बर्खास्तगी से मैंने क्या सीखा

24 जनवरी, 2022

झेंग यी, अमेरिका

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा निपटाया, अनुशासित किया जाना और काँटा-छाँटा जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और निपटारे से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)परमेश्वर के वचन बहुत व्यावहारिक हैं। परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, निपटान और काट-छाँट से ही हम अपने शैतानी स्वभाव को बदलकर परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और निष्ठा पा सकते हैं। मैं हमेशा भ्रष्ट स्वभाव के साथ अपने काम किया करती थी, बहुत स्वार्थी और नीच थी, हमेशा अपने नाम और रुतबे को बचाने में लगी रहती थी। काम से निकाले जाने के बाद, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव का सच्चा ज्ञान हासिल हुआ। मुझे पछतावा होने लगा और खुद से घृणा हो गई, फिर दूसरा कर्तव्य मिलने पर मैंने पहले से बेहतर काम किया।

पिछले साल अगस्त में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और कुछ अन्य भाई-बहनों के साथ कलीसिया के काम की जिम्मेदारी दी गई। मैं मुख्य रूप से सिंचन कार्य पर ध्यान देने के साथ-साथ कलीसिया के प्रोजेक्ट में फैसले लेने में भी हिस्सा लेती थी। हमने अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियां बाँट ली थीं, मगर मैं जानती थी कि कलीसिया का काम एक व्यापक इकाई है, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के लिए मुझे भाई-बहनों के साथ सहयोग करना और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना था। पहले, मैं साप्ताहिक सभाओं पर बहुत ध्यान देती थी। मैं चर्चाओं में सक्रिय रूप से हिस्सा लेती और अपने सुझाव भी देती थी। फिर अक्टूबर में एक दिन नए सदस्यों के सिंचन के काम में देरी होने ही वाली थी क्योंकि मैंने सही समय पर उसकी जानकारी नहीं ली। बड़े अगुआओं ने कड़ाई से मेरी काट-छाँट और मेरा निपटान किया। मैंने मन-ही-मन सोचा, मेरे काम में समस्या थी, इसलिए मेरा निपटान किया गया। अगर और समस्याएं सामने आईं, तो अगुआ मुझे समझ जाएंगे कहेंगे कि मैं व्यावहारिक काम नहीं कर सकती, फिर मुझे बर्खास्त कर देंगे। इसके बाद मैं दोबारा अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊँगी? कौन मेरा आदर करेगा? नहीं, अब मुझे जिन कामों की जिम्मेदारी दी गई है उन पर ज़्यादा ध्यान देना होगा, कोई और गलती नहीं हो सकती।

कुछ समय बाद, मेरी ज़िम्मेदारियों का दायरा बढ़ा दिया गया। मैं कुछ कामों में अच्छी नहीं थी, इसलिए उन्हें समझने में काफी समय और मेहनत लगती थी, मगर हर सभा में बहुत-से रणनीतिक फैसलों पर भी चर्चा करनी होती थी और इसमें काफी समय लग रहा था। मैंने सोचा क्या इसका असर उन कामों पर पड़ सकता है जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। अगर मेरी ज़िम्मेदारी वाले काम असरदार नहीं रहे और उसमें अधिक समस्याएं आने लगीं, तो मुझे पक्के तौर पर बर्खास्त कर दिया जाएगा, फिर दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या दूसरे लोग कलीसिया के अन्य प्रोजेक्ट पर ध्यान नहीं दे रहे? मैंने सोचा वे अपनी चर्चाएं खुद कर लें, मेरे पास बहुत सारा काम है। अगर वे अपने काम पूरे करते हैं तो इसका मुझसे क्या लेना-देना, उससे तो मुझे कोई प्रशंसा नहीं मिलेगी। मगर मैं अपने काम के दायरे में आने वाली समस्याओं के लिए सीधे ज़िम्मेदार हूँ, इसलिए मुझे बस अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान देना चाहिए। उसके बाद, मैं अपनी ज़िम्मेदारी वाले मुख्य काम में ज़्यादा समय देने और मेहनत करने लगी, और दूसरे कामों को बोझ की तरह देखने लगी। मैं अपने काम से जुड़ी हर बात पर अपने विचार रखती थी, मगर दायरे से बाहर की बात होने पर, मैं अपने कामों में ही लगी रहती थी। मैं चर्चाओं पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती थी, इसलिए जब फैसलों पर मेरी राय माँगी जाती, तो मैं वही कह देती जो बाकी लोग कहते। जब महत्वपूर्ण मामलों पर तत्काल चर्चा करके फैसले लेने की ज़रूरत होती, और मुझे पता चलता कि उसका मेरे काम से लेना-देना नहीं है, तो मैं उसे अनदेखा कर देती और उदासीन रुख अपना लेती।

कुछ समय बाद, मुझे भाई-बहनों से यह सुनने को मिलने लगा कि कुछ मामलों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है और अगुआओं ने उनका निपटान किया है, इसके अलावा, कर्मियों की व्यवस्था भी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं की गई है, जिसके कारण परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुंचा है। कुछ बातों पर हर किसी के फैसले और सहमति की ज़रूरत थी। उन पर अच्छी तरह ध्यान नहीं देने से, आखिर में परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुंचा। इसके अलावा, कलीसिया के लिए सामानों की खरीद पर भी ठीक से ध्यान नहीं दिया गया, जिसके चलते भेंटों का नुकसान हुआ। इस तरह की चीज़ें अक्सर होने लगीं। मैंने सोचा, यह अच्छी बात है कि मेरे काम में कोई बड़ी समस्या नहीं आई है। जब इसकी जांच होगी, तो ठीकरा मेरे सिर नहीं फूटेगा। अपने काम के प्रति मेरा इस तरह का गैर-ज़िम्मेदार रवैया काफी समय तक बना रहा और मुझे इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता था। एक दिन, मेरी सहकर्मी बहन मुझसे कहने लगी कि मैं अपने काम की ज़िम्मेदारी उठाने और सभी बातों पर गौर करने के बजाय सिर्फ अपने काम पर ध्यान दे रही हूँ, मैं फैसले लेने में सक्रियता से हिस्सा नहीं लेती। उसने कहा कि यह खतरनाक है और अगर मैंने अपना रवैया नहीं बदला, तो देर-सवेर मुझे हटा दिया जाएगा। उसने कहा कि मुझे काम के प्रति अपने रवैये पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए। उसकी सहभागिता के बाद भी, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। इसके बजाय, मन-ही-मन तर्क दिया : "क्या तुमने मेरी सभी तकलीफ़ों को नहीं देखा है? इस काम को अच्छे से करने में काफी मेहनत लगती है। अगर मेरी ज़िम्मेदारी वाले काम में कोई समस्या है, तो वह मेरे सिर होगा, फिर दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे सोचेंगे कि मैं काबिल नहीं हूँ और व्यावहारिक काम नहीं कर सकती। क्या उन दूसरे कामों के लिए अन्य लोग ज़िम्मेदार नहीं हैं? इन फैसलों में मेरी भागीदारी से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।" मगर कलीसिया के समग्र कामों के प्रति मेरी लापरवाही और गैर-ज़िम्मेदारी के कारण, और सही तरीके से आत्मचिंतन नहीं करने के कारण, जल्दी ही परमेश्वर का क्रोध मुझ पर बरस गया। इस साल जनवरी में, एक अगुआ ने मुझसे कहा, "भाई-बहनों ने बताया कि आप अपने काम की ज़िम्मेदारी नहीं उठा रही हैं, चर्चाओं और फैसलों के दौरान भी आप अपने विचार साझा नहीं करती हैं, आप अपनी ओर से ठोस सुझाव भी नहीं दे रही हैं, आपको कलीसिया के काम के प्रति ज़िम्मेदारी का ज़रा-भी एहसास नहीं है। विचार-विमर्श के बाद, हर किसी ने आपको बर्खास्त करने का फैसला लिया है।" अगुआ की बात सुनकर, मैं हैरान रह गई, चक्कर खाकर गिरने ही वाली थी। मैंने सोचा, "आप मुझे इस तरह कैसे बर्खास्त कर सकती हैं? मैंने भले ही कलीसिया के समग्र कार्य में ज़्यादा भागीदारी नहीं दिखाई, मगर हर दिन अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने में काफी व्यस्त रही और काफी कष्ट भी उठाया है। आप यह कैसे कह सकती हैं कि मैं ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही? बिना किसी समस्या के मैं अपना काम पूरा करती रही, क्या ये काफी नहीं?" कुछ समय के लिए तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाई, मगर फिर भी मुझे विश्वास था कि परमेश्वर जो करता है अच्छा करता है, मुझमें ही जागरूकता की कमी थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने को कहा, ताकि आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूँ।

एक बार मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा जिसने मुझे काफी प्रेरणा दी। "विवेक और सूझ-बूझ दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं? ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं। ऐसे इंसान के कर्म और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं: जब भी सम्मान या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका आता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब सम्मान पाने का कोई मौक़ा नहीं होता, या जैसे ही दुख का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नज़रों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में ज़मीर और विवेक होता है? क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के इंसान का ज़मीर किसी काम का नहीं होता, उसे कभी भी आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता। तो, क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। मैंने इसे जितना पढ़ा, उतना ही दुखी महसूस किया। मैं बिल्कुल वैसी ही थी जैसा परमेश्वर ने कहा। मैं अपने काम के प्रति बेपरवाह और अलग-थलग थी, अपनी जिम्मेदारियों से बाहर किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं देती थी। मैंने सिर्फ अपने काम पर ध्यान दिया। मैंने सिर्फ यही सोचा कि शोहरत और रुतबा हासिल करने की मेरी इच्छा पूरी हो सकती है या नहीं। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा बिल्कुल भी नहीं की। जब हर कोई फैसले लेने पर चर्चा कर रहा था, उस समय, मैं सोच रही थी कि मेरी जिम्मेदारियों के बाहर मिलने वाली कामयाबी से मेरा कुछ भला नहीं होगा, और अगर इन्हें ठीक से हल नहीं किया गया तो इसका दोष मेरे ऊपर नहीं आएगा। अगर मैं इन्हें टाल सकती हूँ तो इनमें हिस्सा नहीं लूंगी। मैं बस हर किसी से सहमत होते हुए बेपरवाही से काम करती रही। ये लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार रवैया था। मैं अपनी ज़िम्मेदारी के दायरे में आने वाले काम में बहुत मेहनती और ईमानदार थी, डरती थी कि इनमें कोई समस्या होने पर मेरी काट-छाँट और निपटान होगा या मुझे बर्खास्त किया जाएगा और बहुत बदनामी होगी। अपने काम को अच्छी तरह से पूरा करने के लिए, दूसरों के बीच अपनी छवि और रुतबे को बचाने के लिए, मैंने फैसले लेने की ज़िम्मेदारी को एक रुकावट और वक्त की बर्बादी माना, मुझे लगा इसके कारण मैं अपना काम नहीं कर पा रही। अपने बर्ताव पर विचार करके, मैंने जाना कि अपने कर्तव्य को पूरा करने के पीछे मेरी मंशा खुद को संतुष्ट करने की थी, मैंने सारी तकलीफें खुद के लिए उठाई थीं। मैंने परमेश्वर के घर के हितों या समग्र कार्य की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी बिल्कुल भी नहीं उठाई और न ही मुझे इसकी समझ थी। मुझमें इंसानियत नहीं थी और मैं ऐसे महत्वपूर्ण कार्यभार के काबिल नहीं थी। इसके बाद मैंने अपनी बर्खास्तगी को पूरी तरह कबूल कर लिया। हालांकि मैं यह जानती थी कि मेरा बर्ताव परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं था, फिर भी मैंने अपनी प्रकृति को नहीं समझा और यह नहीं जान पाई कि मेरे अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठाने के पीछे कारण क्या था। शोहरत और रुतबे के पीछे भागते हुए, मैंने परमेश्वर के घर के हितों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया था। उसके बाद मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने अपनी समस्या रखी, परमेश्वर से विनती की कि वो मुझे राह दिखाए जिससे मैं अपनी समस्या के मूल और सार को जान सकूँ, ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझकर दिल की गहराइयों से खुद से नफ़रत कर सकूँ।

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी की मानवता की एक और विशिष्ट पहचान—उनकी बेशर्मी के अलावा—उनकी असामान्य स्वार्थपरता और नीचता है। वे कितने स्वार्थी होते हैं? और इस स्वार्थपरता की शाब्दिक व्याख्या क्या है? अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है : वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन कर देंगे, समर्पित कर देंगे। जिस चीज से उनका संबंध नहीं होता, वे उसकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उस पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विभाजनकारी या विघटनकारी तो नहीं हो रहा। युक्तिपूर्वक कहें तो, वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, घिनौना और निकम्मा होता है; हम उन्हें 'स्वार्थी और नीच' के रूप में परिभाषित करते हैं। मसीह-विरोधियों की मानवता की स्वार्थपरता और नीचता कैसे प्रकट होती हैं? जब कोई चीज उनकी हैसियत या प्रतिष्ठा से संबंधित होती है, तो वे अपना दिमाग इस बात पर लगा देते हैं कि क्या करना है या क्या कहना है, वे इधर-उधर दौड़ने-भागने से नहीं कतराते, बल्कि खुशी-खुशी बड़ी मुश्किल का सामना करते हैं। लेकिन जो चीज परमेश्वर के घर के कार्य और सिद्धांत से संबंधित होती है—यहाँ तक कि जब बुरे लोग बाधा डाल रहे होते हैं, हस्तक्षेप कर रहे होते हैं, सभी प्रकार की बुराई कर रहे होते हैं और कलीसिया के कार्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहे होते हैं—तब भी वे उसके प्रति आवेगहीन और उदासीन बने रहते हैं, जैसे उनका उससे कोई लेना-देना ही न हो। और अगर कोई इस बारे में जान जाता है और इसे उजागर कर देता है, तो वे कहते हैं कि उन्होंने कुछ नहीं देखा, और अज्ञानता का ढोंग करने लगते हैं। जब लोग उनकी शिकायत करते हैं, उनकी सच्चाई उजागर करते हैं, तो वे आगबबूला हो जाते हैं : यह तय करने के लिए आनन-फानन में बैठकें बुलाई जाती हैं कि क्या उत्तर दिया जाए, इस बात की जाँच की जाती है कि किसने गुपचुप यह काम किया है, सरगना कौन है, कौन शामिल है। जब तक वे इसकी तह तक न पहुँच जाएँ और मामला शांत न हो जाए, तब तक उनका खाना-पीना हराम हो जाता है; कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि उन्हें तभी खुशी मिलती है जब आरोप लगाने वाले के सहयोगियों तक को हटा दिया जाता है। यह स्वार्थपरता और नीचता का प्रकटीकरण है, है न? क्या वे कलीसिया का काम कर रहे हैं? वे अपने सामर्थ्य और रुतबे के लिए कार्य कर रहे हैं, और कुछ नहीं। वे अपना कारोबार चला रहे हैं। मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में विचार नहीं करते। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि कहीं उनके अपने हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, और केवल उन्हीं कामों के बारे में सोचते हैं जो उनके सामने होते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया के काम ऐसी चीजें हैं जिन्हें वे अपने खाली समय में करते हैं, और उनसे हर काम कह-कहकर करवाना पड़ता है। अपने हितों की रक्षा करना ही उनका असली काम होता है, यही उनका मनपसंद असली धंधा होता है। उनकी नजर में परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश से जुड़ी किसी भी चीज का कोई महत्व नहीं होता। अन्य लोगों को अपने काम में क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं, वे किन मुद्दों की पहचान करते हैं, उनके शब्द कितने ईमानदार हैं, मसीह-विरोधी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल ही नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। वे कलीसिया के मामलों से पूरी तरह से उदासीन होते हैं, फिर चाहे वे मामले कितने भी गंभीर क्यों न हों। अगर समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे अनिच्छा से और लापरवाही से ही उसमें हाथ डालते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनसे निपटता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। कलीसिया के काम के प्रति, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण बातों के प्रति वे उदासीन और बेखबर बने रहते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और पूछने पर टालमटोल करते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता का प्रकटीकरण है, है न?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन का सामना करके मेरा दिल छलनी और मन बेचैन हो गया। मसीह-विरोधी सिर्फ अपने नाम और रुतबे के लिए काम करते हैं, वे हर उस काम को ईमानदारी से पूरा करते हैं जिसमें उनका हित होता है। उसके लिए वे हर तकलीफ उठा सकते हैं, अपनी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा खर्च कर सकते हैं। मगर जो काम उनके फायदे का नहीं है, उसे अनदेखा करते हैं। यह खास तौर पर एक स्वार्थी और घिनौनी प्रकृति है। मैंने देखा कि मेरा बर्ताव मसीह-विरोधियों जैसा ही था, मैं स्वार्थी और धूर्त तरीके से सिर्फ अपनी इज़्ज़त और रुतबे के लिए काम कर रही थी। "चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों" और "जितनी कम परेशानी, उतना ही बेहतर" जैसे शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी। मैं सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी वाले काम पर ध्यान दे रही थी, जिसका असर मेरी शोहरत और रुतबे पर पड़ता था, मैं उन कामों को अनदेखा कर रही थी जो मेरी ज़िम्मेदारी के दायरे में नहीं आते थे। इससे परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर की भेंटों को भारी नुकसान हुआ। मैंने देखा कि मैं एक स्वार्थी, ख़ुदगर्ज, घृणित और नीच इंसान थी, मैं भरोसे या विश्वास के लायक नहीं थी। उस समय के दौरान कलीसिया के काम में लगातार समस्याएं आ रही थीं, काम को सही तरीके से पूरा न कर पाने के कारण अगुआ दूसरे भाई-बहनों पर कार्रवाई कर रहे थे। सीधे तौर पर मेरी आलोचना नहीं की गई, मगर मैं भी कलीसिया अगुआ थी और मैं अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती थी। अगर मैंने काम की चर्चाओं में ईमानदारी से हिस्सा लिया होता, तो शायद मुझे कुछ समस्याओं का पता चल जाता, मगर मैं सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान देकर, अपने नाम और रुतबे को बचाना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के घर के समग्र कार्य या हितों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। अपने काम में मेरे कई अपराधों और परमेश्वर के घर को पहुँचाये अपूरणीय नुकसानों को देखकर, मैं पछतावे और अपराध बोध से भर गई। परमेश्वर ने ऐसा महत्वपूर्ण काम देकर मुझे ऊँचा उठाया था, मुझे खुद को संवारने का मौका दिया था, ताकि मैं अधिक तेज़ी से सत्य समझ सकूँ। परमेश्वर ने मुझे बचाने के लिए सब कुछ किया था, मेरे लिये काफी कीमत चुकाई थी, मैंने बरसों तक उसके वचनों के सिंचन और पोषण का आनंद उठाया था, फिर भी मैंने आभार नहीं माना, मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाना या परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना नहीं चाहती थी। मैंने सिर्फ अपने नाम और रुतबे के साथ-साथ अपनी छोटी-सी दुनिया को बचाने के बारे में सोचा, ताकि मेरा निपटान न किया जाये। मैं इस महत्वपूर्ण कार्य के प्रति लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार थी, परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान होते और कलीसिया के काम पर बुरा असर पड़ते देखती रही। मैं बेपरवाह थी, मुझमें विवेक नाम की चीज़ नहीं थी। मुझे एक इंसान भी कैसे माना जा सकता है? जब कोई परिवार कुत्ते को खाना खिलाता है तो कुत्ता हमेशा वफ़ादार बना रहता है। मैं तो एक जानवर से भी बुरी थी। मैं जितना सोचती उतना ही लगता कि मैं इंसान नहीं हूँ, मैं सचमुच परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के लायक नहीं थी। इस पर, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं गलत थी। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने की परवाह किये बिना सिर्फ अपने नाम और रुतबे के बारे में सोचा। मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी, मैं स्वार्थी और ख़ुदगर्ज थी। आज मुझे बर्खास्त किया जाना तुम्हारी धार्मिकता थी, इससे भी ज़्यादा, यह मेरे लिए तुम्हारा प्रेम और उद्धार है। मैं तुम्हारे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ।"

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, "अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो" से। "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में तुममें सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो इसमें कोई शक नहीं कि तुम कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए' से क्या अभिप्राय है? शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। परमेश्वर की स्वीकृति पाने के बजाय, तुम तिरस्कृत किए जाओगे। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि उसका स्वभाव धार्मिक है, उसका अपमान नहीं किया जा सकता। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई में देखता है, अगर लोग परमेश्वर को संतुष्ट करने के बजाय किसी और मंशा से अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनके पास सत्य के अभ्यास की गवाही नहीं होती, बल्कि हर मामले में खुद को संतुष्ट करते और अपने फायदों के पीछे भागते हैं, तो परमेश्वर इसकी सराहना नहीं करता। कोई व्यक्ति इसके लिए कितनी भी तकलीफ़ क्यों न उठाए, परमेश्वर उसे याद नहीं रखता, बल्कि परमेश्वर उसे एक दुष्ट इंसान मानकर दंड देता है। अपने काम के प्रति मेरी मंशाएं गलत थीं। वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं थी, बल्कि मैं तो अपना ही उद्यम चला रही थी। मैं सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी वाले काम के लिए तकलीफ़ उठाने और खुद को खपाने को तैयार थी, मगर दूसरों की नज़रों में यह सब अपने रुतबे और छवि को बचाने के लिए था। मैं तकलीफ़ उठाने और कड़ी मेहनत करने के लिए दूसरों की प्रशंसा पाना चाहती थी, लोगों की सराहना पाकर उनके दिलों में जगह बनाना चाहती थी। यह दरअसल लोगों को फंसाना और परमेश्वर से होड़ करना था। इससे परमेश्वर के स्वभाव का गंभीर अपमान हुआ। अगर मैंने पश्चाताप करके खुद को नहीं बदला, तो आखिर में परमेश्वर मुझे अलग करके हटा देगा। एक अगुआ का कर्तव्य देकर परमेश्वर ने मुझे खुद को संवारने का अवसर दिया था। अगुआ, कलीसिया के समग्र कार्य के लिए ज़िम्मेदार होते हैं, कलीसिया में बहुत-सी समस्याएं, परेशानियां और मुश्किलें होती हैं जिनका समाधान ज़रूरी होता है। इसके लिए बहुत से सिद्धांतों और सत्य की खोज करनी होती है। मैं अपने काम में गलतियां कर सकती हूँ, मुझे काटा-छाँटा या मेरा निपटान भी किया जा सकता है, मगर निरंतर समीक्षा, सुधार और आत्मचिंतन से मुझे बहुत कुछ हासिल होगा। चाहे यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की बात हो या मेरे भ्रष्ट स्वभाव की, यह सब व्यावहारिक ज्ञान है। मगर मैंने इस अवसर का लाभ नहीं उठाया, इसका आभार नहीं माना। इसके बजाय, मैंने इसे एक परेशानी माना और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जाने के इस अवसर को गँवा दिया। ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य में, ज़िम्मेदार न होकर, दूसरों के साथ सहयोग न करके, और फैसले, निरीक्षण, या निगरानी में कोई भूमिका न निभाकर, मैं भला अपना कर्तव्य कैसे निभा रही थी? मैं तो परमेश्वर को मूर्ख बनाकर उसे धोखा दे रही थी। मैं दुष्टता कर रही थी।

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, प्रतिष्ठा और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य करने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का, परमेश्वर के हितों का, उसके कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन विचारों को पहला स्थान देना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे इन चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौता कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम ऐसा कुछ समय के लिए कर लो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना मुश्किल नहीं है। इसके साथ ही, तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, अपनी स्वार्थी इच्छाएँ, व्यक्तिगत अभिलाषाएँ और इरादे त्याग देने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले आने चाहिए। हमें परमेश्वर की जांच को स्वीकार करके सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करना होगा, अपने नाम, रुतबे और निजी हितों को परे रखकर, हर तरह से परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करनी होगी। यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप काम करने, ईमानदारी और सम्मान के साथ जीने का एकमात्र तरीका है। मैं हमेशा यही सोचती थी कि कलीसिया के कार्य से जुड़े फैसलों में हिस्सा लेने से मेरे काम में देरी हो जाएगी, मगर यह एक बेतुकी सोच थी। दरअसल, अगर सत्य और सिद्धांतों की खोज करने, प्राथमिकता की समझ बनाये रखने, और महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने पर ध्यान दिया जाता है, तो कार्य में देरी नहीं होती है। कलीसिया के ज़रूरी फैसले करने में हिस्सा लेने पर अधिक सिद्धांतों की समझ हासिल होती है, इससे कर्तव्य के साथ खुद को भी फायदा होता है। परमेश्वर के घर ने हर कलीसिया में कुछ अगुआओं को चुना है जिन पर कलीसिया के कार्य की ज़िम्मेदारी होती है, इसलिए हर व्यक्ति इसमें योगदान देकर, निगरानी करते हुए एक दूसरे पर नज़र रख सकता है। खास तौर पर कुछ जटिल समस्याओं में, जहां वे फैसले लेने वालों के तौर पर काम करते हैं, गहरी समझ न होने और मनमाने फैसले लेने से परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले नुकसान रोके जा सकते हैं, मगर मैं ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य में बेपरवाह और उदासीन बनी रही। मैं सचमुच विश्वास के लायक नहीं थी, मुझे बर्खास्त करके हटाया जाना सही था। यह समझकर मैंने संकल्प लिया कि आगे से चाहे कोई काम मेरी मुख्य ज़िम्मेदारी हो, चाहे यह परमेश्वर के घर का काम हो या इसमें उसके हित शामिल हों, वह मेरी ज़िम्मेदारी और मेरा कर्तव्य होगा, मुझे परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए। अब मैं स्वार्थी और नीच होना और अपने फायदे के लिए सोचना बंद कर दूँगी।

बाद में, मुझे एक बार फिर, दूसरी कलीसिया के लिए अगुआ चुना गया। मैं जानती थी कि परमेश्वर ने मुझे ऊँचा उठाया है। मैं स्वार्थी और नीच थी, फिर भी परमेश्वर के घर ने ऐसा महत्वपूर्ण काम करने की अनुमति दी, मैंने कसम खाई कि मैं इसे अच्छी तरह करूंगी, मैं स्वार्थी बनकर सिर्फ अपने काम के बारे में नहीं सोचूंगी। उस कलीसिया में, मैं तीन अगुआओं में से एक थी, हर अगुआ को कार्य के एक हिस्से की ज़िम्मेदारी मिली हुई थी। जब कलीसिया के प्रोजेक्ट के बारे में एक बहन ने मेरे साथ सहभागिता की, तो मुझे ऐसी बहुत-सी बातें पता चलीं जो मैं नहीं समझती थी, इन्हें सीखने के लिए समय और मेहनत की ज़रूरत थी। मेरे हर दिन का पूरा काम बंटा होता था, कभी-कभी लगता कि मेरे पास पर्याप्त समय ही नहीं है। एक दिन, मेरी सहकर्मी बहन मेरे पास आकर बोली कि वह कुछ समस्याओं पर दूसरों के साथ सहभागिता करने में मेरी मदद चाहती है। मैंने सोचा, "कुछ दिनों पहले, एक बड़ी अगुआ ने मेरे काम की समीक्षा करने के बाद कहा था कि मैंने बहुत से काम ठीक से पूरे नहीं किये थे। मेरा वक्त बहुत कीमती है। अगर मैंने उसकी मदद की और मेरे काम में देरी हो गई, तो मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, फिर वो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वो कहेगी कि मैं काबिल नहीं हूँ और व्यावहारिक काम नहीं कर सकती? क्या मुझे फिर से बर्खास्त कर दिया जाएगा?" इस पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने नाम और रुतबे के बारे में सोच रही हूँ, कलीसिया का काम एक समग्र काम है और मैं इसे बाँट नहीं सकती। अगर मैंने सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारियों पर ध्यान दिया और बाकी बातों को अनदेखा किया, तो क्या वह स्वार्थ, नीचता, और अपने हितों की रक्षा करना नहीं है? मैं ऐसा नहीं कर सकती। मुझे अपने हितों को परे रखकर कलीसिया की समस्याओं को हल करने में इस बहन की मदद करनी ही होगी। मैं सहभागिता में उसकी मदद करने के लिए उसके साथ सभा में जाने को तैयार हो गई। ऐसा करके मुझे काफी सुकून मिला और वह आज़ादी महसूस हुई जो सत्य का अभ्यास करने से आती है। हालांकि अपने कर्तव्य से बर्खास्त किया जाना मेरे लिए बहुत पीड़ादायक था, मगर इससे मुझे एक बेशकीमती सबक भी मिला। इसने परमेश्वर के धार्मिक और अपमान न किए जा सकने लायक स्वभाव की व्यावहारिक समझ दी। मैंने अपने कर्तव्य के प्रति मेरी गलत सोच और लापरवाह रवैये को भी ठीक किया। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।

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