परमेश्वर के वचनों से मैंने ख़ुद को जाना है
परमेश्वर के वचन कहते हैं: "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। ... न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं देखती हूँ कि अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का काम हमारा न्याय करने और हमें शुद्ध करने के लिए सत्य को अभिव्यक्त करके किया जाता है ताकि परमेश्वर के वचनों से हम अपनी शैतानी प्रकृति को जान सकें और यह सच जान सकें कि शैतान ने हमें कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। इसके बाद हम मलाल महसूस करते हैं, ख़ुद से नफ़रत करते हैं, और दिल से पश्चाताप करते हैं। मैं हमेशा सोचती थी कि मुझ में इंसानियत है, मैं दूसरों के साथ सहनशीलता और सब्र के साथ पेश आती हूँ, और जब भी मैं किसी को मुश्किल दौर से गुज़रते हुए देखती, तो मदद करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करती। मुझे लगता था कि मैं एक अच्छी इंसान हूँ। लेकिन जब से मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के काम को स्वीकार किया और उसके वचनों के न्याय और प्रकाशन को महसूस किया, तो मैंने देखा कि हालांकि मैं अच्छा बर्ताव करती दिखती थी और ज़ाहिर तौर पर कोई पाप नहीं कर रही थी, लेकिन अंदर से मैं शैतानी स्वभाव से भरी हुई थी, यानि मुझ में अहंकार, धोखेबाज़ी, और द्वेष भरा हुआ था। मैं चाहते हुए भी ख़ुद को सत्य के खिलाफ़ जाने से और परमेश्वर का विरोध करने से रोक नहीं पाती थी। मैंने देखा कि शैतान ने मुझे गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और मुझे सच में परमेश्वर के वचनों के न्याय और शुद्धिकरण की ज़रूरत है।
मार्च 2018 की बात है मुझे कलीसिया ने वीडियो बनाने का काम सौंपा था। मैं टीम में नई थी, और मैंने एक बहन को कहते हुए सुना कि टीम के अगुआ, भाई जाओ, बहुत कठोर हैं और काम करने के बारे में उनके बहुत सख्त मानक हैं। मैंने सोचा, "सख़्त रहने का मतलब है ज़िम्मेदार होना और इससे हम अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से पूरा कर सकते हैं। यह तो अच्छी बात है।" मैंने सोचा, "इसके अलावा, मैं बहुत शांत स्वभाव की हूँ और मेरी सबके साथ बनती है। मुझे नहीं लगता कि मुझे भाई झाओ के साथ काम करने में कोई परेशानी होगी।"
भाई झाओ ने कुछ वीडियो डाउनलोड किए और कहा कि हम इन्हें देखें ताकि हम काम से जल्द से जल्द परिचित हो जाएं। इसमें सुंदरता के नियम, शॉट्स की रचना, लाइटिंग, और रंगों का सामंजस्य सब शामिल थे। इस सब के बारे में सीखना मेरे लिए काफ़ी उबाऊ था और मेरा ध्यान भटक जाता था। मैंने सोचा, "इतनी सारी जानकारी है, मैं इसे बहुत जल्दी भूल जाऊंगी।" मैं धीरे-धीरे अभ्यास करते-करते इसे समझ जाऊंगी। इस समय, नए सॉफ़्टवेयर के साथ बेहतर वीडियो बनाना सीखें तो बेहतर होगा। इससे हम सीखेंगे भी और हमारी दिलचस्पी भी बनी रहेगी।" मैंने अपने विचार यह सोचकर पेश किए कि भाई झाओ इसके बारे में सोचेंगे, लेकिन मुझे हैरानी हुई जब उन्होंने मेरी बात सुनकर बड़ी सख़्ती से कहा, "इस पेशेवर हुनर को सीखना सच में ज़रूरी है। हमें अच्छे वीडियो बनाने के लिए उनके बारे में समझना पड़ेगा। हमें सीखते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ना होगा। हमें अपनी काबिलियत से ज़्यादा भार नहीं लेना चाहिए। ये सब सीखने का मतलब है कि हम अपना कर्तव्य निर्वहन अच्छे से करें। अपनी मानसिकता को बदलकर, हम सीखने के लिए ज़्यादा प्रेरित रहेंगे और ये सब इतना उबाऊ नहीं लगेगा।" उनके ये कहते ही बाकी भाई-बहन मेरी तरफ़ देखने लगे। मेरा पूरा चेहरा और गर्दन लाल हो गई थी। मैं बहुत शर्मिंदा महसूस कर रही थी। मैंने सोचा, "जब आप मुझसे इस तरह बात करेंगे तो ये लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या इन्हें लगेगा कि मैं अपने कर्तव्य में सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए हूँ? इसके बाद मैं अपना चेहरा कैसे दिखाऊंगी?" लेकिन फिर मैंने सोचा, "मुझे अपनी सोच इतनी छोटी नहीं रखनी चाहिए। भाई झाओ ये सब हमारे फ़ायदे के लिए कह रहे हैं। अगर मैं हर चीज़ के लिए इतनी छोटी सोच रखूंगी, तो मैं इस कर्तव्य के निर्वहन में सहयोग कैसे करूंगी?" इसके बाद से मैं ये हुनर मन से सीखने में लग गई और कुछ पहलुओं की बुनियादी बातों को बहुत जल्दी सीख लिया। कुछ समय बाद मुझे ख़ुद पर बहुत घमंड हो रहा था यह सोचकर कि मैं काफ़ी योग्य हूँ और चीज़ों को बहुत जल्दी सीख सकती हूँ।
एक दिन भाई झाओ ने हमें एक नए सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल करना सिखाया। मुझे यह तुरंत आ गया, लेकिन बाकी भाई-बहनों को दो बार समझाना पड़ा। भाई झाओ ने बहुत सब्र के साथ इसे दो बार सिखाया, लेकिन मेरे सब्र का बांध टूट रहा था। मैंने सोचा, "आख़िर इसमें क्या मुश्किल है? मुझे समझ आ चुका है, इसे दोहराने का कोई फ़ायदा नहीं है।" मैं कुछ और पढ़ने में लग गई। भाई झाओ ने देखा कि मैं काम पर ध्यान नहीं दे रही थी, और कहने लगे, "बहन, तुम्हें यह समझ आ गया है? आइए और इसे करके देखिए।" "इसमें करने के लिए क्या है?" मैंने सोचा। "लगता है आपको मुझ पर भरोसा नहीं है, क्यों है न?" मैंने पूरे आत्म-विश्वास के साथ कोशिश करके देखा लेकिन आधे रास्ते तक पहुँचकर मैं अटक गई। मुझे नहीं मालूम था कि आगे क्या करना है। बाकी भाई-बहन एक तरफ़ थे और मुझे देख रहे थे। मेरा चेहरा जल रहा था। मेरा दिल कर रहा था कि किसी कोने में जाकर छिप जाऊं। चेहरे पर सख्ती लाते हुए, भाई झाओ ने कहा, "बहन, आप बहुत अहंकारी और आत्म-संतुष्ट हैं, और जो भी आप सीखती हैं, उस पर ध्यान नहीं देती हैं। इस तरह से आप अपने कर्तव्य ठीक से कैसे पूरे करेंगी?" मैं उनकी बात से पूरी तरह असहमत थी। "आप मुझे पसंद ही नहीं करते हैं, है न?" मैंने सोचा। "आप किसी और से नहीं पूछ रहे हैं, सिर्फ़ मुझसे पूछ रहे हैं। क्या यह इसलिए नहीं क्योंकि आप मेरा मज़ाक उड़ाना चाहते हैं? और आपने मुझे सबके सामने फटकार दिया। क्या यह इसलिए नहीं क्योंकि आप चाहते हैं कि सब लोग मुझे अहंकारी समझें? ये सब होने के बाद मेरी इन सबके साथ कैसे निभेगी?" मैं जितना इसके बारे में सोचती थी, उतना ही मुझे लगता था कि भाई झाओ जानबूझकर मुझे तंग कर रहे हैं और सबके सामने मेरा अपमान करना चाहते हैं। न चाहते हुए भी, मेरे मन में उनके लिए पूर्वाग्रहों ने जगह बना ली। तब से, मैं कुछ हद तक जानबूझकर उनसे दूरी बनाने लगी। जब भी वे मेरे कामकाज के बारे में पूछते, तो मैं उनकी बात पर बहुत कम ध्यान देती थी और थोड़ा-बहुत जवाब देकर हट जाती थी। मुझे डर था कि अगर उन्हें मेरे काम में ज़्यादा गलतियां मिल गई, तो वे दोबारा मुझे फटकार देंगे। लेकिन मैं जितना उनसे बचने की कोशिश कर रही थी, उतनी ही परेशानियों और गलतियों का सामना कर रही थी। उनकी ओर से मुझे लगातार चेतावनी और संकेत मिल रहे थे। इससे मेरा चिड़चिड़ापन बढ़ रहा था, और भाई झाओ से मेरी नाराज़गी भी बढ़ती जा रही थी। मैं सोचती थी, "आप मुझे हमेशा शर्मिंदा करते हैं। अगली बार जब मुझे आपकी कोई गलती नज़र आएगी, तो मैं भी सबके सामने उसके बारे में बताऊँगी, ताकि आपको भी पता चले कि ऐसा करने से कैसा महसूस होता है।
कुछ समय बाद, एक और बहन हमारे समूह में शामिल हो गई। मैंने उन्हें बुनियादी बातें समझाईं और जब भाई झाओ की बारी आई, तो मैंने उस बहन के सामने उनके बारे में अपनी राय और पूर्वाग्रहों को लेकर अपनी सारी भड़ास निकाल दी। उसके बाद मैं थोड़ी बेचैन हो गई, और सोचने लगी कि मैं उनकी पीठ पीछे कहीं उनकी बुराई तो नहीं का रही। लेकिन फिर मैंने दूसरे ढंग से सोचना शुरू किया। मैं उस बहन के सामने अपनी सच्ची राय रख रही थी ताकि वह भाई झाओ के बारे में कुछ समझ सके और उनकी ख़ूबियों और कमज़ोरियों से सही ढंग से पेश आ सके। मैंने दोबारा इसके बारे में नहीं सोचा।
कुछ समय ही गुज़रा था कि मुझे पता चला कि एक बहन ने कलीसिया के अगुआ से भाई झाओ की समस्याओं के बारे में बात की है। मैंने सोचा, "मेरे लिए भी अपने विचार रखने का यह अच्छा अवसर है। अगुआ शायद हमारी बातों को सुनकर ही भाई झाओ के साथ निपटेंगे, तो इस बार उन्हें सच में पता चलेगा कि कैसा महसूस होता है। और शायद जब उनसे निपटा जाएगा, तो उन्हें कर्तव्य से भी दूर कर दिया जाएगा, इसलिए मुझे दिन-रात उनका सामना नहीं करना पड़ेगा।" इस विचार के साथ, मैंने कलीसिया के अगुआ के साथ उनकी भ्रष्टता और दोषों को साझा किया। मुझे लगा उन्हें बदल दिया जाएगा, लेकिन मुझे हैरानी हुई जब कुछ दिनों बाद अगुआ ने सबके मूल्यांकनों का सारांश प्रस्तुत किया और कहा कि भाई झाओ ने कुछ भ्रष्टता प्रकट की है लेकिन उनमें आत्म-जागरूकता भी है, और वे अपने कर्तव्य की ज़िम्मेदारी लेते हैं और व्यवहारिक काम भी कर सकते हैं। वे टीम अगुआ की भूमिका में बने रहे। यह सुनने पर मुझे बहुत निराशा हुई। बाद में, अगुआ ने मुझे सहभागिता के लिए बुलाया, "बहन, जब हम भाई झाओ की समस्याओं के बारे में चर्चा कर रहे थे, तो तुमने सिर्फ़ उनकी भ्रष्टता और गलतियों के बारे में कहा। क्या तुम्हारे मन में उनके लिए पूर्वाग्रह हैं? वे सीधे बात करते हैं, तो जब वे किसी को कुछ गलत करते हुए, या किसी को सत्य के सिद्धांतों के खिलाफ़ कुछ करते हुए देखते हैं, तो वे इधर-उधर की बातें नहीं करते हैं। कभी-कभी वे थोड़े कठोर शब्दों में बात करते हैं, लेकिन ये सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि वे भाई-बहनों की मदद करना चाहते हैं और कलीसिया के काम को बनाए रखना चाहते हैं। हम यहाँ गलत नज़रिया नहीं अपना सकते हैं। अगर हम उन्हें कोई दूसरा काम सौंप देंगे, तो कलीसिया के काम में बाधा आएगी। भाई झाओ की समस्याओं के बारे में बात करते हुए, हमें यह भी देखना होगा कि हम जो कह रहे हैं और जो कर रहे हैं, वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, हमारी नीयत सही है या नहीं, और उसमें हमारी कौन सी भ्रष्टता शामिल है..." अगुआ के याद दिलाने पर मुझे लगा कि शायद मुझ में कोई गंभीर समस्या है। मैं पिछली बातों पर सोचने लगी कि भाई झाओ के साथ काम करने के दौरान मैंने कैसा व्यवहार किया था, और मुझे बेचैनी होने लगी। मैं इस भावना को परमेश्वर के सामने प्रार्थना में ले गई।
और बाद में मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा: "भाइयों और बहनों के बीच जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल और हटा दिया जाना चाहिए। परमेश्वर में अपने विश्वास में, अगर लोगों के अंदर परमेश्वर के प्रति श्रद्धा-भाव से भरा दिल नहीं है, अगर ऐसा दिल नहीं है जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिये कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा उपस्थित करने वाले और उसकी उपेक्षा करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसकी आज्ञा का पालन नहीं करना या उसका आदर नहीं करना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। ... जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का आदर करने वाला और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता। छल-प्रपंच में लिप्त चारों तरफ अपनी अकड़ में चलते हुए, सभी जगह परमेश्वर का ध्वज लहराते हुए लोग उन्मत्त होकर हिंसा पर उतारू न हों; यह बहुत ही विद्रोही प्रकार का आचरण है। परिवारों के अपने नियम होते हैं और राष्ट्रों के अपने कानून; क्या परमेश्वर के परिवार में यह बात और भी अधिक लागू नहीं होती? क्या यहां मानक और भी अधिक सख़्त नहीं हैं? क्या यहां प्रशासनिक आदेश और भी ज्यादा नहीं हैं? लोग जो चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं, परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर आखिर परमेश्वर है जो मानव के अपराध को सहन नहीं करता..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन सच में बिल्कुल सटीक थे। मैं देख सकती थी कि परमेश्वर का स्वभाव किसी अपमान को सहन नहीं करता है, परमेश्वर के घर में प्रशासनिक फ़रमान हैं, और परमेश्वर की कुछ आवश्यकताएं हैं। अगर कोई परमेश्वर के प्रति बिना श्रद्धा के बात करता है और काम करता है, अविश्वासी की तरह मंडराता रहता है, चुपचाप दूसरों का आंकलन करता है है, कलह के बीज बोता है, गुट बनाता है, और कलीसिया के काम को बाधित करता है, तो वह इंसान शैतान का चेला है। परमेश्वर कभी किसी ऐसे इंसान को कलीसिया में बने रहने नहीं देगा। मैंने अपने व्यवहार के बारे में विचार किया और सोचा कि भाई झाओ के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन में मैंने क्या प्रकट किया है। मैं उनके खिलाफ़ पक्षपाती हो गई थी क्योंकि उन्होंने दूसरों के सामने मेरी गलतियां बता दीं, जिससे मेरे अहम को ठेस पहुँची। मैंने एक नई बहन के सामने भी अपने पूर्वाग्रहों को प्रकट किया, पीठ पीछे उनकी आलोचना की, और उस बहन को अपनी तरफ खींचने की और भाई झाओ को अलग-थलग करने का प्रयास किया। जब मैंने सुना कि कोई और भाई झाओ के कर्तव्य निर्वहन की शिकायत कर रहा था, तो मैं भी उन पर उंगली उठाने लगी, इस उत्सुकता से कि कलीसिया के अगुआ उन्हें हटाकर किसी और को ले आएंगे। क्या मैं द्वेषपूर्ण, शैतानी स्वभाव नहीं दिखा रही थी? यह एक विश्वासी इंसान कैसे हो सकता है? मुझे अहसास हुआ कि मेरे कर्तव्य में मेरे दोषों और कमियों को बता कर, भाई झाओ परमेश्वर के घर के काम के लिए अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे थे, और उन्होंने ऐसा मेरी मदद करने के लिए किया। लेकिन मैं उनके खिलाफ़ पक्षपातपूर्ण थी क्योंकि इससे मेरा अहम आहत हो रहा था। मैं कोशिश करती रही कि मुझे उनके खिलाफ़ कुछ मिल जाए, उन्हें आंकने लगी, उनके विरुद्ध मतभेद पैदा करने लगी, इस उम्मीद में कि उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा। मैं कैसी भूमिका निभा रही थी? क्या मैं परमेश्वर के घर के काम में बाधा और नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? क्या मैं शैतान की चेली नहीं थी? इस विचार ने मुझे डरा दिया। अगर कलीसिया के अगुआ ने सत्य के सिद्धांतों के आधार पर इसकी जांच नहीं की होती और उन्हें अपना कर्तव्य निर्वहन जारी नहीं रखने दिया होता, तो टीम के काम पर असर पड़ता। मुझे पछतावा हुआ, ख़ुद को धिक्कारने का मन किया और भाई झाओ के बारे में थोड़ा दोषी महसूस हुआ। मैंने देखा कि मुझ में पूरी तरह से मानवता की कमी है। मैं तो सुन्न थी, और अगर परमेश्वर के वचनों का कठोर न्याय और इल्हाम नहीं होता, तो मैंने अपने आप के बारे में सोचा और जाना नहीं होता। मैं बुराई करती रहती और कलीसिया के काम में बाधा डालती रहती, और परमेश्वर मुझसे नफ़रत करता और मुझे हटा देता है। मुझे आख़िरकार समझ आ गया कि अगर मेरे द्वेषपूर्ण शैतानी स्वभाव को दूर नहीं किया गया तो यह कितना खतरनाक होगा। मैंने चीज़ों पर विचार करना शुरू कर दिया, सोचने लगी कि मेरे इस शैतानी स्वभाव की जड़ क्या है।
फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा: "ऐसी गन्दी जगह में जन्म लेकर, मनुष्य समाज के द्वारा बुरी तरह संक्रमित किया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित किया गया है, और उसे 'उच्च शिक्षा के संस्थानों' में सिखाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन पर मतलबी दृष्टिकोण, जीने के लिए तिरस्कार-योग्य दर्शन, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, पतित जीवन शैली और रिवाज—इन सभी चीज़ों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर रूप से घुसपैठ कर ली है, और उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसकी बजाय, इंसान शैतान की प्रभुता में रहकर, कीचड़ की धरती पर बस सुख-सुविधा में लगा रहता है और खुद को देह के भ्रष्टाचार को सौंप देता है। सत्य को सुनने के बाद भी, जो लोग अन्धकार में जीते हैं, इसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, यदि वे परमेश्वर के प्रकटन को देख लेते हैं तो इसके बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख नहीं होते हैं। इतनी पथभ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। "लोग इस प्रकार सोचते हैं : 'यदि तुम दयालु नहीं होओगे, तो मैं न्यायी नहीं होऊँगा! यदि तुम मेरे प्रति अशिष्ट होओगे, तो मैं भी तुम्हारे प्रति अशिष्ट होऊँगा! यदि तुम मेरे साथ इज़्ज़त से पेश नहीं आओगे, तो मैं भला तुम्हारे साथ इज़्ज़त से क्यों पेश आऊँगा?' यह कैसी सोच है? क्या यह बदले की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या ऐसा नज़रिया व्यवहार्य नहीं है? 'आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत'; 'जैसे को तैसा'—अविश्वासियों के बीच ये सभी तर्क मान्य और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। लेकिन, परमेश्वर में विश्वास करने वाले किसी व्यक्ति के रूप में—सत्य को समझने का प्रयास करने वाले और स्वभाव में बदलाव चाहने वाले किसी व्यक्ति के रूप में—तुम ऐसे कथनों को सही कहोगे या गलत? इन्हें परखने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसी चीज़ें कहाँ से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें उस प्रकृति का वास्तविक सार होता है। इस प्रकृति के सार वाले नज़रिये, सोच, अभिव्यक्तियों, वाणी और कर्मों का चरित्र क्या होता है? क्या ये शैतान के नहीं हैं? क्या शैतान के ये पहलू इंसानियत के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के या सत्य की वास्तविकता के अनुरूप हैं? क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनकी ऐसी सोच और दृष्टिकोण होने चाहिए?" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करके ही तुम निराशाजनक अवस्था से मुक्त हो सकते हो')। मैं परमेश्वर के वचनों से समझ गई हूँ कि इस द्वेषपूर्ण शैतानी स्वभाव को प्रकट करना और इस तरह की अमानवीय बात करना सिर्फ़ क्षणिक भ्रष्टता नहीं दिखाता है, बल्कि यह दिखाता है कि मैं शैतान के ज़हर और प्रकृति के काबू में हूँ। राष्ट्रीय शिक्षा और सामाजिक अनुकूलन के ज़रिए शैतान लोगों को अपने कई तरह के ज़हर में डुबो देता है, जैसे, "हम तब तक हमला नहीं करेंगे जब तक हम पर हमला नहीं किया जाता है; यदि हम पर हमला किया जाता है, तो हम निश्चित रूप से जवाबी हमला करेंगे।" "आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत," और "उसे अपनी ही दवा का स्वाद चखाओ।" इन शैतानी सिद्धांतों से भ्रष्ट और विषैले लोगों का अहंकार, स्वार्थ, धोखेबाज़ी और चालाकी बढ़ती जाती है, और वे अपने हितों और छवि की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। लोग एक-दूसरे के साथ ठीक से मेलजोल नहीं कर पाते हैं, उनके पास कोई समझ नहीं होती, सब्र तो उससे भी कम होता है। जैसे ही किसी दूसरे इंसान के शब्द या काम उनके अपने हितों के आड़े आते हैं, वे उनके खिलाफ़ पक्षपातपूर्ण हो जाते हैं, उनसे घृणा करने लगते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं, यहां तक कि बदला भी लेते हैं। यह बिल्कुल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तरह है। अपनी तानाशाही बनाए रखने के लिए और अपनी छवि को "महान, यशस्वी और सही" बनाए रखने के लिए, किसी को भी उसके बुरे कामों को प्रकट करने की अनुमति नहीं है, चाहे ऐसे काम जितने भी हों। लोग सिर्फ़ इसकी तारीफ़ में गीत गा सकते हैं। जो कोई भी सच कहता है और चीन की साम्यवाद पार्टी की सच्चाई का खुलासा करके उसकी "यशस्वी" छवि को चोट पहुँचाता है, उसे सज़ा ज़रूर दी जाएगी। वे लोगों पर हर तरह के मनगढ़ंत आरोप लगाकर कैद करते हैं, यहां तक कि उन्हें चुप कराने के लिए उनकी हत्या भी करते हैं। बड़ा लाल अजगर बहुत ही बर्बर है! बचपन से ही मेरे अंदर बड़े लाल अजगर का विष फैलाया गया है और मुझ में शैतानी स्वभाव कूट-कूट कर भरा है। मैं बहुत अहंकारी हूँ, मैं सत्य को स्वीकार नहीं करती हूँ, और मैं दूसरों को अपना भ्रष्ट स्वभाव सामने नहीं लाने देती हूँ। जो भी इंसान मेरे हितों से समझौता करता है, उसके साथ मेरी नहीं बनती और मैं उन्हें एक जानी दुश्मन की तरह मानती हूँ। जब भाई झाओ ने सच बोलने की, मेरी असली कमियों को सामने रखने की हिम्मत दिखाई, तो मैं न सिर्फ इसे ठीक से संभालने में और विनम्रतापूर्वक उनकी मदद स्वीकार करने में नाकाम रही, बल्कि उनके लिए अपने मन में द्वेष पालने लगी, क्योंकि इससे मेरी प्रतिष्ठा और इज़्ज़त पर असर पड़ रहा था। मैं उनके बारे में पीठ पीछे बातें करने लगी, उनकी आलोचना करने लगी, और इंतज़ार करने लगी कि कब उन्हें हटा दिया जाएगा। मैं शैतान की दास की तरह काम कर रही थी, और मुझे अहसास भी नहीं था कि ऐसा करके मैं कलीसिया के काम में बाधा पैदा कर रही थी। तभी मैंने देखा कि शैतान ने मुझे कितनी गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। मेरी प्रकृति अहंकारी, धोखेबाज़, स्वार्थी और द्वेषपूर्ण थी। बिना उचित मानवीय समानता के मैंने सिर्फ़ अपने शैतानी स्वभाव को प्रकट किया। मुझे समझ आया कि अगर मेरे शैतानी स्वभाव को नहीं सुधारा गया, तो परमेश्वर मुझे निःसंदेह ही नष्ट कर देगा। अब मुझे यह पता है कि जब मैं ख़ुद को दूसरों के साथ सहनशील, धैर्यवान और अच्छी मानवता वाली मानती थी, तो ऐसा इसलिए था क्योंकि मेरे निजी हितों का उल्लंघन नहीं किया गया था, लेकिन जैसे ही ऐसा हुआ, मेरा शैतानी स्वभाव सामने आ गया। अपने लिए मेरी नफ़रत दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। मैं अपने शैतानी स्वभाव में नहीं रहना चाहती थी और परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहती थी। मैंने फिर परमेश्वर से पश्चाताप की प्रार्थना की, और मैं सत्य पर चलने के लिए तैयार थी, परमेश्वर के वचनों के न्याय और शुद्धिकरण को स्वीकार करने के लिए तैयार थी, और जितनी जल्दी हो सके मैं अपने शैतानी स्वभाव को अपने से दूर फेंकने को तैयार थी।
कुछ समय बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा: "यदि, परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग अक्सर परमेश्वर के सामने नहीं रहते हैं, तो वे अपने हृदय में उसके लिए कोई श्रद्धा नहीं रख पाएंगे, और इसलिए वे बुराई से दूर रहने में असमर्थ होंगे। ये बातें जुड़ी हुई हैं। यदि तेरा हृदय अक्सर परमेश्वर के सामने रहता है, तो तू नियंत्रण में रखा जाएगा, और कई चीज़ों में परमेश्वर का भय मानेगा। तू बहुत दूर नहीं जाएगा, या ऐसा कुछ भी नहीं करेगा जो स्वच्छन्द हो। तू वह नहीं करेगा जो परमेश्वर के लिए घृणित हो, और उन वचनों को नहीं बोलेगा जिनका कोई अर्थ नहीं है। यदि तू परमेश्वर के अवलोकन को स्वीकार करता है, और परमेश्वर के अनुशासन को स्वीकार करता है, तो तू बहुत से बुरे कार्यों को करने से बचेगा। वैसे, क्या तूने बुराई को दूर न किया होता?" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'यदि तू हर समय परमेश्वर के सामने रह सकता है केवल तभी तू उद्धार के पथ पर चल सकता है')। मैंने परमेश्वर के वचनों से देखा कि अपनी आस्था में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा होना बेहद ज़रूरी है। हमें हमेशा परमेश्वर के सामने रहना होगा और अपने शब्दों और कार्यों में परमेश्वर की जांच को स्वीकार करना होगा। जब कोई हमारे हितों के आड़े आता है, तो भले ही यह स्वीकार करना मुश्किल हो या हम विरोध महसूस करें, परमेश्वर के प्रति श्रद्धा के साथ, प्रार्थना के ज़रिए, हम ख़ुद को इस भावना से अलग कर सकते हैं, सत्य की तलाश कर सकते हैं, परमेश्वर के घर के काम और अपने कर्तव्य पर ध्यान बनाए रख सकते हैं, और परमेश्वर के खिलाफ़ विद्रोह या विरोध करने से ख़ुद को रोक सकते हैं। जब मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना शुरू कर दिया किया, तो मैंने धीरे-धीरे भाई जाओ के खिलाफ़ अपने पूर्वाग्रहों को छोड़ दिया और महसूस किया कि अगर वे मेरी समस्याओं के बारे में बताते हैं, तो मुझे सुधरने में मदद मिल सकती है और वे यह इसलिए करते हैं ताकि हमारे कर्तव्य निर्वहन में बेहतर नतीजे प्राप्त किए जा सकें। अब जब मेरा सामना किसी समस्या से होता है, तो मैं उनसे सही मानसिकता के साथ परामर्श ले पाती हूँ और उनके सुझावों और मदद से, मैंने अपनी कमज़ोरियों में सुधार किया है। मैंने अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से पूरा करना शुरू कर दिया है, और मैं चैन और शांति महसूस करती हूँ। सिर्फ़ परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के ज़रिए मैं इस बदलाव को महसूस कर पाई। मैंने देखा कि मानव जाति को बचाने के लिए परमेश्वर का काम कितना व्यवहारिक है।
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