मेरे दिल पर भावनाओं का धुंधलका छा गया
मई 2017 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। जब मेरे पति ने देखा कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद कैसे मेरी बीमारी ठीक हो गई और मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाया, तो वे भी परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर अपना कर्तव्य निभाने लगे। बाद में, उनकी पीठ में होने वाला तेज दर्द भी धीरे-धीरे खत्म हो गया और वे अपने कर्तव्य में ढेर सारी ऊर्जा लगाने में सक्षम हो गए। कलीसिया उनसे जो कुछ भी कहती, वे उसे पूरा करने में अपना सब-कुछ लगा देते, और अक्सर उत्साहपूर्वक भाई-बहनों की मदद करते। मुझे लगता, मेरे पति एक वास्तविक खोजी हैं, और मैं सपना देखती कि साथ मिलकर अपनी आस्था का अभ्यास करना, परमेश्वर का अंत तक अनुसरण करना और राज्य में प्रवेश करना कितना अच्छा होगा।
लेकिन चीजें उतनी आदर्श नहीं थीं, जितनी मैं समझती थी। मार्च 2021 में, जीवन-अनुभव की कमी होने और व्यावहारिक कार्य न कर पाने कारण मुझे प्रचारक के पद से बर्खास्त कर दिया गया। यह देख मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे पति ने मेरी बर्खास्तगी पर बहुत तीखी राय दी। उन्होंने कहा : "इन दो वर्षों में तुमने खुद को अपने कर्तव्य में उँड़ेल दिया और घर के काम अकेले मुझे देखने पड़े। अगर इतना त्याग करने पर भी तुम्हें बर्खास्त कर दिया गया, तो मैं यकीनन कभी विश्वासी नहीं बनूँगा। मैं अपना विश्वास त्यागता हूँ!" मैंने उनके साथ संगति की और समझाया कि कैसे कलीसिया ने मुझे सिद्धांत के अनुसार बर्खास्त किया है और कैसे हमें इसके प्रति सही रवैया रखते हुए परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए। मैंने उन्हें यह भी बताया कि बर्खास्त होने का मतलब यह नहीं कि मैंने बचाए जाने का मौका खो दिया है, और अगर मैंने सत्य की खोज की, तो अभी भी आशा है। लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी और मुझे अनदेखा कर दिया। अगले महीने वे न तो सभाओं में गए, न ही अपना कर्तव्य निभाया। उन्होंने परमेश्वर के वचन भी नहीं पढ़े, परमेश्वर से प्रार्थना भी नहीं की। इस दौरान, अगुआ कई बार उनके साथ संगति करने आई, लेकिन उन्होंने उसे अनदेखा कर दिया। बाद में, उन्होंने अगुआ को संगति करते सुना कि कैसे परमेश्वर का कार्य लगभग समाप्त हो गया है, सभी प्रकार की आपदाएँ तीव्र हो रही हैं, और अगर हमने आस्था का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं सँजोया, तो पश्चात्ताप में बहुत देर हो चुकी होगी, जब आपदाएँ पहले ही आ चुकी होंगी। तब जाकर वे माने और उन्होंने सभाओं में भाग लेना और अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया। मुझे बड़ी राहत मिली—मैंने सोचा कि अगर वे सभाओं में भाग लेते, अपना कर्तव्य निभाते और सत्य की खोज करते हैं, तो अभी भी उनके बचाए जाने की आशा है।
पहले फिर भी उनमें कुछ उत्साह रहता था और वे अपने कर्तव्य में काफी सक्रिय रहते थे। वे उस समय एक सिंचन-उपयाजक थे और दूसरों के साथ सभाओं में समय पर भाग लेते थे। कभी-कभी, जब कलीसिया को सामान्य मामले सँभालने में मदद की जरूरत होती, तो वे कष्ट उठाकर कार्य में त्याग करने में सक्षम रहते। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चला : कुछ महीने बाद, मेरे पति के भतीजे को अचानक कोई दुर्लभ बीमारी हो गई, लेकिन जब वे मदद करने अपने भाई के घर गए, तो उन्होंने अपने कर्तव्यों से किनारा कर लिया और कई सभाओं में नहीं गए, जिसका मतलब था कि कई समूहों के भाई-बहनों का सिंचन करने वाला वाला कोई नहीं रहा। मैंने उनके साथ संगति की कि कैसे हमें अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए और दैहिक मामलों पर ज्यादा समय नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि इससे हमारे कर्तव्य प्रभावित होंगे, हमारे जीवन-प्रवेश में देरी होगी। भाई-बहनों ने उनके साथ संगति की, लेकिन वे नहीं माने। फिर एक दिन वे परेशानी की हालत में घर आए और बोले कि सड़क पर चलते वक्त वे एक कार की चपेट में आकर मरते-मरते बचे हैं, और परमेश्वर ने ही उन्हें बचा लिया। इसके बाद उन्होंने फिर से सभाओं में जाना शुरू कर दिया। लेकिन यह बस अस्थायी था। जैसे ही उनके भाई ने उन्हें फिर से मदद करने के लिए कहा, उन्होंने सभाओं में जाना और अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया। यह देखकर कि वे अपने कर्तव्य में जिम्मेदार नहीं हैं और कई संगतियों के बाद भी उन्होंने अपना व्यवहार नहीं सुधारा, उच्च अगुआओं ने उन्हें उनके समग्र प्रदर्शन के आधार पर उनके पद से बर्खास्त कर दिया। बर्खास्त होने के बाद उन्होंने सभाओं में भाग लेना बंद कर दिया और रोज अपने भाई की मदद करने जाने लगे। भाई-बहनों ने कई मौकों पर उनके साथ संगति की, लेकिन मौखिक सहमति देकर भी वे अंततः सभाओं में शामिल नहीं हुए। उन्हें ऐसा करते देखकर मैं बहुत परेशान हो गई। मुझे चिंता हुई कि अगर उन्होंने आस्था का अभ्यास नहीं किया, तो वे आपदाओं में फँस जाएँगे और दंडित किए जाएँगे। मैंने उनसे पूछा कि वे सभाओं में क्यों नहीं जाते, तो मुझे हैरान करते हुए उन्होंने कहा : "हमारे परिवार के कई सदस्य परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन परमेश्वर ने मेरे भतीजे को इस गंभीर बीमारी से नहीं बचाया...।" तब कहीं अचानक मुझे एहसास हुआ कि वे अपने भतीजे की स्वास्थ्य-रक्षा न करने के लिए परमेश्वर को दोष देते हैं। यह देखकर कि मेरे पति की अपनी आस्था में यह भ्रामक धारणा है और वे केवल अनुग्रह पाना चाहते हैं, मैंने उनके साथ संगति की : "हमें केवल आशीष और अनुग्रह पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए। हमें सत्य खोजना और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए।" मैंने उनके साथ कई बार संगति की, लेकिन वे हमेशा बहुत प्रतिरोधी और क्षुब्ध रहते। मैंने मन ही मन सोचा : "ये सत्य नहीं स्वीकारते और किसी गैर-विश्वासी की तरह बात करते हैं।" लेकिन फिर मैंने सोचा : "शायद ऐसा इसलिए है, क्योंकि इनकी आस्था नई है और ये सत्य नहीं समझते। मुझे इनकी और मदद करने की कोशिश करनी चाहिए।" लेकिन मैंने चाहे जैसे भी उनके साथ संगति की, उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। कुछ दिनों बाद एक उच्च अगुआ स्वच्छता का कार्य करने के लिए आए। हमारे लिए गैर-विश्वासियों, मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों को पहचान कर उनके मूल्यांकन एकत्र करना और फिर उन्हें स्वच्छ या निष्कासित करना जरूरी हो गया। पहचाने गए लोगों में मेरे पति भी थे। अपने समग्र व्यवहार के संबंध में, वे परमेश्वर पर अपनी आस्था में केवल आशीष पाने की कोशिश करते और परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ बनाते, चीजें अपने मुताबिक न होने या परमेश्वर का अनुग्रह न मिलने पर सभाओं में भाग लेने और अपना कर्तव्य निभाने से इनकार करते थे। उन्हें एक गैर-विश्वासी के रूप में आँका गया, जो "भरपेट रोटियाँ खाकर संतुष्ट रहना" चाहता है। मैं घबराने लगी : "क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे मेरे पति को बाहर निकालने जा रहे हैं? तब क्या वे बचाए जाने का मौका नहीं खो देंगे?" मैं इन तथ्यों को नहीं स्वीकार पाई और जवाबी तर्क सोचने लगी : "क्या इसमें तुम्हारी गलती नहीं है? वे आस्था में नए हैं और सत्य नहीं समझते। उन्होंने पहले अपने कर्तव्य पूरे किए थे, यह तो हमारे परिवार में कुछ होने पर वे अस्थायी रूप से कमजोर हो गए हैं। हमें उन्हें सहारा देकर उनकी मदद करनी चाहिए। शायद, अपनी हालत सुधरने पर वे सामान्य रूप से सभाओं में जाने लगें।" लेकिन मैं जानती थी कि स्वच्छता का कार्य परमेश्वर के घर के लिए बहुत अहम है। मैं उस समय कलीसिया-अगुआ थी, और इसे लागू करना मेरा कर्तव्य था, इसलिए मैं जानकारी देने पर सहमत हो गई। लेकिन, मैंने फिर भी उनकी मदद करने की योजना बनाई। मैं अक्सर उनके साथ संगति कर उनसे परमेश्वर के वचन पढ़ने और सभाओं में जाने का आग्रह करती, लेकिन वे मेरी बात न सुनते। कभी-कभी तो वे मुझ पर गुस्सा होकर मुझे चुप रहने को भी कह देते। कभी-कभी, जब मैं कलीसिया के काम में व्यस्त होती और घर के काम न कर पाती, तो वे मुझे फटकारते और मुझ पर चिल्लाते। मुझे उनसे बहुत निराशा हुई, ऐसा लगा, उनका वाकई कोई बचाव नहीं है। मैंने मदद करने की बहुत कोशिश की, फिर भी वे नहीं सुधरे।
एक दिन, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, जो गैर-विश्वासियों के व्यवहार को उजागर करता है। उसमें कहा गया था : "गैर-विश्वासियों के लक्षण क्या होते हैं? परमेश्वर में उनका विश्वास एक तरह से अवसर तलाशने, कलीसिया से लाभ पाने, आपदा से बचने, समर्थन पाने और एक स्थायी भोजन की व्यवस्था करने का तरीका मात्र होता है। उनमें से कुछ की राजनीतिक आकांक्षाएं भी होती हैं, ताकि सरकार में शामिल होकर कोई आधिकारिक पद मिल जाए। ऐसे लोग आखिर तक गैर-विश्वासी ही रहते हैं। परमेश्वर में उनकी आस्था में यह मंशाएँ और इरादे शामिल होते हैं, उनके मन में जरा-सा भी यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर का कोई अस्तित्व है। हालाँकि वे उसे स्वीकार करते हैं, लेकिन उनके मन में संदेह बना ही रहता है, क्योंकि उनका दृष्टिकोण ही नास्तिक होता है। वे केवल उन्हीं चीजों में विश्वास करते हैं जो उन्हें भौतिक दुनिया में दिखाई देती हैं। ... क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर सब पर शासन करता है इसीलिए वे कलीसिया में बड़ी बेशर्मी से और बेझिझक अपने कुटिल इरादे और मकसद लेकर घुसपैठ करने का दुस्साहस करते हैं। वे कलीसिया में अपनी प्रतिभा दिखाना चाहते हैं, अपने सपने साकार करना या ऐसा ही कुछ करना चाहते हैं—यानी वे कलीसिया में घुसपैठ करके वहाँ प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करना चाहते हैं, अपने इरादे पूरे करना और आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते हैं ताकि उनके भोजन की स्थायी व्यवस्था हो सके। उनके व्यवहार, स्वभाव और सार से देखा जा सकता है कि परमेश्वर में उनके विश्वास करने के लक्ष्य, मंशाएँ और इरादे अनुचित होते हैं। उनमें से कोई भी सत्य स्वीकार नहीं करता, अगर ऐसे लोग किसी तरह कलीसिया में प्रवेश कर भी जाएँ, तो कलीसिया को ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसका निहितार्थ यह है कि हो सकता है वे कलीसिया में घुसपैठ करने में कामयाब हो जाएँ, लेकिन वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं होते। 'परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं होते'—इस वाक्यांश की व्याख्या कैसे की जानी चाहिए? इसका अर्थ है कि परमेश्वर ने उन्हें पूर्वनियत कर उनका चयन नहीं किया है; वह उन्हें अपना कार्य और उद्धार पाने लायक नहीं समझता; न ही वह उन्हें ऐसे इंसान के तौर पर पूर्वनियत करता है जिन्हें वह बचाएगा। एक बार जब वे कलीसिया में घुस जाते हैं, तो हम स्वाभाविक रूप से उनके साथ अपने भाई-बहनों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते, क्योंकि वे वास्तव में सत्य नहीं स्वीकारते या परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित नहीं होते। कुछ लोग सवाल कर सकते हैं, 'जब वे परमेश्वर में वास्तव में विश्वास रखने वाले भाई-बहन नहीं हैं, तो फिर कलीसिया उन्हें हटाती या निष्कासित क्यों नहीं करती?' परमेश्वर की इच्छा यह है कि उसके चुने हुए लोग इन लोगों के माध्यम से पहचानना सीखें और शैतान के षड्यंत्रों को समझें और उसे नकारें। एक बार जब परमेश्वर के चुने हुए लोग पहचानने लगेंगे, तो इन गैर-विश्वासियों को भगाने का समय आ जाएगा। विवेकपूर्ण होने का लक्ष्य उन गैर-विश्वासियों को उजागर करना है जो अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ लेकर परमेश्वर के घर में घुस आए हैं, लक्ष्य उन्हें कलीसिया से बाहर निकालना है, क्योंकि वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, वे सत्य स्वीकारने और उसका अनुसरण करने वाले लोग तो बिल्कुल नहीं होते हैं। उनके कलीसिया में बने रहने से कुछ भी भला नहीं होता—बल्कि वे दुष्टता ही करते हैं। पहली बात तो यह कि कलीसिया में घुसपैठ करने के बाद, वे न तो परमेश्वर के वचन खाते और पीते हैं और न ही थोड़ा-भी सत्य स्वीकारते हैं; वे तो बस कलीसिया के काम में रुकावट डालने और उसे बाधित करने में लगे रहते हैं, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में अड़चन पैदा होती है। दूसरे, यदि वे कलीसिया में रहेंगे, तो अविश्वासियों की तरह अव्यवस्था फैलाएँगे। इससे कलीसिया के काम में गड़बड़ी और परेशानी पैदा होती है और कलीसिया में ऐसे अनेक खतरे उत्पन्न हो जाते हैं जो दिखाई नहीं देते। तीसरी बात, यदि वे कलीसिया में रहते हैं तो स्वेच्छा से सेवाकर्ता की तरह पेश नहीं आते, हालाँकि वे थोड़ी-बहुत सेवा करते हैं, लेकिन वह केवल आशीष प्राप्त करने के लिए होता है। अगर कभी ऐसा दिन आ जाए जब उन्हें पता चले कि वे आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, तो वे गुस्से से पागल होकर कलीसिया के काम को बाधित कर उसे नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसा होने से पहले ही उन्हें कलीसिया से बाहर कर देना चाहिए। चौथा, गैर-विश्वासी कलीसिया में अपना गिरोह और गुट बना लेते हैं। ऐसी संभावना रहती है कि वे कलीसिया के भीतर मसीह-विरोधी गुट में शामिल होकर एक दुष्ट ताकत खड़ी कर लें, जो कलीसिया के काम के लिए एक बड़ा खतरा बन जाए। इन चार बातों को देखते हुए, यह जरूरी है कि कलीसिया में घुसपैठ करने वाले गैर-विश्वासियों को पहचानकर उन्हें उजागर किया जाए और उन्हें निकाल दिया जाए। कलीसिया के काम को सामान्य ढंग से चलाते रहने का और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की उस दौरान रक्षा करने का यही एकमात्र प्रभावी तरीका है, जब वे सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन खाते और पीते हैं, सामान्य कलीसियाई जीवन जीते हैं, ताकि वे परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर चल सकें। यह इसलिए करना है क्योंकि इन गैर-विश्वासियों की कलीसिया में घुसपैठ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए बहुत ही हानिकारक होती है। बहुत से लोग उन्हें पहचान नहीं पाते और उन्हें भाई-बहन मानते हैं। कुछ लोग तो उनकी प्रतिभा और क्षमता देखकर उन्हें अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के लिए भी चुन लेते हैं। कलीसिया में नकली अगुआ और मसीह-विरोधी इसी ढंग से पनपते हैं। उनका सार देखकर समझा जा सकता है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, वे नहीं मानते कि उसके वचन सत्य हैं, न ही वे यह मानते हैं कि वह हर चीज पर शासन करता है। उन्हें परमेश्वर के दर्शन-मात्र में आस्था नहीं होती। परमेश्वर ऐसे लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता, न ही पवित्र आत्मा उन पर कार्य करता है। तो उनके सार को देखते हुए, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा, यकीनन वे उसके द्वारा पूर्वनियत किए या चुने नहीं गए हैं। परमेश्वर उन्हें कभी नहीं बचाएगा। कोई उन्हें कैसे भी देखे, इन लोगों को कलीसिया में नहीं रहने देना चाहिए। उन्हें तुरंत और सटीक रूप से पहचानकर उनके साथ उसी ढंग से पेश आना चाहिए। उन्हें कलीसिया में रहने और अन्य लोगों को परेशान करने मत दो" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि गैर-विश्वासियों का सार यह है कि वे परमेश्वर के होने पर विश्वास नहीं करते। परमेश्वर में विश्वास करने के उनके तमाम इरादे, लक्ष्य और प्रेरणाएँ दूषित होती हैं। कलीसिया में वे केवल अपनी निजी महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने आते हैं, उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है। वे परमेश्वर के वचनों में विश्वास नहीं करते और सत्य स्वीकार नहीं करते। जब उन्हें फायदा होता हो, तो वे थोड़ा उत्साह दिखा सकते हैं, लेकिन जैसे ही उन्हें कुछ हासिल नहीं होता या उनका आपदा से सामना होता है, वे तुरंत परमेश्वर को धोखा दे देते हैं। इन लोगों का कलीसिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, ये परमेश्वर के उद्धार के पात्र नहीं हैं और इन्हें हटाकर निकाल दिया जाना चाहिए। मैंने अपने विचार शांत किए और अपने पति के व्यवहार पर चिंतन-मनन किया। पहले, जब उन्होंने देखा कि कैसे परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मेरी बीमारी ठीक हो गई, तो उन्हें लगा कि आस्था का अभ्यास करने से व्यक्ति परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष पा सकता है, इसलिए वे विश्वासी बन गए। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उनका पुराना पीठ-दर्द ठीक हो गया, तो वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार होकर भाई-बहनों की उत्साहपूर्वक मदद करने लगे। मैंने देखा कि आस्था का अभ्यास करने के मेरे पति के इरादे शुरू से ही गलत थे। वे सिर्फ आशीष और अनुग्रह पाना चाहते थे। मेरी बर्खास्तगी के बाद उन्हें लगा कि चूँकि मैं उनसे भी अधिक उत्साही थी, और फिर भी मुझे बर्खास्त कर दिया गया, तो वे चाहे जितनी भी कोशिश कर लें, उन्हें कभी आशीष नहीं मिलेगी, इसलिए उन्होंने आगे आस्था का अभ्यास नहीं करना चाहा। बाद में, केवल इस चिंता से कि आपदाएँ आने पर उन्हें आशीष नहीं मिलेगी, वे सभाओं में शामिल हुए और अपना कर्तव्य निभाया। फिर, जब उनका भतीजा बीमार पड़ा, तो उन्होंने परमेश्वर पर उसकी रक्षा न करने का आरोप लगाया और फिर से सभाओं में जाना और कर्तव्य निभाना बंद कर दिया। अंत में, जब उन्हें सिंचन-उपयाजक के पद से बर्खास्त किया गया, तो उन्होंने आस्था का अभ्यास करना पूरी तरह से बंद कर दिया। तभी मैं जान पाई कि मेरे पति एक गैर-विश्वासी हैं, जो केवल आशीष पाने के लिए कलीसिया में आए थे। अतीत में उन्होंने कुछ अच्छे काम जरूर किए, पर वे केवल आशीष और लाभ पाने के इरादे से किए गए थे। जब उन्हें वांछित फल नहीं मिला, तो उन्होंने अपनी राय बदल दी। पहले, मुझे हमेशा यही लगा कि वे सत्य न समझने और सिर्फ अस्थायी कमजोरी अनुभव करने के कारण सभाओं में नहीं जाते और अपना कर्तव्य नहीं निभाते। लेकिन परमेश्वर के वचनों की रोशनी में उन्हें समझने पर मैंने स्पष्ट देखा कि ऐसा नहीं है कि वे सत्य नहीं समझते, बल्कि वे प्रकृति से ही सत्य से ऊबे हुए हैं। इसलिए, चाहे मैं उनके साथ कैसे भी संगति करूँ, वे कभी सत्य नहीं स्वीकारेंगे। वे वास्तव में गैर-विश्वासी थे। यह सब महसूस कर मैंने अपने पति के अविश्वासी सार की कुछ समझ हासिल की और दिल से स्वीकार लिया कि कलीसिया द्वारा उन्हें निकाला जाना सही है।
उस समय, अपने पति के बारे में थोड़ी समझ होने के बावजूद, मुझे चिंता थी कि अगर मैंने उन्हें उजागर कर उनके अविश्वासी व्यवहार के बारे में बता दिया, तो वे मुझसे नफरत कर कहेंगे कि मुझे हमारी शादी की कोई परवाह नहीं है। क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं एक विश्वासघाती गद्दार हूँ? खासकर जब मैंने देखा कि पूरे दिन काम करने के बाद वे कितने ज्यादा थके हुए हैं, तो मुझे विशेष रूप से चिंता हुई : अगर मेरे पति को हटा दिया गया, तो आपदाएँ आने पर यकीनन उन्हें परमेश्वर की सुरक्षा नहीं मिलेगी। यह एहसास होने पर मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने चाहा कि काश, कोई ऐसा तरीका हो, जिससे मैं उन्हें निकाले जाने से रोक पाऊँ। बाद में, मैंने पाया कि उन्होंने अपने फोन पर परमेश्वर के वचन पढ़े हैं, इसलिए, जब मेरे अगुआ ने मुझसे उनके अविश्वासी व्यवहार के बारे में बताने को कहा, तो मैंने तुरंत यह कहकर उनका बचाव किया कि वे अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और फिर मैंने अगुआ को उनके फोन से सबूत भी दिखाए। पति के प्रति अपनी भावनाओं के कारण उनका बचाव करते देख अगुआ ने मुझे परमेश्वर के ये वचन पढ़कर सुनाए : "सार में, भावनाएँ क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ कई शब्दों का उपयोग करके वर्णित की जा सकती हैं : पक्षपात, अत्यधिक रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, भेदभाव; ये ही हैं भावनाएँ। लोगों में भावनाएँ होने और उनके उन भावनाओं के अनुसार जीने के क्या परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की भावनाओं से सबसे अधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग, जो हमेशा अपनी भावनाओं से शासित होते हैं, सत्य को अमल में नहीं ला पाते, हालाँकि वे परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहते हैं, पर कर नहीं पाते। इसलिए वे भावनात्मक रूप से पीड़ित रहते हैं। और बहुत-से लोग हैं, जो सत्य समझते तो हैं पर उसे अमल में नहीं ला पाते। यह भी इसीलिए होता है, क्योंकि वे भावनाओं से शासित होते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य की वास्तविकता क्या है?)। "भावनाओं से संबंधित कौन-से मुद्दे हैं? एक तो यह है कि तुम अपने परिवार का मूल्यांकन कैसे करते हो, तुम उनके द्वारा किए जाने वाले कामों पर कैसी प्रतिक्रिया देते हो। 'उनके द्वारा किए जाने वाले कामों' में शामिल हैं उनका कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त और बाधित करना, लोगों की पीठ पीछे उनकी आलोचना करना, गैर-विश्वासियों वाले काम करना, इत्यादि। क्या तुम अपने परिवार द्वारा की जाने वाली इन चीजों के प्रति निष्पक्ष हो सकते हो? अगर तुम्हें लिखित रूप में तुम्हारे परिवार का मूल्यांकन करने के लिए कहा जाए, तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर तटस्थ और निष्पक्ष रूप से ऐसा करोगे? यह इससे संबंधित है कि तुम्हें परिवार के सदस्यों का सामना कैसे करना चाहिए। और क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जिनके साथ तुम उठते-बैठते हो या जिन्होंने पहले कभी तुम्हारी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति तटस्थ, निष्पक्ष और सटीक होगे? क्या तुम उन्हें कलीसिया के काम को बाधित और अवरुद्ध करते पाकर तुरंत उनकी रिपोर्ट करोगे या उन्हें उजागर करोगे? इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जो तुम्हारे करीब हैं या जिनके हित समान हैं? क्या उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति तुम्हारा मूल्यांकन, परिभाषा और प्रतिक्रिया निष्पक्ष और तटस्थ होगी? और अगर सिद्धांत के तकाजे से कलीसिया तुमसे भावनात्मक रूप से संबंधित किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई कदम उठाए और वे कदम तुम्हारी धारणाओं के विपरीत हों, तो तुम कैसे प्रतिक्रिया करोगे? क्या तुम आज्ञापालन करोगे? क्या तुम उनके साथ गुप्त रूप से संपर्क बनाए रखोगे, क्या तुम अभी भी उनके द्वारा फुसलाए जाते रहोगे, क्या तुम अभी भी उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए तैयार हो जाओगे?" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद अगुआ ने यह कहते हुए संगति की : "कलीसिया सभी प्रकार के मसीह-विरोधियों, दुष्ट लोगों और गैर-विश्वासियों को इसलिए हटाती है, ताकि कलीसिया को शुद्ध कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बेहतर कलीसियाई जीवन जीने, निर्बाध रूप से सभाओं में जाने और अपने कर्तव्य निभाने दिया जा सके। कलीसिया-अगुआ के रूप में तुम्हें सत्य के सिद्धांत बनाए रखकर अपनी भावनाओं को अपनी कथनी और करनी पर हावी नहीं होने देना चाहिए। अगर आज हम किसी ऐसे व्यक्ति को हटा रहे होते जो तुमसे संबंधित नहीं है, तो क्या फिर भी तुम उसकी तरफ से दलील देती? क्या तुम उसके व्यवहार की जानकारी तुरंत नहीं दे देती? भावनाओं को अपनी कथनी और करनी पर हावी होने देकर क्या तुम वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष हो सकती हो? सत्य से तंग आकर उसे नकारना तुम्हारे पति की प्रकृति है। वे सिर्फ आशीष पाने के साधन के रूप में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और वास्तव में एक गैर-विश्वासी हैं। अगर उन्हें कलीसिया में रहने दिया गया, तो भी वे सत्य नहीं खोजेंगे और परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जाएँगे। अगर हम अपनी भावनाओं के आधार पर कार्य करें और कलीसिया का कार्य बनाए रखने के सिद्धांत कायम न रखें, तो हम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो जाते हैं। अगर यह व्यवहार सुधारा नहीं जाता, तो परमेश्वर हमसे घृणा करता है और हम पवित्र आत्मा का कार्य खो देते हैं। हम भावनाओं को अपनी कथनी पर हावी नहीं होने दे सकते, हमें सत्य के पक्ष में खड़े होकर लोगों का निष्पक्ष और उचित मूल्यांकन करना चाहिए। परमेश्वर धार्मिक है और परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है। अच्छे लोगों के साथ अन्याय नहीं किया जाएगा और गैर-विश्वासियों और कुकर्मियों को यकीनन कलीसिया में रहने नहीं दिया जाएगा।"
जब अगुआ ने मेरे साथ यह संगति साझा की, तो मैं अपने दिल में जान गई कि उसने जो उजागर किया है, वह तथ्य और मेरी असली हालत है। अगर मुझसे ऐसे व्यक्ति के बारे में बताने को कहा जाता. जिसका मुझसे कोई संबंध नहीं, तो मैं बेझिझक बता देती, ताकि हर कोई समझ हासिल कर सके। लेकिन अपनी भावनाओं के कारण, यह स्पष्ट जानने के बावजूद कि मेरे पति को एक गैर-विश्वासी के रूप में उजागर किया गया है, मैंने उनका बचाव किया और उनकी ओर से बहस करने के तरीके ढूँढ़े, इस उम्मीद में कि अगुआ अपवाद के रूप में उन्हें कलीसिया में रहने देगी। क्या मैं परमेश्वर के विरोध में काम नहीं कर रही थी और कलीसिया के काम में बाधा नहीं डाल रही थी? मेरे भावनात्मक संबंध बहुत मजबूत थे। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपनी भावनाओं को अपने कर्मों पर हावी होने देने के मूल कारण की समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, जहाँ तक तुम बता सकते हो, वह कुकर्मी नहीं है, और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवत: तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बँधे रहते हो, और तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम भावनाओं को बहुत अधिक महत्व देते हो, और यह तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकता है। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवी निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? यह सोचने का एक तरीका है, जो तुम्हें बचपन से ही तुम्हारे परिवार द्वारा दिया गया है, जिसे तुम्हें तुम्हारे माता-पिता द्वारा सिखाया गया है और जिसे परंपरागत संस्कृति द्वारा तुममें भरा गया है। यह तुम्हारे दिलों में बहुत गहराई से जड़ जमाए है, जिसके कारण तुम गलती से यह मान लेते हो कि मातृ-पितृ-भक्ति स्वर्ग द्वारा निर्धारित है और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत है, कि यह ऐसी चीज है जो तुम्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है और हमेशा एक अच्छी चीज है। पहले तुमने इसे सीखा और तब से यह तुम पर हावी है, तुम्हारी आस्था और सत्य की स्वीकृति में एक बड़ी बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही है, जिससे तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में, और जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करने और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करने में असमर्थ हो गए हो। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का उपयोग तुम्हारे विचार, दिल और दिमाग बाँधने के लिए करता है, जिससे तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो जाते हो; तुम शैतान की इन चीजों से ग्रस्त हो गए हो, और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो गए हो। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना भी चाहते हो, तो ये चीजें तुम्हारे भीतर उथल-पुथल मचा देती हैं, और तुमसे सत्य का और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करवाती हैं, और तुम्हें परंपरागत संस्कृति के इस जुए से खुद को छुड़ाने में असमर्थ बना देती हैं। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता करने पर मजबूर हो जाते हो : तुम यह मानना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही और सत्य के अनुरूप हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचनों को नकार या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और बचाए जाने को तुच्छ समझते हो, और महसूस करते हो कि तुम अभी भी इस दुनिया में रहते हो, केवल इन लोगों पर निर्भर रहकर ही जी सकते हो। समाज के आरोप सहन करने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों को छोड़ना पसंद करोगे, नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के आगे आत्मसमर्पण कर परमेश्वर को ठेस पहुँचाना और सत्य का अभ्यास न करना पसंद करोगे। क्या मनुष्य दयनीय नहीं है? क्या उसे परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैंने जाना कि भावनात्मक लगाव के कारण अपने पति को प्रश्रय देने और उनकी रक्षा करने का कारण यह था कि मैं परंपरागत धारणाओं से बँधी थी। मैं "विवाह एक गहन और प्रगाढ़ बंधन है" और "मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?" जैसे विचारों पर डटी थी। मुझे लगता था कि भावनात्मक बंधनों और वफादारी से रहित लोगों में जमीर नहीं होता। इन शैतानी विचारों से गुमराह होकर मुझे लगा कि कलीसिया के कहने पर अपने पति के अविश्वासी व्यवहार की जानकारी देकर मैं अपने विवाह-बंधन को धोखा दूँगी। मैं यह सोचकर अपने जमीर के खिलाफ नहीं जा सकी, कि बतौर पत्नी मुझे उनके प्रति वफादार रहना चाहिए, उनकी रक्षा करनी चाहिए और उनकी ओर से बोलना चाहिए। इसलिए मैंने अगुआ के सामने उनका बचाव करने की कोशिश की। मैं इन परंपरागत धारणाओं और शैतानी विषों से गहराई से बँधी थी। इस परंपरागत संस्कृति और जीवन के शैतानी फलसफे ने मेरी सोच पर काबू कर लिया, मेरे विचार उलझा दिए, मुझे सही-गलत, अच्छाई-बुराई में भेद करने से रोक दिया, जिससे मेरी सिद्धांत की भावना खो गई और मैं अपने पति को बचाने और प्रश्रय देने के लिए परमेश्वर का विरोध करने को तैयार हो गई। मेरे दिल पर भावनाओं का धुंधलका छा गया था। परमेश्वर चाहता है कि जिससे वह प्रेम करता है, हम उससे प्रेम करें और जिससे वह घृणा करता है, उससे घृणा करें। परमेश्वर उनसे प्रेम करता और बचाता है, जो सत्य खोजकर उसका अभ्यास करते हैं। जहाँ तक मेरे पति जैसे सत्य से तंग आए लोगों की बात है, परमेश्वर उन्हें गैर-विश्वासी मानता है। वह ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करता और उन्हें कभी नहीं बचाएगा। अगर मैं अपनी भावनाओं के आगे झुककर अपने पति को कलीसिया में रहने भी दूँ, तो भी वे सत्य की तलाश नहीं करेंगे और उनका स्वभाव नहीं बदलेगा। जब चीजें उनके अनुकूल नहीं होंगी, वे परमेश्वर को दोष देकर उसे धोखा दे देंगे। अगर उन्हें समय रहते कलीसिया से नहीं हटाया गया, तो वे कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त कर देंगे। यह महसूस कर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और दैहिक इच्छाओं को त्यागने, सत्य का अभ्यास करने और अपने पति के अविश्वासी व्यवहार की पूरी जानकारी देने को तैयार हो गई।
इसके बाद, मैंने अपने पति के तमाम अविश्वासी व्यवहार लिख दिए। लिखते हुए मैं थोड़ा हिचकिचा रही थी, और इस चिंता से पीछे हटना चाहती थी कि अगर मैंने सब-कुछ उजागर कर दिया, तो वे और जल्दी हटा दिए जाएँगे, लेकिन फिर परमेश्वर के वचनों पर विचार कर और यह समझकर कि परमेश्वर मुझे देख रहा है, मैं जान गई कि मैं लोगों को मूर्ख बना सकती हूँ, लेकिन परमेश्वर को नहीं। इसलिए मैंने अपनी इच्छाओं को त्यागकर वह सब लिख दिया, जो मैं जानती थी। परमेश्वर के वचनों के अनुरूप अभ्यास करके मुझे शांति और सुकून महसूस हुआ। अपने पति के व्यवहार के मूल्यांकन एकत्र करने के बाद मैंने उन्हें अगली सभा में सबको पढ़कर सुनाया, और उनसे राय देने के लिए कहा कि क्या उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। यह देख मुझे हैरत हुई कि कुछ भाई-बहन सहमत नहीं हुए। उन्होंने कहा कि वे पहले अक्सर हमारी मदद करते थे और गैर-विश्वासी जैसे नहीं लगते थे। भाई-बहनों को यह कहते सुनकर मुझे याद आया कि मेरे पति पहले वास्तव में बहुत उत्साह से खुद को खपाकर भाई-बहनों की मदद किया करते थे। मैंने सोचा : "क्या उन्हें एक और मौका दिया जाना चाहिए? शायद मैं उनके साथ संगति कर पाऊँ और उन्हें इतनी जल्दी हटना न पड़े।" तभी मुझे लगा कि मैं एक बार फिर अपने पति को प्रश्रय देने की कोशिश कर रही हूँ। ऐसा नहीं था कि कलीसिया ने उन्हें मौका नहीं दिया था, बल्कि वे ही अपने जीवन में परमेश्वर को नहीं चाहते थे और उन्होंने स्वेच्छा से अपनी आस्था छोड़ी थी। ऐसे में कितनी भी संगति की जाए, व्यर्थ ही होगी। उनका सार एक गैर-विश्वासी का था और गैर-विश्वासी कभी पश्चात्ताप नहीं करते। परमेश्वर गैर-विश्वासियों को नहीं बचाता। अगर मैंने अब भी उन पर दया और प्रेम दिखाया, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, जो कहते हैं : "यदि कलीसिया में ऐसा कोई भी नहीं है जो सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो, और परमेश्वर की गवाही दे सकता हो, तो उस कलीसिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए और अन्य कलीसियाओं के साथ उसके संबंध समाप्त कर दिये जाने चाहिए। इसे 'मृत्यु दफ़्न करना' कहते हैं; इसी का अर्थ है शैतान को ठुकराना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि कैसे उसके धार्मिक स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती। मैं जान गई कि भाई-बहन मेरे पति का बचाव इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वे उन्हें पहचानते नहीं। अगर मैंने उन्हें प्रश्रय दिया और सत्य का अभ्यास नहीं किया, तो मैं जानबूझकर पाप करूँगी और परमेश्वर से विद्रोह कर उसका विरोध करूँगी। खासकर एक कलीसिया-अगुआ होने पर भी अगर मैं कलीसिया का कार्य बनाए रखने के लिए सत्य के अभ्यास की अगुआई नहीं करती, और एक गैर-विश्वासी को कलीसिया में रहने की अनुमति देकर शैतान के साथ खड़ी होती हूँ, तो मुमकिन है कि परमेश्वर मुझसे घृणा करे और मैं पवित्र आत्मा का कार्य खो दूँ। ऐसे में मैं खुद को ही नहीं, भाई-बहनों को भी नुकसान पहुँचाऊँगी। मैं शैतान की भयावह साजिश में नहीं फँस सकती, मुझे भाई-बहनों के साथ संगति करनी होगी, ताकि उन्हें समझ हासिल करने में मदद मिल सके। यह मेरी जिम्मेदारी है। इसलिए, मैंने परमेश्वर के वचनों के संदर्भ में अपने पति के गैर-विश्वासी व्यवहार पर संगति की। संगति के बाद उन्होंने मेरे पति के बारे में कुछ समझ हासिल कर ली और वे उन्हें निकालने की सहमति के तौर पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो गए। इस तरह अभ्यास करके मुझे बहुत सुकून मिला।
इस अनुभव से गुजरने के बाद मुझे अपनी भावनाओं को अपने व्यवहार पर हावी होने देने का मूल कारण समझ आया। मैंने जाना कि अपनी भावनाओं के अनुसार कार्य करना परमेश्वर के विरोध में खड़े होना और उसका प्रतिरोध करना है। आगे से, मैं अपनी भावनाओं को अपने व्यवहार पर हावी नहीं होने दूँगी। समस्याएँ सामने आने पर मैं सत्य की खोज करूँगी, सत्य के अनुसार अभ्यास करूँगी, और सत्य की खोज के मार्ग पर चलूँगी। परमेश्वर का धन्यवाद!
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