ईर्ष्या से हुआ नुकसान
कुछ समय पहले मैं अगुआ बनी, मुझे कई कलीसियाओं की जिम्मेदारी मिली। जल्दी ही मुझे कुछ नतीजे मिलने लगे, कलीसिया के बहुत से सदस्यों ने मुझे सहयोग दिया। मैं बहुत खुश थी, खुद पर गर्व होता, लगता मानो मैं वास्तविक काम कर सकती हूँ। सोच रही थी अगर बड़े अगुआ यह देख सकें कि मैंने क्या हासिल किया है, तो उन्हें लगेगा मैं अच्छी अगुआ हूँ, और उनका चुनाव सही है। कुछ महीनों बाद, कलीसिया ने व्यवस्था की कि बहन झाओ मेरे साथ काम करे। मुझे लगा उसे मेरी मदद की ज़रूरत होगी, पर हैरानी हुई कि उसने बड़ी तेज़ी से सब सीख लिया। हमारी चर्चाओं में उसके पास कुछ अच्छे व्यावहारिक सुझाव भी होते, मैं उसकी सराहना करती और ईर्ष्या भी। सोच रही थी, उसके पास अच्छी काबिलियत और वास्तविक कौशल हैं, वो पहले से समस्याएं हल करने के लिए सहभागिता करने में सक्षम है। कहीं लोग ये तो नहीं सोचेंगे कि मैं उसके बराबर नहीं? कहीं मैं कमतर तो नहीं दिखूंगी? फिर भाई-बहनों का सामना कैसे कर पाऊँगी? अगले दिन, मैं बहन झाओं को एक समूह की सभा में ले गई, जहाँ कुछ लोगों ने काम से जुड़े सवाल उठाये। मैंने अपनी राय रखी, पर उसका जवाब ज़्यादा स्पष्ट और पूरा था, उसने सहभागिता के लिए काम के सिद्धांत भी खोजे। मैं हैरान थी। जब वो हमसे जुड़ी तब उसने ये चीज़ें पहली बार देखीं पर उसका जवाब काफी स्पष्ट था। डर लगा कि अब मेरा क्या होगा, क्या लोग सोचेंगे कि इतने समय तक ये काम करके भी, मैं अपनी नई साथी की बराबरी नहीं कर सकती, मैंने कोई प्रगति नहीं की है। जितना सोचती उतनी शर्मिंदगी होती, मैं अपना सिर भी नहीं उठाना चाहती थी। बस सभा खत्म करना चाहती थी।
कुछ दिन बाद, बहन झाओ ने कहा कि एक अगुआ, बहन लिन में काबिलियत की कमी है, असल काम न करने के कारण उसे बर्खास्त करना चाहिए। दरअसल मैंने पहले उनमें वो समस्याएं देखी थी, पर लगा कि वो इस काम में नई है, तो थोड़ा इंतज़ार करना ही सही होगा। बहन झाओ ने भी वही महसूस किया है तो उसे ज़रूर बर्खास्त करना चाहिए। फिर बहन झाओ के साथ चर्चा करते हुए ख्याल आया कि अगर मैंने बहन लिन को अभी बर्खास्त किया और अगुआ को पता चला, तो उन्हें लगेगा बहन झाओ में गहरी समझ है, वो फौरन ज़रूरी बदलाव कर सकती है। ऐसे में, यह उसकी उपलब्धि लगेगी। शायद अगुआ को लगे कि मैं वास्तविक काम नहीं कर सकती, ज़रूरी होने पर लोगों के काम नहीं बदल सकती। ये सोचकर, मैंने बहन लिन को तुरंत बर्खास्त नहीं किया, कुछ दिन के लिए मामले को टाल दिया। एक बार, बहन झाओ ने कार्यकुशलता बेहतर करने की योजना बताई, पर शुरुआती परीक्षण में, भाई-बहनों ने बताया कि यह योजना ठीक से नहीं चल रही। मुझे बहुत खुशी हुई। सोचने लगी, कि उसकी कार्य-योजना पर काम करते हुए, उनका वक्त बरबाद हुआ, कुछ हासिल भी नहीं हुआ, तो अब वे उसका आदर नहीं करेंगे। अगली बार जब बहन झाओ से मिली, तो बातों-बातों में उसकी योजना की नाकामी का जिक्र किया, बिना किसी नतीजे के कितना वक्त बरबाद हुआ। परेशान होकर उसने सिर झुका लिया। उसकी ऐसी हालत देखकर मुझे बहुत खुशी हुई, सोचा, मेरी गरिमा वापस मिल गई है। पर हैरानी हुई कि बहन झाओ पर कोई असर ही नहीं पड़ा। अपनी विफलता के पीछे की कमियां देखकर, उसने अपनी कार्यकुशलता में सुधार कर अच्छे नतीजे हासिल किये। उसे तेज़ी से आगे बढ़ते देख मुझे कोई खुशी नहीं हुई। मैं सोच रही थी कि उसने तो अभी शुरुआत की है, उसे हमारे कुछ कामों की समझ नहीं है, तो उसे मेरी मदद की ज़रूरत है। सब सीख लेने के बाद, मेरी क्या ज़रूरत रह जाएगी? शायद अगुआ ने भी मेरी जगह उसे देने की व्यवस्था कर ली है। मैं बहुत निराश हो गई, सोचने लगी, मुझमें काबिलियत और कौशल नहीं है, मैंने तो परमेश्वर को भी दोष दिया कि उसने मुझमें वो खूबियाँ नहीं दी।
कुछ समय तक काम में प्रेरणा मिलनी बंद हो गई, मैं सभाओं में जाकर ऊंघने लगी। मैं बहन झाओ के ख़िलाफ़ पक्षपाती हो गई थी, लगा वो मेरी चमक चुरा रही है। उसके आने से पहले, लोग मेरी सहभागिता सुनना चाहते थे, पर जब से वो आई है, मैं कुछ भी ठीक से नहीं कर पा रही। उसके साथ काम करती रही, तो मुझे कभी चमकने का मौका नहीं मिलेगा। उससे इतनी ईर्ष्या हो गई कि उसकी झलक भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, जब वो कोई काम अच्छे से न कर पाती या उसकी निजी समस्या होती, तो मैं दूसरी बहनों के सामने उसे खराब दिखाने को तत्पर रहती थी। जब आलोचना सुनकर बहन झाओ को चुपचाप अपनी गलतियां मानते देखा, तो मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। मैं उसकी कमज़ोरी का फायदा उठाना चाहती थी। फिर लगा कि मैं तो सच बोल रही हूँ। कुछ समय तक बार-बार बहन झाओ की गलतियों के बारे में बोलने से दूसरी बहनें भी उसके ख़िलाफ़ हो गईं। वो अलग-थलग पड़ने लगी, उसकी हालत खराब होने लगी। फिर भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। मैं और भी बुरी बनकर उसकी तीखी आलोचना करने लगी।
फिर करीब एक महीने बाद, कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया। परमेश्वर के वचनों की किताबें सुरक्षित जगह पर नहीं थीं, इसलिए उन्हें दूसरी जगह ले जाना था। अगुआ ने बहन झाओ को इस काम की जिम्मेदारी दी। मैं तुरंत सोचने लगी, मैं उससे ज़्यादा समय से यह काम कर रही हूँ, मुझे हर चीज़ पता है। यह जिम्मेदारी मुझे मिलनी चाहिए। क्या अगुआ को लगा कि मैं बहन झाओ के बराबर नहीं? इस पर मुझे और भी ईर्ष्या होने लगी, मेरा प्रतिरोध बढ़ गया, मेरे मन में यह जहरीला विचार भी आया कि मैं इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लूंगी। बहन झाओ को हालात की जानकारी नहीं है, देखती हूँ वो ये सब अकेले कैसे करती है। मैंने बहन झाओ के काम पर ध्यान देना बंद कर दिया, जब वो दूसरी कलीसिया के सदस्यों से जाकर मिलने का रास्ता पूछती, तो मैं अनसुना कर देती या थोड़ा कुछ बताकर टाल देती। मुझे तंग आते देख उसने सवाल पूछने बंद कर दिए। फिर मुझे अपराध बोध हुआ, जैसे मैं परमेश्वर के घर के काम को कायम नहीं रख रही थी। मैंने खुद से कहा मैं अब वैसा बर्ताव नहीं कर सकती, पर अगली बार कोई समस्या आती, तो खुद को रोक नहीं पाती। मैंने बार-बार वही किया, खुद को बिल्कुल काबू नहीं कर पाई। ऐसे हालात में जीना मेरे लिए काफी पीड़ादायक था, पर मैं नहीं जानती थी इससे बाहर कैसे निकलूँ। मैं ईर्ष्या की हालत में जी रही थी। जानती थी बहन झाओ को हमारी कलीसिया के सदस्यों या आसपास की जगह की जानकारी नहीं है, पर उसकी मदद नहीं करना चाहती थी। इसके कारण किताबें हटाने का काम हफ़्तों तक रुका रहा, इसका असर कलीसिया के काम पर भी पड़ा। फिर भी मैंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया।
मुझे उससे ईर्ष्या थी, उससे होड़ करना चाहती थी, जिसका असर परमेश्वर के घर के काम पर पड़ा। परमेश्वर का कोप मुझ पर बरसा। एक शाम, जब बहन झाओ और मैं किसी काम पर चर्चा करने के लिए एक सभा में शामिल हुए, तो देखा उसने बहुत विस्तार से सहभागिता की, मैंने जो सोचा भी नहीं उसने उन पर विचार किया था, हर कोई उसकी प्रशंसा कर रहा था। मुझे ईर्ष्या के साथ चिढ़ महसूस हुई। पता नहीं वो इतनी गहराई में क्यों जाती है, दिखाती है जैसे उसने हर बात पर सोचा हो, इससे मैं बुरी दिखती हूँ। मुझे काफी गुस्सा आया, मैं अब उसकी कोई बात नहीं सुनना चाहती थी। उसकी बात काट कर, मैंने कहा, "क्या हम चलें? मुझे दूसरी जगहों पर भी जाना है।" वो बेमन से सहमत हो गई, उसका इंतज़ार किए बिना मैं तेज़ी से निकल गई। जैसे ही सड़क पर आई, तो मेरी बाइक अचानक रुक गई और मैं औंधे मुँह गिर पड़ी। मैं अपनी बाइक के नीचे दब गई थी, उठ नहीं पा रही थी, पर संयोग से किसी ने मेरी मदद की। घर आने पर देखा मैं घायल हो गई थी, दायाँ हाथ हिला भी नहीं पा रही थी। मैं जानती थी ये मेरे लिए परमेश्वर का अनुशासन है, पर मैं इतनी सुन्न थी कि गंभीरता से आत्मचिंतन भी नहीं किया। मैं बहुत अड़ियल और विद्रोही थी। कुछ वक्त गुज़र गया पर मेरा हाथ ठीक नहीं हुआ, पुलिस भी मेरे पीछे पड़ी थी। मुझे गिरफ्तार करने मेरे दरवाज़े तक आ गई, मगर परमेश्वर की सुरक्षा ने बचा लिया, पर मुझे अपना काम बंद करना पड़ा। मैं जानती थी इन घटनाओं में परमेश्वर की इच्छा छिपी थी। मैं बहन झाओ के साथ शांत मन से काम नहीं कर रही थी, मैंने न तो इस बारे में सोचा और न ही खुद को बदला। इसलिए परमेश्वर की धार्मिकता मुझ पर आई। मैं बहुत निराश थी, लगा जैसे मुझे पूरी तरह उजागर किया गया है, पता नहीं था इन सबसे कैसे निकलूँ। इस पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने की विनती की, ताकि आत्मचिंतन कर सकूँ।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : "आज तुम लोगों को इसलिए सुरक्षा दी जाती है क्योंकि तुम लोगों को दंडित किया जाता है, शाप दिया जाता है, तुम लोगों का न्याय किया जाता है। क्योंकि तुम लोगों ने काफी कष्ट उठाया है इसलिए तुम्हें संरक्षण दिया जाता है। नहीं तो, तुम लोग बहुत समय पहले ही दुराचार में गिर गए होते। यह जानबूझ कर तुम लोगों के लिए चीज़ों को मुश्किल बनाना नहीं है—मनुष्य की प्रकृति को बदलना मुश्किल है, और उनके स्वभाव को बदलना भी ऐसा ही है। ... आज की समयोचित ताड़ना और शाप के बिना तुम्हारा अंत का दिन पहले ही आ चुका होता। तुम लोगों के भाग्य के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं—क्या यह और भी निकटस्थ खतरे की बात नहीं है? इस समयोचित ताड़ना और न्याय के बिना, कौन जाने कि तुम लोग कितने घमंडी हो गए होते, और कौन जाने तुम लोग कितने पथभ्रष्ट हो जाते। तुम लोगों के पास स्वयं को नियंत्रित करने और आत्म-चिंतन करने की बिलकुल कोई योग्यता नहीं है। इस ताड़ना और न्याय ने तुम लोगों को आज के दिन तक पहुँचाया है, और इन्होंने तुम लोगों के अस्तित्व को संरक्षित रखा है। क्या तुम लोगों के लिए बेहतर नहीं होगा कि तुम आज की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करो? तुम लोगों के पास और क्या विकल्प हैं?" ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'ताड़ना मिलने और न्याय किए जाने के कारण तुम लोगों को सुरक्षा दी जाती है')। मैंने ये अंश बार-बार पढ़ा, एक-एक वचन मेरे दिल में बस गया। रुतबे के कारण बहन झाओ से लड़ते हुए परमेश्वर के घर का काम बिगाड़ रही थी। परमेश्वर ने कई तरह के हालात पैदा कर मुझे दंडित नहीं किया होता, तो मैं न रुकती, बेशक बहन के साथ मेरी लड़ाई जारी रहती। इससे कलीसिया के काम पर और भी बुरा असर पड़ता। परमेश्वर ने मेरे कुकर्मों को फौरन रोकने के लिए ऐसे हालात बनाये। यह मेरे लिए उसकी कृपा और उद्धार ही था। ये परमेश्वर का प्रेम था, वो मुझे हटाना नहीं चाहता था। मुझे निराश नहीं होना चाहिए, आत्मचिंतन करके परमेश्वर के सामने पश्चाताप करना चाहिए। यह एहसास मेरे लिए प्रबोधन था, अब कोई निराशा नहीं थी। मैंने प्रार्थना करते हुए कहा, "हे परमेश्वर, मैं गलत थी। अब मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं खुद को समझ सकूँ।"
एक दिन मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, यह "अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो" का चौथा अंश है। "तुम्हारे दिमाग में जो धारणाएँ, कल्पनाएँ, ज्ञान, और निजी इरादे व इच्छाएँ भरी हुई हैं, वे अपने मूल स्वरूप से बदली नहीं हैं। तो, यदि तुम सुनते हो कि परमेश्वर का घर विविध प्रतिभाओं को विकसित करेगा, जैसे ही पद, प्रतिष्ठा या रुतबे की बात आती है, हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा दूसरों से अलग दिखना, मशहूर होना, और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई झुकने को अनिच्छुक रहता है, इसके बजाय हमेशा विरोध करना चाहता है—इसके बावजूद कि विरोध करना शर्मनाक है और परमेश्वर के घर में इसकी अनुमति नहीं है। हालांकि, वाद-विवाद के बिना, तुम अब भी संतुष्ट नहीं होते हो। जब तुम किसी को दूसरों से विशिष्ट देखते हो, तो तुम्हें ईर्ष्या और नफ़रत महसूस होती है, और तुम क्रोधित हो जाते हो, और तुम्हें लगता है कि यह अनुचित है। 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा वही व्यक्ति दूसरों से अलग क्यों दिखता है, और मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती है?' फिर तुम्हें कुछ नाराज़गी महसूस होती है। तुम इसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो। और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब फिर से तुम्हारा सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो तुम इससे जीत नहीं पाते हो। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? क्या किसी व्यक्ति का इस तरह की स्थिति में गिर जाना एक फंदा नहीं है? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "मसीह-विरोधी कलीसिया के हितों सहित परमेश्वर के घर के काम को पूरी तरह से अपना मानते हैं, अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह, जिसका प्रबंधन पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा किया जाना चाहिए, उसमें किसी और का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। और इसलिए परमेश्वर के घर का काम करते समय वे केवल अपने ही हितों, अपनी ही हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में सोचते हैं। वे हर उस व्यक्ति को अस्वीकार कर देते हैं, जो उनकी नजरों में उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए खतरा हो। वे उनका दमन और बहिष्कार करते हैं। वे उन लोगों का भी निष्कासन और दमन करते हैं, जो कुछ विशेष कर्तव्य निभाने के लिए उपयोगी और उपयुक्त होते हैं। ... मसीह-विरोधी झूठ भी गढ़ते हैं और भाई-बहनों के बीच तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, लोगों को नीचा दिखाने के लिए उनके बारे में बुरा बोलते हैं, उन्हें अलग-थलग करने और उनका दमन करने के बहाने ढूँढ़ते हैं, चाहे वे लोग कुछ भी काम करें; इसलिए वे यह कहते हुए उनकी आलोचना भी करते हैं कि वे घमंडी और दंभी हैं, कि वे दिखावा करना पसंद करते हैं, कि वे महत्वाकांक्षाएँ पालते हैं। वास्तव में, उन सभी लोगों में खूबियाँ होती हैं, वे सभी लोग सत्य से प्रेम करने वाले और विकसित किए जाने योग्य होते हैं। उनमें केवल मामूली दोष, कभी-कभी भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ पाई जाती हैं; उन सभी में अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है। कुल मिलाकर वे कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं, वे कर्तव्य निभाने वाले व्यक्ति के सिद्धांतों के साथ मेल खाते हैं। मसीह-विरोधियों की नजरों में, वे सोचते हैं : 'मेरा इसे सहना संभव नहीं है। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र के भीतर एक भूमिका चाहते हो। यह असंभव है, इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक सक्षम हो, मुझसे अधिक मुखर हो, मुझसे अधिक शिक्षित हो और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो। यदि तुमने मेरी सफलता चुरा ली, तो मैं क्या करूँगा? तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ काम करूँ? इसके बारे में सोचना भी मत!' क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कर रहे हैं? नहीं। वे बस इस बारे में सोच रहे हैं कि अपनी हैसियत कैसे सुरक्षित करें, इसलिए वे इन लोगों का उपयोग करने के बजाय परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा देंगे। यह बहिष्कार है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी बेहद कुकर्मी और दुष्ट प्रकृति के होते हैं। वे इज़्ज़त और रुतबे के पीछे भागते हैं, समूह में हमेशा सबसे ऊपर रहना चाहते हैं। वे जहां भी हों, लोगों से प्रशंसा और सम्मान चाहते हैं, अगर कोई उन्हें अलग दिखने से रोकता है या उनके रुतबे पर खतरा बनता है, तो वे उसे अस्वीकारते और आलोचना करके नीचा दिखाते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं कि परमेश्वर के घर के काम को कितना नुकसान पहुँचेगा, वे इसे बिल्कुल भी कायम नहीं रखते। दरअसल मैं एक मसीह-विरोधी जैसा ही बर्ताव कर रही थी। शुरु में एक अगुआ के तौर पर कुछ प्रगति कर ली तो लगा मुझमें बढ़ावा देने लायक प्रतिभा है। बहन झाओ के आने के बाद देखा वो हर मामले में मुझसे आगे है, दूसरे भी उसे पसंद करने लगे, सोचा वो मेरी चमक चुरा रही है। मुझे ईर्ष्या हो गई, चुपके-चुपके उससे होड़ करने लगी। जब उसने देखा एक अगुआ ठीक काम नहीं कर रही, मैं जानती थी उस अगुआ को हटाना ज़रूरी है, पर मैं अपने नाम और रुतबे को बचाना चाहती थी, इसलिए बर्खास्तगी के मामले को टाल दिया, देरी की। अपनी इज़्ज़त से समझौता करने के बजाय, परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचते देखने को तैयार थी। उसकी एक कार्ययोजना नहीं चली, तो मैं उसकी नाकामी से खुश हुई, धीरे से उसे दोषी ठहराया, जानबूझकर बुरा दिखाया। इससे भी ज़्यादा, जब अगुआ ने उसे किताबों को दूसरी जगह ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी तो मुझे और भी ईर्ष्या हो गई। मैंने सोचा अगुआ मुझसे ज़्यादा उसे तरजीह देती है, तो चिढ़कर मैंने उस काम को बिल्कुल अनदेखा कर दिया। जब उसने कुछ ऐसी बात पूछी जिसे लेकर उसे उलझन थी, तो मैंने अनसुना कर दिया, जानबूझकर उसे मुश्किल हालात में डाल दिया, ताकि वो बुरी दिखे। जिस वजह से कुछ किताबें समय पर नहीं हटाई गईं। हमारी पहले की बातचीत के बारे में सोचा तो लगा जैसे मैं नाम और रुतबे की चाह में डूबी हुई थी, अपनी छवि के लिए हर बार मैंने हमारे बीच समस्याएँ पैदा कीं। परवाह नहीं की कि इससे परमेश्वर के घर का कितना नुकसान होगा। बेकार की बातों का बतंगड़ बनाया, अनादर करके उसे ठुकरा दिया। मेरे प्रभाव में आकर दूसरी बहनों ने भी उसे अलग कर दिया। अपने रुतबे को बचाने के लिए मैंने ऐसी नीच तरकीबों का सहारा लिया, छिपकर हमले किये, उसे ठुकराया। ये मक्कारी और दुष्टता थी। मेरी इंसानियत कहां थी? मैं शैतान ही तो थी। नाम और फायदे के लिए मैं लगातार बहन झाओ से लड़ रही थी, परमेश्वर के घर के काम को अनदेखा कर रही थी। परमेश्वर की धार्मिकता के बिना, बाइक दुर्घटना न होती, गिरफ्तारी से बाल-बाल नहीं बची होती, मेरा काम भी बंद न हुआ होता, तो मैं ये कुकर्म करना बंद नहीं करती, चिंतन के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आती। परमेश्वर ने अगुआ का काम देकर मुझे ऊपर उठाया। मैं जिम्मेदारियां निभाने और परमेश्वर की आज्ञा पालन करने में ही विफल नहीं रही, मुझ पर अपनी अलग पहचान बनाकर प्रशंसा पाने और अगुआ की नज़रों में आने का जूनून सवार था। "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है", "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ", इन शैतानी विषों के अनुसार जी रही थी। मैं बहन झाओ से लगातार होड़ कर रही थी, मानो पहाड़ों की रानी सिर्फ एक हो सकती है। उम्मीद करती थी उसका काम खराब हो, उसे बर्खास्त कर दिया जाए। मैंने खुद में जो देखा उससे डर गई—कितनी दुष्ट प्रकृति थी। मैं एक मसीह-विरोधी मार्ग पर थी। शैतान के विष मुझमें जहर घोल रहे थे, जिससे मैं प्रशंसा के पीछे भाग रही थी, मानो गरिमा के साथ जीने का यही तरीका हो। अब देख सकती हूँ कि प्रशंसा पाने के लिए, मैं परमेश्वर के घर के हितों को अनदेखा करने, एक बहन को दबाने लगी थी। इस तरह जीने से परमेश्वर को ही नहीं दूसरों को भी घृणा होती है। मुझमें ज़रा-भी गरिमा नहीं थी। सच्ची निष्ठा रखने वाला इंसान सद्भाव से सहयोग करने, सत्य को स्वीकारने, परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखने और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में सक्षम होगा। शैतानी सिद्धांत के अनुसार जीते हुए, अच्छे-बुरे में फर्क नहीं कर सकती थी। मैं बिल्कुल गलत मार्ग पर चल पड़ी थी, जो विनाश की ओर जाता है! इसका एहसास होने पर मुझे खुद से नफ़रत हो गई। साथ ही, मैं परमेश्वर के उद्धार की बहुत आभारी थी, और देखा कि मैंने परमेश्वर के ख़िलाफ़ कितना विद्रोह किया था, पर वो मेरे अपराध अनुसार पेश नहीं आया। मेरे सुस्त और उदासीन हृदय को जगाने के लिए ऐसे हालात बनाए। उसके प्रति आभार से भर गई, अब इस मौके का इस्तेमाल अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य खोजने में करना चाहती थी।
धार्मिक कार्यों में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "तुम चाहे किसी भी दिशा में या किसी भी लक्ष्य के लिए प्रयास करो, और रुतबे का त्याग करने को लेकर तुम अपने आपसे जो भी अपेक्षा करो, जब तक तुम्हारे मन में रुतबे का निश्चित स्थान है, और वह तुम्हारे जीवन और उन लक्ष्यों को नियंत्रित और प्रभावित करने की स्थिति में है जिनके लिए तुम प्रयासरत हो, तो तुम्हारे स्वभाव में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आएगा, और तुम्हारे बारे में परमेश्वर की अंतिम राय एकदम अलग ही होगी। इतना ही नहीं, रुतबे के पीछे इस तरह भागने से परमेश्वर के एक स्वीकार्य प्राणी बनने की तुम्हारी योग्यता पर भी असर पड़ता है, और बेशक एक स्वीकार्य मानक के अनुसार काम करने की तुम्हारी क्षमता भी प्रभावित होती है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? लोगों के रुतबे के पीछे भागने से अधिक घृणास्पद परमेश्वर के लिए कुछ नहीं है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना भ्रष्ट स्वभाव है; यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, और परमेश्वर की दृष्टि में यह मौजूद नहीं रहना चाहिए। परमेश्वर ने इसे मनुष्य को देना नियत नहीं किया था। अगर तुम हमेशा रुतबे के लिए ही प्रतिस्पर्धा और संघर्ष करते रहते हो, अगर तुम इसे लगातार सँजोते हो, अगर तुम हमेशा इस पर अपना कब्जा करना चाहते हो, तो क्या यह परमेश्वर के विरोध की प्रकृति रखना नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है, और परमेश्वर इसकी प्रशंसा नहीं करता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने के संघर्ष में नाकाम रहोगे, और अगर तुम संघर्ष करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : मृत्यु! यही अंधी गली है—तुम इस बात को समझ रहे हो न?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि नाम और रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज़्यादा नफ़रत है, ये बिल्कुल गलत मार्ग है। अगर किसी को पता है कि वह इन चीज़ों के लिए लड़ रहा है, कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचाकर पश्चाताप नहीं करता, तो परमेश्वर उसकी निंदा कर उसे दंड देगा। परमेश्वर के वचन इतने तीखे थे कि मैं डर गई। मैं परमेश्वर के क्रोधी और प्रतापी स्वभाव को महसूस कर सकती थी, जो कोई अपराध नहीं सहता। मुझमें काम करने का कौशल नहीं था, इतनी सारी चीज़ों को संभालना नहीं जानती थी। इस मामले में बहन झाओ बेहतर थी, मेरी कमी की भरपाई कर सकती थी। मुझे उसकी खूबियों से सीखकर अपनी कमज़ोरी दूर करनी थी, कलीसिया के काम को पूरा करने में उसका साथ देना था। इसके बजाय, मैंने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी, काम के लिए सत्य खोजने पर ध्यान नहीं दिया। मैं बस उससे खुद की तुलना कर रही थी, उसे दबाने के लिए उसकी कमियां निकाल रही थी। यह उसके लिए बहुत पीड़ादायक था, इससे परमेश्वर के घर के काम में रुकावटें आईं। परमेश्वर बार-बार फटकार लगाकर मुझे अनुशासित कर रहा था, पर मैं उसके ख़िलाफ़ लड़ने पर अड़ी रही, पीछे मुड़कर देखने से इनकार करती रही। परमेश्वर ने जब तक काम रोकने वाले हालात पैदा नहीं किये, मैं नहीं जगी। मैंने देखा मैं बेहद जिद्दी थी, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए जगह नहीं थी। साथ ही, मैंने परमेश्वर की दया भी महसूस की। वह चाहता था कि मैं सत्य स्वीकार कर सच्चा पश्चाताप करूं, परमेश्वर का भय मानकर शैतान से दूर रहूँ। इसी से परमेश्वर को खुशी मिलती है। मुझे ये भी एहसास हुआ कि बहुत से लोगों की प्रशंसा पाकर भी परमेश्वर की मंज़ूरी न मिली तो वो मुझे उजागर करके हटा देगा। नाम और रुतबे के पीछे भागना, प्रशंसा के लिए काम करना गलत मार्ग है। एक विश्वासी होने के नाते, मुझे उसी तरह सत्य खोजना होगा जैसे परमेश्वर ने बताया है। यह एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की, बहन झाओ से ईर्ष्या करने या नाम और रुतबे के पीछे भागने के बजाय, मैं परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समार्पित हो जाऊँ, उसके वचनों को खा-पीकर अपने मौजूदा हालात पर आत्मचिंतन करूँ। उसके बाद, धीरे-धीरे मेरी हालत बेहतर होने लगी, मेरा हाथ भी ठीक होने लगा।
जनवरी 2021 में मुझे फिर से अगुआ चुना गया, अब मैं पहले की तरह कपटी ढंग से खुश नहीं हुई, ये नहीं सोचा कि लोग रुतबे के कारण मुझे ऊँचा समझें, लगा जैसे परमेश्वर मुझे पश्चाताप का एक मौका दे रहा है। मन-ही-मन कसम खाई मुझे इस काम को संजोना है, किसी से ईर्ष्या करना और रुतबे के लिए लड़ना नहीं है। फिर जल्दी ही कुछ ऐसा हुआ जिसने मुझे फिर से उजागर किया। एक दिन मुझे एक बड़ी अगुआ का पत्र मिला जिस पर बहन झाओ का हस्ताक्षर था। यह देखकर मेरा सर चकराने लगा, सोचने लगी कि उसे तो तरक्की मिल गई, जबकि मैं वहीं की वहीं हूँ। मैं सचमुच उसके बराबर नहीं थी। मुझे गुस्सा आने लगा, पर इस बार समझ आ गया कि मैं फिर से उसके साथ होड़ कर रही हूँ, तो फौरन परमेश्वर के पास आकर प्रार्थना की, नाम और फायदे के लिए लड़ने के अपने भ्रष्ट स्वभाव से दूर रहने, और उसके आयोजनों के प्रति समर्पित होकर काम करने के लिए राह दिखाने की विनती की। प्रार्थना के बाद मन को सुकून मिला, मैंने पहले उसके साथ किए काम के बारे में सोचा, मैं उससे ईर्ष्या और उसके साथ मुक़ाबला करती थी, मैंने उसका दिल दुखाया, मुझे भी जीवन में कष्ट झेलना पड़ा। बहन झाओ से संपर्क जोड़कर परमेश्वर मुझे पश्चाताप का मौका दे रहा था। मैं पहले की तरह भ्रष्टता में नहीं जी सकती, शैतान के बहकावे में नहीं आ सकती। खुद की इच्छाओं को त्यागने के लिए सत्य का अभ्यास करना चाहती थी। मुझे परमेश्वर के वचन याद आये : "तुम लोगों के आचरण के कौन-से सिद्धांत हैं? तुम्हारा आचरण तुम्हारे पद के अनुसार होना चाहिए, अपने लिए सही पद खोजो और उस पर डटे रहो। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग एक पेशे में अच्छे होते हैं और उसके सिद्धांतों को समझते हैं, उस संबंध में अंतिम जाँच उन्हें करनी चाहिए; कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने विचार और अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं, जिससे हर व्यक्ति उनके विचार पर आगे कार्य करने और अपने कर्तव्य का बेहतर तरीके से पालन करने में सक्षम हो पाता है—तो फिर उन्हें अपने विचार साझा करने चाहिए। यदि तुम अपने लिए सही पद खोज सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य पूरा करोगे, और तुम अपने पद के अनुसार आचरण करोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर कहता है हम एक सृजित प्राणी की जगह पर रहें, सच्चे इंसान की तरह काम करें, जो भी कर सकते हैं वो योगदान करें। सच्चे इंसान की तरह जीने का यही एक तरीका है। मुझमें जो भी काबिलियत थी वो परमेश्वर ने तय की थी। परमेश्वर जानता था मैं क्या कर सकती हूँ, मुझे बस अपने काम में पूरा प्रयास करना था, अपनी बहन के साथ अच्छी तरह काम करके कलीसिया के काम को कायम रखना था। परमेश्वर के लिए यही काफी है। वो कलीसिया के काम में नई है, बहुत सी बातें उसे पता नहीं हैं, मुझे तत्परता से उसकी मदद करनी थी, काम के बारे में समझाना था, ताकि हम समस्याओं का पता लगाकर उन्हें जल्दी से हल कर सकें। इसे समझकर मुझे बहुत राहत मिली। फिर, काम की कुछ समस्याओं पर चर्चा के लिए बहन झाओ के पास गई, तो उसने कुछ अच्छे सुझाव दिये। मैंने खुशी-खुशी स्वीकार कर फौरन उन्हें लागू कर दिया। जब मैंने उसके साथ खुद की तुलना करना बंद करके परमेश्वर के वचनों पर अमल किया, तो मेरे दिल को काफी सुकून मिला, हमारा संबंध भी बहुत बेहतर हो गया।
इस अनुभव ने दिखाया कि नाम और रुतबे के काबू में रहने से कितनी पीड़ा होती है। अब मैं इन बेड़ियों से मुक्त हूँ। सत्य पर अमल कर इंसान की तरह जी सकती हूँ। यह सब परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का असर है! मैंने यह भी अनुभव किया कि सत्य पर अमल करना कितनी आज़ादी देता है। ये जीने का शानदार तरीका है। मैं तहेदिल से परमेश्वर के उद्धार की आभारी हूँ।
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