दिल की गांठें खोलना

24 जनवरी, 2022

छनयु, चीन

यह पिछले वसंत की बात है, जब मैं कलीसिया में सुसमाचार का कर्तव्य निभा रही थी। उस वक्त, बहन वांग को सुसमाचार-उपयाजक के रूप में चुना गया, इसलिए हम अपने कर्तव्य को लेकर हमेशा संपर्क में रहते थे। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि वे बिना संकोच अपने मन की बात कह देती हैं। जब भी उन्हें मुझमें कोई समस्या दिखती, तो मुझे स्पष्ट बता देती थीं, और वो भी कठोर लहजे में। जब वे हमारे काम के बारे में चर्चा करती और हमें जानकारी देती थीं, तो कभी-कभी वे अन्य भाई-बहनों के सामने ही मेरे काम में समस्याएं गिनाने लगती थीं। इस वजह से मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस होती। पहले तो मैं बिना कुछ कहे उनकी फटकार सुन लेती थी, क्योंकि मुझे पता था कि यह उनके कर्तव्य की ज़िम्मेदारी है। मगर जब ऐसा बार-बार होने लगा, तो मुझसे सहा नहीं गया, मैंने सोचा, "मैं मन लगाकर अपना कर्तव्य निभाती हूँ। आपको हमेशा मेरी गलतियां ही क्यों दिखती हैं?" एक कार्य सभा में, उन्होंने मुझसे उनके बारे में पूछा जिनके साथ मैं सुसमाचार साझा कर रही हूँ, मैंने उनसे कहा, "मैं सहभागिता करने के लिए कई बार उनके पास गई, लेकिन क्योंकि उनके मन में बहुत-सी धारणाएं हैं और वे समझ भी नहीं पाती हैं, तो मैंने उनके पास जाना छोड़ दिया।" बहन वांग ने सबके सामने मुझे फटकार लगाई : "क्या तुम अपनी कल्पना के आधार पर उनको सीमाओं में नहीं बाँध रही? जब तुमने दिल से काम ही नहीं किया, तो तुम कैसे कह सकती हो कि वे सुसमाचार स्वीकार नहीं करेंगी? अगर वे सुसमाचार का प्रचार करने के सिद्धांतों के अनुरूप हैं, तो तुम्हें फ़ौरन उनके साथ गवाही साझा करनी चाहिए। इतनी लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार बनकर तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाओगी?" उनका गुस्से से लाल चेहरा देखकर और उनके कठोर लहजे को सुनकर, मैं परेशान हो गई। सभी भाई-बहनों की नज़र मुझ पर गड़ी थी, मैं बहुत अपमानित महसूस करने लगी, मैं जानती थी कि मैं गलत थी, लेकिन क्या उनका सबके सामने मेरी आलोचना करना सही था? क्या वे ऐसा नहीं सोचेंगे कि मैं गैर-ज़िम्मेदार हूँ और अपना बोझ नहीं उठा रही? वे सभी मेरे बारे में काफ़ी ऊँचा सोचते थे, लेकिन मैंने बस एक इंसान को हाथ से निकलने क्या दिया, उन्होंने बेमतलब मुझे पूरी तरह अपमानित कर दिया। इस वाकये के बाद मैं अन्य भाई-बहनों से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। अपनी इज्ज़त बचाने के लिए मैंने अपने बचाव में कुछ बातें कहीं, मगर बहन वांग ने सीधे-सीधे कहा : "बहन, मुझे तुम्हें तुम्हारी कमियां बतानी होंगी। मैंने देखा है कि कोई समस्या सामने आने पर तुम बहाने बनाने लगती हो, तुम ना तो मदद स्वीकार करती हो और ना ही राय। कर्तव्य निभाने का यह कौन-सा तरीका हुआ?" यह सुनकर मैं और ज़्यादा परेशान हो गई, मैंने मन-ही-मन सोचा, "आप बहुत अहंकारी हैं! क्या आपको दूसरों की भावनाओं का कोई खयाल नहीं? आप जान-बूझकर सबके सामने मुझे नीचा दिखाकर मेरी छवि खराब करना चाहती हैं। अब, न सिर्फ सभी मुझे अपने कर्तव्य को लेकर गैर-ज़िम्मेदार मानते हैं, बल्कि इससे मेरी छवि एक बहाने बनाने वाली की बन जाएगी। लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? आज जो हुआ उसके बाद कौन मुझ पर भरोसा करेगा, कौन मेरे बारे में अच्छा सोचेगा?" मेरा चेहरा लाल हो गया; मुझे गुस्से आ रहा था, मेरे साथ गलत हुआ था। मैंने बहन वांग की ओर नाराज़गी से देखा, भले ही उस वक्त मैंने कुछ नहीं कहा, मगर मैं उनसे बहुत नाराज़ और चिढ़ी हुई थी। मैं न तो उन्हें देखना और ना ही उनकी बात सुनना चाहती थी।

इसके बाद, मेरे मन में बहन वांग के लिए नाराज़गी पैदा हो गई। मैं उनकी बात सुनना या उनका चेहरा देखना नहीं चाहती थी। जब भी वो मेरे साथ काम की बातों पर चर्चा करने की कोशिश करतीं, तो मैं मुँह लटकाकर चुपचाप बैठी रहती। कोई रास्ता न होने पर, मैं बस उन्हें बेमन से जवाब दे दिया करती। जब वे मेरे काम में किसी समस्या पर ध्यान दिलातीं, तो मैं प्रतिरोधी बनकर अपनी ही ज़िद पर अड़ी रहती—मैं चुपचाप विद्रोह कर रही थी। अन्य भाई-बहनों के साथ सभा करते समय, कभी-कभी मैं अपने अनुभव साझा करने के बहाने बहन वांग की भ्रष्टता को उजागर करने की कोशिश करती, ताकि हर कोई उनके अहंकार को समझे और उनका आदर करना बंद कर दे। मुझे उम्मीद थी कि सभी भाई-बहन साथ मिलकर उनकी निंदा करेंगे और उनसे निपटेंगे, ताकि उन्हें हर वक्त अपमानित होने का एहसास हो सके उन्होंने मेरा अपमान करने और सबके सामने मुझे इतना बुरा दिखाने का साहस जो किया था! मेरी इस हरकत की वजह से, कुछ भाई-बहन सचमुच बहन वांग के ख़िलाफ़ हो गए और कर्तव्य में समस्याओं का सामना होने पर उनके पास जाना छोड़ दिया। वे कुछ हद तक उनसे कन्नी काटने लगे। ये सब देखकर मैं खुद को दोषी समझने लगी। मुझे महसूस हुआ कि भले ही वे सीधी बात करती हैं, मगर वे अपने कर्तव्य को लेकर बहुत ईमानदार हैं, भाई-बहनों को अपने पक्ष में करके बहन वांग को निष्कासित करने और उनसे दूरी बनाने से हमारे काम को कोई फायदा नहीं हो रहा था। मगर उनके द्वारा सबके सामने फटकारे जाने के बारे में सोचते ही मुझे कुछ और नहीं दिखता था, इस बात को मैं अपने दिल से नहीं निकाल पा रही थी। बाद में, जब बहन वांग ने देखा कि मैं उन्हें हटाने की कोशिश में लगी हूँ, तो उन्होंने मेरे साथ सहभागिता करनी बंद कर दी, फिर जब भी हम बात करते, तो वे हमेशा मेरे मन को पढ़ने की कोशिश करतीं। ये सब वाकई अजीब था। यह सब मेरी अंतरात्मा पर बोझ बन चुका था, मैंने विचार किया कि कहीं मैं कुछ ज़्यादा तो नहीं कर रही, कहीं मैं सचमुच उन्हें नुकसान तो नहीं पहुँचा रही। मगर फिर मुझे सबके सामने हुए अपने अपमान की याद आती और मेरा गुस्सा वापस भड़क उठता। मैं उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देना चाहती थी। इस तरह, मैंने खुद को अंधकार में पाया, मेरे पास परमेश्वर से प्रार्थना में कहने को कुछ नहीं था और मैं अपने कर्तव्य में पीछे होती जा रही थी।

एक बार, अगुआ ने हमारी टीम को पत्र लिखकर हमें बहन वांग का मूल्यांकन देने को कहा। मेरा मन जानता था कि हमारा मूल्यांकन सच्चा और निष्पक्ष होना चाहिए, मगर फिर भी मेरे दिल में एक गाँठ थी, इसलिए मैंने उनके बारे में अपनी सभी शिकायतें और पूर्वाग्रह लिख दिए, जैसे कि वो स्नेही नहीं हैं, उनकी कथनी और करनी से लोगों को कोई शिक्षा नहीं मिलती, वो दूसरों को तकलीफ़ देती हैं। मैंने सोचा कि यह मूल्यांकन पढ़कर अगुआ बहन वांग को खरी-खोटी सुनाएंगी, तब उन्हें अपमानित होने का एहसास होगा, शायद उन्हें बर्खास्त ही कर दिया जाए, जिससे उनके साथ मेरी सारी समस्याएं ही ख़त्म हो जाएंगी। मगर अपना मूल्यांकन देने के बाद मुझे अजीब-सी बेचैनी होने लगी—मेरी अंतरात्मा दोषी महसूस कर रही थी। बहन वांग ने अपने कर्तव्य में जो भी किया, उसके बारे में सोचती ही जा रही थी, मैंने सोचा कि वे कितनी ईमानदार और ज़िम्मेदार हैं, कैसे वे सचमुच व्यावहारिक कार्य कर सकती हैं। जब से वो उपयाजक बनी थीं, कलीसिया के सुसमाचार का काम कहीं अच्छी तरह से चल रहा था, मगर अपनी समीक्षा में मैंने वो बातें नहीं लिखीं। मैंने उनके साथ सही नहीं किया! मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही बुरा महसूस करती, इसलिए मैं परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी : "हे परमेश्वर, मेरा मन अंधकार और पीड़ा से भर गया है। मैं जानती हूँ कि मैं गलत कर रही हूँ, मगर मैं बहन वांग के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर पा रही। मुझे क्या सबक सीखना है? परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध बनाओ और मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि अपनी कमियों और भ्रष्टता को पहचानकर, मैं इस बुरी स्थिति से बाहर निकल पाऊं।"

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ा : "अपने दैनिक जीवन में तुम लोग, किन स्थितियों में, और कितनी स्थितियों में, परमेश्वर का भय मानते हो, और किन चीजों में नहीं मानते हो? क्या तुम लोगों से नफरत करने में सक्षम हो? जब तुम किसी से नफरत करते हो, तो क्या तुम उस व्यक्ति पर टूट पड़ सकते हो या उससे बदला ले सकते हो? (हाँ।) तो ठीक है, तुम लोग काफी डरावने हो! तुम लोग परमेश्वर-भीरु नहीं हो। तुम्हारा इन सब चीजों को कर पाने का मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव काफी दुष्ट है, एक काफी गंभीर हद तक! ... क्या तुम इसलिए लोगों को दंडित करने के कई तरीके सोचने में सक्षम हो, क्योंकि वे तुम लोगों की पसंद के अनुरूप नहीं हैं या उनका तुम्हारे साथ तालमेल नहीं बैठता? क्या तुम लोगों ने पहले कभी इस तरह की चीजें की हैं? तुमने इस तरह की कितनी चीजें की हैं? क्या तुमने हमेशा अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को नीचा दिखाते हुए, उनको टोकते हुए टिप्पणियां नहीं कीं और उन पर व्यंग्य के बाण नहीं चलायए? (हाँ।) जब तुम इस तरह की चीजें कर रहे थे, तब तुम लोगों की स्थितियाँ क्या थीं? उस समय, तुम अपनी भड़ास निकालकर खुशी महसूस करते थे; तब तुम्हारी हर बात मानी जाती थी। हालांकि, उसके बाद, तुमने आत्म-चिंतन किया, 'मैंने बहुत घिनौना काम किया है। मैं परमेश्वर का भय नहीं मानता और मैंने उस व्यक्ति के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।' अपने अंतरतम में, क्या तुमने खुद को दोषी महसूस किया? (हाँ।) हालांकि, तुम लोग परमेश्वर का भय नहीं मानते हो, लेकिन तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की कुछ समझ है। तो, क्या तुम अब भी भविष्य में इस तरह की चीजें करने में सक्षम हो? क्या जब लोग तुम्हें नापसंद होते हैं, या जब उनसे तालमेल नहीं बैठता, या जब वे तुम्हारी बात नहीं मानते या सुनते, तो तुम उन पर हमला करने और उनसे बदला लेने, उनका जीना मुहाल करने और उन्हें यह दिखा देने के बारे में सोच सकते हो कि सर्वेसर्वा तुम्हीं हो? क्या तुम ऐसा कहोगे, 'अगर तुम वैसा नहीं करोगे जैसा मैं चाहता हूँ, तो मैं तुम्हें दंडित करने का मौका ढूंढ लूँगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा। कोई जान भी नहीं पाएगा और मैं तुम्हें अपने कदमों में झुका दूँगा; मैं तुम्हें अपनी ताकत दिखा दूँगा। उसके बाद, कोई भी मेरे साथ बखेड़ा करने की हिम्मत नहीं करेगा!' मुझे बताओ : जो व्यक्ति ऐसी चीजें करता है, उसके पास किस तरह की इंसानियत है? अपनी इंसानियत के मामले में वह एक दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति है। सत्य के साथ उसे मापा जाए तो दिखेगा कि वह परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं रखता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')परमेश्वर के वचन मुझे बहुत ही तीखे लगे। उस दौरान की अपनी हरकतों के बारे में सोचा तो लगा कि मैं बहन वांग के साथ पक्षपात कर रही थी क्योंकि उन्होंने सबके सामने बड़ी स्पष्टता से मुझे मेरी गलतियां बताईं और मेरा निपटान किया था। मुझे लगा कि वो मुझे शर्मिंदा कर रही हैं, ताकि सबके सामने मेरी जो छवि बनी हुई है, वो खराब हो जाए। तब से, बहन वांग के कुछ भी कहने पर मैं चिढ़ जाती, विरोध करती, मेरे मन में तो हर वक्त उनके लिए शिकायतें ही होतीं। मैं तो सभाओं में भी अपनी शिकायतें और पूर्वाग्रह जाहिर कर रही थी। मूल्यांकन की प्रक्रिया का इस्तेमाल, उनकी खूबियों और कमजोरियों के बारे में सच्चाई से बताने के बजाय अपना बदला लेने के लिए किया। मैंने अपनी टिप्पणी में केवल पक्षपाती बातें और शिकायतें लिखीं, इस उम्मीद में कि अगुआ उन्हें बर्खास्त कर देंगी या कम-से-कम उनकी काट-छाँट और निपटान करेंगी, जिससे उनकी छवि बिगड़ जाएगी। ऐसा मैंने अपना गुस्सा निकालने के लिए किया। मुझे उनसे चिढ़ थी और मैंने इसलिए अपनी भड़ास निकाली क्योंकि उन्होंने मेरे आत्मसम्मान पर चोट की थी। मैं उन्हें अपनी ताकत दिखाना चाहती थी, ताकि वे फिर कभी मुझे नाराज़ करने की कोशिश ना करें; मैंने खुद को पूरी तरह से बिगाड़ लिया था। मैं एक दुर्भावनापूर्ण स्वभाव प्रकट कर रही थी। अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हुए, मैं अपनी मनमर्ज़ी से कुछ भी बोल और कर रही थी, मेरे मन में परमेश्वर के लिए ज़रा-सी भी श्रद्धा नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि बहन वांग मेरे कर्तव्य में मेरी गलतियों और कमियों को सामने लाकर, परमेश्वर के घर के कार्य की ज़िम्मेदारी निभा रही थीं और मेरी मदद कर रही थीं, ताकि मैं खुद को पहचान सकूँ। जबकि, मैंने लड़ते हुए उन्हें निष्कासित करने की कोशिश की, मैंने न केवल उन्हें चोट पहुँचाई और बाधित किया, बल्कि कुछ अन्य भाई-बहन को भी उनके काम की अवहेलना करने को उकसाया। इससे हमारे सुसमाचार के काम पर बहुत बुरा असर पड़ा। क्या इसे परमेश्वर के घर के कार्य को बिगाड़ना और उसमें रुकावट डालना नहीं कहा जाएगा? मैं बहुत नीच और दुर्भावना से भरी थी!

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, "लोग इस प्रकार सोचते हैं : 'यदि तुम दयालु नहीं होओगे, तो मैं न्यायी नहीं होऊँगा! यदि तुम मेरे प्रति अशिष्ट होओगे, तो मैं भी तुम्हारे प्रति अशिष्ट होऊँगा! यदि तुम मेरे साथ इज़्ज़त से पेश नहीं आओगे, तो मैं भला तुम्हारे साथ इज़्ज़त से क्यों पेश आऊँगा?' यह कैसी सोच है? क्या यह बदले की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या ऐसा नज़रिया व्यवहार्य नहीं है? 'आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत'; 'जैसे को तैसा'—अविश्वासियों के बीच ये सभी तर्क मान्य और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। लेकिन, परमेश्वर में विश्वास करने वाले किसी व्यक्ति के रूप में—सत्य को समझने का प्रयास करने वाले और स्वभाव में बदलाव चाहने वाले किसी व्यक्ति के रूप में—तुम ऐसे कथनों को सही कहोगे या गलत? इन्हें परखने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसी चीज़ें कहाँ से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें उस प्रकृति का वास्तविक सार होता है। इस प्रकृति के सार वाले नज़रिये, सोच, अभिव्यक्तियों, वाणी और कर्मों की प्रकृति क्या होती है? क्या ये शैतान के नहीं हैं? क्या शैतान के ये पहलू इंसानियत के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के या सत्य-वास्तविकता के अनुरूप हैं? क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनकी ऐसी सोच और दृष्टिकोण होने चाहिए? (नहीं।)" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल अपने भ्रष्‍ट स्‍वभाव को दूर करके ही तुम निराशाजनक अवस्‍था से मुक्त हो सकते हो')। "आज तुम लोगों से—सद्भावना में एक साथ मिलकर काम करने की अपेक्षा करना—उस सेवा के समान है जिसकी अपेक्षा यहोवा इस्राएलियों से करता था : अन्यथा, सेवा करना बंद कर दो। ... तुम में से हर व्यक्ति, परमेश्वर की सेवा करने वाले के तौर पर सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचने के बजाय, अपने हर काम में कलीसिया के हितों की रक्षा करने में सक्षम होना चाहिये। एक दूसरे को कमतर दिखाने की कोशिश करते हुए, अकेले काम करना अस्वीकार्य है। इस तरह का व्यवहार करने वाले लोग परमेश्वर की सेवा करने के योग्य नहीं हैं! ऐसे लोगों का स्वभाव बहुत बुरा होता है; उनमें ज़रा सी भी मानवता नहीं बची है। वे सौ फीसदी शैतान हैं! वे जंगली जानवर हैं! अब भी, इस तरह की चीज़ें तुम लोगों के बीच होती हैं; तुम लोग तो सहभागिता के दौरान एक दूसरे पर हमला करने की हद तक चले जाते हो, जान-बूझकर कपट करना चाहते हो और किसी छोटी सी बात पर बहस करते हुए भी गुस्से से तमतमा उठते हो, तुम में से कोई भी पीछे हटने के लिये तैयार नहीं होता। हर व्यक्ति अपने अंदरूनी विचारों को एक दूसरे से छिपा रहा होता है, दूसरे पक्ष को गलत इरादे से देखता है और हमेशा सतर्क रहता है। क्या इस तरह का स्वभाव परमेश्वर की सेवा करने के लिये उपयुक्त है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और न्याय से पता चला कि मैं प्रतिशोध की भावना से काम क्यों कर पाई—ऐसा इसलिए, क्योंकि मेरी शिक्षा और सामाजिक ताने-बाने के ज़रिए, शैतान ने सभी तरह के सांसारिक फलसफों को मेरे अंदर भर दिया था जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" "आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत" "मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा" "मैं धोखा खाने के बजाय धोखा दे दूँगा" आदि। मैं इन्हें सकारात्मक बातें समझने लगी थी और इनके अनुसार ही अपना जीवन जी रही थी। मैं चाहती थी कि सब कुछ मेरे आसपास घूमता रहे, हर कोई अपनी कथनी और करनी में मेरे बारे में सोचे और मेरे लिए चीज़ें सुखद बनाए। मैं नहीं चाहती थी कि दूसरे ईमानदार बनें और मुझे सटीक प्रतिक्रिया दें, ख़ास तौर पर मैं नहीं चाहती थी कि लोग मेरी भ्रष्टता उजागर करें। जब भी कोई मेरे हितों को चोट पहुंचाता तो मैं उसकी दुश्मन बनकर, अपनी गुप्त मंशा के साथ भड़ास निकालने और बदला लेने की कोशिश करती थी। मैं अपने शैतानी स्वभाव के काबू में थी, वह मेरी इंसानियत ख़त्म करके मुझे अहंकारी, स्वार्थी, और दुर्भावनापूर्ण बना रहा था। इससे परमेश्वर के साथ-साथ अन्य लोगों को भी घृणा होती है। परमेश्वर चाहता है कि हम भाई-बहनों के साथ मिल-जुलकर रहें, यानी मुझे अपनी कथनी और करनी में परमेश्वर का भय मानना चाहिए, अपनी छवि को होने वाले फायदों और नुकसानों की सोचे बिना, परमेश्वर के घर के हित को सबसे पहले रखना चाहिए, हर काम में परमेश्वर के वचनों को अपने बर्ताव का मानक बनाना चाहिए। ऐसा करके ही हम एक दिल और मन से अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। मगर मैं शैतानी विषों के अनुसार जीते हुए, हमेशा अपने रुतबे को बचाने की सोचती रहती थी। मुझे बहुत अच्छे से पता था कि मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह थी, लेकिन जब किसी ने यही बात खुलकर कह दी तो मैं सह नहीं पाई। मैं बहन वांग की मदद और बातों को अपना अपमान समझ बैठी; मैंने न केवल आत्मचिंतन करने से इनकार किया, बल्कि नाराज़ होकर उनसे बदला भी लिया। मुझमें ज़रा-सी भी इंसानियत नहीं थी, मैं बहुत नासमझ थी। मैं अपनी विरोधी शैतानी प्रकृति देख पा रही थी, जो सत्य से परेशान थी। मैं मूल रूप से सत्य की दुश्मन थी, परमेश्वर की दुश्मन थी! अगर मैंने अब भी पश्चाताप नहीं किया, तो मैं परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करूंगी, उसे नाराज़ कर हटा दी जाऊंगी। इस बात का एहसास होने पर, मैं खुद से नफ़रत करने लगी और पश्चाताप करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं बहन वांग के ख़िलाफ़ अपने पूर्वाग्रह भूलने, उनके द्वारा काटे-छाँटे और निपटारा किए जाने को तैयार थी, जिससे उनके साथ मिल-जुलकर अपना कर्तव्य निभा सकूँ।

कुछ समय बाद, दूसरे लोगों के साथ मिलकर काम कैसे करें, इसके बारे में सत्य खोजते और उनमें प्रवेश करते वक्त, मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "प्रेम और नफरत ऐसे गुण हैं जो एक सामान्य इंसान में होने चाहिए, लेकिन तुम्हें साफ तौर पर यह भेद पता होना चाहिए कि तुम किन चीजों से प्रेम करते हो और किनसे नफरत। अपने दिल में, तुम्हें परमेश्वर से, सत्य से, सकारात्मक चीजों और अपने भाई-बहनों से प्रेम करना चाहिए, जबकि दानव शैतान से, नकारात्मक चीजों से, मसीह-विरोधियों से और दुष्ट लोगों से नफरत करनी चाहिए। अगर तुम अपने भाई-बहनों के लिए दिल में नफरत रखोगे, तो तुम उनको दबाने और उनसे बदला लेने की ओर प्रवृत होगे; यह बहुत भयावह होगा। कुछ लोगों के पास सिर्फ़ नफरत और दुष्टता के विचार होते हैं। कुछ समय के बाद, अगर ऐसे लोग उस व्यक्ति के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते जिनसे वे नफरत करते हैं, तो वे उनसे दूरी बनाना शुरू कर देंगे। हालांकि, वे इसका असर अपने कर्तव्यों पर नहीं पड़ने देते या अपने सामान्य पारस्परिक संबंधों को प्रभावित नहीं होने देते, क्योंकि उनके दिलों में परमेश्वर होता है और वे उसके प्रति श्रद्धा रखते हैं। वे परमेश्वर का अपमान नहीं करना चाहते और ऐसा करने से डरते हैं। हालांकि ऐसे लोगों का किसी इंसान के प्रति कुछ अलग नजरिया हो सकता है, लेकिन वे उन विचारों को अमल में नहीं लाते या एक भी अनुचित शब्द नहीं बोलते, परमेश्वर का अपमान भी नहीं करना चाहते। यह किस तरह का व्यवहार है? यह खुद के आचरण को नियंत्रित करने और स्थितियों को सिद्धांत और निष्पक्षता के साथ संभालने का एक उदाहरण है। हो सकता है कि तुम किसी के व्यक्तित्व के साथ तालमेल नहीं बिठा पाओ और तुम उसे नापसंद भी कर सकते हो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो, तो तुम निष्पक्ष रहते हो और अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालते, अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करते या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपनी चिढ़ नहीं दिखाते। तुम सिद्धांत के अनुसार चीजें कर सकते हो; क्योंकि, तुम परमेश्वर के प्रति बुनियादी श्रद्धा रखते हो। अगर तुम्हारी श्रद्धा थोड़ी अधिक है, तो जब तुम देखते हो कि किसी व्यक्ति में कोई दोष या कमजोरी है—भले ही उसने तुम्हें नाराज किया हो या तुम्हारे हितों को नुकसान पहुँचाया हो—फिर भी तुम्हारे भीतर उसकी मदद करने की इच्छा होती है। ऐसा करना और भी बेहतर होगा; इसका अर्थ यह होगा कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसमें इंसानियत, सत्य की वास्तविकता और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा है। यदि तुम अपने वर्तमान क़द के साथ इसे प्राप्त नहीं कर सकते, लेकिन तुम सिद्धांत के अनुसार चीजों को कर सकते हो, आचरण कर सकते हो, और लोगों के प्रति व्यवहार कर सकते हो, तो यह भी परमेश्वर-भीरु होने के रूप में गिना जाता है; यह सबसे मूल बात है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। परमेश्वर चाहता है कि हम प्रेम और नफ़रत के बीच अंतर करना सीखें, दूसरों के साथ सिद्धांत अनुसार पेश आएँ। अगर सामने वाला इंसान दुष्ट या मसीह-विरोधी है, तो हमें बिना दया दिखाए उसे उजागर करके नकार देना चाहिए। अगर वह इंसान सत्य का प्रेमी है, तो भले ही उसमें थोड़ा-बहुत अहंकार और कुछ दोष या कमियां हों, फिर भी हमें अपने इरादे साफ़ रखकर उसके साथ सहनशीलता और प्रेम के साथ पेश आना चाहिए। जहाँ तक बहन वांग की बात है, भले ही उन्होंने अपनी बात बिल्कुल स्पष्ट तरीके से कही, जिसे उस वक्त स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, लेकिन इस बारे में दोबारा विचार करने पर, मुझे एहसास हुआ कि वो सही थीं। वो मुझे मेरी उस असफलता से रूबरू करा रही थीं जिसे मैं नहीं देख सकी। हालांकि, इससे मेरे अहंकार को चोट पहुँची, मैं बहुत परेशान और दुखी हो गई, मगर परमेश्वर मेरे अहंकार को दिखाने के लिए ऐसे हालात का इस्तेमाल कर रहा था। बहन वांग के ज़रिए मेरा निपटान कर और मेरे काम पर नज़र रखकर, परमेश्वर मुझे मेरे कर्तव्य में अधिक ईमानदार और व्यावहारिक बनाना चाहता था। इससे मैं अपने कर्तव्य की विफलताओं को समय रहते ठीक कर सकती थी। यह वास्तव में मेरे लिए एक वरदान था! अगर अन्य भाई-बहन न बताएं या मेरी मदद न करें, तो मैं अपने कर्तव्य या जीवन प्रवेश में कोई प्रगति नहीं कर सकती। बहन वांग को मेरे नाराज़ होने का डर नहीं था, उन्होंने तो स्पष्ट तरीके से मेरी गलतियाँ सामने रखीं—यह धार्मिकता की समझ थी, यह मेरे प्रति प्रेम और सहयोग की भावना से किया गया था। वो अपना कर्तव्य भी ज़िम्मेदारी के साथ निभाती और व्यावहारिक काम करती थीं। मगर मैं उनकी दुश्मन बनकर उनसे बदला लेने लगी। मुझमें ज़रा-सी भी इंसानियत नहीं थी!

कुछ समय बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक और वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "हमेशा दूसरों के दोषों पर ध्यान केंद्रित न करो, बल्कि स्वयं पर बार-बार चिंतन करो, और दूसरे के सामने उसे स्वीकार करने में सक्रिय रूप से आगे बढ़ो जो तुमने किया हो और जिसमें उनके प्रति हस्तक्षेप या नुकसान निहित हो। अपने आपको खोलना और संगति करना सीखो और अक्सर मिलकर इस पर चर्चा करो कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर व्यावहारिक रूप से संगति कैसे की जाए। जब तुम्हारे जीवन का वातावरण अक्सर इसी तरह का हो, तो भाइयों और बहनों के बीच रिश्ते सामान्य हो जाते हैं—न कि अविश्वासी लोगों के रिश्तों की तरह जटिल, उदासीन, ठंडे या क्रूर। तुम धीरे-धीरे अपने आपको इस तरह के रिश्तों से मुक्त कर लोगे। भाई-बहन एक-दूसरे के साथ अधिक आत्मीय और घनिष्ठ हो जाते हैं; तुम एक-दूसरे को सहारा दे पाते हो, और आपस में प्रेम कर पाते हो; तुम्हारे दिलों में सद्भावना होती है, या तुम्हारी ऐसी मानसिकता होती है जिसके कारण तुम एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता और करुणा बरतने में सक्षम होते हो, और तुम एक-दूसरे का समर्थन और देखभाल कर पाते हो, बजाय एक ऐसी स्थिति और रवैये के जिसमें तुम एक-दूसरे के साथ लड़ते हो, एक-दूसरे को कुचलते हो, एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हो, गुप्त प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हो, एक-दूसरे के लिए लुके-छिपे तिरस्कार या अवमानना को आश्रय देते हो, या जिसमें कोई भी दूसरे की बात नहीं मानता है। ... इसलिए, तुम्हें पहले यह सीखना चाहिए कि अपने भाइयों और बहनों के साथ कैसे निभाएँ। तुम्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, एक-दूसरे के साथ उदार होना चाहिए, यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि एक-दूसरे के बारे में कौन-सी बात असाधारण है, एक-दूसरे के गुण क्या हैं—और तुम्हें दूसरों की राय को स्वीकार करना सीखना होगा, और आत्म-चिंतन तथा आत्म-ज्ञान में संलग्न होने के लिए अपने भीतर गहराई में जाना होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य-वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास के लिए सबसे मूलभूत सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि जब कोई मेरी आलोचना करके मेरा मार्गदर्शन करे, तो मुझे उनके लहजे या बर्ताव पर ध्यान दिए बिना, और ये सोचे बिना कि उनकी राय मेरी राय से मिलती है या नहीं, मुझे अपना अहंकार भुलाकर उनकी बात स्वीकारनी चाहिए। भले ही कोई बात किसी वक्त समझ ना आए, फिर भी मुझे गुस्सा निकालते हुए बदला नहीं लेना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना और खोज करनी चाहिए। मुझे ये समझना होगा कि मेरे साथ जो कुछ भी होता है उसमें परमेश्वर की मर्ज़ी है। मुझे अपना सबक सीखने और अपने जीवन प्रवेश के लिए इनकी ज़रूरत है, इसलिए मुझे सबसे पहले खुद को समर्पित करके आत्मचिंतन करना होगा, अपनी समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को खोजना होगा। दूसरों के साथ बातचीत या मेलजोल में, मुझे उनकी खूबियों को भी ध्यान में रखना चाहिए, कोई विवाद होने पर, मुझे सबसे पहले आत्मचिंतन करके सत्य खोजना चाहिए। मुझे अपनी गलतियाँ स्वेच्छा से स्वीकार करके दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बताना होगा, ताकि वो मेरा दिल देख सकें। यह सबके साथ मिल-जुलकर काम करने की पूर्वशर्त है और वो सिद्धांत है जिसमें मुझे प्रवेश करना है।

बाद में, मैंने बहन वांग के पास जाकर, अपनी भ्रष्टता के बारे में उन्हें सब कुछ बताया और बताया कि मैंने इसका समाधान कैसे किया। यह मेरे लिए आज़ादी का एहसास था और हमारे बीच की मुश्किलें भी ख़त्म हो गईं। तब से हमारे काम में, कभी-कभी वे सीधे-सीधे मुझे कुछ ऐसा कह देती थीं, जिससे मेरे अहं को चोट पहुँचती थी और मैं प्रतिरोधी होने लगती थी, मगर ऐसा होते ही, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके फ़ौरन खुद को किनारे कर लेती थी। मैं जानती थी इसे परमेश्वर की अनुमति है, इसलिए मैं अपनी समस्याओं की जांच करके उनके दृष्टिकोण को स्वीकार लेती थी। इसे अभ्यास में लाकर, उनके ख़िलाफ़ मेरे सारे पूर्वाग्रह दूर हो गये, अब मुझे लगता है कि हमारा रिश्ता और भी ज़्यादा स्वतंत्र हो गया है। हम अपने कर्तव्य में अच्छे से साथ मिलकर काम करते हैं और हमने धीरे-धीरे अपने सुसमाचार के कार्य में अधिक कामयाबी हासिल की है। इस अनुभव से मैंने सीखा कि परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करके, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार बर्ताव करके ही, हम अपनी भ्रष्टताओं को दूर कर सकते और सामान्य इंसान का जीवन जी सकते हैं। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के उद्धार के लिए उनका धन्यवाद करती हूँ!

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