असलियत छुपाने और झूठा स्वांग भरने के नतीजे
अक्तूबर 2018 में, मैंने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा। छह महीने बाद, मैं कलीसिया में सिंचन कार्य की उपयाजिका चुनी गई। शुरू-शुरू में इस काम की जिम्मेदारी लेते हुए मुझे काफी मुश्किलें आईं, लेकिन प्रार्थना और अपने भाई-बहनों के साथ संगति करने से, धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांतों पर अच्छी पकड़ बना ली और अपने कर्तव्य में कुछ अच्छे नतीजे पाने लगी। खाली समय में, मैं अनुभवात्मक गवाही लेख लिखने का अभ्यास भी करती थी, मैं अक्सर आत्मचिंतन करती, और हर दिन काफी संतुष्ट महसूस करती थी।
जनवरी 2022 में, एक दिन मेरी अगुआ ने मुझसे कहा, “तुमने जीवन प्रवेश में थोड़ी प्रगति की है, तो हम तुम्हारा चुनाव उपदेशक के रूप में करना चाहते हैं। क्या तुम यह करने के लिए तैयार हो?” मैं थोड़ी घबरा गई और कहा, “मैं पूरी कोशिश करूँगी।” तब अगुआ ने मुझसे कहा, “तुम्हारे लिखे अनुभवात्मक गवाही लेख बहुत बढ़िया हैं। केवल वही भाई-बहन जो अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान देते हैं, उपदेशक बन सकते हैं, क्योंकि वे अपने भाई-बहनों की समस्याओं और मुश्किलों को सही मायने में सुलझा सकते हैं।” अगुआ से यह सुनकर मुझे खुशी हुई। मुझे लगा कि वह वास्तव में मेरा मूल्य स्म्झ्ते हैं और मेरी सराहना करते हैं, इसलिए मैं सबको निराश नहीं कर सकती और मैं उन्हें दिखाना चाहती थी कि मैं इस काम को अच्छी तरह कर सकती हूँ। उसके बाद, अगुआ ने मुझे कई कलीसियाओं के कामकाज की जिम्मेदारी दे दी और मुझे बहुत-से सिद्धांत सिखाए। काम का दायरा पहले से काफी बड़ा था और मुझ पर बहुत सारे कामों की जिम्मेदारी थी, इसलिए मैं तनाव में आ गई और मुझे यह सब न संभाल पाने की चिंता भी होने लगी। मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन जो मेरे जैसा कर्तव्य ही निभाते थे उनके लिए यह काम जाना-पहचाना था, पर मेरे लिए यह कर्तव्य नया था और मैं नहीं जानती थी कि इसे कैसे निभाऊँ। मैं अपनी मुश्किलों पर बात करना चाहती थी लेकिन फिर मुझे अपनी अगुआ की तारीफ याद आ गई। मैं चिंतित हो गई और मैंने सोचा, “अगर उन्हें पता चला कि मुझे इस काम को करने का ढंग समझ नहीं आया है, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या उन्हें लगेगा कि यह मेरे बस का नहीं है और मुझे चुनकर उन्होंने गलती की है? और फिर, अब तो मैं एक उपदेशक हूँ। अगर मैं काम से ही परिचित नहीं हूँ तो मैं कलीसिया के अगुआओं की मदद और उन्हें सहारा कैसे दे सकती हूँ?” यह सब सोचना मेरे लिए बहुत तनावपूर्ण था लेकिन मुझे अगुआ के साथ अपने संघर्ष साझा करने में बड़ी शर्मिंदगी हो रही थी।
एक बार, जब हमारे वरिष्ठ अगुआ ने हमारे काम के बारे में हमारे साथ चर्चा की, तो मैंने देखा कि बहन सिल्विया और भाई रिकार्डो फटाफट अगुआ के सवालों के जवाब दे रहे थे, और काम करने के तरीके के हर पहलू को भी समझते थे। जब अगुआ ने मुझसे पूछा, “क्या तुम्हें कोई समस्या हो रही है?” मैंने सोचा, “हम सब एक जैसा ही कर्तव्य निभाते हैं। अगर मैंने हाँ कहा तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं नाकाबिल हूँ?” इसलिए मैंने झूठ बोल दिया और कहा कि मुझे कोई समस्या नहीं है। बाद में, जब भी अगुआ हमसे मिलते, मैं शायद ही कुछ बोलती। कुछ बोलती भी तो पहले यह सोचती कि क्या जवाब दूँ ताकि लोगों को पता न चले कि मैं बहुत-सी चीजें नहीं जानती और कैसे उन्हें मुझे नीची नजर से देखने से रोक सकूँ। इस तरह, मैं अपनी असलियत छुपाती रही और झूठा स्वांग भरती रही, मैं बंधन-सा महसूस करने लगी और अपने कर्तव्य में निष्क्रिय होती गई। मैं तो सभाओं में जाना भी बंद करना चाहती थी। फिर भी, मैं भाई-बहनों से अपनी हालत पर खुलकर बात नहीं करना चाहती थी। मैं बस लोगों को अपना अच्छा पक्ष ही दिखाना चाहती थी। एक दिन, मैंने कलीसिया में काम की स्थिति को समझने के लिए, कलीसिया की दो अगुआओं से मिलना तय किया। उनसे मिलने पर, एक अगुआ ने उत्साह से भरकर कहा, “बहुत अच्छी बात है कि अब आप हमारा कामकाज संभाल रही हैं! मुझे आपके साथ सभाएँ करना अच्छा लगता है और हर बार आपकी संगति सुनकर मैं आपकी सराहना करती हूँ। उम्मीद है कि आगे चलकर मैं भी आप जैसी बन सकूँगी।” दूसरी अगुआ ने कहा, “आपके साथ मिलकर अपने कर्तव्य करना हमें अच्छा लगता है। आपकी संगति से हमें हमेशा प्रकाश मिलता है।” तब, मैं उनसे कहना चाहती थी कि मेरे बारे में इतनी ऊँची राय न रखें, कि मुझ भी कर्तव्य निभाने में दिक्कतें आती हैं और मैं दबाव होने पर नकारात्मक हो जाती हूँ। पर फिर मैंने सोचा, “अगर मैंने इन्हें सच बता दिया तो क्या आगे चलकर ये मेरे लिए इतनी अच्छी राय रखेंगी? कोई सवाल होने पर क्या मुझसे पूछेंगी?” मेरे अंदर संघर्ष चलता रहा और आखिरकार, मैंने उनसे सच नहीं कहा। ऐसे ही एक बार, मुझे कलीसिया के कुछ अगुआओं और उपयाजकों से मिलना था। उन्होंने कहा कि वे कुछ काम नहीं कर पाए और उन्हें दिक्कतें आ रही थीं। मैंने उन्हें दिलासा देते हुए कहा, “चिंता मत करो, हम सभी ने कर्तव्य निभाना शुरू ही किया है। धीरे-धीरे हम काम करने का ढंग जान लेंगे और समझने में समर्थ होंगे।” यूँ देखा जाए तो मैंने कुछ गलत नहीं कहा था। पर, दरअसल मैं भी उस काम को नहीं कर पाई। मैं चिंतित थी कि कहीं वे मेरा असली आध्यात्मिक कद न देख लें, तो ईमानदारी से बात कहने की हिम्मत ही नहीं हुई, मैंने बस उनका थोड़ा हौसला बढ़ा दिया, पर उससे उनकी समस्याएँ कतई हल नहीं हुईं। मैं लगातार अपनी असलियत छुपाते हुए स्वांग भर रही थी, मेरी दशा बहुत खराब थी, इसलिए पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर सकी, और मैं भावनात्मक रूप से बहुत थक गई थी। मैं अक्सर सोचती, “मैं औरों की तरह कलीसिया का काम क्यों नहीं कर पाती?” मैं जानती थी कि मुझे अपने अगुआ को ढूंढकर अपनी समस्या का समाधान करना चाहिए, लेकिन मैं डरती थी कि अगर मैंने उनके बारे में बात की तो वह सोचेंगे कि मैं इस काम के लिए सही नहीं हूँ। मैंने शुरुआत के बारे में सोचा, मुझे यह कर्तव्य इसलिए सौंपा गया क्योंकि सबने कहा कि मैं जीवन प्रवेश पर काफी ध्यान देती हूँ, वे सोचते होंगे कि मैं अच्छी काबिलियत रखती हूँ, सत्य का अनुसरण करती हूँ। अगर उन्हें पता चला कि मुझे इतनी सारी चीजें समझ नहीं आतीं और मैं कलीसिया का काम नहीं कर पा रही, तो उन्हें पक्का लगेगा कि मुझे उपदेशक के तौर पर चुनना उनकी गलती थी। यह सोचकर मुझे कुछ कहने में और भी डर लगने लगा। मेरी दशा बद से बदतर होती गई, मैं अंधकार और दुख में रहने लगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं नहीं जानती कि इस परिवेश का अनुभव कैसे करूँ। तुम ही मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करो।”
एक बार, एक सभा में, हमारी वरिष्ठ अगुआ ने हमसे पूछा कि इस अवधि के दौरान हमारा अनुभव कैसा रहा। दूसरों ने अपने कर्तव्य निर्वहन में भ्रष्टता और कमियों पर खुलकर बात की, तब मैं भी अपनी हालत पर बात करने का साहस जुटा पाई। अगुआ ने अपने अनुभव से मेरी मदद करते हुए कहा, “अगुआ और कर्मी के तौर पर, अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए आपको सब कुछ समझने की जरूरत नहीं है। ऐसा सोचना ही गलत है। हम तो बस आम लोग हैं, तो कुछ चीजों को देख-समझ न पाना सामान्य-सी बात है। लेकिन अगर हम सर्वज्ञ बनना चाहते हैं और अपनी ही कमियों से ठीक से नहीं निपट पाते, और अगर हम अपनी हैसियत और छवि को बनाए रखने के लिए, झूठा स्वांग भरने और दूसरों को धोखा देने के लिए मुखौटा पहनते हैं, और दूसरों को कभी अपना असली आध्यात्मिक कद नहीं देखने देते, तो जीवन दर्दनाक होगा।” फिर, अगुआ ने मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे : “तुम साधारण और सामान्य इंसान कैसे बन सकते हो? कैसे तुम, जैसा कि परमेश्वर कहता है, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर सकते हो—कैसे तुम अतिमानव या कोई महान हस्ती बनने की कोशिश नहीं कर सकते? ... पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, ‘मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।’ अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, ‘मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,’ या ‘मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।’ जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है। ढोंग या दिखावा मत करो। पहली बात, जो कुछ तुम अपने दिल में सोच रहे हो, उसे खुलकर बताओ, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे। तुम किसी और चीज से बाधित हो। तुम हमेशा खुद को टीम का मुखिया, अगुआ, कार्यकर्ता, या किसी पदवी, हैसियत और प्रतिष्ठा वाला इंसान मानते हो : अगर तुम कहते हो कि तुम कोई चीज नहीं समझते, या कोई काम नहीं कर सकते, तो क्या तुम खुद को बदनाम नहीं कर रहे? जब तुम अपने दिल की ये बेड़ियाँ हटा देते हो, जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो और महसूस करते हो कि तुम अन्य सभी के समान एक आम इंसान हो, और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और परिवेश भी अलग होता है। अगर तुम्हारे दिल में हमेशा शंकाएँ रहती हैं, अगर तुम हमेशा तनावग्रस्त और बाधित महसूस करते हो, और अगर तुम इन चीजों से छुटकारा पाना चाहते हो लेकिन नहीं पा सकते, तो तुम्हें परमेश्वर से गंभीरता से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, अपनी कमियाँ देखनी चाहिए और सत्य की दिशा में प्रयास करना चाहिए। अगर तुम सत्य को अमल में ला सकते हो, तो तुम्हें परिणाम मिलेंगे। चाहे जो करो, पर किसी विशेष पद से या किसी विशेष पदवी का उपयोग करके बात या काम न करो। पहली बात, यह सब एक तरफ कर दो, और खुद को एक आम इंसान के स्थान पर रखो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। “अगर अपने दिल में तुम स्पष्ट हो कि तुम किस तरह के इंसान हो, तुम्हारा सार क्या है, तुम्हारी विफलताएँ क्या हैं, और तुम कौन-सी भ्रष्टता प्रकट करते हो, तो तुम्हें अन्य लोगों के साथ खुले तौर पर इसकी संगति करनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम्हारी असली हालत क्या है, तुम्हारे विचार और मत क्या हैं, ताकि वे जान सकें कि तुम्हें ऐसी चीजों के बारे में क्या ज्ञान है। चाहे जो भी करो, ढोंग या दिखावा मत करो, दूसरों से अपनी भ्रष्टता और असफलताएँ मत छिपाओ जिससे कि किसी को उनके बारे में पता न चले। इस तरह का झूठा व्यवहार तुम्हारे दिल में एक बाधा है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव भी है और लोगों को पश्चात्ताप करने और बदलने से रोक सकता है। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और दूसरों के द्वारा तुम्हें दी जाने वाली प्रशंसा, उनके द्वारा तुम पर बरसाई जाने वाली महिमा और उनके द्वारा तुम्हें प्रदान किए जाने वाले मुकुटों जैसी झूठी चीजों पर रुककर विचार और विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें देखना चाहिए कि ये चीजें तुम्हें कितना नुकसान पहुँचाती हैं। ऐसा करने से तुम्हें अपना माप पता चल जाएगा, तुम आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और फिर खुद को एक अतिमानव या कोई महान हस्ती नहीं समझोगे। जब तुम्हें इस तरह की आत्म-जागरूकता प्राप्त हो जाती है, तो तुम्हारे लिए दिल से सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करना और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ स्वीकार करना, अपने लिए परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करना, दृढ़ता से एक आम इंसान, एक ईमानदार और भरोसेमंद इंसान बनना, और अपने—एक सृजित प्राणी और परमेश्वर—सृष्टिकर्ता के बीच सामान्य संबंध स्थापित करना आसान हो जाता है। परमेश्वर लोगों से ठीक यही अपेक्षा करता है, और यह उनके द्वारा पूरी तरह से प्राप्य है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं अपनी दशा पर आत्मचिंतन करने लगी। जब अगुआ ने मुझसे कहा कि मैंने जीवन प्रवेश पर ध्यान दिया था इसलिए मुझे एक उपदेशक के रूप में चुना गया, तो मुझमें घमंड आ गया और मैं संतुष्ट होकर बैठ गई। मुझे लगा कि मेरे सत्य की खोज करने और कामकाज में समर्थ होने के कारण ही मुझे इतने महत्वपूर्ण काम के लिए चुना गया था। लेकिन, जब मैंने वास्तव में इस कर्तव्य को निभाना शुरू किया तो पता चला कि मैं कलीसिया का काफी काम समझती ही नहीं थी। कुछ सिद्धांतों पर मेरी पकड़ नहीं थी, और मैं बहुत ज्यादा दबाव महसूस करती थी, इसलिए मैं अक्सर नकारात्मक महसूस करती थी। लेकिन मैंने अपनी असली दशा के बारे में कभी खुलकर बात नहीं की और यह कहकर अपनी अगुआ को धोखा दिया कि मुझे कोई समस्या ही नहीं थी, क्योंकि मुझे डर था कि वो मुझे अयोग्य समझेंगे। जब मैंने पाया कि कलीसिया की अगुआ मेरी तारीफ करती हैं, और यहाँ तक कि मुझे आदर्श मानते हैं, तब यह जानते हुए भी कि मुझे अपनी भ्रष्टता और कमियों पर खुलकर बात करनी चाहिए, और उन्हें अपना असली आध्यात्मिक कद जानने देना चाहिए, मुझे डर था कि सच जानने पर वे मेरे बारे में ऊंची राय नहीं रखेंगी। इस कारण मैं चुप रही। जब अगुआओं और उपयाजिकाओं ने मुझसे कुछ सवाल पूछे जिनके जवाब मुझे जाहिर तौर पर नहीं पता थे, तब भी मैंने उनसे खुलकर चर्चा नहीं की। समझ न आने पर भी मैंने समझने का नाटक किया और उनके सवालों के बेपरवाही से जवाब दिए। मैंने बार-बार झूठा स्वांग भरा और झूठी छवि बनाई, और यह सब सिर्फ इसलिए कि मैं “उपदेशक” की पदवी पर अटक गई थी। मैंने सोचा कि उपदेशक के तौर पर मेरी समझ और ज्ञान दूसरों से ज्यादा होनी चाहिए, मुझमें कमियाँ नहीं होनी चाहिए और मुझे नकारात्मक या कमजोर नहीं होना चाहिए। मैंने सोचा कि यही एक तरीका था जिससे लोग मेरा सम्मान करेंगे और मुझे स्वीकार करेंगे। अपनी हैसियत और छवि को बनाए रखने के लिए, मैंने अपनी असलियत को छुपाने के लिए मुखौटा पहन लिया, और भ्रष्टता रहित होने का झूठा स्वांग भरा। यहाँ तक कि प्रताड़ित, कमजोर और नकारात्मक महसूस करने पर भी, “उपदेशक” के रुतबे को बनाए रखने के लिए मैं दूसरों के साथ अपने दिल की बात करने और मदद माँगने के बजाय अकेले में रोया करती थी। इस पदवी का बोझ मेरे लिए असहनीय हो गया था। जब कलीसिया ने मुझे चुना तो, वह मुझे अभ्यास करने का मौका दे रही थी और अपने कर्तव्य में ज्यादा सत्य खोजने और उसे समझने का अवसर दे रहा था। लेकिन मैंने सही रास्ता नहीं अपनाया। मैंने इस मौके का फायदा शोहरत और रुतबा पाने के लिए उठाया। क्या यह परमेश्वर के इरादे के उलट नहीं था? परमेश्वर नहीं चाहता कि हम असाधारण या महान बनने का प्रयास करें। वह चाहता है कि हम सृजित प्राणियों के तौर पर आम, सामान्य इंसान बनकर रहें, व्यावहारिक तरीके से सत्य की खोज करें, अपनी कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करें, और जो समस्याएँ हमारी समझ से परे हैं, उन पर अपने भाई-बहनों से खुलकर बात करें और मदद माँगें। हमारे पास ऐसी समझ होनी चाहिए। परमेश्वर के इरादे समझने के बाद मुझे आजादी का अधिक एहसास हुआ।
बाद में, मैंने कुछ भाई-बहनों की लिखी कुछ अनुभवात्मक गवाहियां पढ़ी जिनमें परमेश्वर के उन वचनों का उल्लेख था जो मेरी हालत से मेल खाते थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चाहे कोई भी संदर्भ हो, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य कर रहा हो, वह यह छाप छोड़ने का प्रयास करेगा कि वह कमजोर नहीं है, कि वह हमेशा मजबूत, आस्था से पूर्ण है, कभी नकारात्मक नहीं है, ताकि लोग कभी भी उसके वास्तविक आध्यात्मिक कद या परमेश्वर के प्रति उसके वास्तविक रवैये को नहीं देख पाएँ। वास्तव में, अपने दिल की गहराइयों में क्या वे सचमुच यह मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है जो वे नहीं कर सकते हैं? क्या वे वाकई यह मानते हैं कि उनमें कोई कमजोरी, नकारात्मकता या भ्रष्टता के खुलासे नहीं हैं? बिल्कुल नहीं। वे दिखावा करने में अच्छे होते हैं, चीजों को छिपाने में माहिर होते हैं। वे लोगों को अपना मजबूत और शानदार पक्ष दिखाना पसंद करते हैं; वे नहीं चाहते हैं कि वे उनका वह पक्ष देखें जो कमजोर और सच्चा है। उनका उद्देश्य स्पष्ट होता है : सीधी-सी बात है, वे अपनी साख, इन लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे अपनी नकारात्मकता और कमजोरी दूसरों के सामने उजागर कर देंगे, अपना विद्रोही और भ्रष्ट पक्ष प्रकट कर देंगे, तो यह उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए एक गंभीर क्षति होगी—तो बेकार की परेशानी खड़ी होगी। इसलिए, वे इस बात को स्वीकार करने के बजाय मरना ज्यादा पसंद करेंगे कि ऐसे समय भी आते हैं जब वे कमजोर, विद्रोही और नकारात्मक होते हैं। और अगर ऐसा कभी हो भी जाए जब हर कोई उनके कमजोर और विद्रोही पक्ष को देख ले, जब वे देख लें कि वे भ्रष्ट हैं, और बिल्कुल नहीं बदले हैं, तो वे अभी भी उस दिखावे को बरकरार रखेंगे। वे सोचते हैं कि अगर वे यह स्वीकार कर लेंगे कि उनके पास भ्रष्ट स्वभाव है, वे एक साधारण महत्वहीन व्यक्ति हैं, तो वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देंगे, सबकी आराधना और अगाध प्रेम खो देंगे, और इस प्रकार पूरी तरह से विफल हो जाएँगे। और इसलिए, चाहे कुछ भी हो जाए, वे लोगों से खुलकर बात नहीं करेंगे; कुछ भी हो जाए, वे अपना सामर्थ्य और हैसियत किसी और को नहीं देंगे; इसके बजाय, वे प्रतिस्पर्धा करने का हर संभव प्रयास करेंगे, और कभी हार नहीं मानेंगे” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। एक और अंश में, परमेश्वर ने रुतबे के पीछे भागने की लोगों की प्रकृति और नतीजों का खुलासा किया था। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम हमेशा महानता, उत्कृष्टता और हैसियत ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें त्याग देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, ईमानदार इंसान बनके और मानव के सदृश जीवन जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैंने जाना कि मसीह-विरोधी पाखंडी होते हैं, जो खुद को छिपाते और साफ दिखाते हैं। वे सच नहीं बोलते या कभी किसी को अपना कमजोर पक्ष नहीं देखने देते, सच को समझने और दोषरहित होने का स्वाँग भरते हैं। यह इसलिए किया जाता है कि दूसरों से तारीफ और प्रशंसा पा सकें, सब उनके अनुयायी बन जाएँ और उनकी स्तुति करें। वे खास तौर पर घमंडी और धोखेबाज होते हैं। अपने बर्ताव पर आत्मचिंतन करने पर मैंने पाया कि मैं भी मसीह-विरोधी जैसी ही मैंने हमेशा सर्वज्ञ होने का नाटक किया। मैं चाहती थी कि लोग मेरे बारे में ऊंचा सोचें, मुझे बहुत काबिल और हर मुश्किल को हल करने वाली समझें, ताकि उनके दिलों में मेरे लिए जगह रहे और वे मुझे घेरकर मेरी आराधना करते रहें। मैं इतनी अभिमानी और विवेकहीन थी! मेरे विचार और काम, सब कुछ परमेश्वर के विरुद्ध था। खासकर जब मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे, “अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना,” मैं जानती थी कि यह मेरे लिए परमेश्वर की चेतावनी थी। अगर मैं शोहरत और हैसियत पाने के रास्ते पर चलती रही तो वह मुझे पक्का ठुकरा देगा, और आखिरकार मुझे हटा दिया जाएगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा कि मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ, बचाए जाने का मौका नहीं गँवाना चाहती, एक पवित्र और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहती हूँ।
अगले दिन, अगुआ ने मुझे अगली सभा में संगति करने का विषय बताया और मुझसे अनुरोध किया कि मैं उसके आयोजन की तैयारी करूँ। फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं समझ गई हूँ? सच तो यह है कि उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आया था, लेकिन इस डर से कि कहीं वे मुझे खराब काबिलियत वाला न समझें, इसलिए मैंने झूठ बोला कि मुझे सब समझ आ गया। लेकिन, जब मैंने वास्तव में काम शुरू किया तो मुझे समझ नहीं आया कि परमेश्वर के किन वचनों को खोजना है। मैं बहुत ज्यादा घबरा गई, मेरे पसीने छूटने लगे और समझ ही नहीं आया कि करूँ तो क्या करूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मुझे शैतान ने बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। मैं अब भी शोहरत और हैसियत से बेबस हूँ। मैं अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर ईमानदार नहीं बन पा रही। विनती है कि अभ्यास का मार्ग खोजने में मेरी अगुआई करो।” परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा : “कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा प्रोन्नत किया जाता है और उनका संवर्धन किया जाता है, उन्हें प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका मिलता है। यह अच्छी बात है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे करना चाहिए? सबसे पहले जिस सिद्धांत का उन्हें पालन करना चाहिए, वह है सत्य को समझना—जब वे सत्य को न समझते हों, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर अपने आप खोजने के बाद भी वे इसे नहीं समझते, तो उन्हें संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, ‘धीमी गति से किए जाने वाले उपाय तात्कालिक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते।’ अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ तेजी से, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और संवर्धन के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह विवेक होना चाहिए। अगर पदोन्नत किए जाने और अगुआ या कार्यकर्ता बन जाने के बाद तुम अपना रुतबा दिखाना चालू करते हो और मानते हो कि तुम तुम सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान हो और तुममें सत्य वास्तविकता है—और अगर, चाहे भाई-बहनों को कोई भी समस्या हो, तुम दिखावा करते हो कि तुम उसे समझते हो, और कि तुम आध्यात्मिक हो—तो यह बेवकूफी करना है, और यह पाखंडी फरीसियों जैसा ही है। तुम्हें सच्चाई के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए। जब तुम्हें समझ न आए, तो तुम दूसरों से पूछ सकते हो या ऊपर वाले से संगति प्रदान करने की माँग कर सकते हो—इसमें कुछ भी शर्मनाक नहीं है। अगर तुम नहीं पूछोगे, तो भी ऊपर वाले को तुम्हारे वास्तविक कद का पता चल ही जाएगा, और वह जान ही जाएगा कि तुममें सत्य वास्तविकता नदारद है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए; यही वह विवेक है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है जिसका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने पर मुझे समझ आया कि कलीसिया ने उपदेशक के तौर पर मुझे चुना, ताकि मुझे अभ्यास का मौका मिले, और मैं अपने कर्तव्य में काम करने का तरीका सीख सकूँ। इसका मतलब यह नहीं था कि मैं दूसरों से बेहतर थी, या सर्वज्ञ थी। मैंने हाल ही में यह कर्तव्य निभाना शुरू किया था, और इसलिए यह पूरी तरह सामान्य था कि ऐसे बहुत-से काम थे जो मैं नहीं कर सकती थी और जिनके सिद्धांत मैं नहीं समझ सकी थी। और मैं अनुभवात्मक गवाहियां लिख सकती थी इसका मतलब सिर्फ इतना था कि मुझे परमेश्वर के वचनों का सतही अनुभव और समझ थी, यह नहीं कि मैं सत्य समझती थी या मुझमें इसकी वास्तविकता थी। मुझे अपनी कमियों और खामियों के साथ सही ढंग से पेश आना चाहिए, मुझे खुलने और खोजने व अपने भाई-बहनों के साथ संगति करने की आवश्यकता थी। इसमें शर्म की कोई बात नहीं थी। शर्म की बात तो यह है कि समझ न आने पर भी मैंने समझने का नाटक किया, जिसकी वजह से बहुत-सी समस्याएँ समय पर नहीं सुलझ पाईं और कलीसिया के काम में देरी हुई। मैंने बार-बार सत्य की खोज का अवसर भी खोया, और नकारात्मकता में जीती रही। मैं बहुत मूर्ख थी! इस तरह मैं आगे नहीं बढ़ सकती थी। मुझे अपने इरादे ठीक रखने थे, अपने भाई-बहनों के साथ खुलकर बात, संगति और खोज करते हुए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना था। इसके बाद, मैंने अगुआ से उन चीजों पर सलाह ली जिन्हें मैं नहीं समझती थी या जो मुझे स्पष्ट नहीं थी और उन्होंने पूरे धैर्य से मेरे साथ संगति की। मैं अब ज्यादा स्पष्टता से सोच रही थी। सभा भी बहुत प्रभावशाली रही, और मैंने भी बहुत सुकून महसूस किया और चैन की सांस ली।
अपना कर्तव्य निभाते हुए अब भी मेरे सामने बहुत-सी मुश्किलें और दिक्कतें आती हैं, लेकिन मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके उस पर भरोसा रखना सीख लिया है, अब मैं अक्सर अपने भाई-बहनों की मदद भी लेती हूँ। सभाओं में भी मैं भाई-बहनों से अपने बारे में खुलकर बात करती हूँ, उनसे अपनी भ्रष्टता और कमियाँ नहीं छुपाती। ऐसा करके, मैं सुकून और सुरक्षा महसूस करती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!
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