मैं अपने विचार साझा करने का साहस क्यों नहीं करती

05 फ़रवरी, 2023

पिछले साल मार्च में मुझे एक कलीसिया में सुपरवाइजर का काम सौंपा गया। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि मुझे लगा कि सुपरवाइजर चुने जाने का मतलब था कि सारी टीमों में मेरा काम सबसे अच्छा था और मैं दूसरों से कहीं बेहतर थी। मैंने मन ही मन शपथ भी ली कि आगे और कठिन परिश्रम करके भाई-बहनों को दिखा दूँगी कि मैं इस पद के लिए बनी हूँ।

सुपरवाइजर के तौर पर पहले दिन मेरे साथी चेन मिंग ने कहा, “कुछ टीमों का काम ठीक नहीं चल रहा है। उन्हें साथ बैठाकर कल ही संगति करनी होगी।” यह सुनकर मैं थोड़ी परेशान हो गई क्योंकि मुझे अभी तक न तो सभी टीमों के कार्य के स्तर का पता था, न ही मैं हरेक की समस्याओं से भलीभाँति परिचित थी। अगर मेरी संगति से उनकी दशा और समस्याओं का समाधान नहीं हुआ तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं यह न सोचें कि व्यावहारिक समस्याएँ हल न कर पाने के कारण मैं सुपरवाइजर होने लायक नहीं हूँ? मैंने सोचा कि चेन मिंग से कुछ दिन के लिए बैठक टालने के लिए कहती हूँ। लेकिन कुछ दिन से कई टीमों का प्रदर्शन खराब चल रहा था तो यह मसला टाला नहीं जा सकता था। तो अब क्या करूँ? इस बात पर मैं सोच ही रही थी तभी चेन मिंग ने मुझे प्रत्येक टीम की ताजा प्रगति रिपोर्ट भेज दी। मैंने जल्दी से रिपोर्ट पढ़ी और अगले दिन की बैठक की तैयारी में जुट गई।

अगले दिन बैठक में एक भाई ने कहा कि उसने अभी-अभी सुसमाचार-प्रचार का प्रशिक्षण लेना शुरू किया है और नहीं जानता कि क्या वह विभिन्न धार्मिक धारणाओं का ठीक से खंडन कर पा रहा है या नहीं, इसलिए उसने अपनी समझ-बूझ पर चर्चा करते हुए हमसे उसकी कमियाँ बताने को कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “इसका अच्छी तरह से विश्लेषण करके मैं भाई-बहनों को दिखा देती हूँ कि इस सुपरवाइजर के पास भी कुछ ध्यान देने लायक विचार हैं।” इसलिए, उसकी संगति पर गहन ध्यान केंद्रित करने और अच्छी तरह मनन करने के बाद मैंने कहा, “मेरे हिसाब से तुम्हारी संगति ठीक है और मसला हल करने में सक्षम रहेगी।” ऐसा कहते ही चेन मिंग ने कहा : “इस धारणा को दूर करने के सबसे प्रमुख बिंदु को तुमने साफ-साफ नहीं समझाया। यह अस्पष्ट था, लोग आसानी से नहीं समझ पाएँगे।” इसके बाद उसने समस्या के कुछ गहन बिंदुओं पर संगति की। जब मैंने देखा कि चेन मिंग की संगति कितनी व्यावहारिक और सटीक थी और किस प्रकार दूसरे लोगों ने सहमति में सिर हिलाए तो मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया। मैंने सोचा, “ये भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या यह सोचेंगे कि तरक्की पाने वाली सुपरवाइजर उतनी होशियार नहीं है, क्योंकि मैं इतनी स्पष्ट समस्या भी नहीं पकड़ पाई?” मन में ये विचार आते ही मुझे कुछ नहीं सूझा और मैं शर्मसार हो गई। किसी से नजरें मिलाने का साहस न कर सकी, बस कंप्यूटर पर टकटकी लगाए रही। लगा जैसे वक्त की रफ्तार थम गई हो। ठीक उसके बाद भाई-बहन दूसरे मसलों पर संगति करने लगे। मैं बहुत बेचैन और परेशान थी कि अगर अगली बार मेरे विचार फिर से गलत हुए तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। क्या वे सोचेंगे कि मुझमें समस्याओं का विश्लेषण करने की खूबी नहीं है, क्या सुपरवाइजर होने की मेरी काबिलियत पर सवाल करेंगे? यह विचार आते ही अपनी राय साझा करने की हिम्मत नहीं हुई। मन ही मन सोचा, “मैं पहले चेन मिंग को बोलने दूँगी वह जो बताएगा, उसी का सारांश पेश कर दूँगी। इस तरह कम से कम कुछ गलत तो नहीं बोलूँगी और कोई मुझे नीची नजरों से भी नहीं देखेगा।” लेकिन मैंने जितना बचने की कोशिश की, उतनी ही बेनकाब हो गई। तभी एक बहन ने मुझसे कहा, “क्या यह संगति मसले को हल कर सकती है?” मेरे हाँ कहते ही, मेरे जवाब देते ही चेन मिंग फिर से बोल पड़ा, “तुम्हारी संगति ज्यादा सरल है। तुमने उसकी भ्रांत धार्मिक धारणाओं का पर्याप्त स्पष्टता से खंडन नहीं किया, अब भी कुछ पहलू रह गए हैं।” उसकी राय सुनने के बाद मैंने मन ही मन सोचा, “इन मसलों को लेकर चेन मिंग सही है। इससे जाहिर हो गया कि मेरी सोच एक बार फिर गलत है।” मुझे मानो सरेआम थप्पड़ पड़ा हो और मुझे बुरा भी बहुत लगा। मैंने लगातार दो बार गलत राय दी। अब तो भाई-बहन मेरे बारे में जाने क्या सोच रहे होंगे? यह देखते हुए कि सुसमाचार साझा करने के बारे में मुझमें अंतर्दृष्टि नहीं है, क्या वे यह सोचेंगे कि मेरा काम कमतर है, मुझे सुपरवाइजर कैसे चुन लिया गया? जितना ज्यादा सोचती, उतना ही बुरा लगता—यह बेहद शर्मनाक बात थी मैं दूर कहीं जाकर छिप जाना चाहती थी। बाद में, दूसरे मसलों पर चर्चा करते हुए मेरा मन ही नहीं होता था कि मैं थोड़ा भी विचार करूँ इसलिए चेन मिंग की बात पूरी होने के बाद मैं बस यूं ही कुछ कह देती। कभी-कभी तो कुछ भी न बोलती। इसी तरह, सारा दिन बीत जाता और मैं खालीपन और ग्लानि के विचारों से भर जाती। मैं जानती थी कि इस टीम के काम के नतीजे अच्छे नहीं थे। भाई-बहनों को अपने काम में निरंतर दिक्कतें आ रही थीं, मुझे सबके साथ सत्य खोजकर मसले हल करने चाहिए। लेकिन पहले मेरी राय गलत निकली थी, इसलिए कुछ और कहने का साहस नहीं हो रहा था। मैं अपनी जिम्मेदारी से जी चुरा रही थी! इसलिए मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर से पूछा, अपना मसला सुलझाने के लिए सत्य के किस पहलू में प्रवेश करना चाहिए।

अगले दिन भक्ति-कार्य में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिससे मुझे अपनी दशा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएँ सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज समझ सकती हैं, हर चीज की असलियत देख सकती हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं। हालांकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या ऊँची हस्ती के रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। ... यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, उन्होंने अपना सारा विवेक खो दिया है! वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, ऊँचे व्यक्ति, कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक कमजोरियों, कमियों, अप्रबुद्धताता, मूर्खता और सामान्य मानवता के भीतर समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को इन्हें देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा को साफ उजागर कर दिया। मुझे लगता था कि बतौर सुपरवाइजर मुझमें हर समस्या की गहरी समझ होनी चाहिए, मेरे सभी राय-मशविरे अहम योगदान देने वाले होने चाहिए, भाई-बहनों का सम्मान पाने के लिए मैं सब कुछ समझने और काम के सभी पहलुओं का पूरा ज्ञान होने का ढोंग करती थी। बैठकों के दौरान हमेशा परेशान रहती कि मसलों को हल नहीं कर पाऊँगी और हर कोई सोचेगा कि मैं इस ओहदे के लिए नहीं बनी हूँ। फिर, गलत बोलने के बाद मैं और भी परेशान हो गई कि दूसरे मुझे नीची नज़रों से देखेंगे। सुपरवाइजर के रूप में अपनी छवि और रुतबा बचाने के लिए मैं दिखावा करते हुए अपने विचार व्यक्त करने से कतराने लगी। यहाँ तक कि यह धूर्त योजना भी बनाई कि अपने साथी के बोलने का इंतजार करूंगी फिर सारांश बता दूँगी ताकि दूसरों की नजरों से अपनी कमियाँ छिपा सकूँ। भाई-बहन काम में आ रहे मसलों पर चर्चा कर रहे होते तो मेरा मन संगति करने का नहीं होता, मैं केवल अपनी पद-प्रतिष्ठा की चिंता में डूबी रहती। मैंने अपने कर्तव्य और दायित्वों को जरा भी पूरा नहीं किया था। हकीकत में, मैं एक साधारण सृजित प्राणी ही थी, कोई परम ज्ञानी या हरफनमौला नहीं। मैं कितने सारे सत्य नहीं समझती थी, मसले समझ नहीं आते थे और मेरे दृष्टिकोण अक्सर गलत होते थे। लेकिन यह सब बिल्कुल सामान्य था। अपनी कमियों को लेकर मुझे उचित नजरिया अपनाने की जरूरत थी; अपने में भटकाव नजर आए तो उन्हें पहचानना और दुरुस्त करना चाहिए। मेरे विचार और दृष्टिकोण सही हों या गलत, मुझे काम में मन लगाकर अपने दायित्व पूरे करने चाहिए। अपनी सोच सुधारने के बाद मैं अपने भ्रष्टाचरण और कमियों को लेकर सचेत होकर खुलकर बोलने लगी और सभी भाई-बहनों को अपनी असलियत दिखाई। मसलों पर चर्चा करते हुए मैं केवल उन्हीं चीजों पर टिप्पणी करती जिन्हें जानती थी और बेबसी महसूस नहीं करती थी।

फिर एक ऐसी घटना घटी जिसने मुझे दुबारा अपनी पुरानी स्थिति में पहुँचा दिया। एक बार हम एक दूसरी टीम की सभा में शिरकत करने गए। एक बहन बुरी दशा में थी—बर्खास्त होने के बाद से वह खुद का बचाव कर रही थी, गलतफहमी की शिकार बन गई थी। मैं उसके साथ ईश-इच्छा पर चर्चा करना चाहती थी, लेकिन तभी खयाल आया कि इन मामलों का मुझे कोई अनुभव नहीं है और अगर व्यावहारिक रूप से संगति नहीं कर पाई तो भाई-बहन कहेंगे कि मैं महज सैद्धांतिक ज्ञान बघार रही हूँ और मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है। लेकिन यह जानकर कि संगति करना मेरा दायित्व है, मैं जो कुछ जानती थी उस पर उससे चर्चा की। हालाँकि संगति के बाद भी बहन बहुत कमजोर ही नजर आ रही थी। तभी चेन मिंग ने कमान संभाल ली बताना शुरू किया कि जब उसे बर्खास्त किया गया था तो उसने परमेश्वर के वचनों द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन-मनन किया, खुद को समझकर खुद से नफरत की, अभ्यास का मार्ग पाया, प्रायश्चित किया और बदल गया। इसके जरिए, उसने सीखा कि नाकामयाबी और बर्खास्तगी परमेश्वर से प्राप्त उद्धार और प्रेम के ही रूप हैं। उसकी बातें सुनकर बहन ने सहमति में कहा, “अभी मैं उसी दशा में हूँ। आपकी संगति ने मुझे आगे की राह दिखाई है।” यह सुनते ही, मुझे खुशी हुई कि वह परमेश्वर की इच्छा समझ गई, लेकिन मैं थोड़ा परेशान भी हुई क्योंकि मुझे लगा कि अब तो दूसरे लोग पक्का सोचेंगे कि मैं तो सिर्फ सैद्धांतिक ज्ञान बघारती हूँ सुपरवाइजर बनने के काबिल नहीं हूँ। अगले कुछ दिनों तक, चाहे काम संबंधी मसलों का समाधान करना हो या भाई-बहनों की दशाओं का, मुझे चिंता सताने लगी कि मेरी संगति से उनकी समस्या दूर नहीं होगी, तो मैं चुप रहने लगी। जब अपने विचार व्यक्त करती भी तो पहले कई बार सोचती कभी-कभी तो पहले चेन मिंग से ही पूछ लेती, अगर वह सहमत होता तभी विचार साझा करती। हकीकत में, विभिन्न मसलों को लेकर मुझमें थोड़ी अंतर्दृष्टि थी, मेरे अपने सोच-विचार भी थे, लेकिन इस बात से डरकर कि गलत बोल बैठी तो मेरी कमियाँ उजागर हो जाएंगी, मैंने कुछ कहने का साहस नहीं किया। बाद में मैंने प्रार्थना की, “प्यारे परमेश्वर! मैं अपने कर्तव्य में पद-प्रतिष्ठा के कारण बेबस महसूस करती हूँ। परेशान हूँ कि अगर संगति ठीक से नहीं की तो मसले हल नहीं कर सकूँगी, इसीलिए संगति का साहस नहीं करती। अपने दायित्व पूरे न करने के कारण मुझे बहुत ग्लानि हो रही है। मुझे प्रबुद्ध कर राह दिखाओ ताकि आत्मचिंतन कर खुद को जान सकूँ, और इस दशा से मुक्त हो सकूँ।” प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “कुछ लोग काफी जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं, और परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें पसंद करते हैं, इसलिए कलीसिया उन्हें अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए विकसित करती है। एक रुतबा हासिल करने के बाद, वे लोग ऐसा महसूस करने लगते हैं कि वे भीड़ से अलग हैं और सोचने लगते हैं कि ‘परमेश्वर के घर ने मुझे ही क्यों चुना? क्या ऐसा इसलिए नहीं कि मैं तुम सब से बेहतर हूँ?’ क्या यह किसी बच्चे के मुंह से निकली बात जैसा नहीं लगता है? यह एक अपरिवक्व, हास्यास्पद और नादान सोच है। सच्चाई यह है कि तुम दूसरे लोगों से जरा-भी बेहतर नहीं हो। बात सिर्फ इतनी-सी है कि तुम्हारे अंदर कुछ ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर के घर द्वारा विकसित किए जाने के लिए आवश्यक हैं। तुम यह जिम्मेदारी उठा सकते हो या नहीं, इस कर्तव्य को अच्छी तरह निभा सकते हो या नहीं, या भरोसे पर खरे उतर सकते हो या नहीं, यह बिल्कुल अलग बात है। जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसकी कोई विशेष हैसियत या पहचान है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। स्वाभाविक तौर पर, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है; उन्नति और विकास का सीधे-सीधे अर्थ केवल उन्नति और विकास ही है, यह परमेश्वर के विधान या उसके द्वारा सही ठहराए जाने के समतुल्य नहीं है। उनकी उन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। ... तो किसी को उन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि ऐसे व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में, प्रशिक्षित किए जाने, विशेष रूप से सिंचित और निर्देशित करने के लिए उन्नत किया जाता है, जिससे वह सत्य के सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझने में सक्षम हो जाए, साथ ही यह भी, कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेशों और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें कैसे सँभालना और उनके साथ कैसे निपटना है। क्या यह इंगित करता है कि परमेश्वर के घर द्वारा उन्नत और विकसित की गई प्रतिभा उन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या उन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना काम करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में पर्याप्त सक्षम है? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग निपटे जाने, काट-छाँट किए जाने, न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बदले जाने का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, उन्हें प्रशिक्षित और विकसित किए जाने का यही अर्थ है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “सत्य के सामने हर कोई एक समान है। जिन्हें तरक्की दी जाती है और विकसित किया जाता है, वे दूसरों से बहुत बेहतर नहीं होते। हर किसी ने लगभग एक ही समय में परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया हैं। जिन्हें तरक्की नहीं दी गई है या विकसित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी-बहुत क्षमता होती है, इसलिए उन्हें तरक्की दी जाती है और विकसित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की अपेक्षाओं के कारण होता है। तो फिर लोगों को तरक्की देने और उनका उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर में ऐसे सिद्धांत क्यों हैं? चूँकि लोगों की क्षमता और व्यक्तित्व में अंतर होता है, और प्रत्येक व्यक्ति एक अलग मार्ग अपनाता है, इसलिए परमेश्वर में लोगों की आस्था के भिन्न परिणाम होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे बचाए जाते हैं और वे राज्य की प्रजा बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो अपने कर्तव्य में समर्पित नहीं होते, वे निकाल दिए जाते हैं। इसलिए, परमेश्वर का घर इस आधार पर, कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और उनके व्यक्तित्व के आधार पर लोगों का विकास और उपयोग करता है। क्या परमेश्वर के घर में विभिन्न लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? फिलहाल, विभिन्न लोगों की हैसियत, स्थान, अहमियत या पदवी में कोई पदानुक्रम नहीं है। कम से कम उस अवधि के दौरान, जब परमेश्वर लोगों को बचाने और मार्गदर्शन देने के लिए कार्य करता है, विभिन्न लोगों के पद, स्थान, अहमियत या हैसियत के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से समझी कि मेरी अकर्मण्यता, नकारात्मकता और संगति से डरने का कारण यह है कि मैंने बतौर सुपरवाइजर खुद को ऊँचे स्थान पर बैठा दिया है। मैं सोचती थी कि सुपरवाइजर की भूमिका मिलना यानी मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूँ, गहरी समझ-बूझ वाली हूँ, समस्याओं को अलग तरह से समझ सकती हूँ और मेरा काम का प्रदर्शन दूसरों से ऊँचे दर्जे का है। सुपरवाइजर की भूमिका सँभालने के बाद मैं सभी को यही दिखाना चाहती थी कि मैं हर मामले में श्रेष्ठ हूँ और पूरी तरह इस काम के लायक हूँ। मैं सबका सम्मान और सहमति बटोरना चाहती थी। जब मेरे नजरियों में कमियाँ निकलीं और मैं बैठकों में लोगों के मसले हल नहीं कर पाई तो चिंता होने लगी कि हर कोई समझेगा कि मैंने सुपरवाइजर बनने के लायक ही नहीं हूँ, इसलिए मैं झूठा दिखावा करने लगी; बोलने से डरने लगी, कम-से-कम बोलने लगी। यहाँ तक कि दूसरों की समस्याएँ साफ-साफ दिखने पर भी संगति करने से कतराने लगी। कभी बोलती भी थी तो पहले अच्छी तरह से सोच लेती या अपने साझेदार की सहमति पाने का प्रयास करती; इसके बिना स्वेच्छा से न तो विचार व्यक्त करती, न ही कोई कार्रवाई करती। मैं अपने कर्तव्य में बिल्कुल निष्क्रिय बन चुकी थी। सोचती थी कि परमेश्वर से मुझे जो प्राप्त हुआ है वह एक पदवी है, न कि कोई कर्तव्य या दायित्व। पूरी तरह रुतबे के जाल में फँस चुकी थी, रुतबे से ही नियंत्रित थी। हकीकत में, मैं सुपरवाइजर इसलिए नहीं बनाई गई थी कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ या उनसे ज्यादा समझदार हूँ या इस पद के लिए बनी हुई हूँ। मेरी योग्यता और क्षमता के आधार पर कलीसिया मेरा विकास कर रही थी, सत्य के साथ समस्याएं हल करने और सिद्धांतों के अनुरूप काम सँभालने का प्रशिक्षण दे रही थी, मेरी कमियों को दूर कर रही थी ताकि मैं सत्य समझकर जल्द से जल्द वास्तविकता में प्रवेश करूँ। लेकिन इस बात की गारंटी नहीं थी कि ठीक से अपने कर्तव्य और दायित्व निभाने में सक्षम रहूँगी। मुख्य यह था कि क्या मैं सत्य की खोज के पथ पर चल सकती हूँ या नहीं, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार काम कर सकती हूँ या नहीं। लेकिन मुझे भ्रम हो गया कि मैं सुपरवाइजर इसलिए हूँ क्योंकि मैं पहले से ही दूसरों से श्रेष्ठ हूँ और मेरा ओहदा दूसरों से ऊँचा है। मैं खुद को नहीं जानती थी और मेरे विचार भी बहुत बेतुके थे!

फिर, परमेश्वर के वचनों का एक अन्य अंश पढ़ा जिसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी : “मसीह-विरोधियों का मानना है कि अगर वे हमेशा बात करने और दूसरों के सामने अपना दिल खोलने के लिए उत्सुक होंगे, तो सब उनकी असलियत जान जाएँगे और सोचेंगे कि उनमें कोई गहराई नहीं है, बल्कि वे सिर्फ आम लोग हैं, और फिर वे उनका सम्मान नहीं करेंगे। जब दूसरे उनका सम्मान नहीं करते, तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि अब दूसरों के दिलों में उनका स्थान ऊँचा नहीं है, और वे बिल्कुल मामूली, अनाड़ी और साधारण लगते हैं। यही चीज़ मसीह-विरोधी देखना नहीं चाहते। इसीलिए जब वेदूसरों को खुद को उजागर करते और यह कहते देखते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति नकारात्मक और विद्रोही रहे हैं, और पिछले दिन उन्होंने किन मामलों में गलती की थी, और आज वे ईमानदार व्यक्ति न होने के कारण पीड़ा भोग रहे हैं और दर्द में हैं, तो मसीह-विरोधी सोचते हैं किम ये लोग मूर्ख और अनाड़ी हैं; वे खुद कभी भी ऐसी बातें नहीं कहते, बल्कि उन्हें अपने भीतर गहराई में छिपाए रखते हैं। कुछ ऐसे हैं, जो इसलिए कम बोलते हैं, क्योंकि वे कम योग्यता वाले हैं और सरल मन के हैं, और उनके पास बहुत ज़्यादा विचार नहीं हैं। मसीह-विरोधियों का वर्ग भी कम बोलता है, लेकिन इस कारण से नहीं—बल्कि यह उनके स्वभाव की समस्या है। जब वे दूसरों को देखते हैं, तो वे कम बोलते हैं, और जब दूसरे किसी मामले में बात करते हैं, तो वे बिना सोचे विचारे राय नहीं देते। वे अपनी राय क्यों नहीं देते? सर्वप्रथम, उनके पास निश्चित रूप से सत्य नहीं होता और वे किसी भी मामले के मर्म को नहीं समझ सकते; जैसे ही वे बोलते हैं, वे गलतियाँ करते हैं, और अन्य लोग उनका असली रूप देख लेते हैं और उनकी नजरों में उनका मान कम हो जाता है। इसलिए, वे मौन और गंभीरता का स्वांग करते हैं, जिससे दूसरे उन्हें सटीकता से मापने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि वे यहाँ तक सोच लेते हैं कि वे मेधावी और असाधारण हैं। इस तरह, कोई भी उन्हें तुच्छ नहीं समझता। साथ ही उनकी शांत, स्थिर भाव-भंगिमा देखकर लोग उनके बारे में ऊंचा सोचते हैं, और उनका अपमान करने की हिम्मत नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों की धूर्तता औरदुष्टता है। ... वे नहीं चाहते कि दूसरे लोग उनकी असलियत जानें। वे अपनी असली औकात जानते हैं, पर उनके भीतर यह कुत्सित इरादा है : लोगों को उनके बारे में ऊंचा सोचने को मजबूर करना। क्या इससे ज्यादा घृणास्पद भी कुछ है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं)। परमेश्वर के वचनों से जान सकी कि मसीह-विरोधी अपने विचार आसानी से व्यक्त नहीं करते। वे डरते हैं कि अपने विचार व्यक्त करते ही हर कोई उनकी असलियत समझ जाएगा और वे दूसरों की नजरों में अपना रुतबा और छवि खो बैठेंगे। लिहाजा, वे ज्यादा घुलते-मिलते नहीं ताकि उनकी असलियत कोई न जान सके। यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव है। मुझे एहसास हुआ कि उस दौरान मैं भी इसी तरह काम कर रही थी। समस्याएँ पता चलने पर मैं अपने विचार साझा न करती क्योंकि मेरे मन में एक अधम उद्देश्य था : मैं अपनी कमियों को छिपाकर प्रशंसनीय छवि बनाना चाहती थी ताकि लगे कि मैं सत्य समझती हूँ। मैं भाई-बहनों की तारीफ और सराहना बटोरना चाहती थी। हमेशा चिंतित रहती कि ज्यादा बोलूँगी तो गलतियाँ कर बैठूँगी सबके सामने कलई खुल गई तो मैं सम्मान खो बैठूँगी और वे मुझे सुपरवाइजर होने लायक नहीं समझेंगे। अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने की खातिर ही, मैं भाई-बहनों के काम में समस्याएँ आते देखकर भी बहुत कम बोलती या संगति से कतराती, ताकि अपनी कमियाँ ढक सकूँ, अपनी असलियत छिपा सकूँ। यह बिल्कुल कपटपूर्ण स्वभाव था। कलीसिया ने मुझे सुपरवाइजर इसलिए बनाया था कि मैं सत्य खोजकर व्यावहारिक समस्याएं हल कर सकूँ और कर्तव्य निर्वहन के लिए भाई-बहनों से सहयोग करूँ। लेकिन अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए और दूसरों से अपने कमियाँ छिपाने के लिए मैंने अपने कर्तव्य और दायित्व की अनदेखी की, सिर्फ अपनी खूबियाँ दिखाने की कोशिश की ताकि दूसरे लोग मेरी पूजा-प्रशंसा करें। मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रही थी। उस समय मैं थोड़ी भयभीत थी, तो अभ्यास का मार्ग खोजने के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन मांगा और प्रार्थना की।

फिर परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा बढ़ावा दिया जाता है और उनका विकास किया जाता है, और यह एक अच्छी चीज है, यह प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? पहला सिद्धांत है सत्य को समझना, जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। अगर उन्हें सत्य की समझ न हो, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर वे खोजने के बाद भी नहीं समझते, तो वे संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, ‘दूर रखा पानी तत्काल प्यास नहीं बुझाएगा।’ अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ तेजी से, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य की वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य की वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और पोषण के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह भावना होनी चाहिए। अगर पदोन्नत और उपयोग किए जाने के बाद तुम अगुआ या कार्यकर्ता के पद पर बैठ जाते हो और मानते हो कि तुममें सत्य की वास्तविकता है और तुम सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान हो—और अगर, चाहे भाई-बहनों को कोई भी समस्या हो, तुम दिखावा करते हो कि तुम उसे समझते हो, और कि तुम आध्यात्मिक हो—तो यह बेवकूफी है, और यह पाखंडी फरीसियों जैसा ही है। तुम्हें सच्चाई के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए। जब तुम्हें समझ न आए, तो तुम दूसरों से पूछ सकते हो या उच्च से उत्तर माँग सकते हो और उसके साथ संगति कर सकते हो—इसमें से कुछ भी शर्मनाक नहीं है। अगर तुम नहीं पूछोगे, तो भी उच्च को तुम्हारे वास्तविक कद का पता चल ही जाएगा, और वह जान ही जाएगा कि तुममें सत्य की वास्तविकता नदारद है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए; यही वह भाव है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है जिसका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है। अगर तुम्हें यह लगता है कि जब तुम अगुआ बन जाते हो, तो हमेशा दूसरों से या ऊपर वाले से सवाल पूछते रहना या सिद्धांत न समझना शर्मनाक है, और नतीजतन, अगर तुम यह दिखावा करते हुए ढोंग करते हो कि तुम समझते हो, जानते हो, काम करने में सक्षम हो, तुम कलीसिया का कोई भी काम कर सकते हो, और किसी को तुम्हें याद दिलाने या तुम्हारे साथ सहभागिता करने, या किसी को तुम्हें पोषण प्रदान करने या तुम्हारी सहायता करने की आवश्यकता नहीं है, तो यह खतरनाक है, और यह बहुत अहंकार और आत्मतुष्टि है, समझ की बहुत कमी है। तुम अपना माप तक नहीं जानते—और क्या यह तुम्हें मूर्ख नहीं बनाता? ऐसे लोग वास्तव में परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और पोषित किए जाने के मानदंड पूरे नहीं करते, और देर-सबेर उन्हें बदल दिया जाएगा या त्याग दिया जाएगा(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “चाहे ये वे लोग हों जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में उन्नत और विकसित किया गया है, या चाहे ये विभिन्न पेशेवर प्रतिभाओं वाले लोग हों, ये सभी सामान्य लोग हैं, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए और सत्य को न समझने वाले लोग हैं। इसलिए किसी को भी मुखौटा पहनना या खुद को छिपाना नहीं चाहिए, बल्कि खुलकर संगति करना सीखना चाहिए। अगर तुम कुछ समझते नहीं हो, तो तुम्हें उसे समझने का दिखावा मत करो। अगर तुम कोई काम नहीं कर पाते हो, तो स्वीकार करो कि तुम नहीं कर सकते। चाहे तुम्हारी समस्याएँ और मुश्किलें कुछ भी क्यों न हों, तुम्हें हरेक के साथ संगति करके सत्य खोजना और समाधान ढूँढना चाहिए। सत्य के सामने हर कोई एक बच्चे की तरह होता है, कमजोर, दयनीय और पूरी तरह अभावग्रस्त। जरूरत इस बात की है कि लोग सत्य के सामने आज्ञाकारी बनें और एक विनयशील और लालायित हृदय रखें। सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के आगे समर्पण करने से पहले उन्हें सत्य को खोजने और स्वीकारने की जरूरत है। अपने वास्तविक जीवन में और अपने कर्तव्य निभाते हुए ऐसा करके लोग परमेश्वर के वचनों के सत्य में प्रवेश कर सकते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कर मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। मैं जो कुछ समझती हूँ उस पर चर्चा करनी और अपनी कमियों के प्रति सही रवैया अपनानी चाहिए कपट वेश धारण करने और सब कुछ समझने का ढोंग करने से बचना चाहिए। कुछ समझ न आए तो दूसरों के साथ खोजना और संगति करनी चाहिए। मिलजुलकर काम करने से ही हम अपने काम ठीक से कर सकेंगे। मैंने हमेशा अपनी कमियाँ छिपानी चाहीं, इस तथ्य का सामना न कर सकी कि मुझमें समस्या है, अपनी समस्या दूर करने के लिए सत्य नहीं खोजा। इस रवैये से मैं न तो कभी सुधर सकती थी, न ही अपने कर्तव्य में प्रभावी हो सकती थी। उस वक्त कुछ झटके लगने और नाकामियाँ मिलने से मेरी कमियाँ उजागर जरूर हुईं लेकिन इनसे ये भी पता चला कि मैं कहाँ खड़ी होती हूँ, ताकि भविष्य में जमीन से जुड़े रहकर काम और बर्ताव कर सकूँ, दूसरों के साथ साझेदारी करना सीख सकूँ और सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुरूप काम कर सकूँ। ये सभी बहुत लाभदायक हैं। उसके बाद में मैं सभी टीमों के साथ बैठकों में अधिक खुलकर बात करने में सक्षम हो गई।

एक बैठक के दौरान मैंने दो बहनों को नाम और लाभ के लिए होड़ करते देखा तो उनके साथ संगति के लिए परमेश्वर के कुछ वचन खोजने चाहे। लेकिन तभी सोचने लगी, “इस मामले में मुझे कुछ अनुभव है, लेकिन इसकी गहरी समझ नहीं है। अगर मेरी संगति बहुत सतही रही तो क्या वे मुझे नीची नजरों से नहीं देखेंगी, ये नहीं कहेंगी कि मैं सुपरवाइजर बनने के योग्य नहीं? शायद उनके साथ संगति नहीं करनी चाहिए।” तभी, एहसास हुआ कि एक बार फिर मैं मुखौटा पहन रही हूँ। कुछ दिन पहले पढ़ा परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “परमेश्वर में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिये। अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने वाले लोग ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, परमेश्वर व्यक्ति को जो काम सौंपता है, उसे पूरा करने से ही उसके कर्तव्यों का निर्वहन संतोषजनक हो सकता है। ... तो, परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक और अच्छे ढंग से निभाने के लिए किस तरह का मानक प्राप्त करना चाहिए? यह मानक है अपने कर्तव्य को पूरे हृदय से, अपने पूरे प्राण से, अपने पूरे मन से, और अपनी पूरी ताकत से करना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?)। मैंने काम स्वीकारा था, तो मुझे अपनी पूरी क्षमता से इसे करना चाहिए। मैंने बहनों को बहुत खराब दशा में पाया, इसलिए उन्हें सत्य बताने और सहारा देने के लिए सब कुछ करना चाहिए, ताकि अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर वे नाम और लाभ पाने के लिए होड़ करना छोड़कर सामान्य रूप से अपने कर्तव्य पूरे कर सकें। सिर्फ ऐसा करने में ही मैं अपना कर्तव्य पूरा करूँगी। मैंने महसूस किया कि समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करना अच्छी बात है—यह परमेश्वर के प्रति गवाही है और लोगों को उसके समक्ष लाती है—लेकिन इसे लेकर मेरा नजरिया सिर्फ प्रशंसा प्राप्त करने का था। मैं नीचता पर उतर चुकी थी, खुद से ही नफरत करने लगी। मैं इस तरह नहीं जीना चाहती थी। सिर्फ अपने कर्तव्य और दायित्व पूरे करना और जो कुछ भी देखती और समझती थी, उस पर संगति करना चाहती थी ताकि बहनों की कुछ व्यावहारिक मदद कर सकूँ। अपना मन पक्का करके मैंने उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों के अंश खोजे। मैं यह देखकर चकित हो गई कि मेरी बात सुनकर बहनें अपनी दशा को कुछ समझ पाईं। यह देखकर कि वे खुद को थोड़ा-बहुत जानकर प्रायश्चित करने की इच्छुक हैं, मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। उसके बाद उनके काम में आ रही कुछ अन्य समस्याओं पर भी चर्चा करते हुए मैंने अपनी राय व्यक्त की। कई अन्य टीमों के अगुआओं ने भी अपने दृष्टिकोण व्यक्त किए। संगति के बाद, सबकी समझ अधिक स्पष्ट और सटीक हो गई और सारे भ्रम मिट गए। इस तरीके से अभ्यास करके मुझे बहुत अच्छा लगा और मैं अधिक सहज और मुक्त हो गई। उसके बाद से, बैठकों में मेरी मानसिकता में बहुत सुधार हुआ : बतौर सुपरवाइजर मैंने खुद को श्रेष्ठ समझना और दिखावा करना बंद कर दिया। जितना जानती थी, उतनी ही चर्चा करती और जो भी सोचती थी, कह देती थी। मुझे आजादी का अनुभव हुआ। मैंने यह भी जाना कि लोग क्या कहेंगे, ये चिंता छोड़कर सही मानसिकता अपनाने और मसलों पर शांत चित्त होकर सोचने के बाद, मैं समस्याओं की गहरी अंतर्दृष्टि पाकर अधिक स्पष्टता से संगति कर पा रही थी। कुछ मामलों में तो पहले से सोचे बिना ही मैं सहज रूप से संगति करने में सक्षम हुई। मैं जानती हूँ कि यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन है। मेरी राय हमेशा सही नहीं होती थी, फिर भी मैं बेबस महसूस नहीं करती थी, जब भी गलतियाँ दिखतीं तो उन्हें सुधार दिया करती थी। सिर्फ और सिर्फ परमेश्वर के वचनों के जरिए ही मैं खुद में यह बदलाव ला पाई। परमेश्वर का धन्यवाद!

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