सुसमाचार साझा करने का एक अनुभव

23 अप्रैल, 2022

फँसूँ, दक्षिण कोरिया

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के बाद, मैंने सुसमाचार साझा करना शुरू किया। मैंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि चाहे मुझे कितनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़े, मैं अपना कर्तव्य अच्छे से करूंगी, ताकि परमेश्वर की भेड़ें उसकी वाणी को सुन सकें और उसके समक्ष आ सकें।

फरवरी 2018 में, मैं फिलीपींस के भाई मेल से ऑनलाइन मिली। वे डिविनिटी स्कूल में काम करते थे, सबसे पहले हमने इन विषयों पर बहुत सी बातें कीं जैसे बुद्धिमान और मूर्ख कुँवारियां कौन हैं, स्वर्गारोहण क्या है आदि आदि। जब यह सवाल सामने आया कि राज्य में कौन प्रवेश कर सकता है, मैंने भाई मेल से पूछा, "क्या आपको लगता है कि प्रभु में विश्वास करने वाले हम सभी लोग अंत में स्वर्ग के राज्य में जाएंगे?" उन्होंने गर्व से कहा, "बेशक। इफिसियों 2:8-9 में, पौलुस ने कहा था, 'क्योंकि विश्‍वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्‍वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे।' आस्था के द्वारा हमें धर्मी ठहराया गया है और अगर हम अंत तक टिके रहे तो हमें ज़रूर बचाया जाएगा। जब प्रभु वापस आएंगे, वे हमें सीधे राज्य में लेकर जाएंगे। अगर हमें इस बारे में कोई भी संदेह है, तो यह प्रभु यीशु के उद्धार से इनकार करना और आस्था की कमी है।" उनके ऐसा कहने पर, मैंने उनसे पूछा, "आप कहते हैं कि आस्था के द्वारा हम धर्मी ठहराये जाते हैं और अनुग्रह से बचाए जाते हैं, इसलिए हम राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। क्या बाइबल में इस बात का कोई आधार है? क्या प्रभु यीशु ने ऐसा कहा था? क्या पवित्र आत्मा ने ऐसा कहा था? बाइबल में आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने और बचाये जाने की बात कही गई है, लेकिन इसमें यह नहीं कहा है कि ऐसा करने पर हम राज्य में प्रवेश कर पाएंगे। यह कहने का कोई आधार नहीं है। तो क्या यह केवल एक इंसानी धारणा नहीं है?"

मेल हैरान रह गये और धीरे से कहा, "आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने का मतलब क्या राज्य में प्रवेश करना नहीं है?" फिर मैंने उन्हें बाइबल के कुछ पद भेजे: "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। "मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे" (मत्ती 18:3)। "उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं" (प्रकाशितवाक्य 14:5)। "इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:45)। फिर मैंने कहा, "राज्य में प्रवेश करने की शर्तों को लेकर प्रभु के वचन बहुत स्पष्ट हैं। प्रभु पवित्र है, और उसकी अपेक्षा है कि हम मासूम बच्चे की तरह शुद्ध, ईमानदार और निष्कपट बनें, भ्रष्टता को त्याग कर शुद्ध हो जाएं; ऐसे लोग बनें जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हुए उसकी इच्छा के अनुसार काम करें। ऐसा करके ही हम राज्य के लिए योग्य बन सकते हैं। क्या हम उन अपेक्षाओं को पूरा कर पाये हैं? क्या आप में ऐसा कहने की हिम्मत है कि आप कभी झूठ नहीं बोलते? क्या आप में ऐसा कहने की हिम्मत है कि आप पूरी तरह पाप से मुक्त होकर शुद्ध हो चुके हैं?" मेल ने कुछ भी नहीं कहा। मैंने अपनी सहभागिता जारी रखी: "अगर हम प्रभु के सामने अपने पाप स्वीकार करके पश्चाताप करते हैं, तो आस्था के द्वारा हमें धर्मी ठहराया जाएगा और अनुग्रह से हम बचाये जाएंगे; यह बात सही है। लेकिन आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने और अनुग्रह से बचाये जाने का असल में क्या मतलब है? हम सभी जानते हैं कि व्यवस्था के युग में, परमेश्वर ने मूसा के माध्यम से व्यवस्था और आज्ञाएं जारी करके लोगों के जीवन के लिए मार्गदर्शन दिया, इस युग के अंत तक, कोई भी व्यवस्था के अनुसार नहीं चल रहा था। हर कोई अधिक से अधिक पाप कर रहा था। हर कोई व्यवस्था के तहत दंडित होने या मृत्यु का सामना करने के खतरे में था। यही परमेश्वर के देहधारी होने और मनुष्य की पाप बलि के तौर पर सलीब पर चढ़ने और इंसान को व्यवस्था से मुक्त करने का प्रसंग था। उसके बाद, जब तक लोगों ने प्रभु यीशु को अपने उद्धारक के रूप में स्वीकार किया और पाप को स्वीकार करके पश्चाताप किया, उनके पापों को माफ़ किया गया और व्यवस्था का पालन न करने पर उन्हें दंडित नहीं किया गया। इसका मतलब है कि प्रभु अब हमें पापी नहीं मानता है, प्रभु का छुटकारा पाने के कारण हमें धार्मिक कहा जा सकता है, हम परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करने और उस अनुग्रह, शांति और खुशी का आनंद लेने के काबिल हैं जो प्रभु ने हमें दिया है। यही कारण है कि आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने और अनुग्रह से बचाये जाने का मतलब है कि आस्था के ज़रिये हमारे पापों को माफ़ कर दिया गया है और हम व्यवस्था के तहत दंडित नहीं होंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम पाप से मुक्त हो गए या शुद्ध हो गए, या हम सचमुच धार्मिक या राज्य में जाने के काबिल बन गए।"

मेल ने हैरानी के साथ जवाब दिया, "तो आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने का मतलब सिर्फ़ यही है कि हमारे पापों को माफ़ कर दिया गया है और अब प्रभु हमें पापी नहीं मानता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम धार्मिक हैं और राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। हमारे पादरी ने कभी इसके बारे में बात नहीं की।" फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के इन अंशों को पढ़कर सुनाया। "उस समय यीशु का कार्य समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाना था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; अगर तुम उस पर विश्वास करते हो, तो वह तुम्हें छुटकारा दिलाएगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते, तो तुम पाप के नहीं रह जाते, तुम अपने पापों से मुक्त हो जाते हो। यही बचाए जाने और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ है। फिर विश्वासियों के अंदर परमेश्वर के प्रति विद्रोह और विरोध का भाव था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया है, बल्कि यह था कि मनुष्य अब पापी नहीं रह गया है, उसे उसके पापों से मुक्त कर दिया गया है। अगर तुम विश्वास करते हो, तो तुम फिर कभी भी पापी नहीं रहोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2))। "क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है। ... मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। "तुम सिर्फ यह जानते हो कि यीशु अंत के दिनों में उतरेगा, परन्तु वास्तव में वह कैसे उतरेगा? तुम लोगों जैसा पापी, जिसे परमेश्वर के द्वारा अभी-अभी छुड़ाया गया है, और जो परिवर्तित नहीं किया गया है, या सिद्ध नहीं बनाया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो कि अभी भी पुराने अहम् वाले हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और कि परमेश्वर द्वारा उद्धार की वजह से तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुम्हें बदला नहीं गया तो तुम संत जैसे कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता से घिरे हुए हो, स्वार्थी और कुटिल हो, मगर तब भी तुम यीशु के साथ अवतरण चाहते हो—क्या तुम इतने भाग्यशाली हो सकते हो? तुम परमेश्वर पर अपने विश्वास में एक कदम चूक गए हो: तुम्हें मात्र छुटकारा दिया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें परिवर्तित और शुद्ध करने का कार्य करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुटकारा दिया जाता है, तो तुम पवित्रता को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। इस तरह से तुम परमेश्वर के आशीषों में साझेदारी के अयोग्य होंगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य के एक कदम का सुअवसर खो दिया है, जो कि परिवर्तित करने और सिद्ध बनाने का मुख्य कदम है। और इसलिए तुम, एक पापी जिसे अभी-अभी छुटकारा दिया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पदवियों और पहचान के सम्बन्ध में)

परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैंने सहभागिता में कहा: "अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने मानवजाति की ज़रूरतों के आधार पर छुटकारे के कार्य का एक चरण पूरा किया। उसने पश्चाताप का मार्ग बताया, ताकि लोग पाप के बारे में अपने ज्ञान के आधार पर पाप को स्वीकार करके पश्चाताप कर सकें, प्रभु से प्रेम करने की कोशिश कर सकें, संसार के लिए रोशनी बन सकें, दूसरों से खुद के जैसा प्रेम कर सकें, आदि आदि। लोगों का अच्छे व्यवहार सीखना छुटकारे के कार्य का परिणाम था। फिर प्रभु यीशु ने हमें छुटकारा दिलाया, हमारे पापों को माफ़ किया गया और वह हमें पापी नहीं मानता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम पाप से मुक्त हो गए या शुद्ध हो गए, क्योंकि हमारी पापी प्रकृति अब भी हमारे अंदर समायी है और हम हमेशा अहंकार, कपट, धोखा, दुष्टता और विद्वेष जैसे अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं। जैसे, अगर हमारे पास कोई खूबी या क्षमता है या हमारे अंदर कोई काबिलियत है, तो हमें लगता है कि हम बहुत अच्छे हैं। हम खुद को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और दूसरों को नीचा दिखाते हैं। जब हम अपने काम में कोई त्याग करते हैं या मामूली परेशानी का सामना करते हैं, तो हम दिखावा करने में पीछे नहीं रहते और खुद को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, ताकि दूसरे हमारा सम्मान करें। जब हम देखते हैं कि कोई दूसरा हमसे बेहतर है, तो हम उसके प्रति ईर्ष्या या नफ़रत का भाव रख सकते हैं। जब कोई बात हमारे हितों से जुड़ी होती है, तो हम झूठ बोल सकते हैं और धोखा दे सकते हैं। कष्टों, परीक्षणों, आपदाओं, बीमारी या पारिवारिक संकट का सामना होने पर, कभी-कभी हम परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष देते हैं या उसे अस्वीकार करके धोखा देते हैं। इन सारी चीज़ों से पता चलता है कि हम अभी भी पाप की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, हम अब भी पाप और परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं। दो हज़ार सालों तक, हर कोई पाप करने और उसे स्वीकार करने के दुष्चक्र में फँसा रहा है, एक भी इंसान इससे मुक्त नहीं हो पाया। यह बिल्कुल स्पष्ट है। अगर हम प्रभु की अपेक्षाओं से हमारी तुलना करें, जैसे कि झूठ नहीं बोलना, दोषों से मुक्त होना और शुद्ध किया जाना, तो हम कहीं आस-पास भी नहीं हैं। शायद हम परमेश्वर का गुणगान न कर सकें या उसकी गवाही न दे सकें। हमारे जैसे लोग राज्य में प्रवेश कैसे कर पाएंगे? प्रभु यीशु ने कहा था, 'मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है' (यूहन्ना 8:34-35)। अगर हम शुद्ध होना और राज्य में प्रवेश पाना चाहते हैं, तो हमें अंत के दिनों में परमेश्वर के वापस आने और हमें पाप से छुटकारा दिलाने का काम करने की ज़रूरत होगी, ताकि हमारे शैतानी स्वभाव का समाधान हो सके और हमारे पाप के साथ-साथ हमारे परमेश्वर के विरोध के कारण को जड़ से ख़त्म किया जा सके।"

इस सहभागिता के बाद, मेल ने कहा, अब उसे समझ आ गया है कि प्रभु यीशु ने सिर्फ़ छुटकारे का कार्य किया, और भले ही आस्था के द्वारा हमें धर्मी ठहराया गया हो, मगर हम अब भी पाप करते हैं और पाप की बेड़ियों में जकड़े हैं, इसलिए हम वाकई राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। हालांकि, इस पर थोड़ा विचार करने के बाद, उन्होंने पूछा "लेकिन आपने कहा कि प्रभु अंत के दिनों में उद्धार के कार्य का एक और चरण पूरा करने वाला है। इससे लगता है कि हम प्रभु यीशु के उद्धार को अस्वीकार कर रहे हैं। हमारी आस्था के ज़रिये हमारे पापों को माफ़ किया गया है, तो भले ही हम धार्मिक न हों, परमेश्वर का उद्धार पूर्ण है। प्रभु यीशु के कार्य के पूरा होने में इसका ध्यान रखा गया है, इसलिए अब कोई उद्धार नहीं होगा। अगर हमें पहले ही बचाया जा चुका है, तो हम फिर से बचाये नहीं जा सकते। क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि प्रभु का उद्धार निरर्थक था? बहन, ऐसा लगता है कि आपके मन में ये संदेह सिर्फ़ इसलिए हैं क्योंकि आपको प्रभु के उद्धार में आस्था नहीं है।"

इस पर मैंने सोचा, "भाई मेल काफी युवा हैं लेकिन उनके मन में कुछ मजबूत धारणाएं हैं। वे इस बात से सहमत हैं कि आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने से किसी को राज्य में प्रवेश नहीं मिल सकता, लेकिन वे अंत के दिनों में परमेश्वर के उद्धार कार्य को स्वीकार नहीं कर सकते।" मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उनसे मार्गदर्शन करने के लिए कहा। प्रार्थना करने के बाद, मैंने भाई मेल से कहा, "बाइबल में यह भविष्यवाणी की गई है कि अंत के दिनों में परमेश्वर अपने कार्य का एक और चरण पूरा करेगा। 2 कुरिन्थियों 1:10 में कहा गया है: 'उसी ने हमें मृत्यु के ऐसे बड़े संकट से बचाया, और बचाएगा; और उस पर हमारी यह आशा है कि वह आगे को भी बचाता रहेगा।' इब्रानियों 9:28 में भी कहा गया है: 'वैसे ही मसीह भी बहुतों के पापों को उठा लेने के लिये एक बार बलिदान हुआ; और जो लोग उसकी बाट जोहते हैं उनके उद्धार के लिये दूसरी बार बिना पाप उठाए हुए दिखाई देगा।' पतरस 1:5 में कहा गया है: 'जिनकी रक्षा परमेश्‍वर की सामर्थ्य से विश्‍वास के द्वारा उस उद्धार के लिये, जो आनेवाले समय में प्रगट होनेवाली है, की जाती है।' और यूहन्ना 12:47-48 में कहा गया है: 'यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा।' 1 पतरस 4:17 कहता है: 'क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए।' इन पदों में कहा गया है: 'वह आगे को भी बचाता रहेगा।' 'और जो लोग उसकी बाट जोहते हैं उनके उद्धार के लिये दूसरी बार दिखाई देगा।', 'उस उद्धार के लिये, जो आनेवाले समय में प्रगट होनेवाली है', और 'वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए।' इन सारी बातों का मतलब यह है कि अंत के दिनों में परमेश्वर अपने कार्य का एक और चरण पूरा करेगा, लेकिन मानवजाति को हमारे पापों से छुटकारा दिलाने के लिए नहीं, बल्कि हमारा न्याय करने और हमें शुद्ध करके पूरी तरह बचाने के लिए। प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य ने हमारे पापों से मुक्ति दिलाई और अंत के दिनों में परमेश्वर हमेशा के लिए हमारी पापी प्रकृति से मुक्ति दिलाने के लिए न्याय का कार्य करेगा, ताकि हमें पापों से मुक्त करके शुद्ध किया जा सके।"

फिर भाई मेल ने हैरान होते हुए कहा, "तो इसका मतलब है कि परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने वाला है, इससे उद्धार का एक और चरण पूरा होगा। अब मुझे बताइये, परमेश्वर न्याय का यह कार्य कैसे करता है?"

मैंने उन्हें यह सहभागिता सुनाई: "इब्रानियों 4:12 कहता है: 'क्योंकि परमेश्‍वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है; और प्राण और आत्मा को, और गाँठ-गाँठ और गूदे-गूदे को अलग करके आर-पार छेदता है और मन की भावनाओं और विचारों को जाँचता है।'" फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़कर सुनाये। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। "इस युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य मुख्य रूप से मनुष्य के जीवन के लिए वचनों का पोषण देना; मनुष्य की प्रकृति, सार और भ्रष्ट स्वभाव उजागर करना; और धर्म संबंधी धारणाओं, सामंती सोच और पुरानी पड़ चुकी सोच मिटाना है; मनुष्य का ज्ञान और संस्कृति परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए जाने के माध्यम से शुद्ध की जानी चाहिए। अंत के दिनों में, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए परमेश्वर चिह्नों और चमत्कारों का नहीं, वचनों का उपयोग करता है। वह मनुष्य को उजागर करने, उसका न्याय करने, उसे ताड़ना देने और उसे पूर्ण बनाने के लिए वचनों का उपयोग करता है, ताकि परमेश्वर के वचनों में मनुष्य परमेश्वर की बुद्धि और मनोरमता देखने लगे, और परमेश्वर के स्वभाव को समझने लगे, और ताकि परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर के कर्मों को निहारे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आज परमेश्वर के कार्य को जानना)। इस अंश को पढ़ने के बाद मैंने अपनी सहभागिता जारी रखी। "अंत के दिनों में, लौटकर आया प्रभु यीशु, सर्वशक्तिमान परमेश्वर देहधारी होकर धरती पर आया है और वह न्याय का कार्य करने के लिए सत्य का इस्तेमाल कर रहा है। वह वे सभी सत्य व्यक्त करता है जो मानवजाति को शुद्ध करके पूरी तरह बचाता है, लोगों के शैतानी स्वभाव को उजागर करके उनका विश्लेषण करता है, परमेश्वर के बारे में हमारी धारणाओं और बेतुकी समझ के साथ-साथ हमारे अंदर जड़ें जमाये शैतानी फलसफों, विषों और नज़रियों को उजागर करता है। इस तरह हम सभी प्रकार के सत्य को समझ सकते हैं, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उसके पवित्र और सुंदर सार के साथ-साथ उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को जान सकते हैं। परमेश्वर के वचन उन भ्रष्टताओं का खुलासा करते हैं जिन्हें हमने पहले कभी नहीं देखा; परमेश्वर के वचनों में हुए खुलासे के माध्यम से हम उसके और हमारे, दोनों के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं। फिर धीरे-धीरे हमारे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करके बदल दिया जाता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बहुत से वचनों को पढ़ने, कुछ सत्यों को समझने और आस्था के ज़रिये धर्मी ठहराये जाने और अनुग्रह के ज़रिये उद्धार पाने की हमारी धारणाओं की कुछ समझ हासिल करने के बाद, हम देखते हैं कि हमारी गंदगी और भ्रष्टता के बावजूद राज्य में प्रवेश करने की हमारी चाह, अहंकारी और अनुचित है। फिर हम सचमुच परमेश्वर के सामने पश्चाताप करने लगते हैं और इसका मतलब है कि हम परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करने लगते हैं।"

यह सुनकर भाई मेल ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं वाकई परमेश्वर द्वारा किये जा रहे न्याय को महसूस कर रहा हूँ। प्रभु यीशु में आस्था के अपने सभी वर्षों पर विचार करते हुए, मैंने सोचता था कि आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने और अनुग्रह से बचाये जाने का मतलब है कि मैं राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ और मुझे इसमें कोई संदेह नहीं था कि यह सही है। अब मैं समझता हूँ कि मेरी आस्था मेरी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित थी और यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं थी।"

मैंने कहा, "यह सही है। अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से इन सारी बातों का खुलासा नहीं हुआ होता, तो हममें से कोई भी इसे समझ नहीं पाता।" उसके बाद, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक और अंश उन्हें पढ़कर सुनाया। "विजय का कार्य अन्तिम चरण क्यों है? क्या यह इस बात को प्रकट करने के लिए नहीं है कि मनुष्य के प्रत्येक वर्ग का अन्त कैसा होगा? क्या यह प्रत्येक व्यक्ति को, ताड़ना और न्याय के विजय कार्य के दौरान, अपना असली रंग दिखाने और फिर उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत करने के लिए नहीं है? यह कहने के बजाय कि यह मनुष्यजाति को जीतना है, यह कहना बेहतर होगा कि यह उस बात को दर्शाना है कि व्यक्ति के प्रत्येक वर्ग का अन्त किस प्रकार का होगा। यह लोगों के पापों का न्याय करने के बारे में है और फिर मनुष्यों के विभिन्न वर्गों को उजागर करना और इस प्रकार यह निर्णय करना है कि वे दुष्ट हैं या धार्मिक हैं। विजय-कार्य के पश्चात धार्मिक को पुरस्कृत करने और दुष्ट को दण्ड देने का कार्य आता है। जो लोग पूर्णत: आज्ञापालन करते हैं अर्थात जो पूर्ण रूप से जीत लिए गए हैं, उन्हें सम्पूर्ण कायनात में परमेश्वर के कार्य को फैलाने के अगले चरण में रखा जाएगा; जिन्हें जीता नहीं गया उनको अन्धकार में रखा जाएगा और उन पर महाविपत्ति आएगी। इस प्रकार मनुष्य को उसकी किस्म के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, दुष्कर्म करने वालों को दुष्टों के साथ समूहित किया जाएगा और उन्हें फिर कभी सूर्य का प्रकाश नसीब नहीं होगा, और धर्मियों को रोशनी प्राप्त करने और सर्वदा रोशनी में रहने के लिए भले लोगों के साथ रखा जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (1))। मैंने उनसे कहा, "परमेश्वर के वचनों के माध्यम से न्याय और उजागर किये जाने के बाद, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो जाते हैं और वे सचमुच धार्मिक बन जाते हैं। उनकी रक्षा की जा सकती है और वे भीषण आपदाओं से बचकर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन जो लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय कार्य को अस्वीकार करके केवल अनुग्रह पाने और बचाये जाने की सोचते हैं उन्हें परमेश्वर द्वारा उजागर करके हटा दिया जाएगा। आपदाएं आने पर वे रोते रहेंगे। इससे प्रकाशित वाक्य 22:11 की यह भविष्यवाणी पूरी होती है: 'जो अन्याय करता है, वह अन्याय ही करता रहे; और जो मलिन है, वह मलिन बना रहे; और जो धर्मी है, वह धर्मी बना रहे; और जो पवित्र है; वह पवित्र बना रहे।' इसी तरह धार्मिक लोगों को अधार्मिक लोगों से अलग किया जाएगा, और फिर परमेश्वर नेक लोगों को इनाम देना और दुष्टों को दंडित करना शुरू करेगा, वह लोगों के कर्मों के अनुसार उनके साथ व्यवहार करेगा।"

भाई मेल ने खुशी से जवाब दिया, "तो अंत के दिनों का न्याय का कार्य सिर्फ लोगों को शुद्ध करने का नहीं, बल्कि विभिन्न प्रकार के लोगों को उजागर करने का कार्य भी है। परमेश्वर का कार्य सचमुच बुद्धिमानी का कार्य है! हमारे पादरी ने हमेशा यही सिखाया कि आस्था के माध्यम से धर्मी ठहराया जाना और अनुग्रह के माध्यम से उद्धार पाना ठीक नहीं है। मैंने इस पर कभी विचार नहीं किया। मैं बस यह सोचकर उन धारणाओं से चिपका रहा कि प्रभु का उद्धार पहले ही पूरा हो चुका है और अब कोई उद्धार नहीं होगा; धर्मी ठहराये जाने और उद्धार पाने के साथ अब हम राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। अब इसके बारे में सोचकर शर्मिंदगी महसूस होती है। प्रभु की दया के लिए धन्यवाद कि उसने मुझे यह सहभागिता सुनने का मौका दिया। अब मैं अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय कार्य को स्वीकार करना चाहता हूँ।"

मैं यह देखकर रोमांचित थी कि वे अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय को स्वीकार करना चाहते थे। लेकिन कुछ दिनों के बाद जब मैं भाई मेल से मिली तो हैरान रह गई, उन्होंने कहा कि हफ़्ते के आखिर में वे अपने पादरी के घर गए और मेरी सहभागिता उनके साथ साझा की। उनके पादरी ने कहा कि मेरी बात गलत है, कि आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये जाने और अनुग्रह से उद्धार पाने की बात सही है और अंत के दिनों में परमेश्वर द्वारा न्याय किये जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। उन्होंने भाई मेल से यह भी कहा कि वे मेरे साथ सभी संपर्क तोड़ लें। मैं कह सकती थी कि ऐसा कहते हुए वे काफी निराश लग रहे थे और मैंने देखा कि अब वे अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय कार्य को स्वीकार करने को लेकर असमंजस में थे। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और उनसे मेरी गवाही में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा। फिर परमेश्वर के वचनों का एक अंश मेरे मन में आया। "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुमको इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टाचार को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुमको जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुमको परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। यह सही है। गवाही देने का मतलब सिर्फ अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों को बताना ही नहीं है। अहम बात यह है कि हम यह गवाही देने में अपने अनुभवों का इस्तेमाल करें कि परमेश्वर का न्याय कार्य वाकई लोगों को शुद्ध करके बचा सकता है। मैंने पाया कि मैं परमेश्वर के न्याय का सामना कर चुकी हूँ, तो क्यों न अपने निजी अनुभवों के बारे में उन्हें बताया जाये? इस विचार से मेरा मन शांत हो गया और मुझे आगे बढ़ने का मार्ग मिल गया।

मैंने भाई मेल से कहा, "अंत के दिनों में परमेश्वर उद्धार का एक और चरण पूरा करता है। प्रभु लौटकर आता है और न्याय का कार्य करता है; इस तथ्य से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। शैतान द्वारा भ्रष्ट किये जाने के बाद, हम अपनी प्रकृति के अनुसार सत्य से प्रेम नहीं करते और हम सचमुच इस पर अमल नहीं कर सकते। कुछ लोग खुद को काबू में कर सकते हैं या वे उपवास और प्रार्थना कर सकते हैं, लेकिन कोई भी पूरी तरह पाप से बचकर नहीं निकल सकता। जैसा कि कहा गया है, 'पहाड़ों और नदियों को उनकी जगह से हटाना आसान है, लेकिन इंसान की प्रकृति को नहीं।' अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण को स्वीकार किये बिना हमारी शैतानी प्रकृति हमारे भीतर अपनी जड़ें जमाये रहेगी और वह किसी भी पल हमारे शैतानी स्वभाव को प्रकट कर सकती है या हमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करने पर मजबूर कर सकती है। मेरा ही उदाहरण ले लीजिए। मैं बहुत अहंकारी इंसान थी। मुझमें कुछ काबिलियत थी और मैंने प्रभु की सेवा में बहुत कुछ किया था और त्याग भी किये थे। मुझे हमेशा यही लगता था कि मैं ऐसी इंसान हूँ जो परमेश्वर को खुशी देती है, लेकिन जब मैंने यह गवाही सुनी कि प्रभु यीशु लौट आया है और वह अंत के दिनों का न्याय कार्य कर रहा है, तो मैंने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया। मैं सोचती थी कि हम आस्था के द्वारा धर्मी ठहराये गए और अनुग्रह से बचाये गए हैं। उस समय मैंने बिना कोई सोच-विचार किये कह दिया, 'बिल्कुल नहीं। परमेश्वर और कोई कार्य नहीं करने जा रहा। हमें उसके न्याय के कार्य को स्वीकार करने की कोई ज़रूरत नहीं है।' उसके बाद भाई-बहन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के बारे में सहभागिता साझा करते रहे और आखिरकार मेरी धारणाएं बदल गईं। अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद, मैंने एक दिन अपने धार्मिक कार्यों के दौरान सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जिनसे मुझे वाकई शर्मिंदगी महसूस हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, 'ऐसा मत सोचो कि तुम एक स्वाभाविक रूप से जन्मी विलक्षण प्रतिभा हो, जो स्वर्ग से थोड़ी ही निम्न, किंतु पृथ्वी से कहीं अधिक ऊँची है। तुम किसी भी अन्य से ज्यादा होशियार होने से बहुत दूर हो—यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर जितने भी विवेकशील लोग हैं, उनसे तुम्हारा कहीं ज्यादा मूर्ख होना बड़ा प्यारा है, क्योंकि तुम खुद को बहुत ऊँचा समझते हो, और तुममें कभी भी हीनता की भावना नहीं रही, मानो तुम मेरे कार्यों की छोटी से छोटी बात पूरी तरह समझ सकते हो। वास्तव में, तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसके पास विवेक की मूलभूत रूप से कमी है, क्योंकि तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं है कि मेरा इरादा क्या करने का है, और उससे भी कम तुम्हें इस बात की जानकारी है कि मैं अभी क्या कर रहा हूँ। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम जमीन पर कड़ी मेहनत करने वाले किसी बूढ़े किसान के बराबर भी नहीं हो, ऐसा किसान, जिसे मानव-जीवन की थोड़ी-भी समझ नहीं है और फिर भी जो जमीन पर खेती करते हुए अपना पूरा भरोसा स्वर्ग के आशीषों पर रखता है' (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो लोग सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हैं : क्या वे जानवर नहीं हैं?)। '"असंभव" के बारे में अपनी राय जाने दो! लोग किसी चीज़ को जितना अधिक असंभव मानते हैं, उसके घटित होने की उतनी ही अधिक संभावना होती है, क्योंकि परमेश्वर की बुद्धि स्वर्ग से ऊँची उड़ान भरती है, परमेश्वर के विचार मनुष्य के विचारों से ऊँचे हैं, और परमेश्वर का कार्य मनुष्य की सोच और धारणा की सीमाओं के पार जाता है। जितना अधिक कुछ असंभव होता है, उतना ही अधिक उसमें सत्य होता है, जिसे खोजा जा सकता है; कोई चीज़ मनुष्य की धारणा और कल्पना से जितनी अधिक परे होती है, उसमें परमेश्वर की इच्छा उतनी ही अधिक होती है' (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 1: परमेश्वर के प्रकटन ने एक नए युग का सूत्रपात किया है)। 'यदि तुम लोग परमेश्वर के प्रकटन को देखने और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करने की इच्छा रखते हो, तो तुम लोगों को पहले अपनी धारणाओं को त्याग देना चाहिए। तुम लोगों को यह माँग नहीं करनी चाहिए कि परमेश्वर ऐसा करे या वैसा करे, तुम्हें उसे अपनी सीमाओं और अपनी धारणाओं तक सीमित तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, तुम लोगों को खुद से यह पूछना चाहिए कि तुम्हें परमेश्वर के पदचिह्नों की तलाश कैसे करनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के प्रकटन को कैसे स्वीकार करना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के नए कार्य के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए। मनुष्य को ऐसा ही करना चाहिए। चूँकि मनुष्य सत्य नहीं है, और उसके पास भी सत्य नहीं है, इसलिए उसे खोजना, स्वीकार करना और आज्ञापालन करना चाहिए' (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 1: परमेश्वर के प्रकटन ने एक नए युग का सूत्रपात किया है)।"

"परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे गहरी चोट लगी। मैंने जाना कि मैं कितनी अहंकारी हूँ। जब अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य मेरे सामने आया, तो मैंने उसकी खोज या जांच-पड़ताल नहीं की; मैंने परमेश्वर के वचनों को ईमानदारी से नहीं पढ़ा, ताकि यह जान सकूँ कि यह उसकी वाणी है। मैंने बस अहंकार में कह दिया कि परमेश्वर और कोई कार्य नहीं करेगा, जैसे कि मुझे परमेश्वर के कार्य के बारे में पता हो। मैं बस शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई एक और इंसान थी। मैं परमेश्वर के कार्य की थाह कैसे ले सकती थी? परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और वह कोई भी कार्य अपनी प्रबंधन योजना के अनुसार ही करता है। मानो कि परमेश्वर को अपना कार्य करने के लिए मुझसे मंज़ूरी लेनी होगी, क्या यह बात मेरी धारणाओं के अनुरूप है! मेरा 'बिल्कुल नहीं' कहना मेरे द्वारा परमेश्वर को सीमाओं में बाँधना था, इससे यह भी पता चलता था कि मैं परमेश्वर का प्रतिरोध और निंदा कर रही थी। यह उन फ़रीसियों की तरह था जो हमेशा मसीहा के आने का इंतज़ार करते रहे, लेकिन जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, वे उसे नहीं जान पाये। उन्होंने अपनी धारणाओं के आधार पर उसकी आलोचना और निंदा की और यहां तक कि उसे सलीब पर लटका दिया। आखिरकार उन्होंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और उसके द्वारा दंडित किये गए। मेरा व्यवहार उन फ़रीसियों से अलग नहीं था जिन्होंने प्रभु यीशु का प्रतिरोध किया था! यह एहसास होने पर, मैं यह भी समझ गई कि प्रभु के अनुग्रह का आनंद लेना और कुछ अच्छे काम करना, स्वभाव में होने वाले बदलाव की जगह नहीं ले सकता। जब तक मैंने परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव नहीं किया था, ऐसी कोई भी घटना होने पर, जो मुझे पसंद नहीं थी, मेरा अहंकार सिर उठा लेता था, यहां तक कि मेरी सारी तर्कशक्ति ख़त्म हो जाती थी। मैं सोचती थी कि मैं सच्चे मार्ग की रक्षा कर रही हूँ और परमेश्वर के प्रति समार्पित हूँ, जबकि हर समय परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी निंदा करती रहती थी। मेरे पास ज़रा सी भी समझ नहीं थी। यह कितना भयावह है। परमेश्वर के वचनों के न्याय के माध्यम से मुझे मेरे अहंकारी स्वभाव की कुछ समझ हासिल हुई और फिर जैसे ही मेरा अहंकार सिर उठाने लगता, मैं न्याय और ताड़ना से संबंधित परमेश्वर के वचनों को पढ़ती और आत्मचिंतन करती। मुझे पता भी नहीं चला और मैं एक विनम्र इंसान बन गई; मुझे अपनी कुछ आंतरिक चेतना और तर्कशक्ति फिर से वापस मिल गई। ऐसी कोई भी घटना होने पर, जो मुझे पसंद नहीं थी, बेपरवाही से चीज़ों की आलोचना करने और उन्हें सीमाओं में बाँधने के बजाय मैं सत्य की खोज करने में सक्षम हो गई। परमेश्वर के प्रति मेरी श्रद्धा भी बढ़ गई और धीरे-धीरे मुझमें इंसानी समझ आ गई। मैं यह समझ गई कि न्याय और ताड़ना का मतलब धीरे-धीरे बदलाव और शुद्धिकरण है; यही परमेश्वर के वचनों के माध्यम से हमारे शैतानी स्वभाव को बदलने की प्रक्रिया है। परमेश्वर के वचन कठोर और नुकीले हैं, लेकिन यह मानवजाति के लिए उसका और भी महान, और भी गहरा प्रेम है। जैसा कि कहा गया है, 'कड़वी दवा आपकी बीमारी को ठीक करती है।' परमेश्वर द्वारा इस तरीके से न्याय करके हमें उजागर किया जाना हमारे भ्रष्ट स्वभाव में बेहतर बदलाव लाने के लिए है। परमेश्वर ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह हमसे बहुत अधिक प्रेम करता है। इन सारी बातों को समझने के बाद, मैं परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को और अधिक स्वीकार करना चाहती थी; मैं जल्द से जल्द अपने अहंकार को त्यागकर एक इंसान की तरह जीवन जीना चाहती थी। मैं यह भी समझ गई कि अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य ही वास्तव में हमारे जीवन की ज़रूरत है और केवल इस प्रकार का न्याय ही हमें पाप से बचा सकता है। न्याय और ताड़ना वाकई हमारे लिए परमेश्वर का उद्धार है और यह प्रेम, अनुग्रह या पाप बलि से बड़ा है।"

मेरी सहभागिता सुनने के बाद, भाई मेल ने खुश होकर कहा, "प्रभु यीशु में आस्था के अपने सभी वर्षों में, मैंने कलीसिया के किसी और सदस्य को खुद की भ्रष्टता के बारे में बात करते कभी नहीं सुना। वे बस यही दिखावा करते हैं कि वे कितने अच्छे हैं। बाहर से हर कोई एक दूसरे के साथ सहनशील होने का अभ्यास करता है, लेकिन जब उनके अपने हित शामिल होते हैं, तो सारा प्रेम गायब हो जाता है। अब मैं समझता हूँ कि ऐसा हमारे शैतानी स्वभाव के कारण है; परमेश्वर के वचनों के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव किये बिना हम खुद को कभी नहीं जान पाएंगे या परमेश्वर के वचनों को सुनकर उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाएंगे। हम वाकई दूसरों से खुद की तरह प्रेम भी नहीं कर पाएंगे। न्याय और ताड़ना वास्तव में मानवजाति के लिए परमेश्वर का उद्धार है और हमें इसी की ज़रूरत है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन वाकई सत्य हैं। अब मैं दूसरे लोगों की बात नहीं सुनूंगा। मैं केवल सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करूंगा और उसके वचनों को स्वीकार करूंगा!" ऐसा कहने के बाद, उन्होंने हमारे चैट ग्रुप का नाम बदलकर "यह मेरा असली परिवार है" रख लिया। फिर उन्होंने आंसू भरी आँखों के साथ कहा, "मुझे परमेश्वर मिल गया; मुझे मेरा परिवार मिल गया। जहां भी मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकता हूँ वह मेरा परिवार है!" उनको ऐसा कहते सुनकर मेरा मन भावविभोर हो गया।

भाई मेल के साथ सुसमाचार साझा करने के मेरे अनुभव ने मुझे इस बात की गहरी समझ दी कि सत्य की समझ नहीं होने पर लोगों को भटकाया जा सकता है और सभी तरह की धार्मिक धारणाओं और भ्रांतियों में बांधकर रखा जा सकता है। हमें वाकई परमेश्वर पर भरोसा करना होगा, परमेश्वर के वचनों को उन्हें पढ़कर सुनाना होगा और सत्य के बारे में सहभागिता करनी होगी, परमेश्वर के उद्धार की गवाही देने के लिए उसके कार्य के अनुभव की हमारी असली समझ का इस्तेमाल करना होगा। लोगों को सत्य समझना होगा और अपनी धारणाओं पर सच्ची समझ विकसित करनी होगी, ताकि वे सचमुच परमेश्वर के समक्ष आ सकें। मैंने यह भी अनुभव किया कि मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितना मुश्किल है। मैं परमेश्वर के साथ काम करना और सच्ची आस्था रखने वाले ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाना चाहती हूँ, ताकि उसे सुकून मिल सके।

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