अहंकार को दूर करने से हम इंसानों की तरह जी सकते हैं

04 नवम्बर, 2020

मार्च 2017 में, फिल्म के पोस्टर और थंबनेल का काम देखने के लिए मैंने कलीसिया के लिए ग्राफिक डिज़ाइन का काम करना शुरू किया। शुरू में, मुझे तकनीकी चीज़ों की ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए मैं लगातार सिद्धांत और तकनीकी कौशल सीख रही थी। मैं शालीनता से भाई-बहनों से मदद माँगती और डिज़ाइनों में उनकी सलाह लेते समय सावधान रहती। कुछ समय बाद, काम के लिए ज़रूरी तकनीकी कौशल पर मेरी पकड़ आ गयी। इंटरनेट पर मेरे थंबनेल इस्तेमाल किये गए, और इसकी क्लिक थ्रू रेट भी अच्छी थी। एक डॉक्यूमेंट्री का पोस्टर ऐसा था जिसकी कई भाई-बहनों ने प्रशंसा की। बहुत-से तकनीकी मामलों में अब और भी लोग मुझसे सलाह लेने लगे, तो मुझे लगा ग्राफिक डिज़ाइन में मैं काफी प्रतिभाशाली हूँ। अनजाने में ही मैं अहंकारी हो गयी।

बाद में, जब मैं थंबनेल डिज़ाइन कर रही थी जो फिल्मी पोस्टरों से ज़्यादा आसान थे, तो लगा मुझमें अब इतना कौशल तो आ ही गया है कि मैं इन्हें फटाफट पूरा कर सकूँ। फिर मैं बिना ज़्यादा सोचे-समझे या बिना सिद्धांतों का पालन किए, अपने कौशल के आधार पर ही उन्हें बनाने लगी। इस रवैये के चलते, मुझे बताया गया कि डिज़ाइन की चमक और रंग, दोनों थीम से मेल नहीं खा रहे। मैंने न तो उनकी बात पर ध्यान दिया, न उसे स्वीकारा, सोचा, "तुम्हें कोई ढंग भी है? इसे कहते हैं शानदार क्रियेटिविटी। मैंने ये सब सोच लिया है और कोई दिक्कत नहीं है। तुम्हारे सुझाव नासमझी की देन हैं।" मैं अपनी बात पर अड़ी रही, बल्कि मुझे तो गुस्सा भी आ गया। मैंने कोई बदलाव नहीं किए। नतीजतन, डिज़ाइन के कुछ मसलों को लेकर मेरे कुछ थंबनेल अस्वीकार कर दिए गए। बाद में, सुनने में आया कि एक बहन मेरे आगे खुद को बड़ी बेबस महसूस करती है और मुझे सुझाव देने से डरती है। सुनकर मुझे बुरा लगा, लेकिन जो कुछ हुआ, उस पर मैंने कोई आत्म-मंथन नहीं किया।

जल्दी ही मैंने एक और फिल्मी पोस्टर के डिज़ाइन पर काम किया। फिल्म एक विश्वासी के बारे में थी जिसे पादरी और एल्डर भटकाते और नियंत्रित कर धार्मिक धारणाओं में बाँध दिया था, और इसी कारण से उसने परमेश्वर के नए कार्य को नकार दिया। लेकिन बाद में सत्य की खोज करने पर वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लेती है और परमेश्वर की रोशनी में रहने लगती है। मैंने इस थीम पर विचार किया और सोचा, "पोस्टर अंधेरे से शुरू होकर रोशनी में आना चाहिए—इससे बढ़िया आइडिया नहीं हो सकता।" मैंने संदर्भ के लिए ऐसा ही फिल्मी पोस्टर खोजने में बरसों लगा दिये। पोस्टर बनाने के बाद मैंने सोचा, वाकई बढ़िया बना है, किसी सुपर हिट फिल्म के पोस्टर की तरह दिखता है। मैं खुद ही अपनी पीठ थपथपा रही थी। एक बहन मेरा पोस्टर देखकर बोली : "यहाँ रंग ज़्यादा गहरा हो गया है। ज़्यादा डिटेलिंग भी नहीं है और बहुत फीका लग रहा है।" एक दूसरी बहन ने सुझाव दिया : "कुल मिलाकर काफी काला दिख रहा है, साफ नहीं है। इसमें एक उदासी-सी नज़र आ रही है। ये फिल्म परमेश्वर की गवाही देती है, इसलिए छवि बहुत अंधकारमय नहीं होनी चाहिए।" मैं उनकी बातों से, उनके विचारों से सहमत नहीं थी। मैंने सोचा, "मुझे तो ये बहुत बढ़िया लग रहा है। तुम्हें शेडिंग का कुछ पता तो है नहीं, मुझे सिखाने चली हो। क्या तुम मीन-मेख नहीं निकाल रही?" मैंने कहा : "तो क्या ये सही शेडिंग नहीं है? रोशनी और अंधेरे में कोई अंतर तो होना चाहिए। और फिर, ये फिल्म के पोस्टर के लिए है, इसलिए मैंने शेडिंग पर काम किया है। फिल्मी पोस्टर इसी ढंग से बनाए जाते हैं। इसमें कुछ गलत नहीं है।" फिर मैंने उन्हें उस फिल्मी पोस्टर की कॉपी भेज दी जिसका मैंने संदर्भ लिया था। मुझे हैरानी हुई, जब उन्होंने कहा कि मेरे पोस्टर में काले रंग वाला हिस्सा बहुत ज़्यादा है और ये संदर्भ वाले पोस्टर जितना सुंदर भी नहीं लग रहा। मैं उनकी इस बात को सुनकर नहुत नाराज़ हो गयी और सोचने लगी, "ये मत भूलो कि तुम हमेशा शेडिंग पर सलाह लेने मेरे पास ही आती हो। तुम्हें उसका बुनियादी ज्ञान भी नहीं है। और मुझे सिखा रही हो कि कैसे करना है। मछली को तैरना सिखाओगी?" अपनी बात को साबित करने के लिए, मैंने अपना डिज़ाइन किया हुआ चित्र दूसरे भाई-बहनों को भेजा, लेकिन उन्होंने भी उसे काफी अंधकरमय बताया। आखिर मुझे मन मसोसकर डिज़ाइन बदलना पड़ा। मुझे अभी भी यही लग रहा था कि मेरा आइडिया सही है, और शेडिंग जैसी होनी चाहिए वैसी है, तो मैंने थोड़ा-बहुत बदलाव कर दिया, लेकिन वो फिर भी स्वीकार नहीं हुआ। परिणाम ये हुआ कि जिस चित्र पर सिर्फ एक हफ्ता लगना चाहिए था, उसमें एक महीना लग गया। आखिरकार डिज़ाइन संबंधी समस्याओं के कारण वो आइडिया छोड़ दिया गया। ये मेरे मुँह पर एक तमाचे जैसा था। मैं निराश हो गयी और मेरा जोश खत्म हो गया, मैं संगति में किसी से खुलकर बात नहीं करना चाहती थी। मैं दर्द से भरे अंधेरे कोने में सिमट गयी थी। फिर मुझे टीम की अगुआ ने याद दिलाया कि हाल ही का मेरा कोई भी डिज़ाइन सही नहीं था, और मुझे तुरंत परमेश्वर के समक्ष आत्म-चिंतन करना चाहिए। तब मैंने परमेश्वर के समक्ष आकर आत्मचिंतन किया और मुझे इस समस्या से जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन मिले।

एक दिन भक्ति में मैंने ये वचन पढ़े : "जब तुम पर समस्याएँ आ पड़ें, तो तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए, यह सोचकर कि 'मैं सिद्धांतों को समझता हूँ, और मेरा कहना ही अंतिम है। तुम लोग बोलने के लायक नहीं हो। तुम लोग जानते क्या हो? तुम लोग नहीं समझते; मैं समझता हूँ!' यह दंभी होना है। दंभी होना भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव है; यह सामान्य मानवता के दायरे में नहीं आता।" "अगर तुम हमेशा दंभी बने रहते हो और यह कहकर अपने ही तौर-तरीक़ों पर ज़ोर देते हो, 'मैं किसी की बात नहीं सुनूँगा। अगर मैं ऐसा करूँगा भी, तो यह केवल दिखाने के लिए करूँगा—मैं नहीं बदलूँगा। मैं अपने ढंग से ही काम करूँगा; मुझे लगता है कि मैं सही हूँ और पूरी तरह उचित हूँ,' तो क्या होगा? तुम सही हो सकते हो और संभव है, तुम जो करते हो उसमें कोई दोष न हो; हो सकता है तुमने कोई ग़लती न की हो और किसी मुद्दे के तकनीकी पहलू की तुम्हारी समझ दूसरों से बेहतर हो, परंतु जब तुम इस ढंग से व्यवहार और आचरण करते हो, तो दूसरे इसे देखेंगे और कहेंगे : 'इस व्यक्ति का स्वभाव अच्छा नहीं है! जब समस्याएँ आ पड़ती हैं, तो यह किसी भी दूसरे व्यक्ति की कोई बात, चाहे वह सही हो या ग़लत, स्वीकार नहीं करता। यह सब प्रतिरोध है। यह व्यक्ति सत्य स्वीकार नहीं करता।' और यदि लोग कहते हैं कि तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो परमेश्वर क्या सोचेगा? क्या परमेश्वर तुम्हारी ये अभिव्यक्तियाँ देखने में सक्षम है? परमेश्वर उन सबको स्पष्ट रूप से देख सकता है। परमेश्वर न केवल मनुष्य के सबसे गहरे अंतर्मन की थाह लेता है, बल्कि तुम किसी भी समय और किसी भी स्थान पर जो कहते और करते हो, उस सब पर भी दृष्टि रखता है। और जब वह यह सब देखता है, तो क्या करता है? वह कहता है : 'तुम कठोर हो। इस प्रकार तुम ऐसी स्थितियों में हो जहाँ तुम सही हो, और तुम ऐसी स्थितियों में भी हो जहाँ तुम ग़लत हो। सभी स्थितियों में तुम्हारे सभी प्रकाशन और अभिव्यक्तियाँ विपरीत और विरोधात्मक हैं। तुम दूसरों के विचार और सुझाव ज़रा भी स्वीकार नहीं करते। तुम्हारे हृदय के भीतर केवल अंतर्विरोध, अवरोध और अस्वीकार है। तुम अत्यंत दुःसाध्य हो!'" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अगर तुम हमेशा परमेश्‍वर के समक्ष नहीं रह सकते तो तुम अविश्‍वासी हो')। परमेश्वर हमारे दिल और मन में झाँकता है। इन वचनों ने मेरी स्थिति को पूरी तरह से उजागर कर दिया। मैं अहंकार का शैतानी स्वभाव दिखा रही थी। जब मेरे पोस्टर भाई-बहनों की स्वीकृति और प्रशंसा पा रहे थे, तो मैं उसे अपना कौशल समझकर सोचती थी कि मेरे डिज़ाइन और ज्ञान का सानी कोई नहीं है। जब दूसरों ने सुझाव देने शुरू किए, तो मैंने उन्हें नकार दिया, सोचा उन्हें समझ नहीं है। जब कई लोगों ने वही सुझाव दिए, तो भी मैं अड़ी रही। मैंने उनकी बात मानने का नाटक किया, लेकिन असलियत में मैं अपनी बात से ही चिपकी रही। जो मुझे ठीक लगा, मैंने मान लिया और जिससे मैं सहमत नहीं थी, उसे ठुकरा दिया। लोगों से बहस करने के मेरे पास हज़ार बहाने थे, मैं तो अपना आपा भी खो बैठती थी। ऐसे ही एक बहन को तो मैंने खामोश ही कर दिया था। मुझे एहसास हुआ कि मैं हद दर्जे की अहंकारी हूँ। एकदम विवेकहीन! मैं इतनी अहंकारी और दंभी थी कि मैं किसी के सुझाव लेना नहीं चाहती थी। मुझे न केवल लगातार बदलाव करने पड़े, जिससे कार्य बाधित हुआ, बल्कि मेरी स्थिति भी खराब हुई। नाकामी झेले बिना, मैं कभी भी परमेश्वर के सामने आत्म-चिंतन न कर पाती, न खुद को जान पाती। अगर मैं खुद को न बदलती, और अपने अहंकारी स्वभाव में ही जीती रहती, तो लोग मुझे नकार देते और परमेश्वर को मुझसे नफ़रत होती। मुझे पछतावा हुआ और मैं डर गयी। मैंने तुरंत परमेश्वर के आगे प्रायश्चित किया।

मैंने टीम की बहनों से अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात की और उन्हें बताया कि मैं कोई भी सुझाव मानने और निपटाए जाने के लिए तैयार हूँ। उसके बाद मेरे काम में, भाई-बहनों ने ढेरों सुझाव देने शुरू कर दिए, शुरू-शुरू में मेरे लिए उन्हें स्वीकारना काफी मुश्किल था। लेकिन जब मैं अपनी हाल ही की नाकामियों को याद करती, तो प्रार्थना करके मैं खुद को एक किनारे कर पाती थी। मैं सोचती रहती थी कि उन्होंने ऐसा सुझाव क्यों दिया, इससे क्या हासिल हो सकता है, और समस्या आखिर है कहाँ। फिर मैं सिद्धांतों के आधार पर इन पर विचार करने लगी। इस नए नज़रिए से दूसरों के सुझावों को समझना और स्वीकारना आसान हो गया और डिज़ाइन में मेरे द्वारा लिए गए बदलाव स्वीकृत होने लगे। मैंने ये भी जाना कि सत्य का अभ्यास कितना अच्छा होता है। लेकिन मेरा अहंकारी स्वभाव मेरे अंदर गहराई तक समाया हुआ था, इसलिए नाकामी के एक अनुभव से इसे उखाड़ फेंकना संभव नहीं था।

कुछ समय बाद मेरे अहंकार ने फिर सिर उठा लिया। एक बार मैंने कलीसिया के भजनों के लिए एक थंबनेल डिज़ाइन किया। मैंने सोचा, भजनों में भाई-बहन परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके उसकी स्तुति कर रहे हैं, तो ये बड़ा ही स्नेहपूर्ण, प्रेमपूर्ण और सुंदर एहसास होना चाहिए। मैंने रंगों का जो सिद्धांत सीखा था, उसके अनुसार बैंगनी रंग उस तरह की भावना को व्यक्त करता है जिसका अर्थ भी गरिमापूर्ण होता है। मुझे लगा बैंगनी रंग को मूल रंग की तरह इस्तेमाल करना गलत नहीं हो सकता। जब मैंने अपना प्रॉजेक्ट पूरा कर लिया, तो कुछ भाई-बहन बोले कि उन्हें मेरा आइडिया पसंद आया, रंगों का मेल सुंदर है। मैं अपने काम से खुश हो गयी और सोचा मेरे अंदर काबिलियत और डिज़ाइन की योग्यता तो है। मुझे हैरानी तब हुई जब एक नई बहन ने ये कहते हुए डिज़ाइन के लिए मुझे सुझाव भेजे, "कलीसिया के भजन, भाई-बहनों के सच्चे अनुभव हैं और उनकी समझ हैं। बैंगनी रंग का इस्तेमाल एकदम सपने जैसा लगता है जो ठीक नहीं है। ये आंखों में चुभता है। मुझे लगता है इसे बदलना चाहिए।" मैंने उसका सुझाव पढ़ तो लिया, लेकिन अंदर एक प्रतिरोध था। मैंने सोचा, "मैंने बहुत-सी प्रशिक्षण सामग्री पढ़ी है जिसमें बैंगनी रंग को प्रेमपूर्ण भावनाओं का प्रतीक बताया गया है। इसके अलावा, ऐसे बहुत से डिज़ाइन हैं जिनमें इसी तरह से बैंगनी रंग का प्रयोग किया गया है। तुम ऐसा क्यों कहती हो कि ये आँखों में चुभता है? और फिर, तुमने तो अभी शुरुआत ही की है, खुद शायद ही कुछ डिज़ाइन किया हो, और मुझे सुझाव देने चली आयी। तुम्हें अपनी हद का भी पता नहीं।" लेकिन उसकी बात का पूरी तरह से खंडन करना भी ठीक नहीं लग रहा था। मैंने कहा कि मैं औरों से भी सुझाव लूँगी, और इस तरह उसे टाल दिया। उसके बाद मैंने इस पर और किसी की राय नहीं ली। मैंने उसकी उपेक्षा कर दी।

कुछ दिन बाद, एक दूसरी बहन ने भी मुझे वही सुझाव देते हुए कहा कि मेरा रंग मायूसी की भावना जगाता है, मुझे इसे बदल देना चाहिए। तभी मुझे टीम की अगुआ ने समझाया कि मुझे इतना अड़ियल होने के बजाय दूसरों के सुझाव मान लेने चाहिए। इस बार मेरी हिम्मत नहीं थी कि अपनी बात अड़ी रहूँ इसलिए मैंने कुछ बदलाव किए। लेकिन मैं वो बैंगनी डिज़ाइन छोड़ना नहीं चाहती थी। मैंने सोचा, "बैंगनी रंग इतना बुरा भी नहीं है। कुछ लोगों को बैंगनी रंग पसंद आया, तो मैं इसे क्यों बदलूँ?" इस ढंग से सोचने पर मुझे बदलाव करने में तकलीफ हो रही थी। कई कोशिशें कीं, लेकिन कुछ जमा नहीं। एक बदलाव करते वक्त मुझसे थोड़ी गलती हो गयी, घंटों लगाकर भी मैं उसे ठीक नहीं कर पायी। मैं बहुत मायूस और बेचैन हो गयी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था और मैं सबकुछ छोड़ देना चाहती थी। सोचने लगी, किस तरह मैंने उस एक चित्र के संशोधन में पूरा महीना लगा दिया था, और लोगों ने कितने सारे सुझाव दे डाले थे। उसके बावजूद अब तक पूरा नहीं हुआ, जिससे काम रुका हुआ था। मैं परेशान हो गयी। मुझे याद आया, किस तरह मैंने अपने अहंकार के कारण काम को अटका दिया था और सुझाव को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। मैं अब भी अहंकारी होकर दूसरों के सुझाव नकार रही थी। क्या यह वही पुरानी समस्या नहीं थी? मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मेरा अहंकारी स्वभाव वाकई बहुत गंभीर है। मैं इस स्थिति में खुद को समर्पित नहीं कर पा रही हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो और राह दिखाओ ताकि तुम्हारी इच्छा को समझूँ, खुद को जानकर इस स्थिति से उबर सकूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्‍वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित हो सकते हो, सत्य को प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो" (परमेश्‍वर की संगति)। इससे मुझे समझ आया कि अहंकार ही परमेश्वर-विरोध की जड़ है। अपने अहंकारी स्वभाव के वश में होकर, मैं हमेशा खुद को सही मानती रही, जैसे मेरा नज़रिया ही सही हो, मानो वे अधिकारपूर्ण हों। सत्य खोजने या परमेश्वर को समर्पित होने की मेरी कोई ख्वाहिश नहीं थी। मुझे बस किसी का सुझाव नहीं मानना था। खास तौर से जब कोई मेरे जितना काबिल नहीं हो या तकनीकी पहलुओं से अनजान होकर भी सुझाव देता हो, तो मैं बहुत विरोध करती थी। दिखाती तो यूँ थी जैसे मैंने मान लिया हो, लेकिन असलियत में मैं उनके सुझावों को गंभीरता से नहीं लेती थी। परमेश्वर ने दूसरों के ज़रिये बार-बार मुझे चेताया कि अपनी इच्छा को अलग रखूँ, कलीसिया के काम पर ध्यान दूँ, कोशिश करूँ, खोजूँ और जो बेहतरीन है, उसे बनाऊँ। लेकिन मैं तो बेहद अड़ियल और दंभी थी। अपने ही आइडिया और अनुभव को सही मानती, और जब दूसरों के सुझाव पसंद नहीं आते, तो अपनी बात पर अड़ जाती। इन सबसे परमेश्वर के घर के काम में बाधा पहुँचती। फिर मुझे परमेश्वर के ये वचन समझ आने लगे : "अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं।" "लोग जितने ही ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्‍वर का प्रतिरोध करेंगे।" मुझे परमेश्वर के इन वचनों पर यकीन हो गया। थोड़ा डर भी लगा। इससे मुझे कलीसिया में मसीह-विरोधियों की याद आ गयी। वो लोग अहंकारी और तानाशाह थे, दूसरों के कोई सुझाव नहीं मानते थे। वे लोगों पर बरस पड़ते और उन्हें अलग-थलग कर देते, इससे परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा पहुँचती और उसके स्वभाव का अपमान होता। परमेश्वर ने उन सबको निकाल दिया। मेरा अपराध उन मसीह-विरोधियों जैसा नहीं था, लेकिन मेरा स्वभाव आखिर उनसे अलग कहाँ था? तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने खुद में सुधार नहीं किया, तो नतीजे बहुत गंभीर होंगे। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और प्रायश्चित को तैयार हो गयी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश पढ़े : "अब इसे देखते हुए, क्या किसी के लिए अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का एक भाव रखने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम अपने आप को कितना भी शिक्षित मानो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कितनी भी उपलब्धियाँ हों, और चाहे तुम अपनी योग्यता और दर्जे को कितना भी ऊँचा मानते हो, तुम्हें इन सभी चीज़ों को छोड़ने से शुरुआत करनी होगी, क्योंकि उनका कोई मोल नहीं है। चाहे वे चीज़ें कितनी भी महान और अच्छी हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से अधिक नहीं हो सकती हैं; वे चीज़ें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि तुम्हारे पास समझ नाम की चीज़ होनी चाहिए। यदि तुम कहते हो, 'मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज़ दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरे पास एक बहुत अच्छी स्मरण-शक्ति है,' और तुम हमेशा इन चीज़ों का पूंजी की तरह उपयोग करते रहते हो, तो यह परेशानी खड़ी करेगा। यदि तुम इन चीज़ों को सत्य के रूप में, या सत्य से अधिक मानते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को स्वीकार करना और इसे व्यवहार में लाना कठिन होगा। दम्भी, घमंडी लोगों के लिए जो हमेशा श्रेष्ठतर होने का अभिनय करते हैं, सत्य को स्वीकार करना सबसे कठिन होता है और उनके गिर पड़ने का खतरा सबसे अधिक होता है। यदि कोई अपने अहंकार के मुद्दे को हल कर सकता है, तो सत्य को व्यवहार में लाना आसान हो जाता है। इस प्रकार, तुम्हें सबसे पहले उन चीज़ों को नकारना और उनसे इनकार करना होगा जो सतह पर अच्छी और बुलंद लगती हैं और जो दूसरों की ईर्ष्या को उकसाती हैं। वे बातें सत्य नहीं हैं; बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। उसके बाद मुझे समझ आ गया कि अगर अपना अहंकारी स्वभाव दूर करना है, तो मुझे खुद को नकारना और दरकिनार करना होगा। इंसानी कौशल, योग्यता, अनुभव और हुनर चाहे कितने भी अद्भुत क्यों न हों, लेकिन सत्य नहीं हैं। ये महज़ साधन है जिससे हम अपने काम कर सकें। हमें इनसे फायदा नहीं उठाना चाहिए। सत्य खोजना, सिद्धांतों के आधार पर काम करना, लोगों के साथ मिलकर काम करना, और दूसरों से सीखना, यही सबसे अहम है। अच्छे से कर्तव्य निभाने का यही सही तरीका है। फिर मैंने कुछ बेहतर पोस्टरों पर नज़र डाली जो मैंने पहले डिज़ाइन किए थे, तो मुझे अपने मूल चित्रों की संकल्पना, शेडिंग, रंग और संयोजन में साफ गलतियाँ नज़र आयीं। लेकिन भाई-बहनों से मिले सुझावों के आधार पर जब मैंने उनमें बदलाव किया तो, उनमें काफी सुधार हुआ, कुछ का तो पूरी तरह से कायापलट ही हो गया। ये देखकर मुझे बहुत शर्म आयी। मुझे लगता था कि अपने काम में मुझे जो कामयाबी मिली है, और लोगों से मैंने जो प्रशंसा पायी है, वह मेरे तकनीकी कौशल और ज़्यादा अनुभव का परिणाम है। मैंने दूसरों के सुझाव न मान कर अपने अनुभव पर निर्भर रहना चाहा। लेकिन मेरे डिज़ाइनों की कामयाबी के पीछे की सच्चाई ये है कि मैंने सत्य के सिद्धांतों का पालन किया था और लोगों के सुझाव स्वीकार किए थे। वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और प्रबोधन से बने थे, लोगों के साथ मिल-जुलकर और भाई-बहनों के साथ विनम्र व्यवहार से बने थे। जब मैं अपने तकनीकी कौशल को ही सबकुछ मानने लगी और मैंने सत्य के सिद्धांतों पर चलना या दूसरों के सुझाव मानना बंद कर दिया तो, मेरे चित्र अच्छे नहीं बने, और इससे कलीसिया के काम में भी बाधा पहुँची। अपने अहंकारी और दंभी तरीके के बारे में सोच-सोचकर मुझे खुद पर शर्म आने लगी। ज़ाहिर है कि मुझमे कुछ खास नहीं था। मैंने डिज़ाइन के समंदर में से एक बूँद ही पायी थी, एक पेशेवर डिज़ाइनर बनने से अभी मैं कोसों दूर थी। लेकिन मैं अभी भी इतने आत्मविश्वास और अहंकार से भरी थी। मैं बेहद ढीठ थी। ये एहसास होते ही, मैंने प्रार्थना की और अपने विचारों को त्याग दिया। मैंने दूसरों के सुझाव स्वीकार किए, और विचार किया कि किस तरह से बदलाव किए जाएँ ताकि काम अच्छा हो। न केवल इससे समस्या हल हो गयी बल्कि मुझे बेहतर रंग भी मिल गया। मैंने तुरंत ही डिज़ाइन में बदलाव किए, भाई-बहनों ने कहा कि बदलावों के बाद डिज़ाइन बहुत अच्छा लग रहा है। यह देखकर मुझे बड़ी शर्म आयी। डिज़ाइन में इतने सारे बदलावों की वजह सिर्फ मेरा अहंकार था, एक तो हमारा कीमती समय बर्बाद हुआ, दूसरा, लोगों को परेशानी हुई। परमेश्वर के घर के कार्य में भी बहुत बाधा आयी। मेरे कौशल में तो ठहराव आया ही, मेरे जीवन प्रवेश को भी आघात पहुँचा। मैंने जाना कि मेरे अहंकारी स्वभाव ने मेरा नुकसान करने के अलावा कुछ नहीं किया। मैं बेहद पछतायी और मन ही मन संकल्प किया : "भविष्य में चाहे जैसा भी सुझाव आए, मैं खुद को अलग रखकर, सत्य खोजूँगी, और पहले परमेश्वर के घर के हितों को पहले रखूंगी। अब मैं अहंकार में जीती नहीं रह सकती।"

हाल ही में मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ वाले वीडियो का एक थंबनेल डिज़ाइन किया, जब मैंने उसका पहला ड्राफ्ट, जिसमें परमेश्वर के वचन थे, भाई-बहनों को दिखाया तो, वे बोले कि इसका ग्लोब चित्र काफी बड़ा और जगह न होते हुए भी बीच में रखा हुआ लग रहा है, जिससे चित्र में खुलापन नहीं दिख रहा। उन्होंने मुझे संदर्भ के लिए कुछ चित्र भेज दिए ताकि सुधार किया जा सके। मैंने सोचा, "सही प्रभाव के लिए ग्लोब का आकार इतना ही बड़ा होना चाहिए, तुम लोगों को पेशेवर ग्राफिक डिज़ाइन का न तो कोई अनुभव है, न ही व्यवहारिक ज्ञान। इस काम में मैं ज़्यादा कुशल हूँ। तुम्हारे सुझावों में मुझे कोई खास दम नज़र नहीं आ रहा।" मैंने उनके सुझावों पर एक सरसरी नज़र डाली और अपनी राय पर ही टिकी रही। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरा अहंकार फिर सिर उठा रहा है। मैंने शांति से न तो उनके सुझावों पर विचार किया, न ही अंतिम परिणाम पर। मैं तो बस आँख मूंदकर आलोचना कर रही थी और ये बात परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं थी। मैंने तुरंत मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की ताकि मैं सत्य का अभ्यास और अपनी दैहिक कामनाओं का त्याग कर सकूँ। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश पढ़े : "पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह, सर्वप्रथम, एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य की खोज करने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्‍वर की इच्‍छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्‍हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम प्रार्थना करते हो। चूँकि तुम सही और ग़लत का भेद नहीं जानते, इसलिए तुम परमेश्वर को अवसर देते हो कि वह तुम्‍हें उजागर करे और बताए कि करने लायक सबसे श्रेष्‍ठ और सबसे उचित कर्म क्‍या है। जैसे-जैसे संगति में हर कोई शामिल होता है, पवित्र आत्‍मा तुम सभी को प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को एक प्रक्रिया के अनुसार प्रबुद्ध करता है, जो कभी-कभी मात्र तुम्हारे रवैये की परख करती है। यदि तुम्हारा रवैया कठोर स्वाग्रह का रवैया है, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम पर अपना दरवाजा बंद कर देगा; वह तुम्हें उजागर करेगा और तुम्हारा दीवार से टकराना सुनिश्चित करेगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह दंभी, मनमाना और अंधाधुंध रवैया है, बल्कि सत्य की खोज और उसे स्वीकार करने का रवैया है, तो समूह के साथ संगति करने पर और पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करने पर संभवतः वह तुम्हें किसी के वचनों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा" (परमेश्‍वर की संगति)। उसके बाद मैं समझ गयी कि मेरे काम के दौरान दूसरों के सुझाव परमेश्वर की इच्छा से ही आते हैं। परमेश्वर हमारी हर सोच और कर्म पर नज़र रखता है, इसलिए मुझे सत्य का अभ्यास कर, परमेश्वर की छानबीन को स्वीकारना चाहिए। चीज़ें जैसी दिखती हैं, उन्हें उस ढंग से न लेकर, मुझे लोगों की कार्यकुशलता की समझ की आलोचना नहीं करनी चाहिए। भले ही मेरा ज्ञान ज़्यादा हो, मेरा आइडिया कितना भी अच्छा हो, लेकिन मुझे अहंकार को दबाकर, अपने विचारों को दरकिनार कर, सत्य के सिद्धांतो को खोजना चाहिए, और वही करना चाहिए जो सबसे प्रभावी हो। भले ही अंत में मैं ही सही निकलूँ, लेकिन कम से कम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सत्य की खोज और उसका अभ्यास तो कर पाऊँगी। यह तो अनमोल है। परमेश्वर को मेरे शैतानी स्वभाव से घृणा थी जो उसके प्रति शत्रुतापूर्ण थे, इसलिए मेरा अहंकार-प्रदर्शन गलती करने से भी बदतर था। मैंने विचार किया कि किस तरह मेरे अहंकार ने परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डाली थी और मुझे सचमुच लगा कि इतना अड़ियल नहीं होना चाहिए था। मुझे शांति से दूसरों के सुझाव मानकर डिज़ाइन को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए। उसके बाद, मैंने दूसरों के सुझावों को गंभीरता से लिया, और संदर्भ के तौर पर जो चित्र उन्होंने मुझे भेजे थे उनमें से मुझे एक ऐसा चित्र मिला जिससे मैं सीख सकती थी। इस बार मैंने टीम के सदस्यों से चर्चा की, हर कोई इस बात पर सहमत था कि सुझाव के मुताबिक बदलाव करना चाहिए। मैंने डिज़ाइन के साथ-साथ कुछ और चीज़ों पर फिर से काम किया जो तुरंत पूरा हो गया। मुझे ऐसा लगा जैसे ये सब परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन से हुआ है। हालाँकि कुछ और सुझाव भी आए, उन्हें मैंने ठीक से देखा-भाला और किसी तरह का कोई विरोध नहीं किया। परमेश्वर की गवाही देने के लिए जितनी बार ज़रूरी हो, मैं उतनी बार उसमें बदलाव करने को तैयार थी। कुछ संशोधनों के बाद ही, सबने डिज़ाइन की तारीफ की और अन्य कोई सुझाव नहीं दिए। मैंने देखा कि इस तरह से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना कितना अच्छा है।

अनुशासित किए जाने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, आखिरकार मुझे समझ आ गया और मुझे अपने अहंकारी शैतानी स्वभाव से नफरत हो गयी। मैंने जाना कि सत्य को खोजना और स्वीकारना कितना ज़रूरी है। अब मैं पहले जितनी अहंकारी नहीं रही, दूसरों के सुझाव भी स्वीकारती हूँ। मेरे इस बदलाव का सारा श्रेय परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और अनुशासन को जाता है।

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