बदला लेने के बाद आई जागृति
मैं कुछ समय से एक कलीसिया में अगुआ का काम कर रही थी। सुसमाचार उपयाजक, बहन झांग पर एक कर्तव्य का भार था, और वह इसे लेकर अति सक्रिय रहती थी। पर वह बड़ी बेबाक थी और तीखी जुबान बोलती थी। कभी-कभी वह मुझमें कुछ समस्याएं देखती तो सीधे बोल देती। उसने कहा कि मैं बड़े घमंड से लोगों को डांट देती हूँ, और वे बेबस महसूस करते हैं। पहले तो मैं इसे सकारात्मक नजरिए से लेती रही। मुझे लगता था कि उसकी बात कड़वी है, पर यह सच है, इसलिए मैं इसे स्वीकार करके आत्म-चिंतन की कोशिश करती। पर कुछ समय बाद, उसे दूसरों के सामने मेरे कर्तव्य से जुड़ी समस्याओं पर उंगली उठाते और मेरी छवि की परवाह न करते देख मेरे लिए इसे स्वीकार करना मुश्किल हो गया, और मैं उसके प्रति पक्षपाती हो गई।
एक बार, कुछ उपयाजकों के साथ सभा में, कोई कुछ बोल नहीं रहा था, तो मैंने उन्हें सवाल या मसले उठाने के लिए कहा। बहन झांग ने तुनककर कहा, "मैं संगति में लंबी बात करती हूँ तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता—मुझे एक दबाव-सा महसूस होता है।" उसने कहा कि कुछ दूसरे भाई-बहन भी मेरे सामने बेबस महसूस करते हैं। मैंने कुछ लोगों को सहमति में सिर हिलाते देखा तो मेरा चेहरा तमतमाने लगा। अपनी छवि बचाने के लिए मैंने तर्क देने की कोशिश की, कहा कि सख्ती से बोलना मेरी आदत है। उसने कहा कि बात लहजे की नहीं थी, बल्कि यह मेरी अहंकारी प्रकृति की देन थी। बहन झांग मेरी गरिमा का कोई ध्यान नहीं रख रही थी—मेरे अंदर एक तूफान-सा मचने लगा। मैं सोच रही थी, ये सच था कि वो संगति में बहुत घुमाकर बात करती थी, तो वह अपनी तरफ क्यों नहीं देखती, मेरे लिए मुसीबतें क्यों खड़ी कर रही है? उसे जरूर मुझसे कोई खार है, वह दूसरों की नजरों में मुझे गिराना चाहती है। क्या वे मुझ पर भड़क जाएंगे और कहेंगे कि मैं लोगों को डांटती हूँ और बहुत अहंकारी हूँ? इन विचारों ने उसके प्रति मेरे पक्षपात को और मजबूत कर दिया।
कुछ उपयाजकों के साथ एक दूसरी सभा में, उसने सबके सामने कहा, कि मैं सिर्फ सकारात्मक चीजों पर संगति करती हूँ, खुद की भ्रष्टता पर नहीं, मैंने अपना तरीका नहीं बदला, मैं अहंकारी थी और लोगों को बेबस कर देती थी। मुझे लगा कि उसने मेरी अच्छाइयों के बारे में कुछ भी नहीं कहा, सिर्फ दोष गिनाए। क्या मैं सचमुच इतनी बुरी हो सकती थी? दूसरे लोग जरूर मेरे बारे में बुरी धारणा बना लेंगे, और अगर अगुआ को पता चल गया, तो शायद वो कहे कि इतने दिनों में मैं बिल्कुल भी नहीं बदली, और भाई-बहनों से मेरी अच्छी नहीं निभती, मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता था। जितना ज्यादा सोचती, बहन झांग मुझे उतनी ही बुरी लगती। वह हमेशा सबके सामने मुझे बेनकाब करती थी, और मैं बिना बहस किए हथियार डाल देती थी। वह मेरा आभार माने बिना हर सीमा लांघ रही थी। उसने मेरी छवि का ख्याल किए बिना मेरी अनेक समस्याएँ उजागर कर दीं। मुझे लगा कि उसकी समस्याओं को उजागर करने के लिए मुझे भी सही अवसर ढूँढना होगा, ताकि उसे उसकी सही जगह दिखा सकूँ। इस सोच पर मैंने अपनी ज़बान बंद ही रखी, कुछ नहीं बोली।
बाद की एक सभा में, मुझे पता चला कि बहन झांग की जिम्मेदारी वाले सुसमाचार कार्य में नतीजे नहीं मिल रहे थे, और उसके कर्तव्य में कुछ समस्याएँ भी थीं। मैं इस बारे में सबके सामने बोलकर उसे नीचा दिखाना चाहती थी, पर इससे पहले ही उसने मुझसे सुसमाचार फैलाने के मेरे हाल के प्रयासों के बारे में पूछ लिया। मैं ठगी-सी रह गई और सकपका गई। मुझे लगा कि मेरे पीछे न पड़कर उसे आत्म-चिंतन करना चाहिए कि सुसमाचार का काम क्यों ठीक नहीं चल रहा। वह जानती थी कि मैं कलीसिया के काम में व्यस्त थी और प्रचार नहीं कर रही थी, तो इस बारे में पूछकर क्या वह मुझे नीचा नहीं दिखा रही थी? वह हमेशा मुझे शर्मिंदा करना चाहती थी—मैं इसे चुपचाप स्वीकार नहीं कर सकती थी। मुझे भी उसकी समस्याओं के बारे में खुलकर बोलना चाहिए, ताकि वह अपना सिर न उठा सके। इन्हीं इरादों से, मैंने एक उपयाजक से कहा, "बहन झांग के सुसमाचार कार्य में कुछ समस्याएँ हैं और वह आलोचना नहीं सुनगी। वह आत्म-चिंतन करने के बजाय दूसरों की समस्याओं को तूल देगी।" मुझे उस वक्त थोड़ा अपराध-बोध हुआ, फिर मुझे लगा कि उसी ने पहले मेरी आलोचना कर मुझे शर्मिंदा किया था, वह इसी के लायक थी। बाद में, सभाओं में अपनी हालत बताने के नाम पर मैं उसके खिलाफ अपनी भड़ास निकालने लगी। मैंने कहा, "पिछली सभा में सुसमाचार-कार्य के बारे में पूछा तो बहन झांग व्यावहारिक काम न करने पर आत्म-चिंतन करने के बजाय मुझसे सुसमाचार साझा करने को लेकर सवाल पूछने लगी। मेरे मन में उसके प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो गया, लगा कि वह समस्याओं से कोई सबक नहीं सीखती।" कुछ दूसरे लोगों ने भी यह बात सुनी तो सोचा कि बहन झांग में आत्मबोध की कमी है। मुझे उस समय बहुत खुशी हुई, अब भाई-बहनों को पता चल गया होगा कि वह सत्य स्वीकार नहीं करती, हो सकता है वे उसे नापसंद करने लगें, उसका बहिष्कार कर दें। इस तरह वे उसकी बात पर विश्वास नहीं करेंगे, सोचेंगे कि मेरे मसले उजागर करते समय वह निष्पक्ष नहीं थी। फिर भाई-बहनों में मेरी अच्छी छवि बरकरार रहेगी। जब अगुआ मामलों की जाँच करेगी, तो दूसरे कहेंगे कि बहन झांग अच्छी नहीं थी और समस्या मुझमें नहीं थी।
उस दौरान, बहन झांग की समस्याएँ देखकर, मैं पहले की तरह उसकी मदद नहीं करती थी, उसके काम की जानकारी या उस पर निगरानी नहीं रखती थी। मैं सोचती थी, जब हमारी अगुआ काम देखने आएगी और उसे पता चलेगा कि बहन झांग वास्तविक काम नहीं करती, तो शायद वह उसका निपटान करे, या उसे बर्खास्त भी कर दे। अगुआ जल्दी ही यह देखने आ गई कि हमारा सुसमाचार-कार्य ठीक क्यों नहीं चल रहा। मैं इस मौके का फायदा उठाकर बहन झांग की समस्याओं पर बात करना चाहती थी ताकि अगुआ को पता चले कि वह व्यावहारिक काम नहीं करती या निगरानी पसंद नहीं करती, और उसे बर्खास्त कर दे। फिर मैं उससे दूर ही रहूँगी। मैंने अगुआ को सिर्फ बहन झांग की समस्याओं के बारे में बताया, यह नहीं बताया कि उसने कैसे सीखा या प्रायश्चित और बदलाव किया। अगुआ ने मेरी बात सुनी तो उसे लगा बहन झांग में गंभीर समस्याएँ थीं, उसने मुझे उसके बारे में दूसरों की राय इकट्ठी करने और चीजों को समझकर मामला संभालने के लिए कहा। इसके बाद एक सभा में मैंने बहन झांग का बड़ी सख्ती से निपटान किया। मैंने कहा कि वह नतीजे नहीं ला रही थी, दूसरों को अपने काम के बारे में कुछ पूछने नहीं देती थी। वह अगुआ की निगरानी स्वीकार न कर परमेश्वर के घर के काम में बाधा डाल रही थी। फिर कहा कि वह दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखे बिना बोलती थी, उसमें अच्छी इंसानियत नहीं थी। बहन झांग यह सब सुनकर बहुत परेशान हो गई। उसे लगा वह सत्य नहीं स्वीकारती, कठोर बातें कहती है, उसमें अच्छी इंसानियत नहीं है, वह कोई व्यावहारिक काम भी नहीं कर सकती, तो उसे बर्खास्त कर देना चाहिए। इसके बाद, वह नकारात्मक अवस्था में डूब गई, जिससे उबर नहीं पाई, इससे हमारे सुसमाचार-कार्य का नुकसान हुआ। उसे इतनी तकलीफ में देखना मुझसे सहा नहीं जा रहा था। सोचा कहीं मैंने हद तो नहीं पार कर दी, पर यह सोचकर कि वह पहले मुझे कितना शर्मिंदा किया करती थी, दुखी और अपमानित करती थी, मैं चाहती थी उसे भी ऐसी ही शर्मिंदगी महसूस हो। अगर वह बर्खास्त हो गई, तो दूसरों को पता होगा कि उसमें अच्छी इंसानियत नहीं है और समस्या मुझमें नहीं है। फिर मैंने दूसरों को उसके बारे में आकलन लिखने के लिए कहा। इस चिंता में कि कहीं दूसरों का लिखा उसे बर्खास्त करने के लिए काफी न हो, मैं उनके सामने उसकी कमियां गिनवाती रही। मैंने जानबूझकर लोगों से पूछा कि क्या वह वास्तविक समस्याएँ सुलझाती है, सिर्फ इस इरादे से कि उसके वास्तविक काम न करने के सबूत मिल सकें।
बड़ी अगुआ, बहन लिऊ ने हालात को समझने के बाद मेरा बहुत सख्ती से निपटान किया : "बहन झांग तुम्हारी समस्याओं पर उंगली उठाती थी और तुम यह स्वीकार नहीं कर पाई, तुमने राई का पहाड़ बनाते हुए एक अगुआ के सामने उसकी आलोचना की। तुम उसे दबा रही हो और उसका जीना मुश्किल कर रही हो, उसे बर्खास्त करवाना चाहती हो, है न? बहन झांग सीधी बात करती है, पर उसके इरादे बुरे नहीं हैं। वह गलत को गलत कहती है। दूसरों का कहना है कि तुम घमंडी हो, तुम्हें लोगों को डांटना, उन पर लगाम कसना अच्छा लगता है। तुम कोई सुझाव या मदद स्वीकार क्यों नहीं करती, उल्टे दूसरों को दबाती हो?" मैंने थोड़ा प्रतिरोध किया। मुझे लगा, "यह सिर्फ मेरी समस्या नहीं हो सकती—बहन झांग की भी कुछ कमियां होंगी। आप चीजों को जांचे बिना सिर्फ उसका पक्ष नहीं ले रही हैं?" मैंने उसकी कुछ और समस्याओं के बारे में बात की, पर इस डर से कि अगुआ समझेगी मैं अपनी समस्याओं की बात नहीं कर रही, मैंने अपनी भ्रष्टता की भी थोड़ी बात की। बहन लिऊ ने देखा कि मैं खुद को बिल्कुल भी नहीं समझती, तो उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए कहा कि कैसे मसीह-विरोधी आलोचना को ठुकराते और असंतुष्टों को हटाकर दूसरों को दबाते हैं। उन्होंने यह विश्लेषण भी किया कि मैं अपना मान और रुतबा बचाने के लिए यह सब कर रही थी, मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर चल रही थी। इससे बहन झांग को दुख पहुंचा और परमेश्वर के घर के काम पर असर पड़ा। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। मैं बहुत डर गई। मुझे उजागर कर हटाए जाने का एहसास हुआ, तो मैं नकारात्मक अवस्था में डूब गई। कुछ समय तक जैसे-तैसे काम करती रही। मैं बुरी हालत में रहने वाले भाई-बहनों से संगति करके उनकी मदद करना नहीं चाहती थी, हमारी कलीसिया के प्रोजेक्ट भी अच्छे नहीं चल रहे थे। बाद में, मुझे बहुत-सी रुकावटों का सामना करना पड़ा, फिर एहसास हुआ कि मैं गलत थी, आलोचना से कोई सबक सीखने के बजाय नकारात्मक और प्रतिरोधी हो गई थी। सोचने लगी कि बहन झांग के साथ मैं किस तरह का व्यवहार कर रही थी, मैंने प्रार्थना की, आत्म-चिंतन किया।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट कर उससे निपटा जाता है, तो यह किसने किया है, यह किससे संबंधित है, उस मामले के लिए वह किस हद तक दोषी है, भूल कितनी स्पष्ट है, उसने कितनी दुष्टता की है या कलीसिया के लिए उसकी दुष्टता के क्या परिणाम होते हैं—मसीह-विरोधी इनमें से किसी बात पर कोई विचार नहीं करता। एक मसीह-विरोधी के लिए, उसकी काट-छाँट और उससे निपटने वाला बस उसी के पीछे पड़ा है या जानबूझकर उसे दंडित करने के लिए उसमें दोष ढूंढ़ रहा है। मसीह-विरोधी तो यहाँ तक कह सकता है कि उसे धमकाया और अपमानित किया जा रहा है, उसके साथ मानवीय व्यवहार नहीं किया जा रहा, उसे नीचा दिखाकर उसका उपहास किया जा रहा है। मसीह-विरोधी काट-छाँट और निपटारे के बाद भी, इस बात पर कभी विचार नहीं करते कि उन्होंने आखिर क्या गलती की है, उन्होंने किस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, क्या उन्होंने इस मामले में सिद्धांतों की खोज की, क्या उन्होंने सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया या अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कीं। वे न तो अपनी जांच करते हैं, न ही इन बातों पर चिंतन करते हैं और न ही इन मुद्दों पर विचार करते हैं। बल्कि, वे निपटारे और काट-छाँट को मानवीय दृष्टिकोण से देखते हैं और गर्म दिमाग से सोचते हैं। जब भी किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है और उससे निपटा जाता है, तो वह क्रोध, आक्रोश और असंतोष से भर जाता है और किसी की सलाह नहीं मानता। वह अपनी काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार नहीं पाता, वह अपने बारे में जानने और आत्म-चिंतन करने, और अनमना या लापरवाह होने या अपना कर्तव्य निरंकुशता से करने जैसी सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली हरकतों का समाधान करने के लिए कभी परमेश्वर के सामने नहीं आता, न ही वह इस अवसर का उपयोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए करता है। इसके बजाय, वह अपना बचाव करने के लिए, खुद को निर्दोष साबित करने के लिए बहाने ढूंढता है, यहां तक कि वह कलह पैदा करने वाली बातें कहकर लोगों को उकसाता है। ... कुल मिलाकर, अपनी कथनी और करनी दोनों में, मसीह-विरोधी कभी सत्य स्वीकार नहीं करता। सत्य स्वीकार न करने वाला स्वभाव क्या है? क्या यह सत्य से ऊबना नहीं है? यह बिल्कुल ऐसा ही है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी घिनौने हैं और सत्य से नफरत करते हैं। परमेश्वर उनका निपटान करता है तो वे इसे स्वीकार नहीं करते, न ही सत्य खोजकर अपनी समस्याओं पर चिंतन करते हैं, बल्कि शिकायतों और असंतोष से भरे रहते हैं, खुद को सही ठहराने और बचाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते। उनको लगता है कि दूसरे उनकी मुश्किलें बढ़ाते हैं, उनकी कमियाँ निकालते हैं, उनका अपमान और तिरस्कार करते हैं, इसलिए वे सत्य स्वीकार नहीं करते। मैं भी वैसी ही थी। जब बहन झांग ने मेरे अहंकार और मेरे काम की समस्याओं पर उंगली उठाई, तो मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। मुझे लगा वह मुझमें मीन-नेख निकाल रही है, मुझे नीचा दिखाना चाहती है। इसलिए मैंने पलटवार किया, गुस्से में उसे सजा दी। जब बड़ी अगुआ ने बहन झांग को दबाने, अच्छी इंसानियत न होने, और मसीह-विरोधी की राह पर चलने के लिए मुझे उजागर किया, तो मैं और भी उखड़ गई, अपने बचाव में बहस करती रही। मुझे लगा वह बहन झांग का पक्ष ले रही है, इसलिए मैं नकारात्मक होकर कड़ा विरोध करती रही। मैं आलोचना को मसीह-विरोधियों की तरह ही देख रही थी, सत्य से बिदकने का शैतानी स्वभाव दिखा रही थी। उस समय लगा कि मैं खतरनाक हालत में थी। मैं फौरन आत्म-चिंतन करके प्रायश्चित करना चाहती थी, गलत राह से हटना चाहती थी।
फिर, अपने धार्मिक कार्य में मैंने वचनों का एक अंश पढ़ा। "क्या तुम इसलिए लोगों को दंडित करने के कई तरीके सोचने में सक्षम हो, क्योंकि वे तुम लोगों की पसंद के अनुरूप नहीं हैं या उनका तुम्हारे साथ तालमेल नहीं बैठता? क्या तुम लोगों ने पहले कभी इस तरह की चीजें की हैं? तुमने इस तरह की कितनी चीजें की हैं? क्या तुमने हमेशा अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को नीचा दिखाते हुए, उनको टोकते हुए टिप्पणियां नहीं कीं और उन पर व्यंग्य के बाण नहीं चलाए? जब तुम इस तरह की चीजें कर रहे थे, तब तुम लोगों की स्थितियाँ क्या थीं? उस समय, तुम अपनी भड़ास निकालकर खुशी महसूस करते थे; तब तुम्हारी हर बात मानी जाती थी। हालांकि, उसके बाद, तुमने आत्म-चिंतन किया, 'मैंने बहुत घिनौना काम किया है। मैं परमेश्वर का भय नहीं मानता और मैंने उस व्यक्ति के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।' अपने अंतरतम में, क्या तुमने खुद को दोषी महसूस किया? (हाँ।) हालांकि, तुम लोग परमेश्वर का भय नहीं मानते हो, लेकिन तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की कुछ समझ है। तो, क्या तुम अब भी भविष्य में इस तरह की चीजें करने में सक्षम हो? जब तुम लोगों को नापसंद करते हो या जब उनसे तालमेल नहीं बैठा पाते या जब वे तुम्हारी बात नहीं मानते या नहीं सुनते, तो क्या तुम यह दिखाने के लिए कि तुम ही सर्वेसर्वा हो, उन पर हमला करते और उनसे बदला लेते हो? क्या तुमने कभी ऐसा किया है? जो व्यक्ति ऐसी चीजें करता है, उसके पास किस तरह की इंसानियत है? अपनी इंसानियत के मामले में वह एक दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति है। सत्य के साथ उसे मापा जाए तो दिखेगा कि वह परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं रखता। अपनी कथनी और करनी में, उसके पास कोई सिद्धांत नहीं होते; वह निरंकुश तरीके से काम करता है और अपनी मनमानी करता है। परमेश्वर-भीरु होने के लिहाज से, क्या ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है? बिल्कुल नहीं; इसका जवाब 'नहीं' है, एक सौ प्रतिशत" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बेनकाब कर दिया। मेरे मन में परमेश्वर के लिए जरा भी श्रद्धा नहीं थी, मुझमें बुरी इंसानियत थी। जो भी मेरा अपमान करता था मैं उससे बदला लेने पर तुल जाती थी। जब बहन झांग ने बेबाकी से मेरी समस्याएं गिनाईं, तो लगा उसने उपयाजकों के सामने मुझे शर्मिंदा कर दिया। पहले तो मैं संयम में रहकर इसे किसी तरह झेल लेती थी, लेकिन जब यह बार-बार होने लगा तो मेरे मन में उसके लिए कटुता पैदा हो गई। मैं उसमें कमियाँ निकालकर हिसाब चुकता करना और अपमान का स्वाद चखाना चाहती थी। जब मुझे उसके काम में समस्याएं दिखीं, तो इसे उसकी मदद करने के बजाय उसे डांटने और नीचा दिखाने का मौका समझ लिया। जब इससे बात नहीं बनी तो मैं और भी भड़क उठी, पीठ पीछे उसकी आलोचना करने लगी, ताकि भाई-बहन उसे नापसंद करके दरकिनार कर दें। मैंने जानबूझकर अगुआ से उसकी समस्याओं की बात की, यह सोचकर कि वे उसकी आलोचना करके उसे बर्खास्त कर देंगी। मुझे लगता था कि फिर वह मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करना बंद कर देगी, और भाई-बहनों की नजरों में मेरी छवि सुधार जाएगी। मेरी ये हरकतें बहन झांग के लिए बेहद दुखदायी और पीड़ाजनक तो थीं ही, इनसे सुसमाचार के काम को भी नुकसान पहुंचा। मैं देख रही थी कि मेरी प्रकृति सचमुच बहुत दुष्ट और घिनौनी थी। मैं थोड़ा-सा अपमान भी नहीं झेल पाई थी—मुझमें जरा भी इंसानियत नहीं थी। मैंने सोचा कि परमेश्वर ने मुझे ऊंचा उठाकर एक अगुआ बनाया था, ताकि मैं दूसरों के साथ अच्छी तरह काम कर सकूँ, ताकि हम एक-दूसरे की मदद कर सकें और अपने जीवन स्वभाव बदल सकें। पर मैं अपने मान और रुतबे के लिए बहन झांग से बदला लेने पर तुल गई थी। इससे दूसरों के लिए कितनी परेशानी खड़ी हो गई थी। मैंने भाई-बहनों को तकलीफ पहुंचाई, परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डाली। मैं सचमुच बहुत बुरा कर रही थी।
बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे अपनी दुष्ट प्रकृति की कुछ समझ आई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "हमला और बदला एक प्रकार की कार्रवाई और प्रकाशन है, जो एक दुर्भावनापूर्ण शैतानी प्रकृति से आता है। यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। लोग इस प्रकार सोचते हैं : 'अगर तुम मेरे प्रति निर्दयी होगे, तो मैं तुम्हारे प्रति न्यायी नहीं हूँगा! अगर तुम मेरे साथ इज़्ज़त से पेश नहीं आओगे, तो मैं भला तुम्हारे साथ इज़्ज़त से क्यों पेश आऊँगा?' यह कैसी सोच है? क्या यह बदले की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या ऐसा नज़रिया व्यवहार्य नहीं है? क्या इस बात में दम नहीं है? 'मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; अगर मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा' और 'जैसे को तैसा'—अविश्वासी अक्सर आपस में ऐसी बातें कहते हैं, ये सभी तर्क मान्य और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। फिर भी, जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन वचनों को कैसे देखना चाहिए? क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? इन्हें किस तरह वर्णित किया जाना चाहिए? ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? (शैतान से।) ये शैतान से उत्पन्न होती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये शैतान के किस स्वभाव से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें उस प्रकृति का वास्तविक सार होता है। इस प्रकृति के सार वाले नज़रिये, सोच, अभिव्यक्तियों, वाणी और कर्मों की प्रकृति क्या होती है? क्या ये शैतान के नहीं हैं? हैं। क्या शैतान के ये पहलू परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के अनुरूप हैं? क्या इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? (नहीं।) क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनकी ऐसी सोच और दृष्टिकोण होने चाहिए? (नहीं।)" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करके ही तुम निराशाजनक अवस्था से मुक्त हो सकते हो')। "मसीह-विरोधी उग्र स्वभाव के होते हैं। वे कौन लोग होते हैं जिनका प्राथमिक स्वभाव ऐसा होता है? (दुष्ट लोग।) बिल्कुल सही। उग्रता एक दुष्ट व्यक्ति के स्वभाव का प्राथमिक पहलू होता है। जब एक उग्र व्यक्ति को किसी भी प्रकार के सुविचारित उपदेश, आरोप, सीख या सहायता का सामना करना पड़ता है, तो उसका रवैया विनम्रतापूर्वक धन्यवाद देने या स्वीकार करने का नहीं होता, बल्कि क्रोधित होने, अत्यंत नफरत करने, शत्रुता रखने, यहाँ तक कि प्रतिशोध लेने का होता है। ... बेशक, जब वे नफरत के कारण किसी से प्रतिशोध लेते हैं, तो उसकी वजह कोई पुरानी रंजिश नहीं होती, बल्कि यह होती है कि उस व्यक्ति ने उनकी गलतियों को उजागर कर दिया। इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधियों को इससे फर्क नहीं पड़ता कि ऐसा किसने किया, इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि मसीह-विरोधी के साथ उसके संबंध कैसे हैं, केवल उन्हें उजागर करने मात्र से उनकी नफरत भड़क सकती है और वे प्रतिशोध लेने पर उतारू हो सकते हैं। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन है, ऐसा करने वाले व्यक्ति को सत्य की समझ है या नहीं, वह कोई अगुआ है या कर्मी है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई साधारण सदस्य है। कोई भी व्यक्ति मसीह-विरोधी को उजागर करे, उनकी काट-छाँट करे और उनके साथ निपटे, वे तो उस व्यक्ति को शत्रु मानेंगे और खुले तौर पर यह तक कहेंगे, 'अगर कोई मुझसे निपटेगा, तो मैं उसे तकलीफ दूँगा। अगर कोई मुझसे निपटेगा और मेरी काट-छाँट करेगा, मेरे राज़ उजागर करेगा, मुझे परमेश्वर के घर से निष्कासित करवाएगा और मुझसे मेरे हिस्से के आशीष लूटेगा, तो मैं उसे कभी नहीं छोड़ूँगा। मैं धर्मनिरपेक्ष दुनिया में ऐसा ही हूँ : कोई मुझे परेशान करने की हिम्मत नहीं करता, मुझे परेशान करने वाला अभी पैदा ही नहीं हुआ!' काट-छाँट और निपटे जाने के समय मसीह-विरोधी ऐसे क्रोधपूर्ण शब्द बोलते हैं। जब वे ऐसे क्रोधपूर्ण शब्द बोलते हैं, तो यह दूसरों को डराने के लिए नहीं होता, न ही खुद को बचाने के लिए भड़ास निकालना है। ये उनकी दुष्टता के लक्षण हैं और वे किसी भी हद तक गिर सकते हैं। यही मसीह-विरोधियों का उग्र स्वभाव है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी दुष्ट होते हैं, अगर कोई उन्हें भड़काता है या उनके मान और रुतबे को खतरे में डालता है, तो वे उसे अपना दुश्मन समझते हैं और उससे बदला लेते हैं। ये राक्षस ही हैं। एक मसीह-विरोधी के स्वभाव और व्यवहार से अपनी तुलना करूँ तो क्या मैं भी वैसी ही नहीं थी? "यदि मुझ पर हमला किया जाता है तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूंगा," "आँख के बदले आँख, दांत के बदले दांत," और "सभी तैयार घोड़े पर भार रखते हैं" कुछ ऐसे शैतानी विष थे जो मुझे सही लगते थे। बहन झांग ने कई बार मेरी समस्याएं गिनाकर मुझे शर्मिंदा किया था, इसलिए मुझे पलटवार करना ठीक लगा। अगर मैं पलटवार नहीं करती तो लोग समझते कि मुझे दबाकर मेरा फायदा उठाया जा सकता है। मुझे डर था कि वह बार-बार सबके सामने मुझे उजागर करती रही, तो अगुआ समझेगी मुझमें अच्छी इंसानियत नहीं है और मुझे बर्खास्त कर देगी, फिर मेरा भविष्य और ओहदा सुरक्षित नहीं रहेगा। मैं जानती थी बहन झांग मेरी असली समस्या को ही उजागर कर रही है, पर मैंने जरा भी आत्म-चिंतन नहीं किया। इसके बजाय मैं उस पर टूट पड़ी, उसे अपनी दुश्मन समझकर बाहर करवाने की सोचने लगी। बहन झांग को नकारात्मक हालत में इतनी दुखी और उसके काम पर पड़ते असर को देखकर भी मैंने परवाह नहीं की। अपने निजी हितों को बचाने के लिए मैं उसके पीछे पड़ गई थी, न मैंने कलीसिया के काम की चिंता की, और न ही उसे होने वाली पीड़ा की। मैं कितनी दुष्ट थी! मैं इन शैतानी विषों के साथ जी रही थी, बिना किसी इंसानियत के, मैं एक दुष्ट और नीच शैतानी स्वभाव के साथ जीवन जी रही थी। मुझे पहले दिखे एक मसीह-विरोधी की याद आई। वह भी चाहता था कि लोग उसकी तारीफ करें, उससे प्यार से बोलें, पर जब भाई-बहनों ने उसे उजागर करके उसके मान और रुतबे को चोट पहुंचाई, तो वह बदले पर उतर आया, उन सबका जीना मुश्किल कर दिया, उन्हें नकारात्मक और कमजोर बना दिया। वो यह स्वीकार नहीं करता था कि अगुआ उसे उजागर करें, वह उन्हीं में दोष ढूँढने लगता था, धारणाएँ फैलाता और आलोचना करता था। वह इतना उत्पाती था कि कलीसिया का काम ठीक से नहीं चल पा रहा था। अगुआओं ने कई बार संगति करके उसकी मदद की, पर वह प्रायश्चित करना नहीं चाहता था। आखिर इतनी सारी बुराइयों के कारण उसे कलीसिया से निकाल दिया गया। क्या मैं भी उसी की तरह दुष्ट नहीं थी, बहन झांग से बदला लेने पर उतारू थी? मुझे खुद के व्यवहार से बहुत खीज और घृणा हो रही थी। मैंने सच्चे मन से प्रायश्चित करने, बदलने और एक अलग इंसान बनने का संकल्प किया।
मैंने दूसरों के साथ बर्ताव के सिद्धांत खोजे, और यह भी कि किसी भाई या बहन के प्रति मन में पूर्वाग्रह पनपे तो क्या करना चाहिए। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढे। "परमेश्वर के घर में, लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, इसके लिए क्या सिद्धांत हैं? तुम्हें सभी के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए और प्रत्येक भाई-बहन के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करें? यह आधारित होना चाहिए परमेश्वर के वचनों पर, और इस पर कि परमेश्वर किन लोगों को बचाता है, किन्हें निष्कासित करता है, किन्हें पसंद करता है और किननसे घृणा करता है; ये सत्य के सिद्धांत हैं। भाई-बहनों के साथ प्रेमपूर्ण सहयोग, पारस्परिक स्वीकार्यता और धैर्य के साथ व्यवहार करना चाहिए। कुकर्मियों और गैर-विश्वासियों की पहचान कर उन्हें अलग कर दिया जाना चाहिए और उनसे दूर रहना चाहिए। तुम ऐसा करते हो तभी तुम लोगों के साथ सिद्धांतों के साथ व्यवहार करते हो। हर भाई-बहन में क्षमता और कमियाँ होती हैं और उनके स्वभाव में भी भ्रष्टता होती है, इसलिए जब लोग साथ हों, तो उन्हें प्यार से एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, उनमें स्वीकार करने का भाव और धैर्य होना चाहिए, उन्हें न तो मीनमेख निकालनी चाहिए और न ही बहुत कठोर होना चाहिए। ... तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकटीकरण से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत-सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। "सभी के साथ सद्भाव से काम करना सीखें, लोगों के साथ सत्य, परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के अनुसार बातचीत करें, न कि भावना या उतावलेपन से। इस तरह, क्या कलीसिया में सत्य का बोलबाला न होगा? अगर सत्य का बोलबाला होगा, तो क्या सभी चीजें उचित और न्यायपूर्ण न होंगी? क्या तुम्हें नहीं लगता कि सामंजस्यपूर्ण समन्वय सभी के लिए फायदेमंद होता है? इस तरह से काम करना तुम लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है। सबसे पहली बात, कर्तव्यों का पालन करते समय, यह तुम लोगों के लिए सकारात्मक और सार्थक होता है। इसके अलावा, यह तुम्हें गलतियाँ करने, व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने और मसीह-विरोधी रास्ते पर चलने से बचाता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। इन वचनों से, मैंने जाना, परमेश्वर कहता है कि हमें सभी किस्म के लोगों से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। अगर सच्चे विश्वासी, जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, थोड़ी-सी भ्रष्टता दिखाएँ, जैसे कि हमारे प्रति घमंडी, मुँहफट या कटु होना, तो हमें उनकी कमियों पर ज़्यादा ध्यान न देकर, सहनशीलता और धीरज से उनकी मदद और स्नेहपूर्वक संगति करनी चाहिए। लेकिन कुकर्मी और मसीह-विरोधी, जो आलोचना और निंदा करते हैं, रुतबे के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर हमले करते हैं, उन्हें उजागर कर विश्लेषण करना और निकाला जाना जरूरी है। मैं जानती थी कि बहन झांग सच्ची विश्वासी थी, जिसमें कलीसिया के काम की मर्यादा बनाए रखने की निष्ठा थी। वह बस थोड़ी तीखी जुबान की और बेबाक थी, पर उसका इरादा बुरा नहीं था। मेरी समस्याओं पर उंगली उठाकर वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझने में मेरी मदद करना चाहती थी, ताकि मैं सही रास्ते से न भटकूँ और कलीसिया के काम को नुकसान न पहुंचाऊँ। सभाओं में मेरी कमियाँ बताने का मकसद था कि मैं अपने काम की खामियाँ को समझ सकूँ, अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांतों का अनुसरण कर सकूँ—इससे कलीसिया के हितों की रक्षा होती। ऐसा करते हुए उसने थोड़ा भ्रष्ट स्वभाव भी दिखाया, पर मुझे उसके प्रति संवेदनशील, सहनशील और निष्पक्ष होना चाहिए। दरअसल, दूसरों के नजरिए और सुझावों को स्वीकार करना मेरे हित में ही है। मुझमें अहंकारी प्रकृति है। मैं दूसरों को छोटा समझती थी, अपने ओहदे का फायदा उठाकर फटकारती थी। इससे वे दुखी और बेबस होते थे, पर मैं बिल्कुल बेफिक्र थी। बहन झांग ने मुझे उजागर कर मेरी समस्याएं गिनाईं, जिससे मुझे मदद मिली और परमेश्वर के घर के काम को लाभ पहुंचा। पर मैं भड़ककर बदला लेने पर उतारू हो गई, उसे निकलवाने पर तुल गई। मैं बहुत दुष्ट थी, मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी। इन बातों ने मुझे झकझोर दिया—लगा मैं बहन झांग की ऋणी हूँ। इसके बाद, मैंने उसके सामने अपना दिल खोलकर रख दिया। मैंने बताया कि कैसे मैंने उसके सुझावों और मदद को ठुकरा दिया था, अपना मान और रुतबा बचाने के लिए बदला लेने और नुकसान पहुंचाने पर तुल गई थी, मैं कितनी अहंकारी और दुष्ट थी। बहन झांग ने इन सबके लिए मेरे प्रति कोई द्वेष महसूस नहीं किया, बल्कि उसे अपना ही अहंकार दिखा, कि वह दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखे बगैर बोलती रही, इसलिए उन्हें कोई मदद या शिक्षा नहीं मिल पाई। इस खुली संगति ने हम दोनों के बीच की दीवारों को तोड़ दिया और हमारी नजदीकी बढ़ गई। परमेश्वर के वचनों के अभ्यास से मुझे सच्ची शांति महसूस हुई, लगा यह मेरे और दूसरों के लिए कितनी अच्छी बात है।
बाद में, मैं सोचती रही कि भविष्य में कोई मुझे उजागर करेगा और समस्याओं पर उंगली उठाएगा, जब मेरे गुरूर को चोट पहुंचेगी, मन में कोई दुष्ट विचार आएगा, तो मुझे क्या करना चाहिए? फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढे। "अधिकांश लोगों से काट-छाँट कर उनसे निपटने का कारण उनका भ्रष्ट स्वभाव उजागर करना हो सकता है। अज्ञानता के कारण कुछ गलत कर परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात कर बैठना भी इसका कारण हो सकता है। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि अपने काम को जैसे-तैसे निपटाने से परमेश्वर के घर के काम को नुकसान हो गया हो। सबसे बुरा कारण वह होता है जब लोग बिना किसी रोक-टोक के अपनी इच्छानुसार कार्य करते हैं, सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर के घर के काम को अस्तव्यस्त और बाधित करते हैं। लोगों की काट-छाँट और उनसे निपटे जाने के ये प्राथमिक कारण हैं। जिन परिस्थितियों के कारण किसी के साथ निपटा जाता या उसकी काट-छाँट की जाती है, उनके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? सबसे पहले तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुमसे कौन निपट रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है और तुमसे निपटा जाता है, तो सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ)')। "अगर तुम अपने भाई-बहनों के लिए दिल में नफरत रखोगे, तो तुम उनको दबाने और उनसे बदला लेने की ओर प्रवृत होगे; यह बहुत भयावह होगा और यह दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव है। कुछ लोगों में केवल नफरत और दुष्टता के सोच-विचार होते हैं, लेकिन वे लोग कभी कोई दुष्टता नहीं करते; अगर वे लोग किसी के साथ तालमेल बिठा सकते हैं तो बिठाते हैं और अगर नहीं बिठा सकते तो उनसे अलग हो जाते हैं। लेकिन वो इसका असर न तो अपने कर्तव्यों पर पड़ने देते हैं और न ही अपने सामान्य पारस्परिक संबंधों को प्रभावित होने देते हैं, क्योंकि उनके दिल में परमेश्वर होता है और वे उसके प्रति श्रद्धा रखते हैं। वे परमेश्वर का अपमान नहीं करना चाहते और ऐसा करने से डरते हैं। हालांकि ऐसे लोगों के अंदर गलत सोच-विचार हो सकते हैं, लेकिन वे उन विचारों को नकार या त्याग सकते हैं। वे अपने कार्य-कलापों पर लगाम लगाकर रखते हैं और ऐसी कोई बात नहीं बोलते जो अनुचित हो, इस मामले में वे परमेश्वर का अपमान नहीं करना चाहते। जो लोग इस तरह से बोलते और पेश आते हैं, वे सिद्धांतों को पालन करते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं। हो सकता है कि तुम किसी के व्यक्तित्व के साथ तालमेल नहीं बिठा पाओ और तुम उसे नापसंद भी कर सकते हो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो, तो तुम निष्पक्ष रहते हो और अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालते, अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करते या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपनी चिढ़ नहीं दिखाते, तुम सिद्धांत के अनुसार चीजें कर सकते हो। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह परमेश्वर के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। अगर तुम्हारी श्रद्धा थोड़ी अधिक है, तो जब तुम देखते हो कि किसी व्यक्ति में कोई दोष या कमजोरी है, भले ही उन्होंने तुम्हें ठेस पहुंचाई हो या तुम्हारे प्रति पूर्वाग्रह रखते हों, फिर भी तुम उनके साथ सही व्यवहार करते हो और प्यार से उनकी मदद करते हो। इसका मतलब है कि तुममें प्रेम है, तुममें इंसानियत है, तुम दयालु हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तुम एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति हो जिसमें सत्य की वास्तविकताएं हैं और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा है। यदि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, लेकिन तुममें इच्छा है, तुम सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार हो, सिद्धांत के अनुसार कार्य करने को तैयार हो, चीजों से निपट सकते हो और लोगों के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार कर सकते हो, तो इसे भी परमेश्वर के प्रति थोड़ी-बहुत श्रद्धा ही माना जाएगा; यह बहुत ही बुनियादी बात है। यदि तुम इसे भी प्राप्त नहीं कर सकते, और अपने-आपको रोक नहीं सकते हो, तो तुम्हें बहुत ख़तरा है और तुम काफी भयावह हो। यदि तुम्हें कोई पद दिया जाए, तो तुम लोगों को दंडित कर सकते हो और उनके लिए जिंदगी को कठिन बना सकते हो; फिर तुम किसी भी क्षण मसीह-विरोधी में बदल सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। अगर मेरी काट-छांट हुई, मेरा निपटान हुआ, तो मेरे साथ जरूर कोई समस्या रही होगी, या मैंने भ्रष्ट स्वभाव दिखाया होगा, या कलीसिया के काम में रुकावट डाली होगी। किसी का लहजा कैसा भी हो, या उनके शब्द कितने भी कटु हों, मुझे पहले इसे स्वीकार करके आत्म-चिंतन करना चाहिए। भले ही इस प्रक्रिया में मेरे गुरूर को चोट पहुंचे, मैं कितनी ही बुरी लगूँ, और प्रतिरोध करना चाहूँ, मुझे परमेश्वर के प्रति श्रद्धा और दूसरों के प्रति धीरज और सहनशीलता दिखानी होगी। मैं भ्रष्टता के कारण भड़क नहीं सकती या बदला नहीं ले सकती। यह सब समझ लेने के बाद, मैंने सत्य का अभ्यास करने और उसमें प्रवेश करने का जतन किया। इसके बाद अपने कर्तव्य में, जब दूसरे मेरी समस्याओं पर उंगली उठाते, मेरे गुरूर को चोट पहुंचाते, तो मैं पहले इसे ज़रूर स्वीकारती, मन में कोई कटु विचार आते भी, तो मैं प्रार्थना कर खुद की इच्छाओं का त्याग करती, अपने विचारों के जाल में न फँसकर कलीसिया के काम को आगे रखती। मैं बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए भाई-बहनों के साथ चर्चा और खोज भी कर सकती थी। कुछ समय तक इस तरीके से काम करने के बाद, मैंने सचमुच देखा कि दूसरों का नजरिया और आलोचना मेरे लिए कितनी ज्यादा मददगार है! इससे मैं सत्य के सिद्धांतों को अमल में लाकर बुराई और परमेश्वर विरोध से बच पाई। परमेश्वर का धन्यवाद!
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