सिद्धांतों के बिना कर्तव्य फल नहीं देता

10 जून, 2022

शू किन, चीन

2021 में मुझे अगुआ चुना गया। काम की जरूरतों के कारण मैंने बाद में दूसरी कलीसिया में जिम्मेदारी ले ली। यह देखकर कि कलीसिया का काम बहुत प्रभावी नहीं है, मैंने सोचा, “जिन अगुआओं ने मुझे कलीसिया में लाने की व्यवस्था की, वे मेरी बड़ी कद्र करते होंगे, और आशा करते होंगे कि मैं इस कलीसिया का कामकाज सुधार पाऊँगी, तो मुझे बढ़िया काम करना होगा, अगुआओं को दिखाना होगा कि मैं कुछ वास्तविक काम कर सकती हूँ।” फिर, मैं कामकाज का जायजा लेने और भाई-बहनों के काम में आई मुश्किलों और समस्याओं को ठीक करने के लिए कलीसिया के हर समूह के पास गई। कुछ भाई-बहनों की हालत बुरी थी, इसलिए मैंने प्यार से उनकी मदद की, उनका साथ दिया। जब मुझे ऐसे लोग मिले जो अपने कामों में ठीक नहीं थे, तो मैंने अपने सहभागी भाई-बहनों से चर्चा कर सिद्धांतों के अनुसार तुरंत उनका तबादला कर दिया या उन्हें बदल दिया। कुछ समय बाद कलीसिया का कामकाज थोड़ा-बहुत सुधर गया था। मुझे बहुत खुशी हुई, और मैं यह सोचे बिना नहीं रह सकी, “लगता है मैं थोड़ा वास्तविक काम कर सकती हूँ। मुझे कड़ी मेहनत करते रहनी होगी और नतीजे दिखाने होंगे, ताकि भाई-बहन देख सकें कि मुझमें काम करने की काबिलियत है और कहें कि मैं एक अच्छी अगुआ हूँ।”

एक दिन, हमने जब कुछ कामों पर नजर डाली, तो देखा कि सिंचन-कार्य की प्रभावशीलता पहले से काफी घट गई थी। बहुत-से नए सदस्य सभाओं में नहीं आ रहे थे। मुझे लगा, “दूसरा सारा कामकाज अब ज्यादा प्रभावी है, मगर सिंचन-कार्य की प्रभाशीलता नीचे गिर गई है। सिंचन-कार्य पूरे परिणामों को प्रभावित करे, ऐसा मैं नहीं होने दे सकती, वरना सारे लोग कहेंगे मैं एक नाकाबिल अगुआ हूँ, और दोबारा मुझे उसी तरह नहीं देखेंगे।” इसलिए, मैं जल्दी से इसकी जाँच करने के लिए सिंचन-कर्मियों के पास गई। तब मुझे पता चला कि समूह-अगुआ बहन वू वेन नए सदस्यों की सभाएँ और कर्तव्य तय करते समय उनकी असली मुश्किलों का ख्याल नहीं रखती। वह सभाएँ ऐसे समय आयोजित करती थी जब उन्हें काम करना होता था, इसलिए वे उनमें भाग नहीं ले पाते थे। यह सुनकर मैं थोड़ी नाराज हो गई। सोचा, “मैंने उसे साफ-साफ बता दिया था कि नए सदस्यों के लिए सभाएँ और कर्तव्य तय करते समय उनके हालात का ख्याल रखना होगा। वह चीजों को पूरी तरह से क्यों नहीं समझ सकती और उन्हें लचीले ढंग से लागू क्यों नहीं कर सकती? लगता है उसमें नए सदस्यों का सिंचन करने की काबिलियत नहीं है। वह समूह-अगुआ है, अगर वह अपने अभ्यास से भटकती है तो उसका असर पूरे समूह की प्रभावशीलता पर पड़ेगा। उसे तुरंत बर्खास्त करना होगा। अगर मैंने उसे बर्खास्त नहीं किया, तो कामकाज के परिणाम कभी नहीं सुधरेंगे। न सिर्फ इससे कलीसिया के काम में रुकावट आएगी, बल्कि मेरे वरिष्ठ और भाई-बहन सोचेंगे कि मैं कामकाज करने और असली समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ हूँ। मेरी काबिलियत पर सवाल उठाने वाले लोग मुझे नहीं चाहिए।” इसलिए मैंने वू वेन की बर्खास्तगी का मसला अपने सहकर्मियों के सामने रखा। सिंचन-उपयाजिका ने कहा, “पहले वू वेन नए सदस्यों के सिंचन में प्रभावी थी। संभवतः हाल में उसके हालात बिगड़े होंगे और उसने नए सदस्यों के प्रशिक्षण में थोड़ी ज्यादा जल्दबाजी दिखाई होगी, जिसके कारण समस्याएँ उत्पन्न हुईं। हमें उसकी हालत का पता लगाना चाहिए, और फिर उसके साथ संगति कर उसकी मदद करनी चाहिए। कुछ समय बाद भी अगर वह न बदले, तो हम उसे बर्खास्त कर सकते हैं।” लेकिन मैंने बिल्कुल नहीं सुना। मैंने बस यह सोचा, “वू वेन ने नए सदस्यों का सिंचन शुरू ही नहीं किया था। मैंने इस बारे में पहले उसे याद भी दिलाया है। मेरे ख्याल से वह नहीं चाहती कि कोई उसे याद दिलाए और मदद करे। अगर हम उसे तुरंत बर्खास्त नहीं करते, और देर हो जाती है या काम पर बुरा असर पड़ता है, तो मैं ही हूँगी जिसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा। चाहे कुछ भी हो, इस बार मुझे उनसे अपनी बात मनवाकर वू वेन को बर्खास्त करना होगा।” इसलिए मैंने गुस्से से कहा, “वू वेन अपने कर्तव्य में प्रभावी नहीं है, इससे साबित होता है कि वह अक्षम है और इस कर्तव्य के लायक नहीं है। अगर आप उसे रखे रहीं और हमारे काम के परिणामों में सुधार न हुआ, तो आपमें से कौन वह जिम्मेदारी उठा सकेगा? आप मेरे बगैर उसकी मदद कर सकते हैं!” मेरा रवैया देखकर मेरे सहकर्मियों ने कुछ नहीं कहा।

फिर मुझे पता चला कि हटाए जाने के बाद वू वेन काफी नकारात्मक हो गई थी। उसे लगा कि हमने उसे क्षणिक व्यवहार के आधार पर बर्खास्त किया था, उसके निरंतर व्यवहार को संतुलित रूप से परखकर नहीं, और इस तरह की बर्खास्तगी सिद्धांतों के विपरीत थी। फिर भी मैंने न तो सत्य खोजा और न ही आत्मचिंतन किया, बल्कि मुझे लगा कि वू वेन का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, और न तो वह खुद को जान पाई थी और न ही चीजों से सबक सीख पाई थी, इसलिए मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया।

वू वेन की बर्खास्तगी के बाद, हमने बहन झेन शिन को समूह-अगुआ के रूप में चुना। मैंने खुशी से सोचा, “अब सिंचन-कार्य ज्यादा प्रभावी होगा।” लेकिन कुछ समय बाद मैंने पाया कि झेन शिन की कार्यक्षमता कमजोर थी और वह वू वेन जैसी जिम्मेदार भी नहीं थी। वह समय रहते नए सदस्यों के हालात नहीं समझ पाती थी और उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए संगति करना भी नहीं जानती थी। नतीजतन कुछ समय बाद भी सिंचन-कार्य में सुधार नहीं हुआ। मुझे बेचैनी होने लगी, सोचने लगी, क्या वू वेन की बर्खास्तगी एक गलती थी। फिर भी इस मुकाम पर मैंने झेन शिन के साथ संगति कर उसे और मदद देने का निश्चय कर देखना चाहा कि क्या उसके नतीजे सुधर सकते हैं।

जब कलीसिया में नए सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी, तो फौरन और सिंचन-कर्मियों के प्रशिक्षण को उच्च प्राथमिकता दी गई। मैं तेजी से उम्मीदवार ढूँढ़ने लगी। मैंने बहन चेन चेन के बारे में सोचा, जिसे हाल ही में बर्खास्त किया गया था। वह पहले सुसमाचार का प्रचार करती थी और उसने कुछ अच्छे नतीजे दिखाए थे। वह मिलनसार थी, लोगों से अच्छी तरह बातचीत करती थी, अगर हम उसे प्रशिक्षित कर दें, तो सिंचन-कार्य में सुधार होगा और मेरे वरिष्ठ यकीनन कहेंगे कि मेरी काबिलियत अच्छी है और मैं सक्षम हूँ। इसलिए मैंने सिंचन-उपयाजिका से चेन चेन को विकसित करने ध्यान देने को कहा। सिंचन-उपयाजिका ने कहा, “हमने ऐसी व्यवस्था करने के बारे में सोचा था, लेकिन हमने देखा कि चेन चेन को बर्खास्त होने के बाद भी आत्मज्ञान नहीं था। जब वह सुसमाचार का प्रचार करती थी, तो हमेशा शोहरत और फायदे के लिए प्रतिस्पर्धा करती थी, ईर्ष्या और विवादों को बढ़ावा देती थी, जिसके कारण दूसरों का सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निभाना नामुमकिन हो जाता था। अगर अब हम उसे नए सदस्यों के सिंचन के लिए प्रशिक्षित करें, तो क्या वह और ज्यादा दुष्टता करके ज्यादा रोड़े नहीं अटकाएगी? सिंचन सबसे अहम कामों में से एक है—इसका प्रशिक्षण लिए हुए लोगों में अच्छी इंसानियत होनी चाहिए, उन्हें कलीसिया के कार्य को बाधित नहीं करना चाहिए। हमें चीजें सिद्धांत के अनुसार करनी चाहिए!” उसकी बातों से मैं बेचैन हो गई। मैंने सोचा, “चेन चेन मिलनसार है, उसमें अच्छी काबिलियत है। नए सदस्यों के सिंचन के लिए उसे प्रशिक्षित करने से काम यकीनन जल्दी ही ज़्यादा असरदार हो जाएगा। अगर हम उसके सच्चा प्रायश्चित न करने के कारण उसे अभी प्रशिक्षित न करने का फैसला करते हैं, तो अगुआ मेरी कार्यक्षमता नहीं देख सकेंगे। यह ठीक नहीं है। मुझे उन्हें मैं जो चाहती हूँ उसे करने के लिए मनाना होगा। मैं हार नहीं मान सकती।” इसलिए मैंने सिंचन-उपयाजिका से कहा, “क्या यह आँखें मूँदकर नियमों पर चलने का समय है? सिद्धांतों में भी कहा गया है कि जिन्होंने पहले अपराध किए हों, उन्हें प्रायश्चित का मौका देना चाहिए। चेन चेन मिलनसार है और नए सदस्यों के सिंचन की काबिलियत रखती है, इसलिए हम उसे प्रशिक्षित कर सकते हैं। हमें उस पर कड़ी नजर रखनी होगी और देखना होगा कि वह बाधाएँ खड़ी न करे। चेन चेन की काबिलियत अच्छी है और वह झट से सीख लेती है। एक और कुशल सिंचन-कर्मी के होने से कलीसिया की कई समस्याएँ दूर हो जाएँगी।” जब सिंचन-उपयाजिका ने मेरा अड़ियल रवैया देखा, तो वह और कुछ नहीं बोली।

लेकिन कुछ दिन बाद सिंचन-उपयाजिका ने सूचित किया कि चेन चेन ने सिंचन करने से पहले नए सदस्यों की धारणाओं और उलझनों का पता नहीं लगाया और जरूरत के अनुसार संगति नहीं की और हल नहीं सुझाए। इसके बजाय, वह अपने विचारों के आधार पर संगति करने पर अड़ी रही। इससे दो नए सदस्यों ने विरोधी और प्रतिरोधी होकर विश्वास करना बंद कर दिया। मुझे चेन चेन की काबिलियत से थोड़ी बेचैनी हुई, उसे ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। बाद में जब मैंने चेन चेन से बात की, तो मुझे एहसास हुआ कि वह अपने कर्तव्य में सिर्फ ऊपर-ऊपर से सक्रिय थी। उसे अपने पिछले अपराधों की जरा भी समझ नहीं थी, अपने सिंचन-कार्य में ऐसी बड़ी समस्या होने के बाद भी उसने आत्मचिंतन नहीं किया और उससे कोई सबक नहीं सीखा। उसकी बुद्धि कुंद पड़ी थी। अब कहीं जाकर मैं थोड़ी जागरूक हुई हूँ कि उसे विकसित करने में मैंने शायद जल्दबाजी कर दी, शायद उसके लिए आत्मचिंतन करते रहना जरूरी था। लेकिन फिर सोचा, चेन चेन की काबिलियत अच्छी है, वह एक अगुआ रही है, इसलिए अगर मैं उसकी ज्यादा मदद करूँ तो शायद वह जल्दी ही खुद को समझकर सुधार ला सके। मुझे बस उसे प्रशिक्षित करके सिंचन-कार्य के नतीजे सुधारने हैं, और मेरे अगुआ मुझे स्वीकृति दे देंगे।

मैं अच्छे नतीजों की उम्मीद कर ही रही थी कि एक सुबह मेरी सहभागी बहन ने मुझसे कहा, “भाई-बहनों ने लिखा है कि आप सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभा रही हैं। आपने सिंचन-कार्य के लिए जबरन चेन चेन की व्यवस्था की, जो अभी भी एकांत में रहकर चिंतन कर रही थी। इस दौरान नए सदस्यों का सिंचन करते समय चेन चेन के सामने कई समस्याएँ आईं, और उसने न तो आत्मचिंतन किया और न ही अपने बारे में बिल्कुल भी समझ दिखाई। उसके निरंतर व्यवहार को देखें तो वह विकसित किए जाने के लिए बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है, उन्होंने सुझाव दिया है कि उसे अभी भी खुद को अलग रखकर आत्मचिंतन करना चाहिए।” उसकी ये बातें सुनकर मेरे दिल की धड़कन पल भर के लिए रुक गई। “गए काम से। यह कोई साधारण प्रतिक्रिया नहीं है—यह मेरे सिद्धांतों के अनुसार काम न करने की रिपोर्ट करना और मुझे उजागर करना है। मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और कभी किसी ने मेरी शिकायत नहीं की। अब मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” तब मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने खुद को शांत करने की कोशिश में अपना कप उठाकर दो-चार घूँट पानी पीया, लेकिन मेरे दिल में तूफानी समुद्र जैसी हलचल थी : “अगर मेरे अगुआओं को इस पत्र की बातों का पता चला, तो वे अवश्य कहेंगे कि मैं सिद्धांतों के अनुरूप अपना कर्तव्य नहीं निभाती, और कलीसिया के कार्य को बाधित करती हूँ। कहीं इस बात पर वे मुझे बर्खास्त न कर दें?” मेरे मन में हलचल मची हुई थी। अंत में, मैं एक फुस्स हो चुकी गेंद की तरह कुर्सी पर गिर पड़ी। जब मेरी सहभागी ने मेरी हालत देखी, तो वह बोली, “भाई-बहनों द्वारा हमारी निगरानी कर हमें उजागर करना हमारे लिए मददगार है। आपको इसे परमेश्वर की देन समझकर स्वीकार करना चाहिए।” मैंने इसे परमेश्वर की देन समझकर स्वीकार करने का वादा किया, लेकिन मन को शांत नहीं कर पाई। पूरे दिन न कुछ खा पाई, न सो पाई। यह विचार मेरे दिल में चुभ गया कि इस पत्र में मेरे बर्ताव के तथ्य कैसे उजागर हुए। मैंने घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मेरे साथ ऐसा होने देने के पीछे तुम्हारी नेकनीयती है। तुम्हारा इरादा समझने और उससे सबक सीखने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”

आत्मचिंतन कर सत्य खोजते हुए मैंने परमेश्वर के वचन पढ़कर अपनी हालत की कुछ जानकारी प्राप्त की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कर रहे हों, उनके हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे होते हैं, वे अपनी योजना के अनुसार काम करते हैं। परमेश्वर के घर की व्यवस्था और कार्य के प्रति उनका दृष्टिकोण ऐसा होता है, ‘हो सकता है कि तुम्हारी हजार योजनाएं हों, लेकिन मेरा एक नियम है’; यह सब मसीह-विरोधियों की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या मसीह-विरोधी लोग अपनी मानसिकता बदलकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं? यह बिल्कुल असंभव होगा...। मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, हमेशा एक ही सिद्धांत पर टिके रहते हैं : उन्हें प्रतिष्ठा, रुतबा या उनके हितों के संदर्भ में कुछ लाभ प्राप्त होना चाहिए, और उन्हें कोई नुकसान भी नहीं होना चाहिए। मसीह-विरोधी ऐसा काम सबसे ज्यादा पसंद करते हैं जिसमें उन्हें कोई कष्ट न उठाना पड़े या कोई कीमत न चुकानी पड़े और उससे उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को लाभ होता हो। संक्षेप में, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य के प्रति समर्पित नहीं होते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर के इरादों को कैसे संतुष्ट किया जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान होता है और लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है कि उनका प्रकृति सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि कुछ वास्तविक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, उन्हें और ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त करने देते हैं, या उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की अवहेलना करने का चुनाव कभी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों में जो खुलासा हुआ, उससे मैंने समझ लिया कि मसीह-विरोधी जो भी करते हैं, वह उनकी शोहरत और रुतबे की रक्षा करने के लिए होता है। जिन मामलों में उनकी शोहरत और रुतबे का कुछ लेना-देना न हो, उनमें वे सत्य सिद्धांतों के आधार पर कर्म कर सकते हैं, लेकिन अगर सत्य सिद्धांतों के आधार पर काम करने से उनकी शोहरत और रुतबे को खतरा हो, तो मसीह-विरोधी सिद्धांतों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करेंगे और अपने ही विचारों के अनुसार मनमानी करेंगे। वे अपने निजी हितों की सुरक्षा के लिए कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाना पसंद करेंगे। मैंने अगुआ बनने के बाद जो कुछ भी किया था, उस सब पर विचार किया तो पाया कि यह मसीह-विरोधियों के उस व्यवहार जैसा ही था, जिसका खुलासा परमेश्वर के वचनों में किया गया है। मैं हमेशा जल्दी से कुछ हासिल करना चाहती थी, ताकि यह साबित कर सकूँ कि मैं सक्षम हूँ और वास्तविक कार्य कर सकती हूँ, इस तरह मेरे वरिष्ठ और भाई-बहन देख लेंगे कि मुझे अगुआ बनाना उनका सही फैसला था। इसलिए, लोगों को चुनते और उनका इस्तेमाल करते समय मैंने सत्य सिद्धांत बिल्कुल नहीं खोजे, मैंने नहीं सोचा कि कलीसिया के कार्य को कैसे लाभ पहुँचाऊँ। मैंने दूसरों की सलाह भी नहीं मानी और खुद फैसले करने पर अड़ी रही। जब मैंने देखा था कि वू वेन नए सदस्यों के लिए उचित रूप से सभाओं और कर्तव्यों की व्यवस्था उनके वास्तविक हालात के आधार पर नहीं कर रही, तो मैंने उसकी हालत और मुश्किलों के बारे में नहीं पूछा था, न ही उसकी समस्याओं के मूल का पता लगाने और सिद्धांतों में प्रवेश करने के लिए उसके साथ काम किया था, ताकि वह वही गलतियाँ दोहराने से बच सके। यह देखकर कि उसके कर्तव्य से कुछ नतीजे नहीं मिले, और कैसे इससे मेरी शोहरत और रुतबे को हानि हो सकती है, मैंने अनुचित ढंग से उस पर ठप्पा लगाया, उसे अलग किया और बर्खास्त करना चाहा। अपनी शोहरत और रुतबा बचाने के लिए मैंने सिद्धांतों और अपने सहकर्मियों की सलाह की अनदेखी कर जबरन उसे निकाल दिया था। मैंने उसके लिए कोई स्नेह या सब्र नहीं दिखाया था और उसकी मदद करने के लिए सत्य पर संगति नहीं की थी। मैंने बस सीधे उसे बर्खास्त कर दिया था। मुझमें सच में मानवता का अभाव था! उसे बर्खास्त करने के बाद जिस नई बहन को मैंने चुना था, वह काम नहीं कर पाती थी, जिससे सिंचन-कार्य के नतीजों पर सीधे बुरा असर पड़ा। फिर भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। कार्य के परिणामों में त्वरित सुधार लाने और अगुआओं की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए मैंने फिर से सिद्धांतों का उल्लंघन किया था—ऐसी इंसान को उन्नत कर उसे विकसित किया था, जिसने कलीसिया के कार्य में बाधा डाली थी। मैंने चीजें संदर्भ से काटकर प्रस्तुत की थीं और यह बेतुकी बात कही थी कि हमें उसे प्रायश्चित का एक मौका देना चाहिए। मैंने आँख मूँदकर नियमों का पालन करने को लेकर सिंचन-उपयाजिका की आलोचना की थी, जिससे वह मेरी बात काटने से डर गई। नतीजा यह हुआ कि चेन चेन बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं थी और उसने सिंचन-कार्य को नुकसान पहुँचाया था। मैंने देखा कि अपनी शोहरत और रुतबे के लिए मैंने अपने कर्तव्य में तेजी से सफलता पाने का प्रयास किया और परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और दूसरों द्वारा याद दिलाए जाने की अनदेखी की। यहाँ तक कि रिपोर्ट और उजागर किए जाने के बावजूद मैंने अपनी विफलताओं के कारणों पर चिंतन नहीं किया—मुझे बस यही फिक्र थी कि अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैंने अड़ियल की तरह अपनी शोहरत और रुतबा बचाए रखा और अपने निजी हितों की सुरक्षा के लिए कलीसिया के हितों का नुकसान होने दिया। मैंने जो दर्शाया, वह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव था!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसने मुझे अपने कार्यों की प्रकृति की कुछ समझ दी। परमेश्वर कहता है : “यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि शोहरत, लाभ और रुतबा प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। कुछ लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य कर रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त और खराब करता है। उनके शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह गड़बड़ी, खराबी और विघटन है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि जब हम अपना कर्तव्य निभाने के नाम पर निजी शोहरत और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो हम सार में शैतान के नौकरों की तरह काम कर कलीसिया के कार्य को बाधित करते हैं। परमेश्वर के वचन ने मेरे कर्मों के सार का खुलासा किया। कलीसिया का अगुआ बनने का अवसर देकर परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह किया है, और उसे उम्मीद थी कि मैं उसके इरादों का ध्यान रखूँगी और भाई-बहनों का अच्छे ढंग से सिंचन करूँगी, उनकी मुश्किलें और जीवन प्रवेश की समस्याएँ हल करूँगी, कलीसिया के विभिन्न काम करने के लिए उपयुक्त लोगों को प्रशिक्षित करूँगी, और पक्का करूँगी कि कलीसिया का कार्य सुचारु रूप से चले। लेकिन मैंने परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं का ध्यान नहीं रखा और एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाईं। लोगों को चुनकर उनका इस्तेमाल करते समय मैंने सिर्फ अपने निजी हितों का ध्यान रखा। नतीजतन, जिस सिंचन-कर्मी को मैंने उन्नत कर विकसित किया था, वह काम के लिए उपयुक्त नहीं थी। न सिर्फ नए सदस्यों का सिंचन अच्छे से नहीं हुआ था, बल्कि सिंचन-कार्य में रुकावट भी पैदा हुई, जिसके कारण नए सदस्य नकारात्मक हो गए और पीछे हटने लगे। यह मेरा कर्तव्य निभाना कैसे था? मैं कलीसिया के कार्य को बाधित कर रही थी, दुष्टता कर रही थी! इस तरह भी, मुझमें जागरूकता नहीं थी—मैं बहुत स्वार्थी और मंदबुद्धि थी! मैंने उन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। वे हमेशा अपने फायदे के लिए चालें चलते रहते थे, अपनी शोहरत और रुतबा बनाए रखने के लिए सत्य सिद्धांतों की अनदेखी करते थे, मनमाने ढंग से और निर्दयतापूर्वक अपना कर्तव्य निभाते थे, कलीसिया के कार्य को गंभीर रूप से बाधित करते थे, और आखिरकार, उनके बहुत सारे बुरे कर्मों के कारण परमेश्वर ने उनसे घृणा कर उन्हें हटा दिया। मैंने जो किया, उसमें और इन मसीह-विरोधियों के कर्मों के बीच सार में क्या कोई अंतर था? यह जानकर मैं डर गई और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह थी। मैं शोहरत, रुतबे और झटपट सफलता पाने के पीछे भागी, गलत मार्ग पर चली। हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मेरी अगुआई कर रास्ता दिखाओ।”

बाद में आत्मचिंतन करने और सत्य खोजने से मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य में प्रभावी होने के लिए, हमारे इरादे सही होने चाहिए, हमें सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कर्म करने चाहिए। तभी हम परमेश्वर का मार्गदर्शन पा सकेंगे और अपने परिणामों में लगातार सुधार कर सकेंगे। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “जब तुम्हें परमेश्वर से कोई आदेश मिलता है और तुम अपना कर्तव्य निभाने और अपना ध्येय पूरा करने का लक्ष्य रखते हो, तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के इरादे को समझना चाहिए। तुम्हें यह जानने की जरूरत है कि यह आदेश परमेश्वर की तरफ से आता है और यह उसका इरादा है और तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, इस पर ध्यान देना चाहिए और इससे भी जरूरी यह है कि तुम्हें इसके आगे समर्पण कर देना चाहिए। दूसरे, तुम्हें यह पता लगाना चाहिए कि इस कर्तव्य को करने के लिए तुम्हें किन सत्यों को समझने की जरूरत है, तुम्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और तुम्हें ऐसे किस तरीके से अभ्यास करना चाहिए जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों और परमेश्वर के घर के कार्य को फायदा हो। ये अभ्यास के सिद्धांत हैं। परमेश्वर के इरादे को समझने के बाद, तुम्हें इस कर्तव्य को करने से संबंधित सत्य को तुरंत खोजना और समझना चाहिए और सत्य को समझने के बाद, इन सत्यों का अभ्यास करने के सिद्धांतों और मार्ग को सुनिश्चित करना चाहिए। ‘सिद्धांत’ का क्या मतलब है? खास तौर से, सिद्धांत किसी ऐसी चीज के बारे में होता है जिस पर सत्य का अभ्यास करते समय लक्ष्य हासिल करने या परिणाम उत्पन्न करने की प्रक्रिया आधारित होनी चाहिए। ... सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांतों को समझना जरूरी है : सिद्धांत कुंजी हैं, सबसे आधारभूत तत्व हैं। जब तुम अपना कर्तव्य करने के मूल सिद्धांतों को समझ लेते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम उस कर्तव्य को करने के अपेक्षित मानकों को समझते हो। इन सिद्धांतों में माहिर होना यह जानने के समान है कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। तो, अभ्यास करने की यह क्षमता किस आधार पर स्थापित हुई है? यह परमेश्वर के इरादे और सत्य को समझने की नींव पर आधारित है। अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षा क्या है इसका सिर्फ एक वाक्य जानते हो, तो क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? नहीं, इसे नहीं माना जाता है। सत्य को समझना माने जाने के लिए किन मानकों पर खरा उतरना जरूरी है? तुम्हें अपना कर्तव्य करने के मायने और मूल्य को समझना चाहिए और जब ये दो पहलू तुम्हारे लिए स्पष्ट हो जाते हैं, तो इसका मतलब है कि तुम अपने कर्तव्य को करने के सत्य को समझ गए हो। इसके अलावा, सत्य को समझ लेने के बाद, तुम्हें अपने कर्तव्य को करने के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को भी समझना चाहिए। जब तुम अपना कर्तव्य करने के सिद्धांतों को समझकर उन्हें लागू कर पाते हो और कभी-कभी थोड़ी-सी समझदारी का भी उपयोग करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य करने की प्रभावशीलता को सुनिश्चित कर सकते हो। इन सिद्धांतों को समझकर और उनके अनुसार क्रियाकलाप करके तुम सत्य का अभ्यास करने के स्तर तक पहुँच सकते हो। अगर तुम अपना कर्तव्य किसी मानवीय इरादे को मिलाए बिना करते हो, अगर तुम इसे पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करके और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्था के अनुसार, परमेश्वर के वचनों से पूरी तरह से एकमत होते हुए करते हो, तो तुमने अपना कर्तव्य पूरी तरह से योग्य तरीके से पूरा कर लिया है, और चाहे परमेश्वर की अपेक्षाओं की तुलना में परिणामों में कुछ अंतर मौजूद हों, तो भी इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं को हासिल करना माना जाता है। अगर तुम पूर्ण रूप से सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करते हो और अगर तुम अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता तक निष्ठावान हो, तो फिर तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन परमेश्वर के इरादे के साथ पूर्ण रूप से मेल खाता है। तुमने सृजित प्राणी के रूप में अपने पूरे दिल, मन और ताकत से अपना कर्तव्य निभाया है, जो कि सत्य का अभ्यास करके हासिल किया गया परिणाम है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने पर, हमें पहले उसके इरादे खोजने चाहिए, अपने कर्तव्य में प्रवेश करने के सिद्धांत खोजने चाहिए, सत्य की समझ हासिल करनी चाहिए, परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और कर्तव्य में सत्य सिद्धांतों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाते समय हमें कलीसिया के हितों का ध्यान रखना चाहिए, निजी फायदे की चाल न चलकर अक्सर अपनी परीक्षा करनी चाहिए। इससे हमारे विचारों में मिलावट कम होती है और हमारे कर्तव्य में गलतियाँ भी कम होती हैं। मैंने सोचा कि किस तरह मैं अपने कर्तव्य में पूरी तरह शोहरत और रुतबे के लिए कार्य कर रही थी—मैंने विरले ही सत्य सिद्धांत खोजे होंगे, और थोड़ा सत्य जानने पर भी मैंने उसका पालन नहीं किया। सिंचन-कर्मियों को चुनते समय सत्य की स्पष्ट संगति करना, सब्र रखना और जिम्मेदार होना जैसे अहम गुण जरूरी होते हैं। वू वेन अपने कर्तव्य में जिम्मेदार थी, नए सदस्यों के साथ स्नेही और धैर्यवान थी। नए सदस्यों की हालत या उनकी मुश्किलें जैसी भी हों, वह सक्रियता से संगति कर समस्याएँ सुलझा सकती थी। उसने नए सदस्यों के सिंचन के कुछ सिद्धांत भी समझ लिए थे। पहले, अपने कर्तव्य में वह प्रभावी थी, और हाल ही में उसने सिर्फ कुछ वास्तविक मुश्किलों के कारण कुछ गलतियाँ कर दी थीं, जिन्हें वह संभाल नहीं सकी थी। इस हालत में मुझे संगति कर प्रेम से उसकी मदद करनी चाहिए थी—या फिर उसकी काट-छाँट करनी चाहिए थी, उसे उजागर कर फटकार लगानी चाहिए थी—लापरवाही से बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए था। साथ ही, चेन चेन को ऊपर से जोशीली और मिलनसार देखकर मैंने सोचा था कि वह विकसित किए जाने लायक है। अब मुझे एहसास हुआ कि यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। आत्मचिंतन के लिए अलग-थलग किए गए लोगों द्वारा व्यवधान और रुकावट पैदा न करने की हालत में उन्हें सुसमाचार फैलाने और नए सदस्यों का सिंचन करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन दुष्टता करने और कलीसिया का कार्य बाधित करने वाले बुरी इंसानियत के लोगों को विकसित बिल्कुल नहीं किया जा सकता। चेन चेन की शोहरत और रुतबे की आकांक्षा बहुत मजबूत थी और पहले भी वह उनके लिए अक्सर लड़ी थी और कलीसिया का काम बाधित किया था। आत्मचिंतन के लिए बर्खास्त करके अलग-थलग किए जाने के बाद उसने कभी भी अपने पहले के अपराधों की सच्ची समझ नहीं दिखाई। ऐसे लोग विकसित किए जाने के लिए महत्वपूर्ण लक्ष्य नहीं हो सकते। मैंने चेन चेन को उन्नत और विकसित करके सिद्धांत का उल्लंघन किया था, जिससे सिंचन-कार्य में देरी हुई। मैंने लोगों को बर्खास्त कर उनका इस्तेमाल करने के सिद्धांत नहीं समझे थे और मैं शोहरत और रुतबे के लिए काम कर रही थी। इसने कलीसिया का कार्य अवरुद्ध और बाधित किया था और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान पहुँचाया था। यह सोचकर मैं पछतावे से भर गई। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, वह तुम्हारा अपना निजी उद्यम नहीं है; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, ‘यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।’ यह पहली बात है जो लोगों को समझ लेनी चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी मामला मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यान्वित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और अपने निजी मामलों में स्पष्ट अंतर कर लेते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए।) बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहनों को खोजना चाहिए जो सत्य को समझते हों; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। कर्तव्य तुम्हारा अपना व्यक्तिगत मामला नहीं होता है; मामला चाहे बड़ा हो या छोटा, परमेश्वर के घर के मामले किसी के निजी मामले नहीं होते। अगर मामला कर्तव्य से जुड़ा है, तो यह तुम्हारा निजी मामला नहीं है, यह तुम्हारा अपना मामला नहीं है—इसका संबंध सत्य से है, इसका संबंध सिद्धांत से है। तो पहला काम तुम लोगों को क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और सिद्धांत खोजना चाहिए। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो पहले सिद्धांत खोजो; यदि तुम्हें सत्य की समझ पहले से है, तो सिद्धांतों की पहचान करना आसान होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। कर्तव्य परमेश्वर का आदेश होते हैं, निजी मामले नहीं, इसलिए हम अपने निजी हित साधने के लिए इन्हें मनमाने ढंग से नहीं निभा सकते। हर चीज में हमें सत्य सिद्धांत खोजने होंगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना होगा। अगर हम न समझें, तो हमें संगति करके दूसरों के साथ और ज्यादा सत्य खोजना चाहिए। दूसरे जो भी सोचें, हमें बस परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार कर अपना भरसक प्रयास करना चाहिए। हमारे काम में कभी कुछ भटकाव या त्रुटियाँ हो भी जाएँ और हमें अच्छे परिणाम झटपट न मिलें, तो भी अगर हम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम करें, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, तो हम सही मार्ग पर चल रहे हैं, और परमेश्वर हमारा मार्गदर्शन करेगा। बाद में मैं भाई-बहनों के सामने अपने बारे में खुलकर बोली, उजागर किया कि किस तरह मैं अपना कर्तव्य शोहरत और रुतबे के लिए निभा रही थी, झटपट सफलता की अपनी आकांक्षा, लोगों को चुनने और उनका इस्तेमाल करने में सिद्धांतों का उल्लंघन, और कैसे मैंने मनमानी करके दूसरों को फटकारने के लिए अपने ओहदे का इस्तेमाल किया, जिससे उन्हें नुकसान पहुँचा। मैंने सत्यनिष्ठा से उनसे माफी माँगी और मेरी ज्यादा निगरानी करने को कहा। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो भाई-बहनों ने मुझे नीची नजर से नहीं देखा, बल्कि उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया, कहा कि अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए हम एक-दूसरे की देखरेख करते हुए मिल-जुलकर काम कर सकते हैं।

जल्दी ही एक और बात हुई। सुसमाचार-उपयाजिका अपने परिवार की बंदिशों के कारण अस्थायी रूप से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ थी। यह खबर सुनकर मैं थोड़ी बेचैन हो गई। मुझे लगा, “अब हरेक कलीसिया सुसमाचार का प्रचार करने की भरसक कोशिश कर रही है—इस मुकाम पर अगर सुसमाचार-उपयाजिका अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई, तो हमारे काम पर बहुत बुरा असर पड़ेगा! अगर मैं समय रहते किसी दूसरे को न लाई, तो हमारे परिणाम कभी सुधर नहीं पाएंगे। मेरे वरिष्ठ निश्चित रूप से मुझे अक्षम समझेंगे।” इसलिए मैंने अपनी सहभागी बहन से चर्चा की कि क्या हमें सुसमाचार-उपयाजिका का तबादला कर उसकी जगह किसी दूसरे को ले आना चाहिए। उसने कहा, “सुसमाचार-उपयाजिका हमेशा से एक जिम्मेदार और सक्षम कार्यकर्ता रही है, सुसमाचार-कार्य के परिणाम भी अच्छे रहे हैं। अगर तुम सिर्फ इसलिए उसका तबादला करोगी कि वह कुछ समय के लिए अपने परिवार के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकती, तो यह सिद्धांतों के विरुद्ध होगा।” मैं अपना तर्क देने ही वाली थी, कि तुरंत मुझे ख्याल आया कि किस तरह मैंने वू वेन को जबरन हटा दिया था। क्या मैं फिर से अपनी शोहरत और रुतबा बचाने का काम नहीं कर रही थी? मेरी सहभागी मुझे याद दिला रही थी कि मुझे अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाना चाहिए। मैंने लगभग एक और बड़ी गलती कर दी थी। मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद करके, मैंने उससे कहा, “मेरे इरादे गलत हैं। मैं फिर से सिद्धांतों का पालन किए बिना उसका तबादला कर देती और शोहरत और रुतबे के लिए काम कर रही होती। वह सचमुच जिम्मेदार और सही इंसान है। अगर वह फिलहाल अपना काम नहीं कर सकती, तो हम पिछड़ा हुआ काम हाथ में लेकर सुसमाचार-कार्य करेंगे। चलो, हम उसकी हालत के बारे में और पता लगाते हैं, उसका साथ देने और मदद करने की कोशिश करते हैं।” मेरी बात सुनकर मेरी सहभागी ने सहमति में सिर हिलाया और इस तरह अभ्यास कर मुझे बहुत सुकून मिला।

अब, जब मैं अपना काम करती हूँ, तो अक्सर खुद से पूछती हूँ, “क्या आज मैंने अपना कर्तव्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार निभाया? क्या मैंने लोगों के साथ अपने बर्ताव में भ्रष्ट स्वभाव के साथ काम किया?” अगर मैं कोई काम सिद्धांतों और परमेश्वर के इरादों के अनुसार नहीं करती, तो परमेश्वर से उसे फौरन ठीक करने की प्रार्थना करती हूँ। जब मैं इस तरह अभ्यास करती हूँ, तो मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन दिखता है, कलीसिया का कार्य थोड़ा सुधर रहा है और भाई-बहन सक्रिय होकर अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!

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