मैंने एक स्वादिष्ट भोज का आनंद लिया

18 सितम्बर, 2019

ज़िन्वेई झेजियांग प्रांत

25 और 26 जून, 2013 अविस्मरणीय दिन हैं। हमारे प्रात ने एक विशाल घटना का अनुभव किया, जिसमें अधिकांश प्रांतीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़ लिया गया था। हममें से कुछ ही इसमें सकुशल बच कर निकल भागे थे, हमारे हृदय कृतज्ञता से भरे थे, हमने परमेश्‍वर के प्रति एक गुप्‍त शपथ ली: कार्य का पालन करने में हम बेहतर सहयोग करेंगे। तत्‍पश्‍चात हमने दुष्‍परिणामों से निपटने का व्यस्त कार्य शुरू कर दिया। और लगभग एक महीने के बाद, व्‍यवस्‍थाएँ पूर्णता पर पहुँच रही थीं। वह एक गरम महीना था, और हालाँकि हमने शारीरिक रूप से कष्‍ट सहा था किन्तु हमारे हृदय संतुष्‍ट थे, क्योंकि हमारा कार्य बड़े लाल अजगर की नाक के ठीक नीचे सुचारू रूप से आगे बढ़ रहा था। जब कार्य पूरा हो गया तो यह सोच कर कि मैंने कितनी कुशलता से इस कार्य की इतनी अच्छी व्‍यवस्‍था की है, अनजाने में ही मैंने खुद को एक आत्‍म-संतुष्टि की स्थिति में पाया। मैं कितनी कुशल कार्यकर्ता थी! और यही वह समय था जब परमेश्‍वर ने अपने ताड़ना और न्‍याय से मुझे दण्डित किया!

एक दिन शाम के समय हम कई बहनें बात कर रही थीं। एक बहन ने मुझे XX और XX को लिखने की सलाह दी, मुझे कुछ कार्य दिये और अंत में एक वाक्य कहा: "जल्‍दबाजी मत करो, छुपने और आध्‍यात्मिक प्रार्थनाओं को संपन्‍न करने का समय आ गया है। आध्‍यात्मिक प्रार्थनाओं और जीवन में प्रवेश पर अपना ध्‍यान केंद्रित करो।" इन वचनों को सुनते ही मेरे हृदय ने उन्हें अस्‍वीकार कर दिया: मुझे पत्र लिखने हैं, मुझे कार्य करना है। फिर आध्‍यात्मिक प्रार्थनाओं का समय कहाँ है? आप एक आगन्तुक हैं, मैं एक स्‍थानीय हूँ, मैं तुम्हें बाहर जाकर कार्य नहीं करने दे कर तुम्हारी रक्षा कर रही हूँ, और तुम मेरी आलोचना कर रही हो? अगर मैं अपने घर में रहकर पूरे दिन तुम्हारी तरह आध्‍यात्मिक प्रार्थना करूँगी तो कौन जा कर कार्य करेगा? कार्य सौंपते समय कार्य भार को ध्‍यान में रखने की आवश्‍यकता होती है; और मेरी काट-छाँट करने से पहले स्थिति पर विचार करने की आवश्‍यकता है। अगली सुबह हर कोई परमेश्‍वर के वचनों को खाते और पीते हुए संवाद कर रहा था, लेकिन मैं विचलित थी, खाने और पीने में मैं मुझे कोई मजा नहीं आ रहा था। सभी बहनें परमेश्‍वर के वचनों की अपनी-अपनी समझ के बारे में बात रही थीं, जबकि मैं चुप थी। तब उस बहन ने मुझ से पूछा: "तुम बातचीत क्‍यों नहीं कर रही हो?" मैंने झुँझलाते हुए जवाब दिया: "मुझे कोई समझ नहीं है।" बहन ने कहना जारी रखा: "मुझे लगता है तुम अच्‍छी अवस्‍था में नहीं हो।" मैंने बिना सोचे-समझे जवाब दिया: "मुझे तो कोई समस्‍या नहीं लगती।" लेकिन वास्‍तव में मेरे विचार मुझसे फट कर बाहर निकलने को तैयार थे। आखिरकार मैं उन्हें और आगे नियंत्रित नहीं कर सकी और मैं जिस बात पर परेशान थी, वह मैंने उससे कह दी। उन बहन ने सुना और सीधे तौर पर स्‍वीकार कर लिया कि वह कुछ धृष्ट हो गयी थीं और उसे जैसा वह चाहती थी वैसा कार्य मुझे नहीं सौपना चाहिए था। लेकिन मेरे प्रतिरोध को एक तरफ रखने के लिए यह काफी नहीं था; इसके विपरीत मुझे लगता था कि इस दौरान मैं अपने कार्य में सत्‍य को व्‍यवहार में लाती रही थी, और उसे यह नहीं कहना चाहिए था कि मेरी स्थिति ठीक नहीं है। हमारे साथ के जिला प्रमुख क्‍या सोचेंगे? बहन ने अपनी बात जारी रखी: "मुझे चिंता है कि अगर तुम अपने जीवन प्रवेश के लिए समय निकाले बिना बस कार्य करोगी तो तुम भ्रष्‍ट हो जाओगी।" वह जितना ज्‍यादा बोली, मैं उतना ही ज्‍़यादा यह सोचते हुए उसका विरोध करती कि: तुम मुझे भ्रष्‍ट कहती हो? मुझे लगता है कि मैं एक बहुत अच्‍छी अवस्‍था में हूँ और मैं भ्रष्‍ट नहीं होने वाली हूँ! मैं बस उसकी बातों से सहमत नहीं थी। नाश्‍ते के बाद मैं चिढ़ते हुए और यह सोचते हुए कार्य के लिए बाहर गई कि: मैं अगुआ के रूप में छोड़ दूँगी, कुछ सामान्‍य कार्य करूँगी और इससे काम चला लूँगी। अगर वह कहती है कि मैं भ्रष्‍ट हूँ और मैंने जीवन में प्रवेश नहीं किया है, तो वैसे भी मैं कैसे दूसरों की अगुआई कर सकती हूँ? मैं जितना ज्‍़यादा सोचती मेरा उत्‍साह, यह सोचते हुए, उतना ही कम हो जाता कि: जब ये कार्य पूरा हो जाएँगे मैं त्‍यागपत्र दे दूँगी। तभी मुझे अपना पूरा शरीर कमज़ोर महसूस हुआ, मानो कि मैं बीमार हो गयी हूँ। मैंने महसूस किया कि मेरी स्थिति ग़लत है। घर लौटने पर मैं परमेश्‍वर के सामने गई और प्रार्थना की: "हे सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर, मैं अत्यधिक अहंकारी और दुराग्रही रही हूँ, मैंने सत्य से प्रेम नहीं किया है, मैं तेरी ताड़ना और न्‍याय को, मेरे साथ तेरे निपटने और तेरी काट-छाँट को स्‍वीकार करने में समर्थ नहीं रही हूँ। मैं आशा करती हूँ कि तू मेरी सहायता कर सकता है और मेरे हृदय, मेरी आत्‍मा की रक्षा कर सकता है, मुझे तेरे कार्य के प्रति समर्पण करने, खुद का ईमानदारी से परीक्षण करने, और अपनी खुद की वास्‍तविक समझ विकसित करने में समर्थ बना सकता है।" इसके बाद मैंने निम्‍नलिखित वचनों को देखा: "आत्म-चिंतन और स्वयं को जानने की कुंजी है: जितना अधिक तुम महसूस करते हो कि तुमने किसी निश्चित क्षेत्र में अच्छा कर लिया है या सही चीज़ को कर लिया है, और जितना अधिक तुम सोचते हो कि तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकते हो या तुम कुछ क्षेत्रों में शेखी बघारने में सक्षम हो, तो उतना ही अधिक उन क्षेत्रों में अपने आप को जानना तुम्हारे लिए उचित है, और यह देखने के लिए कि तुम में कौन सी अशुद्धियाँ हैं और साथ ही तुममें कौन सी चीजें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती हैं उतना ही अधिक उनमें गहन परिश्रम करना तुम्हारे लिए उचित है। ... पौलुस के बारे में यह कहानी उन सभी के लिए चेतावनी का काम करती है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो है कि जब कभी भी हम महसूस करते हैं कि हमने विशेष रूप से अच्छा किया है, या विश्वास करते हैं कि हम किसी पहलू में विशेष रूप से प्रतिभावान हैं, या सोचते हैं कि किसी संबंध में हमें बदले जाने या हमसे निपटे जाने की आवश्यकता नहीं है, तो हमें उस विशेष संबंध में स्वयं को बेहतर ढंग से जानने और सोच-विचार करने का प्रयास करना चाहिए; यह महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि तुमने, यह देखने के लिए कि क्या उनमें ऐसी चीजें समाविष्ट हैं या नहीं जो परमेश्वर का विरोध करती हैं, निश्चित रूप से अपने उन पहलुओं की खोज नहीं की है, उन पर ध्यान नहीं दिया है, या उनका विश्लेषण नहीं किया है जिन्हें तुम अच्छा समझते हो" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही तुम स्‍वयं को जान सकते हो')। परमेश्‍वर के वचनों ने मेरे हृदय को ऐसे प्रतिबिंबित किया मानो कि किसी स्पष्ट दर्पण में हो। परमेश्‍वर हमसे अपेक्षा करता कि हम यह समझ कर अपने आप को समझें कि कहाँ हमें लगता है कि हम अच्‍छा करते हैं, कहाँ हमें लगता है कि हम सही करते हैं और हम उन पहलुओं में अपने आप को और अधिक समझें जहाँ हमें लगता है कि हमारे साथ निपटना आवश्यक नहीं है। उस समय के बारे में सोचती हूँ तो मैं देखती हूँ कि मैं एक बोझ वहन कर रही थी। मेरे कार्य का परिणाम दिखाई दे रहा था और मैं कई प्रमुख कार्यों को यह सोचते हुए बेहतर ढंग से सँभाल रही थी, कि मैं सत्य को अभ्यास में ला रही हूँ, कि ये सभी सकारात्‍मक और सक्रिय प्रवेश हैं और मेरी स्थिति बहुत अच्‍छी है इसलिए मैं परमेश्‍वर के सामने नहीं आई और स्‍वयं का परीक्षण नहीं किया। आज, परमेश्‍वर के वचनों की प्रबुद्धता के कारण मैं एहसास करती हूँ कि उस समय मैं अपना कार्य तो ठीक तरह से कर रही थी, लेकिन मेरा अहंकारी स्‍वभाव व्याप्त था। मैं सोचती थी कि मेरे कार्यों के परिणाम मेरे प्रयासों की वजह से हैं, यह कि मैं एक सक्षम कार्यकर्ता हूँ। मैं पूरी तरह आत्‍म-संतुष्ट थी। दरअसल, जब मैं उस समय के बारे में सोचती हूँ तो अब मुझे एहसास होता है कि मैं पवित्र आत्‍मा की अगुआई और सुरक्षा में सिर्फ कार्य कर रही थी, वह कर रही थी जिसे करने के योग्य मैं थी, लेकिन कार्य करने के समय मैं सत्य को नहीं खोजती थी। मैंने जीवन में किसी भी तरह का प्रवेश नहीं किया था, और एक समय तो मुझे अपनी खुद की समझ न थी, मुझे परमेश्‍वर की समझ नहीं थी, और न ही परमेश्‍वर के कार्य के मेरे अनुभव ने मुझे सत्य के किसी भी पहलू की स्‍पष्‍ट समझ तक पहुँचाया था। इसके विपरीत मैं किसी की भी नहीं सुनने की हद तक अहंकारी हो गई थी, और उसके महान कार्य में अपनी छोटी सी भूमिका के लिए मैंने परमेश्‍वर की महिमा को चुरा लिया था। इस प्रकार मैंने जो शैतानी स्‍वभाव प्रकट किया था उसके लिए मुझे पापी नाम देने के लिए यह काफी था! लेकिन उस बहन के माध्‍यम से आज, परमेश्‍वर ने मुझे आध्‍यात्मिक प्रार्थनाओं पर अपना ध्‍यान केंद्रित करने, भ्रष्ट होने से बचने की याद दिला दी ताकि। फिर भी मैंने इसे स्‍वीकार नहीं किया। वास्तव में, मैं गलत-सही में अंतर नहीं जानती थी और खुद के बारे में भी अनजान थी। साथ ही मैं महसूस करती थी कि मैं एक भयानक स्थिति में हूँ। अगर परमेश्‍वर ने उस बहन को चेता कर मुझे मेरी हालात के बारे में नहीं बताया होता और मुझे ज़ल्‍द ही परमेश्‍वर की ओर नहीं लौटाया होता, तो मैं भ्रष्‍टता में जीवन जी रही होती, और इस बात से अनभिज्ञ रहती कि मैंने पवित्र आत्‍मा का कार्य गँवा दिया है, और अंततः मैं परमेश्‍वर विरुद्ध एक गंभीर अपराध कर रही होती। मुझे डर है कि तब पछतावा करने के लिए बहुत देर हो गयी होती। इस समय मुझे महसूस हुआ कि, मुझे आगे के जीवन-मार्ग में रक्षा करने के लिए कितनी अधिक परमेश्‍वर के न्‍याय की और मुझसे निपटने की आवश्‍यकता थी। यद्यपि न्‍याय और ताड़ना, काट-छाँट और निपटने के दृष्टिकोण पर, मैं महसूस करती थी कि मैं अपना सम्मान गँवा चुकी हूँ और कि यह एक कठिनाई है, फिर भी यह परमेश्‍वर से उद्धार है। मैं परमेश्‍वर से इस तरह के और अधिक कार्य को स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ।

उस ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद मेरी स्थिति बदल गई। मेरा व्यवहार और आचरण शांत हो गया, और मैं परमेश्‍वर के कार्य को कुछ-कुछ समझ गई, जो एक ऐसा कार्य है जो मनुष्‍यों की धारणाओं के असंगत है। लेकिन शीघ्र ही परमेश्‍वर के अन्य प्रकाशनों के कारण, मैंने शीघ्र ही पुनः देखा किया कि मेरी यह समझ अत्यंत उथली है। अगस्‍त की शुरुआत में मुझे क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रोन्नत किया गया था। उस समय मैं ऊँचे उत्साह में थी और मैंने गुप्‍त रूप से एक शपथ ली: हे परमेश्‍वर, तेरे उत्कर्ष और मुझे इतना महान अधिकार देने के लिए तेरा धन्यवाद। मेरे प्रति तेरे विश्‍वास में मैं असफल नहीं होना चाहती हूँ और मैं अपनी सामर्थ्य में सब कुछ करना चाहती हूँ, और आशा करती हूँ कि तू मेरा मार्ग-दर्शन और अगुवाई करेगा। और इस प्रकार मैंने अपने आपको व्‍यस्‍त कार्य अनुसूची में झोंक दिया। हर दिन मेरा सामना उन समस्याओं से होता जो भाई-बहनों ने उठाई थी, हर एक को मार्गदर्शन प्रदान करते हुए, मुझे जिनका जवाब देना होता था। अक्‍सर देर रात तक जगी रहती थी, लेकिन ऐसा करके मैं खुश थी। कभी-कभी मेरे सामने ऐसी परिस्थिति आती थी जो मेरी समझ में नहीं आती थी या जो स्‍पष्‍ट नहीं होती थी, तब मैं परमेश्‍वर से प्रार्थना करती और उसकी अगुआई और उसका मार्गदर्शन खोजती थी और कार्य सुचारू रूप से संपन्‍न हो जाता था। और न चाहते हुए भी मैं फिर से अहंकारी हो गयी थी, और सोचती थी कि: मैं काफी अच्‍छी हूँ, मैं एक सक्षम कार्यकर्ता हूँ। एक दिन मेरे सामने कई कठिनाइयाँ आ गयी। तो मैंने प्रार्थना की और विचार किया कि अपने मन को कैसे स्पष्ट किया जाए, और तब कार्य की कैसे व्यवस्था करनी है, इससे कैसा निपटना है, मेरे मन में यह सब धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया।फिर मैंने अपने प्रमुख को यह सुझाव देने के लिए पत्र लिखा और पूछा कि यह व्यवहार्य है या नहीं। पत्र लिखते हुए मैं यह सोच रही थी कि, अगुआ यह ज़रूर सोचेगा कि मैंने एक ज़िम्मेदारी ले ली है और मैं एक सक्षम कार्यकर्ता हूँ। मैं उनसे प्रशंसा पाने की आशा करते हुए जवाब की प्रतीक्षा कर रही थी। कुछ दिनों के बाद जब मुझे उनका जवाब मिला तो मैं खुश थी, लेकिन पत्र को खोलकर पढ़ने पर मैं व्यथित हो गयी। प्रमुख ने न केवल मेरी तारीफ नहीं की थी, बल्कि जवाब पूरी तरह से मुझे निपटाने और मेरी काट-छाँट से भरा था और इसमें कहा गया था कि "तुम्‍हारा ऐसा करना सिद्धांतहीनता है, और अगर तुम इसी तरह से ही करती रही तो तुम परमेश्‍वर के कार्य में बाधा पहुँचाओगी! अगर बुनियादी अगुआ अपने कार्य कार्य को स्वयं सँभाल सकते हैं तो उन्हें सँभालने दो, अगर नहीं सँभाल सकते हैं तो उस पर ध्‍यान मत दो। तुम्‍हें तत्‍काल आध्‍यात्मिक प्रार्थनाओं को पूरा करना चाहिए और लेख लिखने चाहिए...।" उस समय मैं सही और गलत से ग्रस्‍त थी और महसूस करती थी कि मुझे प्रताड़ित किया गया है: "यह किस प्रकार का अगुआ है जो अधीनस्थों की परेशानियों का समाधान नहीं कर सकता है? हमारे क्षेत्र में एक घटना हुई है, हमारा समस्त कार्य अस्त-व्यस्त हो गया है, हमें क्या कुछ व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है? अगर बुनियादी अगुआ अपने सारे कार्य को सम्भाल लेते हैं, तो इन सभी पत्रों का क्या होगा?" मैं अपने आप का निरीक्षण करने में पूरी तरह विफल हो गयी थी और इतनी परेशान हो गयी थी कि मैंने अपनी मेजबान बहन से शिकायत कर दी, यहाँ तक सोच लिया कि: मैं छोड़ दूँगी, अगर मैं नहीं छोड़ती हूँ तो मैं एक बाधा हूँ, मैं इतनी मेहनत करती आयी हूँ, और मैं अभी भी एक व्यवधान हूँ। तो फायदा क्या है? अगले दिन मैं परमेश्वर के सामने आई और परीक्षण किया कि कैसे उपदेशों में लिखा है किकाट-छाँट और निपटारा किए जाने को अस्वीकार करना, सत्य को प्रेम करने के प्रति असफलता को दिखाता है, और जो लोग सत्य को प्रेम नहीं करते हैं उनके स्वभाव ख़राब होते हैं। इसलिए मैंने जानबूझकर, "काट-छाँट और निपटारा किए जाने को स्वीकार करने के सिद्धांत" पर दृष्टि डाली। मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं कि: "कुछ लोग काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं; वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए सारी ऊर्जा गँवा देते हैं, और अंत में अपनी वफ़ादारी को भी गँवा देते हैं। ऐसा क्यों होता है? यह आंशिक तौर पर लोगों का उनके कृत्यों के सार के प्रति जागरूकता की कमी के कारण होता है, और इसके कारण वे काट-छाँट और निपटारे के प्रति समर्पित होने में असमर्थ हो जाते हैं। यह उनकी प्रकृति से तय होता है जो अहंकारी और दंभी है और जिसमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं है। यह आंशिक तौर पर इसलिए भी होता है कि वे यह नहीं समझते कि काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने का क्या महत्व है। लोग यह मानते हैं कि काट-छांट और निपटारा किए जाने का अर्थ है कि उनके परिणाम निर्धारित कर कर दिये गए हैं। परिणामस्वरूप, वे गलत ढंग से विश्वास करते हैं कि यदि उनके पास परमेश्वर के प्रति कुछ वफ़ादारी होगी, तो उनके साथ निपटा नहीं जाना चाहिए या उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए; और यदि उनके साथ निपटा जाता है, तो यह परमेश्वर के प्रेम और उसकी धार्मिकता का संकेत नहीं है। ऐसी गलतफहमी के कारण कई लोग परमेश्वर से 'वफ़ादारी' न करने का साहस करते हैं। वास्तव में, जब सब हो जाता है तो यह इसलिए होता है क्योंकि वे बहुत अधिक कपटी हैं; वे कठिनाई सहना नहीं चाहते हैं। वे बस आसान तरीके से आशीषों को प्राप्त करना चाहते हैं। लोग परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में नहीं जानते हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने कोई धार्मिक चीज़ नहीं की है या वह कुछ धार्मिक नहीं कर् रहा है; बात मात्र इतनी ही है कि लोग कभी भी विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर जो करता है वह धार्मिक है। मानव की दृष्टि में, यदि परमेश्वर का कार्य उनकी मानवीय कामनाओं के अनुसार नहीं है या यदि यह उन्हें जिसकी अपेक्षा थी, उसके अनुसार नहीं है, तो परमेश्वर अवश्य धार्मिक नहीं हो सकता। लेकिन, लोग कभी यह नहीं जानते हैं कि उनके कृत्य अनुचित हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं, न ही उन्हें यह समझ आता है कि उनके कार्य परमेश्वर का विरोध करते हैं" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'लोगों के प्रदर्शन के आधार पर परमेश्वर द्वारा उनके परिणाम निर्धारण के निहितार्थ')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी आंतरिक वास्तविकता को उजागर कर दिया। मैंने काट-छाँट और निपटारा किए जाने को इसलिए स्वीकार नहीं किया था क्योंकि मैं अपने किए की प्रकृति को समझ नहीं पाई थी। मुझे लगा कि मैंने जो भी किया था उसमें कुछ भी ग़लत नहीं था, लेकिन मेरा कार्य और मेरा कर्तव्यों का पालन करना बहुत पहले से ही कार्य व्यवस्थाओं से दूर चला गया था, फिर भी मुझे लगता था कि मैं मैं अपना समर्पण दर्शा रही हूँ। मैंने कार्य व्यवस्थाओं में जो लिखा है उसके बारे में सोचा कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपने बुनियादी और महत्वपूर्ण कार्य की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, लेकिन मेरा दृष्टिकोण था कि नीचे से ऊपर भेजे गए सभी प्रश्नों का मार्गदर्शन और उत्तर प्राप्त होना था, भले ही मामला कितना ही बड़ा क्यों न हो। यदि केवल समस्याओं से निपटा जाता तभी मैं शांत हो सकती थी और आध्यात्मिक प्रार्थनाएँ कर सकती थी। जब तथ्यों का सामना हुआ, तो मैं देखती थी कि मैंने कार्य व्यवस्थाओं के प्रति पूर्णतया और बिना किसी शर्त के समर्पण नहीं किया था। मेरे पास बहुत सी चिंताएँ थी जिन्हें मैं ऐसे ही नहीं छोड़ सकती थी, और मैं बिना किसी वजह के अहंकारी हो गई थी। परमेश्वर मेरे भीतर की उन चीज़ों से निपटने के लिए अगुआ का उपयोग कर रहे थे जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं थीं, ताकि मैं परमेश्वर और परमेश्वर की इच्छा और उनके साथ विश्वासघात करने के अपने स्वभाव को समझ जाऊं: अब परिवेश अनुकूल नहीं है। आध्यात्मिक प्रार्थनाएँ और आत्‍म-परीक्षण प्राथमिक होना चाहिए, और मुझे केवल कार्य पर ही ध्यान केन्द्रित नहीं करना चाहिए। परंतु मुझे एहसास नहीं हुआ था कि मेरे कर्मों की कार्य व्यवस्थाओं के विपरीत चली गई थी और परमेश्‍वर के विरुद्ध हो गई थी और उसका विरोध करती थी। मैं सही और गलत से ग्रस्त थी। मैं आत्मा को समझने में असफल रह गई थी, मैं परमेश्वर के कार्यों को समझने में असफल हो गई थी। मुझे उपदेश से ये वचन फिर से याद आये: "इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन सा व्यक्ति, कौन सा अगुवा या कौन सा कार्यकर्ता, मेरी काट-छाँट करता है, और मेरा निपटारा करता है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह पूर्णतया तथ्यों के अनुरूप है या नहीं। जब तक यह तथ्यों के अंशतः भी अनुरूप है, तो मैं इसे स्वीकार करती हूँ और इसका पालन करती हूँ; जब तक यह तथ्यों के अंशतः भी अनुरूप है, तो मैं इसे पूर्णतया स्वीकार करती हूँ; मैं दूसरों के सामने बहाने नहीं बनाऊँगी या नहीं कहूँगी कि मैं इसमें से कुछ को स्वीकार करती हूँ लेकिन बाकी को नहीं, और मैं बहाने नहीं बनाती हूँ। ये किसी ऐसे की अभिव्यक्तियाँ है जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करता है। यदि तुम इस तरह से परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं करते हो, तो तुम्‍हें सत्य को प्राप्त करना कठिन होगा, तुम्‍हें परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना कठिन होगा" (जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति)। हाँ, भले ही अगुआ के वचन मेरी स्थिति से पूरी तरह से मेल नहीं खाते हों, मुझे उनके प्रति समर्पण करना और उन्हें स्वीकार करना चाहिए। और कुछ भी हो अपने कर्तव्यों का मेरा पूरा करना बहुत पहले ही कार्य व्यवस्थाओं के विपरीत चला गया था। तो क्या मुझे समर्पण करने, स्वीकार करने और परिवर्तित होने में अधिक तेज नहीं होना चाहिए? बाद में, जब मैं आध्यात्मिक प्रार्थनाओं में शामिल होने, लेख लिखने का अभ्यास करने के लिए थोड़ा बेहतर और शांत हो गई, तो मैंने देखा कि परमेश्वर स्वयं परमेश्वर के कार्य की रक्षा कर रहा था, और कि यह बिना बिलंब के सामान्य रूप से आगे बढ़ रहा था।

ताड़ना और न्‍याय के, काट-छाँट और निपटारे के ये दो अवसर आफत थे, परंतु इन्‍होंने मुझे स्वयं की अधिक समझ दी और मेरी स्थिति को बदल दिया। बाद में मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं कि : "परमेश्वर का सार अच्छा है। वह समस्त सुंदरता और अच्छाई की और साथ ही समस्त प्रेम की अभिव्यक्ति है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है)। "वह तुम्हें शाप देता है ताकि तुम उससे प्रेम कर सको, ताकि तुम देह के सार को जान सको; वह तुम्हें इसलिए ताड़ना देता है कि तुम जागृत हो जाओ, तुम अपने भीतर की कमियों को जान सको और मनुष्य की संपूर्ण अयोग्यता को जान लो। इस प्रकार, परमेश्वर के शाप, उसका न्याय, और उसकी भव्यता और क्रोध—ये सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए हैं। वह सब जो परमेश्वर आज करता है, और अपना धार्मिक स्वभाव जिसे वह तुम लोगों के भीतर स्पष्ट करता है—यह सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए है। परमेश्वर का प्रेम ऐसा ही है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। मैं आह भरने के अलावा और कुछ न कर सकी: हाँ, परमेश्वर सभी सुंदरताओं और अच्छाइयों की अभिव्यक्ति है, उसका सार सुंदरता और अच्छाई है, उसका सार प्रेम है, इसलिए जो कुछ भी परमेश्वर से आता है वह अच्छा और सुंदर है, भले ही यह न्याय हो, भले ही यह ताड़ना हो, या भले ही हमारी काट-छाँट या हमारा निपटारा किए जाने के लिए लोगों, घटनाओं और हमारे आस-पास की चीज़ों का उपयोग किया जाता हो—यह मनुष्य की देह पर आफत या आक्रमण महसूसहो सकता है, परंतु परमेश्वर जो भी करता है, वह हमारे जीवन के भले के लिए होता है, यह सब उद्धार और प्रेम है। परंतु मैं परमेश्वर या उनके कार्यों को नहीं समझती थी और न ही मैं उसके अच्छे इरादों को देखती थी। न्‍याय और ताड़ना का, काट-छाँट और निपटारा किए जाने का सामना होने पर, मैं अपने कार्य को छोड़ने की धमकी देते हुए विरोध करती थई, इसे परमेश्वर के कार्य के रूप में मैं समझने में असमर्थ थी, मानो कि लोग मुझे परेशान कर रहे थे। परमेश्वर के दो प्रकटनों के माध्यम से, मैं देखती थी कि कई वर्षों तक परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने, कई धर्मोपदेशों को सुनने के बावजूद, न्याय और ताड़ना का सामने करने अथवा काट-छाँट और निपटान किए जाने का सामना करने पर विद्रोह करने का मेरा आवेग प्रबल हो जाता था और मैं इसे पूरी तरह से अस्वीकार कर देती थी। मैं देख सकती थी कि इस सारे समय परमेश्वर पर विश्वास करने के बावजूद मेरा स्वभाव परिवर्तित नहीं हुआ था, शैतान की प्रकृति की जड़ें गहरी समाई हुई थी, परमेश्वर का विरोध करने और उसके साथ विश्वासघात करने की मेरी प्रकृति थी। अचानक मुझे एहसास हुआ कि मुझे न्‍याय और ताड़ना की, मेरी काट-छाँट किए जाने और मुझसे निपटने की ज़रूरत थी। परमेश्वर द्वारा इस प्रकार के कार्य के बिना, मैं अपना सच्चा चेहरा नहीं देख पाती, मुझे खुद की सच्ची समझ नहीं होती, और इस बात का तो एहसास भी नहीं होता कि शैतान की प्रकृति ने मेरे अंदर कितनी गहरी जड़ें जमाई हुई हैं। केवल अब मैं समझती हूँ कि क्यों परमेश्वर कहता है कि पथभ्रष्ट मानवता उसकी शत्रु है, और कि हम शैतान के वंशज हैं। परमेश्वर के वचनों पर मनन करते हुए मेरा हृदय प्रबुद्ध हो गया। मैंने देखा कि किस तरह से परमेश्वर, जीवन की सच्ची राह में मेरी अगुआई करते हुए, सावधानी से व्यवस्था करता है ताकि में परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करूँ, सत्‍य की वास्तविकता में प्रवेश करूँ। परमेश्वर मुझे उठाता है और मेरे साथ दयालुता से व्यवहार करता है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि परमेश्वर मानव के लिए जो कुछ भी करते हैं, वह प्रेम है। परमेश्वर का न्याय और ताड़ना, काट-छाँट और निपटना मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता और उसका सर्वोत्तम उद्धार है।

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