अब मैं अच्छी मानवता का अर्थ समझ गई हूँ

05 फ़रवरी, 2023

बचपन से ही मॉम-डैड और टीचरों ने सिखाया कि हमें मिल-जुलकर रहना चाहिए, विवेकी और समझदार बनना चाहिए। रिश्ते खराब करने वाली बातें नहीं करनी चाहिए, दूसरों को इज्जत बनाए रखने देना चाहिए। "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए" और "जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें" यही बातें मिल-जुलकर रहने में मदद करती हैं। इसलिए बचपन से ही मैंने इन सांसारिक फलसफों को जीने का उसूल बना लिया था, लोगों की गरिमा का ख्याल रखने के चक्कर में मैं शायद ही कभी किसी से बहस करती थी। ऐसा बर्ताव करके मुझे खूब प्रशंसा मिली। मुझे सत्य का ज्ञान नहीं था, तो विश्वासी बनने के बाद भी मैंने इन सांसारिक फलसफों और नैतिक मानकों को जीने का उसूल बनाए रखा, मैं तो सोचती थी कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार सामान्य मानवता होने और अच्छा इंसान बनने का यही अर्थ है। नाकामियों के जरिए उजागर किए जाने के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों से ही जाना कि यह पारंपरिक सोच सत्य नहीं है, यह अच्छी मानवता का मानक तो बिल्कुल नहीं है। सिर्फ परमेश्वर के वचन ही हमारे बर्ताव के मानक होने चाहिए।

जनवरी में, कुछ भाई-बहनों ने बताया कि एक कलीसिया अगुआ, बहन शू किंग लोगों को बाधित करतीं और वास्तविक कार्य नहीं करा पाती थीं, मैं इसकी जांच करने गई। मुझे पता चला कि शू किंग के पास कुछ प्रतिभाएं और काबिलियत तो थी, पर जब से वे अगुआ बनीं तब से उन्होंने ज्यादा व्यावहारिक कार्य नहीं कराए, उनकी जिम्मेदारी के काम बहुत सफल नहीं रहे थे। दूसरों से प्रशंसा पाने के लिए वे काफी दिखावा भी करती थीं, आसानी से नतीजे पाना चाहती थीं। उन्होंने कुछ अयोग्य लोगों को सिद्धांतों के खिलाफ टीम अगुआ और सुपरवाइजर बना दिया था, जिससे कलीसिया के कार्य में बाधाएं और रुकावटें आईं। भाई-बहनों ने उन्हें कई बार सुझाव दिए, पर उन्होंने किसी की नहीं सुनी सच जानने के बाद उन्हें अपनी गलती का एहसास तक नहीं हुआ। उनके प्रदर्शन से पक्का हो गया कि वे एक झूठी अगुआ थीं जिन्हें बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। मैंने उच्च अगुआ को शू किंग की समस्याओं के बारे में बताने के लिए पत्र लिखने का फैसला किया। पत्र लिखने के बाद, मैंने सोचा कि कैसे शू किंग मेरा ख्याल रखती और मुझ पर भरोसा करती थीं, अगर उन्हें पता चला कि मैंने जांच करके उनकी समस्याओं की रिपोर्ट की है, तो क्या वे मुझसे नाराज हो जाएंगी? क्या उनकी नजरों में मेरी छवि खराब हो जाएगी? ये सब सोचकर मैं बहुत उलझन में पड़ गयी। इसलिए मैंने एक बहाना सोच लिया : शायद इन दिनों शू किंग की हालत ठीक नहीं थी, उन्हें संगति और सहारा देकर देखती हूँ, शायद उनमें बदलाव आ जाए। मैंने वह रिपोर्ट लेटर नहीं भेजा। और शू किंग से मिलने का समय तय कर समस्या उजागर करने की तैयारी की। मगर जब हम मिले, तो देखा कि उनकी हालत अच्छी नहीं थी, उन्होंने मुझे रोते-रोते बताया कि वे नाम और फायदे के संघर्ष में जी रही थीं। मेरी बात जबान पर आकर वापस चली गयी। वह बहुत पीड़ा में थी, अगर मैंने इस वक्त उनकी समस्या बताई तो क्या यह जले पर नमक छिड़कने जैसा नहीं होगा? अगुआ को उनकी समस्याओं के बारे में बताने पर अगर वे उन्हें बर्खास्त कर दें, तो क्या वे मुझ पर बेरहम होने का आरोप लगाएंगी? मैं हिचकिचाती ही रह गई, आखिर में नाम और रुतबा पाने की समस्या और सिद्धांतों के विरुद्ध लोगों की नियुक्ति पर बातें करके मैंने हमारी संगति खत्म कर दी।

जब मैं घर पहुँची, तो मैंने रिपोर्ट लेटर में कुछ बदलाव किये, लिखा कि शू किंग नाम और रुतबे के पीछे पड़ी थीं और जीवन प्रवेश नहीं कर पाई थीं, उनके साथ संगति की, तो वे पश्चात्ताप करना चाहती थीं, मैंने उन्हें मदद लेने और संगति करते रहने का सुझाव दिया। पत्र भेजने के बाद मैं अंदर-ही-अंदर दोषी महसूस करती रही। मैं अच्छी तरह जानती थी कि मैंने सच छुपाया था। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा। "एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कार्य करते समय लापरवाह और अनमना होता है या कलीसिया के काम में बाधा डालता और हस्तक्षेप करता है, तो तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में रुकावट डालते हैं और बाधाएँ खड़ी करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। यहाँ तक कि तुम यह भी सोचोगे कि जो कोई कलीसिया के कार्य में बाधाएँ खड़ी कर रहा है, तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, 'मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस दुष्ट बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।' यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पित होने वालों में ही उसका भय मानने वाला हृदय होता है)। परमेश्वर के वचन मेरे लिए बेहद तीखे थे। कलीसिया ने मुझे रिपोर्ट लेटर के काम का प्रभारी बनाया, इस उम्मीद में कि मैं परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सच का साथ दूंगी, जब झूठे अगुआ, मसीह-विरोधी, और कुकर्मी कलीसिया के कार्य में रुकावट डालेंगे, तो मैं सत्य के सिद्धांतों के अनुसार उन्हें उजागर करूँगी, कलीसिया के कार्य की रक्षा करूंगी। यह मेरा कर्तव्य और जिम्मेदारी थी। मैं पहले ही पहचान चुकी थी कि शू किंग झूठी अगुआ है। उनकी जिम्मेदारी वाले काम की प्रगति गिर जाती थी, मेरी संगति के बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आया। अगर उन्हें जल्दी बर्खास्त नहीं किया, तो कलीसिया के कार्य को और बड़ा नुकसान होता। पर मुझे तो यही डर पड़ा था कि अगर उन्हें पता चला कि मैंने ही रिपोर्ट की है, उन्हें बर्खास्त कराया है, तो वे मुझे बेरहम कहेंगी। खासकर उन्हें बुरा महसूस करते और रोते देखकर, मुझे लगा कि अगर मैंने उनकी समस्याएँ बताईं, तो वे कहेंगी मैं उनकी हालत नहीं समझ रही, और मुझसे नफरत करने लगेंगी। तो मैंने असल बात छुपाकर वास्तविक समस्या की रिपोर्ट नहीं की, मैंने एक आँख बंद और दूसरी आँख खुली रखकर बीच का रास्ता चुना, कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को होने वाले नुकसान की परवाह न करके एक झूठी अगुआ की खामियों पर पर्दा डाला। आस्था में मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का भरपूर आनंद लिया, पर दूसरों के फायदे के लिए, जिस थाली में खाया उसी में छेद किया। मैं बेहद स्वार्थी और दुष्ट थी, मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। यह सोचकर, मुझे अपने किये पर पछतावा और अपराध-बोध होने लगा। मुझे अपने स्वार्थ और धूर्तता से नफरत हो गई।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "कोई व्यक्ति अच्छा होने का चाहे कितना भी दिखावा करे, चाहे उसका व्यवहार कितना भी सभ्य और शोभनीय लगे, चाहे कितनी भी अच्छी तरह या खूबसूरती से वह खुद को पेश करे, या वह कितना भी कपटी हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक भ्रष्ट व्यक्ति शैतानी स्वभाव से भरा होता है। इस बाहरी व्यवहार के मुखौटे के अंदर, वह परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है, सृष्टिकर्ता का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है। ... संक्षेप में, नैतिकता की परंपरागत धारणाओं के अनुरूप अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति होना सत्य का अनुसरण करना नहीं है; यह एक सच्चे सृजित प्राणी होने का प्रयास नहीं है। इसके विपरीत, इन अच्छे व्यवहारों के अनुसरण के पीछे कई काले और बताए न जा सकने वाले रहस्य छिपे होते हैं। मनुष्य चाहे जिस भी प्रकार के अच्छे व्यवहार का अनुसरण करे, उसके पीछे ज्यादा लोगों से स्नेह और सम्मान प्राप्त करने, अपनी हैसियत बढ़ाने और लोगों को यह सोचने के लिए प्रेरित करने के सिवा कोई लक्ष्य नहीं होता कि वह सम्माननीय और भरोसा और आदेश पाने योग्य है। अगर तुम ऐसे शिष्ट व्यक्ति होने का प्रयास करते हो, तो क्या यह गुणवत्ता में उन लोगों के समान नहीं है, जो प्रसिद्ध और महान हैं? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल शिष्ट है, लेकिन परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करता और सत्य नहीं स्वीकारता, तो गुणवत्ता में तुम उन जैसे ही हो। और नतीजा क्या होता है? तुमने जो त्याग दिया है, वह सत्य है; तुमने जो खो दिया है, वह उद्धार का तुम्हारा अवसर है। यह सबसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार है—यह एक मूर्ख की पसंद और अनुसरण है। क्या तुम लोगों ने कभी वह व्यक्ति बनना चाहा है, जो महान, प्रसिद्ध, मंच पर असाधारण रूप से बड़ा होता है, जिसकी तुमने इतने लंबे समय तक प्रशंसा की है? वह प्यारा और सुलभ व्यक्ति? वह विनम्र, मिलनसार, शिक्षित व्यक्ति? वह व्यक्ति, जो बाहर से मिलनसार और प्यारा लगता है? क्या तुम लोगों ने पहले इस तरह के लोगों का अनुसरण नहीं किया है? (हाँ।) अगर तुम अब भी इस तरह के लोगों का अनुसरण कर रहे हो, अब भी इस तरह के लोगों को पूज रहे हो, तो मैं तुम्हें बता दूँ : तुम मृत्यु से दूर नहीं हो, क्योंकि जिन लोगों को तुम पूजते हो, वे दुष्ट लोग हैं जो अच्छा होने का दिखावा करते हैं। परमेश्वर दुष्ट लोगों को नहीं बचाएगा। अगर तुम दुष्ट लोगों की पूजा करते हो और सत्य नहीं स्वीकारते, तो अंत में तुम भी नष्ट हो जाओगे" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। मैं बचपन से ही पारंपरिक संस्कृति के साँचे में ढली और इससे प्रभावित थी, "लोगों की कमियों का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए," "मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें," "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है" जैसे शैतानी फलसफों को मैं अपने आचरण का और लोगों की मानवता को परखने का मानक मानती थी। आस्था पाने के बाद, मैंने हमेशा भाई-बहनों की गरिमा का ख्याल रखा, उनमें जो भी कमियां और खामियां दिखतीं, मैं उन्हें कभी सीधे-सीधे नहीं बताती थी, हमेशा दूसरों को छूट देती थी ताकि उन्हें लगे कि मैं उन्हें समझती हूँ और वे मेरे बारे में अच्छा सोचें। मैं अच्छी तरह जानती थी कि शू किंग झूठी अगुआ थीं जिन्हें फौरन बर्खास्त करना चाहिए, पर उन्हें नाराज न करने और रिश्ता बचाने की खातिर, न सिर्फ मैंने उन्हें उजागर नहीं किया, बल्कि सच छिपाकर उनकी समस्याओं की रिपोर्ट भी नहीं की। मैं झूठी अगुआ की रक्षक बन जाती, जो एक अपराध होता। अब मुझे समझ आया कि भले ही मैं बाहर से मैं स्नेही और उदार दिखती थी, पर असल में, मैं दूसरों के दिलों में अच्छी छवि बनाकर उनकी सराहना पाना चाहती थी। अपना घिनौना लक्ष्य पाने के लिए, मैं कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचा सकती थी। इन मानवीय धारणाओं, नीतिवचनों और सिद्धांतों से चिपके रहना व्यक्ति को, एक अच्छा इंसान बिल्कुल नहीं बनाता। इसके उलट, ऐसे खुशामदी बर्ताव के पीछे घिनौने इरादे छिपे होते हैं। इन शैतानी विचारों और नजरिये के अनुसार जीकर मैं और भी ज्यादा कपटी, धूर्त, स्वार्थी, और बुरी बन जाती। मैंने जो कुछ भी किया वह सत्य और परमेश्वर के खिलाफ था। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जिनसे मुझे काफी मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को नाराज़ नहीं करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी तुम जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी तुम मिलो सभी से चिकनी-चुपड़ी बातें करना, और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर, सत्य, कर्तव्य के प्रदर्शन और हर तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति व्यवहार में सिद्धांत रखना और जिम्मेदारी लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। "लोगों के बोलने का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वह लोगों के लिए रचनात्मक हो।) यह सही है। सबसे बुनियादी तौर पर, तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, उनका मजाक न उड़ाए, उन्हें गुमराह न करे, उन पर व्यंग्य न करे, उनका अपमान न करे, उन्हें जकड़े नहीं या उन्हें चोट न पहुँचाए, लोगों की कमजोरियाँ उजागर न करे, न उनका उपहास करे। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। ... यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलु से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कभी-कभी, सीधे तौर पर दूसरों के दोषों, कमियों और गलतियों को बताना और उनकी आलोचना करना आवश्यक होता है। यह लोगों के लिए बहुत ही हितकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो, तुम बेहद उद्दंड और अहंकारी हो। तुम्हें इसका कभी पता नहीं चला, लेकिन कोई व्यक्ति जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है, स्पष्टवादिता से काम लेते हुए तुम्हें तुम्हारी समस्या बता देता है। तुम मन ही मन सोचते हो, 'क्या मैं उद्दंड हूँ? क्या मैं अहंकारी हूँ? किसी और ने मुझे बताने की हिम्मत नहीं की, लेकिन वह मुझे समझता है। उसने ऐसा कहा है तो यह वास्तव में सच हो सकता है। मुझे इस पर चिंतन करने पर कुछ समय लगाना चाहिए।' इसके बाद तुम उस व्यक्ति से कहते हो, 'दूसरे लोग मुझसे केवल अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं, वे मेरा प्रशंसा-गान करते हैं, कोई मुझे खुलकर नहीं बताता, किसी ने कभी मेरी इन कमियों और समस्याओं को नहीं उठाया। केवल तुम ही मुझे बता पाए हो, तुम ही मेरे साथ खुल पाए हो। यह बहुत अच्छा रहा, इससे मेरी बहुत बड़ी मदद हुई।' यह दिल से बात करना था, है न? धीरे-धीरे, दूसरे व्यक्ति ने अपने मन की बात बताई, तुम्हारे बारे में अपने विचार और इस मामले में अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में अपने अनुभव बताए, और सत्य की खोज करके इससे बचने में सक्षम रहे। यह दिल से बात करना है, यह आत्माओं का मिलन है" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गयी कि अच्छी मानवता होने का मतलब सिर्फ उदार, स्नेही, और विवेकी होना नहीं है, न ही इसका मतलब आपसी संबंधों को समझना, उन्हें बचाए रखना और दूसरों की मंजूरी पाना है, बल्कि इसका मतलब परमेश्वर और लोगों के प्रति सच्चा होना, उनके साथ ईमानदारी से पेश आना है। किसी झूठे अगुआ, मसीह-विरोधी, या कुकर्मी को कलीसिया में रुकावट डालते देखकर तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कलीसिया के कार्य की रक्षा कर पाते हो, अगर तुम दूसरों की समस्या उजागर करके, उनके साथ संगति करके उनकी मदद कर पाते हो, कथनी और करनी में शिक्षा दे पाते हो—तभी तुम सच में एक अच्छे इंसान हो। अगर तुम कर्तव्य में सिर्फ छवि और रुतबे के बारे में सोचोगे, किसी को कलीसिया के कार्य में रुकावट डालते देखकर भी उसे उजागर नहीं करोगे, रोकोगे नहीं, परमेश्वर की इच्छा का अनादर करोगे, तो फिर दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध चाहे कितने भी अच्छे हों, पर तुम अच्छे इंसान नहीं हो, तुम स्वार्थी, दुष्ट, और नीच ही रहोगे। पहले मुझे लगता था कि "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए" जैसे शैतानी फलसफे हमें समझदार और सहनशील बनाते हैं, और यह एक अच्छी चीज है। मगर अब मैं जान गई हूँ कि यह परमेश्वर की इस बात के बिल्कुल उलट है "लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए।" परमेश्वर के इस कथन का अर्थ था, लोगों को आंकने और उनकी निंदा करने के लिए उनकी गलतियों और कमियों का सहारा मत लो, बल्कि उनके साथ अच्छी तरह पेश आओ। सामान्य मानवता का यही अर्थ होता है। शैतान हमारे मन में "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए" जैसे विचार इसलिए डालता है ताकि हम छवि और रुतबे बचाएं, दूसरों की समस्या उजागर न करें, और ज्यादा स्वार्थी और धूर्त बनें, और हमारे पास सामान्य मानवता न हो। कोई कितना ही अच्छा क्यों न दिखे, अपने निजी फायदों के लिए काम करना पाखंड और बेईमानी है। यह एक अच्छा इंसान होना नहीं है। अगर हम भ्रष्टता के काबू में न आकर, लोगों को उनकी कमियां बताएं, सत्य पर संगति करके उनकी मदद करें, जिससे सच्चा ज्ञान पाकर वे पश्चात्ताप करें, तो यही अच्छी मानवता और प्रेम को सच्चे ढंग से दर्शाता है।

मैंने वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे अभ्यास का स्पष्ट मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परंपरागत संस्कृति में अच्छे व्यवहार से संबंधित कहावतों पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोगों ने उनके बारे में कोई समझ हासिल की है? तुम्हें इस तरह के अच्छे व्यवहार को कैसे लेना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं, 'आज से मैं कोई अकादमिक, मिलनसार या विनम्र व्यक्ति नहीं बनूँगा। मैं एक तथाकथित "अच्छा" व्यक्ति नहीं बनूँगा; मैं वह नहीं बनूँगा जो बड़ों का आदर करता है या छोटों से प्रेम करता है; मैं एक प्यारा, मिलनसार व्यक्ति नहीं बनूँगा। इनमें से कुछ भी सामान्य मानवता का स्वाभाविक उद्गार नहीं है; यह कपटपूर्ण व्यवहार है जो नकली और झूठा है, और यह सत्य के अभ्यास के स्तर तक नहीं पहुँचता। मैं किस तरह का व्यक्ति बनूँगा? मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनूँगा; मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करूँगा। अपनी वाणी में मैं अशिक्षित, नियमों को न समझने वाला, ज्ञान की कमी वाला, और दूसरों द्वारा नीची निगाह से देखा जाना वाला हो सकता हूँ, लेकिन मैं स्पष्ट रूप से, ईमानदारी से और बिना झूठ के बोलूँगा। एक व्यक्ति के रूप में और अपने कार्यों में मैं कृत्रिम नहीं बनूँगा और कोई दिखावा नहीं करूँगा। जब भी मैं बोलूँगा, दिल से बोलूँगा—मैं वही कहूँगा जो मैं मन में सोचता हूँ। अगर मुझे किसी से घृणा है, तो मैं खुद को जाँचूँगा, और कुछ भी ऐसा नहीं करूँगा जो उसे चोट पहुँचाता हो; मैं केवल वही चीजें करूँगा, जो रचनात्मक हों। जब मैं बोलूँगा, तो मैं अपने निजी लाभ पर ध्यान नहीं दूँगा, और न ही अपनी प्रतिष्ठा या इज्जत से जकड़ा जाऊँगा। इतना ही नहीं, मैं यह इरादा भी नहीं रखूँगा कि लोग मेरे बारे में ऊँची राय रखें। मैं केवल इस बात को महत्व दूँगा कि परमेश्वर प्रसन्न है या नहीं। लोगों को आहत न करना मेरी आधार-रेखा होगी। मैं जो करूँगा, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करूँगा; मैं दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए काम नहीं करूँगा, न ही मैं परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला काम करूँगा। मैं केवल वही करूँगा जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो, मैं केवल एक ईमानदार और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति बनूँगा।' क्या यह व्यक्ति में बदलाव नहीं है? अगर वह वास्तव में इन शब्दों का अभ्यास करता है, तो वह वास्तव में बदल चुका होगा। उसके भविष्य और भाग्य बदलकर बेहतर हो जाएंगे। वह शीघ्र ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलेगा, शीघ्र ही सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करेगा, और शीघ्र ही उद्धार की आशा रखने वाला व्यक्ति बन जाएगा। यह अच्छी चीज है, सकारात्मक चीज है" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मैंने देखा कि उसकी अपेक्षा के अनुसार एक ईमानदार इंसान बनकर बात करने, बातचीत में सच्चा होने, और हर चीज में परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को मानक बनाकर जीने से, हम धीरे-धीरे शैतान के जहर के चंगुल से मुक्त होकर सच्चे इंसान की तरह जीवन जी सकते हैं। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे दूसरों के मन में अपनी छवि की परवाह और निजी संबंधों की रक्षा करने से रोके। मैं ईमानदार बनकर परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती थी। और इसलिए, मैंने उच्च अगुआ को शू किंग की समस्याओं की जानकारी देने के साथ-साथ पत्र में गलत लिखने के पीछे की मंशाओं के बारे में भी बताया। ऐसा करके मुझे थोड़ी शांति मिली और मेरा मन हल्का हो गया। कुछ दिनों बाद, उच्च अगुआ ने मामले की जांच की, तो पाया कि शू किंग एक झूठी अगुआ थी उन्हें सिद्धांतों के अनुसार बर्खास्त कर दिया गया।

कुछ समय बाद, मेरे सामने एक और रिपोर्ट लेटर आया। बहन लिन मिन ने अपनी कलीसिया अगुआ, बहन झांग यू पर झूठी अगुआ होने का आरोप लगाया था। इसकी जांच में, पता चला कि हाल ही में झांग यू के खराब हालात का उनके कर्तव्य-प्रदर्शन पर बुरा असर पड़ा था, मगर आम तौर पर वे वास्तविक काम करा सकती थीं समस्याएं हल करने में मदद करती थीं। वे झूठी अगुआ नहीं थीं। लिन मिन की रिपोर्ट सही थी, पर वो बहुत अहंकारी भी थी। झांग यू के कार्य की खामियों और गलतियों को लेकर उसका नजरिया सही नहीं था, वह उनके हालात नहीं समझती थी। बस आँख बंद करके झांग यू को झूठी अगुआ बता दिया। इससे उनकी समस्याएं बढ़-चढ़कर दिख रही थीं, यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था—इससे उन्हें दुख पहुँच सकता था। लिन मिन से संगति कर समस्याओं के बारे में बताना जरूरी था। मैंने सोचा कि इस बार मुझे सत्य का अभ्यास करके समस्याओं के बारे में बताना ही होगा। मगर जिस दिन मुझे लिन मिन से मिलने जाना था, मेरे मन में कुछ बातें आईं। हाल ही में मेरी मुश्किलों के दौरान लिन मिन ने मेरी मदद की थी, और वे मेरे बारे में बहुत अच्छा सोचती थीं। अगर मैं उन्हें जांच के नतीजे बताकर उनकी समस्याएं बताऊँगी, तो क्या वे गलतफहमी में आकर मुझे गलत नहीं समझेंगी, मेरे बारे में बुरा नहीं सोचेंगी? तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत ठीक नहीं है, मैंने फौरन मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं फिर से शैतानी फलसफों पर चलकर अपने संबंधों को बचाने की सोच रही हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे रोशनी दो, ताकि मैं देह-सुख त्याग दूँ। चाहे जो भी हो, मैं शोहरत के बारे में अब और नहीं सोचूंगी। मैं सत्य का अभ्यास करके सच में इस बहन की मदद करना चाहती हूँ।" मुझे परमेश्वर के वचन याद आए जो मैंने कुछ दिन पहले पढ़े थे : "जब किसी के सामने ऐसी स्थिति आती है जिसमें उसका व्यक्तिगत इरादा और योजनाएँ होती हैं, और जब किसी का भ्रष्ट स्वभाव स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है, तो यही वह समय होता है जब उसे आत्मचिंतन करने और सत्य तलाशने की आवश्यकता होती है, और यह वह महत्वपूर्ण क्षण भी होता है जब परमेश्वर उस व्यक्ति की जाँच करता है। इसलिए, तुम सत्य तलाशने, सत्य स्वीकारने और वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम हो या नहीं, यह क्षण व्यक्ति के भेद सबसे ज्यादा खोलता है। ... तुम्हारी योजना पश्चात्ताप की है; तुममें इरादे की वह चमक है, और तुम यह पहले की तुलना में ज्यादा दृढ़ता से करना चाहते हो, लेकिन कौन जानता है कि तुम्हारे वास्तव में पश्चात्ताप करने में कितना समय लगेगा। अगर तुमने पश्चात्ताप करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए हैं या तुम्हारे पास उसकी कोई ठोस योजना नहीं है, तो यह सच्चा पश्चात्ताप नहीं है। तुम्हें वास्तविक कार्रवाई भी करनी चाहिए। जब तुम वास्तविक कार्रवाई करोगे, तो परमेश्वर का कार्य आएगा" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (2))। सही कहा। जब यह मामला मेरे सामने आया, तब परमेश्वर मेरे दिल को परख रहा था कि मैं सच में पश्चात्ताप करती हूँ या नहीं, मैं सत्य का अभ्यास करना चुनूंगी या अपनी गरिमा और हितों की रक्षा करूंगी। फिर, मैंने मन में ठान लिया और लिन मिन के साथ संगति की। जब मैंने लिन मिन को उसकी समस्याएं बताईं, तो वो मुझसे नाराज नहीं हुई, बल्कि उसने आत्मचिंतन किया और परमेश्वर के वचनों के जरिये खुद को पहचान पाई, उसने कहा कि अगर उसे उजागर नहीं किया जाता, तो वो नहीं देख पाती कि वो अहंकारी थी और झांग यू से सही बर्ताव नहीं कर रही थी। उसे यही लगता कि वो सत्य का अभ्यास करके कलीसिया के कार्य की रक्षा कर रही थी। लिन मिन ने खुलकर मुझसे यह भी पूछा कि इस समस्या को हल कैसे किया जाए फिर हमने साथ मिलकर इस पर संगति की। हम करीब आ गए, हमारे बीच जरा भी मतभेद नहीं था। उस पल मैं बहुत खुश थी, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीने और काम करने से ही सच में लोगों का फायदा और मदद हो सकती है। मेरा मन स्थिर और शांत हो गया।

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