि मैं नाराज होकर उससे ईर्ष्या करने लगी। मैं वाकई अहंकारी, अभिमानी और विवेकहीन थी। मैंने खुद को बहुत गुणी समझती थी। मैं हमेशा सबसे अच्छी और दूसरों के लिए अनुकरणीय बनना चाहती थी। यह प्रधान स्वर्गदूत का स्वभाव है, जो परमेश्वर के विरुद्ध जाता है। मैं मन ही मन प्रार्थना कर सत्य का अनुसरण करने, अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलकर विवेकशील इंसान बनने के लिए तैयार हो गई।

बाद में अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "कलीसिया के अंदर तुम्हें इस तरह का परिवेश रखना चाहिए—हर कोई सत्य पर ध्यान केंद्रित करे और उसे पाने का प्रयास करे। लोग कितने भी बूढ़े अथवा युवा हों या वे पुराने विश्वासी हों। न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम है। इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। सत्य के सामने सभी बराबर हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि सही और सत्य के अनुरूप कौन बोल रहा है, परमेश्वर के घर के हितों की कौन सोच रहा है, कौन सबसे अधिक परमेश्वर के घर का कार्यभार उठा रहा है, सत्य की अधिक स्पष्ट समझ किसे है, धार्मिकता की भावना को कौन साझा कर रहा है और कौन कीमत चुकाने को तैयार है। ऐसे लोगों का उनके भाई-बहनों द्वारा समर्थन और सराहना की जानी चाहिए। ईमानदारी का यह परिवेश, जो सत्य का अनुकरण करने से आता है, कलीसिया के अंदर व्याप्त होना चाहिए; इस तरह से, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य होगा, और परमेश्वर तुम्हें आशीष और मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अगर कलीसिया के अंदर कहानियाँ सुनाने, एक-दूसरे के साथ उपद्रव करने, एक-दूसरे से द्वेष रखने, एक-दूसरे से ईर्ष्या करने और एक-दूसरे से बहस करने का परिवेश होगा, तो पवित्र आत्मा निश्चित रूप से तुम लोगों के अंदर काम नहीं करेगा। एक-दूसरे के विरुद्ध संघर्ष करना और गुप्त रूप से लड़ना, धोखा देना, चकमा देना और साज़िश करना—यह बुराई का परिवेश है! अगर कलीसिया के अंदर ऐसा परिवेश होगा, तो पवित्र आत्मा निश्चित रूप से अपना कार्य नहीं करेगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है)। "आज, जो कोई भी परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार नहीं कर सकता है, वह परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सकता है, और जो देहधारी परमेश्वर को न जानता हो, उसे पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अपने सभी कामों को देख और समझ कि जो कुछ तू करता है वह परमेश्वर के सम्मुख लाया जा सकता है कि नहीं। यदि तू जो कुछ भी करता है, उसे तू परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला सकता, तो यह दर्शाता है कि तू एक दुष्ट कर्म करने वाला है। क्या दुष्कर्मी को पूर्ण बनाया जा सकता है? तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसके हृदय के अनुसार हैं)। परमेश्वर के वचनों से मुझे सुकून और अभ्यास का मार्ग, दोनों मिले। परमेश्वर चाहता है कि हम कलीसिया में ईर्ष्या न करें या प्रतिस्पर्धी न बनें, बल्कि सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करें। जिसकी भी बातें सत्य के अनुरूप हों, हमें उसे सुनना चाहिए। भाई मैथ्यू ने मेरी कमियाँ उजागर कर मुझे नए विश्वासियों का सिंचन-कार्य अच्छी तरह से करने में मदद की। वह आपसी संबंधों की रक्षा नहीं कर रहा था। जब उसने कोई समस्या देखी, तो संगति कर खुद को जानने में लोगों का मार्गदर्शन किया। जब उसने भ्रष्टता दिखाई, तो वह उसके बारे में ईमानदार रहा, लोगों से अपनी प्रशंसा करवाने की कोशिश नहीं की। वह सत्य का अनुसरण करने और कलीसिया का कार्य बनाए रखने में सक्षम था, मुझे अपनी कमियाँ सुधारने के लिए उससे सीखना चाहिए, ईर्ष्या, अवज्ञा, यहाँ तक कि बदला लेने के लिए उसके दोष खोजने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मैंने यह भी देखा कि संकेत प्राप्त करना और आलोचना किया जाना मेरे लिए परमेश्वर की सुरक्षा और उद्धार है, जिनसे अपनी भ्रष्टता जानने और गलतियाँ सुधारने में मदद मिलती है। परमेश्वर हमें देख रहा है, वह उम्मीद करता है कि हम सिद्धांतों के अनुरूप काम करेंगे। मैंने महसूस किया कि मैं परमेश्वर की जाँच स्वीकारने, अपनी भ्रष्टता जाँचकर तेजी से बदलाव लाने, और सिद्धांत के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार हूँ।

मैं अब भाई मैथ्यू से ईर्ष्या नहीं करती। मैं उसकी संगति और संकेत स्वीकार करने में सक्षम हूँ। सभाओं में जब मैं दूसरों से प्रश्न पूछती हूँ, तो मैं जो कहना चाहती हूँ उसे व्यवस्थित करती हूँ, ताकि भाई-बहन स्पष्ट समझ जाएँ। जब वे चुप होते हैं और सक्रिय रूप से संगति में नहीं जुड़ पाते, तो मैं उनके साथ संवादपरक चर्चा पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करती हूँ। सभाओं को और ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए मैं दूसरों के साथ पहले ही ज्यादा संवाद कर लेती हूँ, ताकि उनकी व्यावहारिक समस्याओं का पता लगाकर उन्हें परमेश्वर के वचनों पर संगति के जरिये हल कर सकूँ। सामान्य तौर पर मैं परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़ने और सत्य से लैस होने की कोशिश करती हूँ, ताकि उनकी कठिनाइयाँ हल करने में ज्यादा मददगार हो सकूँ। मैंने जो थोड़ा-सा बदलाव किया है, यह परमेश्वर का उद्धार है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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