मेरी आस्था परमेश्वर में है : इंसानों की पूजा क्यों करूँ?
जब मैं पहली बार कलीसिया में सुसमाचार कार्य की प्रभारी बनी, तो मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे; इस बात ने मुझे बहुत चिंता में डाल दिया। उसी दौरान, ऐनी का तबादला हमारी कलीसिया में किया गया। मैंने सुना कि वह करीब 20 सालों से विश्वासी रही है, उसने काम के लिए सब कुछ त्याग दिया और खुद को खपाया, कई अलग-अलग जगहों पर सुसमाचार का प्रचार किया, और भयंकर खतरे और कठिनाई का अनुभव करते हुए भी कभी हार नहीं मानी। इसी वजह से, मैं उसका बहुत सम्मान करती थी, और जब मेरी अगुआ ने ऐनी को सुसमाचार कार्य पर मेरे साथ काम करने की व्यवस्था की, तो मैं रोमांचित हो गई। हमारे साथ अपनी पहली सभा में ऐनी ने सुसमाचार का प्रचार करने के दौरान की उन घटनाओं के बारे में बताया जिनमें उसका सामना काम बिगाड़ने वाले धार्मिक अगुआओं के साथ हुआ था। उसने यह भी बताया कि कैसे उनके साथ संगति और बहस करके उनका मुँह बंद कर दिया था। उसने बताया कि वह सुसमाचार सुनने वाले नए लोगों के साथ कैसे सत्य पर संगति करती थी, जिनके मन में मजबूत धार्मिक धारणाएँ होती थीं और बाइबल का व्यापक ज्ञान होता था, और आखिर में वह उनकी उलझन दूर कर देती थी। उसने सुसमाचार का प्रचार करते हुए सामने आई कई मुश्किलों का जिक्र किया और बताया कि कैसे उसने और अन्य भाई-बहनों ने अलग-अलग जगहों पर सुसमाचार का प्रचार करने के लिए कीमत चुकाई थी। उसने यह भी बताया कि कैसे बड़े अगुआओं ने उसे अहमियत दी, विकसित किया और कुछ महत्वपूर्ण दायित्व भी सौंपे। जब वह मानवजाति के लिए परमेश्वर के प्रेम के बारे में संगति करती तो उसकी आँखों से आँसू बहने लगते, इस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया। उसने कहा कि हमें परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रखना चाहिए, और हम चाहे कितनी ही मुश्किलों का सामना करें, अंत के दिनों का उसका सुसमाचार फैलाना हमारा मिशन है। उस समय, मुझे ऐसा लगा कि ऐनी के मन में परमेश्वर के लिए प्रेम भरा पड़ा है, और मैं फौरन उसे आदर भरी नजरों से देखने लगी। मैंने सोचा, “ऐनी काफी समय से परमेश्वर में विश्वास रखती आई है, वह हमारे मुकाबले अधिक सत्य समझती है, और उसका आध्यात्मिक कद हमसे ऊँचा है। मुझे उससे सीखना चाहिए।” बाद में, साथ मिलकर काम करते हुए मैंने देखा कि ऐनी वाकई मुश्किलों के सामने डटी रहने में सक्षम थी, कामकाज का जायजा लेने के लिए देर तक रुकी रहती और समस्याएँ हल करती थी। उसने मेरे काम में गलतियाँ और चूक भी बताये, और अभ्यास के मार्ग के बारे में मेरे साथ संगति की। सुसमाचार सुनने वाले नए लोगों के साथ सुसमाचार का प्रचार करते हुए वह मिसालें देती, उपमाओं का इस्तेमाल करती, बहुत बेबाकी से बोलती, और उनके मन की उलझनें दूर करती। सभाओं के दौरान जब वह बताती कि कैसे वह अपना कर्तव्य निभाने में विफल रही, तो अक्सर यह कहकर रोने लगती कि वह परमेश्वर की कितनी बड़ी कर्जदार है। कभी-कभी सिंचन कर्मी ऐसी समस्या लेकर उसके पास आते जिसका समाधान करना जरूरी होता, तो वह तुरंत उनकी मदद करके के लिए समय निकाल लेती। अगर उसे लगता कि मेरी तबीयत खराब है, तो वह मेरी देखभाल भी करती। इन बातों से मैं उसे और भी ज्यादा पसंद करने लगी। बाद में, जब उसे कलीसिया अगुआ चुना गया, तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि वह सत्य समझती है और उसमें वास्तविकता है। मैं उसका और ज्यादा सम्मान करने लगी और मेरे दिल में उसकी जगह बहुत ऊँची हो गई। मैंने देखा कि वह कितनी व्यस्त रहती है, भाई-बहनों की समस्याएँ हल करने के लिए सदैव तत्पर रहती है, इससे मुझे महसूस हुआ कि कलीसिया में उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है और हम यकीनन उसके बिना कुछ नहीं कर सकते। जब भी मेरे सामने कोई समस्या या मुश्किल पेश आती, मैं संगति के लिए उसे ही खोजती। मैं उत्सुकता से उसके विचारों और सुझावों के नोट तैयार करती और उसके सुझावों को अपनाती। मैं तो उसके कुछ व्यवहारों की नकल भी करने लगी। उदाहरण के लिए, जब मैं उसे देर रात तक काम करते देखती, तो इसे उसकी विश्वसनीयता और अपने कर्तव्य में मुश्किलों के आगे डटे रहने की निशानी मानती, और मैं भी देर रात तक रुकी रहती। जब मेरे काम कोई बहुत जरूरी काम नहीं होता और मैं जल्दी सोने जा सकती थी, तब भी मैं देखती कि ऐनी ने अभी तक कमरे की बत्ती बंद नहीं की है, तो मैं भी देर रात तक जगी रहना चाहती थी। जब मैंने देखा कि काट-छाँट और निपटारे के बाद भी वह मजबूत बनी रही और खुद को लगातार काम में व्यस्त रखा, तो मैंने सोचा कि इसका मतलब यह है कि उसका आध्यामिक कद बड़ा है और उसमें सत्य की वास्तविकता है। इसलिए, जब मेरा निपटारा किया गया, तो भले ही असल में मैं बहुत बेचैन हो गई और सोच-विचार के लिए थोड़ा समय निकालना चाहती थी, पर जब जब मैंने ऐनी के व्यवहार पर गौर किया, तो सोच-विचार कर खुद को जानने पर ध्यान देने के बजाय वापस अपना कर्तव्य निभाने के लिए भागी। मैं इस बात से बिल्कुल अनजान थी कि मैं एक इंसान का अत्यधिक सम्मान और पूजा करने की हालत में जी रही थी। मैं काफी समय तक ऐसी ही हालत में रही और फिर कुछ ऐसा हुआ जिससे धीरे-धीरे मुझे ऐनी की थोड़ी-बहुत पहचान होने लगी।
ऐनी कलीसिया अगुआ के तौर पर हर मामले में व्यावहारिक रवैया अपनाती थी, वह कष्ट उठाकर कीमत चुकाने में सक्षम थी, मगर फिर भी एक-एक करके समस्याएँ सामने आ रही थीं, और कलीसिया के काम की प्रभावशीलता धीरे-धीरे घटने लगी। एक दिन, सिंचन उपयाजिका, बहन लैला ने मुझे बताया कि उसे ऐनी के काम में कुछ गलतियाँ मिली हैं। उसने कहा कि ऐसी हर काम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है और भाई-बहनों को अभ्यास नहीं करने देती है, वह दूसरों को विकसित करने पर कोई ध्यान नहीं देती है। लैला ने कहा कि ऐनी उपयाजकों और टीम अगुआओं के सभी काम खुद ही करती थी, जिसका मतलब था कि कोई और व्यक्ति अभ्यास ही नहीं कर पाता था, और समय के साथ सभी लोग खुद को बेकार और निरर्थक महसूस करने लगे, मगर ऐनी को बहुत ऊँची नजर से देखने लगे। यह कर्तव्य निभाने के लिए अच्छा माहौल नहीं था। लैला ने कहा कि वह ऐनी को कुछ सलाह देना और उसे दूसरों को अभ्यास के अवसर देने के लिए कहना चाहती थी, ताकि वे अपनी कमियों और खामियों के बारे में सीख कर तेजी से प्रगति कर सकें। इस तरह हर कोई अपने हुनर का बेहतर इस्तेमाल कर पाएगा और वे यकीनन अपने कर्तव्य में अधिक से अधिक प्रभावशाली होंगे। मुझे लैला के विचार अच्छे लगे, इसलिए मैं उसके साथ ऐनी से बात करने गई। मैं यह देखकर हैरान रह गई कि ऐनी हमारी सलाह से बिल्कुल भी खुश नहीं थी, उसने हमें गुस्से से घूरकर देखा और अपनी असहमति जताई। उसने कहा कि भाई-बहनों में बहुत सी कमियाँ हैं, उन्हें सिखाने में बहुत सी दिक्कतें हैं और इससे काम में देरी ही होगी। उसने कहा कि वह खुद ही अधिक कुशल और प्रभावशाली तरीके से काम कर सकती है। इस बात को इतनी बेबाकी से स्वीकारते हुए सुनकर मैं थोड़ी उलझन में पड़ गई। मगर बाद में जब मैंने इस बारे में सोचा, तो एहसास हुआ कि ऐनी का इस तरीके से काम करना सही नहीं था। दूसरों को कोई प्रशिक्षण नहीं मिल रहा था, और अगर सब कुछ उसी पर छोड़ दिया जाता, तो भी काम अच्छे से नहीं होता। मगर मैंने सोचा कि हम तो सत्य नहीं समझते, और अगर हमने उसके साथ समस्याएँ हल करने की कोशिश की तो बस बेकार ही साबित होंगे और सब कुछ रुक जाएगा। चूंकि ऐनी सत्य को बेहतर समझती थी, तो मैंने सोचा कि हमें बस सारी चीजों का ख्याल उसे ही रखने देना चाहिए। नतीजतन, भले ही ऐनी हर दिन बहुत व्यस्त रहती, पर बहुत-सी समस्याएँ हल नहीं हो पाईं। भाई-बहन अपने काम में बहुत निष्क्रिय थे और समस्याएँ हल करने के लिए उसका इंतजार करते रहते। ज्यादातर लोग दमन और निराशा की हालत में जी रहे थे। बाद में, एक बड़ी अगुआ को पता चला कि हमारी कलीसिया में कई समस्याएँ हैं, तो उसने भाई-बहनों से ऐनी के बारे में मूल्यांकन इकट्ठा किया, और जाना कि ऐनी कितनी अहंकारी, दंभी, और दूसरों को काबू में करने वाली इंसान है; वह कोई सुझाव नहीं मानती और हमेशा खुद को ऊँचा उठाती, दिखावा करती और सभी को अपने करीब लाती है। यह बात पता चलने पर अगुआ ने तुरंत उसे बर्खास्त कर दिया। उसने यह भी बताया कि हम लोगों को पहचान नहीं पाते, और आँखें बंद करके ऐनी को ऊँचा समझते और उसकी पूजा करते थे। उसने संगति करते हुए बताया कि हमें कैसे अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए, और कैसे दूसरे लोगों को ऊँचा नहीं समझना चाहिए या उनकी आज्ञा नहीं माननी चाहिए। यह सुनकर, मुझे एहसास हुआ कि मैं काफी समय से एक इंसान की पूजा करने की दशा में जी रही थी, परमेश्वर के साथ मेरा संबंध काफी समय से सामान्य नहीं रहा था। मैंने याद किया कि कैसे “दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए” में कहा गया है : “जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। मुझे थोड़ा डर लगा। मैंने सोचा कि कैसे मैं ऐनी से मिलने के समय से ही उसका बहुत सम्मान करती थी, और कैसे अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत खोजने पर ध्यान नहीं दे रही थी, और इसके बजाय बस उसी पर निर्भर रहती थी। जब भी मुझे कोई समस्या होती तो मैं उसे ही खोजती और उसका कहा मानती। मैंने उसे बहुत ऊँची नजर से देखा था और परमेश्वर के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं थी। मुझे ऐसा लगा था कि कलीसिया में उसके बिना हमारा काम पूरा हो ही नहीं पाएगा, मानो हम परमेश्वर के मार्गदर्शन या सत्य के सिद्धांतों के बिना ही अच्छे से मिलजुल कर काम कर सकते हैं। क्या मैं सच में एक विश्वासी थी? क्या मैं बस दूसरी इंसान की पूजा कर उसका अनुसरण नहीं कर रही थी? परमेश्वर सच में ऐसे व्यवहार से नफरत करता है! इसमें कोई हैरानी नहीं कि मैं अपने कर्तव्य में पवित्र आत्मा का कार्य हासिल नहीं कर पाई, और इतने लंबे समय से अभ्यास करते रहने के बाद भी कोई प्रगति नहीं देखी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए अपनी दशा बदलने और दूसरे लोगों को ऊँची नजर से देखना बंद करने की कामना की।
उसके बाद, कुछ ऐसी चीजें हुईं जिनकी वजह से मैं ऐनी का असली चेहरा देख पाई। बर्खास्त होने के बाद, इस बात को अच्छी तरह जानते हुए भी कि बहुत-से भाई-बहन उसकी पूजा करते थे, उसने सभाओं के दौरान खुद को जानने या विश्लेषण करने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय, उसने ऐसा दिखाया जैसे उसके साथ अन्याय हुआ हो, उसने कहा कि वह अपनी साथी, बहन वेरा की पूजा करती थी, और अपना कर्तव्य निभाते हुए बस वही करती थी जो वेरा उसे करने को कहती। मैं यह देखकर हैरान थी कि उसने सारा दोष वेरा पर डाल दिया; मैंने सोचा, “अगुआ ने ऐनी की समस्याओं को साफ तौर पर उजागर कर उनका विश्लेषण किया था, तो फिर उसे खुद की समझ क्यों नहीं है और वह कोई जिम्मेदारी क्यों नहीं लेती? यह सत्य स्वीकारने का लक्षण तो बिल्कुल नहीं है!” बाद में, अगुआ ने फिर से ऐनी को मेरे साथ सुसमाचार कार्य पर लगाया, और भले ही मैं पहले की तरह उसका बहुत अधिक सम्मान नहीं करती थी, पर मैं अभी भी बहुत खुश थी। एक कहावत है, “कमजोर भालू भी एक हिरण से ताकतवर होता है,” और मुझे लगा कि अपनी सभी समस्याओं के बावजूद ऐनी अभी भी मेरे मुकाबले बहुत बेहतर है। उसके साथ काम करते हुए, मैंने देखा कि वह पहले की तरह मिलनसार या व्यावहारिक नहीं रही और इसके बजाय बहुत गंभीर बन गई थी। जब हम काम के बारे में चर्चा करते, तो वह मेरे किसी भी विचार को नहीं सुनती और अक्सर उन्हें फौरन ठुकरा देती थी। कई बार वह मुझसे बात करने से भी कतराती, और इसके बजाय उस बहन के साथ चीजों पर चर्चा करने चली जाती जिसके साथ वह पहले काम करती थी। इस बात से मैं बेबस और ठुकराई गई महसूस करने लगी। उस समय, हमारे काम में अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, इसलिए मैं उन समस्याओं के बारे में उससे संगति करने गई जो मुझे उसके साथ काम करने के दौरान पता चली थीं। मैं यह देखकर हैरान रह गई कि उसने उनमें से एक भी समस्या को नहीं स्वीकारा, और उसे लगा कि उसमें कोई समस्या थी ही नहीं। वह मुँहफट होकर मुझसे कहने लगी, “मैं तुमसे सीधी बात करूँगी, परेशान मत होना। मुझे तुम्हारे साथ काम करने की आदत नहीं। मुझे तुम्हारा काम करने का तरीका पसंद नहीं, और इस बात से मुझे चिंता हो रही है।” यह सुनकर मैं और अधिक निराश हो गई, मुझे लगा मैं उसके लिए रुकावट खड़ी कर रही हूँ।
बाद में, अगुआ ने हमारी समस्याओं के बारे में सुना तो उसने ऐनी के अहंकारी, दंभी और सत्य न स्वीकारने के रवैये को लेकर उसका निपटारा किया। एक सभा के दौरान, ऐनी ने सभी के सामने कहा कि उसके साथ निपटारा होना परमेश्वर का प्रेम था। उसने रोते हुए यह बात मानी कि अपना कर्तव्य अच्छे से न निभाकर उसने परमेश्वर को नीचा दिखाया है। वह काफी ईमानदार दिखी, मानो वह खुद को जान गई हो। फिर भी, हमारे निजी मेलजोल में, उसने यह कहकर नकारात्मकता फैलाई कि उसका काम तो हो गया, अब उसे अपना कर्तव्य निभाने की कोई इच्छा नहीं। मैंने उसके साथ संगति करने की कोशिश की, पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। जब अगुआ ने किसी भाई या बहन की प्रगति के बारे में बात की, और बताया कि कैसे वे अपने कर्तव्य में अच्छा कर रहे हैं, तो ऐनी यह सोचकर और अधिक नकारात्मक हो गई कि अगुआ उसके मुकाबले दूसरों को अधिक अहमियत देती है। वह हमेशा मुझसे पूछा करती थी कि कहीं लोग उसकी पीठ पीछे हँसते तो नहीं हैं। वह साफ तौर पर नकारात्मक महसूस कर रही थी, शारीरिक और मानसिक तौर पर टूट गई थी, मगर सभाओं में खुद को बहुत अच्छी और मजबूत दिखाती थी, सत्य स्वीकारने और परमेश्वर के इरादों का ख्याल रखने का दिखावा करती थी। उसकी ओर देखकर ही मैं थकी हुई सी महसूस करती। कभी-कभी मैं खुद से पूछती, “क्या यह वाकई वही इंसान है जिसका मैं इतना अधिक सम्मान और पूजा करती थी? वह ऐसी इंसान तो नहीं दिखती है जिसके पास सत्य की वास्तविकता हो!” मुझे एहसास हुआ कि वह इज्जत और रुतबे पर बहुत अधिक ध्यान देती थी, वह सत्य को बिल्कुल भी नहीं स्वीकारती थी। समस्याओं का सामना करते हुए, उसने खुद को जानने की कोशिश नहीं की, और बस दिखावा करती रही। वह सही इंसान नहीं थी। बाद में, उसकी दशा लगातार बिगड़ती गई। अगुआ ने कई बार उसके साथ संगति की, तो इस बात को स्वीकारती दिखी, पर असल में बिल्कुल नहीं बदली। उसने तो भाई-बहनों से नफरत की और उन्हें विषैली नजरों से देखा। जब अगुआ ने उसके साथ काट-छाँट और निपटारा कर उसकी समस्याओं को उजागर किया, तो उसने परमेश्वर से नफरत कर उसे दोष दिया। उसने अपने साथ हुई हर बुरी चीज की जिम्मेदारी परमेश्वर के कंधों पर डाल दी। मैंने देखा कि वह दुष्ट प्रकृति की है, वह परमेश्वर और सत्य से नफरत करती है। वह एक दानव, एक मसीह-विरोधी है। बाद में, उसे कलीसिया जीवन जीने या कर्तव्य निभाने से रोक दिया गया।
ऐनी के जाने के बाद काफी समय तक मेरा मन शांत नहीं हुआ। मैं सोचती थी कि क्यों मैंने उसकी पूजा की और क्यों उसका इतना अधिक सम्मान किया, यहाँ तक कि मैं उसकी जैसी बनना चाहती थी। मैंने सोचा कि कैसे मैं हमेशा उन लोगों की प्रशंसा करती थी जो वाकपटुता से बोलते थे, जो भयंकर कष्ट सहकर भी डटे रहने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब कुछ त्याग देने में सक्षम थे, जिन्होंने गिरफ्तार होने और यातनाएँ सहने के बाद भी परमेश्वर से विश्वासघात नहीं किया। मैं इन लोगों की पूजा और इतना अधिक सम्मान क्यों करती थी? मैं किस तरह के विचार से शासित हो रही थी? फिर, एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश देखे जिनमें कहा गया है : “कुछ लोग कठिनायाँ सह सकते हैं; वे कीमत चुका सकते हैं; उनका बाहरी आचरण बहुत अच्छा होता है, वे बहुत आदरणीय होते हैं; और लोग उनकी सराहना करते हैं। क्या तुम लोग इस प्रकार के बाहरी आचरण को, सत्य को अभ्यास में लाना कह सकते हो? क्या तुम लोग कह सकते हो कि ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हैं? लोग बार-बार ऐसे व्यक्तियों को देखकर ऐसा क्यों समझ लेते हैं कि वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चल रहे हैं, और वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्यों कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं? इसका केवल एक ही स्पष्टीकरण है। और वह स्पष्टीकरण क्या है? स्पष्टीकरण यह है कि बहुत से लोगों को, ऐसे प्रश्न—जैसे कि सत्य को अभ्यास में लाना क्या है, परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या है, और यथार्थ में सत्य वास्तविकता से युक्त होना क्या है—ये बहुत स्पष्ट नहीं हैं। अतः कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों से गुमराह हो जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, और जिनकी कथनी-करनी सराहनीय लगती है, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं। उन्होंने इन लोगों के मानवता सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मन में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, मानते हैं कि वे अपने परिवार एवं नौकरियाँ छोड़ सकते हैं, और सतही तौर पर कीमत चुका सकते हैं—ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और एक अच्छा परिणाम और एक अच्छी मंजिल प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें मन में लगता है कि परमेश्वर इन आदर्श लोगों की प्रशंसा करता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। “लोगों के ऐसे अज्ञानता भरे कार्य और दृष्टिकोण का, या एकतरफा दृष्टिकोण और अभ्यास का केवल एक ही मूल कारण है, आज मैं तुम लोगों को उसके बारे में बताऊँगा : कारण यह है कि भले ही लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हों, प्रतिदिन उससे प्रार्थना करते हों और उसके कथन पढ़ते हों, फिर भी वे वास्तव में उसके इरादों को नहीं समझते। और यही समस्या की जड़ है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के हृदय को समझता है, और जानता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है, किस चीज से वो घृणा करता है, वो क्या चाहता है, किस चीज को वो अस्वीकार करता है, किस प्रकार के व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है, किस प्रकार के व्यक्ति को वो नापसंद करता है, लोगों से अपेक्षाओं के उसके क्या मानक हैं, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए वह किस प्रकार की पद्धति अपनाता है, तो क्या तब भी उस व्यक्ति का व्यक्तिगत विचार हो सकता है? क्या वह यूँ ही जा कर किसी अन्य व्यक्ति की आराधना कर सकता है? क्या कोई साधारण व्यक्ति लोगों का आदर्श बन सकता है? जो लोग परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, उनका दृष्टिकोण इसकी अपेक्षा थोड़ा अधिक तर्कसंगत होता है। वे मनमाने ढंग से किसी भ्रष्ट व्यक्ति की आदर्श के रूप में आराधना नहीं करेंगे, न ही वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चलते हुए, यह विश्वास करेंगे कि मनमाने ढंग से कुछ साधारण नियमों या सिद्धांतों के मुताबिक चलना सत्य को अभ्यास में लाने के बराबर है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा को लेकर बिल्कुल सही जगह पर चोट किया। मुझे एहसास हुआ कि इतने बरसों से अपनी आस्था को लेकर मेरी सोच ही गलत थी, मैं सोचती थी कि अगर किसी ने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, अगर किसी ने पूरे उत्साह से खुद को खपाया है, कष्ट सहकर कीमत चुकाई है, और बहुत सारा काम किया है, तो इसका मतलब है कि उसने सत्य पर अमल किया है और उसमें सत्य की वास्तविकता है; वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर को खुशी देते हैं और कलीसिया में उसकी जगह सुरक्षित है। इसलिए, जब मैंने देखा कि ऐनी कई सालों से विश्वासी रही है, उसने बहुत-से त्याग किये हैं और सुसमाचार का प्रचार करने में काफी कष्ट उठाया है, वह साफ और तार्किक ढंग से प्रचार और संगति करती है, तो मैं उसकी शानदार छवि और अच्छे व्यवहार के बहकावे में आकर उसका बहुत अधिक सम्मान और पूजा करने लगी। फिर परमेश्वर के वचन के उन अंशों को पढ़ने के बाद ही मैंने जाना कि मैं कितनी मूर्ख और अनजान थी, मैं कितने बेतुके विचार से चिपकी हुई थी। जब कोई इंसान त्याग करता है और खुद को खपाता है, जब वह अपने कर्तव्य में कष्ट उठाकर कीमत चुकाता है, तो वह सिर्फ ऊपरी तौर पर अच्छा व्यवहार होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें अच्छी मानवता है या वह सत्य से प्रेम करता है और इसका मतलब यह तो बिल्कुल नहीं है कि उसमें सत्य-वास्तविकता है। भले ही ऐनी एक हुनरमंद वक्ता थी और 20 सालों से विश्वासी रहकर लगातार त्याग करती और खुद को खपाती रही, लेकिन उसने इन चीजों को अपनी निजी पूँजी मान लिया और हमेशा दिखावा करने, खुद पर इतराने और लोगों को अपने करीब लाने में इनका इस्तेमाल किया। वह सत्य को स्वीकार या उस पर अमल करने में जरा-भी सक्षम नहीं थी। उसके साथ न जाने कितनी बार काट-छाँट और निपटारा किया गया या वह न जाने कितनी बार विफल रही या गलत कदम उठाये, पर उसने कभी खुद को जानने के लिए आत्मचिंतन नहीं किया और सच्चा पश्चात्ताप तो कभी किया ही नहीं। जब दूसरे उसे अहमियत देते थे और उसका ऊँचा रुतबा था, तब वह अपने काम में काफी जोश दिखाती और देर रात तक रुककर अपनी सारी ऊर्जा उसमें लगा देती। मगर बर्खास्त होने के बाद उसकी काम करने की इच्छा ही खत्म हो गई, वह इसमें आनाकानी करती और नाराज हो जाती। निजी तौर पर, वह नकारात्मकता फैलाती थी, मगर सबसे कहती कि वह परमेश्वर की कर्जदार है और सच्चा पश्चात्ताप करती दिखती। इससे दूसरे लोगों को लगा कि वह परमेश्वर की इच्छा का ख्याल रखती है, उसके पास आध्यात्मिक कद और सत्य की वास्तविकता है, इसलिए वे सब उसका काफी सम्मान करते और उसकी पूजा करते थे। काट-छाँट और निपटारे का सामना करने के बाद, उसने सभी से कहा कि यह परमेश्वर का प्रेम है, पर चोरी-छिपे परमेश्वर को दोष दिया और उससे नफरत की। क्या वह सत्य और परमेश्वर से घृणा करने वाली मसीह विरोधी नहीं थी? आखिर समझ गई कि अगर कोई लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखता आया है, और वह त्याग करने और वाक्पटुता से बोलने में सक्षम है, उसके पास अच्छा अनुभव है और दूसरे से अहमियत देते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके पास सत्य की वास्तविकता है, और इसका मतलब ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि वह परमेश्वर को खुशी देता है। किसी ने कितने ही लंबे समय तक विश्वास रखा हो या कितनी ही कड़ी मेहनत की हो, अगर वह सत्य का अभ्यास बिल्कुल नहीं करता है और उसका शैतानी स्वभाव नहीं बदला है, तो वह अपने सार में परमेश्वर का विरोध करने वाला इंसान है, और आखिर में उसे उजागर करके निकाल दिया जाएगा। यह प्रभु यीशु के इन वचनों को साकार करता है : “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। बाद में, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी उत्कृष्ट है, तुम्हारी योग्यताएँ कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितनी निकटता से मेरा अनुसरण करते हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुमने अपने रवैये में कितना सुधार किया है; जब तक तुम मेरी अपेक्षाएँ पूरी नहीं करते, तब तक तुम कभी मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। अपने विचारों और गणनाओं को जितनी जल्दी हो सके, बट्टे खाते डाल दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दो; वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिए सभी को भस्म कर दूँगा और, खराब से खराब यह होगा कि मैं अपने वर्षों के कार्य और पीड़ा को शून्य में बदल दूँ, क्योंकि मैं अपने शत्रुओं और उन लोगों को, जिनमें से दुर्गंध आती है और जो शैतान जैसे दिखते हैं, अपने राज्य में नहीं ला सकता या उन्हें अगले युग में नहीं ले जा सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर इस आधार पर किसी का परिणाम या मंजिल तय नहीं करता कि उसने कितनी कड़ी मेहनत की है और कितना योगदान दिया है, उसका बर्ताव कितना अच्छा है या उसने कितना अधिक काम किया है; वह इसे आधार पर तय करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं है। परमेश्वर लोगों को सतही तौर पर देखकर नहीं आंकता, बल्कि वह उनके सार से आंकता है। वह देखता है कि क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं और इसे अमल में ला सकते हैं, क्या वे उसके प्रति समर्पित होकर उसकी इच्छा के अनुसार चल सकते हैं। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के पास वाकई एक धार्मिक और पवित्र स्वभाव है। ऐसे मानक उपलब्ध हैं जिनके आधार पर वह लोगों को आंकता है, ऐसे सिद्धांत भी मौजूद हैं जिनसे वह लोगों से पेश आता है, इसमें दैहिक भावनाओं का जरा-सा भी हस्तक्षेप नहीं है। परमेश्वर सिर्फ इसलिए यह तय नहीं करेगा कि कोई व्यक्ति धार्मिक या नेक है क्योंकि उसने जरा-सा उत्साह दिखाया है या उसने थोड़ा-सा योगदान दिया या कष्ट उठाया है। इसके उलट, किसी ने चाहे कितने ही समय तक परमेश्वर में विश्वास रखा हो, उसने कितना ही अधिक काम किया हो या उसकी प्रतिष्ठा कितनी ही अच्छी हो, अगर वह सत्य का अभ्यास नहीं करता है और अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलता है, तो आखिर में परमेश्वर उसे निकाल ही देगा। इस बात को समझने के बाद, मैंने खुद को और अधिक अज्ञानी और दयनीय महसूस किया। अपनी आस्था के इतने बरसों में, मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया या परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी। मैंने बस अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को अपनी आस्था का आधार बनाया और लगातार दूसरे लोगों की पूजा करती रही। मैं कितनी अंधी और अज्ञानी थी! मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर विचार किया : “समस्त मानवता में, ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो दूसरों के लिए एक आदर्श बन सकता है, क्योंकि सभी मनुष्य मूलतः एक समान हैं और उनमें आपस में कोई अंतर नहीं है, ऐसी कुछ ही बातें हैं जो उन्हें एक दूसरे से अलग करती हैं। इसी कारण, मनुष्य आज भी मेरे कार्यों को पूरी तरह जानने में असमर्थ हैं। जब मेरी ताड़ना समस्त मानवजाति के ऊपर उतरती है, क्या केवल तभी मनुष्य, अनजाने में, मेरे कार्यों से अवगत होगा, और मेरे कुछ किए अथवा किसी को बाध्य किए बिना, मनुष्य मुझे जानने लगेगा, और इस प्रकार मेरे कार्यों का साक्षी होगा। यह मेरी योजना है, यह मेरे कार्य का वह पहलू है जो ज़ाहिर किया गया है, और यह वह है जिसे मनुष्य को जानना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 26)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। लोगों को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है उनके पास शैतान का सार है। हम सिर्फ अपना शैतानी स्वभाव दिखाते हैं। हममें से एक भी पूजे जाने लायक नहीं है। अगर मैं पहले इस बात को समझ जाती, तो कभी किसी इंसान की पूजा या अर्चना नहीं करती।
कुछ ही समय बाद, अपने कर्तव्य में लंबे समय तक कोई नतीजा हासिल न कर पाने के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया। उस समय मैंने काफी सोच-विचार किया कि मैं असफल क्यों हुई। मैंने सोचा कि कैसे मैं ऐनी की पूजा करने और उसके बारे में ऊँचा सोचने की दशा में अटक गई थी, और कैसे मैं यह मानती थी कि वह सत्य समझती है और उसके पास इसकी वास्तविकता है, वह भी सिर्फ इसलिए कि वह लंबे समय से विश्वासी रही और बरसों तक सुसमाचार का प्रचार किया, काफी कष्ट उठाया और उसके पास काम का बहुत सारा अनुभव है। मैं अक्सर उसके व्यवहार की नकल करती थी और अपनी समस्याएँ लेकर उसके पास जाती थी। वह जो भी विचार व्यक्त करती मैं उसके बारे में जरा-सा भी सोचे बिना उसे फौरन स्वीकार लेती, और वह जो कहती मैं बस वही करती। मैंने परमेश्वर के लिए अपने दिल में बिल्कुल भी जगह नहीं रखी थी। समस्याओं का सामना करते हुए मैंने सत्य नहीं खोजे, और मेरे कामों में कोई सिद्धांत भी नहीं होता था। मैं सिर्फ एक इंसान—ऐनी की बात सुनती थी। यह परमेश्वर में विश्वास करना कैसे हुआ? क्या मैं सिर्फ एक इंसान का अनुसरण नहीं कर रही थी? जैसा कि परमेश्वर कहता है : “तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि ऊँचे रुतबे वाले झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, बल्कि खुद को खुशी-खुशी उन मनमाने मसीह-विरोधियों की बाँहों में सौंप देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनके रुतबे, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम्हारा यही रवैया है कि मसीह का कार्य स्वीकारना कठिन है और तुम इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं रहते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ इसलिए किया है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं था। बुलंद छवियों की एक शृंखला हमेशा तुम्हारे हृदय में बसी रहती है; तुम उनके किसी शब्द और कर्म को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को भूल सकते हो। वे तुम लोगों के हृदय में हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक रहते हैं। लेकिन आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा भय के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह ऊँचा तो बिल्कुल भी नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असली दशा उजागर कर दी। अपनी आस्था के बरसों पर विचार करके मैंने जाना कि मैं जिन लोगों की प्रशंसा करती थी उन सभी के पास काबिलियत और गुण थे, दूसरे उनका सहयोग करते और उन्हें अहमियत देते थे; मैं उनकी हर कथनी और करनी को अनुकरणीय मानती थी। मैंने कभी खुद से नहीं पूछा कि परमेश्वर की इच्छा क्या थी, क्या मैं वही करती थी जो परमेश्वर चाहता था या क्या मेरे काम सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होते थे। मैंने बस आँखें मूंदकर दूसरे लोगों की पूजा की और उनका अनुसरण किया, और यहाँ तक कि ठीक उनके जैसी बनने की कामना भी की। मैं पूरे समय गलत रास्ते पर चल रही थी, अधिक कष्ट उठाती और मेहनत करती, अपना काम करते हुए काबिलियत और अनुभव पर ही भरोसा करती। मैंने सत्य के सिद्धांत खोजने पर ध्यान नहीं दिया और अपने जीवन प्रवेश पर भी ज्यादा जोर नहीं दिया। नतीजतन, मैं अपनी आस्था के बरसों में अधिक सत्य नहीं समझ पाई, और मेरा जीवन तकलीफ में गुजरा। मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी अधिक अज्ञानी और दयनीय थी। परमेश्वर ने हमें इतने सारे वचन दिये हैं, और मैंने उनमें से एक को भी याद नहीं रखा, मगर मुझे ऐनी की कही हर एक बात बहुत अच्छी तरह याद थी, उसके व्यक्त किये हर एक विचार को संजोकर रखती थी और हमेशा उन पर अमल करने को तत्पर रहती। अपने कर्तव्य में मैं हमेशा उसी पर निर्भर रही, मैंने अपने दिल में परमेश्वर के लिए जरा-सी भी जगह नहीं रखी। ऐनी की इस स्थिति ने मुझे पूरी तरह से उजागर कर दिया। खासकर उसके बर्खास्त होने के बाद, जब उसकी बहुत-सी समस्याएँ पहले ही उजागर हो चुकी थीं और हम फिर से साथ मिलकर काम कर रहे थे, मेरे मन में अभी भी उसकी शानदार छवि मौजूद थी। मैं अपने कर्तव्य में लगातार उस पर निर्भर रही और इस कहावत के बारे में सोचती रही, “कमजोर भालू भी एक हिरण से ताकतवर होता है,” मेरा मानना था कि भले ही ऐनी में कुछ समस्याएँ हैं, मगर वह अभी भी मुझसे बेहतर है। यह साफ तौर पर एक शैतानी सोच थी। मैं उसकी बहुत अधिक पूजा करती थी, मैंने हमारे मेलजोल में सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं की थी और मुझमें जरा-सा भी विवेक नहीं था। मैं लगातार चीजों को शैतानी झूठों के नजरिये से देखती थी। बाद में, जैसे-जैसे ऐनी की अधिक से अधिक समस्याएँ उजागर होती गईं, मैंने अभी भी उसे नहीं पहचाना या उसे उजागर नहीं किया। मैं बस उसका अनुसरण करती रही, उसके आगे बेबस रही, नकारात्मकता और दुःख की दशा में जीती रही। मुझे जो कुछ भी मिला था मैं सचमुच उसी के लायक थी! मैं ऐनी के बारे में ऊँचा सोचती थी और अपने कर्तव्य में उसी पर निर्भर रहती थी, मगर उसने मुझे क्या दिया? धोखा दिया, बेबस किया और ठुकरा दिया। उसने मुझे दुखी और दमित महसूस कराया, जिससे मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं थी, मैं परमेश्वर से दूर बहुत दूर होती चली गई। भले ही मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी, पर कभी उस पर निर्भर नहीं रही या उसके बारे में ऊँचा नहीं सोचा, मैंने सत्य का अनुसरण भी बिल्कुल नहीं किया। मैंने सिर्फ लोगों की पूजा की और उनका अनुसरण किया। मैं निहायत ही बेवकूफ थी, मुझमें जरा-सा भी विवेक नहीं था। इस तरह असफल होना और गिर जाना मेरे लिए सचमुच परमेश्वर की धार्मिकता थी और उसका उद्धार था। इस प्रकाशन के जरिये मैं उस गलत रास्ते पर बारीकी से सोचने में सक्षम हुई जिस पर मैं चल रही थी, मैंने अपने मन में बसे उन बेतुके विचारों की जाँच-पड़ताल की, अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजा। साथ ही साथ, मैं सत्य का अनुसरण करने की अहमियत भी समझ गई। परमेश्वर कहता है कि : “जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अंत तक अनुसरण नहीं कर सकते” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति बनाए रखनी चाहिए), जो बहुत वास्तविक है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे यकीनन परमेश्वर के हाथों उजागर होकर निकाल दिए जाएँगे। मैं जिन लोगों के बारे में ऊँचा सोचती थी उनकी विफलता—और मेरी अपनी विफलताएं भी—इसका सबसे अच्छा सबूत हैं।
कुछ महीने बाद, मुझे सारा के साथ सुसमाचार कार्य का जिम्मा सौंपा गया। मैंने सुना कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, उसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए एक अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी थी। वह वाकई कष्ट सहने में सक्षम थी, उसमें बहुत अच्छी काबिलियत और सुसमाचार का प्रचार करने का अनुभव भी था। मैं कुछ समय से उसे जानती थी और देखा था कि वह कलीसिया के काम की बहुत अधिक परवाह करती है। वह सभाओं में सक्रियता से संगति करती थी, और चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों या चाहे कितने भी लोग मौजूद हों, वह कभी बेबस नहीं महसूस करती थी। वह काफी संतुलित ढ़ंग से और बिना किसी डर के बात करती थी। जब भाई-बहनों के सामने समस्याएँ आतीं, तो वह संगति करके उनकी मदद करती थी, और सभी लोग उसका बहुत समर्थन करते थे। मुझे लगा जैसे वह सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान है और मैं उसके बारे में ऊँचा सोचने लगी। हालांकि मैं उसके साथ काम करने का मौका मिलने से खुश थी, पर अपनी पिछली विफलता को भी याद करती थी; कैसे दूसरों की काबिलियत और खूबियों को अहमियत देकर मैं उनकी पूजा और उनका अनुसरण लगी थी। इसी कारण से मैं गलत रास्ते पर चलने लगी थी और यह मेरे जीवन के लिए हानिकारक बन गया था। मैं जानती थी कि सारा के साथ अपने मेलजोल में उस तरह की गलत सोच के आधार पर चीजों को नहीं देख सकती थी, मुझे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार उसके साथ पेश आना होगा। सारा में अच्छी काबिलियत थी और उसके पास सुसमाचार के प्रचार का अनुभव भी था, इसलिए मैं उससे बहुत कुछ सीखकर अपनी कमियों की भरपाई कर सकती थी। मगर वह भ्रष्ट स्वभाव, खामियों और कमियों से युक्त एक भ्रष्ट इंसान भी थी। मैं उसकी पूजा कर उस पर निर्भर नहीं रह सकती थी। अगर उसके काम में गलतियाँ या समस्याएँ आती हैं, तो मैं आँख मूंदकर उसका अनुसरण नहीं कर सकती। मुझे विवेक का सहारा लेकर उसके साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार पेश आना होगा। बाद में, हमारी काम की चर्चाओं में, मैंने देखा कि सारा के ज्यादातर सुझाव बहुत व्यावहारिक होते थे। कुछ अन्य बहनों के साथ ही मुझे भी लगा कि इनसे काम नहीं चलेगा, पर सारा वाकई उन पर जो देती रही। जब भी वह किसी सुझाव पर मंजूरी हासिल नहीं कर पाती, तो हम वहीं पर अटक जाते, और काफी समय तक गतिरोध की स्थिति बनी रहती, जिससे हमारे काम की प्रगति में बहुत देर हो जाती। धीरे-धीरे, मैंने देखा कि सारा अहंकारी, दंभी और अड़ियल बन गई; जब उसके सुझाव नहीं अपनाये जाते, तो वह बेचैन हो जाती। वह अपना आपा खो बैठती और इसकी वजह से अन्य लोग बेबस हो जाते। वह हमारे समूह में सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रही थी; उसके कार्य की प्रगति में बाधा डाली और उसे रोक दिया, इसलिए मैंने उसके इस व्यवहार के बारे में अगुआ को रिपोर्ट कर दी। हालात को समझने के बाद, अगुआ ने सारा की समस्याओं को उजागर कर उनका विश्लेषण किया और उसकी मदद करने की कोशिश की, मगर उसने इसे स्वीकारने से मना कर दिया, इसलिए उसके दायित्व में बदलाव किया गया। इसका अनुभव करने के बाद मुझे काफी सुकून मिला। मुझे लगा जैसे मैंने आखिरकार अपनी गलत सोच को बदल दिया और अब मैं पहले की तरह लोगों की पूजा और अनुसरण नहीं करती। ऐसी समझदारी हासिल करने और सबक सीखने में मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर ने जो हालात पैदा किये, उसके लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ।
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